पार्श्वनाथ : पार्श्वनाथ ऐतिहासिक पुरुष हैं, जिनके समय में जैन धर्म काफी व्यापक बना। वे काशी से थे और प्रसिद्ध नागवंश में पैदा हुए थे। उनके संबंध में प्रचलित मान्यता है कि जब उनके नाना साधुवेश में पंचाग्नि तप कर रहे थे, युवा पार्श्वनाथ को जलती हुई अग्नि के बीच एक नाग-नागिन का जोड़ा दिखा। उन्होंने तुरंत उन्हें अधजले बचा लिया। ये नाग-नागिन मरकर धरणेंद्र-पद्मावती बने। जब पार्श्वनाथ केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व साधना में ध्यानस्थ थे, तब उनके पूर्व जन्म के बैरी संवर नामक देव ने उन पर पत्थर, पानी ओले बरसाए। उस समय लोकधारणा है कि नाग-नागिन ने उनके ऊपर अपने फन फैला दिए। इसीलिये अधिकांश प्रतिमाओं में पार्श्वनाथ की पहचान उनके मस्तक के ऊपर फैले सर्प-फन से होती है। जर्मन इतिहासकार डॉ० याकोबी और डॉ० गिरनेट ने न केवल जैन धर्म को बौद्ध धर्म से प्राचीन प्रमाणित किया बल्कि बुद्ध से 250 वर्ष पूर्व होने वाले भगवान् पार्श्वनाथ को भी ऐतिहासिक पुरुष प्रमाणित किया। उड़ीसा की हाथी गुंफा से प्राप्त खारवेल का शिलालेख भी इसका समर्थन करता है। भगवान् महावीर का परिवार पार्श्वनाथ का अनुयायी था।
पार्श्वनाथ ने अहिंसा के सिद्धांत को सुव्यवस्थित रूप दिया। उन्होंने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के साथ अहिंसा को जोड़ा और अहिंसा को सामाजिक और व्यवहारिक रूप दिया। आचार्य सुशीलकुमार जी का मत है कि अहिंसा के सर्वप्रथम इतिहास-सिद्ध व्यवहारिक प्रयोग-दृष्टा पार्श्वनाथ ही थे। उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद लगभग 70 वर्ष तक अहिंसा का देशव्यापी प्रचार किया। उन्होंने कई जंगली जातियों को अहिंसक बनाया। उनका निर्वाण सम्मेदशिखर पर हुआ जिसे पारसनाथ पर्वत भी पुकारा जाता है। राजा प्रसेनजित पर हुए बर्बर आक्रमण के समय काशी-कोसल राज्यों की ओर से आप अकेले ही गए और अहिंसा व सहिष्णुता के संदेश से कटुता हटा कर मैत्री और शांति ला दी। पार्श्वनाथ भगवान् ने वैदिक यज्ञों में प्राणियों की आहुति रोकने की दिशा में कई सफल प्रयत्न किए। पार्श्वनाथ का प्रभाव बंगाल, बिहार, उड़ीसा में फैली जंगली और भील जनजातियों पर पड़ा जो आज भी उन्हें पूजती हैं, शाकाहारी हैं और रात्रिभोजन नहीं करतीं। पार्श्वनाथ का राजघरानों पर भी खासा प्रभाव था। उनके समय जैन धर्म को पार्श्वनाथ यानी पार्श्वनाथ का धर्म भी कहकर पुकारा जाने लगा था। जैन पुराणों के अनुसार पार्श्वनाथ का निर्वाण काल ईसवी पूर्व 777 का ठहरता है। पार्श्वनाथ का समय उपनिषद के निर्माण का समय है। कुछ उपनिषद ब्राह्मण परंपरा के ऋषियों ने व कुछ श्रमण परंपरा के ऋषियों ने लिखे।
- डॉ० नरेंद्र जैन
पितृसत्तात्मक हिंसा : मूलतः पितृसत्ता परिवार में पुरुषों के शासन की व्यवस्था है। पितृसत्ता पुरुष पर आधारित परिवार की इकाई की संरचना है। साथ ही, यह उस समाज को भी रेखांकित करती है, जिसमें समाज के आर्थिक, राजनैतिक तथा सामाजिक जीवन में पुरुषों को प्रभुत्व प्राप्त है। नारीवाद की विभिन्न धाराओं ने पितृसत्ता को एक असमानतापूर्ण एवं हिंसक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखा है, जो महिलाओं के प्रति शोषणकारी और दमनकारी है। पुरुष सत्ता के अर्थ में पितृसत्ता शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 16वीं सदी में अंग्रेजी भाषा में शुरू किया गया था। पितृसत्ता के लिए विशेषण पितृसत्तात्मकता है। सामान्यतः पितृसत्तात्मकता शब्द रिवाज (Praxis) या पितृसत्ता की प्रथा को संदर्भित करता है। कुछ सामाजिक परंपराओं में इसके लिए पितृवंशीयता (Patrilineal) शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। यह शब्द पैतृक वंशावली का द्योतक है। यह परिवार की जिम्मेदारियां और संपत्ति पिता से बेटे को हस्तानांतरित किए जाने की प्रथा की बात करता है। धार्मिक एवं बुर्जुआ मान्यताओं के अनुसार पुरुष हमेशा से स्त्री पर हावी रहा है। यहां तक कि कई मानवशास्त्री तथा समाजशास्त्री भी, जिन्हें भले ही ईश्वर में विश्वास न हो, इस बात में पूरी आस्था रखते हैं कि परिवार में पुरुष वर्चस्व मानव इतिहास के प्रारंभ अर्थात शिकारी युग से ही रहा है।
इस अवधारणा को सर्वप्रथम रेडीकल तथा समाजवादी चिंतकों ने चुनौती दी। उन्नीसवीं सदी में फ्रेडरिक एंगेल्स ने मार्क्स तथा मानवशास्त्री लेविस हेनरी मोर्गन के शोधों की सहायता से कुछ नए विश्लेषण प्रस्तुत किए, जिसके जरिए उन्होंने समाज में पैदा हुए वर्ग विभेद को पहचाना और यह बताया कि किस तरह मर्द ने निजी संपत्ति तथा अधिशेष पर नियंत्रण प्राप्त कर राज्य तथा पितृसत्तात्मक व्यवस्था कायम की। एंगेल्स का यह कार्य (परिवार, निजी संपत्ति तथा राज्य की उत्पत्ति) मानवशास्त्री कार्यों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने अपने तर्कों को अत्यंत तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत किया है। उनका यह मानना था कि आदिम समाज में स्वाभाविक कार्य का बंटवारा था, जिसमें स्त्रियां जीवन का उत्पादन (production of life) कर रही थीं, वहीं पुरुष जीवनोपयोगी वस्तुओं (Means of life) का उत्पादन कर रहे थे। उनका मुख्य कार्य शिकार, कृषि तथा समुदायों का गठन करना था। आज हम सब जानते हैं कि स्त्री ने शिकारी तथा संग्राहक काल (Hunter and Gatherer Period) में अत्यंत महत्त्वपूर्ण उत्पादक भूमिका अदा की तथा किसानी युग में भी वे कई प्रकार के अनाजों की खोज करने और उसे उपजाने के बाद उसे मिट्टी के बर्तनों में रखने और संजोने/संग्रहण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती रही।
यह तथ्य अपने आप में इस तर्क को खारिज करने के लिए पर्याप्त है कि उत्पादन में पुरुष की अधिक भूमिका होने के कारण उसका अधिशेष (Surplus) पर नियंत्रण बना और यही किसी स्त्री के परिवार में शोषण का मूल कारण है। इसके बाद प्रश्न उठता है कि पितृसत्तात्मक व्यवस्था का आधार क्या है तथा स्त्री शोषण का उद्भव कब हुआ? क्या मानव इतिहास के प्रारंभिक दौर से ही स्त्री का शोषण होता आया है? या निजी संपत्ति, राज्य तथा कृषि के विकास के बाद? कब इसने शक्ति हासिल की? आज नारीवादी सिद्धांतों ने सामाजिक विज्ञान के इन विषयों के लैंगिक पूर्वाग्रह के प्रति बेहतरीन आलोचना प्रस्तुत की है। प्रमुख मार्क्सवादी नारीवादी मानवशास्त्री इलिएनोर लीकॉक (Eleanor Leacock) ने बहुत अच्छे तरीके से यह दिखाया है कि जनजाति (Iroquois) समता में आस्था रखती थी-यहां तक कि 18वीं सदी में बड़े स्तर पर स्त्री का वर्चस्व भी था। 19वीं सदी के बाद पुरुष सत्ता की शुरुआत यूरोपीय व्यापार के प्रभाव के कारण हुई, तब तक वे मातृसत्तात्मक या मातृवंशीय व्यवस्था में ही आस्था रखते थे। गर्डा लर्नर की पुस्तक Creation of Patriarchy पहला नारीवादी इतिहास है जो राज्य के उदय का विश्लेषण करता है। गर्डा लर्नर पुरातात्त्विक तथा लिखित इतिहासों के आधार पर 3500 ई०पू० तथा 500 ई०पू० के मध्य पितृसत्ता के विकासक्रम को समझने के लिए मेसोपोटामियाई, सुमेरियाई, अकेडियाई, बेबिलोनियाई तथा हिब्रू सभ्यता का विश्लेषण करती हैं। उनकी यह पुस्तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के उदय और राज्य एवं वर्ग के साथ इसके संबंधों की व्यापक तस्वीर प्रस्तुत करती है। गर्डा लर्नर ने बहुत सुंदर तरीके से मेसोपोटामियाई राज्य का विश्ललेषण किया है। वह चौथी सदी ई०पू० पितृसत्तात्मक व्यवस्था/जेंडर संबंधों के उदय पर प्रकाश डालती हैं। यहां वह व्युत्पत्ति के तर्क पर निर्भर हैं, न कि ऐतिहासिक या पुरातात्त्विक शोधों पर।
मानवशास्त्री क्लाड मिलासॉक्स (Claude Meillasoux) द्वारा विकसित मॉडल के आधार पर वह समकालीन समाजों का अध्ययन करती हैं और उसे नवपाषाण युग पर लागू करती हैं। सार रूप में, लर्नर यह बताती हैं कि किस तरह प्रारंभ में जैविक भिन्नता के आधार पर काम का बंटवारा किया गया, परंतु जैसे ही कृषि युग का प्रारंभ हुआ, इसने पुरुषों को यह अवसर प्रदान किया कि वह उस (स्त्री) पर नियंत्रण प्राप्त करें। बड़ों ने बच्चों पर और मर्द ने स्त्री पर नियंत्रण कायम करना शुरु किया। इस पितृवंशीय परंपरा में स्त्रियों का आदान-प्रदान होने लगा। इस तरह हम 8000-3000 ई०पू० से पितृसत्ता के उद्भव को मान सकते है।
अंततः, गर्डा लर्नर 3500-3000 ई०पू० के बाद मेसोपोटामियाई, सुमेरियाई तथा अन्य समाजों के भी जरिए कई मातृवंशीय समाजों तथा धर्म के जरिए मातृ देवियों की जानकारी देती हैं। गर्डा लर्नर अपने विभिन्न सबूतों के जरिए यह तर्क साबित करती हैं कि पहली सहस्राब्दी के प्रारंभ में स्त्रियों की स्थिति तुलनात्मक रूप से बेहतर थी। वहां हमें मातृवंशीयता के प्रमाण भी मिलते हैं। उस समय में रानियों तथा कुलीन/सामंतों की स्त्रियों के पास कुछ महत्त्वपूर्ण शक्तियां भी थीं। मातृ देवियों के प्रमाण भी बहुतायत मात्रा में मिलते हैं। उस समय तक स्त्रियों की यौनिक अधीनता स्थापित नहीं हुई थी, परंतु धीरे-धीरे यह व्यवस्था कायम होती है और स्त्रियों की यौनिकता का उपयोग मंदिरों में देवदासी के रूप में होने लगता है। उनका कार्य एक जंगली पुरुष को नागरिक के रूप में तब्दील करना है। यहीं से उनकी भूमिकाएं भी अलग-अलग खांचों में बंटने लगती हैं। पत्नी, उपपत्नी, दासी या वेश्या के रूप में वे अपनी भूमिका का निर्वाह करती नजर आती हैं।
गर्डा लर्नर दासता के मुद्दे को महत्त्वपूर्ण तरीके से उठाती हैं। वह दासता के कारणों को स्त्री उत्पीड़न के जरिए समझती हैं। प्रारंभिक वैधानिक कोड भी इस काल का अनुसरण करते हैं। उनके केंद्रीय तत्त्वों में स्त्रियों के सामाजिक, आर्थिक और यौनिक उत्पीड़न के मुद्दे शामिल हैं। लर्नर यह बताती हैं कि हम्मूराबी की कानून संहिता (1752 ई०पू०) के 282 में से 73 तथा मध्य आर्यन कानून में 112 में से 59 कानून विवाह तथा यौनिकता के मुद्दे से जुड़े हुए हैं। इसके कारण परिवार व्यवस्था में न सिर्फ पुरुषों की शक्ति बढ़ी, बल्कि उन्होंने अपनी पत्नियों, रखैलों और गुलामों के भी यौनिक व्यवहारों को सूत्रबद्ध किया, जैसे स्त्रियां अपने को परदे में रखें या नहीं। दासियों तथा देवदासियों को परदे में रहने की सख्त मनाही थी। इसे राज्य के खिलाफ भयंकर अपराध माना जाता था।
गर्डा लर्नर के अनुसार : (1) स्त्री की यौनिक तथा पुनरुत्पादक क्षमता का निर्धारण निजी संपत्ति तथा राज्य के गठन के पहले की प्रक्रिया है। वास्तव में इसका पण्यीकरण निजी संपत्ति की नींव पर हुआ है। (2) पुरातन राज्यों का गठन पितृसत्तात्मक रूप में हुआ है। अपनी स्थापना के समय से ही राज्य की अनिवार्य रुचि पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था को बनाए रखने में रही है। (3) पुरुष ने दूसरे लोगों पर वर्चस्व तथा पदसोपान को संगठित करना सीखा-ठीक उसी तरह जैसे वह अपने समुदाय की स्त्रियों को करता आया था। दासता के संस्थानीकरण की शुरुआत उन स्त्रियों को गुलाम बनाने के साथ हुई, जिन्हें वे दूसरे समुदायों से जीत कर लाए थे। (4) स्त्रियों की यौनिक अधीनता का संस्थानीकरण प्रारंभिक कानूनों में हो चुका था, जिसे प्रारंभिक राज्यों द्वारा पूरी शक्ति के साथ लागू किया गया। अनेक माध्यमों से इस व्यवस्था में स्त्री के सहयोग एवं सहकार को भी सुनिश्चित करने का प्रयास किया गया। बल, परिवार के पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता तथा विभिन्न वर्गों में स्त्रियों को बांटकर इस व्यवस्था को बल प्रदान किया गया। (5) पुरुषों के लिए उनका वर्ग इस बात से निर्धारित होता था कि उनका उत्पादन के साधन के साथ क्या संबंध हैं; जिनका उत्पादन के साधन पर नियंत्रण था, उनका प्रभुत्व भी था। जिनके पास साधन नहीं थे, उनका प्रभुत्व भी नहीं था। स्त्रियों के लिए उत्पादन के साधनों तक पहुंच तब सुनिश्चित होती जब वे किसी पुरुष के साथ संबंध बनाती थीं। अच्छी और बुरी औरत का संस्थानीकरण उसके पर्दा रखने और न रखने के आधार पर किया जाने लगा था। (6) यौनिक और आर्थिक रूप से पुरुषों के अधीन लंबे समय तक रहने के बाद स्त्रियां अभी भी सक्रिय तथा सम्मानित रूप से इस भूमिका का निर्वाह बिना किसी प्रतिरोध के कर रही हैं। पूर्वी समाजों में एक मजबूत और साम्राज्यवादी शासन की स्थापना के बाद मातृ देवियों का स्थान धीरे-धीरे पितृ देवताओं ने ले लिया। इस देवी की प्रजनन क्षमता को नियंत्रित करने के लिए पूर्व में प्रतीकात्मक रूप से पुरुष देवताओं की शादी देवी से किए जाने की प्रथा का प्रारंभ हुआ। अंत में, कामुकता, प्रजनन जैसे प्रत्येक कार्य के लिए अलग-अलग देवियों के उद्भव का जिक्र मिलता है। देवी मुख्य देव पत्नी के रूप में तब्दील दिखती हैं। हिब्रू एकेश्वरवाद के उभार के बाद देवी की उत्पत्ति, रचनात्मकता और पुनरुत्पत्ति को देवी के प्रचारित cults (मिथक, प्रचलित धारणाओं) पर एक हमले का रूप ले लेता है। उत्पत्ति, रचनात्मकता और पुनरुत्पत्ति एक सर्वशक्तिमान पुरुष देवता से संबंधित हो जाती है, जबकि स्त्रियों के रचनात्मक यौन प्रयोजनों को पाप और बुराई के साथ जोड़कर देखे जाने की धारणा का विकास होता है। इस प्रकार ऐसे कई उदाहरण हैं जिसके जरिए हम पितृसत्ता की मूल संरचना एवं उसके कारणों को समझ सकते हैं।
गर्डा लर्नर की इन प्रस्थापनाओं के आधार पर हम पाते हैं कि ऐतिहासिक रूप से भारत में भी हमें यही स्थिति देखने को मिलती है। स्त्रियां पारिवारिक व्यवस्था के अंदर विभिन्न प्रकार की हिंसा सदियों से झेलती आई हैं। पितृसत्ता को जब हम एक हिंसक सामाजिक व्यवस्था के रूप में व्याख्यायित करते हैं, तब इसे बनाए रखने के लिए कार्य कर रही विभिन्न संस्थाओं तथा हिंसक विचारधाराओं की पड़ताल भी आवश्यक है।
पितृसत्ता के हिंसक रूप :
(1) परिवार- परिवार संस्था अपनी पूरी संरचना में उदारवादी ढांचा होते हुए भी अलोकतांत्रिक होती है। परिवार के अंदर स्त्रियों को मिलने वाली सुविधाओं के बदले उन पर कई शर्तें भी थोपी जाती हैं। परिवार व्यवस्था में स्त्रियां संस्कृति और परंपरा की वाहक के रूप में कार्य करती हैं। संतान पैदा करने अथवा न करने के संबंध में निर्णय लेने का अधिकार स्त्री का नहीं, बल्कि उसके पति अथवा घर की बुजुर्ग महिलाओं को होता है। इसके साथ ही घर के महत्त्वपूर्ण मसलों में निर्णय लेने का हक स्त्री को नहीं होता।
(2) कानून- ऐतिहासिक रूप से पुरुषों और महिलाओं के बीच संबंधों को परिभाषित करने में कानून ने बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। महिलाएं क्या कर सकती हैं या नहीं कर सकती हैं, इस बारे में कानून के द्वारा सीमाएं तय की गईं। पुरुषों और महिलाओं की सामाजिक भूमिकाओं को कायम रखने में भी कानून का इस्तेमाल किया गया। समाज और कानूनी संस्थाओं के द्वारा पुरुषों और महिलाओं की शारीरिक संरचनाओं में अंतरों का तर्क देते हुए इन पर अलग-अलग भूमिकाएं थोपी गईं। इनका उपयोग एक खास जेंडर के लिए खास तरह की भूमिका से बंधी सामाजिक व्यवस्था की तरफदारी करने के लिए किया गया। महिलाओं की अधीनता की स्थिति समझने के लिए बहुत से कारकों की समझ जरूरी है। ऐसे कारकों में कानून का भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। नारीवादियों ने कई स्तरों पर कानून की समीक्षा की है। इन्होंने कानूनों में संशोधन कर पुरुषों और महिलाओं के लिए अधिकारों में समानता की मांग की है। इस तरह, नारीवादियों ने समाज में कुछ निश्चित नकारात्मक मूल्यों को अवैध करार देकर नए सामाजिक मूल्यों और अधिकारों की स्थापना के लिए कानूनों का सहारा लेने पर जोर दिया है। महिला आंदोलन ने काूनन को महिलाओं के समान अधिकारों और उनकी आजादी के संभावित स्त्रोत के रूप में देखा है।
(3) धर्म- दुनिया के सभी धर्मों ने स्त्री-पुरुष संबंधों को अपने-अपने तरीकों से व्याख्यायित किया है। समाज में रहते हुए स्त्री के लिए क्या करणीय है तथा क्या अकरणीय, यह पितृसत्तात्मक धार्मिक परंपराएं तय करती आई हैं। स्त्री तथा पुरुष की भूमिकाओं को तय करने का अधिकार भी धर्म को प्राप्त है, जो सर्वमान्य होता है। उदाहरण के लिए, हिंदू धर्म में मनुस्मृति में स्त्री के लिए वर्णित समस्त कर्मकांड पुरुषों के लिए तय किए गए सभी कर्मकांडों से न सिर्फ भिन्न हैं, अपितु अत्यंत कठिन तथा हिंसक भी हैं। मनुस्मृति के अनुसार एक विधवा स्त्री को पुनर्विवाह की इजाजत नहीं है, परंतु पुरुष के लिए इसे परिवार बढ़ाने की दृष्टि से वर्जित नहीं किया गया है।
- सुप्रिया पाठक
पि, वांग (Wang Pi) : वांग पि (226-249 ई०) को नवताओवादी चीनी दार्शनिकों में एक ऐसा विचारक माना जाता है, जिसने ताओ की तत्त्वमीमांसीय अवधारणा के आधार पर एक ताओवादी नैतिकी-वैयक्तिक से लेकर सामाजिक-राजनीतिक नीतिमीमांसा-का विकास करने का उद्यम किया। आइ-चिंग और लाओत्जे पर अपने भाष्य के माध्यम से वांग ने इस बात का आग्रह किया कि सभी सत्ता (Being) का उत्स शून्य (Non-Being) में है, जो निर्गुण है। वही ताओ है, जिसकी सृष्टि में अभिव्यक्ति लि अर्थात स्थिर सिद्धांत के रूप में होती है और सभी चीजें-हमारे सारे सामाजिक-राजनीतिक संबंध भी इसी प्राकृतिक नियम से जन्म लेते हैं। क्योंकि ताओ निर्गुण है, अतः लि भी निर्गुण है। इसका तात्पर्य यह है कि साामजिक-राजनीतिक संरचना स्वैच्छिक निष्काम कर्म (Wu wei) के सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए। वही शासन या व्यवस्था सबसे श्रेष्ठ है, जो सबसे कम हस्तक्षेप करे। वैयक्तिक जीवन में भी आकांक्षा रहित होना और सादगीपूर्ण जीवन बिताना ही उस शून्य या शांति की अनुभूति की ओर ले जा सकता है, जो शून्यता की अवधारणा का व्यावहारिक रूप है। यदि हम एक आकांक्षारहित मानसिकता रखते हैं, तो किसी भी स्थिति में होने पर भी ताओ की अनुभूति से विचलित नहीं हो सकते और, अंततः, शून्य (Non-Being) के साथ एकात्म हो सकते हैं। वांग, इसलिए, सभी सत्ताओं की बुनियादी एकता इसी शून्यता में देखते हैं।
द्रष्टव्य : लाओत्जे।
- नंदकिशोर आचार्य
पीटर सिंगर : द्रष्टव्य : पशु-मुक्ति।
पीपा, संत :रामानंद की शिष्य-परंपरा में पीपा का नाम अलग से इसलिए भी उल्लेखनीय है कि पीपा न केवल एक राजा थे-बल्कि युद्ध में होने वाले रक्तपात के प्रति वितृष्णा और अहिंसा के प्रति अपने आकर्षण की वजह से उन्होंने अपना राज्य त्याग दिया था। पीपा गागरान के खीची वंश के शासक थे, जिनका तुगलक वंश के सुल्तान फीरोजशाह से युद्ध हुआ था। युद्ध में फीरोज तुगलक को सफलता नहीं मिली लेकिन, मआसरे महमूद शाही के आधार पर प्रसिद्ध इतिहासकार ए० एच० निजामी ने उनके प्रजापालन की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि युद्ध में होने वाले रक्तपात तथा हिंसक उन्माद को देखकर उन्होंने राज्य-त्याग करना ही बेहतर समझा। इस दृष्टि से उनकी तुलना अशोक से की जा सकती है; अंतर सिर्फ इतना है कि अशोक ने कलिंग-युद्ध के बाद युद्ध का परित्याग तो किया, पर राज्य का नहीं; जबकि पीपा ने राज्य त्यागकर रामानंद का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया। उन्हें कबीर, रैदास, दादू आदि के साथ रामानंद के प्रमुख बारह शिष्यों में एक माना जाता है। संत पीपा की निश्चित तिथि को लेकर इतिहासकारों में विवाद रहा है; लेकिन, यदि फीरोज तुगलक से उनके युद्ध और राज्यत्याग के आधार पर विचार करें तो इतना तो तय हो ही जाता है कि पीपा की तिथि चौदहवीं शताब्दी में ही कहीं ठहरती है। नाभादास के भक्तमाल में पीपा को बहुत ही सम्मान के साथ याद किया गया है। उनके पदों को सिखों के आदिग्रंथ में भी सम्मिलित किया गया है, जो समकाल में उनकी स्वीकृति प्रभाव और लोकप्रियता का प्रमाण है। मीरा बाई ने भी पीपा का उल्लेख सम्मानपूर्वक किया और उन्हें प्रभु का विशेष कृपापात्र माना है, जबकि पीपा की गणना निर्गुण भक्ति धारा के संतों में की जाती है।
यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश भक्त कवियों में देह के प्रति वैराग्य का भाव है, जबकि पीपा यह मानते हैं कि काया ही सभी सिद्धियों का स्रोत है। वह कहते भी हैं : कायागढ़ खोजता मैं नौ निधि पाई/काया केवल काया देव/काया पूजा पांती/काया धूपदीप नइबेद/काया तीरथ जाती/काया मांहे अंडसठि तीरथ, काया मांहे कासी/काया मांहे कंवलापति, बैंकुंठवासी। परहित या परमार्थ उनके लिए संतत्व की कसौटी था। कबीर की भांति वह जातिभेद और आडंबरों पर कड़ी चोट थी। यह उल्लेखनीय है कि संत पीपा ने उस युग में स्त्रियों को पर्दे में रखने का विरोध किया तथा उन्हें नरक का द्वार न मानते हुए दीक्षा भी दी। पर्दाप्रथा को वह पाप कहते थे, जबकि वह स्वयं राजपूत वंश से संबंधित थे, जिनकी महिलाओं को असूर्यंपश्या कहा जाता था। संत पीपा ने लिखा : जहां पड़दा तही पाप, बिन पड़दै पावै नहीं/जहां हरि आपै आप, पीपा तहां पड़दौ किसौ। इस दृष्टि से उन्हें नर-नारी समानता का समर्थक माना जा सकता है, जबकि अधिकांश मध्यकालीन संत कवियों-कबीर तक-नारी के लिए निंदासूचक शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। पीपा ने अहिंसा, वर्ण, कर्म आदि पर भी आध्यात्मिकता के संदर्भ में विचार किया है। नाभादास ने तो उनकी प्रशंसा में लिखा है कि वह हिंसक सिंह को भी अहिंसा का उपदेश देते थे, क्योंकि उनका लक्ष्य लोकमंगल था : परसि प्रणाली सरस भई/सकल बिस्व मंगल कियौ/पीपा प्रताप जग बासना/नाहर कौ उपदेस दियो। पीपा की एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने श्रम को भी आध्यात्मिक साधना का एक रूप माना : हाथां सै उधम करै/मुख सौ ऊचरै राम/पीपा साधां रो धरम/रोम रमारै राम।
यह उल्लेखनीय है कि भक्ति आंदोलन में निर्गुण और सगुण दोनों ही प्रकार के संतों में परदरव-कातरता का भाव निरंतर प्राप्त होता है। तुलसी भी कहते हैं : परहित सरस धरम नहीं भाई/परपीड़ा सम नहीं अधमाई। तो पीपा भी यही कहते हैं : भलौबुरो सब एक है/जाकै आदि न अंत/जगहित हरि जो सेवए/पीपा सोई संत। तथा यह भी : परमारथ रै धारणै/जिनको जीवन अंत/पीपा सोई सत पुरुख/सोई साचौ संत।
- नंदकिशोर आचार्य
पुरुषार्थसिद्धयुपाय : जैन संस्कृति का मूलाधार अहिंसा है। समता, संयम, स्वानुभूति आदि सब अहिंसा का ही विस्तार है। प्राचीन जैन ग्रंथों में अहिंसा की जो व्याख्या है उसे आचार्य अमृतचंद्रसूरि ने दशमी शताब्दी के एक नए परिप्रेक्ष्य में अध्यात्म और अहिंसा का घनिष्ठ संबंध स्थापित करते हुए किया है, जिसका प्रतिनिधि ग्रंथ है-पुरुषार्थसिद्धयुपाय। पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक आचार्य अमृतचंद्रसूरि का ग्रंथ व्यवहार और निश्चय नय का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसमें श्रावकाचार और मुनिधर्म दोनों का वर्णन है। आचार्य श्री ने ग्रंथ के नाम की सार्थकता स्पष्ट करते हुए कहा है पुरुष के प्रयोजन की सिद्धि (प्राप्ति) के उपाय को बताने वाला यह ग्रंथ है। यह आत्मा ही पुरुष है, जो स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से रहित, गुण एवं पर्यायों से विशिष्ट, उत्पाद-व्यय ध्रौव्य से सहित चैतन्यमय है। यही पुरुषरूप आत्मा जब अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है तब उसका प्रयोजन सिद्ध होता है, इस प्रयोजन की सिद्धि का उपाय है-विपरीत श्रद्धा को दूर करना तथा सम्यक् आत्म स्वरूप को समझकर फिर उससे चलायमान नहीं होना। स्वयं में स्वयं की लीनता ही परम लक्ष्य है। श्रावकाचार के पालन के बाद अलौकिक मुनिवृत्ति को धारण करने से यह स्वयंलीन होने का अनुभव प्राप्त होता है।
आत्म-स्वरूप में निष्कंप लीन होने की स्थिति जितनी उच्च श्रेणी पर है, उतनी ही सबसे निम्न श्रेणी पर सकषाय की प्रवृत्ति है, जो हिंसा का मूल कारण है। अतः, हिंसा को तिरोहित किए बिना व्रतों के अन्य सोपानों पर आरोहण नहीं हो सकता है। पुरुषार्थ की सिद्धि में हिंसा सबसे अधिक बाधक है, अहिंसा सबसे अधिक सहायक। इस कारण आचार्य अमृतचंद्र ने इस ग्रंथराज में हिंसा-अहिंसा के स्वरूप की सूक्ष्म व्याख्या की है।
आत्मा के परिणामों का पीड़ा जाना ही हिंसा है। जिस मन-वचन-काय से अपने अथवा पर के अथवा दोनों के परिणामों में आघात पहुंचे, दुःख हो, संताप हो, कष्ट हो, उसी का नाम हिंसा है। जिसमें आत्मीय भावों की हिंसा होती है उसे भावहिंसा कहते हैं। वास्तव में हिंसा का स्वरूप यही है और इतना ही है। द्रव्यहिंसा को-शरीर के किसी अवयव की अथवा समस्त शरीर की हिंसा को (आयु-विच्छेद को) भी भावहिंसा के होने से ही हिंसा में गर्भित किया गया है। जो कोई किसी को शारीरिक कष्ट पहुंचाता है, वहां आत्मा के परिणामों को दुःख पहुंचता है इसलिए द्रव्यहिंसा हिंसा में गर्भित हो चुकी। इसी प्रकार जिस-जिस कार्य में आत्मा के परिणामों की हिंसा होती हो, वे सब हिंसा में गर्भित हैं, जैसे-झूठ बोलना, चोरी करना, कुशील सेवन करना, तृष्णा बढ़ाना, हंसना, रोना, राग-द्वेष करना इत्यादि सब हिंसा के ही स्वरूप हैं। जितने भी विकृत भाव हैं वे सब हिंसा स्वरूप हैं, इसलिए संसार में जितने भी पापों के भेद-प्रभेद कहे जाते हैं वे सब हिंसा के ही दूसरे नाम हैं। यथा-आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात् सर्वमेव हिंसैतत्।/अनृतवचनादिकेवलमृदाह्यातं शिष्यबोधाय।। 42।।
इसलिए केवल मन-वचन-काय की प्रवृत्ति हिंसा का कारण नहीं है, किंतु सकषाय-प्रवृत्ति ही हिंसा का कारण है, इसीलिए कषाययोगात् यह हेतुवाक्य दिया गया है। जहां पर कषायपूर्वक योग है वहां चाहे भावहिंसा हो, चाहे द्रव्यहिंसा हो, दोनों ही हिंसा में गर्भित हैं, अथवा किसी जीव की हिंसा भी हो अपने भावों में ही सकषाय परिणाम हैं तो अपनी ही हिंसा है।
मूलरूप से हिंसा चार भेदों में बटी हुई है-(1) संकल्पिनी, (2) विरोधिनी, (3) आरंभिणी और (4) उद्योगिनी। इन चार भेदों में सबसे बड़ी और सबसे प्रथम त्याज्य संकल्प से होने वाली हिंसा है; जहां पर भावों में यह संकल्प कर लिया जाता है कि मैं इस जीवन को मार डालूं अथवा इसे दुःख पहुंचाऊं, वहां पर हिंसा करने का अभिप्राय रहने से उसे संकल्पिनी हिंसा कहते हैं। यह संकल्पी हिंसा तीव्रकषायों के उदय से होती है।
विरोधिनी हिंसा उसे कहते हैं कि जहां पर जीव को मरने के या उसे दुःख पहुंचाने के तो भाव नहीं है; परंतु, दूसरा जीव अपने को पहले मारना चाहे या दुःख देना चाहे तो इस अवसर पर अपनी रक्षा के लिए विरोध करने में जीवबध हो जाता है।
आरंभी हिंसा वह कहलाती है जो कि गृहस्थाश्रम में होने वाले आरंभों से होती है। गृहस्थाश्रम में रहने वाले मनुष्यों को गृहस्थाश्रम संबंधी आरंभ करने ही पड़ते हैं, बिना आरंभ किए गृहस्थाश्रम चल ही नहीं सकता, जल का बरतना, चौका, चूलि, ऊखरी, झाड़ना, कपड़े धोना आदि सब कार्यों में आरंभ होता है; जहां आरंभ है वहां हिंसा का होना अनिवार्य है। इसलिए गृहस्थाश्रमी आरंभी हिंसा से बच नहीं सकते, परंतु आरंभजनिक हिंसा की कमी अथवा स्वल्पता की जा सकती है, जिन कार्यों को विशेष आरंभ के साथ किया जाता है, उन्हें थोड़े आरंभ से भी किया जा सकता है, अथवा ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिनमें विशेष आरंभ होता हो, अथवा जिन आरंभों में अधिक जीवों के वध की संभावना हो, उन आरंभों को नहीं करना चाहिए। इस प्रकार, गृहस्थाश्रम में रहने वाले विवेकी पुरुष आरंभी हिंसा का बहुत कुछ बचाव कर सकते हैं। उद्योगिनी हिंसा वह कहलाती है तो गृहस्थाश्रमी मनुष्यों के उद्योग धंधों से होती है। किसी प्रकार के व्यापारी में अनाज भरने में, मिल खोलने में, दुकान करने में, खेती आदि सभी कार्यों का जो उद्योग (प्रयत्न) किया जाता है, उसमें जो जीवों की हिंसा हो जाती है, उसे उद्योगिनी हिंसा कहते हैं। इस हिंसा में भी उसी प्रवृत्ति का विचार करना इष्ट है कि जिससे जीववध अति स्वल्प हो।
आचार्य अमृतचंद्र ने हिंसा-अहिंसा के विवेक को सूत्ररूप में पहले रखा है, फिर उसकी व्याख्या की है। वे कहते हैं कि रागादि भावों की उत्पत्ति हिंसा है और शुद्ध भावों का अनुभव अहिंसा है। यथा-अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति।/तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेप।। 44।।
जैनसिद्धांत में प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों का नष्ट करना हिंसा कहा गया है। प्राणों के नष्ट करने के पूर्व प्रमत्तयोग विशेषण दिया गया है। इस प्रमादयोगरूप पद से सिद्ध होता है कि जहां पर प्रमादयोग नहीं है किंतु जीव के प्राणों का घात है वहां पर हिंसा नहीं कहलाती और जहां पर प्राणों का घात नहीं भी है, किंतु, प्रमादयोग है, वहां पर हिंसा कहलाती है। उसके हिंसारूप परिणाम नहीं हैं किंतु वीतरागरूप हैं और यत्नाचार-पूर्वक उनकी क्रिया है; जहां ये दोनों बातें हैं वहां हिंसा कदापि नहीं हो सकती। इस कारण जो मुनिराज सदा वीतराग परिणामों के साथ यत्नाचारपूर्वक गमनागमन आदि की क्रियाएं करते हैं, उसमें सूक्ष्म जीववध होने पर भी उन्हें हिंसा का पाप नहीं लगता, जबकि सरागी व्यक्ति को प्रमाद का योग होने से प्राणाघात न होने पर भी हिंसा का पाप लगता है। इसलिए जैनशास्त्रों में यत्नाचार पर विशेष बल दिया गया है। व्यक्ति के चारों ओर जीवराशि के सूक्ष्म जीव विद्यमान हैं, जो हलन-चलन, श्वांस आदि की क्रियाओं से भी नष्ट होते रहते हैं। ऐसे में कोई व्यक्ति अहिंसक कैसे बने? इस समस्या के समाधान के लिए भी जैनाचार्यों ने यत्नाचार के पालन का उपदेश दिया है। आचार्य अमृतवचंद्रसूरि यहां साधक को सचेत करते हैं कि यद्यपि बाह्य पदार्थों में हिंसा नहीं है, प्रमादयुक्त परिणामों में ही हिंसा है, फिर भी अहिंसा के पालक व्यक्ति को उन समस्त बाह्य पदार्थों/निमित्तों से संबंध नहीं रखना चाहिए जो हिंसा को बढ़ाने में सहायक हों, जिनसे भावों में कषाय उत्पन्न होती हो।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय में हिंसा के स्वरूप का विवेचन कर यह बतलाने का प्रयत्न किया गया है कि अहिंसक बनने के लिए हिंसा के ठिकानों को जानना जरूरी है, ताकि उन हिंसक प्रवृत्तियों में अहिंसक व्यक्ति लिप्त न हो। इसी प्रकार दैनिक व्यवहार एवं धार्मिक कार्यों के नाम पर भी कई बहानों से जो हिंसा होती रहती है, उसे भी त्यागना जरूरी है। ग्रंथ में प्रतिपादित इस विवरण को संक्षेप में इस प्रकार ज्ञात किया जा सकता है।
अष्टमूलगुण के पालन में तीन मकारों-मदिरा, मांस और मधु (शहद) का त्याग अनिवार्य माना गया है। इसी प्रकार पांच प्रकार के उदंबर फलों-ऊमर, कठूमर, पाकर, बड़ और पीपलफल-में भी त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। इनका सेवन भी हिंसाजनक है। इसी तरह देवता, अतिथि, मंत्र औषधि आदि के निमित्त तथा अंधविश्वास और धर्म के नाम पर संकल्पपूर्वक प्राणियों का घात नहीं करना चाहिए।
इसी प्रकार का पाप इस प्रकार के इन विचार और कार्यों में है (अ) एक हिंसक पशु को मार दिया जाए, ताकि वह अन्य प्राणियों की हिंसा न करे। (ब) हिंसक प्राणियों को तीव्रपाप से बचाने के लिए उन पर दया करके उन्हें शीघ्र मार देने का विचार (स) उन अत्यधिक दुखी, रोगी, अभावग्रस्त व्यक्तियों/जीवों को भी उन्हें दुःख से छुटकारा देने के लिए मार देने का विचार। (द) अत्यधिक सुखी, निरोगी जीवों को शीघ्र मार देने का विचार ताकि वे सुखपूर्वक मरकर अगले जन्म में सुखी पैदा हों। (इ) भूखे व्यक्ति की क्षुधा शांत करने के लिए उसे मांसाहार का दान करना आदि।
आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार का परहित सोचकर प्राणियों के वध की बात सोचना अज्ञान और अंधविश्वास के अतिरिक्त कुछ नहीं है। ऐसे विचारों और कार्यों से व्यक्ति अपनी हिंसा को अधिक बढ़ा लेता है और वह उन हिंसक जीवों से भी बड़ा हिंसक और क्रूर बन जाता है। उन्हें यह विश्वास होना चाहिए कि अहिंसा अमरत्व दिलाने वाला रसायन है। विशुद्ध भावों से अहिंसा और अहिंसा पालन से कर्मक्षयरूप मुक्ति, यही जिनमार्ग है।
पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ में अहिंसा को बहुत अधिक व्यापक बनाया गया है। उन्होंने कहा है कि प्रमादयोग से ही व्यक्ति अनेक प्रकार से झूठ बोलता है, कषाययुक्त भावों से ही व्यक्ति दूसरे के धन को हड़पने की चेष्टाएं करता है, रागयुक्त भावनाओं से मैथुन आदि में लिप्त होता है, मूर्च्छाभाव से परिग्रह एकत्र किया जाता है, ये सभी प्रमाद और कषाय भाव हिंसा के ही कारण है। अतः झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहवृत्ति आदि में हिंसा सम्मिलित है। इस प्रकार की हिंसा से बचने के लिए ही सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रतों का पालन किया जाता है। अतः ये व्रत अहिंसा के रक्षासूत्र हैं। इन्हीं रक्षासूत्रों में रात्रि भोजनत्याग व्रत भी है।
सात शीलव्रत-तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भी अहिंसा की साधना में सहायक हैं। अनर्थदंडव्रत का विधान जैन दर्शन का विशेष अवदान कहा जा सकता है। समाज में अधिकांश कार्य निष्प्रयोजन होते हैं, जिनको करने से आत्मा के विकास, या शुद्ध भावों की वृद्धि में कोई सहयोग नहीं मिलता, अपितु राग-द्वेष की प्रवृत्ति बढ़ती है, जो हिंसा को बढ़ाने वाली है।
आजकल पर्यावरण-संरक्षण की बात सभी क्षेत्रों में की जा रही है। जैन दर्शन के आचार्यों ने प्रारंभ से ही पर्यावरण की रक्षा करने की बात विभिन्न रूपों में की है। रात्रिभोजन त्याग, शाकाहार का विधान सप्त शीलों का पालन, शुद्ध आजीविका का समर्थन, जैनमुनि की संयमित जीवनचर्या ये सब जैनदर्शन की प्रवृत्तियां पर्यावरण-संरक्षण के ही आयाम हैं। बाहरी रूप से पर्यावरण के संरक्षण का प्रयत्न अस्थायी रहेगा, किंतु जिन अशुद्ध भावों से पर्यावरण प्रदूषित होता है उन पर नियंत्रण करने की शिक्षा एवं क्रियान्विति पर्यावरण-संरक्षण का स्थायी समाधान देगी। तृष्णा का क्षय और अभय/अहिंसा का वातावरण इसके लिए सही मार्ग है। आचार्य अमृतचंद्र कहते हैं कि जो व्यक्ति नियमित किए गए भोगों में से संतुष्ट होता हुआ अधिक भोगों को त्याग देता है, उसकी बहुत-सी होने वाली हिंसा छूट जाती है। इस कारण वह विशेष अहिंसा का पालक बन जाता है। यथा-इति यः परिमितभोगैः संतुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान्।/बहुतरहिंसा-विरहात्तस्याउहिंसा विशिष्टा स्यात्।। 166।।
अहिंसा की आधारभूमि संविभाग में है। लोभ हिंसा का पर्याय है तो दान अहिंसा का जनक। अतः, यह पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ग्रंथ जैन धर्म की अहिंसा का प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसमें सभी धर्मों की अहिंसक वृत्ति का समावेश हो गया है, जिसका सूत्र है कि जहां अहिंसा हैं वहां धर्म हैं, जहां हिंसा है, वहां धर्म नहीं है।
द्रष्टव्य : अमृतचंद्र।
- डॉ० कल्पना जैन
पृथ्वी दिवस : पर्यावरणीय प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन के दिन-प्रतिदिन विकराल होते जा रहे खतरे के प्रति वैश्विक चेतना जाग्रत करने तथा पृथ्वी की सुरक्षा के लिए लोगों को शिक्षित करने के उद्देश्य से प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को पृथ्वी-दिवस (Earth Day) मनाया जाता है। इसका आरंभ 1970 ई० में संयुक्त राज्य अमेरिका के सीनेटर गेलॉर्ड नेल्सन (Gaylord Nelson) के नेतृत्व में हुआ था, जिसमें उनके आह्वान पर उस वर्ष लगभग दो करोड़ लोगों ने भागीदारी की थी। इनमें युवकों और विद्यार्थियों की बड़ी संख्या थी तथा अमरीकी शिक्षण-संस्थाओं में इसके लिए अतीव उत्साह देखा गया था। 1920 ई० से पृथ्वी-दिवस अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाने लगा। यह समय उत्तरी गोलार्ध में वसंत और दक्षिणी गोलार्ध में शरत् का होता है। कई समुदायों में यह पृथ्वी-सप्ताह की तरह मनाया जाता है। धीरे-धीरे इसका प्रसार होता गया है और यह माना जाता है कि अब लगभग 175 देशों में इसे मनाया जाता है, जिसमें प्रत्येक समुदाय अपनी पर्यावरणीय और पारिस्थतिकीय समस्याओं पर विचार-विमर्श करता तथा अपनी सरकारों पर संगठित नैतिक दबाव डालने के लिए प्रयास करता है। यह उल्लेखनीय है कि पृथ्वी-दिवस एक स्वतःर्स्फूत कार्यक्रम है क्योंकि इसके पीछे कोई केंद्रीय अंतर्राष्ट्रीय संगठन या वित्तीय सहायता देने वाली संस्था नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसी उद्देश्य से 5 जून को विश्व पर्यावरण-दिवस घोषित कर रखा है।
द्रष्टव्य : विश्व-पर्यावरण दिवस।
- नंदकिशोर आचार्य
पृथ्वी सिद्धांत (Gaia Theory) : बीसवीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों में जेम्स लवलॉक द्वारा प्रतिपादित पृथ्वी सिद्धांत ने वैज्ञानिकों-विशेषतया पर्यावरण विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया है। नासा (NASA) के साथ मंगल ग्रह पर जीवन की खोज में जुटे वैज्ञानिकों में से एक जेम्स लवलॉक ने अपने शोध के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि संपूर्ण पृथ्वी अपने में एक जैव-संस्थान है अर्थात् भू-मंडल (Geosphere) और जैव-मंडल (Biosphere) परस्पर अंतर्ग्रथित हैं और समूची पृथ्वी की नियति एक है। प्रसिद्ध उपन्यासकार विलियम गोल्डिंग के सुझाव पर लवलॉक ने अपने सिद्धांत को पृथ्वी की यूनानी देवी Gaia के नाम पर पृथ्वी सिद्धांत (Gaia Theory) नाम दिया। प्रसिद्ध जीव-विज्ञानी लिन मार्गुलिस भी इस सिद्धांत के विकास में लवलॉक की सहयोगी रहीं।
लवलॉक का मानना है कि समूची पृथ्वी एक जैव-संस्थान या अंगी है और जैव-मंडल सहित अन्य सब भू-मंडल उसके परस्पर जुड़े अंग है। इसका तात्पर्य यह होता है कि पृथ्वी के विभिन्न मंडलों में जो परिवर्तन होता है, उसका असर सभी मंडलों पर पड़ता है और ऐसी नई परिस्थिति के पैदा होने पर, विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार, अन्य मंडलों में उस परिस्थिति का सामना करने के नए विकास की संभावनाएं पैदा होती है। लवलॉक की मान्यता है कि यह एक जटिल अंतःक्रियात्मकता है, जिसके कारण पृथ्वी का जलवायु और जैव-रासायनिक स्थितियां समस्थिति (homeostatis) में रहते हैं। लवलॉक अपनी संकल्पना के पक्ष में तीन प्रमुख तर्क देते हैं : (1) सूर्य द्वारा प्रदत्त ऊर्जा की बढ़ोतरी के बावजूद पृथ्वी का वैश्विक सतही तापमान स्थिर रहा है; (2) वातावरण का संघटन स्थिर रहा है-यद्यपि उसमें परिवर्तन होना चाहिए था; और (3) सामूहिक लवणता स्थिर रही है। लवलॉक के अनुसार इसकी वजह है बदलती हुई परिस्थिति में जैव-मंडल द्वारा ऐसे उपाय अपनाना, जिससे पृथ्वी की परिस्थिति सदैव निवास-योग्य बनी रहे।
पृथ्वी-सिद्धांत से असहमत वैज्ञानिकों का मानना है कि विकासवाद का सिद्धांत प्रत्येक जीव-प्रजाति पर अलग से तो लागू होता है, लेकिन पृथ्वी को एक जैव-संस्थान मानकर उस पर लागू नहीं किया जा सकता। वैज्ञानिक इस बात पर भी सहमत नहीं थे कि पृथ्वी विकसित होते हुए किसी एक बिंदु की ओर अग्रसर हो रही है। लवलॉक ने भी यह तो स्वीकार किया कि पृथ्वी का विकास किसी पूर्व-निश्चित योजना के अनुसार नहीं हो रहा है; लेकिन, उनके अनुसार, पृथ्वी का विकास अवश्य हो रहा है क्योंकि वह एक अवयवी है।
पियरे तेयार द शार्दे जैसे विज्ञानवादी धर्मशास्त्रियों से भी लवलॉक के विचारों का समर्थन होता है। विकासवाद के ही आधार पर शार्दे ने प्रतिपादित किया कि भू-मंडल और जैव-मंडल के बाद अब विकास की दिशा चेतना-मंडल (noosphere) की ओर है और यह विकास वैश्विक है। तीन पृथ्वी सम्मेलनों में हुए विचार-विमर्श और पृथ्वी-सिद्धांत में निरंतर हुए परिष्करण के बाद एमस्टरडम घोषणा में कई वैज्ञानिकों द्वारा यह स्वीकार किया गया कि पृथ्वी अपने भौतिक, रासायनिक, जैविक और मानवीय घटकों के साथ एक स्व-नियमित व्यवस्था की तरह व्यवहार कर रही है। मानवीय गतिविधियां ग्रीन हाउस गैस-उत्सर्जन और जलवायु-परिवर्तन के साथ-साथ कई प्रकार से पृथ्वी के पर्यावरण को प्रभावित कर रही है और अपने प्रभाव और विस्तार में प्राकृतिक शक्तियों के समतुल्य हैं। प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर क्रिस्पिन टिकेल (Crispin Tickall) ने भी यह स्वीकार किया कि पृथ्वी सिद्धांत जीत रहा है और अब उसे अपने को प्रमाणित करने की जरूरत नहीं है।
