भगवान् बुद्ध ने धर्म के प्राय: सभी अन्यान्य पक्षों को कुछ समय के लिए दूर
रखकर केवल दु:खों से पीडि़त-संसार की सहायता करने के महान् कार्य को प्रधानता
दी थी। परंतु फिर भी स्वार्थपूर्ण व्यक्ति-भाव से चिपके रहने के खोखलेपन के
महान् सत्य का अनुभव करने के निमित्त आत्मानुसंधान में उन्हें भी अनेक वर्ष
बिताने पड़े थे। भगवान् बुद्ध से अधिक नि:स्वार्थ तथा अथक कर्मी हमारी उच्च
से उच्च कल्पना के भी परे है। परंतु फिर भी उनकी अपेक्षा और किसे समस्त
विषयों का रहस्य जानने के लिए इतने विकट संघर्ष करने पड़े ? यह चिरंतन तथ्य
है कि जो कार्य जितना महान् होता है, उसके पीछे सत्य के साक्षात्कार की उतनी
ही अधिक शक्ति विद्यमान रहती है। किसी पूर्व निर्धारित महान् योजना को
ब्योरेवार कार्यरूप में परिणत करने को आधार देने के लिए भले ही अधिक एकाग्र
चिंतन की आवश्यकता न पड़े, परंतु प्रबल अंत: प्रेरणाएँ केवल प्रबल एकाग्रता
का ही परिवर्तित रूप हैं। सामान्य चेष्टाओं के लिए संभव है यह सिद्धांत
पर्याप्त हो, परंतु जिस हिलोर से एक छोटी सी लहर की उत्पत्ति होती है, वह
हिलोर उस आवेग से अवश्य ही नितांत भिन्न है, जो एक प्रचंड तरंग को उत्पन्न
कर देता है। परंतु फिर भी यह छोटी सी लहर उस प्रचंड तरंग को उत्पन्न
करनेवाली शक्ति के एक अल्पांश का मूर्त रूप ही है।
इसके पूर्व कि हमारा मन क्रियाशीलता के निम्न स्तर पर प्रबल कर्म-तरंग
उत्पन्न कर सके, आवश्यकता इस बात की है कि हम सच्चे तथा ठीक ठीक तथ्यों
के निकट पहुँच जाएँ, फिर वे भले ही विकट तथा भयप्रद क्यों नहों; हम
सत्य-शुद्ध सत्य को प्राप्त करें, चाहे उसके आंदोलन में हमारे हृदय का
प्रत्येक तार छिन्न-भिन्न ही क्यों न हो जाए; हम नि:स्वार्थ तथा निष्कपट
प्रेरणा को प्राप्त करे-चाहे उसकी प्राप्ति में हमारा अंग-प्रत्यंग ही
क्यों न कट जाएँ। सूक्ष्म वस्तु काल-स्रोत में प्रवाहित होते होते अपने
चारों ओर स्थूल वस्तुओं को समेटती रहती है और अव्यक्त व्यक्त हो जाता
है; अदृश्य दृश्य का स्वरूप धारण कर लेता है; जो बात संभव सी प्रतीत होती
थी, वह वास्तविक रूप धारण कर लेती है; कारण कार्य में तथा विचार शारीरिक
कार्यों में परिणत हो जाते हैं।
कारण सहस्त्रों प्रतिकूल परिस्थितियोंवश भले ही अवरुद्ध रहे, परंतु कभी न कभी
वह कार्यरूप में अवश्य ही परिणत होगा तथा इसी प्रकार एक सक्षम विचार भी, आज
चाहे जितना क्षीण क्यों नहो, एक न एक दिन स्थूल क्रिया के रूप में अवश्य ही
गौरवांवित होगा। साथ ही हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इंद्रिय-सुख प्रदान
करने की क्षमता की दृष्टि से किसी वस्तु का मूल्य आँकना भी उचित नहीं।
जो प्राणी जितना अधिक निम्न स्तर में रहता है, उतना ही अधिक वह इंद्रियों
में सुख अनुभव करता है तथा उतने ही अधिक परिमाण में वह इंद्रियों के राज्य
में निवास करता हे। सभ्यता-यथार्थ सभ्यता का अर्थ वह शक्ति होना चाहिए, जो
पशुभावापन्न मानव को इंद्रिय-भोगों के जीवन के परे ले जा सके, उसे बाह्य सुख
देकर नहीं, वरन् उच्चतर जीवन के दृश्य दिखलाकर, उसका अनुभव कराकर।
मनुष्य को इस बात का ज्ञान जन्मजात-प्रवृत्ति द्वारा प्राप्त रहता है, चाहे
सभी अवस्थाओं में उसे इस बात का बोध स्पष्ट रूप से भले ही न रहता हो।
विचारशील जीवन के संबंध में उसकी बहुत ही भिन्न धारणाएँ हो सकती हैं, पर फिर
भी यह उसके हृदय में स्थित रहता है, वह तो हर हालत में प्रकट होने की ही
चेष्टा करता रहता है-इसीलिए तो मनुष्य किसी बाजीगर, ओझा, जादूगर, पुरोहित
अथवा वैज्ञानिक के प्रति सम्मान दर्शाए बिना नहीं रह सकता। जिस परिणाम में
मनुष्य इंद्रियपरायणता को छोड़कर उच्च भाव-जगत् में अवस्थान करने का
सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है, जिस परिमाण में वह विशुद्ध चिंतन रूपी
प्राणवायु फेफड़ों के भीतर खींचने में समर्थ हो जाता है तथा जितने अधिक समय तक
वह उस उच्च अवस्था में रह सकता है, केवल इसी आधार पर उसका विकास औका जा सकता
है।
जैसी स्थिति है, उसमें यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि संस्कृत व्यक्ति
