दस वर्ष से भी अधिक पहले की बात है, किसी एक साधारण आजीविका वाले जर्मन पादरी के परिवार में उनकी आठ संतानों में सबसे होनहार एक अल्प वयस्क बालक ने अपने विद्यार्थी-जीवन में एक दिन प्राध्यापक लासेन को एक नई भाषा-संस्कृत-और उसके साहित्य के विषय में भाषण देते हुए सुना। उस समय संस्कृत भाषा और साहित्य यूरोपीय विद्वानों के लिए बिल्कुल ही नया था। इन भाषणों को सुनने में दाम तो लगते नहीं थे, क्योंकि यदि विश्वविद्यालय इस कार्य के लिए विशेष सहायता प्रदान न करता हो, तो अभी भी किसी व्यक्ति के लिए यूरोप के किसी विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाकर रूपया कमाना असंभव है।
प्राध्यापक लासेन संस्कृत विद्वत्ता के अग्रणी वीरहृदय जर्मन पंडितों के लगभग अंतिम प्रतिनिधि थे। ये पंडित लोग वास्तव में वीर पुरुष थे, क्योंकि विद्या के प्रति पवित्र और नि:स्वार्थ प्रेम के अतिरिक्त उस समय जर्मन विद्वानों के भारतीय साहित्य की ओर आकृष्ट होने का और कौन सा कारण हो सकता था ? वयोवृद्ध प्राध्यापक लासेन एक दिन कालिदासविरचित 'शांकुतल' के एक अध्याय की व्याख्या कर रहे थे; और उस दिन हमारा यह तरुण विद्यार्थी जिस ध्यान और उत्सुकता के साथ उनके द्वारा बतलायी गई व्याख्या को सुन रहा था, उतना तन्मय श्रोता शायद वहाँ और कोई न था। व्याख्या का विषय अवश्य ही अत्यंत हृदयग्राही एवं अद्भुत था, पर सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि एक यूरोपीय व्यक्ति के अनभ्यस्त मुख से उच्चारित होने के कारण उस अपरिचित शब्दराशि के क्लिष्ट रूप धारण कर लेने पर भी उस बालक को उन शब्दों ने मंत्रमुग्ध सा कर दिया था। वह अपने घर वापस गया, किंतु उसने जो कुछ सुना था, उसे वह रात में नींद में भी भूल न सका। उसने मानो इतने दिनों के अज्ञात, अपरिचित देश का सहसा दर्शन पा लिया, और उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो वह देश उसके देखे हुए अन्य सब देशों की अपेक्षा अधिक उज्ज्वल अनेक रंगों से चित्रित है, तथा उसने उसमें जैसी मोहनी-शक्ति पाई, वैसा उसके युवक-हृदय ने और कभी भी अनुभव नहीं किया था।
इस होनहार युवक के मित्र उत्कण्ठापूर्वक उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब इस युवक की स्वाभाविक प्रबल शक्तियाँ प्रस्फुटि हो उठेंगी तथा जिस दिन यह युवक किसी बौद्धिक व्यवसाय में प्रविष्ट होकर आदर और यश तथा सर्वोपरि प्रचुर वेतन और उच्च पद प्राप्त करेगा। किंतु कहाँ से बीच में संस्कृत भाषा का यह झंझट आ खड़ा हुआ ! अधिकांश यूरोपीय विद्वानों ने तो उस समय संस्कृत भाषा का नाम ही नहीं सुना था-और जहाँ तक इससे अर्थ-प्राप्ति की बात थी, मैंने पहले ही कहा है कि संस्कृत भाषा का विद्वान् होकर द्रव्योपार्जन पश्चिमी देशों में अभी एक असंभव सा कार्य है। फिर भी हमारे इस युवक की संस्कृत सीखने की इच्छा बड़ी प्रबल हो उठी।
