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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम धर्म की साधना पीछे     आगे

(अलामेडा, कैलिफ़ोर्निया में १८ अप्रेल, १९०० ई. को दिया हुआ भाषण)

हम बहुत सी पुस्‍तकें, बहुत से धर्मशास्‍त्र पढ़ते हैं। हम अपने बचपन में विभिन्‍न विचार पाते हैं और उन्‍हें प्राय: जब-तब बदलते रहते हैं। हम जानते हैं कि सैद्धांतिक धर्म का अर्थ क्‍या है। हम समझते हैं कि हम व्‍यावहारिक धर्म का अर्थ जानते हैं। व्‍यावहारिक धर्म के विषय में अपने विचारों को अब तुम्‍हारे सामने रखूँगा।

हम अपने चारों ओर व्‍यावहारिक धर्म की जो बात सुनते हैं, उन सबका विश्‍लेषण करके हम पाते हैं कि उसका सार यह भाव माना जा सकता है--अपने साथी जीवों के प्रति प्रेम। क्‍या संपूर्ण धर्म यही है? हम इस देश में नित्‍य व्‍यावहारिक ईसाई धर्म के प्रसंग में सुनते हैं-अमुक मनुष्‍य ने अपने साथी जीवों के प्रति कुछ शुभ किया है। क्‍या यही सब कुछ है?

जीवन का उद्देश्‍य क्‍या है? क्‍या यह संसार जीवन का ध्‍येय है? इससे अधिक कुछ नहीं? क्‍या हमें केवल यही होना है, जो हम हैं, अधिक कुछ नहीं? क्‍या मनुष्‍य को एक ऐसी मशीन बनाना है, जो कहीं अटके बिना सफ़ाई से चलती रहे? आज जो सारी यातनाएँ उसे मिलती हैं, उतना ही उसे मिलना है, और क्‍या वह उससे अधिक और कुछ नहीं चाहता?....

बहुत से धर्मों का उच्‍चतम स्‍वप्‍न यह संसार है...मनुष्‍यों की अधिकांश संख्‍या उस समय के स्‍वप्‍न देख रही है, जब किसी प्रकार की बीमारी, रोग, दरिद्रता अथवा दु:ख शेष न रहेगा। सारे समय चैन की बंशी ही बजती रहेगी। इसलिए व्‍यावहारिक धर्म का सीधा अर्थ होता है: 'सड़कें साफ़ करो! संसार को बढि़या बनाओ!' हम देखते हैं कि सबको इसमें कितना आनंद आता है।

क्‍या इंद्रियग्रस्त-सुख-भोग ही जीवन का ध्‍येय है? यदि ऐसा है, तो मनुष्‍य शरीर प्राप्‍त करना ही एक बड़ी भयंकर भूल है। क्‍या कोई मनुष्‍य भोजन करने में उतना मज़ा ले सकता है, जितना कुत्‍ता या बिल्‍ली? अजाएबघर में जाओ और (जंगली पशुओं को) हड्डी पर से मांस नोचते हुए देखो। पीछे लौटो और पक्षी बन जाओ! ...तब मनुष्‍य बनने में बड़ी भूल है! मेरे ये वर्ष-सैकड़ों वर्ष-जिनमें मैंने केवल इंद्रियग्रस्त लोलुप मनुष्‍य बनने के लिए संघर्ष किया है, व्‍यर्थ गए हैं।

इसलिए, व्‍यावहारिक धर्म के साधारण सिद्धांत पर ध्‍यान दो, वह हमें कहाँ ले जाता है। प्रेम महान है, पर जिस समय तुम कहते हो कि वह सब कुछ है, उस समय तुम भौतिकवाद की ओर सरकने के ख़तरे में पड़ जाते हो। यह धर्म नहीं है। यह नास्तिकता से बुरा नहीं है, उससे ज़रा कम ही सही।...तुम ईसाईयों, क्‍या तुमने बाइबिल में अपने साथी जीवों के लिए काम करने,...अस्‍पताल बनाने के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं पाया है?... यह एक दुकानदार है, जो कहता है कि ईसा ने दुकान कैसे चलायी होती! ईसा ने न सैलून चलाया होता, न दुकान, न उन्‍होंने किसी पत्र का संपादन किया होता। इस प्रकार का व्‍यावहारिक धर्म अच्‍छा है, बुरा नहीं; पर यह धर्म 'शिशुशाला' वाला धर्म है। यह हमें कहीं नहीं पहुँचाता।...यदि तुम ईश्‍वर में विश्‍वास करते हो, यदि तुम ईसाई हो और नित्‍य जपते हो, "तेरी इच्‍छा पूर्ण हो", तो तनिक सोचो कि इसका अर्थ क्‍या होता है! तुम प्रत्‍येक क्षण कहते हो, "तेरी इच्‍छा पूर्ण हो," पर तुम्‍हारा वास्‍तविक मंतव्य होता है, "हे ईश्‍वर, मेरी इच्‍छा तेरे द्वारा पूर्ण हो।" असीम भगवान अपनी योजना के अनुसार कार्य कर रहा है। उसने भी ग़लतियाँ की हैं, और तुम तथा मैं उसकी ग़लतियों को सुधारने जा रहे हैं! ब्रह्मांड के विधाता को बढ़ई शिक्षा देंगे! उसने संसार को गंदा छोड़ दिया है, और तुम उसे एक सुंदर स्‍थल बनाने जा रहे हो!