अपने जीवन-निर्वाह के लिए नितांत आवश्यक चीज़ों के अतिरिक्त, तथाकथित
ऐश-आराम में अपना समय गँवाना बिल्कुल पसंद नहीं करता और जैसे जैसे वह उन्नत
होता जाता है, वैसे वैसे आवश्यक कर्म करने में भी उसका उत्साह कम होता दिखाई
देता है।
इतना ही नहीं, मनुष्य की विलासविषयक धारणाएँ भी विचारों तथा आदर्शों के
अनुसार विन्यस्त होती जाती हैं। और उसका प्रयत्न यही रहता है कि उनमें वही
विचार-जगत् यथाशक्ति प्रतिबिंबित हों-और यही है कला।
'-जिस प्रकार एक ही अग्नि विश्व में प्रवेश कर प्रत्येक रूप में अपने को
प्रकट करती है, और फिर भी जितनी वह व्यक्त हुई है, उससे वह कहीं अधिक होती
है'
[1]
वह अनंत गुना अधिक है ! अनंत चैतन्य का केवल एक कण हमें सुख देने के लिए इस
जड़ जगत् में अवतीर्ण हो सकता है। पर उसके शेष भाग को यहाँ लाकर उसके साथ
स्थूल के समान हम मनमाना व्यवहार नहीं कर सकते। वह परम सूक्ष्म वस्तु
हमारे दृष्टि-क्षेत्र से सर्वदा ही बाहर निकल जाती है तथा उसे हमारे स्तर पर
खींच लाने की हमारी जो चेष्टा होती है, उसे देखकर वह हँसती है। इस विषय में
हम यही कहेंगे कि 'मुहम्मद को ही पर्वत के निकट जाना होगा'- उसमें 'नहीं'कहने
की गुंजाइश नहीं। मनुष्य के लिए अपने को उसी उच्च स्तरतक उठाना पड़ेगा, यदि
वह चाहता है कि वह उस अतींद्रिय प्रदेश के सौंदर्य का पान करे, उसके आलोक में
अवगाहन करे तथा उसका जीवन विश्व-जीवन के मूल कारण के साथ एकात्म होकर
स्पंदित हो।
ज्ञान ही आश्चर्य जगत् का द्वार खोलता है, ज्ञान ही पशु को देवता बनाता है और
जो ज्ञान हमें उस ईश्वर के निकट पहुँचा देता है,'जिसे जान लेने से सब कुछ
ज्ञात हो जाता है'
[2]
- जो समस्त अन्यान्य ज्ञान (अपरा विद्या) का हृदयस्वरूप है, जिसके स्पंदन
से समस्त भौतिक विज्ञानों में प्राणों का संचार हो जाता है, वह धर्म-विज्ञान
ही नि:संदेह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि केवल वही मनुष्य को संपूर्ण तथा
श्रेष्ठ विचारमय जीवन व्यतीत करने में समर्थ बना सकता है। धन्य है वह देश,
जिसने उसे 'परा विद्या' नाम से संबोधित किया है।
यद्यपि व्यवहार में शायद ही तात्विक सिद्धांत की पूर्ण अभिव्यक्ति दिखाई
देती हो, परंतु फिर भी आदर्श कभी ओझल नहीं होता। एक ओर हमारा यह कर्तव्य है
कि हम अपने आदर्श को कभी ओझल नहीं होता। एक ओर हमारा यह कर्तव्य है कि हम
अपने आदर्श को कभी ओझल न होने दें, चाहे हम उसकी ओर संवेद्य गति से अग्रसर हों
अथवा असंवेद्य धीमी गति से रेंगते हुए जाएँ; दूसरी ओर वस्तु-स्थिति यह है कि
चाहे हम अपने हाथों को अपनी आँखों के सामने करके उसका प्रकाश ढँकने का जितना
यत्न करें, सत्य सर्वदा हमारे सम्मुख अस्पष्ट रूप से विद्यमान रहता हो
है।
व्यावहारिक जीवन आदर्श में ही है। हम चाहे दार्शनिक सिद्धांत प्रतिपादित करें
अथवा दैनिक जीवन के कठोर कर्तव्यों का पालन करें, हमारे संपूर्ण जीवन में
आदर्श ही ओतप्रोत रूप से विद्यमान रहता है। इसी आदर्श की किरणें सीधी अथवा
वक्र गति से प्रतिबिंबित तथा परावर्तित हो मानो हमारे जीवनगृह में प्रत्येक
रंध्र तथा वातायन से होकर प्रवेश करती रहती हैं और हमें जान अथवा अनजान में
अपना प्रत्येक कार्य उसीके प्रकाश में करना पड़ता है, प्रत्येक वस्तु को
उसीके द्वारा परिवर्तित, परिवर्द्धित अथवा विरूपित देखना पड़ता है। हम अभी
जैसे हैं, वैसा आदर्श ने ही बनाया है अथवा भविष्य में जैसे होनेवाले हैं,
वैसा आदर्श ही बना देगा। आदर्श की शक्ति ही ने हमें आवृत्त कर रखा है तथा अपने
सुखों में अथवा दु:खों में, अपने महान् कार्यों में अथवा अपने अवगुणों में हम
उसी शक्ति का अनुभव करते हैं।
यदि व्यावहारिक जीवन पर आदर्श का इतना असर होता है, तो उसी प्रकार
व्यावहारिक जीवन का भी हमारे आदर्श को गढ़ने में कुछ कम हाथ नहीं है। असल में
आदर्श का सत्य तो व्यावहारिक जीवन में ही है। आदर्श का फल व्यावहारिक जीवन
के प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा ही प्राप्त होता है। आदर्श का अस्तित्व ही इस
बात का प्रमाण है कि कहीं न कहीं अथवा किसी न किसी रूप में वह व्यावहारिक
जीवन है। आदर्श कितना ही विशाल क्यों न हो, परंतु वास्तव में वह व्यावहारिक