जेम्स लवलॉक ने अपनी नई पुस्तक (The Revenge of Gaia)में प्रतिपादित किया है कि पृथ्वी-सिद्धांत की अनदेखी ने बरसाती जंगलों और पृथ्वी की जैव-विविधता को बुरी तरह प्रभावित किया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि धीरे-धीरे पृथ्वी ऐसा स्थान होती जा रही है, जहां मनुष्य एवं अन्य जीव निकट भविष्य में रह नहीं सकेंगे। लेकिन, विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी की स्व-नियमितता के कारण जीवन समाप्त नहीं हो सकता। वह इस चुनौती का सामना करने या परिस्थिति के अनुरूप अपने को ढालने के लिए नए रूप विकसित करेगा। लवलॉक कहते हैं कि मनुष्य न केवल बच रहेगा बल्कि आशा है और परिष्कृत होगा। लवलॉक मानते हैं कि हम एक नए विकास की दहलीज पर हैं तथा जीवन और मजबूत होगा।
लवलॉक की उम्मीद या भविष्य-कल्पना पूरी होती है, या नहीं, यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन, पृथ्वी सिद्धांत इतना तो स्पष्ट कर ही देता है कि संपूर्ण पृथ्वी एक है, अवयवी है और इस पर बसे सभी भू-मंडल और जैव-मंडल परस्पर-ग्रथित है। इसलिए, किसी एक पर की गई हिंसा सब पर और इस तरह अपने पर की गई हिंसा है। यदि पृथ्वी कल रहने लायक नहीं रह जाएगी, तो इसकी वजह प्राकृतिक शक्तियां नही बल्कि हम खुद हैं क्योंकि प्राकृतिक शक्तियां एक-दूसरे से सहयोग में है, इसलिए तापमान, सामुहिक लवणता आदि स्थिर रहे हैं। लेकिन प्राकृतिक लय का अतिक्रमण करने के कारण मानवीय हस्तक्षेप न केवल पूरे परिवेश के लिए हिंसक साबित हो रहा है, बल्कि प्रकारांतर से आत्म-हिंसा भी करता जा रहा है। पृथ्वी-सिद्धांत जीवन के ही नहीं, बल्कि संपूर्ण पृथ्वी के एकत्व-बोध का सिद्धांत होने के कारण हमारे आचरण में इसी एकत्व-बोध का प्रेरक बन जाता है।
द्रष्टव्य : शार्दे।
- नंदकिशोर आचार्य
पेज, प्रो. ग्लेन डी. : (Paige, Prof. Glenn Durland) :प्रो० ग्लेन डी० पेज अमरीकी राजनीतिविज्ञानी हैं। पेज की पहचान अवध (नॉन-किलिंग) की अवधारणा को विकसित करने, राजनीतिक नेतृत्व पर गहन अध्येता होने के नाते है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर भी आपकी गहरी पकड़ है। प्रो० पेज नवअहिंसक अंतरराष्ट्रीय विश्वव्यवस्था के प्रबल समर्थक एवं विचारकों में प्रमुख स्थान रखते हैं। इन्होंने नॉन-किलिंग सोसायटी और अहिंसक राजनीति-विज्ञान की अवधारणा को स्थापित करने में अहम् भूमिका अदा की है। इनके अनुसार हिंसा कई कारणों के समुच्चय का परिणाम होती है, अतः अहिंसक परिवर्तन के लिए भी एक बहुआयामी सिद्धांत को विकसित करना होगा। एक अहिंसक व्यवस्था उसी व्यवस्था को कहा जा सकता है, जिसमें हत्या या हत्या की धमकी न हो; तकनीक का प्रयोग हत्या के लिए न किया जाता हो; हत्या के लिए कोई भी सांस्कृतिक औचित्य न हो तथा हिंसा के आधार पर सामाजिक या आर्थिक स्थितियों को बरकरार न रखा जाता हो।
प्रो० पेज का जन्म 28 जून 1929 ई० को मैसाच्युसेट्स प्रांत के ब्रोक्टन नामक स्थान पर हुआ। स्नातक की उपाधि प्रिंसटन विश्वविद्यालय से प्राप्त की तथा हार्वर्ड विश्वविद्यालय से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। नॉर्थ वेस्टर्न विश्वविद्यालय से 1959 ई० में पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। अमेरिकी सेना में भर्ती हो कर कोरियन युद्ध में संचार अधिकारी के रूप में कार्य किया। सिओल नेशनल विश्वविद्यालय (1959-61 ई०), प्रिंसटन विश्वविद्यालय (1961-67 ई०) तथा हवाई विश्वविद्यालय(1967-92 ई०) में अध्यापन कार्य किया। हवाई विश्वविद्यालय के अध्यापन के दौरान ही उन्होंने राजनीति-विज्ञान एवं विश्व राजनीति पर व्याख्यान देते हुए राजनीतिक नेतृत्व एवं अहिंसक राजनीतिक विकल्पों पर गोष्ठियों का आयोजन एवं नवीन पाठ्यक्रम प्रारंभ किए। प्रो० पेज ने हवाई विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर कोरियन स्टडीज एवं स्पार्क एम० मत्सुनागा इंस्टीट्यूट फॉर पीस एवं इसके सेंटर फॉर ग्लोबल नॉनवायलेंस प्लानिंग प्रोजेक्ट (जो आगे चलकर सेंटर फॉर ग्लोबल नॉन-किलिंग बना) को स्थापित करने में सहयोग दिया।
एक सैनिक से नॉन-किलिंग के विशेषज्ञ बनने का सफर काफी रोचक रहा। प्रो० पेज की पहली पुस्तक द कोरियन डिसिजन जून 24-30,1950 पी-एच०डी० शोध-प्रबंध थी। इसमें केस स्टडी के रूप में कोरिया युद्ध में अमेरिका के शामिल होने की घटना का अध्ययन किया कि कैसे तत्कालीन राष्ट्रपति हेनरी एस० ट्रुमैन और अन्य नेताओं ने अमेरिका को इस युद्ध में शामिल किया। इस पुस्तक ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वैज्ञानिक अध्ययन में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह अध्ययन 1950 ई० में कोरिया में अमेरिका के हस्तक्षेप करने के निर्णय को पुनर्संरचित करता है। यह पुनर्संरचना उन सात दिनों की महत्त्वपूर्ण निर्णय-प्रक्रिया के सावधानीपूर्ण दस्तावेजीकरण से तैयार की गई है, जिससे अमेरिका कोरिया युद्ध में शामिल हुआ। इसके अतिरिक्त महत्त्वपूर्ण लोगों के साक्षात्कार लिए गए, जिसमें उस निर्णय-प्रक्रिया में शामिल लोग भी थे। इस निर्णय-प्रक्रिया को प्रो० पेज ने विभिन्न आयामों में देखा और निर्णय प्रक्रिया की महत्ता को उजागर किया।
उन्होंने 1945 ई० से विभाजित कोरिया की भिन्न विकास दिशाओं का भी तुलनात्मक अध्ययन किया। इस अध्ययन में सामाजिक परिवर्तन में राजनीतिक नेतृत्व की रचनात्मक संभावनाओं को तलाशने का प्रयास किया गया। यह अध्ययन द साइंटिफिक स्टडी ऑफ पॉलिटिकल लीडरशिप के रूप में सामने आया। इस पुस्तक में प्रो० पेज ने एक अवधारणात्मक ढ़ांचा तैयार किया, जिसके जरिए राजनीतिक नेतृत्व को वैज्ञानिक आधारों पर संगठित एवं विकसित किया जा सकता है। यह ढ़ांचा बहुविध, बहुआयामी संयोजन के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है, जिसमें राजनीतिक नेताओं के व्यवहार को प्रभावित करने वाले तत्त्वों-व्यक्तित्व, भूमिका, संगठन, कार्य, मूल्य एवं व्यवस्था-को शामिल किया जाता है। साथ ही इन तत्त्वों से उत्पन्न होने वाले व्यवहार अन्य आयामों से प्रभावित भी होते हैं और उन्हें प्रभावित भी करते हैं।
प्रो० पेज के विचारों में 1973-74 ई० में एक व्यापक बदलाव आया। वह राजनीति-विज्ञान और जीवन में नॉन-किलिंग को एक आधारभूत मूल्य (Basic Value) के रूप में देखने लगे। एक सैनिक, प्रचलित हिंसक मान्यताओं वाले राजनीति-विज्ञान की समझ रखने वाले व्यक्ति से नॉन-किलिंग की ओर मुड़ना एक रोचक बदलाव रहा। इसी दौरान उन्होंने अपनी कोरिया युद्ध पर लिखी पुस्तक की आलोचनात्मक समीक्षा की। यह ऑन वैल्यू एंड साइंसः द कोरियन डिसिजन रीकसिंडर्ड शीर्षक से अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस रिव्यू में प्रकाशित हुई। इसी समय में वह व्यावहारिक नॉन-किलिंग विकल्पों पर गहन अध्ययन में लगे। एक अन्य महत्वपूर्ण घटना राजनीति-विज्ञान के ज्ञानानुशासन में हिंसा की स्वीकार्यता की वैज्ञानिक आलोचना करना रहा। अपने जीवन के लगभग 28 वषरें के गहन अध्ययन, शोध एवं अध्यापन का निचोड़ नॉन-किलिंग ग्लोबल पालिटिकल साइंस पुस्तक के रूप में सामने आया। यह पुस्तक प्रो० पेज की सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक कही जाती है, जिसका देश-विदेश की 34 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
इस पुस्तक में प्रो० पेज ने स्पष्ट किया कि हिंसा आधारित राजनीति और राजनीति-विज्ञान दोनों ही पिछली शताब्दी में हिंसा को हिंसा से समाप्त करने में असफल रहे हैं। विभिन्न सरकारें एवं अंतरराष्ट्रीय राजनीति वैश्विक हिंसा के मूल को समझने में असफल रही हैं। प्रो० पेज का नजरिया है कि राजनीति-विज्ञान हिंसा/नॉन-किलिंग की विकृति का निदान करे एवं मानव जीवन से इस विकृति को दूर करे। लोगों के हत्या के विरोध करने की पहल को सशक्त करे। प्रो० पेज के मुताबिक एक नॉन-किलिंग सोसायटी की संभावना मानवीय अनुभव एवं उसकी रचनात्मक क्षमताओं में निहित है और पुस्तक में दिए गए सशक्त तर्क, उदाहरण एवं आंकड़ें इस इसके पक्ष में खड़े होते हैं। प्रो० पेज राजनीति-विज्ञान के नए रूप को अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं मानते, अपितु इसे व्यापक हिंसा-मुक्ति के उद्देश्य को प्राप्त करने का माध्यम मानते हैं। पुस्तक के अंतिम अध्याय में वह वैश्विक हिंसामुक्त/नॉन-किलिंग सोसायटी का एक प्रारूप प्रस्तुत करते हैं। प्रो० पेज के अनुसार अब तक सफल संघर्ष समाधानों का अध्ययन उपेक्षित रहा है। सार्वजनिक जीवन में उत्पन्न होने वाले संघर्षों का सफलतापूर्ण समाधान करने वाले व्यक्तियों, उनके तरीकों, कौशलों, रणनीतियों का अध्ययन अभी बाकी है। ऐसा अध्ययन हमें एक नवीन दिशा की ओर उन्मुख कर सकता है। यह पुस्तक हत्या मनुष्य जीवन का एक अनिवार्य अंग है और इस धारणा की राजनीति-सिद्धांत एवं व्यवहार में स्वीकृति अनिवार्य है के प्रति सवाल खड़े करती है और इन पर विचार कर विकल्प के लिए अवधारणात्मक एवं व्यावहारिक प्रारूप प्रस्तुत करने का प्रयास करती है।
- शंभू जोशी
पॉल, संत (Paul, Saint) : विश्व-साहित्य में प्रेम के यथार्थ का सर्वाधिक सूक्ष्म और उदात्त चित्रण संत पॉल के लेखन में मिलता है। ईसा के शिष्यों के प्राण-हरण के लिए कटिबद्ध पॉल का ईसा से नाटकीय भेंट के परिणामस्वरूप संत पॉल के रूप में बदलना एक अद्भुत घटना है। ईसा को वैयक्तिक स्तर पर अनुभव करने के कारण संत पॉल में प्रेम की ऐसी शुद्ध, पूर्ण और निष्पाप अभिव्यक्ति होती है, जो बहुआयामी जीवन के सभी रूपों को अपनी परिधि में ले लेती है।
पॉल ने अपने कोरिंथियंस के नाम प्रथम पत्र में प्रेम की प्रमुखता और उत्कृष्टता को दर्शाने के लिए पूरा अध्याय समर्पित किया है। कई लोगों के लिए न्यू टेस्टामेंट में यह सर्वाधिक विस्मयकारी अध्यायों में एक है और अन्य सद्गुणों के मुकाबले प्रेम की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करता तथा प्रेम के अभाव में अन्य सब सद्गुणों को व्यर्थ मानता है। प्रेम का स्तोत्र (Hymn of Law) में प्रेम और अन्य आध्यात्मिक गुणों के बीच भेद करते हुए कहा गया है कि यदि मैं मनुष्यों और फरिश्तों की भाषा में बोलता हूं, लेकिन प्रेम में शून्य हूं, तो मैं एक शोरभरा घड़ियाल या चिपका हुआ चिह्न मात्र हूं। यदि मैं पैगंबरी सामर्थ्य रखता और संपूर्ण ज्ञान और रहस्यों को जानता, लेकिन प्रेम रहित हूं, यदि मैं पर्वतों को विचलित कर देने वाली निष्ठा रखता, लेकिन प्रेम-रहित हूं, तो मैं सिफर हूं। यदि मैं अपना सर्वस्व त्याग कर दूं और अपनी देह को अग्नि को समर्पित कर दूं, लेकिन प्रेम-रहित हूं, तो मुझे कुछ भी नहीं मिलने वाला। (1 कोरि० 13:1-3)। प्रेम के अभाव में सारा ज्ञान, बौद्धिकता, निष्ठा और अन्य सद्गुण बेकार और निरर्थक हैं।
पाल ने इस पत्र में प्यार की पंद्रह चारित्रिकताएं बताई हैं : प्रेम धैर्यशाली और दयालु है; प्रेम द्वेषरहित या गर्वहीन है; वह जिद्दी या अभद्र नहीं है, प्रेम केवल अपनी बात का दुराग्रही नहीं है, वह चिड़चिड़ा या विरोधपूर्ण नहीं है; वह अनुचित में आनंद लेता, पर उचित में आनंदित होता है। प्रेम सब कुछ वहन करता, सबमें विश्वास रखता, सबकी आशा रखता और सब कुछ सहन करता है (1 कोरि० 13:4-7)। इस अध्याय के अंतिम छह पद्य प्रेम की प्रभुता और श्रेष्ठता को यह बताते हुए प्रदर्शित करते हैं कि भविष्य कथन बीत जाएंगे, जुबान चुप हो जाएगी, ज्ञान बीत जाएगा, क्योंकि भविष्य कथन और ज्ञान अपूर्ण हैं और पूर्ण के आने पर अपूर्ण तिरोहित हो जाता है, लेकिन आस्था, आशा और प्रेम रहेंगे और इनमें भी सर्वोत्कृष्ट है प्रेम। प्रेम के बिना आस्था और आशा ठंडे और उदास हो जाते हैं-प्रेम उन्हें प्रकाश और ऊष्मा देता है।
इस कृति में पाल आस्थावान लोगों को प्रेम की अनुभूति का आमंत्रण देते हैं कि प्रेम को अपनी मंजिल बनाओ और सलाह देते हैं कि हमारा प्रत्येक कर्म प्रेम से परिपूर्ण होना चाहिए (1 कोरि० 16:14)। प्रेम का स्तोत्र (Hymn of Love) में पाल द्वारा वर्णित प्रेम के विविध पक्ष केवल आदर्शवादी या कवि-कल्पना नहीं हैं,वे जीवन की व्यावहारिक परिस्थितियों में रुपांतरित होते हैं। परिपक्व प्रेम के लक्षणों का जिक्र करते हुए पॉल कहते हैं : मेरी प्रभु से प्रार्थना है कि तुम्हारा प्रेम ज्ञान और विवेक के साथ अधिकाधिक विस्तृत होता रहे ताकि तुम निर्णय के दिन उत्कृष्ट की सराहना कर सको और ईश्वर की आराधना के लिए ईसा द्वारा प्रदत्त सम्यगत्व के साथ (फिल 1:9)। यद्यपि ज्ञान और विवेक से प्रेम परिपक्व होता है, लेकिन वह अन्य सद्गुणों के मुकाबले श्रेष्ठतर है : ज्ञान फुला देता है, प्रेम रचता है (1 कोरि० 8:1)।
जीवन का स्रोत और लक्ष्य ईश्वर स्वयं है; वह प्रेम का परम स्रोत और गंतव्य है। वह गत्यात्मक और सर्जनात्मक है। अपने प्रेम के कारण ईश्वर प्रत्येक मनुष्य को अपनी संतान की तरह प्रेम करने के लिए बाध्य है। ईश्वर प्रेम है और हम सब उस प्रेम के फल-इसलिए संत पॉल उस प्रेम के अनुभव के लिए सबको आमंत्रित करते हैं (एफ० 3:17)। संत पॉल दैवी प्रेम के जिस पक्ष पर विशेष बल देते हैं, वह है उसका बिलाशर्त होना। ईश्वर का प्रेम केवल संतों तक सीमित नहीं है; संतों से भी अधिक पापी उसके लक्ष्य हैं (रोम० 5:8)। ईश्वर न केवल बिलाशर्त असीम प्यार करता है, बल्कि हमें भी इस बात के लिए तैयार करता है कि ऊर्ध्वाकार और क्षैतिजिक दोनों आयामों अर्थात् स्वयं ईश्वर तथा उसकी सृष्टि के प्रति प्रेम की अनुभूति कर सकें। ईश्वर पवित्र है और इसलिए जिसके मन में भी वास्तविक और सच्चा प्रेम है, वह पवित्र जीवन बिताएगा। इसीलिए संत पॉल प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर हम सबके मन को एक-दूजे के प्रति प्रेम भाव से इतना भर दे कि हम ईसा और संतों के आगमन पर ईश्वर के सम्मुख निष्कलंक प्रस्तुत हो सकें। (1 थेस : 3:12)।
दैवी प्रेम का सच्चा अनुभव करने वाला ईश्वर को प्रेम किए बिना नहीं रह सकता। संत पॉल ने इस प्रेम को पूरी शक्ति और तीव्रता के साथ इस तरह अनुभव किया कि वह पूरी तरह एक ईश्वरोन्मत्त व्यक्तित्व में रुपांतरित हो गए। वह पूरे विश्वास के साथ यह घोषित कर सके कि अब उन्हें कुछ भी ईसा और ईश्वर से विलग नहीं कर सकता (रोम : 8:35-39)।
मनुष्यों के प्रति ईश्वर के असीम प्रेम का प्रत्युत्तर ईश्वर के प्रति प्रेम के साथ मनुष्यों में परस्पर प्रेम का निरंतर बढ़ते जाना है। यह ईश्वर को किया गया सर्वोत्कृष्ट अर्पण है। ईसा ने इसी के लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया (एफ० 5:22)। प्रेम ही वास्तविक उत्कर्ष और मानव-जाति की एकता सुनिश्चित कर सकता है (वही, 4:15)। कोलोसियंस के नाम पत्र में पॉल प्रेम को एकतामूलक एवं पूर्णतापरक शक्ति बताते हैं (कोल० 2.2 तथा 3:14)।
सभी नियम पारस्परिक प्रेम के नियम में सूत्रीकृत तथा पूर्ण होते हैं क्योंकि जो अपने पड़ौसी को प्रेम करता है, वह नियम का पालन कर रहा है। सभी धर्मादेश इस एक सूत्र में समाहित हैं : अपने पड़ौसी को अपने समान प्यार करो। प्रेम अपने पड़ौसी के प्रति कुछ भी अनुचित नहीं करता, इसलिए वही सर्वोच्च नियम/कानून है। अपने प्रिय शिष्य टोमोथी को एक पत्र में पॉल इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि हमारे काम का लक्ष्य वह प्रेम है जो एक शुद्ध हृदय, पवित्र अंतःकरण और सच्ची आस्था से पैदा होता है (1 टिम० 1:5)।
संत पॉल का प्रेम केवल आदर्श नहीं, व्यावहारिक भी है। वह परिवार में प्रेम का उल्लेख करते हुए पति-पत्नी के पारस्परिक प्रेम और सम्मान का आग्रह करते हैं (एफ० 5:25; 5:33 तथा कोल 3:19)। परिवार में प्रेम का विकास समाज में भी प्रेम और एकता के भाव को पल्लवित करेगा। इसलिए हमें प्रेम के मार्ग की प्रत्येक बाधा को समाज से मिटा देना चाहिए। धन के लालच से मुक्त होना आवश्यक है, क्योंकि धन का लालच सभी बुराइयों का मूल कारण है (1 टिम० 6:10-11)। समाज में एकता और संगति केवल निःस्वार्थ प्रेम के माध्यम से ही संभव है : प्रेम के माध्यम से एक-दूसरे के सेवक बनो (गेल० 5:13)।
एफेसियंस के नाम पत्र में संत पॉल प्रेम और उससे संबंद्ध सद्गुणों का सूत्रीकरण करते हुए नम्रता, धैर्य, सहिष्णुता तथा आत्मा की एकता का उल्लेख करते हैं (एफ० 4:2)। प्रेम मनुष्य को केवल प्राणी के स्तर से उठाकर दैवी आयाम में ले जाता है। यह प्रेम ही है जिसने ईश्वर को सृष्टि-रचना के लिए प्रेरित किया और यह केवल प्रेम ही है, जो संपूर्ण सृष्टि को एकत्व दे सकता है।
- फादर विल्सन एदात्तुकरण
पोरफिरी : अहिंसा-चिंतन पर चर्चा ग्रीक दार्शनिक पोरफिरी की पुस्तक विरति के बिना अधूरी होगी-हालांकि इस चर्चा में उस ओर ध्यान जाता हो, ऐसा लगता नहीं है। (विरति या त्याग का तात्पर्य यहां पशु मांस भोजन से विरति है, इसलिए अंग्रेजी अनुवाद में पुस्तक का नाम ही पशु-मांस-भोजन से विरति रखा गया है।) पुस्तक लंबी है (182 पृष्ठों की) और अहिंसा-चर्चा में रुचि रखने वालों के लिए अपने आप में पठनीय है।
पोरफिरी का जीवन-काल ईस्वी सन् की तीसरी शताब्दी में पड़ता है। ग्रीस की प्रसिद्ध विद्या-नगरी एथेंस में शिक्षा पाने के बाद तीस वर्ष की उम्र में वह विख्यात ग्रीक दार्शनिक एवं अध्यात्मी प्लोटिनस के शिष्य हो गए। प्लोटिनस प्लेटो के पांच-छह सौ साल बाद रोमन साम्राज्य-काल में हुए थे। उन्होंने प्लेटो के दर्शन का नया सर्जनात्मक प्रतिपादन किया (जो नव-प्लैटोनिक दर्शन कहलाता है); इस दर्शन में प्लेटो के चिंतन के भीतर अध्यात्म की दृष्टि का एक नवोन्मेष देखा जा सकता है। प्लोटिनस रोम में अध्यात्म-साधना का एक आश्रम-तुल्य केंद्र भी चलाते थे, जिसकी वहां बड़ी प्रतिष्ठा थी। पोरफिरी ने प्लोटिनस से विचारों में ही नहीं, अध्यात्म-साधना में भी दीक्षा ली थी। कहा जा सकता है कि प्लोटिनस के लिए दर्शन अध्यात्म-साधना से अविच्छेद्य था। कई भारतीय अध्यात्म-प्रधान दर्शनिकों की तरह प्लोटिनस और पोरफिरी के लिए विचार और अध्यात्म-साधना दोनों एक ही जीवन-दृष्टि या पुरुषार्थ-बोध के अभिन्न अंग थे।
पोरफिरी-और उनके गुरु प्लोटिनस-के लिए पशु-हत्या से और मांस-भोजन से विरति इस जीवन-दृष्टि का ही एक फलित रुप था। इस बात में उनकी दृष्टि पर प्राचीन मिस्र, पिथागोरस, फारस के मित्र-उपासक और भारतीय हिंदू-बौद्ध-जैन (उनके शब्दों में ब्राह्मण और श्रमण) चिंतकों का जागरुक प्रभाव था, जिसका वे उल्लेख करते हैं।
ग्रीक-रोमन संस्कृति में पिथागोरस के गहरे प्रभाव के कारण पशु-हत्या और मांस-भोजन के औचित्य को लेकर वहां के दार्शनिकों में वाद-विवाद की एक पूरी तर्क-समृद्ध परंपरा थी। पिथागोरस के विरुद्ध एक व्यापक पूर्वपक्ष था, जिसमें कई परस्पर-विभिन्न दर्शन-संप्रदायों का समावेश था, जो अपनी-अपनी तरह से मांस-भोजन से विरति का विरोध करते थे। इस पुराने पूर्वपक्ष की ध्वनि आज की युक्तियों में भी सुनी जा सकती है, इसलिए इनकी युक्तियों को संक्षेप में प्रस्तुत करना उपादेय होगा। इससे पोरफिरी की दृष्टि की विशेषता भी आगे आएगी।
पोरफिरी ने अपनी पुस्तक अपने एक दार्शनिक मित्र और सह-साधक फिर्मस कास्ट्रीशियस के उद्देश्य से लिखी थी। फिर्मस ईसाई हो गया था। पोरफिरी का उस पर आरोप था कि उसके ईसाई हो जाने का एक बड़ा कारण भोजन-लिप्सा थी-ईसाइयों में मांस-भोजन से विरति नहीं की जाती। दार्शनिक होने के नाते फिर्मस अपने पक्ष में तर्क भी दिया करता था। पोरफिरी पुस्तक के आरंभ में ही अपने पथ-च्युत दार्शनिक मित्र से कहता है कि दार्शनिकों के कई समुदायों-संप्रदायों ने पिथागोरस के विरुद्ध तर्क दिए हैं और मांस-भोजन को युक्त ठहराया है (इनमें पोरफिरी पेरीपैटेटिक, स्टोइक ओर एपिक्यूरियन संप्रदायों का नाम लेता है।) पोरफिरी इनकी युक्तियों को सामने लाता है, और फिर अपना उत्तर देता है।
भारतीय पदावली का प्रयोग करते हुए हम इन युक्तियों को प्रवृत्ति-मार्गी ओर निवृत्ति-मार्गी, इन दो कोटियों मे रख सकते हैं। पोरफिरी के प्रतिपक्ष की युक्तियां प्रवृत्ति-मार्गी हैं; पोरफिरी स्वयं, प्रकट ही, निवृत्ति-मार्गी थे।
पूर्वपक्ष की एक बड़ी युक्ति बुद्धि-प्रज्ञा (रीजन) को आधार बनाती है। बुद्धि-प्रज्ञा मनुष्य का व्यावर्तक गुण-धर्म है। पशु में यह नहीं होती। इसलिए पशु में धर्म या औचित्य या न्याय (जस्टिस) का बोध नहीं है। इसलिए हम उनके प्रति वही आचरण नहीं कर सकते-न हमें करना चाहिए-जो हम मनुष्य के प्रति करते हैं। पशुओं के प्रति धर्मानुकूल आचरण न उनके योग्य होगा, न हमारे; बल्कि, यहां तक कहा जा सकता है कि जिनके प्रति धर्माचरण संभव नहीं, उनके प्रति कोई आचरण अधर्म भी नहीं कहला सकता। हम पशुओं को अपने काम में लेते हैं-जिसमें उनका भोजन, उनसे बनी दवाएं भी शामिल हैं-तो यह युक्त ही है, और इसी से हमारा जीवन हमारे योग्य है। हम उन्हें काम में न लें तो हमारा जीवन भी उन जैसा ही हो जाएगा। पूर्वपक्ष का तात्पर्य यहां यह है कि अगर हम पशुओं का अपनी सुख-सुविधा के लिए उपयोग न करें तो हमने अपनी बुद्धि-प्रज्ञा से जिस विलक्षण सभ्यता-संस्कृति का ढांचा खड़ा किया है, वही टूट कर बिखर जाएगा, और हम भी पशुवत् हो जाएंगे। हम अपने आपमें स्वयं-संपूर्ण नहीं हैं, अपने बाहर से बहुत कुछ का आहरण करके ही हमारा अपना होना बनता है। अगर हम अपने बुद्धि-जन्य उपाय-कौशल से पशुओं को अपने लिए उपादान न बनाएं तो यह मूर्खता ही नहीं होगी, अपने उन्नततर जीवन से भी हाथ धोना होगा।
इसके आगे एक युक्ति और जोड़ी जाती है, जो वनस्पति को भी पशुओं की कोटि में ले आती है। पिथागोरस मृत्यु के बाद जीवात्मा का, पशु-रुप में ही नहीं, वनस्पति-रुप में भी पुनर्जन्म मानते थे। मनुष्य अभोज्य है। अगर मनुष्य पशु और वनस्पति का रुप ले सकता है, तो ये भी अभोज्य हो जाते हैं। पर फिर हम खाएंगे क्या? जिएंगे कैसे?
युक्ति की एक दूसरी दिशा भी उपयोगवाद का ही आश्रय लेती है। मनुष्य के स्वार्थ को सर्वोपरि रखते हुए यह युक्ति जीव-संघर्ष की बात करती है और अपने पक्ष में इतिहास का एक स्वानुकूल चित्र आंकती है। युक्ति यह है कि जिन प्राचीन प्रज्ञाशील द्रष्टाओं ने हमारी कानून-व्यवस्था बनाई, उनका उद्देश्य था कि मनुष्य-व्यक्तियों में परस्पर-भाव बना रहे, ताकि वे साथ रहकर अन्य जीवों से अपनी रक्षा कर सकें। इसीलिए उन्होंने मनुष्य-हत्या को दंडनीय माना। अन्य जीवों की हत्या को नहीं। अगर हम कानून बनाकर अन्य जीवों को भी उसके दायरे में ला सकते ओर उनसे अपने ही जैसा परस्पर-भाव साध सकते तो उनके प्रति नृशंस होने की जरुरत नहीं थी, पर यह संभव नहीं क्योंकि पशुओं में न्याय-बोध ही नहीं है। यह ठीक है कि सभी जीव हमारे लिए घातक नहीं होते, जैसे घोड़ा, गाय, भेड़, जिन्हें हम पालते भी हैं; और जो पशु घातक होते हैं, जैसे शेर, बाघ, उन्हें हम खाते नहीं। पर बात यहां हमारे हित की है-यह देखने-जांचने की कि हमारे लिए उपादेय क्या है। तभी कुछ पशुओं को हम पालते हैं, काम में लेते हैं, खाते हैं, पर कुछ का अपनी रक्षा के लिए विनाश साधते हैं। पर, चलिए, तर्क के वास्ते हम यह मान भी लें कि पशु-हत्या से विरति ही उचित है, तो फल क्या होगा? जीवों की संख्या बढ़कर ऐसी छा जाएगी कि हम कहीं के न रहेंगे।
अपने मर्म में यह पूर्वपक्ष पहले से अलग नहीं है, पर यह एक तीखा प्रश्न भी उठाता है : हम पशु-भोजन क्यों न करें? क्या इससे हमारे शरीर को या हमारी आत्मा को कोई हानि पहुंचती है? उत्तर में यह पक्ष मांस-भोजन के लाभ दिखाता है : मांस-भोजन करने वाले ज्यादा कुशल और ताकतवर होते हैं--जैसे शेर और भेड़िए। या जैसे शरीर के खेलों में प्रवीण खिलाड़ी (एथलीट)। बुद्धिजीवियों को लें, जैसे सुकरात या दूसरे प्रज्ञाशील विचारक, तो भी हम पाते हैं कि इन्होंने भी पिथागोरस के मांस न खाने के उपदेश को अमान्य कर दिया था। हम पिथागोरस की मानकर चलें तो वनस्पति ही नहीं, दूध, शहद जैसे भोज्य-पदार्थ भी वर्जनीय हो जाएंगे, क्योंकि जीवों का जीवन इन पर निर्भर है, वे इन्हें अपने लिए बनाते हैं, हमारे लिए नहीं।
एक करारा पूर्वपक्ष युद्ध की अनिवार्यता को सामने लाता है युद्ध के बिना हम शत्रु से कैसे जूझ सकते हैं? पशु-हत्या से विरति के मूल में हत्या से ही विरति है। पर मनुष्य के लिए युद्ध से विरति संभव नहीं। इसलिए अहिंसा संभव नहीं। पशु-भोजन से विरति तो फिर एक गौण, अवांतर सी बात रह जाती है।
पशु-हत्या के पक्ष में एक और तर्क था : देवताओं के लिए पशु-बलि का विधान। हमारी तरह ही ग्रीक धर्म देवता-बहुल था और उसमें देवताओं को पशु-बलि दी जाती थी। पोरफिरी पुरानी कहानियों-किंवदंतियों का सहारा लेते हुए दिखाते हैं कि विभिन्न देवताओं ने किस तरह किसी का हित करने के बदले पशु-बलि की मांग की।
पूर्वपक्ष के उत्तर में पोरफिरी मनुष्य-व्यवहार के साधारण जीवन में और अध्यात्म की साधना मय जीवन-चर्या में एक मौलिक भेद करते हैं-बहुत कुछ हमारे यहां किए गए प्रवृत्ति-मार्ग और निवृत्ति-मार्ग के भेद के सद्दश, या बौद्धों में इसी आधार पर किए गए प्रवाह-पतित पृथग्जन और स्रोतापन्न आर्यजन के भेद सद्दश। प्लेटो को अनुसरण करते हुए पोरफिरी साधारण व्यवहार के प्रवाह में निर्विचार बहते जीवन को ऐंद्रिक और शरीर-निष्ठ ठहराते हैं; उसे अवर और मिथ्या बताते हुए आत्मा के सत्य स्वरुप को अतींद्रिय, लोकातिक्रामी और अध्यात्म-साधना-गम्य बताते हैं। वे कहते हैं कि वे अपनी बात जागरुक विवेकशील साधकों के लिए कह रहे हैं, जो अपने वास्तव स्वरुप का अन्वेषण करते हैं, और साधारण जीवन से निवृत्त होकर उसकी ओर बढ़ना चाहते हैं, ऐसे लोगों के लिए नहीं जो प्रमाद की नींद सो रहे हैं, आकंठ प्रवृत्ति-मग्न हैं (या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी)। विवेकशील व्यक्ति भोज्य और अभोज्य में कोटि का भेद करता है। इस भेद को हम एक ओर सात्त्विक, और दूसरी ओर राजसिक-तामसिक कह सकते हैं-हालांकि, कहना न होगा कि पोरफिरी इस पदावली का प्रयोग नहीं करते। पर हमारे लिए उनका तात्पर्य इससे स्पष्ट होता है। मांस-भोजन तामसिक-राजसिक है, वह ऐंद्रिकता ओर तज्जन्य प्रमाद को उकसाता है, हमें शरीर-सार रखता है, जबकि हमारा आत्म-स्वरुप अशरीरी है। प्लेटो की पदावली का आहरण करते हुए पोरफिरी मनुष्य के सत्य स्वरुप को विचार के उस स्तर पर रखते हैं, जो इंद्रियों ओर इंद्रिय-गम्य अनित्य जगत् से ऊर्ध्व है-यों उनके लिए विचार योग की ध्यान-धारणा के ही स्तर का साधन ठहराता है। वे कहते हैं कि जो विचार (ध्यान) हमें आगे ले चल सकता है, वह वाद-विवाद या किसी विद्या के अध्ययन में किया गया विचार नहीं है, उसकी मात्रा शब्दों की मात्रा से नहीं बनती-ऐसा होता तो विद्वान आत्मज्ञानी होते; न वह इंद्रिय-प्रदत्त वस्तु के स्वरुप-निर्धारण के लिए किया गया विचार है, जब तक कि वह आत्मसंबद्ध भी न हो। सच्चे विचार (ध्यान) का लक्ष्य है : हमारी अवर जीवात्मा का अपने पर-स्वरुप में आरोहण; इस लक्ष्य के साथ सत् के स्वरुप का ध्यान और जहां तक हमारे लिए संभव है, उसकी प्राप्ति। यों देखें तो हमारा सत्-स्वरुप विचार-गत ठहरता है, इसलिए हमें चाहिए कि हम ऐसे विचार (ध्यान) के अनुकूल जीवन-यापन करें। अंग्रेजी अनुवाद में विचार के लिए शब्द है, इंटलेक्ट जिस पर प्लेटो के विचार का प्रभाव प्रकट है। विचार या इंटलेक्ट के लिए यहां बोधि या प्रज्ञा का भी प्रयोग किया जा सकता है, पर यह ध्यान में रखते हुए कि प्लेटो के लिए अतींद्रिय सत्य का जगत् प्रयत्य-जगत् है, जो विचार-गम्य है, और विचार का सत्य से स्वरुप-संबंध है।
मांस-भोजन से विरति के पक्ष में यह विचार स्पष्ट ही संसार से विरति का भी मार्ग लेता है। लेकिन पोरफिरी के लेखन में एक ऐसा भी पक्ष है जिसे सर्वजन-साधारण कह सकते हैं। धर्म सार्वजनीन होता है ओर देवताओं को पशु-बलि देना ग्रीक-धर्म का अंग था (जैसा कि हम ऊपर पूर्वपक्ष की युक्तियों में देख चुके हैं)। पशु-बलि वैदिक हिंदू धर्म का भी अंग था-और पशु-बलि की समस्या यहां भी थी, क्योंकि एक ओर जहां वेदों में यज्ञ के लिए पशु-बलि का विधान है, वहीं यह निर्देश भी है मा हिंस्यात् सर्वभूतानि। समस्या का वैदिक समाधान पशु-बलि को वैध ही रखना चाहता है, जबकि पोरफिरी उसे अनुचित ठहराता है। पोरफिरी की पुस्तक का एक पूरा लंबा अध्याय पशु-बलि को विषय बनाता है। संक्षेप में उसका कथन यह है कि देवताओं के लिए देव-योग्य बलि या चढ़ावा फल-फूल वनस्पति-जन्य ही हो सकता है। पुराकथाओं और इतिहास-कथाओं को साक्षी रखते हुए-और पिथागोरस को प्रमाण मानते हुए-पोरफिरी यह दिखाता है कि आरंभ में मनुष्य खेती और पौधों की पहली फसल से ही देव-तुष्टि करता था, और यही उपयुक्त भी है, क्योंकि देवताओं को आडंबर पसंद नहीं। पशुबलि को वह बहु-व्यय-साध्य, अहम्मन्य और जटिल अनुष्ठान बताते हुए सन्मार्ग-च्युति की श्रेणी में रखता है। वनस्पति को खाने ओर चढ़ाने के पक्ष में उसकी युक्ति यह है कि पेड़-पौधों से फल लेते हुए हम उनके प्राण नहीं लेते-फल तो अपने आप भी गिर ही पड़ते-जबकि पशुओं को उनके प्रिय प्राणों से अलग करना होता है। मधु जैसे द्रव्यों को बलि-योग्य ठहराने के पीछे उसकी युक्ति है कि मधु मक्खी बनाती है, पर हम चूूंकि मक्खी को पालते हैं, उसकी परवाह करते हैं, इसलिए हमारा भी उसके उत्पाद में हिस्सा बनता है।
आगे चलकर (पुस्तक के तीसरे अध्याय में) पोरफिरी कहते हैं पशु भी बोध और ज्ञान के (रीजन के) उसी तारतम्य में है जिसमें मनुष्य है-इसलिए पशु के प्रति भी हमारा आचरण धर्म और औचित्य-बोध में (जस्टिस में) बसा होना चाहिए। धर्म-बोध का आधार औदार्य और औदात्त्य-भूत मात्र के लिए परस्पर-भाव-होता है, स्वार्थ, उपयोग और सुख-सुविधा नहीं। तभी हम ऐसे मनुष्यों को भी धर्म के घेर में रखते हैं, जो क्रूरता और द्रोह में पशुओं से कही दुष्ट और क्षतिकारक हो सकते हैं। वनस्पति में प्राण मानते हुए भी पोरफिरी उसे रीजन के दायरे से बाहर रखना चाहते हैं। वह कहते हैं कि वनस्पति के उत्पाद्य को भोज्य बनाना हमारी बाध्यता है, पर उसे काटना-उखाड़ना उचित नहीं, जहां तक बने उसके प्राण-सत्त्व को बिना छेड़े उससे फल-अन्न आहरण करना चाहिए।
अगर बुद्धि-प्रज्ञा और उसमें अंतर्निहित धर्म-बोध (जस्टिस) मनुष्य मात्र में है, तो जीवन का यह आदर्श, अध्यात्म-साधक के लिए ही नहीं, सबके लिए होना चाहिए।
- मुकुंद लाठ
पौराणिक अहिंसा : पुराण हिंदू धर्म के वे ग्रंथ हैं, जिनका विभिन्न देवी-देवताओं की कथाओं और पूजा-उपासना से घनिष्ठ संबंध है। पुराण किसी-न-किसी देवता या अवतार को केंद्र में रखकर लिखे गए हैं-यथा विष्णु पुराण, शिव पुराण, देवी भागवत, स्कंद पुराण, आदि पुराण, वायु पुराण, भागवत पुराण आदि। इनके रचनाकाल और संख्या को लेकर बहुत अनिश्चय है; लेकिन मुख्य पुराणों की संख्या अठारह है जिनका रचना-काल ई०पू० तीसरी-दूसरी शताब्दी से लेकर दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक माना गया है।
यह उल्लेखनीय है कि वैदिक धर्म का अंग होने पर भी पुराणों में एक अलग ही देव-माला मिलती है, जिनकी उपासना वैदिक विधि से भिन्न है। इसी कारण इनमें भी हिंसा या पशु-बलि प्रधान यज्ञों के बजाय भक्ति और दया-दान आदि पर अधिक बल दिया गया है। अतः, स्वाभाविक है कि पुराणों में भी अहिंसा को न केवल धर्म-लक्षणों में गिनाया गया है, बल्कि कई स्थलों पर महाभारत की भांति उसे सर्वोंच्च धर्म भी बताया गया है।
वामन पुराण में सभी वर्णों के लिए दशांग-धर्म के पालन का निर्देश किया गया है। इनमें अहिंसा को सर्वप्रथम रखा गया है। ये दशांग हैं : अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दान, क्षांति (सहिष्णुता), दम, शम, अकृपणता, शौच तथा तप (वामन, 14/1-2)। ये सभी प्रकारांतर से अहिंसा रूपी सत्य की ही अभिव्यक्तियां हैं। इसी प्रकार ब्रह्मांड पुराण (2/31-35) में अहिंसा को धर्म का द्वार बतलाया गया है। मत्स्यपुराण (143/30-32) में यज्ञों में भी पशु-वध का स्पष्ट निषेध करते हुए कहा गया है कि महर्षि लोग हिंसायुक्त यज्ञ करने का निर्देश नहीं देते-बल्कि अक्रोध, अलोभ, दम भूतदया, शम, ब्रह्मचर्य, तप, शौच, सुकुमारता, क्षमा और धैर्य को सनातन धर्म का मूल बताया गया है। विष्णु पुराण (प्रथम भाग, अध्याय 7) में हिंसा को अधर्म की पत्नी और अन्य सब अधर्मरूपों को उनकी संतान बताते हुए उन्हें संसार के नित्य प्रलय के कारण कहा गया है। हिंसा से अपने को अलग रखने वाले से विष्णु सदैव संतुष्ट रहते हैं। विष्णु की उपासना में भी पशु-बलि की जगह अन्न-फल का प्रयोग करने का विधान है। ब्रह्मपुराण (अध्याय 224) मुक्ति के लिए आवश्यक आचरण में हिंसारहित होना, मन से भी किसी जीव की हिंसा न करना तथा दया को शामिल करता है। इसी तरह नारद पुराण में भृगु-भगीरथ संवाद (अध्याय 16) में अविरोध तथा किसी को कष्ट न पहुंचाने को अहिंसा का रूप कहते हुए उससे सभी कामनाओं के पूरा होने की बात कही गई है। एक अन्य स्थल (अध्याय 33)पर अहिंसा अक्रोध, दया आदि को परमावश्यक बताया गया है। इसी तरह शिव पुराण (अध्याय 5) में हिंसा करने वाले को नरकगामी कहते हुए मांस-भक्षण का निषेध किया गया है। इसी तरह अग्नि पुराण एवं कूर्म्मपुराण में अहिंसा की विस्तृत व्याख्या की गई है। अग्नि-पुराण में सभी सद्गुणों को अहिंसा के ही रूप बताया गया है (अध्याय 372) तथा कूर्म्मपुराण में जहां कुछ गुणों को ब्राह्मणों के लिए वांछनीय बताया गया है, वहीं अहिंसा को सभी वर्णो के धर्माचरण के लिए आवश्यक माना है। उसके अनुसार सदैव विचार, शब्द एवं कर्म से किसी को क्लेश न देना अहिंसा है। अहिंसा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है, अहिंसा से बढ़कर कोई सुख नहीं है (2/11-15)।
पद्म पुराण तो यहां तक कहता है कि प्राणि-हिंसा करने वाले अन्य सभी धार्मिक कर्त्तव्य पूरे करने के बावजूद कभी स्वर्ग की प्राप्ति नहीं कर सकते। अहिंसा को सर्वोत्तम धर्म घोषित करते हुए यहां तक कहा गया है कि दयालु लोग मच्छरों-जुओं आदि को भी अपने समान ही मानते हैं (1/31/26-28)। भागवत पुराण (प्रथम खंड, स्कंध 7, अ० 11) में सनत्कुमार द्वारा अहिंसा को ब्रह्मप्राप्ति के अठारह साधनों में एक बताया गया है। वायु पुराण की विशेषता यह है कि वह न केवल मन-वचन-कर्म से अहिंसा का पालन करने का निर्देश देता है बल्कि अनजाने हो गई हिंसा को भी दोष मानते हुए कठोर प्रायश्चित का विधान करता है (पूर्वार्ध, अ० 18)।
पुराणों में केवल निषेधात्मक अहिंसा का आग्रह ही नहीं है, बल्कि उसके सकारात्मक स्वरूप पर भी बल दिया गया है, जिसे पूर्त कहा जाता है। पूर्त का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है, लेकिन वहां इसका अर्थ स्पष्ट नहीं है। अमरकोश में पूर्त को कूप, तालाब आदि खुदवाने अर्थात् जनकल्याण के कार्यों के अर्थ में लिया गया है। मार्कंडेय पुराण में कूप, वापी, तड़ाग आदि खुदवाना, अभ्यर्थियों को भोजन देना पूर्त के अंतर्गत माना है। पद्म पुराण एवं स्कंद पुराण में भी इन्हीं अर्थों में पूर्त का प्रयोग हुआ है। वराह पुराण तो यहां तक कह देता है कि पूर्त से मोक्ष तक की प्राप्ति हो जाती है (172-33)। यम स्मृति और अत्रिसंहिता भी इस मत के समर्थक हैं। अत्रि वैदिक कर्म को तो शूद्रों के लिए निषिद्ध मानते हैं, पर कहते हैं कि यज्ञों से तो केवल स्वर्ग की प्राप्ति होती है, जबकि पूर्त शूद्र भी कर सकते हैं, जिससे मुक्ति की प्राप्ति संभव है।
डॉ० पांडुरंग वामन काणे पुराणों का विस्तृत अध्ययन-विश्लेषण करने के उपरांत इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कभी-कभी हम पुराणों में ऐसी बातें भी पा जाते हैं जिनमें आधुनिकता की गंध मिल जाती है, विशेषतः जब वे समाज-सेवा, आर्त-जनों के दुख एवं क्लेश के निवारण आदि के विषय में चर्चा करते हैं क्योंकि सारे अध्ययन विश्लेषण के निष्कर्ष रूप में परोपकार ही सर्वोत्तम धर्म और परहानि ही सबसे बड़ा पाप है। भागवत पुराण में कहा गया है कि मनुष्यों का स्वत्व केवल वहीं तक है जितने से उनका पेट भरता है, जो व्यक्ति उससे अधिक को अपना कहता है, वह चोर है, इसलिए दंडनीय है (7/14/18)। डॉ० काणे की टिप्पणी है कि यह आश्चर्यजनक है कि भागवत पुराण में वह संकेत मिलता है जो आधुनिक समाजवादी सिद्धांतों में परिलक्षित होता है।
- नंदकिशोर आचार्य
प्रकृति-पालन विवाद (The Nature-Nurture Debate) : इस बात पर काफी बहस रही है कि किसी व्यक्ति के हिंसक व्यवहार का मूल कारण जैविक है या परिवेशगत। उन्नीसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध जीव-विज्ञानी सेसर लोंब्रोसो (Cesar Lombroso) ने इस सवाल पर विचार करते हुए यह मत प्रकट किया था कि मनुष्य के हिंसक व्यवहार का प्राथमिक कारण जैविक होता है। जैविक से उनका तात्पर्य आनुवंशिक कारणों से मस्तिष्क की विशिष्ट जैविक संरचना से था। लोंब्रोसो की मान्यता के अनुसार हिंसक व्यवहार और आपराधिक क्रियाशीलता ऐसे व्यक्तियों में अंतर्जात होती है-अर्थात् वे जन्मजात हिंसक या अपराधी होते हैं। लोंब्रोसो मनुष्य के सामाजिक वातावरण को उसके हिंसक व्यवहार के लिए उत्तरदायी नहीं मानते थे। कह सकते हैं कि हिंसक व्यवहार प्राकृतिक कारणों से विकसित होता है; यानी उनकी प्रकृति ही हिंसक होती है। प्रारंभ में कई प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक भी इस बात से सहमत दिखाई देते हैं कि हिंसक व्यवहार का कारण संबंधित व्यक्ति में ऐसी किसी मूल प्रवृत्ति से है, जिसका निर्धारण आनुवंशिक तत्त्वों से होता है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एडलर की भी धारणा थी कि आक्रामकता सारे प्रवृत्तिक जीवन में व्याप्त रहती है, इसलिए इसे सारी मनोवैज्ञानिक समस्याओं की कुंजी माना जा सकता है।
हिंसक प्रवृत्ति आनुवंशिक कारणों से अंतर्जात होती है, इसके समर्थन में अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि हिंसक परिवारों के बच्चों में भी हिंसा की प्रवृत्ति अपेक्षाकृत अधिक देखी गई है; हिंसक व्यवहार वाले माता-पिता के बच्चे हिंसा की ओर अधिक उन्मुख होते हैं। लेकिन, इसका कारण आनुवंशिक नहीं बल्कि परिवेशगत ही माना जा सकता है क्योंकि ऐसे माता-पिताओं के अधिकांश बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती। स्पाट्ज वाइडम (Spatz Widam) ने अपने शोध से प्रमाणित किया है कि हिंसक व्यवहार वाले माता-पिताओं के बच्चों का हिंसक होना अनिवार्य नहीं है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जॉन वाटसन (John Watson) के इस विषय पर गहन शोध का निष्कर्ष है कि हिंसक व्यवहार का मुख्य कारण आनुवंशिक या जैविक नहीं बल्कि परिवेशगत है। वह किसी भी व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक वातावरण (Psychological behaviour) को उसके हिंसक व्यवहार का मुख्य कारण मानते हैं और उसकी जैविकी को कोई महत्त्व नहीं देते। आधुनिक अपराध-मनोविज्ञान के विशेषज्ञ भी अधिकांशतः वाटसन के विचारों से सहमत दिखाई देते हैं कि हिंसक व्यवहार का कारण सामाजिक परिवेश और मनोवैज्ञानिक वातावरण है। जे०पी० स्कॉट (J.P. Scott) और झिंग यांग कुओ (Zing Yang Kuo) आदि मनोवैज्ञानिक भी इसी मत को समर्थन देते हैं। पशुओं के व्यवहार का अध्ययन करने के बाद यांग कुओ का निष्कर्ष है कि यदि किसी बिल्ली और चूहे को प्रारंभ से एक पिंजरे में रखा जाए तो बिल्ली का चूहे के प्रति व्यवहार हिंसक नहीं होगा। स्कॉट का निष्कर्ष है कि हिंसक व्यवहार का उत्स जैविकी में नहीं, बल्कि बाह्य परिवेश में होता है। मनुष्य की जैविक-संरचना में हिंसा के स्वतःर्स्फूत उत्तेजन का कोई शरीर-वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है। इसलिए स्कॉट यह मानते हें कि यदि बच्चों का लालन-पालन आक्रामकता या हिंसा से मुक्त वातावरण में किया जाए तो वे शांत स्वभाव के रहेंगे।