यह बड़े दु:ख की बात है, हम आधुनिक भारतीयों के लिए यह समझना अत्यंत कठिन हो गया है कि ऐसा कैसे संभव हो सका। फिर भी, नवद्वीप, वाराणसी, एवं भारत के अन्यान्य स्थानों के पंडितों में, विशेषकर संन्यासियों में हम आज भी ऐसे वृद्ध और युवक देख सकते हैं, जो विद्या के लिए ही विद्याभ्यास में रत हैं -ज्ञान के लिए ही ज्ञान-लाभ की तृष्णा में उन्मत्त हैं। ऐसे विद्यार्थी, जो आधुनिक यूरोपीय भावापन्न हिंदुओं की विलास-सामग्रियों का अभाव होने पर भी तथा उनकी अपेक्षा अध्ययन के लिए सहस्त्र गुना कम सुविधाएँ उपलब्ध रहने पर भी रात पर रात तेल के दिए के अस्थिर धीमे प्रकाश में हस्तलिखित ग्रंथों का इतनी एकाग्रता से अध्ययन करते रहते हैं, जिससे अन्य किसी भी देश के छात्रों की आँखों की दृष्टि-शक्ति संपूर्ण नष्ट हो सकती है; ऐसे विद्यार्थी, जो किसी दुर्लभ हस्तलिखित ग्रंथ या किसी विख्यात अध्यापक की खोज में कोसों भिक्षा पर ही निर्वाह करते हुए पैदल चले जाते हैं एवं जो मन और शरीर की समुदय शक्ति अपने पाठ्य विषय में तब तक नियोजित करते रहते हैं, जब तक उनके बाल सफ़ेद नहीं हो जाते तथा उनका शरीर अधिक आयु होने के कारण क्षीण नहीं हो जाता-ऐसे विद्यार्थी ईश्वर की कृपा से अभी तक हमारे देश से बिल्कुल ही लुप्त नहीं हो गए हैं। आज भारत जिसको अपनी मूल्यवान सम्पत्ति कहकर गौरव अनुभव करता है, वह निश्चय ही अतीत काल की उसकी योग्य संतानों के इस प्रकार के परिश्रम का फलस्वरूप; और इस कथन की सत्यता तुरंत ही प्रकट हो जाएगी, यदि हम प्राचीन युग के भारतीय पंडितों के पांडित्य की गंभीरता एवं उपयोगिता तथा उनके नि:स्वार्थ भाव एवं उद्देश्य की एकाग्रता की तुलना आधुनिक भारतीय विश्वविद्यालयों की शिक्षा के परिणामों के साथ करें। यदि भारतवासी अपने अतीत-युग के इतिहास की भाँति फिर से अन्यान्य जातियों के बीच अपने समुचित गौरव-पद पर आसीन होना चाहते हें, तो उन्हें अपने जीवन में शुद्ध निष्कपट चिंतनशक्ति तथा यथार्थ पांडित्य-लाभ के लिए स्वार्थहीन निष्कपट उत्साह को पुन: प्रबल रूप से जगाना पड़ेगा। इस प्रकार की ज्ञानस्पृहा ने ही जर्मनी को श्रेष्ठतम न सही, संसार के श्रेष्ठ राष्ट्रों की श्रेणी में स्थान दिया है।
मैं कह रहा था कि इस जर्मन छात्र के हृदय में संस्कृत शिक्षा के प्रति अनुराग बड़ा प्रबल हो उठा था। संस्कृत सीखना तो दीर्घ काल में संपन्न होने वाला कार्य है, पहाड़ पर चढ़ने जैसा कठिन। इस जर्मन छात्र के जीवन का इतिहास भी जगत्प्रसिद्ध अन्य सफल विद्वानों की भाँति है; उन सब लोगों के समान यह युवक भी कठोर परिश्रम कर, अनेक कष्ट सहकर, अदम्य उत्साह के साथ अपने व्रत में दृढ़तापूर्वक लगा रहा और इसके फलस्वरूप वह यथार्थ वीरजनोचित सफलता के गौरवमुकुट से विभूषित हुआ। और अब, केवल यूरोप ही नहीं, वरन् समस्त भारत इस कील विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र के आचार्य पॉल डॉयसन को जानता है। मैंने अमेरिका और यूरोप में संस्कृत के कई प्राध्यापकों को देखा है। उनमें से अनेक वेदांत की ओर विशेष रूप से आकृष्ट हैं। मैं उनके पांडित्य एवं नि:स्वार्थ कार्य में जीवनोत्सर्ग को देखकर मुग्ध हो गया हूँ। परंतु पॉल डॉयसन (जो संस्कृत में