जीवन के छोटे-छोटे अंशों का विस्तृत रूप ही है। आदर्श अधिकांशत: संयोजित,
सामान्यीकृत व्यावहारिक इकाइयाँ हैं ।
व्यावहारिक जीवन में ही आदर्श की शक्ति है; व्यावहारिक जीवन में और उसके
द्वारा ही वह हम पर क्रियाशील होता है। व्यावहारिक जीवन द्वारा ही हमें उसकी
इंद्रियानुभूति होती है तथा उसीके द्वारा वह आत्मसात किए जाने योग्य रूप
धारण करता है। व्यावहारिक जीवन को ही सीढ़ी बनाकर हम आदर्श की ओर उठते हैं।
उसी पर हम अपनी आशाएँ बाँधते हैं, वही हमें कार्य करने के लिए साहस देता है।
ऐसे करोड़ों लोगों की अपेक्षा, जो शब्दों आदर्श को अत्यंत सुंदर रंगों में
चित्रित कर सकते हैं, और सूक्ष्मातिसूक्ष्म सिद्धांतों का निरूपण कर सकते
हैं, वह व्यक्ति कहीं अधिक शक्तिमान है, जिसने अपने जीवन में आदर्श को
अभिव्यक्त कर लिया है।
दर्शन शास्त्र मानव-समाज के लिए उस समय तक निरर्थक से ही हैं अथवा अधिक से
अधिक बौद्धिक व्यायाम मात्र हैं, जब तक कि वे धर्म के साथ संयुक्त नहीं
होते, तथा एक ऐसा व्यक्ति समुदाय उन्हें प्राप्त नहीं हो जाता, जो उन्हें
न्यूनाधिक सफलता के साथ व्यावहारिक जीवन में परिणत कर दे। जिन मतवादों से एक
भी भावात्मक आशा नहीं थी, पर उन्हें भी जब व्यक्ति समुदायों ने अपनाकर कुछ
व्यावहारिक बना दिया, तो उनके भी विशाल संख्या में अनुयायी हमेशा के लिए हो
गए। परंतु उसके अभाव में अनेक भावात्मक विचार-सिद्धांत नष्ट हो गए।
हममें से अधिकांश लोग अपने कार्यों को अपने विचार-जीवन के समकक्ष नहीं रख
पाते। केवल थोड़े ही धन्यभाग ऐसा कर सकते हैं। हममें से अधिकांश व्यक्ति जब
गंभीर मनन करने लग जाते हैं, तो वे अपनी कार्यक्षमता खो बैठते हैं और जब अधिक
कार्य में व्यस्त हो जाते हैं,तो गंभीर मनन-शक्ति भी गँवा बैठते हैं। यही
कारण है कि अधिकांश महान् विचारकों को अपने उच्च आदर्शों की व्यावहारिक
परिणति का प्रश्न काल पर छोड़ देना पड़ता है। उनके विचारों की कार्यरूप में
परिणत होने तथा प्रचारित होने के लिए और अधिक सक्रिय मस्तिष्कवालों की
प्रतीज्ञा करनी पड़ती है। इन पंक्तियों को लिखते समय मानो हमारे सामने उस
कवचधारी पार्थसारथि की झलक दिखाई पड़ जाति है, जो दोनों विरोधी सैन्यों के
बीच अपने रथ पर खड़े होकर अपने बायें हाथ से दृप्त अश्वों को रोक रहे हैं,
और वे अपनी गुद्ध दृष्टि से विशाल सेना को निहार रहे हैं तथा मानो अपनी
जन्मजात-प्रवृत्ति द्वारा दोनों दलों की रण-सज्जा की प्रत्येक बात को तील
रहे हैं।साथ ही मानो उनके ओठों से भयाकुल अर्जुन को रोमांचित करने वाला कर्म
का वह अत्यद्भुत रहस्य निकल रहा है -
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।।गीता।।४।१८।।
-'जो कर्म में अकर्म अर्थात् विश्राम या शांति, एवं अकर्म अर्थात् शांति में
कर्म देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान है, वही योगी है, और उसी ने सब
कर्म किए हैं।'
यही पूर्ण आदर्श है। परंतु बहुत ही कम लोग इस आदर्श को प्राप्त कर पाते हैं।
अतएव परिस्थितियाँ जैसी भी हों, हमें उन्हें ग्रहण करना ही चाहिए तथा
विभिन्न व्यक्तियों में विकसित मानव पूर्णता के भिन्न भिन्न पहलुओं को
एकत्र करके संतोष करना चाहिए।
धर्म के क्षेत्र में चार प्रकार के साधक होते हैं-गंभीर चिंतनशील
(ज्ञान-योगी), दूसरों की सहायता के लिए प्रबल कर्मशील (कर्मयोगी), साहस और
निर्भीकता के साथ आत्मानुभूति प्राप्त कर लेने में अग्रसर (राजयोगी) तथा
शांत एवं विनम्र (भक्तियोगी)।
जिस व्यक्ति का शब्द-चित्र हम यहाँ दे रहे हैं, वे अद्भुत विनयसंपन्न तथा
गंभीर आत्मज्ञानी थे।
* * *
पवहारी बाबा (मृत्यु के बाद वे इसी नाम से विख्यात हुए) का जन्म बनारस जिले
में गुज़ी नामक स्थान के निकट एक गाँव में ब्राह्मण वंश में हुआ।
बाल्यावस्था में ही वे अपने चाचा के पास रहने तथा विद्यार्जन करने के लिए
गाजीपुर आ गए थे।
वर्तमान काल में हिंदु साधु प्रधानत: निम्नलिखित संप्रदायों में विभक्त हैं
: संन्यासी, योगी, वैरागी तथा पंथी। संन्यासी श्री शंकराचार्य के मतावलंबी
अद्वैतवादी हैं। योगी यद्यपि अद्वैतवादी होते हैं, पर योग की भिन्न-भिन्न