इस सबका उद्देश्‍य क्‍या है? क्‍या कभी इंद्रियां लक्ष्‍य हो सकती हैं? क्‍या कभी सुखोपभोग इसका लक्ष्‍य हो सकता है? क्‍या कभी यह जीवन आत्‍मा का लक्ष्‍य हो सकता है? यदि ऐसा है तो इसी क्षण मर जाना अच्‍छा है; इस जीवन का मोह त्‍यागो! यदि मनुष्‍य का भाग्‍य यही है कि वह केवल एक पूर्ण मशीन बनने जा रहा है, तो इसका अर्थ बस यह होगा कि हम वृक्ष, और पत्‍थर तथा इसी प्रकार की अन्‍य वस्‍तुएँ बनने के लिए पीछे लौटें। क्‍या तुमने कभी गाय को झूठ बोलते सुना है, अथवा वृक्ष को चोरी करते देखा है? वे पूर्ण मशीनें हैं। वे भूल नहीं करते। वे ऐसे संसार में रहते हैं, जहाँ सब कुछ पूर्ण है।....

यदि यह व्‍यावहारिक (धर्म) नहीं हो सकता-और यह निश्‍चय ही नहीं हो सकता-तो धर्म का आदर्श क्‍या है? हम यहाँ किसलिए आए हैं? हम यहाँ मुक्ति के लिए, ज्ञान के लिए आए हैं। हम अपने को मुक्‍त करने के लिए ज्ञान प्राप्‍त करना चाहते हैं। हमारा जीवन है मुक्ति के लिए एक विश्‍वव्‍याप्‍त चीत्‍कार। क्‍या कारण है कि पौधा बीज से उगता है, धरती को चीरता है और अपने को आकाश में उठाता है? सूर्य पृथ्‍वी को क्‍या भेंट देता है? तुम्‍हारा जीवन क्‍या है? मुक्ति के लिए वही संघर्ष। प्रकृति चारों ओर हमें दमित करने का प्रयत्‍न कर रही है और आत्‍मा अपने को अभिव्‍यक्‍त करना चाहती है। प्रकृति के साथ संघर्ष चल रहा है। मुक्ति के लिए इस संघर्ष में बहुत सी वस्‍तुएँ कुचल जाएंगी और टूट जाएंगी। यही तुम्‍हारा वास्‍तविक दु:ख है। युद्धक्षेऋ में बहुत सी धूल और गर्द उठेगी। प्रकृति कहती है, "मैं विजयी होऊँगी।" आत्‍मा कहती है, "विजयी मुझे होना है।" प्रकृति कहती है, "ठहरो! मैं तुम्‍हें चुप रखने के लिए थोड़ा सुखभोग दूँगी।" आत्‍मा को थोड़ा मज़ा आता है, क्षण भर के लिए वह धोखे में पड़ जाती है, पर दूसरे ही क्षण्‍ वह फिर (मुक्ति के लिए चीत्‍कार कर उठती है)। क्‍या तुमने युगों से प्रत्‍येक ह्रदय में उठते इस अविराम चीत्‍कार की ओर ध्‍यान दिया है? हम दरिद्रता से धोखा खाते हैं। हम धनवान बनते हैं और धन से धोखा खाते हैं। हम अज्ञानी हैं। हम पढ़ते और जानते हैं, और ज्ञान से धोखा खाते हैं। कोई मनुष्य कभी संतुष्ट नहीं होता। यही दु:ख का कारण है, पर यही सब सुखों का कारण भी है। यह एक विश्‍वसनीय संकेत है। तुम इस संसार से किस प्रकार संतुष्‍ट हो सकते हो?...यदि कल यह संसार स्‍वर्ग हो जाए, तो हम कहेंगे, "इसे दूर करो। हमें कुछ और दो।"

अनंत मानवात्‍मा स्‍वयं अनंत के अतिरिक्‍त और किसी वस्‍तु से कभी संतुष्‍ट नहीं हो सकती।...अनंत इच्‍छा केवल अनंत ज्ञान से संतुष्‍ट हो सकती है-उससे कम से नहीं। संसार आयेंगे और चले जाएंगे। उससे क्‍या? आत्‍मा रहती है और सदा विस्‍तार को प्राइज़ होती है। संसारों को आत्‍मा में आना होगा। संसारों को आत्‍मा में, समुद्र में बूँद की भाँति विलीन हो जाना होगा। और ऐसा यह संसार जीवात्‍मा का लक्ष्‍य बने! यदि हममें सामान्‍य बुद्धि हो, तो हम इससे संतुष्‍ट नहीं हो सकते, यद्यपि संतोष सभी युगों में कवियों का विषय रहा है, वे सदा हमें संतुष्ट रहने को कहते रहे हैं। पर अभी तक कोई मनुष्‍य संतुष्‍ट नहीं हुआ है! करोड़ों पैग़ंबरों ने हमसे कहा है, "अपने भाग्‍य से संतुष्‍ट रहो"; कवि यही गाते हैं। हमने भी अपने से शांत और संतुष्‍ट रहने के लिए कहा है, फिर भी हम संतुष्‍ट नहीं हैं। यह अनादि की योजना है कि इस संसार में, ऊपर स्‍वर्ग में, नीचे पाताल में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे मेरी आत्‍मा को संतोष प्राप्‍त हो। मेरी आत्‍मा की भूख के सामने ये तारे और ये संसार, ऊपर और नीचे के, समस्‍त ब्रह्मांड, एक घृणास्‍पद व्‍याधि मात्र हैं, उसके अतिरिक्‍त और कुछ नहीं। असली अर्थ यह है। यदि अर्थ यह नहीं है, तो प्रत्‍येक वस्‍तु एक बुराई है। यदि अर्थ यह नहीं है, तो प्रत्‍येक इच्‍छा, जब तक तुम उसके वास्‍तविक महत्‍व को, इसके लक्ष्‍य को नहीं समझते, बुराई है। संपूर्ण प्रकृति अपने समस्‍त परमाणुओं के द्वारा एक वस्‍तु के लिए चीत्‍कार कर रही है: और वह है, उसकी पूर्ण मुक्ति।