स्वयं को देवसेन कहकर संबोधित होना पसंद करते हैं) और वयोवृद्ध मैक्समूलर को मैं भारत तथा भारतीय विचारधारा का सर्वश्रेष्ठ मित्र समझता हूँ। कील शहर में इस उत्साही वेदांती, उनके भारतभ्रमण की संगिनी उनकी मधुर प्रकृतिवाली सहधर्मिणी, तथा उनकी प्रिय छोटी कन्या से मेरी प्रथम भेंट; जर्मनी और हॉलैंड होकर एक साथ लंदन की यात्रा, तथा लंदन एवं उसके आसपास के स्थानों में हम लोगों के आनंददायक सम्मिलन-ये सब घटनाएँ मेरे जीवन की अन्य मधुर स्मृतियों के साथ चिरकाल तक बनी रहेंगी।
यूरोप के सर्वप्रथम संस्कृतज्ञ संस्कृत के अध्ययन में समीक्षात्मक योग्यता की अपेक्षा कल्पना के सहारे अधिक प्रवृत्त हुए थे। उनका ज्ञान तो अल्प था, किंतु उस अल्प ज्ञान से वे आशा बहुत करते थे; और बहुधा वे जो कुछ थोड़ा बहुत जानते, उससे कहीं अधिक प्रदर्शित करते थे। फिर, उन दिनों 'शाकुंतल' के मूल्यांकन को ही भारतीय दर्शन-शास्त्र की पराकाष्ठा मानने का पागलपन भी उनमें समाया हुआ था। अत: स्वाभाविकता प्रथम दल की प्रतिक्रिया के रूप में एक ऐसे प्रतिक्रियावादी छिछले समालोचक-संप्रदाय का अभ्युदय हुआ,जिसे न तो संसकृत का ज्ञान ही था और न संस्कृत के अध्ययन से जिसे कुछ लाभ की आशा ही दीख पड़ती थी, और जो प्राच्यदेशीय सभी वस्तुओं का उपहास किया करता था। यद्यपि ये लोग प्रथम दल को अगंभीर कल्पनाशीलता की, जिसके समक्ष भारतीय साहित्य की प्रत्येक वस्तु नंदन कानन की भाँति प्रतीत होती थी, तीव्र आलोचना करते थे, परंतु इनके स्वयं के सिद्धांत प्रथम दलवालों के सिद्धातों की तरह ही समान रूप से परम दोषयुक्त एवं अत्यंत दु:साहसपूर्ण थे। और इन लोगों के इस विषय में दु:साहस पूर्ण थे। और इन लोगों के इस विषय में दु:साहस के बढ़ जाने का नितांत स्वाभाविक कारण यह था कि भारतीय विचार-धारा की ओर सहानुभूतिरहित और बिना समझे-बूझे हठात् सिद्धांत बना डालनेवाले ये पंडित और समालोचकगण इसकी चर्चा ऐसे श्रोताओं के सामने करते थे,जिनकी इस विषय में किसी प्रकार की राय प्रकट करने की यदि कोई योग्यता थी, तो वह थी उनकी संस्कृत भाषा के संबंध में पूर्ण अनभिज्ञता ! इस प्रकार की समालोचनात्मक विद्वत्ता से यदि अनेक प्रकार के विरुद्ध सिद्धांत निकलें, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ! सहसा विचार हिंदू ने एक दिन सुबह जगकर देखा, उसका जो कुछ भी अपना था, वह आज नहीं है -एक अपरिचित जाति ने उसके पास से उसकी शिल्प-विद्या छीन ली है, एक दूसरी ने उसकी स्थापत्य-विद्या एवं एक तीसरी ने उसके समस्त प्राचीन विज्ञान को छीन लिया है; यहाँ तक कि उसका धर्म भी अब उसका अपना नहीं है ! पहलवियों की स्वस्तिका के साथ उसका भी आयात भारत में हुआ था ! इस प्रकार की उत्तेजनापूर्ण मौलिक गवेषणा की आपाधापी के युग के बाद अब अपेक्षाकृत अच्छा समय आया है। लोगों ने अब समझा है कि सच्ची और परिपक्व विद्वता की पूँजी के बिना मात्र दुस्साहसिक अभियान, प्राच्यतत्त्व-गवेषणा के क्षेत्र में भी, केवल हास्यास्पद विफलता का जनक है, और भारतीय परंपराओं को छिछले तिरस्कार के साथ हटा देना कोई बुद्धिमानी का कार्य नहीं है, क्योंकि उनमें ऐसा बहुत कुछ हो सकता है, जिसे लोग स्वप्न में भी नहीं सोच सकते।