प्रणालियों की साधना करने के कारण उनकी एक अलग श्रेणी मानी गई है। वैरागी
रामानुजाचार्य तथा अन्यान्य द्वैतवादी आचार्यों के अनुयायी होते हैं।
पंथियों में द्वैती तथा अद्वैती दोनों का समावेश होता है, इनके संप्रदायों की
स्थापना मुसलमानों के शासन-काल में हुई थी। पवहारी बाबा के चाचा रामानुज अथवा
श्री संप्रदाय के अनुयायी थे; वे नैष्ठिक ब्रह्माचारी थे अर्थात् उन्होंने
आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। गाजीपुर से उत्तर दो मील की दूरी पर गंगा
के किनारे उनकी छोटी सी ज़मीन थी और वहीं वे बस गए थे। उनके कई भतीजे थे।
उनमें से वे एक (पवहारी बाबा) को अपने घर में ले गए और गोद ले लिया, जिससे वह
उनकी संपत्ति तथा पद का उत्तराधिकारी हो।
पवहारी बाबा की इस समय की जीवन-घटनाओं के संबंध में हमें कोई विशेष जानकारी
प्राप्त नहीं है और न हमें इसी बात का कुछ पता है कि जिन विशेष गुणों के कारण
वे भविष्य में इतने विख्यात हुए थे, उनका उस समय उनमें कोई चिह्न भी
विद्यमान था। लोगों को इतना ही स्मरण है कि उन्होंने व्याकरण, न्याय तथा
अपने संप्रदाय के धर्मग्रंथों का बड़े परिश्रम के साथ विशेष रूप से अध्ययन
किया था। साथ ही वे फुर्तीले एवं विनोदप्रिय भी थे। कभी-कभी उनकी विनोदप्रियता
इतनी बढ़ जाती थी कि उनके सहपाठियों को उनकी शरारतों से परेशान होना पड़ता था।
इस प्रकार प्राचीन परंपरा के भारतीय विद्यार्थियों के दैनिक कर्तव्यों के बीच
इस भावी संत का वाल्य जीवन व्यतीत होने लगा। उनके उस समय के सरल आनंदमय तथा
क्रीड़ाशील छात्र-जीवन में अपने अध्ययन के प्रति असाधारण अनुराग तथा भाषाएँ
सीखने की अपूर्व प्रवृत्ति के अतिरिक्त और कोई ऐसी विशेष बात नहीं दिखाई देती
थी कि उनके भावी जीवन की उस उत्कट गंभीरता का अनुमान किया जा सकता, जिसकी
परिणति एक अत्यंत अद्भुत तथा रोमांचकारी आत्माहुति में होने वाली थी।
इसी समय एक ऐसी घटना हुई, जिससे इस बाल विद्यार्थी को संभवत: पहली ही बार जीवन
के गंभीर रहस्य की अनुभूति हुई। अब तक जो दृष्टि किताबों में ही गड़ी रही थी,
उसे ऊपर उठाकर वह युवक अपने मनोजगत् का बारीकी के साथ निरीक्षण करने लगा। और
धर्म का वह अंश जानने के लिए व्याकुल हो उठा, जो केवल किताबी ही न होकर
वास्तव में सत्य है। इसी समय उसके चाचा की मृत्यु हो गई-इस बाल हृदय का
समस्त प्रेम जिस पर केंद्रित था, वही चल बसा। दु:ख से ममहित एवं सतप्त बालक
शून्य को पूर्ण करने के लिए अब एक ऐसी चिंतन वस्तु के अन्वेषण के लिए
कटिबद्ध हो गया, जिसमें कभी परिवर्तन होता ही नहीं।
भारत में सभी विषयों के लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है। हम हिंदुओं का
ऐसा विश्वास है कि ग्रंथ रूपरेखा मात्र हैं। प्रत्येक कला में, प्रत्येक
विद्या में, विशेषकर धर्म में जीवंत रहस्यों की प्राप्ति शिष्य को गुरु
द्वारा ही होनी चाहिए। अत्यंत प्राचीन काल से ही भारत में जिज्ञासुओं ने बिना
व्यतिक्रमों के अंतर्जगत् के रहस्यों की खोज करने के लिए सदैव एकांत का
आश्रय लिया है और आज भी ऐसा एक भी वन, पर्वत अथवा पवित्र स्थान नहीं है,
जिसके संबंध में यह किंवदंती न प्रचलित हो कि किसी न किसी महात्मा के निवास
से वह स्थान पवित्र हुआ है।
यह कहावत प्रसिद्ध है :
रमता साधु
, बहता पानी।
इनमें कभी ना मैल लखानी।।
--'जिस प्रकार बहता पानी शुद्ध और निर्मल होता है, उसी प्रकार भ्रमण करने वाला
साधु भी पवित्र तथा निर्मल होता है।'
भारत में जो लोग ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर धार्मिक जीवन बिताते हैं, वे
साधारणतया अपना अधिकांश जीवन देश के विभिन्न प्रदेशों में भ्रमण करने में तथा
भिन्न-भिन्न तीर्थों एवं पुण्य स्थानों के दर्शन करने में ही व्यतीत करते
हैं। जिस चीज का सर्वदा व्यवहार होता रहता है, उसमें जंग कभी नहीं लगता; इसी
प्रकार मानो भ्रमण करते रहने से उनमें मलिनता कभी प्रवेश नहीं कर पाती। इसके
एक और लाभ होता है-उन महात्माओं द्वारा धर्म मानो प्रत्येक व्यक्ति के
दरवाजे पर पहुँच जाता है। जिन्होंने संसार का त्याग किया है, उनके लिए यह
आवश्यक कर्तव्य माना गया है कि वे भारत की चारों दिशाओं में स्थित चारों