तब, व्‍यावहारिक धर्म क्‍या है? उस अवस्‍था-मुक्ति तक पहुँचना, मुक्ति को प्राप्‍त करना। और यह संसार, यदि यह हमें उस लक्ष्‍य की प्राप्ति में सहायता देता है तो, ठीक है; यदि नहीं-यदि यह पहले से उपस्थित बंधनों की हज़ारों तहों के ऊपर एक नयी तह चढ़ाने लगता है, तो यह हानिकारी हो जाता है। संपत्ति, विद्या, सौंदर्य, इनके अतिरिक्‍त और सभी कुछ-जब तक हमें इस ल्‍क्ष्‍य की ओर बढ़ने में सहायता देते हैं, तब तक उनका व्‍यावहारिक मूल्‍य है। पर जब वे हमें मुक्ति के इस लक्ष्‍य को प्राप्‍त करने में सहायता देना बंद कर देते हैं, तो निश्चित रूप से ख़तरनाक बन जाते हैं। तब, व्‍यावहारिक धर्म क्‍या है?इस लोक और परलोक की, सब वस्‍तुओं को एक लक्ष्‍य-मुक्ति-की प्राप्ति के लिए प्रयोग करो। प्रत्‍येक सुख-भोग, आमोद की एक एक रत्‍ती का मूल्‍य अनंत ह्रदय और मस्तिष्‍क के सम्मिलित व्‍यय द्वारा चुकाया जाता है।

इस संसार में शुभ और अशुभ की समष्टि को देखो। क्‍या वह बदला? युग बीते हैं और व्‍यावहारिक धर्म युगों से कार्य करता रहा है। संसार ने सोचा कि प्रत्‍येक बार इस समस्‍या का समाधान हो जाएगा ..पर समस्‍या सदा वैसी ही रही है। बहुत हुआ, तो उसका रूप बदल गया...वह बीस हज़ार दुकानों के लिए यक्ष्‍मा और स्‍नायुरोगों को बेचती है...वह पुरानी गठिया के समान है: उसे एक स्‍थान से भगाओ, तो दूसरी जगह उभर आती है। सौ वर्ष पहले मनुष्‍य पैदल चलता था अथवा घोड़े ख़रीदता था। अब वह सुखी है, क्‍योंकि रेल की सवारी करता है; पर वह दु:खी है, क्‍योंकि उसे अधिक काम करना पड़ता है और अधिक कमाना पड़ता है। ऐसी प्रत्‍येक मशीन, जो परिश्रम बचाती है, अधिक परिश्रम करवाती है।

यह विश्‍व, प्रकृति, अथवा इसे तुम जो कुछ भी कहो, सीमित होना चाहिए; यह असीम नहीं हो सकता। परम ब्रह्म, निरपेक्ष को प्रकृति बनने के लिए देशकाल-निमित्‍त से सीमित होना पड़ेगा। (हमारे पास) ऊर्जा सीमित है। यदि तुम उसे एक स्‍थान पर व्‍यय करते हो, तो दूसरे स्‍थान पर उसका अभाव होगा। संपूर्ण योग सदा वही रहता है। जब तरंग एक स्‍थान पर उठती है, तो दूसरे स्‍थान पर गर्त पड़ जाता है। यदि एक राष्‍ट्र धनवान बनता है, तो दूसरे कंगाल हो जाते हैं। शुभ अशुभ को संतुलित करता है। जो मनुष्‍य इस क्षण तरंग के शिखर पर है, वह सोचता है कि सब भला है; और गर्त के तले में स्थित व्‍यक्ति कहता है कि संसार है (सब अशुभ)। किंतु अलग खड़ा होनेवाला व्यक्ति इस‍ दिव्‍य लीला को देखता रहता है। कुछ रोते हैं और दूसरे हँसते हैं। अपनी बारी आने पर ये रोयेंगे और दूसरे हँसेंगे। हम कर क्‍या सकते हैं? हम जानते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते। ...