लेकिन, अभी भी इस सवाल पर पूर्ण सहमति नहीं है और कई वैज्ञानिकों का मानना है कि हिंसक व्यवहार के कारणों से जैविक कारण को पूरी तरह अलग नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर, इस बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मनोवैज्ञानिक और सामाजिक परिवेश की अनुकूलता-प्रतिकूलता हिंसा को प्रवृत्तिगत मानने पर भी उसे घटा-बढ़ा सकती है, जिसका तात्पर्य है कि वह व्यवहार में हिंसा की प्रवृत्ति को संयमित एवं नियंत्रित भी कर सकती है। बहुत से मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि मनुष्य का कोई निश्चित स्वभाव नहीं है-विकास की प्रक्रिया उसे बदलती रहती है और जीवन के चेतना-रूप में विकसित होने के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक-सामाजिक विकास भी विकास की प्रक्रिया का प्रभावी अंग हो जाता है।
द्रष्टव्य : स्कॉट, जे०पी०; सेविले उद्घोषणा।
- नंदकिशोर आचार्य
प्रश्नव्याकरणसूत्र : प्रश्नव्याकरणसूत्र जैन श्वेतांबर परंपरा के अनुसार तीर्थंकर महावीर द्वारा उपदिष्ट द्वादशांगी का दसवां अंगग्रंथ है। अर्द्धमागधी आगम साहित्य में इस ग्रंथ का विशिष्ट स्थान है। यह ग्रंथ हिंसा, असत्य, अस्तेय, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह इन पांच आस्रवों तथा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह इन पांच संवरों का सूक्ष्म, व्यापक एवं तलस्पर्शी विवेचन प्रस्तुत करता है। आचार्य अभयदेव सूरि ने प्रश्नव्याकरणसूत्र पर वृत्ति की रचना की है तथा आचार्य ज्ञानविमल ने भी इस पर टीकाग्रंथ लिखा है।
प्रश्नव्याकरण समासयुक्त पद है, जिसका अर्थ है प्रश्नों का व्याकरण अर्थात् निर्वचन, उत्तर एवं निर्णय। (हरिभद्रीय नंदीसूत्रवृत्ति) दूसरे शब्दों में जिज्ञासाएं एवं उनका उत्तर देने वाला ग्रंथ प्रश्नव्याकरणसूत्र के नाम से जाना जाता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु के संकेत हमें अर्द्धमागधी परंपरा के ग्रंथ स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र और नंदीसूत्र में तथा शौरसेनी परंपरा के ग्रंथ धवला आदि प्राप्त होते हैं। उपर्युक्त दोनों परंपराओं के ग्रंथों में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषय वस्तु के जो संकेत प्राप्त होते हैं, उनसे यही स्पष्ट होता है कि यह ग्रंथ मंत्रविद्या एवं निमित्त शास्त्र से संबंध रखता है। तद्नुसार दर्पणप्रश्न, अंगुष्ठप्रश्न, बाहुप्रश्न, खड्गप्रश्न आदि विचित्र विद्यातिशयों से संबंधित चमत्कारी प्रश्नों की चर्चा जिस ग्रंथ में की गई है, वह प्रश्नव्याकरणसूत्र है।
प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु के संकेत तथा वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरण की विषय वस्तु में बड़ा मतभेद है। वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र में जिन विषयों का विवेचन है, उनमें उक्त कथित विषयों में से किसी भी विषय का समावेश नहीं है। उसमें केवल आस्रव एवं संवर तत्त्व का ही विवेचन मिलता है। इस संबंध में वृत्तिकार अभदेवसूरि लिखते हैं-इस समय का कोई अनधिकारी मनुष्य चमत्कारी विद्याओं का दुरूपयोग न करें, इस दृष्टि से वे सभी विद्याएं इस सूत्र से निकाल दी गईं और केवल आस्रव और संवर का समावेश कर दिया गया। (प्रश्नव्याकरण अभयवृत्ति का प्रारंभ) आचार्य ज्ञानविमल ने भी प्रश्नव्याकरण की टीका के प्रारंभ में इसी बात की पुष्टि की है।
वर्तमान में उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र में दस अध्ययन एवं एक श्रुतस्कंध है। (पण्हावागरणे णं एगो सुयक्खंधो दस अज्झयणा-उपसंहार)। लेकिन वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने प्रतिपाद्य विषय की भिन्नता के आधार पर इस सूत्र में 2 श्रुतस्कंध माने हैं तथा प्रत्येक में पांच-पांच अध्ययनों का उल्लेख किया है।
विषय विवेचन के आधार पर प्रश्नव्याकरणसूत्र को दो भागों में विभाजित किया गया है। (1) आस्रव द्वार और (2) संवर द्वार। आस्रव द्वार के अंतर्गत हिंसा, असत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह इन पांच आस्रवों के स्वरूप, इनके भिन्न-भिन्न नाम, कटु परिणाम तथा इन्हें करने वालों की प्रकृति आदि के संबंध विस्तार से चर्चा की गई है। संवर द्वार में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह इन पांच संवर रूप महाव्रतों उनके भिन्न-भिन्न नाम तथा उनके महात्म्य एवं उनके सुखद प्रतिफलों का प्रतिपादन विभिन्न उपमाओं के माध्यम से किया गया है।
आस्रव व संवर का निरूपण जैन आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है, किंतु प्रश्नव्याकरणसूत्र इन दोनों तत्त्वों का विवेचन व्यवस्थित, क्रमबद्ध एवं विश्लेषणात्मक शैली में प्रस्तुत करता है। विषयानुरूप भाव, भाषा व शैली का प्रयोग इस ग्रंथ की प्रमुख विशेषता है। भावाभिव्यक्ति के लिए प्रौढ़, प्राजंल व प्रभावक शब्दों का प्रयोग वर्ण्य विषय का साक्षात चित्र प्रस्तुत कर देता है। लंबे-लंबे समास तथा रूपक, उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग इसे साहित्यिक रूप प्रदान कर बाण की कादंबरी की याद दिलाते हैं।
जैन परंपरा में अन्य व्रतों की अपेक्षा अहिंसा का क्षेत्र व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में संवरद्वार, जिसे महाव्रत भी कहा गया है, के अंतर्गत सर्वप्रथम अहिंसा को स्थान दिया गया है। वहां कहा गया है-देव, मनुष्य व असुर सहित समस्त लोक के लिए द्वीप के समान प्राण व शरण देने वाली यह अहिंसा प्रथम संवर द्वार है। (तत्थ पढमं अहिंसा जा सा सदेवमणुया सुरस्स लोयस्स भवइ दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा- सूत्र 107)
प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के विराट एवं व्यापक स्वरूप को साठ नामों से अभिहित किया गया है ये साठ नाम निम्न है-(1) निर्वाण (2) निर्वृत्ति (3) समाधि (4) शक्ति (5) कीर्ति (6) कांति (7) रति (8) विरति (9) श्रुतांङ्ग (10) तृप्ति (11) दया (12) विमुक्ति (13) क्षांति (14) सम्यक्त्वाराधना (15) महती (16) बोधि (17) बुद्धि (18) धृति (19) समृद्धि (20) ऋद्धि (21) वृद्धि (22) स्थिति (23) पुष्टि (24) नंदा (25) भद्रा (26) विशुद्धि (27) लब्धि (28) विशिष्ट दृष्टि (29) कल्याण (30) मंगल (31) प्रमोद (32) विभूति (33) रक्षा (34) सिद्धावास (35) अनास्रव (36) केवलि-स्थानम् (37) शिव (38) समिति (39) शील (40) संयम (41) शीलपरिगृह (42) संवर (43) गुप्ति (44) व्यवसाय (45) उच्छ्रय (46) यज्ञ (47) आयतन (48) जत्न (49) अप्रमाद (50) अश्वास (51) विश्वास (52) अभय (53) सर्वस्य अमाघात (54) चोक्ष (55) पवित्रा (56) शुचि (57) पूता (58) विमला (59) प्रभासा (60) निर्मलतरा।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में उल्लेखित अहिंसा के भिन्न-भिन्न नाम विभिन्न व्यक्तियों आराध्य विविध प्रकार की अहिंसा का विवेचन प्रस्तुत करते हैं। अहिंसा केवल जीवों की हिंसा का निषेध अमाघात मात्र ही नहीं है, अपितु दुखी प्राणियों की रक्षा, उन पर दया, उनके प्रति मित्रता, आश्वास-विश्वास, शरण आदि का भाव भी अहिंसा का उत्कृष्ट रूप है। प्रश्न-व्याकरणसूत्र में विवेचित अहिंसा मानव की मानसिक वृत्तियों स्थितियों और प्रवृत्तियों के साथ-साथ उसके गहन अंतःकरण को भी स्पर्श करती है। तृप्ति, कीर्ति, समृद्धि, नंदा, भद्रा, कल्याण, प्रमोद आदि नामों के रूप में अहिंसा साधक की चित्त वृत्तियों के शुभ परिणामों को प्रकट करने वाली है।
अहिंसा का सीधा संबंध आत्मा से है। विशुद्ध आत्मा में ही अहिंसा उत्पन्न होती है। अहिंसा के चौक्ष, पवित्रा, शुचि, पूता, विमला, प्रभासा, निर्मलतरा, विशुद्धि आदि नाम आत्म स्वभाव के परिचायक होने से आत्मा के साथ अहिंसा का सीधा संबंध स्थापित करते हैं। यही नहीं, अहिंसा के उक्त कथित भिन्न-भिन्न नाम अहिंसा के साधन व साध्य दोनों ही रूपों को मुखरित करते हैं। अनास्रव, गुप्ति, विरति, शांति, धृति, बोधि, पुष्टि, समिधि, शील, उच्छय, यज्ञ आदि के रूप में यह मोक्ष प्राप्ति में कारणभूता अर्थात साधनरूप है। निर्वाण निर्वृत्ति, सिद्धावास केवलिस्थानम् आदि के रूप में यह स्वयं साध्य स्वरूपा है।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा को भगवती विशेषण से संबोधित किया गया है। (एसा सा भगवई अहिंसा.......सूत्र 108) ज्ञानधर्म महात्म्ययानि भगः अर्थात् ज्ञानधर्म के माहात्म्य को भग् कहा गया है। इसको धारण करने वाली भगवती कही जाती है। अहिंसा को ज्ञानधर्म स्वरूपा होने के कारण भगवती विशेषण से संबोधित किया गया है। इसी सूत्र में अहिंसा के माहात्म्य को भिन्न-भिन्न उपमानों से उपमित किया गया है। यथा कहा गया है-यह भगवती अहिंसा भयभीत प्राणियों के लिए शरण, पक्षियों के लिए आकाश में गमन, प्यासे के लिए जल, भूखों के लिए भोजन, समुद्र के मध्य पड़े जीवों के लिए जहाज, चतुष्पद के लिए विश्राम स्थल, रोगीजन के लिए औषधिबल तथा भयानक जंगल में भ्रमण करने वाले अकेले व्यक्ति के लिए सार्थ के समान उपयोगी है। इन भव्य आठ उपमानों से अहिंसा को उपमित कर भी शास्त्रकार को लगता है कि अहिंसा की महिमा इससे भी विशिष्ट है। इस आशय को प्रकट करते हुए प्रश्नव्याकरणसूत्र का ऋषि पुनः कहता है यह भगवती अहिंसा इनसे भी अत्यंत विशिष्ट है। यह पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बीज, हरितकाय, जलचर, स्थलचर, खेचर, त्रस और स्थावर सभी जीवों का कल्याण करने वाली है।
भावों की पवित्रता ही अहिंसा का आधार है। मन में भावों की पवित्रता हो तथा व्यक्ति का विवेक जाग्रत अवस्था में हो तभी जीवन में अहिंसा मुखरित होती है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा महाव्रत की सुरक्षा हेतु पांच भावनाओं का प्रतिपादन हुआ है। (1) ईर्यासमिति : गमनागमन में सावधानी रखना (2) मनःसमिति : मन में अप्रशस्त विचारों के प्रभाव का निरोध करना (3) वचनसमिति : हित-मित पथ्य वचनों का प्रयोग करना (4) आहारैषणासमिति : समभावपूर्वक संयत व निर्दोष भिक्षा की गवेषणा करना (5) आदाननिक्षेपणसमिति : साधुचर्या के उपकरणों की यथाविधि प्रतिलेखना करना।
अहिंसा के क्रमबद्ध स्वरूप की विवेचना करने के पश्चात अंत में प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के शुभ परिणामों का विवेचन करते हुए कहा है अहिंसा नवीन कर्मो के आस्रव को रोकने वाली, कलुषिता एवं मानसिक क्लेष से रहित शुद्ध स्वरूप तथा सभी तीर्थकरों द्वारा अनुमोदित है। अतः धैर्यशाली एवं मतिमान पुरुष को सदा जीवनपर्यंत इसका पालन करना चाहिए। (धीइमया मइमया अणासवो अकलसो....सूत्र 118)
- डॉ० तारा डागा
प्राणातिपात : श्वासोच्छवास आदि प्राण हैं और उनके अतिपात अर्थात् प्राणों का प्राणवान् से विछोह को जैन-दर्शन में प्राणातिपात कहा गया है, जो हिंसा अथवा जीव-वध अर्थ में प्रयुक्त होता है। श्रोत्र-इंद्रिय प्राण, चक्षु इंद्रिय प्राण, घ्राणेंद्रिय प्राण, रसनेंद्रिय प्राण, स्पर्शेंद्रिय प्राण, मन-बल प्राण, वचन-बल प्राण, काया-बल प्राण, श्वासोच्छवास प्राण एवं आयुप्राण इन दस प्राणों का प्राणी से वियोग करना प्राणातिपात है : पंचेंद्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छवासनिःश्वासमथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा।। (अभिधान राजेंद्र कोष, भाग 5, पृ० 845)
जैन दर्शन में प्राणी मात्र को षड्जीवनिकाय कहा है जिसे दो भागों में विभाजित किया गया है (1) स्थावर जीव (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति ये पांच प्रकार के एकेंद्रिय जीव) (2) त्रस जीव (द्वि-इंद्रिय से पंच इंद्रिय वाले जीव)। एक विकसित प्राणी में उपरि उल्लिखित दस प्राण माने गए हैं। प्राणी के सहजात प्राण-श्वासोच्छवास, आयु तथा स्पर्शेंद्रिय और काया प्राणधारी एकेंद्रिय जीव हैं, जिन्हें स्थावर कहा जाता है क्योंकि ये अपने बचाव हेतु स्वेच्छया चल-फिर नहीं सकते हैं, वनस्पति जीव अपनी स्पर्श इंद्रिय और काया से ही आहार उत्सर्ग करते हैं, श्वास-प्रश्वास लेते छोड़ते हैं और आयु पूरी होने पर निर्जीव हो जाते हैं। इसी प्रकार भूगर्भ-पृथ्वी, जल, तेज, वायु भी सजीव हैं और चार-चार प्राणों से युक्त हैं। पृथ्वी का पार्थिव शरीर, जल का जलीय एवं वायु का वायवीय शरीर है। ये एकेंद्रिय जीव भी सजातीय या विजातीय जीव-शस्त्र से मरते हैं जो प्राणातिपात है।
क्रोध-मान-माया-लोभ में से किसी कषाय का मन में उदय होना भाव प्राणातिपात है क्योंकि इससे जीव के स्वभाव अनंत सुख का हनन होता है। स्वयं की देह को या अन्य किसी जीव को प्राणों से अलग करना द्रव्य प्राणातिपात है। आत्महत्या या परहत्या दोनों प्राणातिपात हैं। संथारापूर्वक समाधिमरण में कषाय-संक्लेश नहीं होने से वह प्राणातिपात नहीं माना जाता है। प्राणातिपात में प्राणों (पर्यायों) का विनाश, प्राणों को परिताप (दुःख देना) और संक्लेश (कष्ट देना) तीनों प्रकार परिगणित हैं। इतना ही नहीं मन से किसी के प्राणों के विनाश आदि का चिंतन, वचन से कथन और शरीर से वध आदि क्रिया करना, करवाना या अनुमोदन करना कभी क्रोधवश या मानवश या मायावश या लोभवश ये सभी प्राणातिपात के अंतर्गत आते हैं।
किसी भी प्राणी-जीव-भूत-सत्त्व के प्राणों को दुःख न देने का व्रत (संकल्प) प्राणातिपात विरमण व्रत है जो अहिंसा महाव्रत और प्राणातिपात विरमण अणुव्रत भेद से क्रमशः साधु एवं गृहस्थजन हेतु प्रतिपादित है।
प्राणातिपात विरमण व्रत का स्वस्थ समाज की स्थापना में अनन्य योगदान होता है। इसका दार्शनिक आधार है सभी प्राण (आत्मा) समान हैं जिसे आत्मौपम्यभाव भी कहते हैं।
सुख दुःख, प्रिय अप्रिय की वृत्ति प्राणिमात्र में समान होती है। दशवैकालिक (द्ब3/5) में कहा है-अत्तसमे मन्निज्ज छप्पिकाए अर्थात् छह जीवकाय को अपनी आत्मा के समान समझो।
सूत्रकृताङ्ग (ढ्ढ/10/3) में भी प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझने के निर्देश हैं-आयतुले पयासु......
आचारांग के अनुसार-सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला। अप्पियवाहा, पियजीविणो जीविउकामा। सव्वेसिं जीवियं पियं (ढ्ढ/2/63-64) अर्थात् सभी को प्राण प्रिय हैं, सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल। ......सबको वध अप्रिय है, जीना प्रिय है, सभी दीर्घ आयु जीना चाहते हैं।
प्रत्येक जीव अपनी जीने की जरूरत पूरी करना चाहता है, इसलिए प्राणातिपात-विरमण-व्रत में मनोवैज्ञानिक स्वार्थपूर्ण सुखवाद या संग्रहवाद को स्थान नहीं है। रोटी, पानी, कपड़ा, घर, आभूषण, स्त्री/पुरुष, संतान, प्रिय इंद्रिय विषय-शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श इस सतत प्रवाही इच्छा क्रम का नियंत्रण कर मात्र जीवन निर्वाह हेतु प्राणातिपात का अल्पीकरण करते चलना ही प्राणातिपात-विरमण-व्रत का उद्देश्य है।
प्राणिवध का वर्जन आवश्यक है, प्राणिवध उचित नहीं क्योंकि प्रत्येक प्राणी जीने की चाह/जरूरत वाला है मरना कोई नहीं चाहता (दशवैकालिक, ङ्कढ्ढ/10)।
आचारांग सूत्र (ढ्ढ/4/1,2) में कहा है-सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परितावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मो धुए, नियए, सासए....अर्थात् सब प्राणियों, भूतों, जीवों को मत मारो, उन पर अनुशासन मत करो, उनको अधीन मत करो, दास दासी की तरह पराधीन बनाकर मत रखो, प्राणवियोग मत करो। यह धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है।
प्रश्न उठता है कि प्राणिवध हुए बिना जीवन निर्वाह संभव नहीं है। निर्ग्रंथ साधु-सन्यासी तो पूर्ण संयमी होने से प्राणातिपात से प्रायः निवृत्त रह सकते हैं-इह संति गया दविया, णावकंखंति जीविऊं (आचारांग) संयमी पुरुष अन्य प्राणी की हिंसा के द्वारा अपना जीवन चलाना नहीं चाहते, उन्हें अहिंसा के पालन के लिए अपना शरीर त्यागने में भी संकोच नहीं होता किंतु गृहस्थ आम जन के लिए प्राणातिपात-विरमण अणुव्रत का क्या अर्थ है? इस संदर्भ में हिंसा के दो भेद माने गए हैं-(1) अर्थ हिंसा-जीवन-निर्वाह एवं सुरक्षा हेतु होने वाली अनिवार्य प्राणिहिंसा (2) अनर्थ हिंसा-जिसके बिना रहा जा सकता है ऐसा प्राणिवध।
अर्थ हिंसा आमजन से होती ही है किंतु उसमें भी संयमपूर्वक अल्पतम प्राणिवध का विवेक आवश्यक है क्योंकि प्राण-वध तो त्याज्य है ही। साधु एवं गृहस्थ व्यक्ति की आचरण क्षमता समान नहीं होती। साधु का प्राणातिपात-विरमण अहिंसा महाव्रत होता है जिसमें अग्रवर्णिता तीनों प्रकार की हिंसा का निषेध होता है किंतु आमजन गृहस्थी का प्राणातिपात-विरमण अणुव्रत की श्रेणी में आता है।
महावीर ने (1) आरंभजा हिंसा (2) विरोधजा हिंसा और (3) संकल्पजा हिंसा ये तीन प्रकार की हिंसा बताई है।
देहधारण की अनिवार्यता हेतु होने वाली हिंसा आरंभजा है और जीवन की सुरक्षा के लिए होने वाली हिंसा विरोधजा है। ये दो हिंसा अणुव्रती के भी हो ही जाती है, किंतु संकल्पजा हिंसा आक्रामक मनोवृत्ति वाली हिंसा है जिसकी छूट गृहस्थी आमजन को भी नहीं है। महावीर ने संकल्पजा हिंसा को त्यागने की प्रेरणा की, परस्पर युद्ध को अनावश्यक एवं निषिद्ध करार दिया और अहिंसक समाज के लिए अनर्थ एवं अनावश्यक हिंसा से बचने का मार्ग सुझाया। यहां तक कि आरंभजा और विरोधजा हिंसा में भी व्यक्ति लज्जा और मजबूरी का भाव महसूस करते हुए उसे अल्प से अल्पतम करे। इस प्रकार प्राणातिपात-विरमण-व्रत का पालन करे। इस व्रत के तीन प्रमुख निहितार्थ हैं (द्ब) हम कैसा व्यवहार करें कि हम दुःखी न हो तथा (द्बद्ब) दूसरे सभी प्राणी दुःखी न हो (द्बद्बद्ब) परस्पर मैत्री हो।
(द्ब) आचारांग (ढ्ढ/7/9) में कहा है कि वह दूसरे प्राणियों का हनन करके परमार्थतः अपनी आत्मा का ही हनन करता है।
(द्बद्ब) गौतम गणधर ने महावीर से पूछा-भगवन्! जीवों के सातावेदनीय (सुखी जीवन) कर्म का बंध कैसे होता है? महावीर का उत्तर था-प्राण-भूत-जीव-सत्त्व की अनुकंपा करने से, दुःख न देने से, शोक न उपजाने से, खेद उत्पन्न नहीं करने से, वेदना न देने से, न मारने से, परिताप न देने से जीव सातावेदनीय कर्म का बंध करता है अर्थात् जीव सुखी रहता है।
(द्बद्बद्ब) सभी प्राणियों के साथ मैत्री रखो : मेत्तिं भूएसु कप्पए (उत्तराध्ययन, 6/2)।
जिनके बल पर जीव प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है, हेय को छोड़ता है और उपादेय को ग्रहण करता है, स्वजीवन संरक्षण का प्रयास करता है, उसे प्राण कहते हैं। प्राणवान् चेतनायुक्त होने से प्राणी कहलाता है। जो व्यक्ति दूसरे की हिंसा करता है, वह पहले अपने ही प्राणों की हिंसा करता है क्योंकि वह राग या द्वेष जनित भावों से युक्त हुआ ही प्राणीवध करता है। इससे स्वयं के चैतन्यगुण वीतरागता का पहले हनन होता है, तब दूसरे जीव के प्राणों का अतिपात होता है और परिणामस्वरूप वैरभाव बढ़ता है, अतः, प्राणातिपात से विरति होने पर स्व-पर तथा परस्पर तीनों का जीवन कल्याणप्रद होता है।
दस प्राणधारी पंचेद्रिय विकसित प्राणी की अपेक्षा यद्यपि पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजकाय, वायुकाय और वनस्पति इन पांचों स्थावर जीवों के अल्पप्राण हैं, चेतना अत्यल्प विकसित है तथापि उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने, कुचलने, मसलने, तोड़ने-फोड़ने, कष्ट देने या दूसरे प्रकार के जीव शस्त्र का प्रयोग करने, मारने, वध करने से दुःख का अनुभव होता है। जैसे कोई हलन-चलन में असमर्थ अंधा-गूंगा-बहरा-संवेदनशून्य अभिव्यक्ति में अक्षम मनुष्य मसले, कुचले, पीटे-मारे जाने पर दुःख का अनुभव तो करता ही है, भले ही व्यक्त नहीं कर पाता हो।
आचारांग सूत्र में कहा है कि पृथ्वी-जल-तेज-वायु और वनस्पति में चैतन्य के अस्तित्व का अपलाप नहीं करना चाहिए। उनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का अर्थ है अपने अस्तित्व का अस्वीकार।
महावीर ने वनस्पति की तुलना मनुष्य से करते हुए दोनों में जन्म-वृद्धि-चेतना-संवर्धन-क्लांतता-आहार-अशाश्वतता आदि के द्वारा समानता को प्रमाणित किया है। एकेंद्रिय जीवों की अपेक्षा अनंत गुणा विकसित और बलशाली द्वि-इंद्रिय से पंचेंद्रिय वाले त्रस जीवों में प्राणों की अधिकता (चार से दस प्राण तक) होने से उनके दुःख-सुख की अभिव्यक्ति देखी जा सकती है।
आचारांग में अविरति या असंयम को भी हिंसा का कारण माना है क्योंकि असंयम, असावधानी, लापरवाही आदि से व्यक्ति वनस्पति, पानी, बिजली, पार्थिव पदार्थों आदि का अपव्यय करता है जिससे एकेंद्रिय जीव हिंसा बढ़ती है।
शस्त्र तीन प्रकार के कहे गए हैं-(1) स्वजीव (2) परजीव (3) उभयजीव। षट्जीवनिकाय में पृथ्वी द्वारा पृथ्वी का उपघात स्वजीव शस्त्र प्राणातिपात है। जल आदि अन्य जीव से पृथ्वी का अपघात परजीवशस्त्र प्राणातिपात है। पृथ्वी और तद्भिन्न जीवों से पृथ्वी का अपघात उभयजीव शस्त्र प्राणातिपात है।
वनस्पति-पानी-बिजली-पृथ्वी-वायु के कम से कम उपयोग द्वारा तथा उन्हें प्रदूषित किए बिना जीवन जीना संयम है जो प्राणातिपात विरमण व्रत पालन में सहायक है।
पशु पक्षी आदि त्रस जीव (मांसाहार) तथा वनस्पति आदि स्थावर जीव (शाकाहार) में प्राणों की मात्रा का अंतर होने के कारण भोजन के लिए उनके (उपयोग से) प्राणों के नाश में भी अंतर मानना चाहिए। त्रस जीवों में अपनी दो से लेकर पांच ज्ञानेंद्रियों से चेतना के साथ अनुभव करने की क्षमता होती है, जिसकी तुलना में पेड़-पौधे-वनस्पति के एक स्पर्श इंद्रिय ही होती है। यद्यपि हिंसा तो दोनों के प्राणहरण में निहित है, तथापि, एकेंद्रिय द्वारा अनुभूत दुःख और त्रस जीवों द्वारा अनुभूत दुःख में भी अंतर है तथा प्राणहरण के साधन, विधि और वधकर्ता के भावों की कठोरता में भी तरतमता होती है।
सारांश यह है कि प्राणातिपात स्व तथा पर कल्याण में बाधक है, स्वरूप उपलब्धि में आवरण है, अतः अल्प से अल्पतर और अल्पतम प्राणातिपात से ही जीवन निर्वाह करना चाहिए और प्राणातिपात विरमण व्रत का पालन करना चाहिए जिससे अहिंसा की आराधना हो और जीवों की विराधना न हो।
- डॉ० सुषमा सिंघवी
प्रेम : ईसाई अवधारणा : ईसाई धर्म और जीवन-पद्धति की मुख्य आधार-भूमि और स्रोत पवित्र बाइबिल है। बाइबिल ईश्वर का शब्द है, जिसके माध्यम से ईश्वर मानवता को संबोधित करता है-अपने बारे में, संसार के बारे में और मानव-प्राणी के बारे में। ईश्वर की ही केंद्रीय गत्यात्मक जीवन-ऊर्जा समस्त ब्रह्मांड एकान्वित है। इसलिए ब्रह्माड की प्रत्येक वस्तु ईश्वर पर निर्भर है तथा उनमें परस्पराश्रितता भी है। ईसाइयत में प्रेम की अवधारणा की व्याख्या केवल पवित्र बाइबिल के आधार पर ही हो सकती है। बाइबिल में केंद्रीय विषय-वस्तु प्रेम की बहुमुखी और बहुआयामी यथार्थता है। बाइबिल को अपनी सृष्टि और विशेषतया इस सृष्टि के मुकुट मानव के लिए ईश्वर के प्रेम की कहानी माना जा सकता है। विश्व के प्रति अभिव्यक्त प्रेम ईश्वर का कोई लक्षण मात्र नहीं है। ईश्वर स्वयं प्रेम है, प्रेम का वैयक्तिकीकरण।
प्रेम ईश्वर का समरूप है। ईश्वर प्रेम है, और जो प्रेमनिष्ठ है, वह ईश्वरनिष्ठ है और उसमें ईश्वर स्वयं निष्ठ है। (ढ्ढ जॉन 4:16)। ईश्वर स्वयं प्रेम है और प्रेम ही के कारण वह अपने ईश्वरीय गुणों को सृष्टि के साथ बांटता है। अस्तित्व और जीवन संपूर्ण विश्व को ईश्वर की महान देन माने जा सकते हैं। प्रेम के कारण अपने चेहरे की तरह मानव-जाति को बनाकर ईश्वर ने अपने प्रेम का सहभागी बना लिया है। इसलिए यदि कोई मनुष्य किसी से सच्चा प्रेम करता है या प्रेमनिष्ठ है तो वह वैसे ही दैवी गुण को अभिव्यक्त करता और, इस प्रकार अपने स्रष्टा ईश्वर को ही अभिव्यक्त करता है।
ईश्वर मानव-प्राणियों को प्रेम ही नहीं करता, वह उन्हें अपनी प्रिय संतान के दर्जे तक उठा देता है। ईश्वर हमें इतना प्रेम करता है कि हम ईश्वर की संतान कहला सकें और हम वह हैं। (ढ्ढ जॉन 4:17)। इसलिए सच्चे ईसाई दृष्टिकोण के अनुसार ईश्वर पिता है और हम मानव-प्राणी उसकी संतान। ईसा के द्वारा सिखाई गई प्रार्थना ईश्वर को पिता के रूप में संबोधित करती है : इस तरह प्रार्थना करो : और स्वर्ग में रह रहे पिता, तुम्हारे नाम से हम पवित्र हों। (मैथ्यू 6:9)। मानवीय गरिमा का आधार स्पष्टतया इस तथ्य में है कि सभी मानव-प्राणी ईश्वर की संतान हैं और संतान की तरह ईश्वर से अंतःक्रिया का अधिकार और विशेष सुविधा उन्हें उपलब्ध है। इस विशेष सुविधा और अधिकार के कारण स्वाभाविक ही मानव-प्राणी के कुछ उत्तरदायित्व भी हो जाते हैं।
बहुधा मानवीय दृष्टि में ईश्वर का प्रेम अजीब रूप अख्तियार करता है। ईश्वर अपने प्रयोजन के लिए जिस कसौटी के आधार पर लोगों को चुनता है, मानवीय मानदंड के आधार पर वे विरोधाभासी लगते हैं : अपने प्रयोजन के लिए ईश्वर उन्हें चुनता है जो उसे प्रेम करते हैं, क्या ईश्वर ने इस दुनिया में गरीब किंतु आस्था में संपन्न उन लोगों को अपने राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में नहीं चुना है, जो उसे प्रेम करते हैं? (जेम्स 2:5)। मानव-प्राणियों पर अपने आशीर्वाद बरसाने में ईश्वर पक्षपात नहीं करता; यह मानव-प्राणियों के गुणों-अवगुणों पर आधारित नहीं है : ईश्वर का सूरज बुरे और अच्छे पर समान रूप से उगता, बरसात सही और गलत सभी पर समान रूप से होती है। (मैथ्यू 5:45)।
सच्चे प्रेम का प्रतिदान प्रेम से होता है। ईश्वर का अबाध प्रेम मानव-हृदय में भी प्रेम को प्रेरित करता है : तुम अपने प्रभु को पूरी भावना, पूरी आत्मा और पूरे ज्ञान के साथ प्रेम करोगे। यह महान और प्रथम आदेश है। (मैथ्यू 22:37-38)। प्रेम स्वयं ईश्वर के आदेशों और नियमों को मानने के लिए प्रेरित करता है : जो मेरे आदेशों का पालन करता है, वही मुझे प्रेम करता है; और जो मुझे प्रेम करता है, उसे मेरे पिता का प्रेम मिलता है, और मैं उसे प्रेम करुंगा और अपने को उस पर प्रकट करुंगा (जॉन 14:21)। जो उसे प्रेम करता है, ईश्वर अपने को उन पर प्रकट करता है। गहन प्रेम और अंतरंग एकत्व के फलस्वरूप मनुष्य अपने साथ और अपने में ईश्वर की प्रेममय उपस्थिति अनुभव करता है। यदि कोई मुझे प्रेम करता है तो वह मेरे शब्दों का सम्मान करेगा और मेरे पिता उसे प्रेम करेंगे, और हम उसके पास आकर उसके साथ घर बसाएंगे। जो मुझे प्रेम नहीं करता, वह मेरे शब्दों का सम्मान भी नहीं करता (जॉन 14:23-24)। ईश्वर के प्रति प्रेम विश्वास की अपेक्षा करता है क्योंकि हम एक ऐसी वास्तविकता को प्रेम कर रहे होते हैं जो हमारे ऐंद्रिक अनुभवों से परे है : उसे देखे बिना तुम उसे प्रेम करते हो, यद्यपि तुम उसे देख नहीं रहे, पर उसमें विश्वास करते और अनिर्वचनीय आनंदातिरेक की अनुभूति करते हो (पीटर 1:8)। संपूर्ण, उदार और निःस्वार्थ प्रेम ईश्वर के सम्मुख प्रस्तुत महानतम अर्पण है : पूरे मन, पूरी समझ और पूरे सामर्थ्य से उसे प्रेम करना और अपने ही समान अपने पड़ौसी को प्रेम करना सभी प्रकार के बलिदानों और अर्पणों से बहुत बड़ा है (माइक 12:30)।
ईसा प्रेम के सच्चे उदाहरण हैं : वह केवल प्रेम की सीख देते और उपदेश ही नहीं करते बल्कि अपने अनुयायियों द्वारा अनुकरण किए जाने के लिए सर्वोत्कृष्ट उदारहण हैं : मैं अपने पिता के आदेश का पालन करता हूं ताकि संसार जान सके कि मैं पिता से प्रेम करता हूं (ल्यूक 14:31)। बाइबिल के दो परस्पर पूरक घटक हैं : ईश्वर से प्रेम और पड़ौसी से प्रेम। अपने शब्दों और कार्यों के द्वारा ईसा ने इन दोनों आयामों के समंजसकारी और उचित पालन के लिए सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है : ईश्वर क्योंकि मुझे प्रेम करता है, मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। यदि तुम मेरे आदेश का पालन करते हो तो तुम मेरे प्रेम में रहोगे, जैसे अपने पिता के आदेशों का पालन करके मैं उसके प्रेम में हूं (जॉन 15:9-10)। ईसा का प्रेम सलीब पर अपने उत्कृष्टतम रूप में है, जहां वह ईश्वर द्वारा प्रदत्त प्रयोजन विश्व की मुक्ति के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देते हैं। ईसा के उदाहरण से प्रेरित होकर प्रेम के दोनों आयामों में दिन-प्रतिदिन विकसित होते हुए हम उतने पूर्ण हो सकते हैं, जितना पूर्ण स्वर्ग में रहने वाला पिता है : (मैथ्यू 5:48)। विकास के तरीकों और साधनों के बारे में ईसा का उत्तर बहुत स्पष्ट है : हमारा प्रभु, हमारा ईश्वर एक है; और तुम अपने प्रभु ईश्वर को पूरे मन, पूरी आत्मा और पूरे ज्ञान और पूरे सामर्थ्य के साथ प्रेम करोगे। दूसरा यह कि तुम अपने पड़ौसी से अपने ही समान प्रेम करोगे। इससे बड़ा कोई आदेश नहीं है (माइक 12:30-31)। यहां भी ईसा अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं : एक नया आदेश मैं तुम्हें देता हूं कि तुम एक दूसरे को प्रेम करोगे; मैंने तुम्हें प्रेम किया है कि तुम एक-दूसरे को प्रेम करो। यदि तुम एक-दूसरे से प्रेम करोगे तो सभी लोग जान सकेंगे कि तुम मेरे अनुयायी हो (जॉन 13:34-35)। ईश्वर के प्रति प्रामाणिक प्रेम हमेशा ही एक-दूसरे को प्रेम करने की मांग करता है : यदि ईश्वर हमें इतना प्रेम करता है, तो हमें भी एक-दूसरे को प्रेम करना चाहिए। किसी ने ईश्वर को नहीं देखा है; यदि हम एक-दूसरे को प्रेम करते हैं तो ईश्वर का प्रेम हमारे अंदर जाएगा और हममें अपनी पूर्णता उपलब्ध करेगा (ढ्ढ जॉन 4:11-12)।
ईसा का उदाहरण स्पष्टतया प्रेम के बलिदानपरक आयाम का उदाहरण है : इसमें हम प्रेम को जान पाते हैं कि उसने हमारे लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया; हमें भी अपने बिरादरों के लिए अपना जीवन बलिदान कर देना चाहिए। लेकिन यदि किसी के पास संपत्ति है और वह अपने किसी बिरादर की जरूरत को देखते हुए अपने हृदय के कपाट बंद कर लेता है तो ईश्वर का प्रेम उसमें कैसे रह सकता है? हमें केवल शब्दों या वाणी से नहीं; बल्कि वास्तविक और कर्ममय प्रेम करना चाहिए (ढ्ढ जॉन 3:16-18)। प्रेम इससे अधिक कुछ नहीं है कि एक व्यक्ति अपने मित्रों के लिए अपना जीवन बलिदान कर दे (जॉन 15:12)। यदि प्रेम में क्षैतिजिक आयाम लुप्त है तो ऊर्ध्वाकार आयाम पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है : यदि कोई कहता है कि मैं ईश्वर से प्रेम करता हूं लेकिन वह अपने भाई से घृणा करता है, तो वह झूठा है; क्योंकि जो अपने उस भाई से प्रेम नहीं करता जिसे वह देख पाता है तो वह उस ईश्वर को प्रेम नहीं कर सकता, जिसे उसने नहीं देखा है। जो ईश्वर को प्रेम करता है, उसे अपने भाई को भी प्रेम करना चाहिए (ढ्ढ जॉन 4:20-21)। जो अपने भाई से घृणा करता है, वह हत्यारा है (ढ्ढ जॉन 3:15)। इस प्रकार ईश्वर का पितृत्व और संपूर्ण जगत का भातृत्व संपूर्ण नैतिकता का सार है। यदि तुम ईश्वरीय नियम का वास्तव में धर्मशास्त्र के अनुसार पालन करते हो तो तुम्हें अपने पड़ौसी को भी उतना ही प्रेम करना होगा, जितना तुम खुद से करते हो।
प्रेम के संबंध में ईसा की शिक्षाओं में सर्वाधिक क्रांतिकारी सीख शत्रु से प्रेम करने की है। केवल यह पर्याप्त नहीं है कि कोई अपने शत्रु के प्रति हिंसक व्यवहार नहीं करता। वास्तविक और सच्चा प्रेम अहिंसा का अतिक्रमण कर शत्रु के प्रति प्रेम का रूप लेता है : तुमने सुना होगा कि पड़ौसी को प्रेम और शत्रु से घृणा करो। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं : अपने शत्रुओं से भी प्रेम करो और अपने को सताने वालों के लिए भी प्रार्थना करो ताकि तुम स्वर्ग में रहने वाले अपने पिता की संतान हो सको। ईश्वर का सूरज अच्छों-बुरों सब पर समान रूप से प्रकाशित होता है, उसकी भेजी बरसात सब पर समान रूप से होती है। यदि तुम केवल उन्हें प्रेम करते हो जो तुम्हें प्रेम करते हें तो तुम्हें क्या पुरस्कार मिलेगा? क्या कर वसूल करने वाले भी यह नहीं करते? और यदि तुम केवल अपने भाइयों को नमस्कार करते हो, तो दूसरों से अलग क्या करते हो? क्या गैर-ईसाई भी यह नहीं करते? इसलिए तुम्हें उतना ही पूर्ण होना चाहिए जितना पूर्ण स्वर्ग में रहने वाला तुम्हारा पिता है (मैथ्यू 5:43-48) क्षमाशील प्रेम का तात्पर्य है सकारात्मक कर्म में पर्यवासित होने वाला सकारात्मक रूख : लेकिन मैं जो कहता हूं सुनो, अपने शत्रु से प्रेम करो, जो तुम से घृणा करते हैं, उनका कल्याण करो, जो तुम्हें शाप देते हैं, उन्हें आशिष दो, जो तुम्हें गाली देते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो। जो तुम्हारे गाल पर थप्पड़ लगाता है, दूसरा गाल उसके आगे कर दो; जो तुम्हारा कोट ले लेता है, तो अपनी कमीज भी मत रखो। जो कोई भी मांगता है उसे दो; और जो तुम्हारी वस्तुएं ले लेता है, उससे वापस मत मांगो; और लोगों के साथ वैसा व्यवहार करो, जैसा तुम चाहते हो वे तुम्हारे साथ करें (ल्यूक 6:27-31)।
ईश्वर की सच्ची संतान को ईश्वर के प्रति बिलाशर्त और अबाध प्रेम को एक-दूसरे के संबंधों में भी स्वीकार और सिद्ध करना होगा : यदि तुम से प्रेम करने वालों को तुम प्रेम करते हो, तो इसमें प्रशंसा की क्या बात है? जो उन्हें प्रेम करते हैं पापी भी उन्हें प्रेम करते हैं। यदि तुम्हारा हित-साधन करने वालों का तुम हित-साधन करते हो, तो इसमें भी प्रशंसा की क्या बात है? पापी तक भी यही करते हैं। और यदि तुम वापस पाने की आशा में किन्हीं को कुछ देते हो तो उसमें भी प्रशंसा की क्या बात होगी? पापी भी उनको देते हैं, जिनसे उतना ही पाने की वे आशा रखते हैं। लेकिन अपने शत्रुओं से प्रेम करो, उनका भला करो और वापस पाने की आशा के बगैर उन्हें दो; और तुम्हारा पुरस्कार महान होगा, और तुम सर्वोच्च सत्ता के पुत्र हो जाओगे क्योंकि वह कृतघ्नों और स्वार्थियों पर दयालु है। दयावान बनो क्योंकि तुम्हारा पिता दयावान है (ल्यूक 6:32-35)। ईसा उस मानसिकता की निंदा करते हैं जो केवल अनुष्ठानों को प्रेम पर बल देती और एक-दूसरे से प्रेम की अवहेलना करती है (ल्यूक 11:42 और 20:46-47)।
ईश्वर का प्रेम केवल मानव-प्राणियों तक सीमित नहीं है। सृष्टि के रचयिता होने के कारण वह पूरी सृष्टि से प्रेम करता और पितृवत् प्रेम के साथ उनकी रक्षा और संभाल करता है। ईसा कहते हैं : हवा में चिड़ियों को देखो; वे न कुछ बोती हैं, न काटती हैं और न खत्ते में संग्रह करती हैं, फिर भी स्वर्ग में रहने वाला तुम्हारा पिता उनका पोषण करता है; मैदान में लिलियों को देखो, कैसे वे उगते हैं; वे न तो जोतते हैं, न बुनते हैं; फिर भी मैं तुम्हें कहता हूं, सोलोमन भी अपनी गरिमा में उनमें से किसी एक के भी समान सजीला नहीं है (मैथ्यू 6:26, 28-29)।
प्रेम की ईसाई अवधारणा पिता ईश्वर के प्रति अबाध और निरंतर प्रेम में बद्धमूल है। सृष्टि में प्रत्येक वस्तु उसी प्रेम की अभिव्यक्ति है। ईसा के अवतार और आत्म-बलिदान के रूप में बाइबिल इसी दैवी प्रेम को एक सुग्राह्य और साकार रूप में प्रस्तुत करती है। अपने प्रारंभ से लेकर आज तक ईसाइयत ईश्वर के इसी सार्वभौमिक प्रेम को प्रत्येक के जीवन में सिद्ध करने का प्रयत्न करती रही है।
- डॉ० विल्सन ऐदात्तुकरन
प्रेम का नियम : सत्य क्या है? महात्मा गांधी मानते हैं कि निरपेक्ष सत्य को जानना मनुष्य के वश की बात नहीं है। लेकिन उसे जानने का शुद्धतम साधन अहिंसा है। एक स्थल पर तो स्पष्टतः अहिंसा या प्रेम को ही ईश्वर कह देते हैं : जब आप सत्य को ईश्वर रूप में पाना चाहते हैं तो एकमात्र अनिवार्य साधन प्रेम अर्थात् अहिंसा है। और क्योंकि मैं मानता हूं कि साधन और साध्य पर्यायवाची हैं मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि ईश्वर प्रेम है। अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य मानते हुए भी वह दोनों में अभेद मानते हैं। वह बताते हैं : वे इतने अंतर्ग्रथित हैं कि उन्हें अलग कर सकना लगभग असंभव है। वे एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं, बल्कि एक चिकनी सपाट धातु की टिकिया के दो पक्ष हैं-कौन कह सकता है कि यह सीधा है और यह उलटा? तो भी अहिंसा को साधन मानें और सत्य को साध्य। साधन अपने हाथ की बात है, इसी से अहिंसा परमधर्म हुआ। सत्य ईश्वर हुआ। साधन की चिंता करते रहेंगे तो किसी दिन साध्य के दर्शन होंगे ही। इतना निश्चय कर लिया तो माना जग को उस हद तक जीत लिया। हमारे मार्ग में चाहे जो संकट आए, बाह्य दृष्टि से देखते हुए हमारी चाहे जितनी हार होती हुई दिखाई पड़े तो भी हम विश्वास न छोड़ें और एक ही मंत्र जपें कि सत्य ही सब कुछ है, वही ईश्वर है, उसका साक्षात्कार करने का एक ही मार्ग है, एक ही साधन है-और वह है अहिंसा, मैं उसे कभी न छोडूंगा।
दरअस्ल, गांधी जी जब अहिंसा को साधन और सत्य को साध्य बताते हैं तो यह एक प्रकार की भाषिक विवशता ही है। वस्तुतः वह दोनों को अलग करके देख ही नहीं पाते। यदि अहिंसा धर्म है और सत्य ईश्वर तो इसका तात्पर्य यही तो हुआ कि अहिंसा नियम है और सत्य नियंता-और गांधी जी यह बार-बार कहते हैं कि ईश्वर और उसके नियम को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। यदि ईश्वर साकार भी है, व्यक्तिगत भी है तो भी वह नियम है अर्थात् प्रेम है, अहिंसा है। इसलिए दार्शनिक दृष्टि से यह कहना अधिक संगत लगता है कि गांधीवादी चिंतन में सत्य प्राथमिक और अहिंसा व्युत्पन्न सत्ता है; अथवा कि सत्य अभ्युपगम है और अहिंसा उसका अपरिहार्य उप-सिद्धांत। गांधी जी अहिंसा और प्रेम में कोई अंतर नहीं करते बल्कि कहते भी हैं कि अपने विशुद्धतम रूप में अहिंसा का अर्थ है अधिकतम प्रेम। अनंतर इसी प्रेम को वह अस्तित्व का नियम कहकर संबोधित करते हैं। कुछ लोगों की यह राय है कि अहिंसा एक नकारात्मक शब्द है, अतः बेहतर होता कि गांधी जी सदैव प्रेम शब्द का ही प्रयोग करते। निश्चय ही स्वयं गांधी जी को भी यह अधिक प्रिय होता लेकिन कुछ गलतफहमी से बचने के लिए ही वह प्रेम की जगह अंततः अहिंसा शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि कम से कम अंग्रेजी भाषा में प्रेम के अनेक अर्थ हैं और वासना के अर्थ में मानव-प्रेम पतनकारी प्रवृत्ति भी हो सकता है।
बहुत-से विद्वानों का यह विचार रहा है कि प्रेम या अहिंसा के प्रति गांधी जी का यह आकर्षण तोलस्तोय के प्रभाव की वजह से है। इसमें कोई संदेह नहीं कि गांधी जी तोलस्तोय के बहुत बड़े प्रशंसक थे और विशेष तौर पर उनकी कृति दि किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू ने गांधी जी पर बहुत गहरा प्रभाव डाला था। एक विश्लेषक के अनुसार इस कृति में गांधी जी को न केवल सत्य और अप्रतिरोध का मुखर समर्थन मिला, बल्कि कष्टसहन की सुंदरता और गरिमा की मार्मिक अभिव्यक्ति भी मिली। तोलस्तोय ने दिखाया था कि किस प्रकार एक व्यक्ति कष्ट सहन करके अपने आपको मुक्त और पाप की शक्ति को नष्ट कर सकता है। तोलस्तोय भी गांधीजी को लिखे एक पत्र में शक्ति के नियम के बरक्स प्रेम के नियम को प्रतिष्ठित करते हैं। लेकिन गांधीजी और तोलस्तोय की कई मान्यताओं में बुनियादी अंतर रहा है। फिलहाल उनकी दार्शनिक भिन्नताओं की चर्चा में न भी पड़ें तो भी प्रेम के नियम का व्यावहारिक स्वरूप दोनों में भिन्न है। तोलस्तोय अप्रतिरोध पर जोर देते हैं क्योंकि उनके अनुसार प्रेम में प्रतिरोध के लिए जगह नहीं है। लेकिन गांधी जी का बल सत्याग्रह पर है जो एक सकारात्मक धारणा है जो केवल अप्रतिरोध द्वारा नहीं बल्कि सक्रिय अहिंसात्मक संघर्ष द्वारा अन्याय या असत्य का विरोध और सत्य की स्थापना का आग्रह करती है। यही कारण है कि तोलस्तोय का अप्रतिरोध जहां वैयक्तिक स्तर तक सीमित रहता है, वहां गांधीजी का सत्याग्रह सामूहिक स्तर पर सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों का कारक बनता है। रेल के डिब्बे से बाहर फेंक दिए जाने पर गांधीजी केवल उसे चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर लेते बल्कि ऐसे अन्याय और उसे करने वाली व्यवस्था के विरुद्ध सत्याग्रह करते हैं। इसलिए तोलस्तोय के प्रेम के नियम से सहमति प्रकट करते हुए भी गांधीजी ने उसे अप्रतिरोध या निष्क्रिय प्रतिरोध की जगह अहिंसक प्रतिरोध, सत्याग्रह और असहयोग की सक्रियता में ढालने का प्रयास किया। विभाजन को स्वीकार कर लिए जाने के कारण उन्हें यह भी लगने लगा कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हमारा आचरण अहिंसक प्रतिरोध का नहीं बल्कि निष्क्रिय प्रतिरोध का था क्योंकि अगर हम अहिंसक प्रतिरोध का इस्तेमाल करना जानते होते जो सिर्फ मजबूत लोगों के बस की बात है, तो हम दो टुकड़ों में बंटे भारत की बजाय दुनिया के सामने आजाद भारत की बिल्कुल दूसरी ही तस्वीर पेश कर सकते थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा : जहां भारतीय मानस निष्क्रिय प्रतिरोध की कोशिश करने के लिए तैयार है, वहीं वह अहिंसा का पाठ हृदयंगम करने के लिए तैयार नहीं है, और शायद यही वह चीज है जिससे विष अमृत में बदल सकता है। स्पष्ट है कि तोलस्तोय का अप्रतिरोध या निष्क्रिय प्रतिरोध और गांधीजी का अहिंसक प्रतिरोध और सत्याग्रह प्रेम के नियम के दो भिन्न रूप हैं।