मुख्य धामों (उत्तर में बदरी-केदार, पूर्व में पुरी, दक्षिण में सेतुबंध
रामेश्वर और पश्चिम में द्वारका) का दर्शन करें।
संभव है, उपर्युक्त कारणों ने ही हमारे इस युवक ब्रह्मचारी को भारत भ्रमण के
लिए उद्यत किया हो, परंतु यह हम निश्चित रूप से कह सकते हैं कि उनके भ्रमण का
मुख्य कारण उनकी ज्ञान-तृष्णा ही थी। हमें उनके भ्रमण के संबंध में, बहुत
थोड़ी जानकारी है; तथापि जिन द्राविड़ भाषाओं में उनके संप्रदाय के अनेक ग्रंथ
लिखे हुए हैं, उन भाषाओं का उनका ज्ञान देखकर, तथा श्री चैतन्य संप्रदाय के
वैष्णवों की प्राचीन बांग्ला भाषा से भी उनका पूर्ण परिचय देखकर हम अनुमान कर
सकते हैं कि दक्षिण तथा बंगाल में वे काफी समय तक रुके होंगे।
परंतु उनके यौवन-काल के मित्रगण उनके एक विशिष्ट स्थान के प्रवास पर विशेष
जोर देते हैं । वे कहते हैं कि काठियावाड़ में गिरनार पर्वत की चोटी पर ही वे
सर्वप्रथम व्यावहारिक योग के रहस्यों में दीक्षित हुए थे।
यही वह पर्वत है, जिसे बौद्ध इतना पवित्र मानते थे। इस पर्वत के नीचे वह
विशाल शिला है, जिस पर 'राजाओं में परम धर्मशील' अशोक का पुरातत्त्ववेत्ताओं
द्वारा सर्वप्रथम पढ़ा हुआ धर्मानुशासन उत्कीर्ण है। उसके भी नीचे, सैकड़ों
सदियों की विस्मृति के अंधकार में लीन, अरण्यों से ढँके हुए विशाल
स्तूपसमूह थे, जिनके संबंध में लंबे अरसे तक यह धारणा थी कि वे गिरनार
पर्वत-श्रेणी के ही टीले हैं। अब भी वह संप्रदाय-जिसका बौद्ध धर्म आज एक
संशोधित संस्करण समझा जाता है-इस पर्वत को कम पवित्र नहीं मानता और आश्चर्य
की बात यह है कि उसके विश्वविजयी उत्तराधिकारी के आधुनिक हिंदू धर्म में
विलीन होने के पूर्व तक उसने स्थापत्य-क्षेत्र में विजय-लाभ करने का साहस
नहीं किया।
महायोगी अवधूत गुरु दत्तात्रेय के प्रवास से पुनीत होने के कारण गिरनार पर्वत
हिंदुओं में प्रसिद्ध है और कहा जाता है कि इस पर्वत की चोटी पर किसी किसी
भाग्यशाली व्यक्ति को अब भी महान तथा सिद्ध योगियों का दर्शन हो जाता है।
हमारे युवक ब्रह्मचारी ने अपने जीवन के दूसरे मोड़ में एक साधक संन्यासी का
शिष्यत्व ग्रहण किया। ये संन्यासी कहीं वाराणसी के निकट गंगा के तट पर रहते
थे। उनका निवास-स्थान गंगा की उच्च तटभूमि में खुदी हुई एक गुफा था। हमारे
सत भी अपने भविष्य जीवन में गाज़ीपुर के निकट गंगा के किनारे ज़मीन के नीचे
बनायी हुई एक गहरी गुफा में वास करते थे। हम अनुमान कर सकते हैं कि उन्होंने
यह बात अपने योगी गुरु से ही सीखी होगी। योगियों ने सदैव ऐसी ही गुफाओं अथवा
स्थानों में रहना उचित कहा हैं, जहाँ का तापमान सम हो, कोलाहल मस्तिष्क को
विचलित न कर सके। हमें यह भी ज्ञात हुआ है कि वे लगभग इसी समय वाराणसी के एक
संन्यासी के पास अद्वैत दर्शन का अध्ययन कर रहे थे।
अनेक वर्षों तक भ्रमण, अध्ययन तथा साधना करने के उपरांत युवक ब्रह्मचारी उस
स्थान पर लौट आए, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। यदि उनके चाचा जी उस समय तक
जीवित रहते, तो वे संभवत: उस युवक के मुखमंडल पर वही ज्योति देखते, जो
प्राचीन काल के एक महान् ऋषि ने अपने शिष्य के मुख पर देखी थी और कहा था,
ब्रह्मविदिव वै सोम्य भासि
[3]
-- 'हे सोम्य, देख रहा हूँ-आज तुम्हारे मुख पर ब्रह्मज्योति झलक रही है।
परंतु घर लौटने पर जिन्होंने उनका स्वागत किया, वे थे केवल उनके बाल्य जीवन
के मित्रगण। उनमें से अधिकांश संकीर्ण विचारों तथा शाश्वत संघर्ष के संसार
में हमेशा के लिए प्रविष्ठ हो चुके थे।
परंतु फिर भी उन लोगों को अपनी पाठशाला के इस पुराने मित्र तथा खिलाड़ी के,
जिसको समझने के वे आदी थे, चरित्र एवं आचरण में एक परिवर्तन -एक रहस्यमय
परिवर्तन दिखाई दिया, जो उनके लिए विस्मयजनक था लेकिन अपने मित्र के सदृश
बनने की इच्छा अथवा उसके समान सत्य की खोज करने की आकांक्षा उनमें जाग्रत न
हो सकी। यह एक ऐसे व्यक्ति का रहस्य था, जो इस कष्टमय तथा भोग लोलुप संसार
से पार जा चुका था, और बस इतनी ही भावना उनके लिए पर्याप्त थी। सहज ही इनके
प्रति श्रद्धा-संपन्न हो, उन लोगों ने फिर और अधिक जिज्ञासा प्रकट नहीं की।