हममें से कितने लोग शुभ करने के उद्देश्‍य से काम करते हैं? कितने कम! वे अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं। हममें से शेष भी शुभ करते हैं, पर इसलिए कि उन्‍हें करना पड़ता है।... हम रुक नहीं सकते। एक स्‍थान से दूसरे स्‍थान में धक्‍के खाते हम आगे बढ़ते हैं। हम विवश हैं। संसार सदा वही रहेगा, पृथ्‍वी सदा वही रहेगी। वह नीली से कत्‍थई होगी और कत्‍थई से नीली। एक भाषा दूसरी में बदल जाती है, एक प्रकार की बुराइयाँ दूसरे प्रकार की बुराइयों में परिवर्तित हो जाती हैं-यही है, जो हो रहा है। एक उसे छ: कहता है, दूसरा आधा दर्जन। अमेरिकी आदिवासी वन में आध्‍यात्मिकता के ऊपर उस प्रकार भाषण नहीं सुन सकता, जिस प्रकार तुम सुनते हो, वह अपना भोजन पचा सकता है। तुम उसके टुकड़े कर देते हो, और वह दूसरे क्षण चंगा हो जाता है। किंतु यदि हमारे खरोंच भी लग जाती है, तो तुमको और हमें छ: महीने के लिए अस्‍पताल जाना पड़ता है।

प्राणी जितना निम्‍न श्रेणी का होता है, उसका इंद्रियग्रस्त -सुख उतना ही अधिक होता है। निम्‍नतम प्राइज़ पर और स्‍पर्श की शक्ति पर विचार करो। वहाँ सब कुछ स्‍पर्श है।... पर जब तुम मनुष्‍य तक पहुँचते हो, तो तुम पाते हो कि सभ्यता जितनी नीची होती है, इंद्रियों की शक्ति उतनी अधिक होती है।...जीव जितना ऊँचा होता है, इंद्रियग्रस्त -सुख का आकर्षण उतना ही कम होता है। कुत्‍ता भोजन खा सकता है, पर तत्‍व दर्शन पर विचार करने के अद्भुत आनंद को नहीं समझ सकता। तुम बुद्धि द्वारा जिस अनूठे आनंद को प्राप्‍त करते हो, वह उससे वंचित रहता है। इंद्रियग्रस्त -सुख बड़ी वस्‍तु है। पर उससे भी बड़ी वस्‍तु वह सुख है, जो बुद्धि से प्राप्‍त होता है। जब तुम पेरिस में पचास व्‍यंजनों का बढि़या खाना खाते हो, तो उसमें निश्‍चय ही मज़ा आता है। पर वेधशाला में, नक्षत्रों को ताकना,... सौर जगत् को आते और विकसित होते हुए देखना-ज़रा सोचो तो! यह उससे भी बड़ा आनंद होना चाहिए, क्‍योंकि मैं जानता हूँ कि तब तुम भोजन को बिल्‍कुल भूल जाते हो। इस आनंद को उस सुख से बड़ा होना चाहिए, जिसे तुम सांसारिक वस्‍तुओं से प्राप्‍त करते हो। तुम पत्नियों, बच्‍चों, पतियों और सभी कुछ के विषय में सब कुछ भूल जाते हो; तुम इंद्रियग्रस्त -स्‍तर के विषय में सब भूल जाते हो। यह बौद्धिक आनंद है। यह सामान्‍य समझ की बात है कि इसे इंद्रियों के सुख से ऊँचा होना चाहिए। तुम सदा ऊँचे आनंद के लिए निम्‍न सुख को त्‍याग देते हो। यह है व्‍यावहारिक धर्म-मुक्ति की प्राप्ति, त्‍याग। त्‍यागो!

निम्‍न को त्‍यागो, जिससे कि तुमको उच्‍च प्राप्‍त हो सके। समाज का आधार क्‍या है? नैतिकता, सदाचार, नियम। त्‍यागो! अपने पड़ोसी की संपत्ति हथियाने की, अपने पड़ोसी पर चढ़ बैठने की सारी लालसा को, दुर्बलों को यातना देने के सारे सुख को, झूठ बोलकर दूसरों को ठगाने के सारे सुखों को त्‍यागो। क्‍या नैतिकता समाज का आधार नहीं है? विवाह व्‍यभिचार-त्‍याग के अतिरिक्‍त और क्‍या है? बर्बर विवाह नहीं करते। मनुष्‍य विवाह करता है, क्‍योंकि वह त्‍यागता है। यह क्रम इसी प्रकार चलता जाता है। त्‍यागो! त्‍यागो! बलि दो! छोड़ दो! शून्‍य के लिए नहीं। न कुछ के लिए नहीं। वरन् ऊँचा उठने के लिए। पर यह कौन कर सकता है? तुम यह उस समय तक नहीं कर सकते, जब तक कि तुम बहुत सी बातें करने का प्रयत्‍न कर सकते हो। तुम संघर्ष कर सकते हो। तुम बहुत सी बातें करने का प्रयत्‍न कर सकते हो। पर जब तुम ऊँचे उठ जाते हो, तो वैराग्‍य स्‍वयं आ जाता है। तब न्‍यूनतम स्‍वयं ही छूट जाता है।

यह व्‍यावहारिक धर्म है। नहीं तो और क्‍या? क्‍या सड़कें साफ़ करना और अस्‍पताल बनाना? उनका मूल्‍य भी इसी त्‍याग के कारण है। और त्‍याग की कोई सीमा नहीं है। कठिनाई यह है कि लोग उसे सीमाबद्ध करना चाहते हैं-यहाँ तक, पर इससे आगे नहीं। वास्‍तव में इस त्‍याग की सीमा कहीं नहीं है।