गांधीजी के अनुसार यह सभ्यता अधर्म है, शैतानी सभ्यता है क्योंकि उसकी केंद्रीय प्रेरणा शक्ति के नियम में है। माइट इज राइट और सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट के सिद्धांत, जो आधुनिक सभ्यता के संचालक हैं, शक्ति के नियम को ही स्थापित करते हैं। गांधीजी इस अधर्म को मिटाकर उसकी जगह धर्म की स्थापना करना चाहते हैं और इसलिए स्वाभाविक ही है कि वह शक्ति के नियम के बरक्स प्रेम के नियम या अहिंसा की स्थापना करते हैं। वह यह भी जानते हैं कि कोई भी व्यवस्था केवल शुभ आशयों से नहीं चलती। हम जहां किसी भी सुचारु और न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए शुभ प्रेरणाओं की जरूरत होती है वहीं उसके वैज्ञानिक आधारों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। कोई भी व्यवस्था अंततः एक ठोस वास्तविकता है, अतः उसके विकास के लिए वैज्ञानिक आधारों की भी जरूरत रहती है।
इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि महात्मा गांधी अहिंसा को केवल धर्म ही नहीं विज्ञान भी मानते हैं-न केवल इस अर्थ में कि मानव जाति का अनुभव उसकी पुष्टि करता है बल्कि इस अर्थ में भी कि भौतिक विज्ञान भी अहिंसा के नियम को प्रस्तावित करता जान पड़ता है। पूंजीवादी या आधुनिक सभ्यता अपना वैज्ञानिक आधार सर्वाइवल ऑफ दि फिटेस्ट में देखती है और इसी प्रकार प्रकृति की द्वंद्वात्मकता के आधार पर मार्क्सवादी समाजवाद ऐतिहासिक भौतिकवाद को स्थापित करता है-यद्यपि शक्ति के नियम का स्वीकार वहां भी है क्योंकि हिंसक बल के आधार पर ही साम्यवादी क्रांति को संभव होना है। लेकिन महात्मा गांधी आधुनिक भौतिक विज्ञान से कुछ और ही सामाजिक नियम प्राप्त करते हैं। उनकी खोज प्लेटो की इस उक्ति का स्मरण दिलाती है कि हम क्या उत्तर प्राप्त करते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि हम सवाल क्या पूछते हैं। गांधीजी विज्ञान से जो सवाल पूछते हैं वह उन सवालों से अलग है जो आधुनिक सभ्यता के विभिन्न रूप पूछते रहे हैं, अतः उन्हें जो उत्तर मिलता है वह भी बिलकुल अलग और विशिष्ट है।
महात्मा गांधी अहिंसा या प्रेम को अस्तित्व का नियम मानते हैं और अधुनातन वैज्ञानिक सिद्धांतों से अपनी बात की पुष्टि करते हैं। जिस प्रकार प्रकृति की द्वंद्वात्मकता अर्थात् द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मानवीय जीवन और इतिहास में ऐतिहासिक भौतिकवाद में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार जड़ पदार्थों में व्याप्त संसंजक बल मानवीय जीवन में प्रेम में बदल जाता है। गांधी जी के अपने शब्दों में : वैज्ञानिक बताते हैं कि जिन अणुओं से मिलकर हमारी पृथ्वी की रचना हुई है उनके बीच यदि संसंजक या संसक्तिशील बल विद्यमान न हो तो पृथ्वी खंड-खंड हो जाएगी और हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाएगा; और जिस प्रकार जड़ पदार्थों में संसंजक बल है उसी प्रकार सभी चेतन पदार्थों में भी यह बल उपस्थित होना चाहिए, और चेतन पदार्थों में इस संसक्तिशील बल का नाम है प्रेम। हमें इसके दर्शन पिता-पुत्र में, भाई-बहन में, मित्र-मित्र में होते हैं, लेकिन हमें समस्त जगत् के बीच इस बल के प्रयोग का अभ्यास डालना चाहिए; इसी प्रयोग में हमारा ईश्वर का ज्ञान निहित है। जहां प्रेम है वहां जीवन है; घृणा विनाश की ओर ले जाती है। और ऐसा नहीं है कि इस संसक्तिशील बल की बात गांधी जी ने वैसे ही कर दी है क्योंकि वह पूर्व उद्धृत कथन के करीब ग्यारह वर्ष बाद फिर उसी शब्दावली को दोहराते हैं : मेरा मानना है कि मानवजाति की ऊर्जा का कुल योग हमारे अपकर्ष के लिए नहीं बल्कि हमारे उत्कर्ष के लिए है और यह प्रेम के नियम के अचेतन किंतु निश्चित प्रवर्तन का ही परिणाम है। मात्र यह तथ्य कि मानवजाति का अस्तित्व बरकरार है, इस बात का प्रमाण है कि संसक्तिशील बल विच्छेदक बल से अधिक शक्तिशाली है, अभिकेंद्री बल अपकेंद्री बल से बढ़कर है। एक अन्य जगह वह अहिंसा के इस बल को उस गुरुत्वाकर्षण से जोड़कर देखते हैं जो पूरी सृष्टि की एकता का आधार है : जिस प्रकार पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से बंधकर अपनी कक्षा में स्थित है, उसी प्रकार सारा समाज अहिंसा के सूत्र से बंधा है। लेकिन जब गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज हुई तो इस खोज के अनेक ऐसे परिणाम सामने आए जिनका ज्ञान हमारे पूर्वजों को नहीं था। इसी प्रकार, जब समाज की रचना सोच-समझकर अहिंसा के नियमानुसार की जाएगी तो उसकी संरचना की भौतिक विशिष्टताएं जैसी आज हैं, उनसे भिन्न होंगी।
महात्मा गांधी भी हिंसा और अहिंसा के बीच एक द्वंद्व तो देखते हैं पर उनके अनुसार इसमें श्रेष्ठता अहिंसा की ही प्रमाणित होती है और उनकी यह मान्यता किसी तर्केतर आस्था के कारण नहीं अपितु मानवीय अनुभव और इतिहास से समर्थित है। ईश्वरीय शक्ति को गांधी जी विशुद्ध रूप से उपकारी शक्ति मानते हैं और इसीलिए उसे प्रेम का नाम देते हैं : मैं पाता हूं कि मृत्यु के बीच जीवन का सातत्य है, झूठ के बीच सत्य का सातत्य है और अंधकार के बीच प्रकाश का सातत्य है। इसलिए मैं समझता हूं कि ईश्वर जीवन है, सत्य है, प्रकाश है। वह साक्षात् प्रेम है। वही सर्वोंच्च शुभ है। गांधी जी की इतिहास-दृष्टि भी हिंसा और अहिंसा के बीच द्वंद्व को तो पहचानती है-और इसीलिए जॉन बोनड्यूरैंट जैसी विश्लेषक सत्याग्रह के मूल में एक गांधीवाद द्वंद्ववाद भी देख लेती हैं जो वस्तुओं के स्वभाव या समय की प्रगति में नहीं बल्कि मानवीय प्रवृत्तियों और कर्म में व्यक्त होता है-लेकिन इस द्वंद्व में अहिंसा ही जीवन के संचालक नियम के रूप में प्रतिष्ठित होती है। यह और बात है कि आधुनिक सभ्यता की इतिहास-दृष्टि-मूलतः हिंसा से प्रेरित होने के कारण-हिंसा को ही इतिहास की प्रगति के तौर पर दर्ज करती है। हिंद स्वराज में ही गांधी जी की अपनी इतिहास-दृष्टि पूरी तरह सुस्थापित हो गई थी जो यह बताती है कि आधुनिकतावादी इतिहास-दृष्टि तो प्रकृति के क्रम में उत्पन्न होने वाले व्यवधानों का अभिलेख है। गांधी जी प्रेम और सत्याग्रह को इतिहास का नियम बताते हुए कहते हैं : इतिहास का शब्दार्थ है : ऐसा हो गया। ऐसा अर्थ करें तो आपको सत्याग्रह के कई प्रमाण दिए जा सकेंगे। इतिहास जिस अंग्रेजी शब्द का तर्जुमा है और जिस शब्द का अर्थ बादशाहों या राजाओं की तवारीख होता है, इसका अर्थ लेने से सत्याग्रह का प्रमाण नहीं मिल सकता। जस्ते की खान में आप अगर चांदी ढूंढने जाऐं, तो वह कैसे मिलेगी। इसलिए गोरे लोगों में कहावत है कि जिस राष्ट्र की हिस्टरी (कोलाहल) नहीं है वह राष्ट्र सुखी है। राजा लोग कैसे खेलते थे, कैसे खून करते थे, कैसे बैर रखते थे, यह सब हिस्टरी में मिलता है। अगर यही इतिहास होता, अगर इतना ही हुआ होता, तब तो दुनिया कब की डूब चुकी होती। अगर दुनिया की कथा लड़ाई से शुरू हुई होती, तो आज एक भी आदमी जिंदा न रहता....दुनिया में आज भी इतने लोग जिंदा है, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार-बल पर नहीं है, परंतु सत्य, दया या आत्मबल पर है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाई के बल के बजाय दूसरा ही बल उसका आधार है। हजारों बल्कि लाखों लोग प्रेम के बस रहकर अपना जीवन बसर करते हैं। करोड़ों कुटुंबों का क्लेश प्रेम की भावना में समा जाता है, डूब जाता है। सैंकड़ों राष्ट्र मेलजोल से रहे हैं, इसको हिस्टरी नोट नहीं करती; हिस्टरी कर भी नहीं सकती। जब इस दया की, प्रेम की ओर सत्य की धारा रुकती है, टूटती है, तभी इतिहास में वह लिखा जाता है।
हिंद स्वराज्य से यह लंबा उद्धरण यह प्रमाणित करने के लिए है कि महात्मा गांधी की इतिहास-दृष्टि भी प्रेम के बल को ही सत्य मानती है जो विश्व में बने रहने का कारण है। वह मानवीय स्वभाव में हिंसा को भी पहचानते थे-लेकिन मूल्य के रूप में नहीं बल्कि एक पशु-प्रवृत्ति के रूप में क्योंकि जैविक स्तर पर मनुष्य पशु भी है। मूल्य के स्तर पर तो अहिंसा ही प्रतिष्ठित होती है क्योंकि वही जैविक मनुष्य को एक नैतिक मनुष्य में विकसित करती है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए हरिजन के एक अंक में उन्होंने लिखा : पशु रूप में मनुष्य हिंसक है, पर आत्मा रूप में वह अहिंसक है। उसके भीतर की आत्मा जाग्रत होते ही वह हिंसक नहीं रह सकता। या तो वह अहिंसा की ओर प्रगति करता है या फिर विनाश की ओर। स्पष्ट है कि गांधी जी के लिए विकास का अर्थ हिंसा से अहिंसा की ओर विकास है। गांधी जी मानते हैं कि जो व्यक्ति के लिए सत्य है वही समाज या मानव-समूह के लिए भी सत्य है। इसलिए मानवता के विकास की कसौटी भी अहिंसा ही हो सकती है। यहां फिर गांधी जी द्वारा आधुनिक सभ्यता को खारिज करने की बात याद आती है क्योंकि यह सभ्यता मूलतः हिंसक है। कह सकते हैं कि धर्म या प्रेम या अहिंसा ही वह कसौटी है जिस पर गांधी जी इतिहास के किसी भी युग की परख करते हैं। यह इतिहास-दृष्टि मूलतः उस भारतीय दृष्टि से मेल खाती है जिसके अनुसार धर्म के ह्रास के साथ अवरोही क्रम में चतुर्युग की कल्पना की गई है। गांधी जी जब आधुनिक सभ्यता को पैगंबर मोहम्मद की सीख के मुताबिक शैतानी सभ्यता कहते हैं तो साथ ही उसे हिंदू धर्म के मुताबिक कलजुग कहना भी नहीं भूलते।
इस प्रकार महात्मा गांधी की इतिहास-दृष्टि मानवीय चेतना के विकास का तात्पर्य उसमें अहिंसा के बोध का विकास मानती है। चेतना के विकास का अर्थ अधिक जानकारियां प्राप्त कर लेना या तर्कना का विकास नहीं बल्कि आत्म के दायरे का विस्तृत होते जाना है जिसका तात्पर्य है अपने और शेष जीवन के बीच एक तात्त्विक ऐक्य के भाव का विकसित होना। संतान, परिवार, जाति, संप्रदाय, वर्ग, राष्ट्र आदि इसी आत्म के विस्तार के दायरे हैं-लेकिन दायरे हैं इसलिए इनके द्वारा होने वाली आत्म की पहचान और इनके माध्यम से संपूर्ण जीवन से जुड़ने की भी एक सीमा है जिसे न समझ सकने पर आत्म का विस्तार और उसकी पहचान बाधित होती है। तब वह न केवल निर्दोष सत्य नहीं हो सकती बल्कि कई बार उसी को अंतिम मान लेने पर एक आत्मप्रवंचना हो जाती है और इस प्रकार जीवन और चेतना के विकास में बाधक भी हो जाती है। गांधी जी यदि किसी भी प्रकार के संप्रदायवाद, नस्लवाद या राष्ट्रवाद आदि का विरोध करते हैं तो उसका कारण इन प्रवृत्तियों की मूलतः अलगाववादी और हिंसक मनोवृत्ति है। शेष जीवन के साथ अस्तित्वगत ऐक्य के अनुभव के अभाव में ही हिंसा पैदा होती है-इसीलिए उसे एक पाशविक वृत्ति कहा गया है क्योंकि पशुता में इस तरह के अस्तित्वगत ऐक्य की अनुभूति संभव ही नहीं है। जो लोग मानव जीवन में हिंसा के प्रयोग की अनिवार्यता का तर्क देते हैं वे भी यह तो मानते हैं कि यह एक पाशविक वृत्ति है, लेकिन परिस्थितियों के दबाव के कारण उसे स्वीकार करना पड़ रहा है। क्रांति के प्रसंग में जब हिंसा के औचित्य की बात की जाती है तब भी यही कहा जाता है कि साध्य के आधार पर साधन की पवित्रता को आंकना चाहिए। इसी में क्या यह भाव निहित नहीं है कि हिंसा अपने आप में तो अनुचित ही है। गांधी जी मानते हैं कि हिंसा मनुष्य में छिपे पशु का स्वभाव हो सकती है, पर मनुष्य का मूल स्वभाव नहीं हो सकती। मनुष्य का मूल स्वभाव तो अहिंसा ही रही है।
इसका तात्पर्य यह हुआ कि मानवीय चेतना के विकास का अर्थ है मनुष्य का निंरतर अहिंसक होते जाना-निषेधात्मक नहीं विधेयात्मक अर्थों में। जीवन मात्र के, अस्तित्व मात्र के प्रति लगाव, प्रेम, करुणा, अनुकंपा की सूक्ष्मतर अनुभूति अहिंसा के भाव की ही गुणाभिव्यक्तियां हैं। अहिंसक होना ही वास्तविक अर्थों में मनुष्य होना और जीवन के विकास की गति में सार्थक भूमिका निबाहना है।
लेकिन जब हम हिंसा या अहिंसा की बात करते हैं तो अक्सर उसका संदर्भ बहुत स्थूल और दैहिक होता है। हिंसक मनुष्य केवल हिंसक नहीं है-वह मनुष्य भी है इसलिए बुद्धि का उपयोग भी करता है और यदि उसके उपयोग की मूल प्रेरणा हिंसा की प्रवृत्ति हो-जैसे कि आधुनिक सभ्यता की गांधी जी मानते हैं-तो उसके लिए बहुत सूक्ष्म और बौद्धिक तरीके भी ईजाद कर लिए जाते हैं। इसीलिए हिंसा सिर्फ व्यक्तिगत प्रवृत्ति नहीं रहती बल्कि अक्सर पूरे समाज के आचरण में भी प्रतिबिंबित होती है। जाति, नस्ल, वर्ग, राष्ट्र, संप्रदाय आदि के आधार पर अपने को श्रेष्ठ और अन्य को ओछा मानना हिंसा का ही सूक्ष्म रूप है। इसलिए दैहिक बल या शस्त्र बल का प्रयोग ही नहीं, किसी भी प्रकार का राजनीतिक दमन, आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न भी हिंसा की ही विभिन्न अभिव्यक्तियां हैं। इसलिए हम उसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को धर्म कह सकते हैं जिसका आधार सकारात्मक अर्थों में अहिंसा हो।
गांधी जी की इतिहास-दृष्टि का दूसरा निष्कर्ष यह भी है कि इतिहास किसी अंध गति से संचालित नहीं है और इसलिए मनुष्य इतिहास का माध्यम मात्र नहीं है। जॉन बोनड्यूरैंट जब गांधीवादी द्वंद्ववाद-अर्थात् हिंसा-अहिंसा के द्वंद्व को वस्तुओं के स्वभाव या समय की प्रगति के बजाय मानवीय कर्म में व्यक्त मानती हैं, तब वह कहीं यह भी संकेतित कर देती हैं कि गांधी जी के अनुसार मनुष्य जाति किसी ऐतिहासिक नियतिवाद की अनिवार्य माध्यम नहीं है, जिसका सीधा अर्थ यह है कि मनुष्य अपने अनुभवों के आलोक में दृढ़ निश्चय और सत्याग्रह के द्वारा इतिहास को इच्छित दिशा में मोड़ सकता है। सत्याग्रह पर गांधी जी का बल इसीलिए है क्योंकि वही इतिहास को नियंत्रित-निर्देशित करने का वैयक्तिक और सामूहिक तरीका है।
लेकिन अहिंसा महात्मा गांधी के लिए केवल विज्ञान ही नहीं धर्म भी है-बल्कि परम धर्म क्योंकि केवल उसी के माध्यम से सत्य का ज्ञान संभव है। निश्चय ही इस संदर्भ में धर्म से गांधी जी का आशय किसी औपचारिक या प्रथागत अर्थात् ऐतिहासिक धर्म से नहीं बल्कि उस धर्म से है जो सभी धर्मों का मूल है। लेकिन वह अन्य मानवतावादी विचारकों से भिन्न ऐतिहासिक धर्मों की जरूरत और सार्थकता पर भी बल देते हैं क्योंकि व्यवहारतः वह यह नहीं मानते कि संसार में एक ही धर्म हो सकता है अथवा होगा। इसलिए उनका प्रयोजन विविध धर्मों के बीच समानता के सूत्र को पकड़ना और परस्पर सहिष्णुता का विकास करने के लिए प्रयासरत रहना है। अहिंसा ही समानता का वह सूत्र है जो गांधी जी के अनुसार सभी ऐतिहासिक धर्मों के अनुयायियों को जोड़ सकता है क्योंकि इसका पालन करते हुए न केवल उन्हें कहीं भी अपने धर्म की विशिष्टता को छोड़ना नहीं पड़ता बल्कि उनका अपना धर्म भी जिन नैतिक गुणों का विकास करने का उपदेश देता है उनमें भी अहिंसा, प्रेम या दया सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
यह स्मरणीय है कि जो धर्म सभी को एक ही परमात्मा की संतान मानते हों, वे किसी भी तरह हिंसा को सैद्धांतिक तौर पर समर्थन नहीं दे सकते। दूसरे शब्दों में, हिंसा जीवन का सिद्धांत नहीं हो सकती। जीवन का सिद्धांत तो अहिंसा या प्रेम ही हो सकता है। रक्षात्मक हिंसा को तो कभी-कभी गांधी जी भी स्वीकृति देते हैं! साथ ही वह कायरता पर भी हिंसा को वरीयता देते हैं क्योंकि अहिंसा सर्वोच्च वीरता है। यदि हम अहिंसा का पूर्णतया पालन करने में असफल भी हों, तब भी उसकी जगह हिंसा को जीवन की प्रेरणा मानकर उसे अहिंसा के स्थान पर नहीं बिठाया जा सकता। अहिंसा या प्रेम न केवल विज्ञान का नियम है बल्कि वह मानवजाति के रहस्यात्मक और लौकिक अनुभवों अर्थात् धर्म और इतिहास का भी सार है।
लेकिन, जैसा कि पहले कहा गया है, अहिंसा केवल स्थूल हिंसा का अभाव नहीं है। यह जीवन का नियम है जिसका तात्पर्य सबके प्रति सदाशयता रखना मात्र नहीं बल्कि जीवन की सभी क्रियाशीलताओं को-जीवन के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि सभी पक्षों को-अहिंसा या प्रेम के आधार पर संगठित करना है। यह केवल अंतर्वैयक्तिक व्यवहार का नहीं बल्कि समाज-संचालन का नियम भी है-इसलिए महात्मा गांधी जब अहिंसा की बात करते हैं तो उसकी व्याप्ति एक अहिंसक आर्थिक प्रक्रिया और अहिंसक राज्य और उसकी प्रक्रियाओं सहित समग्र जीवन को अपनी परिधि में ले लेती है। अहिंसा धर्म है-और गांधी जी का सरोकार शैतानी सभ्यता या अधर्म के स्थान पर धर्म की स्थापना करना है-इसीलिए जीवन के सभी पहलुओं और संस्थाओं को इस प्रेम के नियम से संरचित और अनुप्राणित होना होगा। स्वयं धर्म को भी गांधी जी इसीलिए धर्मग्रंथों के आधार पर नहीं बल्कि सत्य और अहिंसा के आधार पर समझना चाहते हैं। वह धर्मग्रथों की भी ऐसी किसी भी व्याख्या को मानने से इनकार करते हैं जो तर्क या नैतिक दृष्टि के प्रतिकूल हो। एक अन्य स्थल पर वह कहते हैं : मैं अक्षरचारी नहीं हूं। इसलिए मैं दुनिया के विभिन्न धर्मग्रंथों की भावना को समझने का प्रयास करता हूं। धर्मग्रंथों की व्याख्या करते समय मैं उन्हीं के द्वारा निर्धारित सत्य और अहिंसा की कसौटी को लागू करता हूं। इस कसौटी पर जो खरे नहीं उतरते, उन्हें अस्वीकार कर देता हूं और जो खरे उतरते हैं, उनको अपना लेता हूं। गांधी जी द्वारा धर्म और अंतःकरण की आवाज की बात को तर्केतर मानते हुए मानवेंद्रनाथ राय ने इनमें फासीवाद के तत्त्व देख डाले थे, लेकिन वह अपने तर्कनावादी उत्साह में यह भूल गए थे कि गांधी जी के लिए हर चीज की कसौटी अहिंसा थी-अंतःकरण की आवाज की भी-और जब हम अहिंसा को प्रत्येक चीज की प्रेरणा और कसौटी के रूप में स्वीकार कर लेते हैं तो उसमें फासीवाद की दूर तक संभावना नहीं रहती। गांधी जी के शब्दों में : केवल सत्य और प्रेम-अहिंसा-ही महत्त्वपूर्ण हैं। जहां ये हैं, वहां अंततः सब कुछ ठीक हो जाएगा। इस नियम का कोई अपवाद नहीं हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
प्रौद्योगिकीय अहिंसा : आधुनिकतावादी उत्पादन-प्रक्रिया और विकास मूलतः एक भारी और जटिल प्रौद्योगिकी पर निर्भर करता है, जो जितनी जटिल है, उतनी ही हिंसक भी। प्रौद्योगिकीय नियतिवाद-टेक्नोलॉजिकल डिटरमिनिज्म-आधुनिक युग की ऐसी समस्या है, जिसने अर्थशास्त्रियों और समाज-वैज्ञानिकों का बहुत ध्यान आकर्षित किया है। यह प्रौद्योगिकी प्रकृति और मनुष्य दोनों के साथ हिंसा का अनिवार्य रिश्ता रखती है। इस प्रौद्योगिकी का पेट भरने के लिए अधिकाधिक प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत होती है। यदि इन संसाधनों का प्रयोग कम कर दिया जाए तो यह प्रौद्योगिकी घाटा देने लगती है और तब उस वांछित आर्थिक विकास की दृष्टि से अनुपयोगी हो जाती है, जिसके लिए उसे अपनाया गया है। यही नहीं, इस प्रौद्योगिकी के कारण जिस तरह का पर्यावरणीय प्रदूषण फैल रहा है, वह पूरे जीवन के ही नष्ट होने की आशंका पैदा करता जा रहा है।
एरिकफ्राम जैसे मनोविदों की राय में इस प्रौद्योगिकी पर आश्रित उत्पादन-व्यवस्था में मनुष्य स्वयं एक वस्तु जैसा हो जाता और अपने को उद्विग्न, अकेला और असहाय अनुभव करता है। विशाल पैमाने के उत्पादन की प्रौद्योगिकी अनिवार्यतः आर्थिक और राजनीतिक केंद्रीकरण पैदा करती है, जिसका परिणाम होता है लोकतांत्रिक औपचारिकताओं के बावजूद मनुष्य का राज्य और पूंजी-संस्थान के समक्ष अपने को बौना और बेचारा अनुभव करना। कार्ल फ्रेडरिक और ब्रजेजेंस्की जैसे समाज-वैज्ञानिकों का अध्ययन यह प्रमाणित करता है कि अधिकनायकतंत्रीय और सर्वसत्तावादी शासन-व्यस्था के लिए संचार-व्यवस्था, अस्त्र-शस्त्र तथा आर्थिक जीवन पर केंद्रीकृत नियंत्रण आवश्यक है और वह किसी-न-किसी प्रकार के केंद्रीकृत प्रौद्योगिक आधार के बिना संभव नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि विशाल पैमाने का उत्पादन मनुष्य की कृत्रिम जरूरतों को बढ़ाता और उसे उपभोक्ता मात्र बनाकार छोड़ देता है क्योंकि वही उसके बाजार के हित में है। यह मनुष्य को मूलत ऐंद्रिक अस्तित्व बना देना है। इस प्रौद्योगिकीय हिंसा और उसके स्थूल-सूक्ष्म और जटिल सामाजिक-मनोवैज्ञानिक परिणामों को लेकर समाज वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों और दार्शनिक मनोविदों में बहुत विचार-विमर्श होता रहा है। अधिकांश समाज-वैज्ञानिक एक ऐसी प्रौद्योगिकी की जरूरत का अनुभव करने लगे हैं, जो मनुष्य और प्रकृति के प्रति अहिंसक रूख रखती हो। कुछ लोग यह मानते हैं कि प्रौद्योगिकी मूल्य-निरपेक्ष होती है और यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसका कैसा प्रयोग करें। लेकिन, हर तरह की प्रौद्योगिकी की अपनी जरूरतें या कहें कि स्वभाव होता है और उसे अपनाने पर वह वैसे ही परिणाम देती है। इन अर्थों में प्रौद्योगिकी अपने में एक विचारधारा बन जाती है। दरअस्ल, यंत्र होने से पूर्व वह एक विचार होती है, अतः, उस विचार के राजनीतिक, सामाजिक आयामों से बचा नहीं जा सकता। यदि प्रौद्योगिकी हिंसक है तो उसके पीछे सक्रिय विचार में कहीं न कहीं हिंसा की स्वीकृति या औचित्य का बोध निहित है।
इसलिए समाज-वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों का ध्यान ऐसे विकल्प की खोज की ओर जा रहा है जो प्रौद्योगिकीय हिंसा के बजाय प्रौद्योगिकीय अहिंसा के विचार पर आधारित हो। इस दृष्टि से कई शोध-संस्थानों में कार्य हो रहा है और समाज-वैज्ञानिकों एवं प्रौद्योगिकीविदों द्वारा कई तरह के प्रस्ताव प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। इनमें लीविस ममफोर्ड, कार्ल मैनहाइम, जॉन टोड, कॉलिन मूरक्राफ्ट, मरे बुकचिन, बेरी कॉमनर, फूरियर, माल्कम बी० वेल्स, अंबर्टो नोबाइल, रोबिन कलार्क, पाल स्मोकर, साइमन क्रुजनेट्स, इवान इलिच, और इ० एफ० शुमाकर जैसे नाम उल्लेखनीय हैं। महात्मा गांधी, और जे०सी० कुमारप्पा को तो इस सूची में अग्रणी माना जाना चाहिए। महात्मा गांधी स्वदेशी का प्रस्ताव करते हैं तो रोबिन क्लार्क और शुमाकर समुचित तकनीक का, लोहिया लघु मशीन की तकनीकी का।
इन सभी के विचारों का अध्ययन-विश्लेषण करने पर अहिंसोन्मुख प्रौद्योगिकी की कुछ मूलभूत चारित्रिकताएं पहचानी जा सकती हैं। चाहे उनमें छोटे-मोटे भेद बने रहें और उनका नामकरण कुछ भी हो। अमेरिका के न्यू एल्केमी इंस्टीट्यूट के जॉन टोड ने अपने प्रस्ताव को जैव-प्रौद्योगिकी (क्चद्बशह्लद्गष्द्धठ्ठशद्यशद्द4) की संज्ञा देते हुए कुछ चारित्रिकताओं का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार इस प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल समाज के निम्नतम स्तर पर तथा अत्यधिक गरीब लोगों द्वारा भी किया जा सकना चाहिए एवं इसे पारिस्थितिकीय और सामाजिक सरोकारों पर आधारित होना चाहिए-न कि केवल आर्थिक कुशलता पर। यह प्रौद्योगिकी ऐसी होनी चाहिए जिससे लघु और विकेंद्रीकृत स्थानीय समुदायों का विकास हो सके। पीटर वान ड्रेसर और कॉलिन मूरक्राफ्ट भी मोटे तौर पर कुछ ऐसे ही आधारों और लक्ष्यों का समर्थन करते हैं। कॉलिन मूरक्राफ्ट के शब्दों में किसी भी वैकल्पिक प्रौद्योगिकी का बुनियादी लक्ष्य पृथ्वी का पुनर्संजीवन और स्वास्थ्य होना चाहिए-द्गड्डह्म्ह्लद्ध द्वह्वह्यह्ल ड्ढद्ग ड्ढह्म्शह्वद्दद्धह्ल ड्ढड्डष्द्म ह्लश द्यद्बद्घद्ग ड्डठ्ठस्र ह्यह्लड्ड4 द्धद्गड्डद्यह्लद्ध(4)
रोबिन क्लार्क अपने प्रस्ताव को मृदु प्रौद्योगिकी (ह्यशद्घह्ल ह्लद्गष्द्धठ्ठशद्यशद्द4) की संज्ञा देते हुए कुछ ऐसी चारित्रिकताओं का निर्धारण करते हैं, जो मामूली संशोधन के साथ अहिंसक प्रौद्योगिकी के सभी प्रस्तावकों के लिए स्वीकार्य हो सकती हैं। ये चारित्रिकताएं इस प्रकार हैं : (1) पारिस्थितिकीय स्वास्थ्य (2) अल्पतम ऊर्जा-निवेश (3) अल्पतम या नगण्य प्रदूषण-दर (4) प्रतिवर्ती संसाधन एवं ऊर्जा (5) सदैव क्रियाशील (6) दस्तकारी-उद्योग (7) अल्प-विशेषज्ञता (8) सामुदायिक इकाई (9) ग्राम-प्रधान (10) प्रकृति से समन्वय (11) लोकतांत्रिक राजनीति (12) प्रकृति द्वारा निर्धारित प्रौद्योगिकीय सीमा (13) स्थानीय विक्रय (14) स्थानीय संस्कृति-विशिष्ट (15) दुरुपयोग से सुरक्षा (16) अन्य प्राणियों के हित पर आधारित (17) आवश्यकताजनित आविष्कार (18) स्थिर आर्थिकी (19) श्रम प्रधान (20) युवा और वृद्ध का समन्वय (21) विकेंद्रीकरणवादी (22) लघुता से कुशलता में वृद्धि (23) सभी के लिए कार्य-क्षम (24) अल्प एवं अनुल्लेखनीय प्रौद्योगिकीय दुर्घटनाएं (25) प्रौद्योगिकीय एवं सामाजिक समस्याओं के विविध समाधान (26) वैविध्य पर कृषि-बल (27) गुणात्मक उत्कर्ष का महत्त्व (28) सभी द्वारा खाद्य-उत्पादन (29) कार्यजनित संतोष (30) लघु इकाइयां स्वपोषित (31) विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्कृति-विशिष्ट (32) विज्ञान और प्रौद्योगिकी सभी के लिए कार्यक्षम (33) कम काम और सभी के लिए सदैव उपलब्ध प्रौद्योगिकीय लक्ष्य।
डेविड डिक्सन का मानना है कि वैकल्पिक आदर्श-प्रौद्योगिकी के लिए यह देखना जरूरी है उसका व्यक्ति, समुदाय और परिवेश / पर्यावरण के साथ किस प्रकार का रिश्ता है। अपनी पुस्तक टुवार्ड्ज ए लिबरेटिंग टेक्नोलॉजी में मरे बुकचिन कहते हैं कि औजारों का काम एक मनुष्य के रूप में कारीगर या शिल्पी के सामर्थ्य को बढ़ाना है। यह समुदाय-विशिष्ट होते हुए भी व्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने वाली तथा उसे शोषण से बचाने वाली प्रौद्योगिकी होनी चाहिए। प्रो० बेरी कॉमनर परिवेश या पारिस्थितिकी से प्रौद्योगिकी के रिश्तों पर विचार करते हुए सुझाते हैं कि प्रत्येक वस्तु किसी-न-किसी अन्य वस्तु से संबद्ध है; हर वस्तु को कहीं-न-कहीं जाना है; प्रकृति ही सर्वोच्च ज्ञाता है (अर्थात् उसकी प्रक्रिया में अहस्तक्षेप) और मुफ्त भोजन जैसी कोई चीज नहीं होती (अर्थात् हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है।) जो प्रौद्योगिकी इन पारिस्थितिकीय नियमों के अनुकूल रहती है, वही अहिंसोन्मुख कही जा सकती है।
यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी की स्वदेशी की अवधारणा इन कसौटियों पर खरी उतरती है। स्वदेशी का तात्पर्य केवल हिंदुस्तानी नहीं है। एक अवधारणा के रूप में स्वदेशी का तात्पर्य है स्थानीय जरूरतों की पूर्ति के लिए स्थानीय संसाधनों एवं प्रौद्योगिकी द्वारा स्थानीय उत्पादन। इस प्रौद्योगिकी का निर्माण भी स्थानीय स्तर पर ही वांछनीय है। ऐसी ही प्रौद्योगिकी शोषण और पूंजी तथा संसाधनों के केंद्रीकरण और तत्जनित सत्ता के केंद्रीकरण को रोकने में कामयाब होने और विकेंद्रीकरण संभव होने के कारण एक वास्तविक लोकतंत्र और अहिंसक समाज के विकास के लिए उपयुक्त प्रौद्योगिकी हो सकती है।
- नंदकिशोर आचार्य
प्रौद्योगिकीय नियतिवाद : तकनीकी शक्ति में जो भरोसा बताया जा रहा है, उस पर बहुत-से अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों में गहरा मतभेद रहा है। फ्रेडरिक बेनहम जैसे विचारकों का स्पष्ट मत है कि मनुष्यता का आर्थिक भविष्य केवल तकनीकी में संभव है। कुछ लोगों का कहना है कि किसी भी समाज के पिछड़ा या अग्रणी होने की पहचान मात्र यही हो सकती है कि वह किस मात्रा में आधुनिक तकनीकी को अपना चुका है। आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन एक मध्यकालीन या आदिम तकनीकी का सामाजिक-आर्थिक प्रतिफलन है।
अब सवाल यह उठता है कि हम सामाजिक पिछड़ापन किसे कहेंगे? आर्थिक विकास का तो सीधा तात्पर्य उत्पादन में वृद्धि समझ लिया जाता है, लेकिन सामाजिक विकास का पैमाना क्या है? क्या राज्य अथवा अर्थसत्ता के सम्मुख व्यक्ति का निरंतर बौना या असहाय होते जाना सामाजिक विकास का सूचक माना जा सकता है? लेकिन आधुनिक तकनीकी का सामाजिक प्रभाव तो यही है। डेविड डिक्सन ने इस ओर उचित ही ध्यान दिलाया है कि आधुनिक प्रौद्योगिकी अनिवार्यतः सत्ताशाली वर्गों के साथ होती है। उसका कहना है कि इस तकनीकी की एक स्पष्ट राजनीतिक भूमिका है क्योंकि इस पर केवल प्रभु वर्ग का ही नियंत्रण हो सकता है और यदि कभी सामाजिक नियंत्रण की बात होती भी है तो उसके ऐसे रूप विकसित होते हैं जो अपने चरित्र में सहभागितामूलक नहीं, बल्कि अथॉरिटेरियन होते हैं क्योंकि उसके बिना इस तकनीकी का प्रबंधन संभव ही नहीं है।
संभवतः, यही कारण है कि समाजवादी समझी जाने वाली व्यवस्थाओं में भी केंद्रीकृत प्रणाली वाली प्रबंधन शैली का विकास हुआ और लेनिन जैसे क्रांतिकारी को भी अमेरिकी पूंजीवादी प्रबंधविज्ञानी टेलर के सुर में सुर मिलाकर कहना पड़ा कि मजदूर की हैसियत एक बड़ी मशीन के छोटे पुर्जे-कॉग इन दि मशीन-की है; उसका अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं। यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं कार्ल मार्क्स ने पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में मजदूर के एलिएनेशन की एक वजह यह मानी थी कि यह उत्पादन-पद्धति उसे भी एक पुर्जे की हैसियत में ला देती है। दरअस्ल, यह सवाल राजनीतिक विचारधारा का उतना नहीं था, जितना तकनीकी के अपने चरित्र का।
यह एक तरह का प्रौद्योगिकीय नियतिवाद है क्योंकि तकनीकी का परिणाम केवल उत्पादन की प्रक्रिया और मात्रा नहीं है-वह उस पूरे समाज की संरचना को बदल देती है, जो उस पर निर्भर करता है। जब मार्क्स ने यह माना था कि सामाजिक संरचना उत्पादन-संबंधों का प्रतिफलन होती है और उत्पादन-संबंधों का निर्धारण उत्पादन के उपकरणों और साधनों से होता है तो वह प्रकारांतर से यही तो कह रहे थे कि किसी समाज की केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि संपूर्ण संरचना तकनीकी के आधार पर तय होती है। इसलिए जब हम किसी तकनीकी को चुनते हैं तो इस बात पर विचार किया जाना भी जरुरी है कि केवल आर्थिक ही नहीं, उसके सामाजिक-राजनीतिक परिणाम क्या होंगे।
सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि से तकनीकी के प्रभावों के कुछ अध्येताओं का निष्कर्ष है कि तकनीकी विशेषज्ञता को केंद्रीय महत्त्व देती है, जिसका परिणाम होता है सामान्य व्यक्ति को-उस व्यक्ति को जो समूची पृथ्वी के संसाधनों का बराबर का वारिस है-आर्थिक जीवन से संबंधित निर्णय प्रक्रिया से अलग कर देना। यही कारण है-और इन दिनों हम स्वयं इसे अपने देश में देख सकते हैं-कि आर्थिक निर्णय किसी सार्वजनिक इच्छा, बहस या सामाजिक जरुरत के आधार पर नहीं, बल्कि विश्व बाजार की जरुरत के आधार लिए जाते हैं। राजनीतिक निर्णयों के स्तर पर भी जनप्रतिनिधियों के माध्यम से जनता की इच्छा व्यक्त नहीं होती, बल्कि विशेषज्ञ नौकरशाहों की राय के अनुसार ही फैसले किए जाते हैं। राजनीतिज्ञों को केवल इतनी सुविधा अवश्य मिल जाती है कि वे अपनी रोटी भी सेंकते रहें-जैसा कि हमारे यहां भी हो रहा है। आखिर शिक्षा जैसी सामाजिक प्रक्रिया को बाजार के भरोसे छोड़ना और उसके निजीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन एक ऐसे क्षेत्र में बाजार का हस्तक्षेप स्वीकार करना है, जिसके लिए उसकी कोई सीधी जिम्मेदारी नहीं है। लोकतंत्र में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी चीजों का दायित्व लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार का होना चाहिए, क्योंकि आखिर नागरिक अपनी प्रभुसत्ता राज्य को सौंपता है, किसी बाजार को नहीं। लेकिन, सरकार या राज्य वास्तव में विशेषज्ञों द्वारा चलाए जाते हैं, जो नागरिक के हितों के लिए नहीं, बल्कि बाजार के हितों के लिए जिम्मेदार होते हैं, इसलिए आसानी से आम आदमी की राय महत्त्वहीन हो जाती है-एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी।
वुड्रो विल्सन-एक आदर्शवादी अमेरिकी राष्ट्रपति-ने यह चेतावनी दी थी कि जिस लोकतंत्र को जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन कहा जाता है, वह ऐसे में विशेषज्ञों का शासन हो जाता है और आम नागरिक अपने को असहाय अनुभव करता रहता है। ब्रिटिश सोसाइटी फॉर सोशल रेसपांसिबिलिटी ऑफ साइंस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि आज की परिस्थिति में वैज्ञानिक और तकनीकी ज्ञान ही सत्ता का स्रोत हो जाता है और उस पर विशाल संस्थाएं ही नियंत्रण कर सकती हैं और इस प्रक्रिया में वह शक्तिशाली को और अधिक शक्तिशाली तथा कमजोर को और अधिक असहाय करता जाता है। दरअस्ल, यह समाज को आर्थिक शक्तियों के निरंकुश नियंत्रण में लाना है-जो प्रकारांतर से तानाशाही का नया रुप कहा जा सकता है। कार्ल फ्रेडरिक ओर ब्रजेजिंस्की जैसे अध्येताओं का यह निष्कर्ष इसलिए निराधार नहीं कहा जा सकता कि यह तकनीकी अपने एकाधिकारवादी प्रबंधन के कारण राजनीतिक निरंकुशता के लिए आवश्यक साधन और वातावरण मुहैया करवाती है। यह ध्यान देने की बात है कि तकनीकी विकास और उस पर आधारित औद्योगिक-आर्थिक विकास के चलते अधिकांश औद्योगिक समाजों में राजनीतिक चेतना केवल इतनी-भर बच रहती है कि उस सरकार को चुना जाए जो अर्थव्यवस्था का बेहतर प्रबंधन और करों में कमी कर सकती है। इसलिए ऐसे समाजों में राजनीतिक विचारधाराओं को नहीं, प्रबंधकों को चुना जाता है। अधिनायकवादी मानसिकता के लिए यह सबसे बेहतर खाद है।
यहां हमें बेरी कॉमनर की इस बात को भी ध्यान में लेना चाहिए कि हमारे समय की कई समस्याएं तो आधुनिक तकनीकी की असफलता के कारण नहीं, बल्कि उसकी सफलताओं के कारण पैदा हुईं और विकराल होती गई हैं। इस सिलसिले में पारिस्थितिकी और पर्यावरण से संबंधित समस्याओं को सर्वाधिक ज्वलंत उदाहरण के रुप में रखा जा सकता है। यदि कोई ऐसा रास्ता निकाल भी लिया जाए कि ऊर्जा की कमी न होने पाए तो भी जितनी मात्रा में कच्चे माल को खर्च किया जा रहा है, वह अपने-आप में एक बड़ी समस्या है। बड़ी तकनीकी विशाल पैमाने का उत्पादन और खपत मांगती है क्योंकि इसके बिना वह आर्थिक स्तर पर भी नहीं टिक पाएगी और उत्पादन की निरंतर बढ़ती हुई मात्रा एक ऐसा दुश्चक्र पैदा कर रही है, जिसके लिए कच्चा माल मुहैया करवाते जाना असंभव हो जाएगा। इससे पैदा होने वाला प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन एक अलग बात होगी।
यह तकनीकी गरीब और अविकसित देशों पर बड़े विकसित देशों का आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक नियंत्रण भी बढ़ाने में सहयोग करती है क्योंकि इसके लिए जिस विशेषज्ञता और पूंजी की जरुरत होती है, वह अविकसित या कम पिछड़े देशों के पास उपलब्ध नहीं है और यदि हर चीज बाजार की वस्तु है तो हम इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते कि विकसित देश अपनी तकनीकी विशेषज्ञता और पूंजी निवेश की क्या कीमत वसूल सकते हैं-औद्योगिक क्रांति के बाद का इतिहास इसका साक्षी है और समकालीन परिदृश्य में भी कम प्रमाण नहीं है। तकनीकी में मानव-भविष्य यदि है भी तो कम-से-कम इस आधुनिक तकनीकी में तो वह अंधकारमय ही है। उसके लिए एक अन्य प्रकार की तकनीकी चाहिए होगी जो लोकतांत्रिक और समतापरक हो। मुझे लगता है कि इस मसले पर शायद गांधी, मार्क्स और राय एकमत होते।
- नंदकिशोर आचार्य
फरीद, शेख : चिश्ती संप्रदाय के सूफी संतों में बाबा शेख फरीद शकरगंज (1173-1265 ई०) को प्रसिद्ध सूफी संत शेख निजामुद्दीन औलिया का आध्यात्मिक गुरु माना जाता है। उनका महत्त्व इस बात से भी प्रमाणित है कि उनके पंजाबी काव्य को गुरु नानक और उनके उत्तराधिकारियों ने भी श्रद्धास्पद समझा तथा उसे सिखों के आदिग्रंथ में स्थान दिया गया। उन्हें पंजाबी का पहला लिखित कवि माना जाता है। वह प्रसिद्ध सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार के शिष्य थे। उन्हें ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का भी आशीर्वाद प्राप्त हुआ तथा उन्होंने शेख फरीद को अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी चुना। लेकिन शेख फरीद ने दिल्ली में रहने के बजाय हांसी में रहना उचित समझा। हांसी में जब उनके दर्शनार्थियों की भीड़ बढ़ने लगी तो वह अजोधन (जो अब पाकिस्तान में है) चले गए। एकांत के कारण यह स्थान उन्हें अपनी आध्यात्मिक साधना के लिए अधिक उपयुक्त लगा, पर यहां भी उनके दर्शनार्थी बड़ी संख्या में पहुंचने लगे। स्वयं सुल्तान बलबन उनके दर्शन के लिए यहां आया। अनंतर इस स्थान को पाक-पत्तन कहा जाने लगा।
शेख फरीद के बारे में बहुत-सी चामत्कारिक कहानियां प्रसिद्ध हैं, जो उनकी आध्यात्मिक शक्तियों की ही नहीं, उनकी उदारता और क्षमाशीलता की अभिव्यक्ति हैं। सूफी संतों की एक प्रमुख विशेषता यह रही थी कि वे सामान्य जन के मन में प्रेम, उदारता और आध्यात्मिकता की भावनाएं विकसित करने की ओर अधिक ध्यान देते थे। शेख फरीद भी इसका अपवाद नहीं थे। तपस्या, सहिष्णुता, दया और अहिंसा उनके लिए इश्क की ही अभिव्यक्तियां थे क्योंकि जीवन की सार्थकता ही उनके लिए इश्क में थी। बाबा फरीद का तो आशीर्वाद यही होता था कि ईश्वर तुम्हारे हृदय को दर्द (करुणा) से भर दे। ऐसा माना जाता है कि शेख फरीद के बीस प्रमुख शिष्यों या प्रतिनिधियों द्वारा उनके संदेश का प्रसार पूरे देश में किया गया, जिनमें शेख निजामुद्दीन औलिया का सर्वप्रथम उल्लेख होता है। उनके दूसरे शिष्यों में हांसी के शेख जमालुद्दीन का नाम लिया जाता है, जिनका देहावसान अपने गुरु से पहले ही हो गया था। बलियार के शेख अलाउद्दीन अली अहमद साबिर को भी उनका एक प्रमुख शिष्य माना जाता है।
पंजाबी साहित्य में शेख फरीद को बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है। वारिसशाह ने तो यहां तक कह दिया है कि शेख फरीद के नौकरों को भी आध्यात्मिक हैसियत प्राप्त है। मियां मुहम्मद बख्श ने शेख फरीद की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि वह महानतम कवि तथा ईश्वर का प्रिय है, उसका कहा हर शब्द पवित्र जीवन का निर्देश है। शेख फरीद की पंजाबी कविता को गुरु ग्रंथ साहब में स्थान दिया जाना उनकी व्यापक आध्यात्मिक स्वीकृति का सर्वोच्च प्रमाण है। शेख फरीद का काव्य सूफी इश्क के विभिन्न रूपों और आयामों की अभिव्यक्ति है, जिसमें प्रेम, सहिष्णुता और अहिंसा को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वह कहते हैं : फरीद, उन्हें चोट मत पहुंचा, जो चोट पहुंचाते हैं-विनयपूर्वक उनके पांव चूम ले।