यह बड़े हर्ष की बात है कि यूरोप में आजकल एक नए प्रकार के संस्कृतज्ञ पंडितों का अभ्युदय हो रहा है -ये श्रद्धालु सहानुभूतिपूर्ण तथा यथार्थ पंडित हैं। ये श्रद्धालु हैं, क्योंकि ये अधिक श्रेष्ठ व्यक्ति हैं, एवं सहानुभूतिसंपन्न हैं, क्योंकि ये विद्वान् है। और हमारे मैक्समूलर ही प्राचीन दल की श्रृंखला के साथ नए दल की श्रृंखला को जोड़ने वाली कड़ी के समान है। हम हिंदू लोग पश्चिम देशीय अन्य संस्कृतज्ञ पंडितों की अपेक्षा निश्चय ही उनके प्रति अधिक ऋणी हैं,और जब मैं उनके उस महान् कार्य के बारे में सोचता हूँ, जिसे उन्होंने अदम्य उत्साह के साथ अपनी यौवनावस्था में हाथों में लेकर वृद्धावस्था में उसकी सफलतापूर्वक परिसमाप्ति की, तब तो मैं दंग रह जाता हूँ। इनके बारे में एक बार जरा सोचो तो सही, किस प्रकार वे हिंदुओं की आँखों से भी अति कठिनता से पढ़े जा सकनेवाले अस्पष्ट पुराने हस्तलिखित ग्रंथों की दिन-रात छान-बीन कर रहे हैं !- और फिर ये लिपियाँ ऐसी भाषा में लिखी हुई हैं, जिन्हें भली प्रकार समझने में एक हिंदू पंडित का भी समस्त जीवन लग जाएगा; उन्हें फिर ऐसे किसी अभावग्रस्त पंडित की सहायता भी नहीं मिली है, जिसकी बुद्धि कुछ टकों पर खरीदी जा सके तथा 'अत्यंत नई गवेषणापूर्ण' किसी पुस्तक की भूमिका में जिसके नामोल्लेख द्वारा उस पुस्तक की ख्याति बढ़ायी जा सके। इस व्यक्ति के विषय में और भी ज़रा सोचकर तो देखो, किस तरह वे सायण-भाष्य के अंतर्गत किसी शब्द या वाक्य का यथार्थ रीति से पाठ करने एवं ठीक ठीक अर्थ ढूँढ़ निकालने के लिए कभी दिन पर दिन और कभी महीनों व्यतीत कर (जैसा उन्होंने स्वयं मुझसे कहा है) अंत में इस दीर्घकाल के अध्यवसाय के फलस्वरूप वैदिक साहित्यरूपी अरण्य में से होकर अन्य लोगों के जाने के लिए सुगम मार्ग बनाने में सफल हुए हैं; पहले इस व्यक्ति और इनके कार्य के संबंध में सोचकर देखो और फिर कहो कि वास्तव में इन्होंने हम लोगों के लिए कितना किया है ! यह हो सकता है कि इन्होंने अपनी अनेक रचनाओं में जो कुछ कहा है, हम उस सबसे सहमत न हों,-और निश्चय ही इस प्रकार पूर्णतया सहमत होना असंभव है। किंतु हम सहमत हों या न हों, पर इस सत्य की कभी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि हमारे पूर्व पुरुषों के साहित्य की रक्षा, उसका विस्तार एवं उसके प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए हम सबमें जो कोई जितना करने की आशा कर सकता है, इस अकेले व्यक्ति ने उससे सहस्त्र गुना अधिक किया है और यह कार्य इन्होंने अत्यंत श्रद्धा एवं प्रेमपूर्ण हृदय के साथ संपन्न किया है।