जहाँ ईश्‍वर है, वहाँ दूसरा नहीं है। जहाँ संसार है, वहाँ ईश्‍वर नहीं है। ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते। प्रकाश और अंधकार (की भाँति)। मैंने ईसाई धर्म और उसके उपदेष्‍टा के जीवन से यही समझा है। क्‍या यह बुद्ध मत नहीं है? क्‍या यह हिंदू मत नहीं है? क्‍या यह इस्‍लाम मत नहीं है? क्‍या यह सब महान संतों और गुरुओं की शिक्षा नहीं है? वह संसार क्‍या है, जिसे हमें छोड़ना है? वह यही है। मैं उसे अपने साथ लिए फिर रहा हूँ। स्‍वयं मेरा शरीर। मैं केवल इस शरीर के कारण ही जान-बुझकर अपने साथी मनुष्‍य पर हाथ डालता हूँ, केवल इसे अच्‍छा रखने के लिए, तनिक सुख देने के लिए; (केवल इस शरीर के कारण ही) मैं दूसरों को हानि पहुँचाता हूँ और ग़लतियाँ करता हूँ।...

महान पुरुषों की मृत्‍यु हुई है। दुर्बलों की मृत्‍यु हुई है। देवताओं की मृत्‍यु हुई है। मृत्‍यु-सब ओर मृत्‍यु। यह संसार अनंत अतीत का क़ब्रिस्‍तान है, फिर भी हम इस (शरीर) से चिपटे रहते हैं: "मैं कभी मरनेवाला नहीं हूँ।" हम निश्चित रूप से जानते हैं (कि शरीर को मरना होगा) और फिर भी इससे चिपटे हुए हैं। पर उसमें भी एक अर्थ है (क्‍योंकि एक अर्थ में हम नहीं मरते)। ग़लती यह है कि हम शरीर से चिपटते हैं, जब कि जो आत्‍मा है, वह वास्‍तव में अमर है।

तुम सब भौतिकवादी हो, क्‍योंकि तुम विश्‍वास करते हो कि तुम शरीर हो। यदि कोई मनुष्‍य मुझे घूँसा मारता है, तो मैं कहूँगा कि मुझे घूँसा लगा है। यदि वह मुझे पीटता है, तो मैं कहूँगा कि मैं पिटा हूँ। यदि मैं शरीर नहीं हूँ, तो ऐसा क्‍यों कहता हूँ? यदि मैं कहूँ कि मैं आत्‍मा हूँ, तो इससे कोई अंतर नहीं पड़ता मैं इस समय शरीर को त्‍यागना है, जिससे मैं उसमें लौट जा सकूँ, जो मैं वास्‍तव में हूँ। मैं आत्‍मा हूँ, वह आत्‍मा हूँ, जिसे कोई शस्‍त्र छेद नहीं सकता, कोई तलवार काट नहीं सकती, कोई आग जला नहीं सकती, कोई हवा सुखा नहीं सकती। अजन्‍मा और अविरचित, अनादि और अनंत, अमर, नित्‍य और सर्वव्‍यापी-यह है वह, जो मैं हूँ; और सब दु:ख आता है, केवल इसलिए कि मैं इस मिट्टी के छोटे से टुकड़े को समझता हूँ कि यह मैं हूँ। मैंने अपने को जड़ पदार्थ से अभिन्‍न समझ लिया है और उसके सब फल भोग रहा हूँ।

व्‍यावहारिक धर्म यह है कि मैं अपने को अपनी आत्‍मा के रूप में पहचाने। इस पहचान में होनेवाली भूल को समाप्‍त करो! तुम इसमें कितने आगे बढ़े हो? तुम दो हज़ार अस्‍पताल भले ही बनवा सको, पचास हज़ार भले ही बनवा सको, पर उससे क्‍या, यदि तुमने यह अनुभूति नहीं प्राप्‍त की है कि तुम आत्‍मा हो? तुम कुत्‍ते की मौत मरते हो, उसी भावना से, जिससे कुत्‍ता मरता है। कुत्‍ता चीख़ता है और रोता है, इसलिए कि वह समझता है कि वह जड़-तत्‍व मात्र है और विलीन होने जा रहा है।

मृत्‍यु है, तुम जानते हो, अटल मृत्‍यु, पानी में, हवा में, महल में, क़ैदखाने में-मृत्‍यु सर्वत्र है। तुमको निर्भय क्‍या बनाता है? जब तुम यह अनुभव कर लेते हो कि तुम हो वह अनंत, आत्‍मा-अमर और अजन्‍मा। उसे कोई आग जला नहीं सकती, कोई आयुध मार नहीं सकता, कोई विष हानि नहीं पहुँचा सकता। यह कोरा सिद्धांत नहीं है। पुस्‍तक-पाठ नहीं ...(तोतारटंत नहीं)। मेरे वृद्ध गुरु कहा करते थे, "तोते को सदा राम, राम, राम कहना सिखाना बहुत अच्‍छा है; पर बिल्‍ली को आने दो और उसकी गर्दन दबोचने दो; तब वह उसके विषय में सब भूल जाता है।" तुम सदा प्रार्थना कर सकते हो, संसार के सब धर्मशास्‍त्र पढ़ सकते हो और जितने देवता हैं, सबकी पूजा कर सकते हो, (पर) जब तक तुम आत्‍मा का अनुभव नहीं करते, मुक्ति नहीं है। बात नहीं, सैद्धांतीकरण नहीं, तर्क नहीं, वरन् अनुभव। मैं इसे व्‍यावहारिक धर्म कहता हूँ।