इसी समय इस संत की विशिष्टताएँ अधिकाधिक विकसित और प्रकट होने लगीं, काशी के
निकट रहनेवाले अपने मित्र के सदृश उन्होंने भी ज़मीन में एक गुफा खुदवा ली थी
और उसमें प्रवेश कर वे वहाँ अनेक घंटे बिताने लगे। इसके पश्चात् अपने आहार के
संबंध में भी वे कठोर, नियम का पालन करने लगे। दिन भर वे अपने छोटे से आश्रम
में काम करते, अपने प्रेमास्पद श्री रामचंद्र जी की पूजा करते; उत्तम प्रकार
के व्यंजन तैयार करते। (कहते हैं कि इस पाक-विद्या में वे असाधारण रूप से
निपुण थे)। इन व्यंजनों को भगवान का भोग लगाकर वे फिर उन्हें अपने मित्रों
तथा दरिद्रनारायणों में प्रसाद रूप में बाँट देते और रात होने तक उनकी सेवा
में लगे रहते। जब वे सब सो जाते, तब वे चुपके से गंगा जी में कूदकर तैरते हुए
दूसरे किनारे पर चले जाते और वहाँ सारी रात साधन-भजन में बिताकर प्रात:काल के
पूर्व ही वे वापस लौट आते और अपने मित्रों को जगाकर फिर अपने उसी नित्य कर्म
में लग जाते जिसे हम भारत में दूसरों की पूजा कहते हैं।
ऐसा करते करते उनका स्वयं का आहार दिनोंदिन कम होने लगा। हमने सुना है कि अंत
में वे दिन भर में केवल एक मुट्ठी नीम के कड़वे पत्ते अथवा कुछ लाल मिर्च ही
खाकर रह जाया करते थे। इसके बाद उन्होंने रात को गंगा जी के उस पार जंगल में
जाना छोड़ दिया और वे अपना अधिकाधिक समय उस गुफा में ही बिताने लगे। हमने सुना
है कि उस गुफा में वे कई कई दिन तथा महीनों तक ध्यानमग्न रहा करते और फिर
बाहर निकलते। यह कोई भी नहीं जानता था कि वे इतने लंबे समय तक वहाँ क्या खाकर
रहते हैं; इसीलिए लोग उन्हें 'पव-आहारी' (पवहारी) अर्थात् वायु-भक्षण करने
वाले बाबा कहने लगे।
फिर उन्होंने अपने जीवन भर यह स्थान नहीं छोड़ा। एक समय वे अपनी गुफा में
इतने अधिक समय तक रहे कि लोगों ने यह निश्चय कर लिया कि वे अब मर गए ! किंतु
बहुत समय के बाद वे फिर बाहर निकले और उन्होंने सैकड़ों साधुओं को भंडारा
दिया।
जब वे ध्यानमग्न नहीं रहते थे, तब अपनी गुफा के द्वार पर स्थित एक कमरे में
बैठकर, दर्शन के निमित्त आए हुए लोगों से बातचीत करते थे। अब उनकी कीर्ति
फैलने लगी और गाजीपुर-निवासी अफीम-विभाग के अधिकारी राय बहादुर श्री राय
गगनचंद्र के द्वारा-जो अपने उदात्त आचरण तथा धर्मपरायणता के कारण लोकप्रिय
थे-हमें इन संत से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
भारत के अन्य अनेक संतों के सदृश पवहारी बाबा के जीवन में भी कोई विशेष बाह्य
क्रियाशीलता नहीं दीख पड़ती थी। 'शब्द द्वारा नहीं, बल्कि जीवन द्वारा ही
शिक्षा देनी चाहिए, और जो व्यक्ति सत्य धारण करने के योग्य हैं, उन्हीं के
जीवन में वह प्रतिफलित होती है।'-उनका जीवन इसी भारतीय आदर्श का एक और उदाहरण
था। इस श्रेणी के संत, जो कुछ वे जानते हैं, उसका प्रचार करने में पूर्णतया
उदासीन रहते हैं; क्योंकि उनकी यह दृढ़ धारणा होती है कि शब्द द्वारा नहीं,
वरन् केवल भीतर की साधना द्वारा ही सत्य की प्राप्ति हो सकती है। उनके निकट
धर्म सामाजिक कर्तव्यों की प्रेरक शक्ति नहीं है, वरन् इसी जीवन में सत्य का
प्रखर अनुसंधान एवं सत्य की उपलब्धि है। वे काल के किसी एक क्षण में
अन्यान्य क्षणों की अपेक्षा अधिक क्षमता स्वीकार नहीं करते। अतएव अनंत काल
के प्रत्येक क्षण के एक समान होने के कारण वे इस बात पर जोर देते हैं कि
मृत्यु की बाट न जोहकर इसी लोक में तथा प्रस्तुत क्षण में ही आध्यात्मिक
सत्यों का साक्षात्कार कर लेना चाहिए।
लेखक ने एक समय इन संत से पूछा था कि संसार की सहायता करने के लिए वे अपनी
गुफा से बाहर क्यों नहीं आते। पहले तो उन्होंने अपनी स्वाभाविक विनयशीलता
तथा विनोदप्रियता के अनुरूप निम्नलिखित स्पष्ट उत्तर दिया :-
'एक दृष्ट मनुष्य कुछ दुष्कर्म करते समय पकड़ा गया और दंड के रूप में उसकी
नाक काट ली गई। अपना नकटा चेहरा दुनिया को दिखलाने में लज्जा का अनुभव करने
के कारण वह अपने से विरक्त होकर एक जंगल में भाग गया। वहाँ उसने एक शेर की
खाल बिछायी और जब वह देखता कि कोई आ रहा है,तो तुरंत गंभीर ध्यान का ढोंग
करके उस पर बैठ जाता। ऐसा करने से वह लोगों को दूर तो न रख सका, उलटे झुंड के