एक और जगह वह कहते हैं : ईश्वर और लालच एक साथ नहीं चल सकते, लालच प्रेम को अपवित्र कर देता है। वह इस बात पर भी अफसोस जाहिर करते हैं कि फरीद, कुछ लोगों के पास पकवानों के भंडार हैं, और कुछ के पास नमक तक नहीं है। एक और पद में वह स्पष्ट कहते हैं : फरीद, बुराई का प्रतिदान भलाई से कर; अपने हृदय में प्रतिशोध को न पाल तभी तुम्हारी देह रोगों से मुक्त होगी और तुम्हारा जीवन धन्य। एक अन्य स्थल पर वह सहिष्णुता को ही अपना धनुष, प्रत्यंचा और तीर बनाने का उपदेश करते हैं और कहते हैं कि ऐसा करने पर ईश्वर तुम्हारे लक्ष्य को कभी चूकने नहीं देगा। केवल वही लोग ईश्वर के करीब होंगे जो सहनशीलता को धारण करते और कष्ट सहन करते हैं। फरीद कहते हैं : किसी से कठोर वचन न बोलो-क्योंकि सभी में वही ईश्वर है-किसी का हृदय न तोड़ो-प्रत्येक एक अमूल्य मणि है।
बाबा फरीद की खानकाह में सभी धर्मों-संप्रदायों के लोग मिलकर आध्यात्मिक चर्चा करते थे जो अपने में सांप्रदायिक मेलजोल और सभी धर्मों के आंतरिक एकत्व के स्वीकार का प्रमाण है।
स्पष्ट है कि शेख फरीद का सारा काव्य प्रेम और अहिंसा की अनुभूति का काव्य है, जिसका प्रभाव केवल पंजाब के लोकचित्त पर ही नहीं बल्कि उनको शिष्यों और प्रशंसकों के माध्यम से देश-देशांतर तक फैलता गया है।
- नंदकिशोर आचार्य
फिलिस्तीनी मुक्ति आंदोलन : द्रष्टव्य : आवद मुबारक।
फुजीई गुरुजी : (6 अगस्त 1885 - 9 जनवरी 1985 ई०) निचिदात्सु फुजीई नामक बौद्ध भिक्षु फुजीई गुरुजी नाम से प्रसिद्ध हैं। गुरुजी की उपाधि उन्हें गांधीजी से मिली। निचिदात्सु फुजीई का जन्म 6 अगस्त 1885 ई० को जापान के आसोगुन प्रांत में साकानाशी ग्राम में हुआ। 19 वर्ष की उम्र में उन्होंने उसुकी एग्रीकल्चर स्कूल से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा उसी वर्ष हूंजी मंदिर के निचाई अदाची ने उन्हें बौद्ध धर्म की दीक्षा दी तथा वे बौद्ध भिक्षु बने। इतनी कम उम्र में बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण करना उस काल के प्रचलित समाज प्रवाह के विरुद्ध था। उन दिनों देश के युवक आधुनिकीकरण के नाम से आकर्षित होकर सेना में प्रवेश पाने की स्पर्धा में अधिक थे। इससे स्पष्ट होता है कि फुजीई गुरुजी का झुकाव धर्म तथा अध्यात्म की ओर शुरु से ही था। फिर भी 1909 ई० में उन्होंने सेना की आईटा रेजीमेंट में एक वर्ष के लिए अपनी सेवाएं दी। यह वह काल था जबकि पश्चिमी सभ्यता के बादल पूर्व के देशों के आकाश पर छाने लगे थे। पश्चिमी सभ्यता उत्थान पर थी तथा पूर्वी सभ्यता ढलान पर। पूर्व के देशों को यह शिक्षा दी जा रही थी कि पश्चिम सभ्य है तथा पौर्वात्य जंगली है।
फुजीई गुरुजी ने होर्युजी में तथा क्योटो में धर्म का गहराई से अध्ययन जारी रखा। जेन नामक बौद्ध धर्म की शाखा के सिद्धांतों का अध्ययन आपने पूज्य मोकुराई टकेड़ा के मार्गदर्शन में 1914 ई० में एक मठ में किया। 28 वर्ष की उम्र में एक स्तूप में उन्हें इस दैवी आदेश का अहसास हुआ कि 33 वर्ष की उम्र तक उन्हें व्यक्तिगत तप करना है तथा तत्पश्चात् शेष संपूर्ण जीवन संसार को ज्ञान प्रदान करने में, मार्गदर्शन करने में व्यतीत करना है। गुरुजी ने वैसा किया भी।
सन् 1914 ई० में प्रथम विश्व युद्ध आरंभ हुआ। फुजीई गुरुजी ने हीरा पर्वत श्रृंखला में स्थित हाचीबुची नामक जलप्रपात के निकट सात दिन का उपवास किया। तत्पश्चात 1916 ई० में मामु जलप्रपात के निकट पुनः सात दिन का उपवास किया। 8 फरवरी 1917 ई० को आपने नम्यो हो रेंगे क्यों मंत्र का जाप तथा शांतिवाद्य (ड्रम) की ध्वनि जापान के शाही महल के सामने की तथा विश्व में शांति की चेतना तथा जागृति का काम का शुभारंभ किया। उसी वर्ष आपने जापान छोड़ा तथा एशियाई देशों का भ्रमण आरंभ किया। उन्होंने कोरिया तथा मंचूरिया में धर्म प्रचार किया तथा ता लीएन में उपवास किया। मंचूरिया में तथा तत्पश्चात् चीन के उत्तरी प्रदेश में जापानी बुद्ध संघ (निचिहोन झेन म्योहोजी) की स्थापना की। वे जापानी बुद्ध संघ के संस्थापक थे।
1 सितंबर 1923 ई० में जापान के कांटो प्रदेश में हरबिन में विनाशकारी भूकंप आया। खबर पाते ही गुरुजी जापान लौट आए। जापान का पहिला बुद्ध संघ मंदिर अप्रैल 1924 ई० में टैगोनूरा में स्थापित किया।
फुजीई गुरुजी ने जापान के पश्चिम की ओर स्थित देशों में धर्म-प्रचार की प्रतिज्ञा ली तथा तदनुसार सितंबर 1930 ई० में भारत के लिए प्रस्थान किया। (जापानी भाषा में इस प्रतिज्ञा को स्ड्डद्बह्लद्गठ्ठ ्यड्डद्बद्म4श कहते हैं) फुजीई गुरुजी 16 जनवरी 1931 ई० में कोलकाता पहुंचे तथा बौद्ध धर्म से संबंधित पवित्र स्थानों की तीर्थयात्रा आरंभ की। गुरुजी निचिरेन दाइ शोनिन नामक 13 वीं शताब्दी के बौद्ध भिक्षु के समर्पित अनुयायी थे। इन्हीं निचिरेन ने पवित्र मंत्र न मु म्यो हो रेंगे क्यों को प्रथम बार प्रस्तुत या उद्घाटित किया था।
गुरुजी की भारत यात्रा का एक और उद्देश्य महात्मा गांधी से मिलना था। 4 अक्टूबर 1933 ई० को गांधीजी और पूज्य फुजीई गुरुजी की वर्धा में सत्याग्रह आश्रम में भेंट हुई। चर्चा दुभाषियों के मार्फत 15 मिनिट चली। गांधीजी ने न मु म्यो हो रेंगे क्यों इस मंत्र में तथा शांति के वाद्य (ड्रम) में दिलचस्पी दिखाई। न मु म्यो हो रंगे क्यों यह मंत्र आगे चलकर आश्रम की प्रार्थना का अंग बन गया। इस भेंट के पश्चात् फुजीई गुरुजी और गांधीजी का कई बार मिलना हुआ। गांधीजी ने फुजीई गुरुजी में अहिंसा के प्राण तथा जीवन के दर्शन किए जो गौतम बुद्ध की सबसे कीमती शिक्षा है।
फुजीई गुरुजी ने भारत में बुद्ध से संबंधित कई स्थानों का तथा मुंबई, दिल्ली जैसी जगहों का भ्रमण किया। घनश्यामदास बिड़ला, नेहरुजी इत्यादि महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से मिले। शांति स्तूपों के निर्माण भी उन्होंने करवाए। 1939 ई० में द्वितीय महायुद्ध छिड़ गया।
जापान भी 1941 ई० में महायुद्ध में शामिल हो गया। गुरुजी ने 1944 ई० में युद्ध समाप्त करने तथा शांति स्थापित करने के उद्देश्य से मिनाबु पर्वत पर लंबा उपवास किया। 1945 ई० में हिरोशिमा तथा नागासाकी पर अमेरिका ने अणुबम गिराया। जर्मनी और जापान के आत्मसमर्पण के साथ युद्ध समाप्त हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना हुई।
गुरुजी के कार्यों के कारण उनका नालंदा में जापान में, दिल्ली में और अन्य अनेक जगहों पर सम्मान किया गया। 1975 ई० में अपने धार्मिक व्यक्तियों के हस्ताक्षर युक्त हिरोशिमा अपील संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्कालीन महासचिव के० वाल्डाइम को सौंपी।
1984 ई० की जनवरी में उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। उनकी उम्र 100 वर्ष की हो गई थी। 9 जनवरी 1985 ई० को सुबह 3 बजकर 9 मिनिट पर जापान की अतामी सेमिनरी में उनका देहांत हुआ।
गुरुजी के अनुसार, बिजली के उपकरण या हवाई जहाज सभ्यता नहीं है। अण्वस्त्र बनाना भी सभ्यता नहीं है। सभ्यता का अर्थ है मानव की हत्या न करना, वस्तुओं का नाश न करना, युद्ध न करना बल्कि एक दूसरे का आदर करना। हमारा देश यदि सैनिकों की प्रशंसा करेगा तथा जन-संहार में आनंद मानेगा तो वह तत्काल ही बुद्ध की दया तथा प्रेम खोकर बर्बाद हो जाएगा, पराजित हो जाएगा। गुरुजी के ये शब्द, उनकी अहिंसा के प्रति अडिग श्रद्धा, निःशस्त्रीकरण की आकांक्षा तथा युद्ध के संपूर्ण और अंतिमतः त्याग के विचारों को दर्शाते हैं।
गुरुजी की श्रद्धा बौद्ध धर्म के उस पंथ में थी जो 13 वीं शताब्दी के भिक्षु पूज्य निचिरेन दाई शोनिन ने प्रस्थापित की थी। उन्होंने न मु म्यो हो रेंगे क्यों यह मंत्र दिया। इस मंत्र का अर्थ है, नमः सद्धर्म पुंडरीक सूत्र तथा सरल अर्थ है, हम बुद्ध के अखंड धर्म को नमन करते हैं। वे सद्धर्म पुंडरीक सुत्र (न मु मयो हो रेंगे क्यों) के अनुयायी थे जिसे भगवान बुद्ध ने विस्तार से प्रस्तुत किया था। इस सूत्र में दुःख से पीड़ित मानवता को मुक्त कराने की शक्ति है। अविद्या से ग्रस्त तथा फलस्वरुप दुःखी कीचड़ रुपी संसार में धर्मरुपी पवित्र कमल का रुपक इस मंत्र में है। गुरुजी ने पूज्य निचिरेन तथा उनके द्वारा प्रदत्त उपरोक्त मंत्र के आलोक में अपने जीवन का अर्थ पाया। उनके जीवन का मिशन विश्व शांति के विचार को फैलाना तथा विश्व शांति की स्थापना के लिए सक्रिय प्रयत्न करना था।
गुरुजी ने जापान बुद्ध संघ (निप्पोझान म्या होजी) की स्थापना की तथा अनेक साथी और अनुयायी बनाये। उन सबने विश्व के सभी महाद्वीपों की यात्राएं की तथा प्रार्थना, मंत्र जाप (न मु म्यो हो रेंगे क्यों) तथा ड्रम की ध्वनि के माध्यम से शांति स्थापना का प्रयास किया। अणुबम की विभीषिका को जापान ने भोगा है। फलस्वरुप वे जानते थे कि अणुबम में मानवजाति तथा पृथ्वी के विनाश की प्रलयंकारी शक्ति है तथा सभी प्रकार के युद्धों और शस्त्रों से निजात पाना अपने अस्तित्व को बचाने का एकमात्र उपाय है। अण्वस्त्रों को उन्होंने आधुनिक सभ्यता और विज्ञान की सबसे बड़ी बुराई के रुप में पहचाना। बौद्ध धर्म की प्रथम सीख-किसी प्राणी की हत्या न करना-है। इसी में से गुरुजी का अण्वस्त्र विरोध तथा युद्ध विरोध जन्मा। धर्म का आधार लेकर उन्होंने इस महाविपत्ति को महान अवसर में परिवर्तित करने का प्रयास किया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् फुजीई गुरुजी ने शांति-स्तूपों की स्थापना का भी कार्य किया। जापान बुद्ध संघ ने विश्व में जहां भी संभव हुआ, वहां शांति-स्तूपों की स्थापना की। इन शांति-स्तूपों की संख्या वर्ष 2000 में 80 की संख्या पार कर चुकी थी। शांति-स्तूप को जापान बौद्ध संघ एक साधन के रुप में देखता है। इन स्तूपों में बुद्ध के अवशेष रखे जाते हैं। ये स्तूप शांति के वैश्विक आध्यात्मिक आधार हैं। वर्ष 1933 ई० में श्रीलंका में फुजई गुरुजी को बुद्ध के अवशेष प्रथमतः प्रदान किए गए थे। ऐसा कहा जा सकता है कि शतायुषी फुजीई गुरुजी के जीवन के उत्तरार्ध के पचास वर्ष का मिशन शांति-स्तूपों की स्थापना था। बुद्ध के शांति और अहिंसा के विचारों पर आधारित अध्यात्म-प्रधान संस्कृति की स्थापना इन शांति-स्तूपों का लक्ष्य था।
विश्व में शांति की स्थापना के ध्येय को प्राप्त करने के लिए क्या किया जाना चाहिए, इस बारे में उनके विचार स्पष्ट थे। हमारे मन और हृदय में सभी कुछ व्याप्त है। हमारे मन तथा हृदय के विचार इस पर निर्भर हैं कि हम चीजों को कैसे देखते हैं, शांति के विचारों को लेकर फुजीई गुरुजी ने अनेक शांति मार्च भी आयोजित किए। इस निमित्त विश्व के शांतिप्रिय जन एकत्रित होते रहे तथा शांति के विचारों का संगठन हुआ। ऐसी पदयात्राओं (या मार्च) में मन में निर्भयता के विचार होने चाहिए। संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को से वाशिंगटन के लांगेस्ट मार्च में फुजीई गुरुजी शामिल हुए थे। यह यात्रा वहां के मूल निवासियों (इंडियंस) के अधिकारों की रक्षा तथा उन पर होने वाले अत्याचारों को लेकर थी। उस समय फुजीई गुरुजी ने विचार व्यक्त किए थे कि वास्तविक शांति स्थापना के पहिले यह आवश्यक है कि भय तथा आपसी अविश्वास मिटना चाहिए। निचिरेन दाई शोनिन का वचन, तुम में से एक भी व्यक्ति भयग्रस्त नहीं होना चाहिए, वे हमेशा याद दिलाते रहते थे। उनका आचरण भी तदनुसार ही था। विश्व की सरकारों और शासकों के समक्ष उन्होंने निर्भीकता से अपनी बात रखी, चाहे वह न्यूयार्क में यू० एन० ओ० के महासचिव हों, अमेरिका के राष्ट्रपति हों, जापान के शासक हों, अन्य कोई सत्ताधीश हों, या उनके अपने साथी हों-गुरुजी ने दृढ़ता से और अहिंसक तरीके से अपनी बात रखी।
15 फरवरी 1976 ई० को टोक्यो में बौद्ध भिक्षु, भिक्षुणियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, वास्तविक शांति तभी स्थापित होती है जब मनुष्य स्वयं यह प्रतिज्ञा करता है कि वह कभी भी किसी का जीवन-हरण नहीं करेगा और हत्या के विचार-मात्र का परित्याग करेगा। 9 फरवरी 1917 ई० को उन्होंने जापान के शाही महल के प्रवेशद्वार निजुबाशी के सामने 7 दिन का उपवास किया। 1930 ई० में भी उन्होंने टोक्यो में धर्म-प्रवचन किए। 1954 ई० में विश्वशांति कार्यकर्ताओं के सम्मेलन के निमित्त आपने श्रीलंका तथा भारत में सभी पवित्र स्थानों का भ्रमण किया। जून 1962 ई० में दिल्ली में अणुअस्त्रों के खिलाफ एक सम्मेलन हुआ। उसमें गुरुजी ने भाग लिया। उसी प्रकार 1964 ई० में 80 वर्ष की उम्र में अणुबम तथा हाइड्रोजन के विरोध में हुए विश्व-सम्मेलन में भी भाग लिया। 1965 ई० में वियतनाम युद्ध आरंभ हुआ। न्यूयार्क में आयोजित वियतनाम युद्ध-विरोधी आंदोलन में आपने सक्रिय भाग लिया। आण्विक अस्त्रों के विरुद्ध आप सतत् संघर्ष करते रहे। 1978 ई० में पुनः 2 करोड़ हस्ताक्षरों का प्रतिवेदन वाल्डाइम को सौंपा जिसमें जापान के लोगों की सभी प्रकार के अण्वस्त्रों के निर्मूलन की इच्छा व्यक्त की गई थी।
अपनी चीन यात्रा के दौरान उन्होंने इस बात पर दुःख प्रकट किया कि युद्ध में लोगों की हत्या करना समाज द्वारा स्वीकृत गौरवपूर्ण कृत्य माना जाता है। उनके ये विचार लेव तोलस्तोय के युद्ध संबंधी विचारों से मेल खाते हैं। टालस्टॉय की 160 वीं जयंती पर अगस्त 1988 ई० में आपने शांति के लिए मास्को की यात्रा की। बौद्ध धर्म के आचरण की आकांक्षा और सैनिक जीवन ये परस्पर विरोधी हैं, ऐसा वह मानते थे।
जापान के सुनागावा में जापान की सरकार द्वारा सैनिक छावनी के विस्तार के खिलाफ फुजीई गुरुजी ने संघर्ष किया और विरोध जताया। अपनी ही सरकार के विरुद्ध आंदोलन करना यह स्पष्ट करता है कि वे अपने चिंतन में कितने स्वतंत्र, खुले विचारों के तथा केवल नैतिकता के समर्थक थे। फुजीई गुरुजी ने निर्भीक अनुयायियों का बड़ा समूह खड़ा किया। 1989 ई० में प० जर्मनी के बॉन स्थित अमेरिकी दूतावास के समक्ष अमेरिकी अणुपरीक्षण के खिलाफ शांतिपूर्ण धरना दिया गया। उसी प्रकार वियतनाम युद्ध, कोरिया युद्ध तथा खाड़ी युद्ध के समय तथा फ्रांस द्वारा अणु परीक्षण के समय तीव्र विरोध तथा प्रार्थना सभाएं की गईं।
फुजीई गुरुजी का प्रभावशाली व्यक्तित्व, उनके ऐतिहासिक कार्य, हिंसा का नकार, बौद्ध धर्म पर संपूर्णतः आधारित जीवन निष्ठा अतुलनीय है। आध्यात्मिक शक्ति के पुंज, लक्ष्य के प्रति सातत्यपूर्ण समर्पण, संकुचित राष्ट्रभावना से उपर उठकर विश्वकल्पना की भावना उनमें सारे विश्व को देखने को मिली। धर्म और जीवन का इतना घनिष्ठ समन्वय बिरले व्यक्तियों में देखने को मिलता है।
- भरत महोदय
फ्रांसिस ऑफ असीसी, संत (Francis of Assisi, Saint) :संत फ्रांसिस (1181/1182-1226 ई०) के अनुसार यह पूरा विश्व पिता ईश्वर का परिवार है। इसलिए प्रेम का वृत्त सबको अपनी परिधि में समेट लेता है। सबका पिता ईश्वर है, इसलिए सब एक-दूसरे के बंधु हैं। हमें सृष्टि की प्रत्येक वस्तु के बारे में यही नजरिया रखना चाहिए। ईश्वर की रचना होने के कारण यह विश्व रचयिता से सादृश्य रखता है। यह दैवी सादृश्य ही सार्वभौमिक संबंधों और प्रेम का आधार और कारण है।
संत फ्रांसिस दैवी प्रेम में एक ज्वलंत कोयले की तरह मुब्तिला थे। ईश्वर के लिए संत फ्रांसिस के प्रेम को मानवीय भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता। ईश्वर के प्रेम का जिक्र सुनते ही वह तत्काल उन्मत तथा इस तरह अनुप्राणित हो जाते मानो शब्दों ने उनके हृदय के गहनतम तार को झंकृत कर दिया हो (ओम्नीबस, पृ० 698)। फ्रांसिस के अनुसार ईश्वर के अमूल्य प्रेम में ही ईश्वरीय राज्य की उपलब्धि और स्थापना संभव है।
अपने संपर्क की प्रत्येक वस्तु और व्यक्ति उस ईश्वर के प्रेम की ओर निर्देश था, जो सभी कुछ का स्रोत और आधार है। संसार की प्रत्येक सुंदरता उन्हें सौंदर्य के स्रोत उस परम सौंदर्य (Absolute Beauty ) की ओर ले जाती, जो सृष्टि के प्रत्येक कण में व्यक्त है। वह ईश्वर द्वारा रचित प्रत्येक वस्तु में ईश्वर की सद्भावना का अनुभव करते। इसलिए ईश्वर के प्रति फ्रांसिस के प्रेम ने उन्हें सभी प्राणियों के लिए अपने प्रेम की परिधि का विस्तार करने के लिए विवश कर दिया क्योंकि सभी में वही ईश्वरीय कृपा व्यक्त हुई है।
आधुनिक काल में एक सार्वभौमिक प्रार्थना का दर्जा रखने वाली संत फ्रांसिस की शांति-प्रार्थना (The Peace Prayer of Francis) में फ्रांसिस का अपने साथी मनुष्यों के प्रति अदभुत प्रेम व्यक्त हुआ है। फ्रांसिस प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वत्व (self) को भूलकर प्रेम, शांति, संगति और मैत्री का माध्यम होने के लिए कहते हैं। प्रभु, मुझे अपनी शांति का माध्यम बना लो : जहां घृणा है वहां मैं प्रेम बोऊं; जहां विरोध है, वहां संगति; जहां आघात है, वहां क्षमा; जहां अंधेरा है, वहां प्रकाश; जहां दुख है, वहां खुशी... देने में ही हमें मिलता है; अपने को भूलकर ही हम खुद को पा सकते हैं; मर कर ही हम अमरता में जन्म लेते हैं (ओम्नीबस, पृ० 1930-1931)।
फ्रांसिस के अनुयायियों का समुदाय बंधुत्व का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण माना जाता था। फ्रांसिस मानते थे कि सभी को बंधु मानते हुए ईश्वर-प्रदत्त साधनों के अनुसार एक-दूसरे का उसी तरह खयाल करना चाहिए जैसे मां अपने बच्चों का खयाल करती है (ओम्नीबस, पृ० 40)। फ्रांसिस के अनुसार पारस्परिक समता का अहसास किसी भी समाज में सर्वाधिक महत्त्व रखता है। फ्रांसिस के इस प्रेम-वृत्त से कोई बाहर नहीं था : बीमार, और पीड़ित ही नहीं चोर, लुटेरा और अनैतिक व्यक्ति भी फ्रांसिस के प्रेम का अनुभव कर सकता था। एक दफा एक गरीब और भूखी औरत ने फ्रांसिस से खाने के लिए कुछ मांगा। फ्रांसिस के पास उस समय कुछ नहीं था। उन्होंने उस औरत को बाइबिल की एक प्रति दे दी ताकि उसे बेचकर वह भोजन खरीद सके। बाइबिल की इस प्रति को मठ में एक खजाने की तरह सुरक्षित रखा गया।
ईसा के उदाहरण का अनुकरण करते हुए फ्रांसिस चोर-लुटेरों से भी अपने भाई जैसा व्यवहार करते थे। एक बार डाकुओं का एक गिरोह मठ में भोजन के लिए आ गया, लेकिन अपने अनुयायियों द्वारा खाली लौटा दिए जाने पर फ्रांसिस ने उन्हें वापस बुलाकर अच्छे खाने और शराब की व्यवस्था की तथा उन्हें अपना भाई कहकर पुकारा (ओम्नीबस, पृ० 1193)। अपने अनुयायियों को उनका निर्देश था : जो भी आपके पास आता है-मित्र हो या शत्रु या बदमाश और लुटेरा, उसका स्वागत करो (ओम्नीबस, पृ० 38)। समुदाय का नियम यही है कि जो भी प्रेम के विरुद्ध कार्य करता है, वह स्वयं ही अपने को दंडित करे।
कुष्ठरोगियों के प्रति उनका गहरा लगाव संत फ्रांसिस के असीमित प्रेम का श्रेष्ठतम प्रमाण है। उन दिनों कुष्ठरोगियों से घृणा करते हुए उन्हें समाज-बहिष्कृत कर दिया जाता था। लेकिन संत फ्रांसिस तो जैसे उन्हीं में से एक होकर उन्हें अपने जीवन में आमंत्रित करते थे। कुष्ठरोगियों की सेवा करना उनके जीवन का सर्वाधिक आनंदप्रद अनुभव था। वह उन्हें गले लगाते तथा उनके घावों को चूम लेते थे। एक दफा घोड़े पर वह असीसी जा रहे थे कि उन्हें एक कुष्ठरोगी दिखाई दिया। वह घोड़े से उतरकर उसे चूमने के लिए बढ़े। रोगी ने इस उम्मीद में अपनी हथेली फैला दी कि शायद वह उन्हें कुछ पैसा देना चाहते हैं। फ्रांसिस ने उसकी हथेली पर कुछ पैसे रखे और हथेली को चूमा। इसी तरह, एक दिन वह कुछ धन एकत्रित कर उसे कुष्ठरोगियों में बांटने के लिए गए और सभी के हाथ चूमे।
संत फ्रांसिस गरीबों, अनाथों, पीड़ितों और उपेक्षितों को अपने सहोदरों की तरह मानते थे। वह यह भी चाहते थे कि उनके साथी ऐसे लोगों की संगत में अपने को भाग्यशाली मानें। जब भी तुम किसी गरीब को देखो, मेरे भाई, तो तुम्हारे सामने ईश्वर का बिंब उभर आना चाहिए। इसी तरह बीमारों के साथ भी यही सोचो कि स्वयं ईश्वर ने हमारे लिए वह अशक्तता अपने ऊपर ली है। (ओम्नीबस, पृ० 433)। फ्रांसिस कई बार-खास तौर पर सर्दियों में-अपने शरीर से कपड़े उतारकर गरीबों को दे देते तथा उनके साथी भी उनके उदाहरण का अनुकरण करते थे।
फ्रांसिस केवल मनुष्यों में ही नहीं, सृष्टि के अन्य प्राणियों में भी ईश्वर का स्वरूप देखते थे। इसी आधार पर वह प्रकृति के साथ भी बंधुत्व का अनुभव करते थे। प्रकृति रचयिता के प्रेम, सद्भाव और सौंदर्य का प्रतिबिंब है। इसलिए प्रकृति की हर वस्तु के साथ वह प्रेम का अनुभव करते। कभी सूर्य, कभी चंद्र, कभी तारों या कभी आकाश को ताकते हुए वह विस्मयप्रद तथा अनिर्वचनीय आनंद की अनुभूति करते। संत फ्रांसिस की रचना दि कैंटिकल ऑफ लव मनुष्य और प्रकृति के प्रेम-संबंध की अभिव्यक्ति का सुंदरतम उदाहरण मानी जाती है, जिसमें वह सूर्य को अपना भाई, चन्द्र और तारों को बहन, पवन को भाई, जल को बहन, अग्नि को भाई तथा पृथ्वी को मां कहकर पुकारते हैं। सृष्टि के मानवेतर प्राणियों के प्रति उनके प्रेम के अनगिन किस्से मिले जाते हैं। ओम्नीबस में बताया गया है कि वह रास्ते से कीड़ों को हटा देते थे ताकि वे पांवों तले कुचले न जाएं तथा मधुमक्खियों को सर्दियों से बचाने के लिए अपने साथियों को अच्छे शहद और शराब की व्यवस्था करने का निर्देश देते थे। पकड़े गए खरगोश को वापस जंगल और मछली को पानी में छुड़वा देने की कथा सभी जानते हैं। एक भेड़ को बचाने के लिए उन्होंने उसे खरीदकर उसके असली मालिक को वापस कर दिया। पशुओं के प्रति उनके प्रेम की कई घटनाएं उनकी जीवनी में मिलती है।
संत फ्रांसिस केवल प्राणियों के लिए ही नहीं, पेड़-पौधों के प्रति भी गहरा लगाव रखते थे। उनके अनुयायियों को निर्देश था कि लकड़ी एकत्रित करने के लिए वे तने को छोड़ दें ताकि पेड़ जीवित रह सके। उनकी मित्र-मंडली में सभी तरह के पशु-पक्षी शामिल थे। उन्होंने यह सिद्ध किया कि यदि किसी मनुष्य का हृदय निष्पाप और प्रेमपूर्ण है तो वह सृष्टि की किसी भी वस्तु के साथ प्रेमभाव विकसित कर सकता है। इसीलिए संत फ्रांसिस को पूरी दुनिया में प्रकृति के प्रेमी के रूप में जाना जाता है। 1979 ई० में उन्हें पर्यावरण और पारिस्थितिकी का संरक्षक संत घोषित किया गया। इस 21वीं शताब्दी में, जब सारी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी पारिस्थितिकीय असंतुलन की वजह से चिंतित है, तेरहवीं सदी के इस संत का स्मरण हो आता है, जिसने प्रकृति के प्रति बंधुत्व का संदेश दिया था। उन्होंने कहा था : ये जीव प्रतिदिन हमारी जरूरतों की पूर्ति करते हैं; उनके बिना हम जीवित नहीं रह सकते; जब भी हम उसके इस आशीर्वाद की अवहेलना करते हैं, तो ईश्वर को ही नाराज कर रहे होते हैं। इसे पारिस्थितिकीय संतुलन पर संत फ्रांसिस का प्रथम वक्तव्य समझा जा सकता है।
- फादर विल्सन ऐदात्तुकरन
(हिंदी रूपांतरण : नंदकिशोर आचार्य)
फ्रॉम, एरिक : जीवविज्ञान में डार्विन और मनोविज्ञान में फ्रायड के निष्कर्षों के परिणामस्वरूप मानव की छवि एक ऐसे जीव के रूप में विकसित होने लगी जो बुनियादी रूप से पशु है, जिसके अस्तित्व का प्रयोजन मात्र जैविक आवश्यकताओं और आवेगों की पूर्ति ही है और यह समझा जाने लगा कि मानवीय जीवन की सारी समस्याएं और उनका समाधान इन्हीं आवश्यकताओं और आवेगों की संतुष्टि के तरीकों और मात्रा पर निर्भर करता है। इस चिंतन ने सृष्टि की प्रक्रिया में मानव के महत्त्व को गौण कर दिया क्योंकि उसकी मानवीय प्रवृत्तियों को उसकी अपनी विशिष्ट पहचान नहीं बल्कि उसके प्राथमिक आवेगों के आधार पर विकसित माना गया। डार्विन के विकासवाद ने योग्यतम के जीवित रहने के सिद्धांत के आधार पर मानव को पशुओं में योग्यतम घोषित किया तो फ्रायड ने इस जैविक-भौतिकीय (Bio-physical) प्राणी के सभी क्रियाकलापों को उन दमित आवेगों के साथ जोड़कर देखा जो मनुष्य और पशु में समान रूप से पाए जाते हैं। इस दर्शन ने वैज्ञानिक आधार का दावा अवश्य किया; पर, इसे सही अर्थों में मानववादी नहीं कहा जा सकता था क्योंकि इसने मानव को मूल्यगत स्तर पर श्रेष्ठ या अलग नहीं माना और सृष्टि की प्रक्रिया में उसका स्थान केंद्रीय नहीं रहा बल्कि प्रक्रिया उससे अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई।
लेकिन नवफ्रायडवादी कहे जाने वाले एरिक फ्रॉम, हार्नी और सल्लिवन जैसे मनोविश्लेषण-शास्त्रियों ने मानव जीवन में जैविक आवश्यकताओं और आवेगों का, जिनमें फ्रायड ने लिबिडो को सर्वप्रमुख समझा, महत्त्व स्वीकार करते हुए भी उन्हें मानवीय आचरण को प्रभावित करने वाली सर्वाधिक प्रबल वृत्ति नहीं माना। फ्रॉम के अनुसार यौनवृत्ति और उसके अन्य रूप प्रभावी होते हुए भी सर्वप्रबल नहीं है और केवल उनका कुंठित होना ही मानसिक असंतुलन या विक्षिप्तता का कारण नहीं है; मानवीय आचरण को प्रभावित करने वाले सबसे प्रबल तत्त्व उसके अस्तित्व की स्थितियों में अर्थात् उसके मानव होने की स्थिति में ही निहित होते हैं। मानव-स्थिति से फ्रॉम का तात्पर्य उस ऐतिहासिक-सामाजिक स्थिति से है, जिसमें मनुष्य आज है। मनोविश्लेषण के क्षेत्र में अपने अनुभवों और अध्ययन के आधार पर फ्रॉम ने निष्कर्ष स्थापित किया कि मनुष्य केवल जैविक आवेगों द्वारा निर्मित नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में जिन मानवीय प्रवृत्तियों-यथा स्वतंत्रता, प्रेम, सामाजिकता आदि का उसमें विकास हुआ है, वे ही उसकी जीवनशैली और आचरण को प्रभावित करने वाली प्रेरक शक्तियां हैं-उन्हें किसी भी तरह जैविक आवेगों की अपेक्षा दूसरे दरजे की प्रवृत्तियां नहीं स्वीकार किया जा सकता। इस प्रकार इस विचार ने मानव के विकास को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में समझना चाहा। मनोविश्लेषण के क्षेत्र में इस चिंतन को नवफ्रायडवाद और समाज-विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक मानववाद कहा गया। इस चिंतन-परंपरा में व्यक्ति मानव की स्वतंत्रता और सामाजिकता पर आग्रह होने के कारण कुछ लोगों द्वारा इसे समाजवादी मानववाद भी कहा गया-बल्कि आर्थिक अभावों को मिटाने के संदर्भ में स्वयं फ्रॉम ने एक हद तक मार्क्सवादी विचारों की प्रासंगिकता को स्वीकार किया। इन मनोविश्लेषण-शास्त्रियों में जहां अन्य लोग अधिकांशतः मनोविज्ञान के क्षेत्र तक ही बद्ध रहे, वहां फ्रॉम ने मनोविश्लेषण के अपने अनुभवों के आधार पर मानवीय जीवन का एक आदर्श चित्र प्रस्तुत करने की चेष्टा भी की और इसलिए वे केवल मनोवैज्ञानिक ही नहीं सामाजिक चिंतक भी कहलाए।
एरिक फ्रॉम सांस्कृतिक विकास की ऐतिहा-सिक प्रक्रिया में मनुष्य को एक सामाजिक प्राणी के रूप में विकसित हुआ मानते हैं; अतः, सामाजिकता की भावना मनुष्य स्वभाव की सहज वृत्ति है। इसी तरह स्वतंत्रता भी मानव के रूप में उसकी मूलवृत्ति है। स्वतंत्रता इस सामाजिकता की भावना से युक्त मानव प्राणी की स्वचेतना की अनुभूति है और समाज में रहते हुए इस स्वचेतना की संतुलित सिद्धि न हो पाने के कारण ही वैयक्तिक और सामूहिक स्तर पर मानसिक असंतुलन पैदा होता है जो मनोविक्षोभ का मूल कारण बन जाता है। इस प्रकार एरिक फ्रॉम स्वतंत्रता और सामाजिकता को, जो सामाजिक चिंतन में मूल्य का दरजा रखते हैं, मनोविज्ञान के क्षेत्र में मानवस्वभाव की सहज वृत्ति बना देते हैं। लेकिन इस सहज स्वभाव के अनुसार सहज आचरण इतना सहज नहीं है क्योंकि ऐतिहासिक प्रक्रिया निरंतर गतिशील और परिवर्तनशील है, अतः, उसके बदलते हुए रूपों के साथ सही संबंध बनाए रखने में व्यक्ति और समाज को निरंतर सक्रिय रहना पड़ेगा। ऐसा न हो सकने पर व्यक्ति-मानवों और समाज में एक मानसिक विक्षोभ और असंतुलन विकसित हो सकता है।
स्वतंत्रता का अनुभव वास्तव में मानव अस्तित्व का सहजात अनुभव है। मानव के रूप में अस्तित्व में आने के साथ ही मनुष्य अपने से इतर जगत् से स्वयं को स्वतंत्र और अलग अनुभव करने लगता है और बाह्य जगत् भी उसके लिए अपने से अलग एक अन्य इयत्ता है। लेकिन स्वतंत्रता का यह अनुभव उसके लिए असहनीयता की हद तक कष्टप्रद होता है क्योंकि वह स्वतंत्र और अलग होने में खुद को इस विशाल जगत् के सम्मुख अकेला और असहाय पाता है। इस कष्टप्रद अकेलेपन और असमर्थता की भावना से उबरने के दो ही रास्ते हो सकते हैं। पहला है अपनी स्वतंत्रता के इस बोझ और तनाव से बच निकलने के उपायों की खोज यानी प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीकों से किसी अन्य के सम्मुख अपनी स्वतंत्रता के समर्पण के माध्यम से जगत् के साथ अलगाव को समाप्त करने का प्रयास। लेकिन यह प्रयास कभी भी मानव को उस तरह जगत् के साथ एक नहीं कर सकता जिस प्रकार वह एक व्यक्ति मानव के रूप में विकसित होने से पहले था क्योंकि उसके अलग हो जाने के तथ्य को उलटा नहीं जा सकता। इस कारण यह प्रयास किसी स्वस्थ और सुखी जीवन की ओर नहीं ले जाता, बल्कि मनुष्य निरंतर दुश्चिंताओं और तनावों के जाल में फंसता चला जाता है और इस प्रकार उसका अपना अस्तित्व भी उसके लिए असहनीय हो जा सकता है। आधुनिक सामाजिक-राजनैतिक जीवन के बहुत से तनावों के मूल में यही बात है। एरिक फ्रॉम की मान्यता है कि इसलिए दूसरा रास्ता ही काम्य है, जिसे वह विधायी या धनात्मक स्वतंत्रता कहते हैं, जिसमें वह अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए प्रेम, कर्म और अपनी भावात्मक, ऐंद्रिक तथा बौद्धिक योग्यताओं की अभिव्यक्ति के माध्यम से अपने को जगत् के साथ सहजतापूर्वक धनात्मक रूप से जोड़ सकता है और इस प्रकार अपनी स्वतंत्रता और व्यक्ति स्व को खंडित किए बिना मनुष्य मात्र प्रकृति और अपने आपके साथ ऐक्य अनुभव कर सकता है। फ्रॉम का निष्कर्ष है कि अकेलेपन और असहायता की अत्यंत कष्टप्रद अनुभूति से उबरने का निषेधात्मक रास्ता मनोवैज्ञानिक स्तर पर परपीड़न-आत्मपीड़न और अपने से इतर किसी सत्ता के सम्मुख समर्पण के विविध रूपों की ओर ले जाता है जिससे अधिनायकवाद, सर्वसत्तावाद और विनाशात्मकता जैसी विकृतियां समाज में विकसित हो जाती हैं। सामाजिक जीवन में रूढिगत आचरण, जाति, संप्रदाय, वर्ग, दल, राज्य आदि पर निर्णय छोड़ देना तथा जनमत, कॉमनसेंस, यहां तक कि वैज्ञानिकता और हर बात पर आयाससिद्ध अंतःकरण आदि भी सहज स्वतंत्रता से पलायन के विभिन्न मनोवैज्ञानिक उपाय हैं। अपनी पुस्तकों में फ्रॉम ने इस विकृति की मानसिक और सामाजिक-राजनैतिक अभिव्यक्तियों का विशद विश्लेषण प्रस्तुत किया है। लेकिन, दूसरा रास्ता स्वतंत्रता, प्रेम और रचना-शीलता जैसी सहज वृत्तियों में से होकर गुजरता है, जिसकी सामाजिक-राजनैतिक अभिव्यक्ति लोकतंत्र, समतावाद और बंधुत्व में होती है-मनोविश्लेषण के अपने अनुभवों के आधार पर फ्रॉम यहीं सामाजिक चिंतन के क्षेत्र में प्रवेश कर जाते हैं। वह मानते हैं कि व्यक्ति मानव के सामाजिक चरित्र के विकास के आधार पर ही समाज का भावी विकास निर्भर करता है-यद्यपि आश्वस्त भी रहते हैं कि स्वतंत्रता और प्रेम जैसी भावनाएं किसी भी तरह पूर्णतया और सदैव के लिए समाप्त नहीं की जा सकतीं क्योंकि वे मनुष्य में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विकास प्रक्रिया का परिणाम हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
बंधुत्व : स्वतंत्रता और समता के साथ बंधुत्व को फ्रांसीसी क्रांति के तीन आदर्शों में माना जाता है। फ्रांसीसी क्रांति में इन आदर्शों की अभिव्यक्ति हिंसक प्रक्रिया में हुई, किंतु, दरअस्ल, ये तीनों ही आदर्श अहिंसा के ही तीन आयाम है क्योंकि एक अहिंसक समाज की रचना स्वतंत्रता, समता और पारस्परिक प्रेम या बंधुत्व को पुष्ट करने वाली प्रक्रियाओं के बिना नहीं हो सकती।
लेकिन, स्वतंत्रता और समता की ही तरह बंधुत्व भी एक प्राचीन धारणा है और मानव-संस्कृति के प्रारंभ से ही उस पर आग्रह किया जाता रहा है। यह ठीक है कि प्रारंभ में भौगोलिक कारणों से यह धारणा अधिकंशतः जातीय या संप्रदायगत रही; लेकिन, आधुनिक संचार और यातायात के साधनों और प्रक्रियाओं के विकास के साथ बंधुत्व के संवेदन का भी क्षेत्र-विस्तार होता गया और लगभग पूरा विश्व उसकी परिधि में आ गया है।
प्रारंभ में यहूदियों में स्वयं को वरित जाति (Chosen People) मानने की मान्यता अवश्य रही-यद्यपि यहूदी बंधुत्व का भाव वहां भी रहा-लेकिन, ईसाई धर्म और इस्लाम सार्वभौम धर्म होने के नाते पूरी मानवता के बंधुत्व में यकीन रखते हैं। इसीलिए एक जगह ईश्वर प्रेम है और दूसरी जगह रहम (Compassion)। बंधुत्व ईसाइयत और इस्लाम दोनों का ही आदर्श है, यद्यपि, यह बात दीगर है कि दोनों संप्रदायों की राजनीति ने इस आदर्श का पालन नहीं किया। एक ही पिता (ईश्वर) की संतान होने के नाते सभी मनुष्यों में भातृत्व कायम करने की कोशिश करना प्रत्येक ईसाई का धर्म माना गया है। सबके साथ अपने जैसा व्यवहार करने का आदेश इसी भातृत्व की भावना का परिचालक है। इस्लाम में भी कुटुंब और रिश्तेदारों की परिधि से बाहर निकलकर पड़ोसियों के प्रति भाईचारे का व्यवहार करने का आदेश दिया गया है। मुहम्मद साहब के मुताबिक वह व्यक्ति धर्मात्मा नहीं है, जिसके दुर्व्यवहार के कारण उसका पड़ौसी अशांति का अनुभव करता है। एक अन्य हदीस में वह कहते हैं वह व्यक्ति धर्म से कोसों दूर है, जो स्वयं पेट भर के खाए और उसका पड़ौसी पड़ोस में ही भूखा रहे। एक और हदीस में पारस्परिक ईर्ष्या-द्वेष से बचने और परस्पर बंधु बनकर रहने का आदेश दिया गया है।
चीनी दार्शनिकों में लाओत्जे और कनफ्यूश्यस दोनों ने ही निरपेक्ष बंधुत्व के भाव की प्रशंसा की है। लाओत्जे के अनुसार निरपेक्ष बंधुत्व में ही अहंकार मुक्ति है और वही ताओ का अनुसरण है : सबकी खातिर बहता है पानी/उतर जाता है सहज ही/नीचे से और नीचे तक/चाह रहा हो हर कोई जब ऊंचे जाना। कनफ्यूश्यस इसे निष्पक्ष समग्रता कहते हैं। उनका एक कथन है : श्रेष्ठजन के व्यक्तित्व में निष्पक्ष समग्रता होती है। हीन व्यक्ति पक्षपात से भरा और खंडित व्यक्तित्व वाला होता है। इसी तरह दार्शनिक यू को वह उद्धृत करता है जो संतान धर्म और बंधुत्व को बहुत महत्त्व देते हैं।
भारतीय नीति-मीमांसा में बंधुत्व की अवधारणा को सदैव ही अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैसियत प्राप्त रही है। जैन धर्म की समता की अवधारणा तथा स्वयं महावीर द्वारा सभी की पीड़ा को एक समान समझना बंधुत्व के भाव के ही परिचायक हैं। तत्त्वार्थ-सूत्र (7-6) में सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव तथा (5-21) परस्परोपग्रहो जीवानाम् अर्थात् सभी जीवों के परस्पर उपकार की बात कही गई है। अनुकंपा का तो अर्थ ही यह है कि अन्य की पीड़ा को स्वयं की पीड़ा समझे। कुंदकुंदाचार्य के अनुसार किसी भी प्राणी के दुख से स्वयं दुख का अनुभव कर उसके प्रति करुणा का व्यवहार अनुकंपा है। बौद्ध धर्म में भी करुणा केंद्र-स्थानीय है और निरपेक्ष करुणा ही बंधुत्व है। अवलोकितेश्वर बुद्ध के बारे में माना जाता है कि वह तब तक मोक्ष स्वीकार नहीं करेंगे, जब तक धूलि का अंतिम कण तक बुद्धत्व प्राप्त नहीं कर लेता। यह आध्यात्मिक बंधुत्व का श्रेष्ठतम उदाहरण है। मनुष्य और जीव-जंतु मात्र के प्रति सार्वभौम प्रेम ही बौद्ध-दृष्टि में मोक्ष है और वही बंधुत्व की सही परिभाषा भी है। वैष्णव और शैव परंपराओं में भी इसी प्रकार सभी प्राणियों के कल्याण के भाव को बंधुत्व कहा जा सकता है। दरअस्ल, भारतीय परंपरा की वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा बंधुत्व के भाव की उत्कृष्टतम अभिव्यक्ति है क्योंकि यहां सारे विश्व को एक कुटुंब के रूप में देखा गया है।
आधुनिक मनोविज्ञान में तो बंधुत्व को प्रेम का सर्वोत्कृष्ट वांछनीय रूप बताया गया है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक एरिकफ्राम की मान्यता है कि मनुष्य के रूप में विकसित होने के साथ ही जीवन आत्मचेतन हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप वह स्वयं की समग्र से विच्छिन्नता का अनुभव करने लगता है, जो यंत्रणादायक है। अतः, वह समग्र से जुड़ने की आकांक्षा रखता है, जो समग्र ममेतर के साथ विभिन्न प्रकार के संबंध-विधानों के रूप में अभिव्यक्त होती है। एरिकफ्राम मानते हैं कि प्रेम ही वह संबंध-विधान है, जिसमें व्यक्ति ममेतर के साथ पुनः एकत्व का अनुभव करता है; लेकिन, प्रेम के अन्य रूप जहां व्यक्ति को आश्रित या आश्रयदाता बनाने की वजह से स्वस्थ नहीं कहे जा सकते, वही बंधुत्व प्रेम का एक ऐसा रूप है, जिसमें दोनों पक्षों की समानता अथवा समकक्षता बनी रहने अर्थात् प्रत्येक की वैयक्तिक अस्मिता के सुरक्षित रहने के कारण यह सर्वाधिक स्वस्थ संबंध है।
इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि बंधुत्व के भाव पर विकसित समाज ही एक स्वस्थ समाज हो सकता है क्योंकि एक ओर वह वैयक्तिक अस्मिता की सुरक्षा करता है, तो दूसरी ओर ममेतर की गरिमा का सम्मान तथा उसके कल्याण के लिए सक्रिय या सकारात्मक प्रेम के रूप में अभिव्यक्त होता है। बंधुत्व का भाव इसलिए प्रकारांतर से अहिंसा-भाव का ही अंतर्वैयक्तिक और सामाजिक रूप है।
आधुनिक काल में तकनीकी आविष्कारों और अर्थ-व्यवस्था की वजह से जब दुनिया एक विश्व-ग्राम का रूप लेने लगी है तथा किसी एक जगह घटित घटना पूरे विश्व को प्रभावित करने लगी है, तो पूरी दुनिया के साथ एक होने का भाव प्रबलता होता जा रहा है। प्राकृतिक आपदाओं या युद्धों की विभीषिका आदि के समक्ष जिस तरह पूरा विश्व-मानस उद्वेलित हो उठता है, वह आधुनिक विश्व में बंधुत्व के भाव की केंद्रीयता को स्थापित करता है। यह ठीक है कि अभी राष्ट्रीय स्वार्थ, सांप्रदायिक या जातीय पूर्वग्रह आदि कारणों से अन्य से अलगाव की भावना पूरी तरह मिट नहीं पाई है और आर्थिक शोषण के नए रूप भी विकसित हो रहे हैं; लेकिन, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज का मनुष्य अन्य समाजों में घटित-घटनाओं के प्रति पहले से अधिक सरोकार महसूस करता है, जो अंततः बंधुत्व के भाव के पोषित-विकसित होते चले जाने का ही प्रमाण है।
द्रष्टव्य : समता।
- नंदकिशोर आचार्य
बर्गसां, हेनरी : आधुनिक दर्शन के इतिहास में हेनरी बर्गसां (1859-1941 ई०) का महत्त्व इस बात में है कि वह विश्व को एक सतत विकासमान प्रक्रिया के रूप में तो देखते हैं, लेकिन, उसे किसी प्रकार की यांत्रिकता या प्रयोजनमूलकता से संचालित नहीं मानते। वह न तो स्पेंसर-हेगेल को स्वीकार करते हैं, न ही हेगेल-मार्क्स को, क्योंकि विश्व की विकास-प्रक्रिया की यंत्रवादी और प्रयोजनवादी दोनों ही प्रकार की व्याख्याएं मानवीय सर्जनात्मकता के लिए कोई अवकाश नहीं छोड़तीं।
बर्गसां दोनों ही पद्धतियों के अधूरेपन को दर्शाते हुए कहते हैं कि जहां तर्कणा या बुद्धि किसी भी वस्तु को उसकी समग्रता में नहीं बल्कि खंडों में ही समझ सकती है और यह कभी नहीं समझ सकती कि उन खंडों के अतिरिक्त भी किसी वस्तु में कोई अन्य गुण हो सकता है वहीं अनुभववाद किसी वस्तु के गुणों का विश्लेषण नहीं कर सकता। इसलिए इन दोनों पद्धतियों की उपयोगिता होते हुए भी ये अधूरी हैं।
बर्गसां सीधे साक्षात्कार या अपरोक्ष ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान मानते हैं। भारतीय वेदांत दर्शन में भी इसी प्रकार व्यावहारिक ज्ञान और पारमार्थिक ज्ञान में भेद किया गया है। भारतीय वेदांत की ही तरह बर्गसां भी अपरोक्षानुभव को वरीयता देते हैं और मानते हैं कि यह अपरोक्षानुभव सहज या प्रातिभ अनुभव-इंटुइशन-द्वारा ही उपलब्ध हो सकता है। यह प्रातिभ अनुभव एक प्रकार से पदार्थ के अंदर प्रवेश कर जाना है और उसका उसके सारे गुणों सहित समग्र रूप में अनुभव करना है जो बौद्धिक विश्लेषण के द्वारा किसी भांति संभव नहीं हो सकता। अपरोक्ष या प्रत्यक्ष ज्ञान पर यह आग्रह भारतीय दर्शन में सदैव रहा है, लेकिन, यूरोपीय चिंतन में यह एक नई प्रवृत्ति है जो बाद में मेनांग, जार्ज संतायना आदि में भी दिखाई देती है।