आत्‍मा के विषय में यह सत्‍य पहले सुनाओ जाता है। यदि तुमने इसे सुन लिया है, तो इस पर विचार करो। एक बार वह कर लिया है, तो इस पर ध्‍यान करो। व्‍यर्थ, निरर्थक तर्क मत करो! एक बार अपने को संतुष्‍ट कर लो कि तुम अनंत आत्‍मा हो। यदि यह सत्‍य है, तो यह कहना मूर्खता है कि तुम शरीर हो, तुम आत्‍मा हो और उसकी अनुभूति प्राप्‍त की जानी चाहिए। आत्‍मा अपने को आत्‍मा के रूप में देखे। अभी आत्‍मा अपने को शरीर के रूप में देख रही है। इसका अंत होना चाहिए। जिस क्षण तुम यह अनुभव करने लगोगे, तुम मुक्‍त हो जाओगे।

तुम इस काँच को देखते हो, और तुम जानते हो कि यह केवल भ्रम है। कुछ वैज्ञानिक तुमको बताते हैं कि यह प्रकाश और कंपन है। आत्‍मा को देखना इससे अनंत गुना अधिक यथार्थ होना चाहिए, एकमात्र सत्‍य अवस्‍था, एकमात्र सत्‍य अनुभव, एकमात्र सत्‍य दर्शन होना चाहिए। ये सब वस्‍तुएँ (जो तुम देखते हो) स्वप्‍न मात्र हैं। तुम अब यह जानते हो। अकेले पुरातन विज्ञानवादी ही नहीं, आधुनिक भौतिकशास्‍त्री भी अब तुमको बताते हैं कि वहाँ प्रकाश है। कंपन की तनिक सी अधिकता से महान अंतर पड़ जाता है।

तुमको ईश्‍वर का दर्शन करना चाहिए। आत्‍मा की अनुभूति करनी चाहिए, और यही व्‍यावहारिक धर्म है। जिसका उपदेश ईसा ने दिया था, उसे तुम व्‍यावहारिक धर्म नहीं कहते: "दरिद्र आत्‍मा के धनी है, क्‍योंकि स्‍वर्ग का राज्‍य उनका है।" क्‍या यह मज़ाक था? तुम किस व्‍यावहारिक धर्म की बात सोच रहे हो? भगवान हमारी सहायता करें! "जो ह्दय से पवित्र हैं, वे धन्‍य हैं, क्‍योंकि उन्‍हें ईश्‍वर का दर्शन प्राप्‍त होगा", क्‍या इसका अर्थ सड़क साफ़ करना, अस्‍पताल बनाना और वह सब है? ये कार्य अच्‍छे हैं, जब तुम उन्‍हें शुद्ध मन से करते हो। मनुष्‍य को बीस डॉलर मत दो और सैन फ़्रान्सिस्‍को के सब पत्रों को अपना नाम देखने के लिए मत ख़रीदो! क्‍या तुम स्‍वयं अपनी पुस्‍तकों में यह नहीं पढ़ते कि कोई मनुष्‍य तुम्‍हारी सहायता नहीं करेगा? दरिद्र, दु:खी, दुर्बल की सेवा उनमें स्थित स्‍वयं भगवान की पूजा के रूप में करो। ऐसा किए जाने के बाद फल का महत्‍व विशेष नहीं है। ऐसा काम, बिना किसी प्राप्ति की इच्‍छा से किया हुआ, आत्‍मा को लाभ पहुँचाता है। और स्‍वर्ग का राज्‍य भी ऐसों का ही है।

स्‍वर्ग का राज्‍य हमारे भीतर है। ईश्‍वर वहाँ है। वह सब आत्‍माओं की आत्‍मा है। उसे अपनी आत्‍मा में देखो। यह व्‍यावहारिक धर्म है। यही मुक्ति है। हम एक दूसरे से पूछें कि हमने इसमें कितनी प्रगति की है। हम शरीर के कितने उपासक हैं; अथवा ईश्‍वर में, आत्‍मा में कितने सच्‍चे विश्‍वासी हैं; हम अपने को कहाँ तक आत्‍मा समझते हैं? य‍ह नि:स्‍वार्थ है। यह मुक्ति है। यह सच्‍ची उपासना है। आत्‍मानुभूति प्राप्‍त करो। बस, केवल यही करणीय है। अपने को जानो, जो तुम हो-अनंत आत्‍मा। यह व्‍यावहारिक धर्म है। शेष सब अव्‍यावहारिक है, इसलिए कि वह नाशवान है। केवल वही अनश्‍वर है। वही नित्‍य है। अस्‍पताल ढह पड़ेंगे। रेल के दाता सब मर जाएंगे। पृथ्‍वी के चिथड़े उड़ जाएंगे, सूर्य का सफ़ाया हो जाएगा। आत्‍मा का ही अस्तित्‍व सद़ा रहेगा।