झुंड लोग इस अद्भुत महात्मा को देखने तथा उसकी पूजा करने के लिए आने लगे।
उसने देखा कि यह अरण्यवास तो फिर उसके लिए जीवन-निर्वाह का सरल साधन बन गया
है। इस प्रकार कई वर्ष बीत गए। अंत में उस स्थान के लोग इस मौनव्रतधारी
ध्यान-परायण साधु के मुख से कुछ उपदेश सुनने के लिए लालायित हुए और एक नवयुवक
उस 'साधु' के संप्रदाय में सम्मिलित होने के निमित्त दीक्षा लेने के लिए विशेष
रूप से उत्सुक हो उठा। अंत में ऐसी स्थिति पैदा हुई कि अधिक विलंब करने
सेसाधु की प्रतिष्ठा भंग होने की आशंका हो गई। तब तो एक दिन वह अपना मौन
छोड़कर उस उत्साही युवक से बोला, 'बेटा, कल अपने साथ एक तेज़ धारवाला उस्तरा
लेते आना।" इस आशा से कि उसके जीवन की महान् आकांक्षा शीघ्र ही पूर्ण हो
जाएगी, उस युवक को बड़ा आनंद हुआ और दूसरे दिन सबेरा होते ही वह एक तेज़ छुरा
लेकर साधु के पास जा पहुँचा। फिर यह नकटा साधु उस युवक को जंगल में एक दूर
निर्जन कोने में ले गया और एक ही आघात में उसकी नाक काट ली और गंभीर आवाज़ में
बेला, 'बेटा, इस संप्रदाय में मेरी दीक्षा इसी प्रकार हुई थी और वही आज मैंने
तुझे दी है। अवसर पाते ही तू भी उत्साह के साथ दूसरों को इसी दीक्षा का दान
देना !' लज्जा के कारण युवक अपनी इस अद्भुत दीक्षा का रहस्य किसी के पास
प्रकट नहीं कर सका और वह अपने गुरु के आदेश का पालन पूर्ण रूप से करने लगा। इस
प्रकार होते होते देश में नकटे साधुओं का एक पूरा संप्रदाय बन गया ! तुम्हारी
क्या ऐसी इच्छा है कि मैं भी इसी प्रकार के एक और संप्रदाय की स्थापना करूँ
?"
इसके उपरांत बहुत दिनों बाद इसी विषय पर फिर प्रश्न पूछने पर उन्होंने गंभीर
भाव से उत्तर दिया, "तुम्हारी क्या ऐसी धारणा है कि केवल स्थूल शरीर द्वारा
ही दूसरों की सहायता हो सकती है ? क्या शरीर के क्रियाशील हुए बिना केवल मन
ही दूसरों के मन की सहायता नहीं कर सकता ?"
इसी प्रकार एक दूसरे अवसर पर जब उनसे पूछा गया कि ऐसे श्रेष्ठ योगी होते हुए
भी वे होमादि क्रिया तथा श्री रघुनाथ की पूजा आदि कर्म-जो साधना की केवल
प्रारंभिक अवस्था के लिए समझे जाते हैं-क्यों करते हैं, तो उन्होंने उत्तर
दिया, "तुम यही क्यों समझ लेते हो कि प्रत्येक व्यक्ति अपने निज के कल्याण
के लिए ही कर्म किया करता है ? क्या एक मनुष्य दूसरों के लिए कर्म नहीं कर
सकता ?"
और फिर उनके बारे में चोरवाली वह कथा भी हर एक ने सुनी है। एक बार एक चोर उनके
आश्रम में चोरी करने घुसा, परंतु इन संत को देखते ही वह भयभीत हो, चुराए हुए
सामान की गठरी वहीं फेंककर भागा। ये संत वह गठरी लिए उस चोर के पीछे मीलों
दौड़कर उसके पास जा पहुँचे। उन्होंने वह गठरी उस चोर के पैरों पर रखकर हाथ
जोड़कर प्रणाम किया और इस बात के लिए सजल नेत्रों से क्षमा-याचना की कि उसके
उस चोरी के कार्य में वे बाधक हुए। फिर वे बड़ी कातरता के साथ उससे कहने लगे,
'तुम यह सब सामान ले लो, क्योंकि यह तुम्हारा ही है, मेरा नहीं।"
हमने विश्वस्त व्यक्तियों से यह कथा भी सुनी है कि एक बार एक काले साँप ने
उन्हें काट लिया। उसके बाद उनके मित्रों ने कई घंटों तक यही सोचा कि वे मर
गए, पर अंत में वे होश में आ गए। जब उनके मित्रों ने उनसे इसके सबंध में पूछा
तो उन्होंने यही कहा, "यह नाग तो हमारे प्रियतम का दूत था।"
और हम इस बात में सहज रूप से विश्वास भी कर सकते हैं, क्योंकि हम जानते हैं,
उनका स्वभाव कैसे प्रगाढ़ प्रेम, विनय एवं नम्रता से भूषित था। सब प्रकार के
शारीरिक दु:ख उनके लिए अपने प्रियतम के पास से आए दूत के समान ही थे और यद्यपि
इन दु:खों से कभी कभी उन्हें अत्यंत पीड़ा भी होती थी, पर यदि कोई दूसरा
व्यक्ति इन दु:खों को किसी दूसरे नाम से संबोधित करता, तो उन्हें बहुत असह्य
हो जाता। उनका यह मौन प्रेम तथा हृदय की सरलता आसपास के सभी लोगों के हृदय पर
अपनी छाप डाल चुकी थी और जिन्होंने आसपास के गाँवों में भ्रमण किया है, वे इस
अद्भुत महात्मा के अवर्णनीय नीरव प्रभावकी साक्षी दे सकते हैं। अंतिम दिनों
में उन्होंने लोगों से मिलना बंद कर दिया था। जब वे अपनी गुफा के बाहर आते,
तब लोगों से बातचीत करते, पर बीच का दरवाज़ा बद रखकर। उनके गुफा से बाहर