बर्गसां कहते हैं कि विज्ञान या तर्कणा ज्ञान को केवल धारणाओं के रूप में समझ सकती है इसलिए अधूरी है, जबकि प्रातिभ ज्ञान या इंटूइशन वस्तुतः विश्लेषणात्मक नहीं बल्कि सर्जनात्मक ज्ञान है और इसकी संगति बर्गसां की सृष्टि-मीमांसा से भी बैठ जाती है। बर्गसां ने सृष्टि की विकास-प्रक्रिया को अपने ग्रंथ सृजनात्मक विकास (The Creative Evoluation) में स्पष्ट किया है जो केवल गंभीर अध्येताओं के लिए ही नहीं, सामान्य पाठकों के लिए भी रोचक और सुगम हैं। बर्गसां यांत्रिक विकास की अवधारणा को अस्वीकार करने के कारण किसी निश्चित कार्य-कारण परंपरा को विकास का हेतु नहीं मानते और न सृष्टि का कोई अंतिम प्रयोजन ही मानते हैं जिसकी ओर सारा विकास उन्मुख हो। बर्गसां की मान्यता है कि जीवनशक्ति या प्राणशक्ति अपने स्वभाव से सर्जनशील है और उसकी यह सर्जनशीलता ही काल में गति करती हुई विकास-प्रक्रिया को संचालित करती रहती है। सर्जनशीलता में स्वतंत्रता और अपूर्वानुमेयता अंतनिर्हित हैं, इसलिए यह न तो किसी यांत्रिक कार्य-कारण परंपरा से बंधी है और न किसी पूर्व निर्धारित लक्ष्य या प्रयोजन से। कार्य-कारण से बंधने पर इसकी स्वतंत्रता नहीं रहती और किसी पूर्व-निर्धारित लक्ष्य या प्रयोजन से निर्देशित होने पर इसकी दिशा व क्रम निश्चित हो जाते हैं अर्थात् दोनों ही स्थितियों में सर्जनात्मकता का सहज प्रवाह बाधित होता है। इसीलिए बर्गसां मानते हैं कि जीवन के विकास की गति भिन्न-भिन्न दिशाओं में है। वनस्पति-जगत्, जंतु-जगत् और मानव-जगत् में जीवन की अभिव्यक्ति इसीलिए अलग-अलग ढंग और स्तर पर होती है। जिसे हम जड़ जगत् कहते हैं, वह भी वास्तव में प्राणशक्ति की गति अवरूद्ध हो जाना है। इस प्रकार बर्गसां एकरेखीय विकास की अवधारणा को अस्वीकार करते हुए उसे त्रिदिशात्मक मानते हैं। वनस्पति-जगत् में यह प्राणशक्ति उदासीनता में बद्ध हो जाती है, पशु-जगत् में आवेगों के रूप में अभिव्यक्त होती है और मानव-जगत् में चिंतन-प्रतिभा के रूप में। आवेगमूलक होने के कारण पशु-व्यवहार का पूर्वनिर्धारण हो सकता है, जबकि चिंतन-प्रतिभा के कारण मनुष्य स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है और इसीलिए उसे यांत्रिक व्याख्याओं के आधार पर नहीं समझा जा सकता।
जीवन की सर्जनशक्ति पर केंद्रीय आग्रह या बल देने के कारण स्वाभाविक ही था कि बर्गसां ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की आलोचना करते जो मनुष्य की स्वतंत्रता, गरिमा और सर्जनात्मकता को बाधित, दमित या नियंत्रित करती हो। इसलिए बर्गसां ने मनुष्य को गुलाम बनाने वाली या उसका अवमूल्यन करने वाली सभी शक्तियों की भर्त्सना की। उन्होंने पूंजीवाद की बुराइयों की ओर ध्यान आकर्षित किया लेकिन, हिंसात्मक वर्गसंघर्ष के बजाय एक ऐसे सर्जनात्मक प्रेम की कल्पना की जो सभी वर्गों के बीच समन्वय स्थापित कर सभी के विकास के अवसर दे सके।
बर्गसां मानते थे कि व्यक्ति गतिशील है जबकि संस्थाएं स्थिरता की ओर उन्मुख रहती हैं। ऐसी स्थिति में दोनों में संघर्ष स्वाभाविक है। अतः, संस्थाओं को इतना लचीला होना चाहिए कि वे व्यक्ति की गतिशीलता का दमन न करें तथा उसकी सर्जनात्मकता के नए विस्फोट से स्वयं को जीवंत बनाए रख सकें। रूढियों से जकड़ा हुआ समाज आततायी हो जाता है, लेकिन, वह सर्जनात्मकता को नष्ट नहीं कर सकता बल्कि इस प्रक्रिया में स्वयं ही विघटित हो जाता है। सृजनशील प्राणशक्ति को विश्व-प्रक्रिया की प्रेरणा मानने के कारण बर्गसां का दर्शन मानवीय भविष्य में अदम्य आस्था पैदा करता और संकट में साहसपूर्ण संघर्ष की प्रेरणा देता है।
बर्गसां ने विकासवादी दर्शन-पद्धति को एक नया आयाम दिया और उनके चिंतन ने मानवीय सर्जनशीलता का केंद्रीय महत्त्व समझने की ओर समकालीन विश्व का ध्यान आकर्षित किया। जिस विकासवाद का उपयोग मनुष्य के अवमूल्यन में किया जा रहा था, बर्गसां ने उसी के माध्यम से मानवीय स्वतंत्रता, गरिमा और सर्जनशीलता को पुनः स्थापित किया।
- नंदकिशोर आचार्य
बर्लिन, आइजिया (Berlin, Isaiah) : आइजिया बर्लिन (1909-97 ई०) की प्रसिद्धि मुख्यतः एक ऐसे विचारक के रूप में है जो जीवन को किसी एक परिभाषा में बांधकर नहीं देखते। इसका तात्पर्य यह है कि हमारा जीवन किसी एक मूल्य से संचालित नहीं है, इसलिए किसी एक मूल्य को अन्य मूल्यों पर वरीयता दिया जाना उचित नहीं होगा। बर्लिन का मानना है कि एकलवादी (Monistic) अर्थात् किसी एक मूल्य को बाकी मूल्यों से श्रेष्ठ मानने वाली दृष्टि अंततः किसी-न-किसी प्रकार के सर्वाधिकारवाद में पर्यवसित हो जाती है। इसके प्रमाण प्लेटो से लेकर हेगेल और कार्ल मार्क्स तक में देखे जा सकते हैं। इसलिए बर्लिन सभी मूल्यों को समान महत्त्व का मानते हुए एक बहुलवादी (Pluralistic) मूल्य-दृष्टि का प्रस्ताव करते हैं और मूल्यों के परस्पर विरोध को मिटाने के लिए उन्हें किसी एक मूल्य के अंतर्गत समेट लेना उचित नहीं मानते। बर्लिन कहते हैं : जो जैसा है, वैसा है। स्वतंत्रता स्वतंत्रता है; वह समानता, न्याय, संस्कृति या मानवीय सुख का पर्याय नहीं हो सकती। यही बात समानता, न्याय, संस्कृति आदि को लेकर भी कही जा सकती है।
स्वतंत्रता पर विचार करते हुए बर्लिन ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ फोर एस्सेज ऑन लिबर्ट्री में उसे दो प्रकार की संकल्पनाओं में श्रेणीबद्ध किया है-निष्क्रिय (Negative) तथा सक्रिय (Positive) स्वतंत्रता। निष्क्रिय या नकारात्मक स्वतंत्रता का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति को किसी तरह के चयन के लिए बल-प्रयोग द्वारा विवश नहीं किया जा सकता। बर्लिन के अनुसार राज्य का दायित्व यह देखना है कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को बल-प्रयोग द्वारा न दबाया जाए। इसलिए बर्लिन ऐसे परिवेश की मांग करते हैं, जिसमें व्यक्ति कई विकल्पों में से इच्छानुसार वरण कर सके और किसी एक शुभ के आधार पर उसे अपने जीवन के लिए वरण से बलपूर्वक रोका न जा सके। दरअस्ल, नकारात्मक या निष्क्रिय स्वतंत्रता का सिद्धांत मूल्यों की बहुलता को स्वीकार करता हुआ स्वतंत्रता को भी अन्य मूल्यों के समकक्ष ही स्वीकार करता है तथा यह व्यक्ति पर छोड़ता है कि वह विभिन्न मूल्यों के बीच अपनी इच्छा या आवश्यकता के अनुसार किस तरह की संगति बिठाता है।
दरअस्ल, बर्लिन के विचारों का महत्त्व इस बात में है कि वह मूल्यों के पारस्परिक विरोध को स्वीकार करता हुआ किसी एक मूल्य के लिए अन्य मूल्यों पर बल-प्रयोग अर्थात् हिंसक दबाव का अस्वीकार करता है।
- नंदकिशोर आचार्य
बसवेश्वर : बसवण्णा के नाम से प्रसिद्ध बसवेश्वर (लगभग 1131- 1167 ई०) मध्यकालीन कर्नाटक के ऐसे संत-सुधारक हैं, जिन्होंने तत्कालीन समाज में वर्ण-विभाजन और जातिगत कारणों से व्याप्त कथित निम्न जातियों के दमन-उत्पीड़न और धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन में भी उनके साथ किए जाने वाले असमान व्यवहार का विवेकपूर्ण विरोध तथा मानवीय समता के पक्ष में जीवनपर्यंत काम किया। कर्नाटक में उनके अनुयायियों को वीरशैव या शरणा कहा जाता है। नारद भक्तिसूत्र-जो भक्ति-दर्शन का मूल ग्रंथ कहा जाता है-मानता है कि भक्ति का स्वभाव उच्चतम प्रेम है-सबके प्रति निरपेक्ष प्रेम। बसवेश्वर का जीवन इसका अप्रतिम उदारहण है। इसीलिए उन्हें सिद्धराम द्वारा भक्ति और आनंद का अवतार कहा गया है।
लेकिन, उल्लेखनीय यह है कि अन्य कई मध्यकालीन संतों के विपरीत बसवेश्वर लौकिक जीवन-यहां तक कि ऐंद्रिक संतुष्टि की भी-भर्त्सना नहीं करते और न उसे त्याज्य मानते हैं। वह गृहत्यागी तपस्या का समर्थन नहीं करते और न संसार का परित्याग करने का उपदेश करते हैं। सामान्य संयमित ऐंद्रिक संतुष्टि तथा सांसारिक जीवन का निर्वाह उनकी दृष्टि में परम आध्यात्मिक उपलब्धि के मार्ग में बाधक नहीं है। अधिकांश मध्यकालीन संत जब नारी को नरक का द्वार मान रहे होते हैं, तब बसवण्णा मानते हैं कि इंद्रियों के बनावटी दमन और आत्मसंतापन का कोई उपयोग नहीं है क्योंकि जो जन यहां भलीभांति नहीं जी सकते, वह इसके पश्चात् क्या प्राप्त कर सक ते हैं? निराशा और विरक्ति के साथ एक चलते-फिरते शव की भांति जीना जीवन का आध्यात्मिक रूप नहीं है।
वर्ण-विभाजन और जन्मगत ऊंच-नीच तथा अस्पृश्यता की अवधारणाओं को वह धर्मच्युत होना मानते हैं क्योंकि इनके अनुसार आचरण करना प्रेम के सिद्धांत का परित्याग करता है क्योंकि प्रेम ही सर्वोच्च भक्ति है। मनुष्य को वह केवल भक्त और भाविस अर्थात अच्छा-बुरा के वर्गों में रखकर भेद करते हैं। अपने एक प्रसिद्ध वचन में वह कहते हैं कि अनुकंपा के अभाव में / धर्म कैसे हो सकता है? / समस्त जीवन के प्रति / अनुकंपा अनिवार्य है / धार्मिक आस्था का मूल अनुकंपा है। इसलिए सभी सामाजिक संबंध भी इसी अनुकंपा की अनुभूति की ओर ले जाने वाले होने चाहिए। अनुकंपा का अर्थ ही है अन्य के साथ होकर उसकी वेदना को अनुभव कर पाना। बसवेश्वर के एक जीवनीकार एच० थिप्पेरुद्र स्वामी के अनुसार, बसव की सराहनीय उपलब्धि यह थी कि उन्होंने जाति, धर्म या योनि के किसी भेदभाव के बिना सामाजिक और धार्मिक अवसर सभी के लिए सुलभ कर दिए।
बसव शुद्ध आचरण पर बहुत आग्रह करते और उसमें अघृणा को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि घृणा में ही हिंसा अर्थात अप्रेम का बीज है और अप्रेम का तात्पर्य अभक्ति है। अपने एक वचन में वह चोरी या हत्या करने के निषेध के साथ-साथ किसी पर क्रोधित होने और किसी से घृणा करने के साथ-साथ अपने आप पर अहंकार का भी निषेध करते हैं क्योंकि अपने पर अहंकार के साथ अन्य के प्रति घृणा, जो हिंसा का सूक्ष्म रूप है, अनिवार्यतः जुड़ी है। बसवण्णा अहंकार और घृणा के इस मनोविज्ञान से बखूबी परिचित हैं। उच्चजाति में जन्म लेने का अहंकार निम्न जाति के प्रति घृणा या अनुकंपाविहीनता का ही एक लक्षण है, इसलिए बसवण्णा अपने प्रति गौरव के भाव का भी निषेध करते हैं। उनके नीति-वचनों की तुलना दस धर्मादेशों या पर्वत-प्रवचन-सरमन ऑन दि माउंट से भी की गई है। बसवण्णा के वीरशैव संप्रदाय में हरलय्या और मधुवरस जैसे अछूतों को भी उन्हीं उच्च आध्यात्मिक उपलब्धियों को प्राप्त करने वाला माना जाता है, जो स्वयं उनको प्राप्त थीं। निम्न समझी जाने वाली जातियों के आध्यात्मिक उत्थान और सामाजिक समता के साथ-साथ बसवेश्वर लिंगाधारित भेदभाव को भी समाप्त करना चाहते थे। उन्होंने लिंगाधारित धार्मिक भेदभाव का विरोध करते हुए धर्म में दोनों को समान उपलब्धि का अधिकारी माना। इसी का प्रभाव रहा कि बहुत-सी महिला संतों की आध्यात्मिक उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो सका, जिनमें अक्क महादेवी, नीलांबिके, गंगांबिके आदि के नाम विशेष तौर पर लिए जा सकते हैं।
बसवेश्वर के सिद्धांतों में कायक की अवधारणा का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह अवधारणा एक तरह से शोषणविहीन समाज की प्रक्रिया भी है और कर्माधारित जातिगत भेद से उत्पन्न हिंसा के उन्मूलन की अहिंसक प्रक्रिया भी। कायक का अर्थ है अपनी जीविका के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर रहना। इसे महात्मा गांधी के ब्रेड लेबर (श्रमनिष्ठ रोटी) की अवधारणा के समकक्ष रखकर देखा जा सकता है। बसवेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीविका हेतु ऐसा श्रम करना अनिवार्य मानते हैं, जो समाज की जरूरतों की पूर्ति करने वाला हो। दूसरे शब्दों में, इसे उत्पादक श्रम कहा जा सकता है। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी व्यक्ति को दान या भिक्षा अथवा परश्रम के आधार पर जीवनयापन का अधिकार नहीं है। ऐसा करना धर्मसम्मत आचरण का अतिक्रमण करना है। इस कायक सिद्धांत के माध्यम से बसवण्णा जन्म-आधारित कर्मभेद का भी निषेध कर देते हैं क्योंकि रूढ़ वर्ण-व्यवस्था जन्म के आधार पर कर्म का निर्धारण करती है। यदि सभी के लिए शरीर श्रम पर आधारित जीविका अनिवार्य है तो ब्राह्मण और शूद्र में कोई कर्मगत अंतर नहीं रह सकता और न जन्म के आधार पर उनके कर्म को उच्चावच श्रेणी में रखा जा सकता है। यदि प्रत्येक व्यक्ति का जीवनयापन स्वयं के शारीरिक श्रम के आधार पर होना है तो समाज में शोषण-उत्पीड़न की परिस्थिति विकसित होने की संभावना नगण्य हो जाती है और यदि उच्च जाति का अहंकार भी अधार्मिक आचरण माना जाए तो ऐसी स्थिति में समाज स्वयमेव ही एक अहिंसक समतामूलक व्यवस्था की ओर उन्मुख होने लगेगा।
बसवेश्वर का स्वयं का जीवन भी उनके नीति-वचनों के अनुरूप ही था। उन्होंने कल्याण के राजा बिज्जल के भंडारी के पद पर काम करते हुए आत्मसंयमपूर्ण सांसारिक जीवन व्यतीत किया। एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने निम्नतर समझी जाने वाली जातियों को न केवल अपने समकक्ष माना बल्कि उनके उत्कर्ष के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के सभी प्रयास किए। इन्हीं प्रयासों के कारण रूढ़िवादी तत्त्वों ने उनका विरोध किया और आरोप लगाए कि वे राजकोष का उपयोग अपने अनुयायियों को लाभ पहुंचाने के लिए कर रहे हैं। उनके अनुयायियों को भी इतना प्रताड़ित किया गया कि कल्याण छोड़कर उन्हें विभिन्न इलाकों में बिखर जाना पड़ा। 36 वर्ष की अल्पायु में ही बसवेश्वर का संगमेश्वर के साथ समरस्य अर्थात जीवनांत हो गया। लेकिन, उनके वचनों की लोकप्रियता बनी रही और आज भी उनके अनुयायियों के लिए ही नहीं, बल्कि एक शोषण-दमन विहीन तथा समतामूलक समाज की आकांक्षा करने वाले लोगों के लिए ये वचन प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
बाल मानवाधिकार : मानवाधिकार विमर्श में बाल-मानवाधिकारों का विशेष महत्त्व है क्योंकि सामान्यतया, बालक-बालिकाओं की स्वतंत्र हैसियत और सम्मान की ओर कम ध्यान दिया जाता रहा है और माता-पिता या परिवार से अलग एक व्यक्ति के रूप में उनके कुछ अधिकार हो सकते हैं, इसकी कम ही चिंता की जाती है। परिवार, शिक्षा-संस्थाओं और सामाजिक व्यवहार में उनके साथ की गई हिंसा और उनके व्यक्तित्व का अतिक्रमण सामाजिक चिंता के मुख्य विषयों में नहीं रहा है। इस दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि मानवाधिकारों की विश्व-घोषणा के पारित होने से भी बहुत पहले 1924 ई० में राष्ट्रसंघ ने बाल-अधिकार की घोषणा जारी कर दी थी। संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा जारी मानवाधिकारों की विश्वघोषणा में भी अनुच्छेद 24 में प्रत्येक शिशु को नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति या जन्म पर आधारित किसी तरह के भेदभाव के बिना अपने परिवार, समाज और राज्य से संरक्षण के ऐसे साधन प्राप्त करने का अधिकार को मान्यता दी गई है, जो उसकी नाबालिग हैसियत के अनुसार आवश्यक हैं। उसके नाम, पंजीकरण, और राष्ट्रीयता पाने के अधिकार को भी इस अनुच्छेद में मान्यता दी गई है। बच्चे की देखरेख और शिक्षा का अधिकार उसके अभिभावकों को दिया गया है। 1959 ई० में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी बाल-अधिकारों की घोषणा की तथा 1989 ई० में बाल-अधिकारों का कन्वेंशन हुआ, तथा उसकी सिफारिशों को 1990 ई० से लागू कर दिया गया।
बाल-अधिकारों के संदर्भ में पहला सवाल यही उठता है कि बालक किसे माना जाए, यानी उसकी आयु-सीमा क्या हो। काफी विचार-विमर्श के उपरांत यह स्वीकार किया गया कि विभिन्न देशों में आंशिक विधिक योग्यता की भिन्नता के बावजूद मानवाधिकारों की दृष्टि से 18 वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को बालक माना जाएगा। यह भी तय हुआ कि बाल-मानवाधिकारों में प्रत्येक अधिकार की समान हैसियत होगी और किसी एक अधिकार के नाम पर किसी दूसरे अधिकार का अतिक्रमण नहीं किया जा सकेगा। कन्वेंशन ने यह माना कि बालक अधिकारों का सक्रिय भोक्ता है-उसे परिवार की संपत्ति की तरह नहीं माना जा सकता।
प्रत्येक बालक के प्राकृतिक अधिकारों में उसके जीवन के अधिकार को स्वीकार करते हुए उसमें उसके विकसित होने के अधिकार को भी सम्मिलित किया गया। प्रत्येक बालक को यह अधिकार है कि उसका एक नाम और राष्ट्रीयता हो। उसे अपने माता-पिता को जानने तथा पारिवारिक संबंधों का भी अधिकार है।
प्रत्येक बालक के कुछ नागरिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अधिकारों को भी मान्यता दी गई। इनमें उसके सूचनाएं प्राप्त करने और अभिव्यक्ति के अधिकार के साथ विचार, अंतःकरण और धर्म की स्वतंत्रता को भी स्वीकार किया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि अभिभावक या परिवार भी उसकी इन स्वतंत्रताओं का दमन नहीं कर सकता। विशिष्ट बात यह है कि इन अधिकारों में उसकी निजता-प्राइवेसी-के अधिकार को भी शामिल किया गया है तथा कहा गया है कि किसी भी प्रकार उसके आत्मसम्मान और प्रतिष्ठा को हानि नहीं पहुंचाई जा सकती। प्रत्येक बालक के शिक्षा के अधिकार को मान्यता देते हुए उसकी मानवीय गरिमा के संरक्षण-पुष्पन-पल्लवन की बात भी की गई है। यह आशा प्रकट की गई है कि बालकों को उनके लिए उपयोगी साहित्य मिल सकेगा; साथ ही, उनके हानिकारक सूचनाओं से बचाव के अधिकार को भी स्वीकार किया गया है। उन्हें मनोरंजन करने, खेलों में भाग लेने तथा कलात्मक गतिविधियों में सहभागिता तथा इनके लिए साधन प्राप्त करने का अधिकार है। यह उल्लेखनीय है कि इन अधिकारों में यह स्वीकार किया गया है कि प्रत्येक बालक को अपने से संबंधित मामलों में-न्यायिक और प्रशासनिक मामलों में भी-अपनी इच्छा की अभिव्यक्ति का अधिकार है। इस अधिकार के अंतर्गत ही माता-पिता के तलाक मामलों में बालक से उसकी इच्छा पूछी जाती है कि उसे किसके साथ रहना पसंद है।
बालकों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों में सर्वप्रथम तरजीह बच्चे के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के संरक्षण और बीमार हो जाने पर चिकित्सा के अधिकार को दी गई है। उसे विपत्ति की स्थिति में सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक बीमा का अधिकार होगा। आर्थिक-शोषण से बालक के बचने के अधिकार का भी स्पष्ट उल्लेख किया गया है।
बाल-अधिकारों की घोषणा में कुछ विशेष परिस्थितियों में बालक की सुरक्षा के अधिकार का जिक्र किया गया है। इनके अनुसार उसे उसके माता-पिता से जबरन अलग नहीं किया जा सकता। उसे अवैध रूप से कहीं नहीं भेजा जा सकता और न वापस आने पर रोक लगाई जा सकती है। बालक के साथ किसी भी तरह के दुर्व्यवहार और उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। शरणार्थी और विकलांग बालकों के लिए विशेष व्यवस्था करने की जरूरत पर बल दिया गया है। अल्पसंख्यक आदिवासी बालकों के लिए भी विशेष प्रावधान को स्वीकार किया गया है। बालकों की खरीद-फरोख्त, अपहरण और उनका व्यापार करने पर सख्त रोक लगाने की आवश्यकता पर बल देते हुए यह भी कहा गया है कि किसी भी बालक को उसकी स्वतंत्रता से वंचित किए जाने की स्थिति में विशेष सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है। सशस्त्र संघर्ष की स्थिति में भी बालकों की सुरक्षा के अधिकार को स्वीकार किया गया है।
यह माना गया है कि बालक के स्वस्थ विकास और उसके मानवाधिकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व स्वयं बालक, माता-पिता और राज्य पर होने के साथ-साथ संपूर्ण मानव-जाति का है, जिसका तात्पर्य यह है कि किसी भी स्थिति में बालक का अपने अधिकारों से वंचित होना परिवार और राज्य के साथ-साथ पूरे समाज का गैर-जिम्मेदार होना है।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बाल-मानवाधिकारों के सरंक्षण और बालकों के प्रति हो रही हिंसा तथा अन्याय की स्थिति और घटनाओं पर विचार के लिए एक समिति भी बनाई गई है, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों से दस प्रतिनिधि सदस्य लिए जाते हैं। इस बाल-अधिकार समिति (Committee on the Rights of Child) की बैठक वर्ष में तीन बार जेनेवा में होती है। 1991 ई० में बालकों के लिए एक विश्व-सम्मेलन भी बुलाया गया तथा 1993 ई० में वियना में आयोजित विश्व मानवाधिकार सम्मेलन में भी बाल-अधिकारों और उनकी स्थिति पर पर्याप्त विचार किया गया।
दरअस्ल, बाल-मानवाधिकारों का विमर्श चार मुख्य सिद्धांतों पर आधारित है। ये सिद्धांत हैं : (1) निष्पक्षता, (2) बालक का श्रेष्ठ हित, (3) जीवन अर्थात् जीवित रहना और विकास करना और (4) बालक के विचारों का सम्मान। तात्पर्य यह कि बालक से संबंधित किसी भी बात का निर्णय उसके अपने विचारों को महत्त्व देते हुए इस आधार पर किया जाना चाहिए कि उसका सर्वोत्तम और अधिकतम हित किस बात में है, न कि किसी भी तरह के भेदभाव या उसके परिवार या राज्य या धर्म-संस्था आदि के आधार पर। बाल-मानवाधिकार बालकों के प्रति हो रही मानसिक, शारीरिक, और आर्थिक-सामाजिक हिंसा के बरक्स एक व्यक्ति की हैसियत से उनके अधिकारों का दस्तावेज है।
- नंदकिशोर आचार्य
बीज-हिंसा : आर्थिक सरंचनात्मक हिंसा का सबसे बड़ा उदाहरण आर्थिक वैश्वीकरण की परियोजना है। एक परियोजना के रूप में वैश्वीकरण व्यापार, प्रौद्योगिकी तथा संपदा-अधिकारों के संपूर्ण नियंत्रण के द्वारा लोगों की स्वतंत्रता को समाप्त करने की योजना है-नदियों की बहने की स्वतंत्रता, जैव-संस्थानों के विकसित होने की स्वतंत्रता, किसानों के बीज बचाने और फसलें उगाने की स्वतंत्रता, उपभोक्ताओं द्वारा अपने खाद्य को चुनने और यह जानने की स्वतंत्रता कि वह कैसे तैयार किया जाता है-इन सब बुनियादी स्वतंत्रताओं को मुक्त व्यापार अथवा वैश्वीकरण के नाम से छीना जा रहा है।
वैश्वीकरण को अक्सर समाजों के बीच नए अंतर्संबंधन की प्रक्रियाओं के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यदि यह भौगोलिक है तो इसका संबंध विशालकाय निगमों की वैश्विक पहुंच से है-विश्व के मनुष्यों के मनों के जोड़ने से नहीं। लेकिन, वैश्वीकरण का मुख्य प्रयोजन जीवनदाता संसाधनों और प्रक्रियाओं के उपनिवेशीकरण और उनके वस्तुकरण से है-हमारी जैव-विविधता, हमारा खाना, हमारा पानी आदि।
जीवन का पेटेंट और नई जैव-प्रौद्योगिकियां आज के साम्राज्यवाद के हथियार हैं और वे वैश्विक संविधान अर्थात् विश्व व्यापार संगठन की नियमावली के मुख्य अंश है-व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकारों के रूप में। बौद्धिक संपदा के साथ व्यापार संबंधी पद बलात् जोड़ा गया क्योंकि किसी व्यापार-संधि में बौद्धिक संपदा की कोई जगह नहीं होती और पेटेंट का भी जीवन-रूपों तक विस्तार करने की आवश्यकता नहीं थी, जिसके आधार पर विभिन्न इलाकों को अपने सूक्ष्म जैव-संस्थानों, और जननिक अभियांत्रिकी से विकसित पौधों तथा प्राणियों के पेटेंट के लिए बाध्य किया जाता है। ये नियम और कानून निगमों द्वारा अपने लिए बनाए गए हैं। एक मोनसांटो प्रवक्ता का ही कथन है : हम ही रोगी थे, हम ही निदानकर्ता और चिकित्सक भी।
जीवन पर पेटेंट एक समग्र नियंत्रण-व्यवस्था है। वे जीवन-रूपों-सूक्ष्म जैव-संस्थानों, पौधों और प्राणियों पर निगमों के दावों की अनुमति देते हैं। वे निगमों को इस बात की अनुमति देते हैं कि वे बीजों को बचाने और बांटने को बौद्धिक संपदा अपराध के रूप में परिभाषित कर सकें। साथ ही, वे जैव-चोरी के अपराध की भी अनुमति देते हैं-पारंपरिक ज्ञान और जैव-चोरी को अधिकार का दर्जा देकर।
पेटेंट किसी भी पेटेंट उत्पाद के स्वामित्व, उसे बनाने, बेचने, उत्पादन करने या उसके इस्तेमाल का पूर्ण अधिकार है। बीज के पेटेंट का निहितार्थ है कि एक किसान अपने बीज को बचाकर बौद्धिक संपदा चोर हो जाता है-बल्कि यह कुछ अधिक है क्योंकि बीज को निगमीय एकाधिकार में लाने और उसके कुछ कंपनियों के अधिकार में चले जाने का मतलब वास्तव में किसान की गुलामी है। जहां बीज की स्वतंत्रता लुप्त हो जाती है, वहां किसान की स्वतंत्रता का भी लोप हो जाता है।
महात्मा गांधी ने भारत में आजीविका का पुनरुत्पादन करने के लिए चरखे को स्वतंत्रता के प्रतीक और विकास के औजार के रूप में प्रस्तावित किया था। प्रारंभिक औद्योगिकीकरण के उस दौर में ऊर्जा-संचालित मिलें विकास का मॉडेल थीं। लेकिन, कच्चे माल और बाजार के लिए मिलों की भूख उस नई गरीबी का कारण थी, जो भूमि और जैव-द्रव्य के कारखानों की ओर खिंचते चले जाने या बाजार के माध्यम से स्थानीय उत्पादों के विस्थापित हो जाने से पैदा हुई थी। गांधीजी ने 1915 ई० में भारत लौटने तक चरखा देखा भी नहीं था। लेकिन, उन्होंने मिल के कपड़े के बहिष्कार में उपनिवेशीकरण से स्वतंत्रता का एक तत्त्व उसमें देख लिया था। चरखा एक ऐसी प्रौद्योगिकी का प्रतीक है जो न केवल संसाधन-संरक्षण करता है, बल्कि लोगों की आजीविका और उस पर उनके अपने नियंत्रण को भी सुरक्षित करता है। ब्रिटिश वस्त्र-उद्योग के साम्राज्यवाद के विपरीत, चरखा विकेंद्रीकृत और श्रम-उत्पादक या श्रम-विस्थापन नहीं। उसे लोगों को अतिरिक्त मानने या उन्हें औद्योगिक प्रक्रिया में केवल निवेश मानने के बजाय उनके हाथों और दिमागों की जरूरत थी। उपनिवेशवाद के सहोदर औद्योगीकरण द्वारा उत्पन्न केंद्रीकरण की बर्बादी, आजीविका-विनाश, संसाधन-समाप्ति तथा आर्थिक और राजनीतिक निर्भरता को दूर करने के लिए विकेंद्रीकरण, आजीविका-निर्माण, संसाधन-सरंक्षण तथा आत्मनिर्भरता को पुष्ट करने वाले इन सबके एक आलोचनात्मक समन्वय की आवश्यकता थी-और आज भी है।
चरखा विज्ञान और तकनीकी के छद्म सार्वभौमिकतावाद तथा निरंकुशतावाद से उत्पन्न प्रगति और पुरानेपन की अवधारणाओं के लिए एक चुनौती है। अपक्षय तथा अपशिष्ट उत्पाद ऐसी सामाजिक निर्मितियां हैं, जिनके राजनीतिक और पारिस्थितिकीय घटक भी हैं। अपक्षय का विचार, राजनीतिक दृष्टि से, प्रगति के नाम पर उत्पादक कार्य को अनुत्पादक बताकर लोगों के अपने उत्पादन और आजीविका और इस प्रकार अपने जीवन पर अधिकार से वंचित कर देना है। यह समय को अवशिष्ट करने के बजाय मनुष्यों को अवशिष्ट बना देता है। पारिस्थितिकीय दृष्टि से, अपक्षय प्रकृति की बहुलता के स्थान पर उत्पादित एकरूपता से प्रकृति की पुनरुत्पादक क्षमता को नष्ट कर देता है। एक ओर गरीब लोगों की यह अभिप्रेरित अनावश्यकता और दूसरी ओर, विविधता उत्पादन के संकीर्ण और न्यूनीकरणवादी विचारों से निर्देशित प्रौद्योगिकीय विकास की राजनीतिक पारिस्थितिकी का निर्माण करती हैं। सार्वभौम समझे जाने वाले उत्पादकता के संकीर्ण विचार जीवन के पुनरुत्थान के साधनों पर से लोगों के अपने नियंत्रण तथा विविधता का पुनरुत्पादन करने वाली प्रकृति को उसकी क्षमता से वंचित कर देते हैं।
पारिस्थितिकीय क्षरण तथा आजीविका-विनाश एक-दूसरे से जुड़े हैं। विविधता तथा आजीविका के साधनों का विस्थापन केंद्रीय नियंत्रण के माध्यम से एकरूपता पर आधारित विकास और वृद्धि का परिणाम है। नियंत्रण की इस प्रक्रिया में न्यूनीकरणवादी विज्ञान और प्रौद्योगिकी शक्तिशाली आर्थिक हितों की दासी का कार्य करते हैं। नई प्रौद्योगिकीयों के आविष्कार की निरंतरता के साथ-साथ फैक्टरी और चरखे का संघर्ष भी निरंतर जारी है। बीज क्योंकि जननिक अभियांत्रिकी से विकसित और पेटेंट किए जाते हैं, इसलिए किसानों और खेती के लिए एक संकट पैदा किया जा रहा है। बीज आज का चरखा हो गया है।
बीज स्वांतत्र्य बीज-निगमों के लिए बड़ी बाधा है। बीज अपने को पुनरुत्पादित कर कई गुना कर सकता है। वह पारिस्थितिकीय दृष्टि से अपने पुनरुत्पादन के लिए स्वतंत्र है तथा आर्थिक दृष्टि से किसान की आजीविका का पुनरुत्पादन है। इसलिए बीज का बाजार बनाने के लिए यह जरुरी है कि बीज को बदल दिया जाए ताकि वह अपने को पुनरुत्पादित न कर सके तथा उसकी विधिक परिभाषा बदल दी जाए ताकि किसान-समुदाय की सारी संपदा होने के बजाय वह बीज-निगमों की निजी संपदा हो जाए। बीज बहुत लघु है। वह विविधता को समाहित किए है। वह जीवित रहने की स्वतंत्रता है। बीज-स्वातंत्र्य निगमों से किसानों की स्वतंत्रता से भी आगे जाकर विविध संस्कृतियों की केंद्रीकृत नियंत्रण से मुक्ति का संकेत है। बीज में पारिस्थितिकीय मुद्दे सामाजिक न्याय से जुड़ जाते हैं। मुक्त व्यापार के माध्यम से पुनर्उपनिवेशीकरण के इस दौर में बीज वही भूमिका अदा कर सकता है जो गांधीजी के चरखे ने निभाई थी।
- डॉ० वंदना शिवा
(संक्षिप्त हिंदी रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य)
बुद्ध, गौतम : तथागत (जो सत्य तक पहुंच गया है) और शाक्य मुनि के नाम से भी प्रसिद्ध गौतम बुद्ध (567-480 ई०पू०) का पूर्वनाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ शाक्यवंशीय राज शुद्धोधन और मायादेवी की संतान थे, जिनका पालन उनके जन्म के सात दिन बाद ही मां की मृत्यु हो जाने पर सौतेली माता महाप्रजापति गौतमी ने किया। बुद्ध के जन्म और बचपन से संबंधित जो कथाएं मिलती हैं, उनका तात्पर्य यही है कि प्रारंभ से ही एकांत प्रिय और चिंतनशील प्रवृत्ति का होने के कारण उनके पिता को यह आशंका थी कि कहीं वह पारिवारिक-सामाजिक जीवन से अपने को अलग न कर लें। इसलिए उन्होंने सिद्धार्थ को हमेशा मनोरंजन और विलास के वातावरण में रखा। उनका विवाह यशोधरा से हुआ जिससे उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम उन्होंने राहुल रखा क्योंकि सिद्धार्थ को तब तक लगने लगा था कि यह संतान उनके आध्यात्मिक विकास में राहु (बाधा) हो सकता है। बौद्ध ग्रंथों में बीमार, वृद्ध और मृत व्यक्तियों को देखने से सिद्धार्थ के मन में जीवन के दुखपूर्ण और अर्थहीन होने का भाव उठने का जो उल्लेख मिलता है, उनका भी प्रतीकार्थ यही है कि जीवन के स्थाई कष्ट और सुखों की क्षणभंगुरता को लेकर वह चिंतन करने लगे थे और उनका आकर्षण उस रहस्य या सत्य को जानने की ओर होने लगा था जिससे जीवन में दुख के स्रोत और स्वरूप को जानकर उससे मुक्त होने का उपाय खोजा जा सके।
सत्य की तलाश की अपनी विकलता से विवश सिद्धार्थ ने एक रात अपनी पत्नी व शिशु-पुत्र को सोता छोड़कर गृह-त्याग-महाभिनिष्क्रमण-कर दिया और बरसों तक कई तरह के गुरुओं और साधनाओं से गुजरते हुए अंत में उन्हें ज्ञान-प्राप्ति की अनुभूति हुई। इस घटना को बौद्ध धर्म के इतिहास में संबोधि कहा जाता है और ज्ञान-प्राप्त हो जाने के कारण ही उन्हें बुद्ध नाम से जाना जाने लगा।
बुद्ध ने सर्वप्रथम उन पांच ब्राह्मणों को अपने ज्ञान का उपदेश दिया, जो कभी उनके साथी रहे थे, पर बाद में उनके भोजन ग्रहण कर लेने के कारण उनसे अलग हो गए थे। इस घटना को धर्मचक्र-प्रवर्तन कहा जाता है। इन पांचों ने उनका शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। इसके बाद जीवनांत तक बुद्ध भ्रमण करते हुए अपने विचारों का प्रसार करते रहे और उनके शिष्यों, अनुयायियों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ती गई। तत्कालीन भारत के कई राजा और श्रेष्ठिजन उनके भक्त हो गए, जिनमें बिंबिसार, अजातशत्रु, प्रसेनजित, अनाथपिंडक, आम्रपाली आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनके देहावसान की घटना को महापरिनिर्वाण कहा जाता है। उनके निर्वाणोपरांत बौद्ध धर्म बहुत फैला। उसका प्रसार भारत से बाहर विदेशों में भी हुआ, जिसका श्रेय सम्राट अशोक, सम्राट कनिष्क और कई बौद्ध भिक्षुओं को जाता है।
बुद्ध का कहना है कि चार आर्य सत्य (चत्वारि आर्य सत्यानि) हैं। यह जीवन दुखपूर्ण है। बुद्ध इस दुख के स्रोत और स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए प्रतीत्यसमुत्पाद अर्थात् आश्रित उत्पत्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं। इस सिद्धांत का सार यह है कि दुख तृष्णा के कारण है और तृष्णा का कारण अविद्या है-अर्थात् दुख का कारण अविद्या है। कारण को मिटाने से उस पर आश्रित उत्पत्ति नष्ट हो जाती है, जिसका तात्पर्य यह है कि अविद्या के मिटने पर तृष्णा और उससे उत्पन्न दुख भी मिट जाता है। तात्पर्य यह कि (1) जीवन दुख है, (2) इस दुख का कारण है, (3) कारण का निवारण संभव है और (4) उसका उपाय है।
बुद्ध इसका उपाय अष्टांगिक मार्ग सुझाते हैं। यह अष्टांगिक मार्ग एक प्रकार की सम्यक् साधना है, जो बुद्धि, भावना और कर्म तीनों स्तरों पर होती है-(1) सम्यक् दृष्टि, (2) सम्यक् संकल्प, (3) सम्यक् वाक्, (4) सम्यक् कर्म, (5) सम्यक् आजीव, (6) सम्यक् व्यायाम (पुरुषार्थ), (7) सम्यक् स्मृति, और (8) सम्यक् समाधि।
सम्यक् का अर्थ है सदाचारी, धर्मसंगत अथवा न्यायसंगत। इसलिए मन, वचन, कर्म में व्यक्ति से धर्मसंगत या न्यायसंगत होने की अपेक्षा की जाती है। यही कारण है कि सम्यक् संकल्प के तात्पर्य में अपने साथ अन्य का कल्याण भी समाहित है। सम्यक् वाक् का तात्पर्य है असत्य वचन, चुगली, निंदा आदि न करना तथा किसी को क्रूर वचन न कहना अर्थात् वाक् में भी न्यायसंगत रहना। सम्यक् कर्म का तात्पर्य है सदैव शुभ कर्मों में सक्रिय रहना, यानी ऐसा कोई कर्म न करना जिससे स्वयं या अन्य की भौतिक-नैतिक हानि होती हो। सम्यक् आजीव का अर्थ है आजीविका का ऐसा साधन अपनाना, जिससे किसी अन्य को कष्ट न हो तथा आजीविका के लिए ईमानदारी से काम करना। सम्यक् व्यायाम का मतलब है सदैव स्वयं को तृष्णामुक्त रखने के लिए प्रयासरत रहना। सम्यक् स्मृति का अर्थ अपने वास्तविक स्वरूप और प्रयोजन का सदैव स्मरण करना तथा सम्यक् समाधि का तात्पर्य है इस प्रकार के प्रयत्नों से सभी मानसिक-वैचारिक विकृतियों से मुक्ति।
बौद्ध धर्म में अहिंसा पर आग्रह इसीलिए किया जाता है कि हिंसा को सम्यक् या न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। हिंसा अविद्या या तृष्णा से पैदा होती है और हम अपने वास्तविक स्वरूप के ज्ञान और स्मृति से भटक जाते हैं। लेकिन, बौद्ध धर्म की अहिंसा निष्क्रिय अहिंसा अर्थात् हिंसा का अभाव मात्र नहीं है। वह सक्रिय अहिंसा है क्योंकि उसमें अन्य के कल्याण के लिए प्रयासरत रहने को महत्त्व दिया गया है। बौद्ध दर्शन का महाकरुणा का सिद्धांत अहिंसा भाव का उत्कृष्टतम और व्यापकतम रूप है। स्वयं बुद्ध को करुणावतार कहा गया है।
बौद्ध धर्म-दर्शन वैयक्तिक आचरण पर बहुत बल देता है। आचरण कल्याणकारी अथवा शुभ होना चाहिए। उसकी जड़ निःस्वार्थ भाव में है और वह करुणा के रूप में प्रकट होता है, जबकि अहंकार के कारण अशुभ कर्म होते हैं और अहंकार का कारण है सत्काय दृष्टि अर्थात् एक शरीरी आत्मा की भ्रांति। शुभ कर्म के लिए दस प्रकार के पापों से बचना होता है। ये हैं-हत्या, चोरी, व्यभिचार, मिथ्या भाषण, चुगली करना, गाली देना, निरर्थक वार्तालाप, लोलुपता, घृणा एवं भ्रांतिपूर्ण विचार। इसी तरह दस सद्गुणों का भी उल्लेख मिलता है-दान, आचरण की पवित्रता, धैर्य एवं सहिष्णुता, कर्मठता, ध्यान, बुद्धि, सत्साधनों का उपयोग, दृढ़ संकल्प, शक्ति एवं ज्ञान।
सामान्यतः, बौद्ध धर्म को बुद्धिवादी बताया जाता है क्योंकि यह अविद्या के नाश और सम्यक् ज्ञान को ही दुखमुक्ति का स्रोत मानता है। लेकिन, बुद्ध, साथ ही, यह भी मानते हैं कि कर्म के कारण बना होने के कारण इस शरीर का विलय केवल ज्ञान से नहीं हो सकता। डॉ० राधाकृष्णन् ने इस बारे में तेविज्जसुत का हवाला दिया है, जिसमें बुद्ध दुख से छुटकारे का उपाय बताते हुए कहते हैं कि स्वार्थपरता पर विजय पाने में ही मुक्ति है। यह उल्लेखनीय है कि सामान्यतया निर्वाण को ज्ञान प्राप्ति के बाद भी एक निष्क्रिय या बुझी हुई स्थिति माना गया है; लेकिन, डॉ० राधाकृष्णन के अनुसार बुद्ध ने इसका निषेधात्मक और सकारात्मक दोनों प्रकार का वर्णन किया है। उसे उच्चतम क्रियाशीलता का उपलक्षण बताया गया है-बस वह क्रियाशीलता की ऐसी अवस्था है जो कारण-कार्यभाव के अधीन नहीं है, क्योंकि यह उपाधिहीन स्वातंत्र्य या मोक्ष है। स्वयं बुद्ध के अनुसार निर्वाण को शून्यता मान लेना एक प्रकार का दूषित धर्मद्रोह है (संयुत्त, 3 :109)। स्पष्ट है कि निर्वाण की यह स्थिति करुणा भाव की निरंतर और व्यापक अनुभूति है, जिसमें अहंभाव का पूर्ण विलोप हो जाता है।
द्रष्टव्य : महाकरुणा, बौद्ध अहिंसा।
- नंदकिशोर आचार्य
बेंथम, जेरेमी : उपयोगितावादी दार्शनिकों में जेरेमी बेंथम (1748-1832 ई०) का विशिष्ट महत्त्व इसलिए है कि अधिकतम का अधिकतम शुभ में विश्वास रखते हुए उन्होंने उसके आधार पर व्यक्ति मनुष्य के नैतिक व्यवहार और समाज के विधिक विकास की कल्पना की उपयोगितावादी दर्शन के अनुसार जो सुखदायक है, वह अच्छा या शुभ है और पीड़ादायक बुरा या अशुभ। बेंथम कोई व्यवस्थित नैतिक विचारक नहीं हैं। उनका केंद्रीय सरोकार विधि शास्त्र से हैं और विधिक सिद्धांत और व्यवहार की दृष्टि से ही वह उपयोगितावादी दर्शन का विकास करते हैं। वह नैतिकता को अंतःप्रज्ञात्मक अर्थात् आत्मपरक मानने के बजाय उसे ठोस विधिक सिद्धांतों के आधार पर वस्तुपरक बनाना चाहते हैं। वह शुभ को सुख के साथ जोड़ते हैं और दुख को बुरे या अशुभ के साथ। सुख और दुख के, बेंथम के अनुसार, चार स्रोत हैं : (1) भौतिक या दैहिक (2) राजनीतिक (3) सामाजिक और (4) धार्मिक। इन चारों में भौतिक या दैहिक सर्वप्रमुख है। नैतिक व्यवहार के मूल्यांकन के लिए बेंथम सात आयामों का जिक्र करते हैं : (1) तीव्रता (2) अवधि (3) निश्चितता या अनिश्चितता (4) सामीप्य या दूरी (5) उत्पादकता (6) शुद्धता और (7) विस्तार। ये सभी आयाम माप्य हैं और इनके आधार पर सुख-दुख की मात्रा को मापा जा सकता है। उत्पादकता, शुद्धता और विस्तार के आयामों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बेंथम के लिए शुभ केवल वैयक्तिक नहीं है, बल्कि उसमें अन्य का-अर्थात् सामाजिकता का-समावेश है। बेंथम का विचार है कि कानून के माध्यम से ही अधिकतम सुख पाया जा सकता है, इसलिए ऐसे कानूनी सुधारों की जरूरत है, जो अधिकतम के अधिकतम सुख के लिए मनुष्य के व्यवहार को प्रेरित एवं निर्देशित कर सकें।
इसलिए बेंथम न्याय-व्यवस्था को मानवतावादी प्रतिमानों के आधार पर विकसित करना चाहते हैं। जेल-सुधारों के लिए उनके प्रयत्नों को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। बेंथम के विचार में सरकार का काम भी प्रजा के लिए अधिक सुख जुटाना है। लेकिन बेंथम क्रांतिकारी गतिविधियों को स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि सरकारें क्षणिक भावनाओं के आधार पर नहीं बनाई जा सकतीं। उन्हें एक स्पष्ट व निश्चित वैधानिक ढांचे के अंतर्गत ही बनाया जाना चाहिए। एक सुखी समाज प्रत्यक्ष राजनीतिक कारर्वाई द्वारा नहीं, बल्कि विज्ञानसम्मत कानूनी आधारों पर ही विकसित किया जा सकता है।
अपने सुख-दुख के सिद्धांत के आधार पर बेंथम न केवल प्रत्येक मनुष्य बल्कि पशुओं तक के प्रति कानूनी व्यवहार में समानता की मांग करते हुए दिखाई देते हैं। इंट्रोडक्शन टु दि प्रिंसिंपल्स ऑफ मोरल्स एंड लेजिस्लेशन में वह लिखते हैं कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब पशु भी उन अधिकारों को प्राप्त कर सकते हैं, जिन्हें अत्याचार के हाथों ने उनसे छीन लिया है। एक दिन हमें यह समझना होगा कि जैसे त्वचा का रंग भिन्न होने से कोई मनुष्य हीन नहीं हो सकता, उसी प्रकार पांवों की संख्या, दीर्घ रोमावलीयुक्त त्वचा यानी पशु-लक्षणों के आधार पर किसी भी प्राणी के साथ असमानता का व्यवहार नहीं किया जा सकता। बेंथम का मंतव्य है कि सुख-दुख की जो कसौटी मनुष्य पर लागू की जाती है, वही पशु-जगत पर भी लागू की जानी चाहिए। विवेक या भाषा के आधार पर उनके साथ असमान व्यवहार उचित नहीं है। बेंथम के अनुसार,एक पूर्ण विकसित घोड़ा या कुत्ता एक अत्यंत छोटे बच्चे की तुलना में अधिक विवेकी एवं संवाद-योग्य होता है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि पशु विवेकयुक्त है या नहीं? वह बोल सकता है या नहीं? सवाल यह है कि वह पीड़ा अनुभव करता है तो उसे भी पीड़ा से बचने का वही अधिकार होना चाहिए, जैसा मनुष्यों के लिए हम चाहते हैं।
इस प्रकार बेंथम अधिकतम के अधिकतम शुभ में मनुष्यों के साथ पशुओं को भी शामिल कर लेते हैं। अधिकतम की व्याख्या करते हुए यह स्मरणीय है कि बेंथम के अनुसार एक का तात्पर्य प्रत्येक है और कोई भी एक से अधिक नहीं है। यह बात जितनी मनुष्यों पर लागू होती है, उतनी ही पशुओं पर भी। बेंथम उन विचारकों में हैं, जिन्होंने पूरे सजीव जगत के लिए समानता और पीड़ारहित व्यवहार का दर्शन प्रतिपादित किया-यह अलग बात है कि अक्सर पशु-जगत के बारे में उनके विचारों की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है।