अधिक ऊँचा क्‍या है, उन वस्‍तुओं के पीछे दौड़ना जो नाशवान हैं अथवा... उसकी पूजा करना, जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता? क्‍या अधिक व्‍यावहारिक है, वस्‍तुओं को प्राइज़ करने में जीवन की सारी शक्तियों का व्‍यय करना, जिनको प्राप्‍त करने से पहले ही मृत्‍यु आ जाती है, और तुमको उन सबको छोड़ देना होता है?-उस महान (राजा) की भाँति, जिसने सब जीत लिया था। जब मौत आयी, तो उसने कहा, "सब वस्‍तुओं के कलसों को मेरे सामने फैलाओ।" उसने कहा, "उस बड़े हीरे को मुझे दो।" और उसने उसे अपनी छाती पर रखा और रो पड़ा। इस प्रकार वह रोते हुए मरा, वैसे ही, जैसे कुत्‍ता मरता है।

मनुष्‍य कहता है, "मैं जीता हूँ।" वह यह नहीं जानता कि यह मृत्‍यु (‍की भीति) के कारण ही वह जीवन से दासवत् चिपका रहता है। वह कहता है, "मैं भोग करता हूँ।" उसे स्‍वप्‍न में भी यह विचार नहीं आता कि प्रकृति ने उसे अपना दास बना रखा है।

प्रकृति हम सबको पीसती है। जितने तोले सुख तुमको मिले, उसका हिसाब रखो। अंतत: प्रकृति ने अपना कार्य तुम्‍हारे द्वारा संपन्न किया, और जब तुम मर जाओगे, तो तुम्‍हारा शरीर दूसरे पौधों को उगाने में सहायता करेगा। फिर भी हम सदा यही सोचते हैं कि सुख स्‍वयं हमें मिल रहा है। इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है।

इसलिए आत्‍मा की अनुभूति आत्‍मा के रूप में करना व्‍यावहारिक धर्म है। अन्‍य सब बातें वहीं तक ठीक हैं, जहाँ तक वे इस महान लक्ष्‍य की ओर ले जाती हैं। इस (अनुभूति) की प्राप्ति की जाती है त्‍याग से, ध्‍यान से-सब इंद्रियग्रस्त -सुखों के त्‍याग से, उन ग्रंथियों और श्रृंखलाओं को काटकर, जो हमें भौतिकता से बाँधती हैं। 'मैं भौतिक जीवन नहीं चाहता, इंद्रियग्रस्त -जीवन नहीं चाहता, वरन् कुछ ऊँची वस्तु चाहता हूँ।' यह त्‍याग है। तो, ध्‍यान की शक्ति से उस अनिष्‍ट का निराकरण करो, जो हो चुका है।

हम प्रकृति के इशारों पर नाचते हैं। यदि बाहर आवाज़ होती है, तो मुझे वह सुननी पड़ती है। यदि कुछ हो रहा है, तो मुझे वह देखना पड़ता है। बंदरों की भाँति। हममें से प्रत्‍येक दो हज़ार बंदर है, एक ही स्‍थान में पुंजीभूत। बंदर बहुत जिज्ञासाप्रिय होते हैं। तो, हम अपने ऊपर वश नहीं रख सकते और इसे 'मज़ा लेना' कहते हैं। यह अनूठी भाषा है! हम संसार का मज़ा ले रहे हैं! हम मज़ा लेने के लिए विवश हैं। प्रकृति चाहती है कि हम यह करें। एक सुहावना स्‍वर: मैं उसे सुन रहा हूँ। मानो कि यह मेरी इच्‍छा पर है कि मैं उसे सुनूँ या न सुनूँ। प्रकृति कहती है, "दु:ख के गर्त में जाओ।" मैं एक क्षण में दु:खी हो जाता हूँ।...हम (इंद्रियों के) सुख और संपत्ति की बात करते हैं। एक मनुष्‍य मुझे बड़ा विद्वान् समझता है। दूसरा सोचता है, "वह मूर्ख है।" यह पतन, यह दासता, बिना कुछ जाने हुए! इस अँधेरे कमरे में हम एक दूसरे से अपने सिर टकरा रहे हैं।..

ध्‍यान क्‍या है? ध्‍यान वह बल है, जो हमें इस सब का सामना करने का सामर्थ्‍य देता है। प्रकृति हमसे कह सकती है, "देखो, वहाँ एक सुंदर वस्‍तु है।" मैं नहीं देखता अब वह कहती है, "यह गंध सुहावनी है, इसे सूँघो।" मैं अपनी नाक से कहता हूँ, "इसे मत सूँघ।" और नाक नहीं सूँघती। "आंखों, देखो मत!" प्रकृति एक भयंकर बात करती है--मेरे एक बच्‍चे को मार डालती है, और कहती है, "अब, बदमाश, बैठ और रो! गर्त में गिर!" मैं कहता हूँ, "मुझे न रोना है, न गिरना है।" मैं उछल पड़ता हूँ। मुझे मुक्‍त होना चाहिए। कभी इसे करके देखो...(ध्‍यान में), एक क्षण के लिए, तुम इस प्रकृति को बदल सकते हो। अब, यदि तुममें यह शक्ति आ जाती है, तो क्‍या वह स्‍वर्ग, मुक्ति नहीं होगी? यह ध्‍यान की शक्ति है।