निकलने का पता उनके ऊपरवाले कमरे में से होम के धुएँ के निकलने से अथवा पूजा
की सामग्री ठीक करने की आवाज़ से चलता था।
उनकी एक विशेषता यह थी कि वे जिस समय जो काम हाथ में लेते थे, वह चाहे कितना
ही तुच्छ क्यों न हो, उसमें वे पूर्णतया तल्लीन हो जाते थे। जिस प्रकार
श्री रघुनाथ जी की पूजा वे पूर्ण अंत:करण से करते थे, उसी प्रकार एकाग्रता तथा
लगन के साथ वे एक ताँबे का क्षुद्र बरतन भी माँजते थे। उन्होंने हमें
कर्म-रहस्य के संबंध में यह शिक्षा दी थी कि 'जस साधन तस सिद्धि', अर्थात्
'ध्येय-प्राप्ति के साधनों से वैसा ही प्रेम रखना चाहिए मानो वे स्वयं ही
ध्येय हों।' और वे स्वयं इस महान् सत्य के उत्कृष्ट उदाहरण थे।
उनका विनम्र भाव उस प्रकार का नहीं था, जिसका अर्थ होता है कष्ट, पीड़ा और
अपनी अवमानना। एक समय उन्होंने हमारे सम्मुख निम्नलिखित भाव की बड़ी सुंदर
व्याख्या की थी, "हे राजन्, ईश्वर तो उन अकिंचनों का धन है, जिन्होंने सब
वस्तुओं का त्याग कर दिया है -यहाँ तक कि अपनी आत्मा के संबंध में भी इस
भावना का कि 'यह मेरी है', पूर्ण त्याग कर दिया है।" और इसी अनुभूति द्वारा
उनमें विनय भाव सहज रूप से उत्पन्न हुआ था।
वे प्रत्यक्ष रूप से कभी उपदेश नहीं देते थे, क्योंकि ऐसा करना तो मानो
आचार्यपद ग्रहण करना तथा स्वयं को मानो दूसरों की अपेक्षा उच्चतर आसन पर
आरूढ़ कर लेने के सदृश हो जाता। परंतु एक बार जब उनके हृदय का स्रोत खुल जाता
था, तब उसमें से अनंत-ज्ञान की धारा निकल पड़ती थी। पर फिर भी उनके उत्तर सीधे
न होकर संकेतात्मक ही हुआ करते थे।
देखने में वे अच्छे लंबे-चौड़े तथा दोहरे शरीर के थे। उनके एक ही आँख थी और
अपनी वास्तविक उम्र से वे बहूत कम प्रतीत होते थे। उनकी आवाज इतनी मधुर थी कि
हमने वैसी आवाज अभी तक नहीं सुनी। अपने जीवन के शेष दस वर्ष या उससे भी कुछ
अधिक समय से, वे लोगों को फिर दिखाई नहीं पड़े। उनके दरवाज़े के पीछे कुछ आलू
तथा थोड़ा सा मक्खन रख दिया जाता था और रात को किसी समय जब वे समाधि में न
होकर अपने ऊपरवाले कमरे में होते थे, तो इन चीजों को ले लेते थे। पर जब वे
गुफा के भीतर चले जाते थे, तब उन्हें इन चीजों की भी आवश्यकता नहीं रह जाती
थी। इस प्रकार मौन योग-साधना में समाहित उनका वह नीरव जीवन, जिसे पवित्रता,
विनय और प्रेम का जीवंत दृष्टांत कह सकते हैं, धीरे-धीरे व्यतीत होने लगा।
हम पहले ही कह चुके हैं कि बाहर से धुआँ दीख पड़ने से ही मालूम हो जाता था कि
वे समाधि से उठे हैं। एक दिन उस धुएँ में जलते हुए मांस की दुर्गंध आने लगी।
आसपास के लोग इसके संबंध में कुछ अनुमान न कर सके कि क्या हो रहा है। अंत में
जब वह दुर्गंध असह्य हो उठी और धुआँ भी अत्यधिक मात्रा में ऊपर उठता हुआ
दिखाई देने लगा, तब लोगों ने दरवाज़ा तोड़ डाला और देखा कि उस महायोगी ने
स्वयं को पूर्णाहुति के रूप में उस होमाग्नि को समर्पित कर दिया है। थोड़े ही
समय में उनका वह शरीर भस्म की राशि में परिणत हो गया।
यहाँ पर हमें कालिदास की ये पंक्तियाँ याद आती हैं :
अलोकसामान्यमचिन्त्यहेतुकम्। निन्दन्ति मन्दाश्चरितं महात्ननाम्।।
[4]
-- अर्थात् मन्दबुद्धि व्यक्ति महात्माओं के कार्यों की निंदा करते हैं,
क्योंकि ये कार्य असाधारण होते हैं तथा उनके कारण भी सर्वसाधारण व्यक्तियों
की विचार-शक्ति से परे होते हैं।
परंतु उनके साथ हमारा यह परिचय होने के कारण उनके उक्त कार्य के संबंध में हम
एक अनुमान लगाने का साहस कर सकते हैं कि उन्होंने यह जान लिया था कि उनके
जीवन का अंतिम क्षण समीप आ गया है और उनकी मृत्यु के पश्चात् भी किसीको कोई
कष्ट न हो, इसीलिए उन्होंने पूर्ण स्वस्थ शरीर तथा मन से आर्यों का यह
अंतिम यज्ञ भी संपन्न कर डाला।
प्रस्तुत लेखक इस परलोकगत संत के प्रति परम ऋषी है। इस लेखक ने जिन
श्रेष्ठतम आचार्यों से प्रेम किया है तथा जिनकी सेवा की है, उनमें से वे एक
हैं। उनकी पवित्र स्मृति में मैं ये पंक्तियाँ चाहे जैसी भी अयोग्य हों,
समर्पित करता हूँ।
[2]
कस्मिन्नुभगवोविज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।।मुण्डकोपनिष
।।१।१।३।।
[3]
छान्दोग्योपनिषद ।।४।९।२।।