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स्वामी जी के कार्य-क्षेत्रों का केंद्र अमेरिका के अटलांतिक तट की ओर पूर्व
दिशा में जाने के पहले सन् १८९४ ई० के पूरे वर्ष भर के लगभग उन्होंने हेल
परिवार के निवास-स्थान को अपना प्रधान कार्यालय बनाया था। श्री जार्ज डब्ल्यू.
हेल के पत्र लिखने के कागजों पर और इस प्रकार संभवतः उनके घर में अपने किसी
आवास- काल में, स्वामी जी पेंसिल से ही बुद्धि, श्रद्धा और प्रेम के संबंध में
कुछ टिप्पणियाँ सी लिख डाली जो अभी हाल ही में प्रकाश में आयीं। दुर्भाग्यवश
इस पांडुलिपि की तिथि निश्चयपूर्ण निर्धारित नहीं की जा सकती।)
बुद्धि-उनकी सीमाएँ हैं-उसका आधार है -
उसका पतन है। चतुर्दिक् प्राचीर है -
अज्ञेयवाद। अनिश्वरवाद पर रुकना नही है;
प्रतिक्षण परस्पर सक्रिय है, हमें प्रभावित कर रहा है -
यह आकाश, ये तारे, जो अदृश्य हैं वह भी हम पर प्रभाव डाल रहे हैं।
अत: हमें इस सबके पार जाना ही है। अकेली बुद्धि नहीं जा सकती !
ससीम असीम को नहीं पा सकता।
अकेली श्रद्धा भ्रष्ट हो जाती है -
कट्टरता-धर्मांधता-सांप्रदायिकता। अत:
सतत संकीर्ण ससीम असीम को नहीं पा सकता !
कभी गंभीरता आ जाती है, तो विस्तार खो जाता है।
और स्वमताग्रही एवं धर्मांधों में तो
अपने ही गर्व और मिथ्या अहं की उपासना में परिणत हो जाती है।
तो क्या अन्य कोई मार्ग ही नहीं है-प्रेम है !
जो कभी भ्रष्ट नहीं होता !-शांत, कोमलतादायक
सतत वितानी-यह विश्व उसकी व्याप्ति के लिए अत्यंत छोटा है !
हम उसकी परिभाषा नहीं दे सकते, उसके विकास विधान के माध्यम से
हम केवल उसका रेखांकन कर सकते हैं और उसके परिवेश का वर्णन
कर सकते हैं।
पहले तो वह वही है, जो बहिर्जगत् में गुरुत्वाकर्षण है -
एकीकरण की-मिलन की प्रवृत्ति। -- विविध और रूढ़िबद्धता तो
उसकी मृत्यु है
जब तक विधि -विधानों, पद्धतियों, प्रार्थना, विधियों में उपासना जकड़ी है, तब
तक प्रेम नहीं
जब प्रेम आता है, तब पद्धतियाँ तिरोहित हो जाती हैं|
मानव-भाषा और मानव आकार-पितृ रूप ईश्वर,
मातृ रूप ईश्वर, प्रिय रूप ईश्वर-सुरत-वर्धनम् आदि
सालोमन का महागान-परतंत्रता और स्वतंत्रता -
बंधन और मुक्ति --
प्रेम, प्रेम !!
पावन पत्नी-रूप प्रेम-अनुसूया, सीता
रूक्ष- कठोर कर्तव्य-रूप नहीं, वरन्
सतत आह्लादकारी प्रेम-सीता की पूजा -
प्रेम का उन्माद-भगवत्प्रेमोन्नत मानव -
राधा का रूपक-गलत समझा गया
नियंत्रण और भी बढ़ जाता है -
काम प्रेम की मृत्यु है,
अहम् प्रेम की मृत्यु है,
व्यक्ति से सामान्य की ओर,
मूर्त से अमूर्त की ओर-परमात्मा की ओर
प्रार्थनारत मुसलमान और बालिका,
सहानुभूति-कबीर
वह ईसाई तपस्विनी जिसके हाथों से रक्त बह चला,
मुसलमान संत !
प्रत्येक परमाणु अपने पूरक की खोज में रत -
जब उसे पा जाता है, शांत हो जाता है
प्रत्येक मनुष्य सुख और स्थिरता की खोज में
खोज तो सत्य है
पर उसके लक्ष्य तो वे स्वयं ही हैं
फिर भी इन लक्ष्यों की खोज में
कम से कम क्षणिक सुख तो उन्हें मिलता ही है !
एकमात्र ध्रुव लक्ष्य और मानवात्मा की प्रकृति और अभीप्सा का
एक मात्र पूरक ईश्वर ही है !
अपना पूरक अपनी स्थायी साम्यावस्था-अपनो
अनंत शांन्ति की प्राप्ति के लिए मानवात्मा का
संघर्ष ही प्रेम है -