- नंदकिशोर आचार्य
बेरीगन, डेनियल : डेनियल बेरीगन (जन्म 9 मई, 1921 ई०) एक रोमन कैथोलिक और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के शांति कार्यकर्ता हैं। उनका जन्म मिनेसोटा के वर्जीनिया जैसे मध्य पश्चिमी कस्बे के कामगार परिवार में हुआ था। उनके पिता टाम बेरीगन आयरिश कैथोलिकों की दूसरी पीढ़ी के गर्वीले ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता थे। जब कैथोलिक चर्च के नेतृत्व ने कैथोलिकों की यूनियन में भागीदारी पर रोक लगा दी तो टाम ने चर्च जाना छोड़ दिया। लेकिन डेनियल का चर्च के प्रति आकर्षण पूरी युवावस्था के दौरान बना रहा। उन्होंने हाई स्कूल के बाद ही सीधे एक सख्त जेसुअट सेमिनरी में जाना शुरू कर दिया, जहां उन्होंने अगले बीस वर्ष धर्मशास्त्र का अध्ययन करते हुए बिताए।
डेनियल बेरीगन, उनके भाई फिलीप बेरीगन और प्रसिद्ध धर्मशास्त्री थॉमस मेर्टन ने वियतनाम युद्ध के विरूद्ध आध्यात्मिक समूहों का एक मंच गठित किया। इस मंच की ओर से उन्होंने इस युद्ध को समाप्त करने के लिए मुख्य समाचार पत्रों में अनेकों पत्र लिखे। डेनियल और उनके भाई फिलिप का एक समय युद्ध के विरोध में अहिंसक फिर भी अवैध कारर्वाईयों के कारण एफ०बी०आई० (फेरडल ब्यूरो फोर इन्वेस्टीगेशन) की दस सर्वाधिक वांछित लोगों की सूची में नाम था। डेनियल को दो बार शांति के लिए नोबल पुरस्कार हेतु नामांकित किया गया है।
डेनियल बेरीगन ने अनेक मुद्दों पर आवाज उठाई और कई प्रतिरोध आंदोलनों से जुड़े। अमेरिका द्वारा सेंट्रल अमेरिका को अस्थिर करने की कार्यवाही, 1991 ई० का खाड़ी युद्ध, 1991 ई० का कोसोवा युद्ध, अफगानिस्तान में अमेरिकी आक्रमण और 2003 ई० में ईराक पर अमेरिका द्वारा किए गए हमले का बेरीगन ने विरोध किया था। वे गर्भपात का विरोध करने वालों में भी प्रमुख रहे हैं।
बेरीगन ने लिखा है कि उपासना कर्म भेड़ के लिए ऊन की तरह है। डेनियल और फिलिप दोनों ही उस धार्मिक सक्रियतावाद से गहरे प्रभावित थे, जो यूरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान यातना शिविरों और प्रतिरोध आंदोलनों की प्रतिक्रिया में विकसित हुआ था। काम की शुरूआत में ही चर्च ने बेरीगन को फ्रांस भेज दिया। यहीं बेरीगन का नागरिक अवज्ञा के विचार और श्रमिक समाजवादी पादरियों से परिचय हुआ। उन्हें इस विचार ने प्रभावित किया कि उनका दायित्व दुनिया के सामने चर्च के काम को आगे लाना है।
1954 ई० में उन्हें जेसुइट ब्रुकलिन प्रेपेरेटरी स्कूल में धर्मशास्त्र पढ़ाने का काम मिला। 1957 ई० में उनकी नियुक्ति सायराकस केले मोयने कॉलेज के न्यू टेस्टामेंट अध्ययन विभाग में प्रोफेसर के तौर पर हो गई। इसी वर्ष उन्हें अपने कविता संकलन टाइम विदआउट नंबर के लिए लेमोंट पुरस्कार मिला। उनकी वैयक्तिक शैली धवल वस्त्र और चमकीले सफेद जूते पहने एक तेज-तर्रार पादरी की रही है। लेकिन इस शैली के पीछे चर्च का एक ऐसा कार्यकर्ता छुपा था, जो गरीबी के विरूद्ध पादरी और आम आदमी के बीच संबंधों की पारंपरिक दूरी को समाप्त करना चाहता था। रूढ़िवादी छात्र उनके बारे में खुसर-फुसर करते थे, लेकिन बाकी छात्र उनसे बहुत प्रभावित रहते थे।
1963 ई० की गर्मियों में डेनियल फ्रांस लौटे थे, लेकिन, अब यह वो पेरिस नहीं था जहां बेरीगन की ख्याति की गूंज थी। इसके बजाय बेरीगन ने साम्यवादी हंगरी, रूस और चेकोस्लाविया के पादरियों और धर्माधिकारियों से मुलाकात की। पूर्वी राष्ट्रों के चर्च सब कुछ के बावजूद लचीले थे। वे एक अल्पसंख्यक असहमति की आवाज को बचाए रखने के त्याग और संघर्ष की धुरी पर टिके थे। ये उनके आदर्शों के अनुरूप चर्च थे। जब वे 1964 ई० में अमेरिका लौटे तो इतने बदल चुके थे कि उनके मित्र ही उन्हें नहीं पहचान सके। उनका चेहरा शुष्क किंतु करूणामय था। वे बंद गले का स्वेटर, जैकेट, घुंघराले बालों और स्नेहिल मुस्कान से सबको आकर्षित कर रहे थे।
अमेरिका द्वारा वियतनाम के विरूद्ध छेड़े गए युद्ध का विरोध करने के सिलसिले में तुरंत ही डेनियल का नाम उभरकर आ गया। डेनियल और उनके भाई फिलिप पहले ईसाई पादरी थे, जिन्होंने इस युद्ध का विरोध किया था। लेकिन औरों की तरह उन्हें भी जल्दी ही पता चल गया कि सिर्फ निंदा इस कृत्य के लिए पर्याप्त नहीं है। 1964 ई० में शांतिवादी डेविड डेलिंजर के साथ मिलकर उन्होंने चेतना की घोषणा नाम से एक वक्तव्य जारी किया ताकि युवाओं को वियतनाम युद्ध का प्रतिरोध करने के लिए प्रेरित किया जा सके। एक साल बाद वियतनाम युद्ध के इस विरोध अभियान में येल चेपलिन, विलियम सोलेन, कॉफिन जूनियर और चर्च से जुड़े कई अन्य लोग भी शामिल हो गए। धीरे-धीरे डेनियल और फिलिप की भूमिका युद्ध को रुकवाने, अन्यथा लोगों के युद्ध के प्रति देशभक्ति वाले रुझान को बदलने में महत्त्वपूर्ण होती गई। फिलिप बेरीगन ने अपने तीन साथियों के साथ वाल्टीमोर, मेरीलैंड और कस्टम हाउस में युद्ध के दस्तावेजों पर रक्त छिड़क कर विरोध प्रदर्शन किया। इसके एक सप्ताह बाद, 27 अक्टूबर, 1967 ई० को पेंटागन पर प्रदर्शन करते हुए डेनियल को गिरफ्तार कर लिया गया।
बेरीगन अपने साथी बोस्टन विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर होवर्ड जिन और स्टूडेंट फोर डेमोक्रेटिक सोसायटी के संस्थापक टॉम हेडन के साथ उत्तरी वियतनाम के हनोई शहर में छोड़े गए तीन युद्ध बंदियों को लेने आए।
मई, 1968 ई० में डेनियल और फिलिप अपने सात साथियों के साथ शांतिपूर्वक मेरीलैंड के केटोंसविले स्थित सलेक्टिव सर्विस कार्यालय गए। वहां उन्होंने वियतनाम युद्ध से संबद्ध फाइलों से दस्तावेज निकालकर उन्हें रद्दी की टोकरी में भरा और इन्हें बाहर लाकर ढेर लगा लिया। फिर इन पर ज्वलनशील पदार्थ डालकर जला दिया। इस दौरान कार्यालय के कर्मचारी इन्हें भयमिश्रित विस्मय से देखते रहे। आखिर में, सभी ने हाथों में हाथ मिलाकर शांति के लिए प्रार्थना की और अपनी गिरफ्तारी का इंतजार करने लगे। इस घटना पर वक्तव्य जारी करते हुए डेनियल ने कहा कि हम कैथोलिक चर्च, अन्य कैथोलिक संस्थाओं और अमेरिकी एजेंसियों की हमारे देश के द्वारा किए जा रहे अपराध पर कायरतापूर्ण चुप्पी के लिए विरोध करते हैं।
केटोंसविले नाइन मामले की कानूनी सुनवाई की प्रकिया एक ऐसी कारर्वाई थी, जिसने एक बदनाम होते हुए युद्ध की ओर अमेरिकी जनता का ध्यान खींचा। एक ऐसा युद्ध जिसका विरोध रोमन कैथोलिक पादरियों और ननों द्वारा किया जा रहा था। डेनियल बेरीगन ने इस घटना को ऐसा नाटकीय मोड़ दिया कि इसकी ओर पूरे राष्ट्र का ध्यान आकर्षित हुआ। युद्ध के औचित्य पर कोई विचार किए बगैर कोर्ट ने बेरीगन बंधुओं को दो वर्ष के कारावास की सजा सुना दी। उन्होंने फैसले पर ऊपरी न्यायालय में अपील की और जमानत के बाद गायब हो गए। फिलिप 11 दिन बाद ही पकड़ लिया गया, लेकिन डेनियल अगले चार माह तक भूमिगत रहे। हालांकि वे यदाकदा सार्वजनिक रूप से दिखते रहे, जबकि एफ०बी०आई० देश भर में उनकी खोज में लगी थी। आखिरकार, 1970 ई० में उन्हें पकड़ लिया गया और कनेक्टीकट की डेनबरी जेल में भेज दिया गया। यहां उन्होंने अपना समय कविताएं लिखने में गुजारा। अपनी असफलता से खीझकर एफ०बी०आई० ने बेरीगन बंधुओं पर वाशिंगटन के विरूद्ध षड़यंत्र रचने और सरकारी अधिकारियों का अपहरण करने का आरोप लगाया। लेकिन 1972 ई० में न्यायालय ने ये सभी आरोप खारिज कर दिए।
फरवरी 1972 ई० में जेल से रिहा होने के बाद डेनियल ने सैन्यवाद, परमाणु अस्त्र, नस्लवाद और अन्याय के खिलाफ अपना अभियान वापस शुरू कर दिया। केटोंसविले के बाद के उनके शांति प्रयासों को प्लो-शेयर्स कहा जाता है। डेनियल और उनके भाई ने राज-सत्ता के विरूद्ध लगातार स्वतंत्रता की आवाज उठाई। आठवें दशक के उत्तरार्द्ध और नवें दशक के शुरू में उनके विरोध प्रदर्शनों में एक शस्त्र-निर्माण कंपनी में परमाणु अस्त्रों पर रक्त छिड़कना, दो क्रूज मिसाइलों को निर्माण स्थल पर बेकार करना और विनायक अस्त्रों के एक निर्माणाधीन स्थल पर अवैध प्रवेश शामिल हैं। 1970 ई० से 1995 ई० के बीच डेनियल का करीब सात वर्ष का समय विरोध प्रदर्शनों के अपराध में हुई सजा के अंतर्गत जेल के भीतर गुजरा। बाद के वर्षों में उन्हें अमेरिकी जनता और प्रेस की ज्यादा सहानुभूति हासिल हुई।
जीवनियों के विश्वकोष में डेनियल जे० बेरीगन के बारे में लिखा गया है कि उन्हें ठंड मेंखड़े पुजारी और पवित्र अपराधी की संज्ञाओं से पुकारा जाता है। उन्होंने कभी भी अनुदार कैथोलिक चर्च और अमेरिकी राज्य के सैन्यवाद का साथ नहीं दिया। उन्होंने अपना जीवन ईसाई आस्था के निष्ठावान सेवक के रूप में बिताया।
राजनीतिक गतिविधियों के कारण बेरीगन के रचना कर्म को उचित महत्त्व नहीं मिला। उन्होंने 40 वर्ष से अधिक समय तक कविताओं का सृजन किया जिनका प्रतिनिधि संकलन एंड दि राइजन ब्रेडः सेलेक्टेड पॉयम्स 1957-1995 ई० शीर्षक से 1998 ई० में छपा था। इसी वर्ष डेनियल : अंडर दि सीज ऑफ दि डिवाइन शीर्षक से ओल्ड टेस्टामेंट की व्याख्याओं पर आधारित उनके लेखों व टिप्पणियों का संकलन छपा। इसमें उन्होंने बाइबिल के संदेशों को समसामयिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया था।
डेनियल बेरीगन का जीवन साहसिक अहिंसक सामाजिक कार्यवाहियों की लंबी शृंखला की तरह रहा। उन्होंने 50 से अधिक किताबें लिखी हैं जिनमें धार्मिक और राजनीतिक मुद्दों को उठाया गया है। उनकी पुस्तक नाइट फ्लाइट टू हनोई डायरियों और कविताओं का संकलन है, जो उत्तर वियतनाम से तीन अमेरिकी बंधक पायलटों को छुड़ाने के उनके अहिंसक प्रतिरोध अभियान की वैचारिक पृष्ठभूमि को उजागर करता है। दि ट्रायल ऑफ दि केटोंसविले नाइन उपन्यास है। उनका संकलन प्रिजन पॉयम्स जेल जीवन की अनुभूतियों और विचारों की अभिव्यक्ति है। बेरीगन अभी न्यूयार्क में रह रहे हैं और उनका लेखन अभी भी जारी है। अभी उनका ज्यादा समय हॉस्पीटल में मरीजों की देखभाल-विशेषकर एड्स पीड़ितों की परिचर्या-में बीतता है।
बेरीगन ने एक बातचीत में बताया कि शांतिवादी कैथोलिक वर्कर मूवमेंट की संस्थापक डोरोथी डे ने उन्हें लगभग सभी धर्मशास्त्रियों के बारे में पढ़ाया। डोरोथी ने उनमें मानवीय दुख, गरीबी और युद्ध के बीच सहसंबंध को समझने की दृष्टि दी। डोरोथी के अनुसार ईश्वर ने दुनिया में हरेक के लिए पर्याप्त पैदा किया है, लेकिन हरेक के लिए पर्याप्त और युद्ध का कोई रिश्ता नहीं है। डोरोथी के साथ ही लेखक और संत थॉमस मेर्टन से भी डेनियल काफी प्रेरित थे। उन्होंने डेनियल को सिखाया कि प्रार्थना और विचार-विमर्श पवित्र जीवन के आधार हैं। इन्हें बनाए रखो, यही आपके उपकरण और ताकत हैं। संत मेर्टन कहा करते थे, आप अमेरिका को बचा नहीं सकते, अगर आप अपनी परंपरा और अनुशासन के प्रति निष्ठावान नहीं है।
अमेरिका में वामपंथ का इतनी जल्दी बुझ जाना अमेरिकी भावात्मक जिंदगी के उतार-चढ़ावों का ही परिचायक है। डेनियल का कहना है-किसी आध्यात्मिक आधार के बिना कोई आंदोलन अपना स्थायित्व और पहचान नहीं बना सकता।
बेरीगन चेतावनी देते हैं कि सभी साम्राज्यों का उत्थान और पतन हुआ। यह केवल सहिष्णुता, सादगी और न्याय जैसे धार्मिक और नैतिक मूल्य हैं, जिनकी महक बरकरार है और जो अभी भी प्रासंगिक हैं। अमेरिकी सत्ता का हाल का पराभव मानवीय अस्तित्व के चक्र का हिस्सा है। इसी क्रम में वे वेदना के साथ कहते हैं : विश्व में घट रही त्रासदी यह है कि हम दूसरों को नीचे धकेल रहे हैं। हमारा पतन, गरिमामय नहीं है। इसके लिए बहुत सारे लोगों को जीवन से कीमत चुकानी पड़ रही है।... मीनारों (ट्विन टावर्स) का ध्वस्त होना जितना वास्तविक है, उतना प्रतीकात्मक भी है।
- डॉ० राजाराम भादू
बोम डेविड : द्रष्टव्य : अंतर्वलित तंत्र।
बौद्ध अर्थशास्त्र : सामान्यतया धर्म को अर्थशास्त्र से अथवा अर्थशास्त्र को धर्म की दृष्टि से नहीं देखा जाता। संप्रदायबद्ध या ऐतिहासिक धर्मों का सामान्य नैतिकता से तो संबंध रहता है और आर्थिक जीवन में अचौर्य अथवा ईमानदारी की बात सभी स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन जैन और बौद्ध दोनों ऐसे धर्म हैं जो अहिंसा को केंद्रीय मूल्य के रूप में स्वीकार करने की वजह से आर्थिक जीवन पर भी अहिंसा की दृष्टि से विचार करते हैं।
बौद्ध धर्म का साधना-पक्ष या दुखनिवारण जिस अष्टांग मार्ग पर आधारित हैं, उसमें सम्यक् आजीव या सम्यक् जीविका का भी विधान है। सम्यक का तात्पर्य है नीतिपरायण (righteous) और बौद्ध धर्म की नैतिकी का आधार अहिंसा या करुणा है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि सम्यक् आजीव के लिए एक सम्यक् अर्थशास्त्र भी होना चाहिए।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और स्माल इज ब्युटिफुल के लेखक ई०एफ० शुमाकर ने सामान्य नैतिकी के आधार पर नहीं, बल्कि आधुनिक अर्थशास्त्रीय दृष्टि से सम्यक आजीव और अन्य बौद्ध सिद्धांतों के प्रकाश में उन सिद्धांतों का निरुपण करने का सार्थक प्रयास किया है, जिन्हें बौद्ध अर्थशास्त्र का आधार माना जा सकता है। शुमाकर को बर्मा में आर्थिक परामर्शदाता के रूप में काम करने का अवसर मिला था। एक बौद्ध देश होने के कारण बर्मा के बौद्ध शासन का विचार था कि आधुनिक आर्थिक विकास और बौद्ध मूल्यों के बीच समन्वय स्थापित किया जा सकता है। शुमाकर की मान्यता थी कि जिस प्रकार आधुनिक भौतिक जीवन पद्धति ने आधुनिक अर्थशास्त्र को जन्म दिया है, उसी प्रकार बौद्ध जीवन-पद्धति पर चलने के लिए बौद्ध अर्थशास्त्र का होना जरूरी है। इसलिए उन्होंने अर्थशास्त्रीय अवधारणाओं के आधार पर एक बौद्ध अर्थशास्त्र की रूपरेखा प्रस्तुत की।
अर्थशास्त्र की प्रत्येक विचारधारा उत्पादन के लिए श्रम को एक आधारभूत आवश्यकता मानती है। आधुनिक अर्थशास्त्र श्रम की जगह अधिकाधिक यंत्र को रखना चाहता है ताकि उत्पादन-खर्च घटाया जा सके। इसके विपरीत बौद्ध दृष्टि में शुमाकर के अनुसार, श्रम मनुष्य की क्षमताओं के विकास और आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन के साथ अपनी अहं भावना पर नियंत्रण करने के लिए भी है। यदि श्रम श्रमिक में ऊब या तनाव पैदा करता हो तो वह बौद्धभावना-करुणा-के प्रतिकूल होगा। श्रम केवल आमदनी का जरिया नहीं बल्कि श्रमिक के लिए कार्यजनित संतोष (work-satisfaction) का जरिया भी है, जो उसके व्यक्तित्व के सम्यक् विकास की ही प्रक्रिया है। शुमाकर अपनी बात के समर्थन में गांधीवादी भारतीय अर्थशास्त्री जे०सी० कुमारप्पा को उद्धृत करते हैं। कुमारप्पा का कहना है : यदि कार्य की प्रकृति को ठीक से समझकर काम किया जाए तो वह मनुष्य की उच्चतर सामर्थ्य को उसी प्रकार प्रभावित करता है, जिस प्रकार भोजन हमारे शरीर को।......वह उसकी स्वतंत्र इच्छा को सही दिशा देता है और पशु-प्रवृत्ति को अनुशासित करके प्रगति की ओर उन्मुख करता है। वह मनुष्य को अपने मूल्य-मानों का प्रदर्शन करने और व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उत्तम पृष्ठभूमि प्रदान करता है।
इसी तरह औद्योगीकरण के बारे में भी बौद्ध दृष्टि से विचार करते हुए शुमाकर का कहना है कि औद्योगीकरण इस तरह किया जाना चाहिए जिससे मनुष्य के कौशल और शक्ति में वृद्धि हो-यह नहीं कि वह केवल मशीन का गुलाम बनकर रह जाए। यह औद्योगीकरण मशीनों पर नहीं बल्कि औजारों पर केंद्रित होना चाहिए। इन दोनों के भेद को स्पष्ट करने के लिए शुमाकर भारतीय दार्शनिक एवं कला-मर्मज्ञ आनंद कुमार स्वामी का सहारा लेते हैं। कुमारस्वामी के अनुसार दस्तकार स्वयं ही मशीन और औजार के सूक्ष्म भेद की स्पष्ट व्याख्या कर सकता है। कालीन बुनने का करघा एक औजार है जो ताने के धागों को खींचकर रखता है ताकि दस्तकार की उंगलियां उनके चारों ओर बाना बुन सकें; इसके विपरीत, बिजली से चलने वाला करघा एक मशीन है जो मूलतः आदमी के हिस्से के काम को खुद करके संस्कृति को विनष्ट करती है। कुमारस्वामी की इस व्याख्या में संस्कृति का एक लक्षण है-आदमी अपने हिस्से का काम खुद करे-यानी श्रम।
इसका एक सीधा उपपरिणाम है कम-से-कम उपभोग से अधिक से अधिक कल्याण की प्राप्ति। शुमाकर यहां आधुनिक अर्थशास्त्र के पद सुख के बजाय बौद्ध दृष्टि से कल्याण पद का इस्तेमाल करते हैं। वह एक उदाहरण भी देते हैं कि यदि वस्त्र का प्रयोजन मनुष्य के शरीर को एक निश्चित तापमान का सुख प्रदान करना और उसके आकर्षण को बढ़ाना है तो इसे न्यूनतम प्रयत्न से हासिल करने की कोशिश की जानी चाहिए। यानी, इस पर प्रतिवर्ष कम-से-कम कपड़ा खर्च हो और कपड़ों के डिजाइन कम-से-कम मेहनत से तैयार किए जाएं। मेहनत जितनी ही कम लगेगी, उतना ही अधिक समय और शक्ति कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए बची रहेगी।... वस्त्रों के बारे में जो कुछ कहा गया है , वह अन्य सभी इंसानी जरूरतों पर भी लागू होता है। इस सारी चर्चा का निष्कर्ष यह है कि वस्तुओंका स्वामित्व और उपभोग एक लक्ष्य की पूर्ति का साधन है और अर्थशास्त्र निश्चित लक्ष्यों को अल्पतम साधनों से प्राप्त करने की विधि का व्यवस्थित रूप से अध्ययन करने वाला शास्त्र है।
इसलिए शुमाकर सादगी और अहिंसा को बौद्ध अर्थशास्त्र के नियामक सूत्रों के रूप में स्वीकार करते हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र संसाधनों के अधिकाधिक इस्तेमाल पर जोर देता है-विशाल पैमाने के उत्पादन, उपभोग, कृत्रिम आवश्यकताओं में वृद्धि और इन सबकी पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों-विशेषतया अनवकरणीय संसाधनों-का बेतहाशा इस्तेमाल, जो पारिस्थितिकीय असंतुलन का मुख्य कारण है। पर्यावरणीय हिंसा बौद्ध दृष्टि के अर्थशास्त्र को स्वीकार नहीं हो सकती-बल्कि उसकी दृष्टि में पर्यावरण-संरक्षण और पारिस्थितिकीय संतुलन के प्रयासों का आर्थिक महत्त्व किसी भी दृष्टि से उपेक्षणीय नहीं है। शुमाकर प्रसिद्ध फ्रांसीसी दार्शनिक-राजनीतिज्ञ बट्रैंड द जोवीनेल के पश्चिमी मानव के वर्णन को उद्धृत करते हैं जिसके अनुसार आज के मनुष्य को इस बात का अनुभव ही नहीं होता कि वह किसी प्राकृतिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है। इसी कारण वह यह नहीं समझ पाता कि जल और जंगल आदि पर उसका जीवन किस हद तक निर्भर है और नासमझी में उन्हें नष्ट करते चला जाता है। शुमाकर याद दिलाते हैं कि बौद्ध धर्म के अनुयायी के लिए थोड़े-थोड़े सालों बाद वृक्ष लगाना और उनकी देखभाल करना एक धार्मिक कर्तव्य है। इस कर्तव्य से आर्थिक परिणाम भी लाभदायक हैं क्योंकि, बौद्ध अर्थशास्त्री के अनुसार, इस नियम का सर्वत्र पालन करने से किसी प्रकार की विदेशी सहायता के बिना भी ऊंचे दर्जे का आर्थिक विकास संभव है। शुमाकर यहां यह स्मरण करवाना नहीं भूलते कि दक्षिण-पूर्व एशिया (और विश्व के बहुत-से दूसरे भागों) की आर्थिक अधोगति का एक मुख्य निस्संदेह कारण वृक्षों के प्रति लोगों की लापरवाही और शर्मनाक उपेक्षा ही है।
इसलिए सवाल केवल धार्मिक-आध्यात्मिक विश्वासों का नहीं है। आर्थिक कल्याण की दृष्टि से भी बौद्ध अर्थशास्त्र के सिद्धांत टिकाऊ विकास के लिए अधिक उपयोगी है। शुमाकर बौद्ध अर्थशास्त्र की दृष्टि को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि स्थानीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्थानीय संसाधनों के इस्तेमाल से किया गया उत्पादन आर्थिक जीवन की सबसे तर्कयुक्त प्रणाली है, जबकि दूर के देशों से वस्तुओं का आयात करना और उनका मूल्य चुकाने के लिए अनेक वस्तुओं का उत्पादन करके अनजान और दूरस्थ लोगों को उनका निर्यात करना नितांत अनार्थिक कार्य है जो केवल असाधारण परिस्थितियों में और छोटे पैमाने पर ही किया जाना चाहिए। बौद्ध अर्थशास्त्र की यह व्याख्या महात्मा गांधी की स्वदेशी की अवधारणा से पूरी तरह मेल खाती है और इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं लगता कि शुमाकर अपने समर्थन में कुमारप्पा और कुमारस्वामी जैसे विचारकों को उद्धृत करते हैं, जिनकी दृष्टि महात्मा गांधी से अत्यंत प्रभावित है।
अर्थशास्त्र की दृष्टि से यहां, इसके साथ, लाभ के वितरण की उस सामाजिक आर्थिकी का भी उल्लेख किया जाना चाहिए जिसका संकेत प्रसिद्ध तिब्बती बौद्ध विद्वान प्रो० सामदोंग रिनपोचे आर्य-बोधिसत्व चर्या-गोचरोपाय-विषय विकुर्वान निर्देशनाम-महायान सूत्र के आधार पर करते हैं। प्रो० रिनपोचे के अनुसार इस सूत्र की दृष्टि से संपत्ति और आय के परिवार, मालिकों-नौकरों, भूस्वामी और मजदूरों आदि के बीच विषम वितरण को सम्यक् आजीव नहीं कहा जा सकता। यह सूत्र यह भी संकेत करता है कि यदि किसी संपत्ति का पूरी तरह नुकसान हो रहा हो तो राज्य को अपने पर्यवेक्षण के साथ उसकी सहायता करनी चाहिए। रिनपोचे इसे राज्य और व्यक्तिगत स्वामित्व के बीच एक सहकारी व्यवस्था मानते हैं। अंत में, शुमाकर के शब्दों में, प्रश्न आधुनिक संवृद्धि और पारंपरिक गतिरोध के बीच चुनाव का नहीं है। प्रश्न विकास के सही मार्ग और भौतिकवादी आपाधापी और परंपरावादी गतिहीनता के बीच एक मध्यम रास्ता चुन लेने का है, जिसे संक्षेप में सम्यक् आजीव की खोज भी कहा जा सकता है।
- नंदकिशोर आचार्य
बौद्ध अहिंसा : आध्यात्मिक क्षेत्र में अहिंसा की देशना भारत वर्ष में अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही है। वेद-पूर्व तथा वैदिक काल में भी अहिंसा की चर्चा सर्वत्र मिलती है, परंतु उसके स्वरूप, क्षेत्र, प्रेरणा एवं उद्देश्यों में अंतर दिखाई देता है। बुद्ध एवं महावीर के पूर्व अहिंसा की देशना, संभवतः, इतनी व्यापक न रही हो, क्योंकि विशेष परिस्थिति एवं महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए हिंसा का अपवाद मिलता है। परंतु, बुद्ध एवं महावीर के उपदेशों में अहिंसा को अत्यंत महत्त्व देकर किसी भी परिस्थिति अथवा उद्देश्य के लिए हिंसा की अनुमति नहीं दी गई है। अतः, बौद्ध-धर्म को अहिंसाकेंद्रित अथवा करुणामय धर्म बताया गया है। इसीलिए आर्यदेव ने कहा कि बौद्ध-धर्म को अत्यंत संक्षेप में अहिंसा ही कहा जा सकता है।
हिंसा और अहिंसा की परिभाषा में विभिन्न धर्म, दर्शन एवं परंपराओं में अनेक मत-मतांतर हैं। बौद्ध धर्म के अनुसार हिंसा-अहिंसा की परिभाषा कार्य के स्वरूप के ऊपर नहीं, अपितु कार्य को प्रेरित करने वाले चित्त एवं कार्य के परिणाम पर आधारित है। तदनुसार पर-अहित की इच्छा से प्रेरित होकर किए गए ऐसे काम हिंसक माने जाते हैं जो अन्य प्राणियों को साक्षात् या परोक्ष रूप से हानि पहुंचाते अथवा हानि होने की संभावना करते हो। यदि कर्ता के मन में पर-अहित की इच्छा लेशमात्र भी न हो, परंतु उनके कार्य से अन्य को हानि हो भी जाए, उसे वस्तुतः हिंसक कार्य नहीं माना जाता। जैसे, व्यक्ति के खानपान के माध्यम से सूक्ष्म जीवाणु का प्राणातिपात हो जाए तो उसे हिंसा नहीं माना जाता। यदि व्यक्ति के चित्त में लापरवाही अथवा प्राणातिपात की इच्छा हो तो सांस लेने से हुई जीवाणु की क्षति भी हिंसक कार्य हो जाएगा। परहित की कामना से संपादित कार्य का बाह्य स्वरूप हिंसक प्रतीत होने पर भी वह कार्य हिंसा नहीं होता, यथा चिकित्सक द्वारा रोगी के प्राण बचाने के उद्देश्य से अंग-भंग करने का कार्य भी वस्तुतः अहिंसा ही होता है। इस संदर्भ में जातकों में एक ऐसी कथा भी आती है कि एक बोधिसत्त्व ने 500 व्यापारियों की जान-माल की रक्षा एवं एक खूंखार डाकू को व्यापारियों की हत्या के महापाप से बचाने के लिए महाकरुणा से प्रेरित होकर उस के प्राण ले लिए। परंतु वह प्राणातिपात राग-द्वेष-मोह से प्रेरित न होकर महाकरुणा से प्रेरित था। इसलिए वह हिंसा अथवा अकुशल कार्य नहीं हुआ। उपर्युक्त परिभाषा के अंतर्गत आने वाले हिंसक कार्यों को बिना कोई उद्देश्य अथवा परिस्थिति भेद के सर्वथा निषिद्ध किया गया है और सभी प्रकार के हिंसक कार्यों को अकुशल कार्य एवं पाप माना गया है।
बुद्ध द्वारा समस्त हिंसा को निषिद्ध करने की पृष्ठभूमि में तीन प्रकार के धार्मिक एवं दार्शनिक आधार हैं, जो व्यक्ति की आध्यात्मिक साधना के स्तर के अनुरूप हैं। बौद्ध-धर्म में प्रविष्ट विनेय जनों के दो ही उद्देश्य होते हैं। यथा-अभ्युदय एवं निःश्रेयस। उद्देश्य एवं प्रस्थान भेद से बौद्ध-धर्म में प्रविष्ट लोगों को तीन पुरुषों में विभाजित किया गया है। जो व्यक्ति पर-जन्म में अभ्युदय की कामना मात्र से धर्म का सेवन करते हैं, वह अधमपुरुष कहलाते हैं। वह व्यक्ति जो समस्त संसार के चक्र को दुःखमय जानकर उससे मुक्ति, निर्वाण अथवा अर्हत् पद को प्राप्त करने की कामना से धर्म का सेवन करते हैं, उसे मध्यमपुरुष कहते हैं। समस्त सत्त्वों को समस्त दुःखों से मुक्त कर बुद्धत्व को प्राप्त कराने हेतु स्वयं बुद्धत्व प्राप्त करने की कामना से जो धर्म का सेवन करते हैं, उन्हें उत्तमपुरुष एवं बोधिसत्त्व कहते हैं। ये तीनों पुरुष अहिंसा की साधना एक समान करते हैं, फिर भी उस साधना की प्रेरणा, लक्ष्य एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि भिन्न-भिन्न हैं।
सामान्यतः, बौद्ध-दर्शन का मूल आधार प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत हैं, जो एक सार्वभौम सिद्धांत है। इस सिद्धांत के दो मुख्य भाग हैं, कार्यकारण भाव तथा सापेक्षता भाव। कार्यकारण भाव उसे कहते हैं, जब हेतु संपन्न होने पर फल उत्पन्न होने की निश्चितता होती है और फल तथा हेतु में समरूपता होती है। यह एक अटल सिद्धांत हैं, जिसको कभी झुठलाया नहीं जा सकता। इस सिद्धांत के आधार पर कर्म और कर्मफल की व्यवस्था बनती है। सापेक्षता का सिद्धांत और भी व्यापक है, जो सभी सत्ताओं पर लागू होता है। कोई भी वस्तु पराश्रय से अथवा सापेक्षता से अपने अस्तित्व का लाभ करती है। निरपेक्ष या स्वतंत्र अस्तित्व कथमपि नहीं होता।
उपर्युक्त सिद्धांतों के आधार पर अधमपुरुष परलोक में अभ्युदय की कामना से सभी अकुशल कार्यों से दूर रहते हैं और कुशल कार्यों का संचय करते हैं, क्योंकि कुशल कार्य की वजह से अभ्युदय का फल मिलता है, न कि अकुशल कार्यों से। कुशल और अकुशल कार्य की परिभाषा, जैसे ऊपर कहा गया है, मूलतः प्रेरक चित्त के आधार पर ही बनती है। राग, द्वेष अथवा मोह (अज्ञान) तीनों में से किसी एक या तीनों से प्रेरित होकर संपादित कोई भी कार्य अकुशल कार्य होता है और हिंसात्मक होता है, जिससे पूर्णतः निवृत्त न होने पर अभ्युदय की संभावना नहीं रहती। काय, वाक् एवं चित्त को कार्य संपादन के तीन द्वार कहा जाता है। इन तीनों के माध्यम से होने वाले अकुशल कार्यों का प्रहाण किया जाता है और कुशल कार्यों का संचय किया जाता है। तीन द्वार के माध्यम से अनेक प्रकार के अकुशल कार्यों का संचय किया जाता है। तीन द्वार के माध्यम से अनेक प्रकार के अकुशल कार्यों की संभावना रहती है, फिर भी उनमें से स्थूल रूप में या व्यापक रूप में दस प्रकार हो सकते हैं। जिन्हें बुद्धवचनों एवं शास्त्रों में दश अकुशल कर्म कहा गया है। काय के माध्यम से प्राणातिपात, अदत्तादान, काममिथ्याचार। वाक् के माध्यम से मृषावाद, पैशुन्य, पुरुषवचन और संभिन्नप्रलाप। चित्त के माध्यम से अभिध्या, व्यापाद और मिथ्यादृष्टि। इस प्रकार अहिंसा के अभ्यास को सुदीर्घ एवं सुदृढ़ करने के लिए गृहस्थ लोग भी पंचशील, आठशील आदि लेते रहते हैं। परंतु मानसिक अकुशल से निवृत्त रहना अत्यंत कठिन होने के कारण उसे शील के रूप में नहीं लिया जाता। यदि व्यक्ति समस्त हिंसक कार्यों से निवृत्त रहा तो संपूर्ण अकुशल कार्यों से निवृत्त हो जाता है। अतः हिंसक कार्य अथवा अकुशल कार्य पर्यायवाची शब्द जैसे हैं। अधमपुरुषों का उद्देश्य अभ्युदय प्राप्त करना है, जिसके लिए अकुशल कार्यों का प्रहाण एवं कुशल कार्यों का संचय करना होता है। कर्म और फल के सिद्धांत के अनुसार अकुशल कर्म के संचय से दुर्गति और कुशल कर्म के संचय से अभ्युदय प्राप्त होता है। इस सिद्धांत के आधार पर वे अहिंसक बने रहने का यथासंभव प्रयास करते हैं। अतः, अधमपुरुष के अहिंसक आचरण का मूल उद्देश्य अभ्युदय प्राप्त करना है। प्रेरणा अभ्युदय की आकांक्षा है। यह अहिंसक साधना स्वार्थ-केंद्रित एवं सांसारिक तृष्णा से युक्त है, इसलिए ऐसे चित्तवृत्ति वाले व्यक्ति को लघु या अधम पुरुष के रूप में माना गया है। अधमपुरुष स्वार्थी है। वह अपने अभ्युदय की प्राप्ति में बाधा नहीं चाहते। अतः, अकुशल कार्य को संचय नहीं करते। इसलिए हिंसा से निवृत रहते हैं। अन्यों के प्रति करुणा रहते हुए भी वह अहिंसा की साधना करुणावश होकर नहीं, अपितु अपने भविष्य की सुखकामनावश करते हैं।
मध्यमपुरुषों का यह विचार रहता है कि अकुशल कार्यों से निवृत्ति एवं कुशल कार्यों के संचय से परलोक में अभ्युदय प्राप्त होने पर भी वह स्थायी नहीं है, अनित्य है। जब कुशल कर्मों का क्षय होगा, तब पुनः दुर्गति प्राप्त होगी। वैसे सुगति में भी जन्म रोग, बुढ़ापा, मृत्यु आदि अनेक दुःखों से ग्रस्त रहता है। जब तक जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं होगी, तब तक दुःखों का निवारण संभव नहीं है। कर्म और क्लेश के बंधन से इस भवसागर में सुगति-दुर्गति जैसे भी हो, वह दुःखमय ही है। इन दुःखों का स्थायी निराकरण होना आवश्यक है। इसके लिए कर्म का बंधन तोड़ना होगा, जिसके लिए क्लेशों का समूल प्रहाण करना अनिवार्य है। अविद्या से संस्कार आदि द्वादश प्रतीत्यसमुत्पाद का चक्र प्रारंभ होता है और इस चक्र को समाप्त करने हेतु अविद्या का प्रहाण करना होता है, इसके लिए यथार्थ को साक्षात् देखने वाली प्रज्ञा को उत्पन्न करना और प्रज्ञा के उदय हेतु चित्त को कार्ययोग्य बनाने के लिए समाधि की अनिवार्यता है। समाधि को प्राप्त करने के लिए शील का पालन करना होता है, इसके लिए कायिक एवं वाचिक हिंसा से निवृति आवश्यक है। शील, समाधि और प्रज्ञा को बौद्ध वांग्मय में त्रिशिक्षा कहते हैं, जो दुःख निवृत्ति या निर्वाण का मार्ग है। शील के माध्यम से कायिक एवं वाचिक हिंसा, समाधि के माध्यम से मानसिक हिंसा और प्रज्ञा के माध्यम से समस्त हिंसा का मूलबीज अविद्या का प्रहाण करना होता है, जिससे कर्म और क्लेश के बंधन को समाप्त करके निर्वाण प्राप्त होता है। निर्वाण उन्मुख जो मध्यमपुरुष हैं, उनका अहिंसा के अनुशीलन का उद्देश्य है निर्वाण प्राप्त करना। वे निर्वाण अभिलाषी चित्त से प्रेरित होकर हिंसा से निवृत्त रहते हैं ताकि कर्म एवं राग, द्वेष, मोह आदि क्लेशों की वृद्धि न हो। इस चित्तवृत्ति से अहिंसा की साधना करते हैं। यह भी स्वार्थकेंद्रित अहिंसा ही होती है। फिर भी अर्हत्त्व के मार्ग में मैत्री, करुणा, मुदिता एवं उपेक्षा की भावनाओं का अभ्यास किया जाता है। इसलिए उनकी अहिंसा की प्रेरणा में मैत्री एवं करुणा की भावना रहती है। फिर भी, मूलतः स्वविमुक्ति का उद्देश्य होने के कारण उसे स्वार्थरहित नहीं माना जाता।
अधम या मध्यमपुरुष की अहिंसा की साधना सहज नहीं होती, अपितु यत्नपर्वूक साधना करनी पड़ती है, क्योंकि उन्हें हिंसक कार्यों के दुष्परिणाम से भयभीत होकर उससे स्वयं को बचाने के लिए हिंसक कार्य से दूर रहने की चेष्टा यत्नपर्वूक करना पड़ता है। उत्तमपुरुष मैत्री और करुणा की भावना के प्रबल साधक होते है, इस कारण उनका चित्त करुणामय होता है। सभी सत्त्वों को अत्यंत कारुणिक भावना से देखते हैं, इसलिए उनमें किसी के भी प्रति हिंसक कार्य करने का विचार ही उत्पन्न नहीं होता। समस्त सत्त्वों के प्रति मैत्री की भावना स्वतः स्फुटित होती है। अतः वह स्वयं को अकुशल कार्यों से बचाने के लिए अथवा कुशल कार्यों का संचय के उद्देश्य से ही अहिंसक नहीं होते। उनकी अहिंसा परकेंद्रित है। करुणा की भावना से अन्यों के प्रति हिंसा न होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
उत्तमपुरुष जो न केवल क्लेश आवरण, अपितु ज्ञेय आवरण का भी समूल प्रहाण करके सर्वज्ञज्ञान बुद्धत्व प्राप्त करने के अभिलाषी होते हैं, वे बोधिसत्त्व की चर्या में असंख्य कल्पों तक संलग्न रहते हैं। उनकी साधना मूलतः पारमिताओं की साधना हैं, जो समस्त सत्त्वों को समता के आधार पर देखते हैं। जैसे सभी सत्त्व सुख चाहते हैं और दुःख नहीं चाहते। सभी सत्त्व बुद्धत्व प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं। इसलिए सब समान हैं। स्व और पर में कोई अंतर नहीं है। इसके अतिरिक्त सभी सत्त्व स्वयं के लिए इस जन्म की मां जैसे ही हैं, सबका ऋण अपने ऊपर है। जब तक सभी सत्त्वों के ऋण से उऋण न हों, तब तक व्यक्ति मातृ ऋण से भी उऋण नहीं हो सकता। सभी सत्त्वों के ऋण को देखते हुए सबका दुःख हटाना और सुख पहुंचाना अपना कर्तव्य मानते हैं। इसके अतिरिक्त बुद्धत्व प्राप्त करने के लिए दानपारमिता आदि सभी पारमिताओं की साधना समस्त सत्त्वों को लक्षित करके की जा सकती है। इसलिए बुद्धमार्ग में सब गुरुतुल्य है। उनके प्रति परम आदर की भावना होती है। इसलिए किसी के प्रति भी हिंसा अपनी मां या गुरु की हिंसा जैसी ही मानते हैं। उत्तमपुरुष हिंसा से निवृत्तिमात्र पर्याप्त नहीं मानते, अपितु समस्त सत्त्वों का हित उत्पादन करना अपना कर्तव्य मानते हैं। बिना जगत् का हित साधे अहिंसा का अनुशीलन परिपूर्ण नहीं होता। अतः, उत्तमपुरुष सत्त्वों के हितमात्र के लिए बुद्धत्व प्राप्त करने के उद्देश्य से समस्त सत्त्वों के प्रति मैत्री और करुणा की प्रेरणा से अहिंसा की साधन करते हैं। इसलिए, वह पूर्णतः स्वार्थरहित अहिंसा की साधना है। बुद्धत्व प्राप्त करना उनका अंतिम लक्ष्य नहीं है। संपूर्ण जगत् का हित संपादन करना ही उनका लक्ष्य है। उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दशबल आदि ज्ञान, करुणा एवं बल से संपन्न बुद्धत्व एक साधन के रूप में प्राप्त करने हेतु प्रयासरत रहते हैं।
इस प्रकार बौद्ध अनुयायियों के अपने-अपने लक्ष्य एवं चित्तवृत्ति के भेद से अहिंसा की साधना का लक्ष्य एवं प्रेरणा में भिन्नता रहती है। परंतु कर्म-कर्मफल का सिद्धांत अहिंसा के आचरण का दार्शनिक आधार है। कर्म-कर्मफल का सिद्धांत प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत के आधार पर ही बनता है। अतः, संक्षेप में भगवान बुद्ध द्वारा उपदिष्ट प्रतीत्यसमुत्पाद का दर्शन बौद्धों की अहिंसा का आधार है, ऐसा कहा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त एक और दार्शनिक दृष्टिकोण है। वह यह है कि अधिकांश हिंसा द्वेष के कारण होती है। प्रतिपक्ष के प्रति द्वेष प्रबल होने पर हिंसक कार्य का संपादन होता है। परंतु, तथागत बुद्ध ने इस तथ्य को उजागर किया है कि द्वेष से द्वेष का शमन नहीं किया जा सकता; अपितु, मैत्री की भावना से ही वह संभव है। इस अटल सिद्धांत को देखते हुए कोई भी व्यक्ति यदि हिंसा का कार्य करते हैं तो वह अर्थहीन सिद्ध होता है।
- प्रो० सामदोंग रिनपोचे
बौद्ध अहिंसा : थेरवादी परंपरा : शील, समाधि और प्रज्ञा बुद्धों की तीन शिक्षा हैं। प्रज्ञावान शील पर प्रतिष्ठित होकर चित्त और प्रज्ञा की भावना करते हुए जटा को काट सकता है, अन्य नहीं। फिर, कुशल धर्मों का आरंभ क्या है? सुविशुद्ध शील। इस पर से पंचशील प्रसिद्ध है। थेरवादी परंपरा में प्रारंभ में ही त्रिशरण और पंचशील ग्रहण करते हैं। पंचशील गृहस्थों का नित्य शील है। पूर्णमासी और अमावस्या जैसे विशेष अवसरों पर वे अष्टशील का पालन करते हैं। दस शील श्रामणेर शील है। प्रातिमोक्ष शील भिक्षु शील है। इसके अंतर्गत 227 नियम हैं। विनय में इन नियमों की व्यवस्था है। पंचशील प्रथम स्थान पाणातिपात से विरत रहने का है। प्राणघात से, जीवहिंसा से विरत रहने का शील प्रथम है।
विशुद्धि मार्ग में प्रथम परिच्छेद शील-निर्देश है। इसका विस्तृत वर्णन करने के लिए शील के संबंध में ये प्रश्न रखे गए हैं- शील क्या है? किस अर्थ में शील है? इसके लक्षण, रस, प्रत्युपस्थान, पदस्थान क्या हैं? शील का गुण क्या है? यह शील कितने प्रकार का है? इसका मल क्या है? इसकी विशुद्धि क्या है?
इन प्रश्नों के उत्तर के लिए विशुद्धि मार्ग देखने जैसा है। यहां दिया गया उत्तर आचार्य बुद्धघोष कृत विशुद्धि मार्ग (अनुवादक- भिक्षु धर्मरहित, वाराणसी 1956 ई०) के अनुसार है। खेद है कि इस ग्रंथ का भोट भाषा में अनुवाद नहीं हुआ। इसलिए यह लाहुल सहित हिमालय की बौद्ध परंपरा में परिचित नहीं। जो हो, प्रस्तुत प्रश्न है कि जीव हिंसा से विरत रहने का क्या शील है? चेतना शील है, चैतसिक शील है, संवर शील है, अनुल्लंघनशील है। अर्थात्, जीव हिंसा आदि से विरत रहने वाले या व्रत पूर्ण करने वाले की चेतना शील है। जीव-हिंसा आदि से विरत रहने वाले की विरति चैतसिक शील है। और भी, जीव-हिंसा आदि करने वाले की सात (कुशल) कर्मपथ की चेतना चेतनाशील है। लोभ (अभिध्या) को त्यागकर, लोभरहित चित्त से विहरता है आदि प्रकार से कहे गये, लोभ से रहित होना, प्रतिहिंसा न करना और सम्यक् दृष्टि चैतसिक शील है। संवर शील : संवर पांच प्रकार का होता है-प्रातिमोक्ष संवर, स्मृति संवर, ज्ञान संवर, क्षांति संवर और वीर्य संवर। अर्थात् प्रातिमोक्ष के नियमों के पालन द्वारा संयम कायम रखना, सही स्मृति द्वारा इंद्रिय-संयम रखना, प्रज्ञा द्वारा संयम रखना सहनशीलता द्वारा संयम रखना और प्रयत्न द्वारा संयम रखना। अंत में अवीतिक्कम या अनुल्लंघन शील है ग्रहण किए हुए शील का काय और वाणी द्वारा उल्लंघन न करना।
यह जीव हिंसा आदि से विरत रहने वाला शील क्या है? इस प्रश्न का उत्तर है। फिर प्रश्न है किस अर्थ में शील है। शीलन (आधार, ठहराव) के अर्थ में शील होता है। यह शील क्या है? काय-कर्म आदि का संयम, सुशीलता, व्यवस्था अथवा टिकने के लिए आधार की भांति कुशल धर्मों को धारण करना इसका अर्थ है। अर्थात् एक तो शील के पालन से मनुष्य के क्रिया-कलाप में, जीवन में व्यवस्था आती है। दूसरा अर्थ है आधार या प्रतिष्ठा। समाधि आदि शील पर ही प्रतिष्ठित है, टिका हुआ है।
हिंसा, अब्रह्मचर्य, मृषावाद आदि से बचने के लिए कोई आधार चाहिए। नहीं तो संसार में प्रवाह-पतित होने का भय है। शील यह आधार देता है।
दूसरे आचार्य शिरार्थ (शिर के समान उत्तम) शीलार्थ, शीतलार्थ, शीलार्थ है, आदि प्रकार से भी अर्थ करते हैं। जैसे सिर के कटने पर आदमी मर जाता है वैसे ही शील के टूटने पर सारा गुण रूपी शरीर नष्ट हो जाता है, इसलिए शील शिरार्थ है। फिर, जीव हिंसा आदि से विरत रहने से शीतलता, अद्वेष, अदाहकता आती है। शायद इस अर्थ में शील शीतलार्थ है।
इसका लक्षण आदि क्या है? शीलन (आधार) ही उसका लक्षण है। दुःशील का नाश करना और अनवज्ज, निर्दोष गुण वाला होना रस है। निषेध रूप में दुःशील का विध्वंस और विधायक रूप में अनवद्य गुण का स्थापन।
इस प्रकार अहिंसा एक ओर जीवहिंसा से विरत रहना है, वेरमणी शील है। किंतु, यह मात्र निषेधात्मक नहीं है। इसका विधिपक्ष भी है। प्राणी मात्र के प्रति मैत्री, करुणा इसका विधायक पक्ष है। शायद थेरवादी परंपरा में इसके निषेध पर, वेरमणी शील पर, विरति पर कुछ ज्यादा बल है। और महायान परंपरा में इसके विधायक पक्ष करुणा पर कुछ ज्यादा। इस पर कुछ अंतिम रूप से कहना कठिन है। यह बला-बल विचारणीय है। इतना तो निर्विवाद है कि महायान में प्रज्ञा-उपाय युगनद्ध साधना है। प्रज्ञा शून्यता का, निःस्वभावता का ज्ञान है, और करुणा आदि उपाय है। इस प्रकार प्रज्ञा और करुणा, या शून्यता और करुणा युगनद्ध है। फिर, जीव हिंसा आदि से विरत रहने वाले शील का गुण क्या है? पश्चाताप न करना आदि शील के अनेक गुण हैं। कहा है- आनंद! सुंदर शील पश्चाताप न करने के लिए है, पश्चाताप न करना इनका गुण है। और भी कहा है-गृहपतियों, शीलवान के शील पालन करने के पांच गुण हैं। कौन से पांच?