यदि मैक्समूलर को इस नए आंदोलन का प्राचीन अग्रदूत कहा जाए, तो डॉयसन निश्चय ही उसके एक नवीन नेता हैं -इसमें कोई संदेह नहीं। हमारे प्राचीन शास्त्ररूपी खान में जो सब विचार एवं आध्यात्मिकता के अमूल्य रत्न निहित हैं, भाषा-तत्त्व की आलोचना की उत्सुकता ने बहुत दिनों तक उनको हमारी दृष्टि से ओझल रखा था। मैक्समूलर उनमें से कई विचारों को जनसाधारण की दृष्टि में लाए, एवं सर्वश्रेष्ठ भाषा-तत्त्व-विशारद होने के कारण उनके कथन की प्रामाणिकता इतनी अधिक थी कि जनसाधारण का ध्यान बरबस ही उन विचारों की ओर आकृष्ट हो गया। भाषा-तत्त्व की आलोचना की ओर डॉयसन की कोईरूचि न थी, वरन् वे दर्शन शास्त्र में पारंगत थे। वे प्राचीन ग्रीस तथा वर्तमान जर्मन तत्वालोचना-प्रणाली एवं उनके सिद्धांतों से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने मैक्समूलर का अनुसरण करके अत्यंत साहस के साथ उपनिषद् के गंभीर दार्शनिक तत्त्व-सागर में ग़ोता लगाया, तब उन्होंने देखा कि उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं है,वरन् वह हमारी बुद्धिवृत्ति एवं हृदय की माँग पूर्णतया पूरी करता है,-और फिर उन्होंने उसी तरह साहस के साथ उस विषय को समस्त जगत् के सामने घोषित किया। पाश्चात्य पंडितों में केवल डॉयसन ने ही वेदांत के संबंध में अपनी राय बहुत स्वाधीनतापूर्वक प्रकट की है। अधिकांश पंडित जिस प्रकार दूसरों की समालोचना के डर से भयभीत रहा करते हैं, उस प्रकार डॉयसन ने भी कभी किसी के मतामत की परवाह नहीं की। वास्तव में इस संसार में ऐसे साहसी लोगों की आवश्यकता है, जो निर्भीकता के साथ प्रकृत सत्य के संबंध में अपना मत प्रकट कर सकें; और विशेषत: इसकी आवश्यकता यूरोप में अधिक है, जहाँ के पंडितगण-समाज-भय से हो अथवा इस प्रकार के अन्य किन्हीं कारणों से-ऐसे सभी विभिन्न धर्ममतों एवं आचार-व्यवहारों का किसी तरह उनकी त्रुटियों को छिपाकर समर्थन करने की चेष्टा कर रहे हैं, जिन सबमें शायद उन लोगों में से बहुतों का ही विश्वास नहीं है। अतएव मैक्समूलर तथा डॉयसन का इस प्रकार साहसपूर्ण एवं स्पष्ट रूप से सत्य का समर्थन वास्तव में विशेष रूप से प्रशंसनीय है। मेरी तो यही इच्छा है कि उन्होंने हमारे शास्त्रों के गुणों के प्रदर्शन में जिस साहस का परिचय प्रदान किया है, उसी प्रकार साहस के साथ वे उनके उन सब दोषों को भी प्रदर्शित करें,जो परवर्ती काल में भारतीय चिंता-प्रणाली में आकर भर गए हैं, विशेषत: उन त्रुटियों को, जो हमारी सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए उस चिंता-प्रणाली के प्रयोग के संबंध में आ गई हैं। आज हमें इनके ही समान यथार्थ मित्रों की सहायता की अत्यधिक आवश्यकता है, जो भारत में क्रम-वर्धमान इन द्विविध गतिशील रोगों की गति का रोध कर सकें, जहाँ एक ओर तो प्राचीन प्रथा में पले हुए, दासत्व श्रृंखला में जकड़े हुए लोग ग्राम्य कुसंस्कारों को ही शास्त्रों का सार-सत्य समझकर उनसे चिपके रहना चाहते हैं और जहाँ दूसरी ओर हैं शास्त्रों को कटु निंदा करनेवाले -जो हमारे और हमारे इतिहास में कुछ भी अच्छाई नहीं देख सकते, और जो यदि हो सके तो धर्म एवं दर्शन की लीलाभूमि हमारी इस प्राचीन जन्मभूमि के समस्त आध्यात्मिक एवं सामाजिक प्रतिष्ठानों को इसी क्षण तोड़-फोड़कर धूल में मिला देने को तत्पर हैं।