इसे कैसे प्राप्‍त किया जाए? दर्जनों विभिन्‍न रीतियों से। प्रत्‍येक प्रकृति का अपना मार्ग है। पर सामान्‍य सिद्धांत यह है: मन को पकड़ो। मन एक झील के समान है, और उसमें गिरनेवाला हर पत्‍थर तरंगें उठाता है। ये तरंगे हमे देखने नहीं देती कि हम क्‍या हैं। झील के पानी में पूर्ण चंद्रमा का प्रतिबिंब है, पर उसकी सतह इतनी आंदोलित है कि वह प्रतिबिंब हमें दिखायी नहीं देता। उसे शांत होने दो। प्रकृति की तरंगें मत उठाने दो। शांत रहो,और तब कुछ समय बाद वह तुम्‍हें छोड़ देगी। तब हम जान सकेंगे कि हम क्‍या हैं। ईश्‍वर वहाँ पहले से है, पर मन बहुत चंचल है, सदा इंद्रियों के पीछे दौड़ता रहता है। तुम इंद्रियों को रोकते हो और (फिर भी) बार-बार भ्रमित होते हो। अभी, इस क्षण मैं सोचता हूँ कि मैं ठीक हूँ और मैं ईश्‍वर में ध्‍यान लगाऊंगा और तब एक मिनट में मेरा मन लंदन पहुँच जाता है। और मैं उसे वहाँ से खींच लेता हूँ, तो वह न्‍यूयार्क चला जाता है, उन बातों के बारे में सोचने के लिए, जो मैंने अतीत में वहाँ की हैं इन (तरंगों) को ध्‍यान की शक्ति से रोकना है।

हमें धीरे-धीरे, क्रम से, अपने को प्रशिक्षित करना है। यह मज़ाक़ नहीं है। यह प्रश्‍न एक दिन का, या वर्षों का, और हो सकता है कि, जन्‍मों का नहीं है। चिंता मत करो! अभ्‍यास जारी रहना चाहिए! इच्‍छापूर्वक, जान-बूझकर, अभ्‍यास जारी रखना चाहिए। इंच इंच करके हम आगे बढ़ेंगे। हम उस वास्‍तविक संपत्ति को अनुभव करने लगेंगे, प्राप्‍त करने लगेंगे, जिसे हमसे कोई नहीं ले सकता--वह संपत्ति, जिसे कोई मनुष्‍य नहीं छीन सकता, वह संपत्ति, जिसे कोई नष्‍ट नहीं कर सकता, वह आनंद, जिसे अब कोई दु:ख छू नहीं सकता। ...

इतने सारे वर्ष हम दूसरों पर आश्रित रहे हैं।...यदि मुझे किसी से कुछ आनंद मिला है और वह व्‍यक्ति चला जाता है, तो मेरा आनंद चला जाता है।... मनुष्‍य की मूर्खता देखो, वह अपने सुख के लिए मनुष्‍य पर निर्भर होता है! सभी वियोग दु:खद होते हैं। स्‍वाभाविक है। सुख के लिए धन पर निर्भरता? धन घटता-बढ़ता रहता है। केवल अपरिवर्तनीय आत्‍मा के अतिरिक्‍त स्‍वास्थ्य या किसी अन्‍य वस्‍तु पर निर्भर होने से आज या कल दु:ख अवश्‍य आएगा।

असीम आत्‍मा के अतिरिक्‍त शेष सब कुछ परिवर्तनशील है। परिवर्तन का चक्र घूम रहा है। स्‍वयं तुम्‍हारे अतिरिक्त स्थायित्‍व और कहीं नहीं है। वहीं है अनंत और अविचल आनंद। ध्‍यान के द्वार से हम उस तक पहुँचते हैं। प्रार्थनाएँ, अनुष्‍ठान और पूजा के अन्‍य रूप ध्‍यान की शिशुशाला मात्र हैं। तुम प्रार्थना करते हो, तुम कुछ अर्पित करते हो। एक सिद्धांत था कि सभी बातों से मनुष्‍य का आध्‍यात्मिक बल बढ़ता है। कुछ विशेष शब्‍दों, पुष्‍पों, प्रतिमाओं, मंदिरों, बत्तियों को हिलाने के समान अनुष्‍ठानों--आरतियों--का उपयोग मन को उस स्थिति में लाता है, पर वह स्थितितो सदा मनुष्‍य की आत्‍मा में है, कहीं बाहर नहीं। (लोग) यह सब कर रहे हैं; पर वे जो अनजाने कर रहे हैं, उसे तुम जान-बूझकर करो। यह ध्‍यान की शक्ति है। तुम्‍हारे पास जो ज्ञान है--वह कैसे आया? ध्‍यान की शक्ति से। आत्‍मा ने ज्ञान को अपनी गहराई में से मथकर निकाला है। क्‍या उसके बाहर भी कभी ज्ञान रहा है! दीर्घकाल में ध्‍यान की यह शक्ति हमें अपने शरीर से अलग कर देती है और आत्‍मा अपने असली अजन्‍मा,अमर और अनादि स्‍वरूप को पहचान लेती है। अब दु:ख नहीं रहता, इस पृथ्‍वी पर जन्‍म नहीं लेना पड़ता, विकास नहीं रहता। (आत्‍मा जान लेती है कि) वह सदा पूर्ण और मुक्‍त रही है। [13]


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