(1) यहां गृहपतियों, शीलवान, शील युक्त प्रमाद में न पड़ने के कारण बहुत-सी धन संपत्ति को प्राप्त करता है। यह शीलवान के शील पालन करने का पहला गुण है।
(2) और फिर गृहपतियों, शीलपालन करने वाले, शीलवान की ख्याति, नेकनामी फैलती है। यह शीलवान के शील पालन करने का दूसरा गुण है।
(3) और फिर गृहपतियों, शील पालन करने वाला शीलवान जिस-जिस सभा में जाता है, चाहे क्षत्रियों की सभा हो, चाहे ब्राह्मणों की सभा हो, चाहे वैश्यों की सभा हो, चाहे श्रमणों की सभा हो, वह निर्भीक, निःसंकोच जाता है। यह शीलवान के शील पालन करने का तीसरा गुण है।
(4) और फिर गृहपतियों, शील पालन करने वाला, शीलवान बिना बेहोशी को प्राप्त किए हुए मरता है। यह शीलवान के शील पालने करने का चौथा गुण है।
(5) और फिर गृहपतियों, शील पालन करने वाला, शीलवान शरीर को छोड़ मरने के बाद सुगति को प्राप्त हो स्वर्ग में उत्पन्न होता है। यह शीलवान के शील पालन करने का पांचवां गुण है। (दीघनिकाय 2.3.1)
यह पांचवां गुण मरने के बाद सुगति और स्वर्ग की प्राप्ति बौद्ध परंपरा में मान्य है। विश्वास-प्राप्त है। किंतु आज-कल मरने के बाद स्वर्ग-नरक की कल्पना कुछ आलोचकों को मान्य नहीं। जो भी हो, मरने के बाद सुगति न हो, तो भी जिंदा रहते तो जीवहिंसा, अब्रह्मचर्य, झूठ आदि से बचने का आचार तो पालन करने जैसा है। इसका परिणाम जीते जी या मरने के बाद अच्छा हो, या बुरा, या ऐसा-वैसा, यह उतने महत्त्व का नहीं। यह अहिंसा साधन-मात्र नहीं, अपने आप में साध्य भी है। शायद, साध्य-साधन दोनों नहीं है, कोटियां नहीं है, और वह है। जो कुछ हो, जीव हिंसा से विरत रहने के शील पालन के जो शेष गुण गृहस्थों के लिए कहे गए हैं, वे तो सीधे और साफ तौर पर गुण हैं : पश्चाताप न करना, धन-संपत्ति को प्राप्त करना, ख्याति फैलना, सभा में निःसंकोच जाना, होश में मरना। इस अंतिम पर भी कोई शंका कर सकता है कि क्या इसका परीक्षण किया गया है कि शीलवान् होश में ही मरता है, बेहोश नहीं होता। आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि तो शीलवान गैर-शीलवान के मरने के समय अनेक निश्चित माप के आधार पर, दीर्घकाल के प्रयोग के बाद इसकी पुष्टि या खंडन कर सकती है, अन्यथा नहीं। किंतु बौद्ध परंपरा में तो यह बुद्ध वचन है इसलिए ही प्रमाण न भी माना जाए, फिर भी चूंकि बुद्ध वचन असत्य नहीं होते इसलिए इसको भी सत्य मानने की परंपरा है।
जो हो, जीव हिंसा आदि से विरत रहने का शील क्या है? किस अर्थ में शील है? शील का गुण क्या है? इन प्रश्नों पर इतना बस है।
शील के माहात्म्य के बारे में और भी कहा गया है-गंगा, यमुना, सरयू या सरस्वती, अचिरवती, मही या महानदी, जैसी नदियां जिस मल को धोकर साफ नहीं कर सकती, प्राणियों का वह मल शील के जल से धुलकर साफ हो जाता है। नदियों की यह सूची पूरी नहीं। लाहुल में अगर यह गाथा कही सुनी जाए तो इसमें चंद्र और भागा और फिर तांदी के बाद चंद्रभागा को जोड़कर कहना ठीक होगा। चंद्रभागा का जल भी जिस मल को साफ नहीं कर सकता उसे शील का जल साफ करता है। और भी कि मालती आदि फूलों की गंध तो अनुवात में ही, जिधर बयार बहती है उधर ही जाती है किंतु शील की गंध केवल अनुवात में नहीं प्रतिवात में, विपरीत दिशा में भी बहती है।
इस प्रकार शील आधार है, अकुशल से विपरीत का आरंभ है, इत्यादि। यह कई प्रकार का है। विशुद्धि मार्ग में शीलों का विभाजन संख्यानुसार एक से लेकर पांच तक किया गया है। इन पांच के भी अनेक विभाजन है। डॉ० भिक्षु धर्मरत्न, विशुद्धि मार्ग की रूपरेखा (महाबोधि सभा, सारनाथ, वाराणसी, 1973 ई०, पृ० 18) की सूचना है कि पटिसंभिदा मग्ग में इन शीलों की जो व्याख्या आ गई है उसे विसुद्धिमग्ग में भी दिया गया है। यह व्याख्या दस अकुशल कर्म-पंथों, ध्यानों में अभिभूत अकुशलों, अठारह महाविपश्यनाओं के अभ्यास से निष्कासित मिथ्या धारणाओं और मार्ग-प्राप्ति के विनष्ट बंधनों के संदर्भ में की गई है। प्रत्येक की व्याख्या पांच प्रकार की की गई है, जो कि पंचशील नाम से अभिहित है। उदाहरणार्थ प्रथम कर्मपथ के संदर्भ में यह व्याख्या आई है-प्राणघात (पाणातिपात) के सिलसिले में उसे त्यागना शील है, उससे विरत रहना शील है, तत्संबंधी चेतना शील है, संयम शील है, और उस नियम का उल्लंघन नहीं करना शील है। इस प्रकार प्रत्येक अवस्था की व्याख्या शील के पांच पहलुओं (प्रहाण शील, वेरमणी शील, चेतना शील, संवर शील, और अवीतिक्रम शील) के अनुसार की गई है। अब अंतिम प्रश्न है-शील का मल क्या है? और इसकी शुद्धि कैसे होती है। इसका उत्तर विशुद्धि मार्ग के मूल ग्रंथ से न देकर संक्षेप में विशुद्धि मार्ग की रूपरेखा के अनुसार इस प्रकार है : जब शील संबंधी नियमों का उल्लंघन होता है तब उसकी शुद्धि नहीं रह जाती। यह उल्लंघन छोटा या बड़ा हो सकता है।
जब व्यतिक्रम के बिना शिक्षापदों (शील संबंधी नियमों) का पालन होता है तब शील की शुद्धि बनी रहती है। यह दो ढंग से हो सकता है-पहला है व्यतिक्रम के दुष्परिणामों को समझना और दूसरा है शील पालन के सुपरिणामों को समझना।
संक्षेप में, जो शील का पालन करेगा वह अकुशल कर्मों से बचेगा और कुशल कर्मों की ओर जाएगा। उसका चित्त शांत हो समाधि की ओर होगा।
- प्रो० कृष्णनाथ
बौद्ध अहिंसा : महायान परंपरा : महायान परंपरा में अहिंसा का स्थान महत्त्व का है। आर्यदेव ने चतुःशतक (12.23) में कहा है : धर्मं समासतोऽहिंसा वर्णयंति तथागताः। तथागत ने समासतः, संक्षेपतः धर्म को अहिंसा कहा है।
इस पर चंद्रकीर्ति की वृत्ति है : धर्मं समासतोऽहिंसा वर्णयंति तथागताः। हिंसा परापकारापन्नत्वात्सत्त्वस्यापकारचिंता। तत्स-मुत्क्षितं कायकर्म वाक्कर्म च। अहिंसा तद्वि-परीतमुखेन दश कुशलकर्मपथाः। यदीषदपि परोपकारकं तत्सर्वमप्यहिंसांतः संगृहीतम्। तथागता हि धर्मं समासतः संक्षेपतः सैवाहिंसेति प्रतिपादयंति।
अर्थात् तथागत ने धर्म को समासतः संक्षेपतः अहिंसा कहा है। हिंसा पर-अपकार से उपजी सत्त्वों के अपकार की चिंता है और उससे हुआ कायकर्म और वाक्कर्म, शरीर और वाणी की चेष्टा है। इसके विपरीत अहिंसा दश कुशल कर्मपथ है। जो ईषत्, थोड़ा भी परोपकार है, वह सब अहिंसा में आता है। तथागत ने समासतः संक्षेपतः धर्म का प्रतिपादन अहिंसा के रूप में किया है।
अब इस पर कुछ और टिप्पणी आवश्यक नहीं।
महायान में भी भगवान् बुद्ध के समस्त उपदेशों का सार तीन शिक्षाएं ही हैं : अधिशील शिक्षा, अधिसमाधि शिक्षा और अधिप्रज्ञा शिक्षा। अधिशील आदि में अधि उपसर्ग अतिरेक (अधिक) या उत्कृष्ट अर्थ में है। अतः अधिशील का अर्थ है विशिष्टशील या उत्कृष्टशील। इन तीन शिक्षाओं में थेरवाद की ही भांति, यहां भी अधिशील शिक्षा पहले कही गई है। जैसे पृथ्वी सभी चराचर जगत का आश्रय है, वैसे ही शील गुणों का आधार है। यह समस्त कुशल धर्मों का मूल है।
आचार्य चंद्रकीर्ति ने अहिंसा की व्याख्या करते हुए इसे दश कुशलकर्मपथ कहा है। यह कुशल कर्मपथ क्या है? 10 अकुशल से विरति है। परमपावन दलाई लामा श्री तेनजिन ग्यात्सो के बौद्ध सिद्धांत सार (तिब्बती मूल से अनूदित, 1964, पृष्ठ 28) के अनुसार 10 अकुशल विरति शील के आधार पर शील के अनेक प्रकार होते हैं। किंतु संक्षेप में शील तीन प्रकार का होता है-प्रातिमोक्ष शील, बोधिसत्व शील एवं गुह्यतंत्र शील। सभी प्रकार के शीलों का इन्हीं तीनों में समावेश हो जाता है। यह शील जब प्रतिष्ठित हो जाता है तब पुद्गल अकुशल करने का अवसर उपस्थित होने पर अर्थात् अकुशल करने के क्षण में अपने को उससे बचा लेता है। अतः इसे अकुशल विरतिशील कहते हैं।
ये क्या हैं? ये 10 अकुशल तीन भागों में बांटे जा सकते हैं, कायिक, वाचिक एवं मानसिक। कायिक अकुशल तीन हैं, जैसे- (1) प्राणातिपात (प्राणी की हिंसा), (2) अदत्तादान (चोरी एवं) (3)काम मिथ्याचार (काम व्यभिचार)।
वाचिक अकुशल चार हैं- (1) मृषावाद (झूठ बोलना), (2) पैशुन्य (चुगली करना), (3)पारुष्य (कठोर वचन), तथा (4) संभिन्न-प्रलाप (व्यर्थ बकवास करना)।
मानसिक अकुशल भी तीन हैं-(1) अभिध्या, दूसरे की संपत्ति को हड़पने की इच्छा है। यह खास प्रकार का लोभ है। (2) व्यापाद, दूसरे के अहित की कामना है। यह द्वेष का एक प्रकार है। (3)मिथ्या दृष्टि, यह मोह, अज्ञान है। मिथ्या दृष्टि अनेक प्रकार की होती है।
बौद्ध सिद्धांत सार के अनुसार ये अकुशल कर्म कर्मपथ भी होते हैं और नहीं भी होते।... कोई कर्म कर्मपथ हुआ कि नहीं? यह जानने के लिए उसके अंग पूर्ण होते हैं तो वह कर्म कर्मपथ होता है। उपर्यक्त 10 अकुशलों में से प्रत्येक के 5 अंग होते हैं....
उदाहरण के लिए, प्राणातिपात (हिंसा) के 5 अंग हैं :
(1) वस्तु-अपने से भिन्न संतान वाला प्राणी। अर्थात् हिंसा की पूर्ति के लिए अपने से भिन्न प्राणी का होना आवश्यक है। यह पहला अंग है।
(2) चेतना-यह ज्ञान होना चाहिए कि यह प्राणी है और यह ज्ञान भ्रांति से रहित होना चाहिए।
(3) प्रयोग-विष, शस्त्र या अभिचार (मंत्र) आदि द्वारा स्वयं मारना या दूसरों से मरवाना।
(4) क्लेश-इस हिंसा कर्म की पूर्ति के लिए चित्त में क्लेशों का होना आवश्यक है। सामान्य रूप से यहां लोभ, द्वेष और मोह ये तीन क्लेश होते हैं, किंतु उनमें से द्वेष का होना परमावश्यक है।
(5) निष्पत्ति-वध करने वाले बधक की मृत्यु से पूर्व बध्य (जिसका वध किया जा रहा है) सत्त्व (प्राणी) का मरना आवश्यक है।
इन पांच अंगों के सम्पन्न होने पर ही यह प्राणातिपात कर्म पूर्ण होता है अर्थात् वह कर्मपथ होता है। इनमें से कोई एक अंग भी यदि न होगा तो यह कर्म कर्मपथ न होकर कायदुश्चरित मात्र होगा। इसी प्रकार अन्य अकुशल भी अपने-अपने अंगों के पूर्ण होने पर ही कर्मपथ होते हैं, अन्यथा दुश्चरित-मात्र होते हैं।....
प्राणातिपात इत्यादि दश अकुशल कर्मपथ हैं। इसके विपरीत दश कुशल कर्मपथ हैं। फिर, प्राणातिपात अकुशल कर्म होता क्यों है?
(1) कभी यह लोभ से होता है। जैसे मांस खाने की तृष्णा से बकरा काटा जाता है।
(2) कभी यह द्वेष से होता है। किसी से वैर-वश होता है।
(3)कभी यह मिथ्या दृष्टि के कारण होता है, जैसे यज्ञ में पशु-बलि।
इन सब प्राणातिपातों में गुरु, माता, पिता, अर्हत्, श्रमण या ब्राह्मण की हत्या गुरुतर अपराध है।
- प्रो० कृष्णनाथ
बौद्ध अहिंसा-साधन : अन्य धर्मों में भी कम-बेश अहिंसा परम धर्म है। किंतु जगत और जीवन में हिंसा सनातन है। जीवन धारण के लिए प्राणी-हत्या अपरिहार्य है। तब अहिंसा साधन कैसे हो? यह प्रश्न है।
हिंसा सनातन है। इसलिए वह धर्म नहीं। धर्म तो अहिंसा ही है। बल्कि इसीलिए अहिंसा के संवर, व्रत की आवश्यकता है। शायद लाख-लाख योनियों में लाखों बरस से प्राणी में राग, द्वेष, मोह है। इसलिए इनसे बचने के लिए, विरति के लिए कुछ रोक, टेक की जरूरत है।
फिर, देह धारण के लिए हिंसा अवश्यंभावी है, इसलिए श्रेष्ठ जन भविष्य में देह धारण करने से बचते हैं। गृहकारक को देख लेते हैं तो फिर-फिर घर नहीं बनाते। उसके शिखर श्रृंखला टूट जाते हैं। इस आवागमन के चक्र से परे चले जाते हैं। निर्वाण या मोक्ष में मानते हैं। यह अहिंसा का प्रथम साधन है।
यथासंभव स्थावर तथा जंगम प्राणियों की अनावश्यक हिंसा से विरत होना द्वितीय साधन है।
प्राणियों में भी ऊंचे प्राणियों को दुःख न देना तृतीय अहिंसा-साधन है। शायद इसी दृष्टि से अन्यत्र योगसूत्र के व्यास भाष्य में हिंसा मृदु, मध्य और अधिमात्र तीन प्रकार की कही गई है। या बौद्ध परंपरा में माता, पिता, गुरु, अर्हत् आदि की हिंसा का पाप गुरुतर है।
प्राण प्राणी-मात्र को प्रिय है। जैसे अपना प्राण अपने को, वैसे ही दूसरे का प्राण दूसरे को प्रिय है, इसलिए प्राणघात न करे, न कराए, न उसका अनुमोदन करे, ऐसी व्यवस्था है। केवल प्राणी पीड़ा त्यागना ही अहिंसा नहीं है, बल्कि प्राणियों के प्रति करुणा, मैत्री आदि का पोषण और संवर्धन भी है।
अन्यत्र हिंसा में भी तारतम्य देखा गया है। माता, पिता, गुरु इत्यादि का वध करना और दुश्मन का वध करना एक जैसा नहीं है। ऐसे ही आदमियों को मारना और खटमल मारना या तिनका तोड़ना समान हिंसा नहीं है। किंतु महायान परंपरा में तो प्राणी-मात्र में से पता नहीं कौन, कब, किसकी माता, पिता आदि रहा है। इसलिए जैसे खटमल को मारना भी उतनी ही बड़ी हिंसा है। जहां तक निभ जाए वहां तक तो यह ठीक है। लेकिन, जब चुनाव करना पड़े खटमल और आदमी में तो चुनाव स्पष्ट है। फिर भी, बौद्ध धर्म की दृष्टि से हिंसा में ऐसा तारतम्य, क्रम या ऊंच-नीच मान्य है? या नहीं? सो विचारणीय है।
फिर, प्राण-घात से विरत रहने का शील जैसे आत्यंतिक है। पतंजलि रचित योगसूत्र में अहिंसा महाव्रत है। महाव्रत वह है जो जाति, देश, काल, समय से अनवच्छिन्न है और सार्वभौम है। सो ही महाव्रत है। किंतु लोक व्यवहार में जैसे मछुए को अपनी जीविका के लिए मछली मारनी ही है। या अगर अपने देश का पड़ोसी देश से युद्ध है तो सेना को दूसरे देश की सेना का वध करना है, इत्यादि। या वैसे भी अहिंसा का आत्यंतिक प्रयोग संभव नहीं। फिर भी शील तो हिंसा से अंतिम मुक्ति या विरति का ही होता है। यह कहने का कोई अर्थ नहीं, वजन नहीं कि जहां तक हो सकेगा हिंसा से बचूंगा। क्योंकि फिर तो इसमें टेक नहीं, शीलन, शील नहीं बनता।
वैसे भी स्थूल रूप से हिंसा तो प्राणातिपात है। किंतु सूक्ष्म रूप से समस्त वितर्क, विकल्प, विचार हिंसा है। अपनी पसंद को दूसरे पर थोपना हिंसा है। और जब विकल्प है तो हिंसा है। लेकिन, सारा व्यवहार तो विकल्प में है। अहिंसा स्वयं हिंसा का विकल्प है, विरति है, वेरमणी शील है। इसीलिए शायद आत्यंतिक दृष्टि से अहिंसा का साधन संभव नहीं। शायद हिंसा-अहिंसा नहीं है, और शील है। यह अद्वयमुख प्रवेश जैसा है।
शब्द बांटता है। हिंसा-अहिंसा, अब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य, मृषा-अमृषा इत्यादि में। किंतु वास्तव में यह वैकल्पिक कोटियां नहीं हैं, और वह है। शब्द वह चीज नहीं है। फिर भी लोक व्यवहार में, संप्रेषण बिना शब्द के नहीं होता, जैसे कि सूरज का उगना, या हवा का बहना या सुगंध का फैलना होता है। इसलिए शब्द एक हद तक अपरिहार्य है। इस अर्थ में ही हिंसा-अहिंसा है। एक दूसरे की अपेक्षा से है। अन्यथा नहीं।
फिर, बौद्ध आचार में प्रारंभ से एक प्रश्न मांस खाने के बारे में है। मज्झिम निकाय में जीवक सुत्त (2.1.5) में कहा गया है :
एक समय भगवान् राजगृह में जीवक कौमारभृत्य के आभुवन में विहार करते थे। तब जीवक कौमारभृत्य जहां भगवान् थे, वहां गया, जाकर भगवान् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे जीवन ने भगवान् से यह कहा-
भंते! मैंने सुना है-श्रमण गौतम के उद्देश्य से (लोग) जीव मारते हैं, श्रमण गौतम जानते हुए (अपने) उद्देश्य से बनाये (अपने) उद्देश्य से किये कर्मवाले मांस को खाता है। भंते! जो यह कहते हैं- श्रमण गौतम....खाता है, क्या भंते! वे भगवान् के विषय में यथार्थवादी हैं, वे भगवान् पर झूठा इलजाम तो नहीं लगाते? सत्य के अनुसार कहते हैं?....
जीवक जो यह कहते हैं-श्रमण गौतम....खाता है, वे मेरे विषय में यथार्थवादी नहीं है, वे मुझ पर झूठा इलजाम (अभ्याख्यान) लगाते हैं....जीवक! मैं तीन प्रकार के मांस को अभोज्य कहता हूं- दृष्ट, श्रुत और परिशंकित। ...जीवक! तीन प्रकार के मांस को मैं भोज्य कहता हूं-अ-दृष्ट, अ-श्रुत, अ-परिशंकित।....
यह उद्धरण स्पष्ट है। भोज्य-अभोज्य मांस की कसौटी है जीव का अपने लिए मारा जाना देखना, सुनना या शंका होना या न होना। इन्हीं तीन के आधार पर अदृष्ट, अश्रुत, अपरिशंकित के आधार पर बौद्ध समाज-उपासक, उपासिका, श्रामणेर, भिक्षु, भिक्षुणी-प्रायः अढ़ाई हजार वर्षों से अधिक से कितना मांस-भक्षण कर रहे हैं!
अब इसमें भी कोई आत्यंतिक दृष्टि नहीं हो सकती। कहते हैं देवदत्त ने भी कभी यह प्रश्न संघ में उठाया था। तो भगवान् ने उसे बरज दिया था। भिक्षु यह तय नहीं कर सकता कि उसके पात्र में क्या पड़ेगा? और अगर आहार न हुआ तो वह जी नहीं सकता। सब प्राणी आहार पर प्रतिष्ठित हैं। यह प्रथम है। उस समय मांसाहार प्रचलित है। सो ही भिक्षा में भी दिया जाता है, जैसे थाइलैंड में आज भी होता है।
इस प्रश्न पर विचार करने के लिए, अन्य बातों के अलावा, दो बातों पर ध्यान रखना जरूरी है : (1) समस्या, (2) समय। मांस का भोज्य-अभोज्य होना समस्या है। इससे जुड़ा हिंसा, प्राणातिपात और उससे विरत रहने का शील है। अगर शील को सिर्फ पाखंड नहीं बन जाना है तो यह मानने का कोई कारण नहीं कि जब बौद्ध उपासक, उपासिका, भिक्षु, भिक्षुणी अपने-अपने नियत घरों में या विहारों में या गोनपाओं में बैठते हैं और प्रायः नित्य मांसाहार करते हैं तो वे मांस खाने की इच्छा करते हैं, उसके लिए समर्थ हैं और प्रस्तुत रहते हैं। इस प्रकार वे आधुनिक भाषा में मांस की मांग करते हैं, और मांस बेचने वाला उसकी पूर्ति करता है। मांग अपनी पूर्ति खुद पैदा करती है और पूर्ति अपनी मांग। इसमें तो अ-दृष्ट, अ-श्रुत, अ-परिशंकित वाली शर्त नहीं लगती। इसमें अपने लिए जीव हिंसा का होना देखा, सुना और शंका होना सब है। फिर भी मांस खाया जाता है। फिर, समय। जब श्रमण गौतम इन तीन के आधार पर मांस खाने की छूट देते हैं तब समय भिन्न है। आज भिन्न है। बौद्ध, जैन, वैष्णव अहिंसा के प्रभाव से समाज में मांस-भक्षण के बारे में अब धारणा बदल गई है। रीति-रिवाज और आदत बदल गई है। शाकाहार न सिर्फ मध्यदेश में बल्कि सारे विश्व में एक श्रेष्ठ जीवन-चर्या का अंग बन गया है। यह सिर्फ खुराक का फैशन नहीं है, न ही क्लोरोस्ट्रॉल आदि से बचत का उपाय भर है। शाकाहार का नैतिक आधार है। शील है। इस पर भी जब बौद्ध मांस खाता है तो यह सिर्फ देवदत्त की शंका नहीं है। निश्चय ही, इसमें जाति, देश, काल, समय का बंधन है। हिमालय के प्रत्यंत और शील प्रदेशों में जहां मांस खाने बिना जीना ही संभव नहीं वहां शाकाहार को थोपना ही शायद हिंसा है। लेकिन, जहां संभव है वहां जैसे वाराणसी में या बोधगया में या काठमांडो में भैंसा काटकर खाना क्या है? अ-दृष्ट, अ-श्रुत, अपरिशंकित तो नहीं ही है। इसलिए यह मांसाहार भी बौद्ध धर्म में अहिंसा के साधन की दृष्टि से एक विचारणीय प्रश्न है।
एक प्रश्न यह है कि आज के संदर्भ में अहिंसा की क्या प्रासंगिकता है? यह जैसे एक सेमिनार-रूढ़ि हो गया है। जो हो। अब अगर आज भी मनुष्य में द्वेष है, द्रोह है, पर-अपकार की वृत्ति है, प्राणातिपात है तो उससे विरत रहने के शील का भी महत्व है। और कौन कह सकता है कि आज के मनुष्य में पहले जैसा क्रोध, लोभ, मोह, द्रोह नहीं है? इसलिए तो यह प्रश्न ही निरर्थक है। अहिंसा की प्रासंगिकता तो जाति, देश, काल, समय से परे है। सार्वभौम है।
फिर यह भी कहा जा सकता है कि यह सब शास्त्रीय बात है। बकवास है। चित्त, चैतसिक यह सब क्या है? प्रश्न तो सत्ता-व्यवस्था का है। जब तक उसमें परिवर्तन नहीं होता तब तक चित्त, चैतसिक में परिवर्तन हुआ तो क्या, न हुआ तो क्या? इस पर पहले भी विचार किया जा चुका है। वास्तव में, अंतर-बाह्य भी दो अंत हैं। दोनों एक दूसरे की अपेक्षा से हैं, निरपेक्ष नहीं हैं। दोनों नहीं हैं, और दुःख है। व्यवहार में अगर सत्ता-व्यवस्था को भी बदलने जाएं तो इसके लिए भी चित्त, चैतसिक को बदलने की जरूरत होती है। ऐसे ही अगर चित्त-चैतसिक को देखने लगें तो इससे भी बाह्य सत्ता-व्यवस्था टूटती है। अब इसमें से कहां से प्रस्थान करें। इसके भेद से, प्रस्थान भेद से दृष्टिभेद जरूर है। और दृष्टि तो अपनी-अपनी पसंद है। दृष्टि-मात्र मिथ्या है। फिर भी, व्यवहार के लिए एक को सम्यक् दृष्टि कहा जाता है, अन्य को मिथ्या दृष्टि। तो बौद्ध दृष्टि सम्यक् दृष्टि है। और यह मन को प्रथम मानती है। धम्मपद (1.1) में कहा है मन पूर्व है, मन श्रेष्ठ है, मनोनय है।...
और भी कहा जाता है कि प्रश्न भोज्य-अभोज्य का नहीं, प्रश्न तो संपूर्ण मानव-जाति के अस्तित्व का है। आज संहारक अस्त्र-शस्त्र का ऐसा जमाव है कि वह इस सृष्टि को अनेक बार ध्वंस कर सकता है। ऐसी स्थिति में निरस्त्रीकरण और विश्व शांति का प्रश्न है। इस प्रश्न के बारे में विनम्र निवेदन है कि यह प्रश्न प्रधान रूप से राजनीतिक है। इसमें बौद्ध धर्म या जैन या हिंदू, या ईसाई प्रत्यक्ष बहुत कुछ नहीं कर सकता। अप्रत्यक्ष रूप से तो इन धर्मों में, विशेषकर बौद्ध धर्म में अहिंसा का शील है जो शांति के लिए है, शीतलता के लिए है, हिंसा से विरति के लिए है। लेकिन, वह इसमें सीधे कैसे कारगर हो सकता है? अभी तो उसे सुधारते-सुधारते खंड प्रलय हो सकता है। या फिर कोई सुधारने वाला ही न रह जाए, यह भी हो सकता है।
महात्मा गांधी ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन में अहिंसा का सक्रिय राजनीतिक प्रयोग किया। मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में अश्वेतों की समता के लिए गांधी जी की अहिंसा को आधार माना। परम पावन दलाई लामा के नेतृत्व में चल रही मुक्ति साधना में अहिंसा को आधार माना गया है। बीसवीं-इक्कीसवीं सदी में अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अहिंसा का यह महान प्रयोग जीवित-जागृत है।
हां, इतना जरूर है कि आज कल शांति के लिए शोध (पीस रिसर्च) की दृष्टि जैसे औंधी है। उसे ठीक करने में बौद्ध परंपरा कुछ सुझा सकती है। पहले अंतर्राष्ट्रीय हिंसा का प्रश्न शांति के लिए शोध में उठा। फिर, राष्ट्रों के अंदर समाजों में हिंसा का, फिर व्यक्तियों के बीच हिंसा का प्रश्न विचारणीय हुआ है। जबकि बौद्ध परंपरा में, या भारत की अन्य आध्यात्मिक परंपराओं में यह क्रम चित्त से शुरू होता है। हिंसा, घृणा, द्वेष, या शांति पहले चित्त में आती है फिर बाहर प्रक्षिप्त होती है काय-कर्म में, वाक्-कर्म में या नहीं होती। इसलिए अगर शांति के लिए वास्तविक खोज करनी है तो बाह्य को खारिज नहीं करना है लेकिन, उसकी जड़, शुरुआत को चित्त में देखना है। इस पर बौद्ध धर्म में बड़ा काम हुआ है। जो आज भी उतने ही महत्त्व का है जितना कि जब वह प्रथम बार हुआ था।
हां, इतना जरूर है कि आज जो श्रम-विभाजन हुआ है उसमें यह काम प्रधान रूप से राजनीतिक है और इसमें बौद्ध आध्यात्मिक परंपरा का प्रत्यक्ष योगदान बहुत महत्त्व का नहीं है, अप्रत्यक्ष तो है ही।
अंत में, अहिंसा को भी इतने शब्दों में कहना शायद वाक् हिंसा है। इसलिए अभी तो इतना ही बस है।
- प्रो० कृष्णनाथ
बौद्धिक हिंसा : द्रष्टव्य : सांस्कृतिक हिंसा।
ब्रह्म-विहार : पालि निकायों में उपलब्ध प्रारंभिक बौद्ध-दर्शन में ब्रह्मविहार भावना को अहिंसा की सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधारभूमि माना जा सकता है, दृष्टव्य है कि बुद्धवचनों में (पालिग्रंथ) तत्त्वमीमांसा की कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं रही, तात्विक प्रश्नों के संबंध में महात्मा बुद्ध का मौन जीवन के चरम लक्ष्य निर्वाण की प्राप्ति में तत्त्वमीमांसा की भूमिका को अस्वीकार करता है। ब्रह्मविहार के ब्रह्म का तात्पर्य वेदांत की परमसत्ता से न होकर ब्रह्म के समान चित्त की शांत, दिव्य और सर्वश्रेष्ठ अवस्था से लिया गया है। विहार का अर्थ है चित्त का इस दिव्य अवस्था में सतत अथवा निरंतर बने रहना। ब्रह्मविहार चित्त की श्रेष्ठतम उदात्त भावना का प्रस्तुतीकरण है। बुद्धघोष रचित विशुद्धिमार्ग (विसुद्धिमग्गो) के नौंवे अध्याय में ब्रह्मविहार का विशद विवेचन मिलता है।
मैत्री (मेत्ता), करुणा, मुदिता और उपेक्षा (उपेक्खा) इन अवस्थाओं में चित्त का निरंतर रमण ही ब्रह्मविहार है। बुद्धवचनों में इन चारों का जितने व्यापक संदर्भों में प्रयोग हुआ है, वैसा अन्यत्र कम देखने को मिलता है। योगदर्शन में अवश्य इन चारों का उल्लेख मिलता है तथापि ब्रह्मविहार की दिव्यता, उदात्तता और व्यापकता श्रेष्ठतर है। (मैत्रीकरुणा-मुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्य-विषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम्-योगदर्शन-समाधिपाद सूत्र 33)। बौद्ध मनोविज्ञान के अनुसार चित्त के मल ही हमारे समस्त दुःखों और विषमताओं के कारण हैं। ब्रह्मविहार इन मलों का सदा सर्वदा के लिए क्षय करता है। धम्मपद में हिंसा के अनौचित्य को बतलाने के लिए बहुत सुंदर मनोवैज्ञानिक युक्ति दी है। बुद्ध कहते हैं कि सभी प्राणी दंड से डरते हैं और सबको जीवन प्रिय है; अतः, सबको अपने समान समझकर न किसी की हिंसा करें और न किसी को हिंसा करने के लिए प्रेरित करे (सब्बे तसंति दंडस्स सब्बेसं जीवितं पियं / अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये-धम्मपद 130) मैत्री (मेत्ता), करुणा, मुदिता और उपेक्षा (उपेक्खा) ये चारों द्वेष, क्रोध, हिंसा, ईर्ष्या आदि चित्तमलों का नाश कर निर्मल प्रेम, सौहार्द, हर्ष, सहयोग और सामाजिक समरसता का विकास करते हैं, जिससे परमार्थ की सिद्धि होती है। व्यावहारिक जीवन में ब्रह्मविहार का आचरण प्रारंभ में सरल से उत्तरोत्तर कठिन होता जाता है। यह परिवार से प्रारंभ होकर साधारण जन के साथ व्यवहार से होता हुआ शत्रु के साथ प्रेममय संबंध में पर्यवसित होता है। ब्रह्मविहार पड़ौसी, नगर, राष्ट्र की सीमासंभेद करता हुआ विश्व के समस्त प्राणियों के साथ स्नेह के रुप में विस्तृत हो जाता है। अतएव बुद्धवचनों में ब्रह्मविहार को अप्पमाण्ण (अपरिमित) कहा है।
मैत्री (मेत्ता)-मैत्री समस्त जीवों के प्रति प्रेममय व्यवहार है। मैत्री भावना सभी सत्त्वों (जीवों) के लिए न केवल सुख की कामना भर है, अपितु सामर्थ्यानुसार निष्ठायुक्त सत्प्रयास है। मैत्री-भावना से द्वेष का नाश होता है। द्वेषरहित चित्त में स्नेह, सौहार्द और सहयोग के शुद्ध भाव उत्पन्न होते हैं। स्नेहिल चित्त में हिंसा, कटुता और घृणा जैसे दुर्भावों को कोई अवकाश नहीं मिल पाता। ब्रह्मविचार की मैत्री राग-रहित होती है। राग मैत्री का समीपस्थ शत्रु है। प्रथम दृष्टया राग प्रेम जैसा ही लगता है। किन्तु ऐसा है नहीं। राग संकुचित व्यवहार वाला होता है, जो स्वार्थ पर टिका होता है। रागमय मैत्री सब जीवों के प्रति नहीं हो सकती। यह चयनित मैत्री होती है, जिसमें वैयक्तिक रुचि, पसंद-नापसंद, स्वहित सर्वोपरि होता है। ऐसी रागमय मैत्री द्वेष की जननी है। जो लोग हमारे हित और स्वार्थ सिद्धि में सहायक हैं, वे मित्र तथा जो बाधक वे शत्रु बन जाते हैं। क्षणभर की शिथिलता या प्रमाद से प्रेममय मैत्री रागमय हो जाती है। मैत्री का आधार मोह अथवा राग न होकर ज्ञान है। बौद्धों को ज्ञानमय प्रेम ही मैत्री रूप में ग्राह्य है। ज्ञानमय प्रेम अधिकार और प्रतिदान के भाव से रहित होता है। यह चयनित प्रेम की भांति कुछ लोगों तक ही सीमित न रहकर सर्वजनीन होता है। इस ज्ञानाश्रित मैत्री का विस्तार सज्जन और दुर्जन, हितैषी और शत्रु सब तक समान रुप से होता है। जैसे एक मां स्वयं के जीवन की चिंता किए बिना अपने इकलौते पुत्र की जिस वात्सल्य भाव से देख-रेख करती है, वैसे ही मैत्री भावना रखने वाला व्यक्ति समस्त प्राणियों के प्रति असीम प्रेम भावना रखता है (सुत्तनिपात-मेत्तासुत्त 148-149)।
अतः बौद्धों ने रागरहित प्रेममय व्यवहार को ही मैत्री माना है। मैत्री जेठ की झुलसाने वाली धूप में शीतल छांह है, खुरदरी कठोर भूमि में कमल-सा कोमल स्पर्श है। प्रेममय मैत्री-व्यवहार सब प्राणियों के प्रति अपेक्षा रहित उपकार करना जानता है। मैत्री भावना से भूलकर भी किसी का अपकार नहीं होता, हिंसा तो दूर की बात है। सज्जन और सत्पुरुषों के प्रति मैत्री भाव का उदय प्रायः सभी मनुष्यों में सहजरूपेण होता है, किंतु दुर्जनों और दुष्ट स्वभाव के लोगों के प्रति साधारण जन घृणा अथवा अधिक से अधिक उदासीनता का भाव रखते हैं। किंतु ब्रह्मविहार में रमण करने वाला व्यक्ति दुर्जन के प्रति भी मैत्री भाव यह समझ कर रखता है कि सत्पुरुषों की अपेक्षा उन्हें कहीं अधिक मैत्री भावना की आवश्यकता है। दुर्जन का हृदय परिवर्तन घृणा से नहीं अपितु प्रेम से ही संभव होता है। बुद्ध की शिक्षा है कि वैर से वैर कभी शांत नहीं होते। ये (वैर) अवैर से ही शांत होते हैं। यह सनातन धर्म (नियम) है (न हि वैरेन वेरानि सम्मंतीध कुदाचनं / अवेरेन च सम्मंति एस धम्मो सनंतनों धम्मपद-5) जहां शत्रुता नहीं, वहां द्वेष और घृणा भी नहीं और जहां घृणा और द्वेष नहीं, वहां हिंसा भी नहीं। मैत्री भावना अहिंसा की पोषक है।
करुणा समस्त बौद्ध निकायों का विशिष्ट लक्षण है। पालिनिकायों की करुणा महायान में महाकरुणा होकर बोधिसत्त्व की अवधारणा को जन्म देती है। करुणा ब्रह्मविहार का मर्मस्पर्शी भाव है। जहां कहीं भी किसी भी जीव को किंचितमात्र भी कष्ट होता है तो ब्रह्मविहार में रमण करने वाले व्यक्ति का हृदय करुणा से स्पंदित हो जाता है। इसको पराया कष्ट ठीक वैसा ही अनुभूत होता है, जैसा अपना कष्ट हो। दुःख की यह अनुभूति उसे पराये दुःख को दूर करने के लिए प्रेरित करती है। सच तो यह है कि उसके लिए कोई दुःख पराया होता ही नहीं। जब दुःख को पराया समझा जाता है तो वहां साधारण जन की सहानुभूति होती है, करुणा नहीं। सांसारिक सहानुभूति में पीड़ित व्यक्ति के लिए कातरता का भाव विद्यमान रहता है, परंतु पीड़ा के निवारणार्थ निष्ठायुक्त प्रयास का अभाव रहता है। करुणावान व्यक्ति जब तक पर-पीड़ा हरण का कोई उपाय सुनिश्चित नहीं कर लेता है, तब तक उसे चैन नहीं पड़ता। करुणा और महाकरुणा में अंतर यह है कि करुणावान भिक्षु अपने जीवन काल में पर-पीड़ा को दूर करते हुए और ब्रह्मविहार का आचरण करते हुए अंत समय में निर्वाण को प्राप्त कर लेता है; जबकि महाकरुणा का धारक बोधिसत्त्व निर्वाण की अवस्था तक पहुंचने पर भी तब तक वह उसे स्वीकार नहीं करता जब तक कि वह सभी सत्त्वों के कष्टों का नाश नहीं कर देता।
करुणा की भावना से क्रूरता और हिंसा की भावना का नाश होता है। करुणा के प्रवाह से अभ्यंतर की ग्रंथियां खुल जाती है और हृदय की संकुचितता अपरिमितता में परिवर्तित हो जाती है। करुणा प्रेम और मैत्री-भावना की पोषक होती है। वस्तुतः प्रेम और करुणा दोनों ही एक दूसरे की वृद्धि करते हैं। करुणा सदैव ही सकारात्मक होती है। करुणावान न केवल किसी के प्रति कभी भी हिंसक नहीं हो सकता, इसके विपरीत वह जीवों का सतत सहयोगी बना रहता है। करुणा निर्बलता नहीं वरन् हृदय की आंतरिक शक्ति है जो अन्यों को भी विपदाओं से संघर्ष में ऊर्जा प्रदान करती है। प्रेम जहां शीतलता है, करुणा वहीं हृदय की वह ऊष्मा है जो कठोर से कठोर व्यक्ति के मन को मोम की भांति पिघला देती है। यह चित्त की ऐसी उच्चतर संवेदनशीलता है, जिसमें व्यक्ति सूक्ष्म जीवों की भी वेदनाओं को अनुभूत कर उनका निवारण करने का प्रयास करता है। शोक करुणा का निकटस्थ शत्रु है। शोक से करुणा कातरता में बदल जाती है और वह करुणा को निष्प्रभावी बना देती है। साधारण व्यक्ति पीड़ित के प्रति शोक तो प्रकट करता है पर उसकी पीड़ा दूर करने के लिए कोई प्रभावी उपाय नहीं करता, इसके विपरीत करुणावान व्यक्ति पर-पीड़ा को स्वयं अनुभूत करते हुए भी बिना शोकमग्न हुआ उसके निराकरण का उपाय करता है। व्यक्ति स्वयं भी यदि शोकमग्न हो जाए तो उसका चित्त दौर्बल्य से आक्रांत हो जाता है ओर सत्प्रयास में शिथिलता आ जाती है।
मुदिता का लक्षण प्रसन्नता है। अन्य जीवों के उत्कर्ष में, उनकी संपन्नता में उन्हीं की भांति हर्षित होना मुदिता है। साधारण व्यक्ति जहां पड़ौसी के उत्कर्ष को देखकर ईर्ष्या में जल भुन जाता है, वहीं ब्रह्म-विहारी पर-उत्कर्ष को अपना समझकर प्रसन्न होता है, यहां तक कि शत्रु की संपन्नता में भी वह प्रसन्नता का अनुभव करता है। अपनों के सुख में मोहवश सुखी होना मुदिता का समीपस्थ शत्रु है, जो मुदिता की भावना का हरण कर लेता है। मैत्री की भांति मुदिता का आधार भी ज्ञान है। ज्ञानमय मुदिता से ईर्ष्या का नाश होता है। समस्त मानवीय अनुभव को दुःखमय मानने के कारण प्रायः बौद्धों को घोर निराशावादी कहा जाता है। परंतु यथार्थ में ऐसा है नहीं। सुख के क्षण कम ही सही, परंतु पर-सुख को अपना सुख मानना वहां प्रशंसित है। परोपकारजन्य सुखानुभूति बौद्धों को ग्राह्य है। दुःख का अभाव भी सुख ही है। मुदिता की भावना दुःख की विनाशक है। मुदिता में मग्न रहने वाला व्यक्ति अपने दुःख में भी दुःखी नहीं होता। अपने दुःख का यह सबसे प्रभावी उपाय है कि हम जहां कहीं भी सुख देखें, उसे अपना समझें। मुदिता की यही भावना चित्त को प्रफुल्लित रखती है। जो चित्त सदैव प्रसन्न और प्रफुल्लित रहता है, वहां हिंसा का भाव कभी नहीं पनप सकता। धम्मपद का सुखवग्गो शीर्षक से पूरा अध्याय बतलाता है कि सत्पुरुष का जीवन सुखमय होता है। (वैरियों में अवैरी होकर... पीड़ितों में पीड़ा रहित होकर... आसक्त मनुष्यों में अनासक्त होकर हम सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं.... आरोग्य परम लाभ है, संतोष परमधन है, विश्वास सबसे बड़ा मित्र है और निर्वाण सबसे बड़ा सुख है-धम्मपद 197, 198, 199 और 204) पुण्यात्मा लोक और परलोक दोनों स्थानों पर आनंद से रहता है (धम्मपद 78)
ब्रह्मविहार का चतुर्थ अंग उपेक्षा (उपेक्खा) चित्त की समरसता की अवस्था है। प्रीति-अप्रीति, सुख-दुःख, जय-पराजय, लाभ-हानि आदि समस्त द्वंद्वों में द्वंद्वरहित होकर करना चित्त की उपेक्षा भावना है (धम्मपद 201, 202 और 210) यह गीता में वर्णित निर्द्वंद्वता की स्थिति है। (सुख-दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ-गीता-ढ्ढढ्ढ 38) जिस प्रकार कमल की पंखुड़ी पर जलबिंदु ठहर नहीं सकता, उसी प्रकार मुनि जो कुछ देखा जाता है, सुना जाता है और सोचा जाता है, उसके प्रति आसक्त नहीं होता (सुत्तनिपात-811, 812)। उपेक्षा की भावना भी ज्ञानाश्रित होती है। ज्ञानी की उपेक्षा में और सांसारिक व्यक्ति की उदासीनता में भेद होता है। उदासीनता में हमें इससे कुछ लेना-देना नहीं का भाव रहता है। सांसारिक व्यक्ति पर-सुख-दुःख के प्रति प्रायः उदासीन रहता है। जहां व्यक्ति के अपने हित-अहित पर कोई आंच नहीं आती, वहां वह उदासीन रहता है। परंतु ब्रह्मविहार में विहरने वाले मुनि की उपेक्षा-भावना लाभ-हानि, जय-पराजय, मान-अपमान, राग-द्वेष, प्रेम-घृणा आदि द्वंद्वों से अप्रभावित रहने वाली चित्त की निर्द्वंद्व अवस्था है। सांसारिक उदासीनता उपेक्षा (उपेक्खा) की आसन्न शत्रु है। सांसारिक उदासीनता में हम पर-दुःख में न दुःख की अनुभूति करते है और न पर-सुख को अपना सुख मानते हैं। ब्रह्मविहार की उपेक्षा में मुनि सुख की अवस्था में सुख के उद्वेग को रोकता है और दुःख की अवस्था में दुःखी नहीं होता। बौद्धों का कर्मवाद उपेक्षा की भावना को पोषित करता है। ब्रह्मविहारी को यह ज्ञान रहता है कि सुखदुःखादि समस्त अनुभव हमारे मन, वचन और काय से किए गए कर्मों के प्रतिफल है। कर्म जैसे ही संपन्न हो जाता है, हमारा उस पर से नियंत्रण हट जाता है। कर्म करना या न करना हमारे नियंत्रण में है, परंतु कर्म करने के बाद उस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रहता। कर्म का फल किसी बाहरी सत्ता से नहीं आता, अपितु कृत कर्म से ही उसका फल मिलता है। इसी समझ के आधार पर ज्ञानी के चित्त में उपेक्षा-भावना का उदय होता है। कर्म रहस्य के ज्ञान के बाद दुःख भी ज्ञानी का मित्र बन जाता है। उपेक्षा चित्त के निर्द्वंद्वता की अवस्था अवश्य है, तथापि यह मैत्री (मेत्ता), करुणा और मुदिता के अभाव की अवस्था कदापि नहीं है। उपेक्षा का संबंध व्यक्ति के अपने सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से है जबकि मैत्री, करुणा और मुदिता का संबंध अन्य प्राणियों के सुख-दुःख से होता है।
ब्रह्मविहार के चारों अंगों में उपेक्षा-भावना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यह अन्य तीन अंगों की नियंत्रक भावना है। उपेक्षा मैत्री (मेत्ता) को राग से संपृक्त होने से बचाती है। राग के स्पर्श से मैत्री में स्वार्थ और पक्षपात की भावना का उदय हो जाता है। शोक करुणा को दया अथवा कातरता में परिवर्तित कर देता है। उपेक्षा-भावना करुणा को शोक के स्पर्श से बचाती है। मोहजन्य हर्ष मुदिता को सामान्य सुख में बदल देता है। सामान्य सुख में अपनों के उत्कर्ष में हर्ष और अन्यों के उत्कर्ष में ईर्ष्या होने लगती है। उपेक्षा-भावना मुदिता को सामान्य सुख के उद्वेग से बचाती है। इस प्रकार उपेक्षा-भावना सजगता से मैत्री, करुणा और मुदिता को क्रमशः राग, शोक और सुख के स्पर्श से बचा कर उन्हें अपने मूल भाव में ही बने रहने में सहयोग करती है। अतएव, उपेक्षा ब्रह्मविहार की शिखर मणि है।
पालि निकायों की ब्रह्मविहार-भावना चित्त की वह उदात्त और श्रेष्ठतम अवस्था है, जिसकी प्राप्ति के बाद व्यक्ति राग, द्वेष, घृणा, क्रूरता, हिंसा आदि शूद्र और संकुचित भावनाओं का सदैव के लिए परित्याग कर, प्रेम, सहयोग, अहिंसा और सामाजिक समरसता की उदात्त भावनाओं से ओत-प्रोत हो जाता है। जो समाज मैत्री और करुणा की आधारशिला पर टिका हो, उस समाज में हिंसा को पनपने का कोई अवसर नहीं मिलता। बुद्ध वचनों की प्रस्तुत उदारता वर्तमान में फैल रही हिंसा और असहिष्णुता के संदर्भ में अत्यधिक प्रांसगिक है-समस्त जीव चाहे वे निर्बल हों अथवा सबल, लंबे हों या ठिंगने, सूक्ष्म हों या विशाल, दृश्य हों या अदृश्य, समीप हों या दूर, जन्म ले चुके हों या जन्म लेने वाले हों, ये सब सदा प्रसन्नचित्त रहें (सुत्तनिपात-मेत्तासुत्त 145-146)। चित्त की ऐसी उदात्त अवस्था में घृणा अथवा हिंसा का भाव कैसे रह सकता है? कोई भी सामान्य व्यक्ति यह नहीं चाहता कि कोई उसकी हत्या कर दे; सब जीना चाहते हैं। यही मनोभाव अहिंसा का युक्ति संगत औचित्य है। ब्रह्मविहारी मुनि स्वयं का अन्यों के साथ इसी प्रकार तादात्म्य स्थापित कर अहिंसा का औचित्य बतलाता है-जैसा मैं हूं वैसे ये (अन्य लोग) हैं, और जैसे ये (अन्य लोग) हैं वैसा ही मैं हूं, अतः न इनकी कोई हत्या करे और न किसी को करने दे (यथा अहं तथा एते, यथा एते तथा अहं। अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातिये।। सुत्तनिपात 705)
ब्रह्मविहार-भावना की प्राप्ति अत्यंत कठिन कार्य है, जो चित्त की सतत सजगता से ही संभव हो सकती है। बुद्धवचनों में चित्त की इस सजगता को अप्रमाद (अप्पमाद) कहा है। अप्रमाद चित्त का वह कुशल प्रहरी है, जो इसमें राग-द्वेषादि मलों के प्रवेश को रोकता है। अप्रमादी ही ब्रह्मविहार में रमण करने में समर्थ हो पाता है।
- प्रो० शिवनारायण जोशी ‘शिवजी’
भक्ति आंदोलन : भारतीय भक्ति आंदोलन में अहिंसा जैसा बहुलार्थक पद उसकी तात्त्विक व्याख्या है। इस पद में वैष्णव, बौद्ध, जैन, शैव, शाक्त-आर्य-द्रविड़ चिंतन परंपराओं की आंतरिक लय है कि प्रेम ही सर्वोपरि मूल्य है। इसीलिए भक्ति को नारद भक्ति सूत्र में प्रेमस्वरूपा कहने के साथ अमृत-स्वरूपा कहा गया है। इसे प्राप्त करने पर मनुष्य सिद्ध, अमर और तृप्त हो जाता है। जीव-जगत-ईश्वर प्रकृति सभी में परम अनुरक्ति ही भक्ति है। इस प्रेम-भक्ति का केंद्रीय आधार है अहिंसा। भक्ति के लिए अहिंसा मात्र साधन ही नहीं, साध्य भी है। प्राचीन सनातन-धर्म के सिद्धांत ही भक्ति आंदोलन की बुनियाद हैं और उनका लक्ष्य रहा है-मानव भावों का परिष्कार, अहंकार का त्याग, उदात्तता का वरण, मानव-सेवा और लोक सेवा में समर्पण। भारतीय बहुलतावादी संस्कृति की मूल्य-चेतना हिंसा में नहीं, अहिंसा में विश्वास रखती रही है और यही अर्थ- व्यंजकता भक्ति आंदोलन का बीज भाव रही है। अज्ञानवश भक्ति आंदोलन के प्रेम, अहिंसा भाव का सही संदर्भों में पाठ कम हुआ है, पश्चिमी आधुनिकता ने उसका कुपाठ ही अधिक किया है; जबकि अहिंसा की बहुलार्थकता में आधार-चिंतन रहा है-करुणा की व्यापकता, प्रेम को परम पुरुषार्थ मानकर उसकी महत्त्व महिमा की स्थापना और मानव प्रकृति में शील सात्त्विकता का मनोभाव। गहरे में उतरने पर हम पाते हैं कि भारतीय सर्जन और चिंतन परंपराओं में करुणा, प्रेम, अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा अपनी तात्त्विकता में पर्याय रहे हैं और इन सभी का ध्वन्यर्थ अंततः अद्वैत की ओर झुका हुआ है।
जीवन का परम पुरुषार्थ प्रेम है-प्रेमा पुरुषार्थो महान। यह प्रेम ही मनुष्य का स्व-भाव है। इसमें हम और वे वाला अलगाववाद नहीं है, क्योंकि इसकी भित्ति है-करुणा और श्रद्धा संवलित चित्त। श्रद्धा का मूल तत्त्व है अन्य के महत्त्व का स्वीकार। इसी अर्थ में श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। जब श्रद्धेय के दर्शन, श्रवण, कीर्तन, ध्यान आदि में आनंद का अनुभव होने लगे-तब हृदय में भक्ति रस का संचार समझना चाहिए। प्रेमाभक्ति या अनन्या भक्ति से उत्पन्न उज्ज्वल रस ही वैष्णव रस है या कहिए मन की सात्त्विकता से प्राप्त उज्ज्वलनीलमणि का प्रकाश। यह आत्म-चैतन्य प्रकाश ही अहिंसा-भाव से भक्ति आंदोलन की मूल चेतना में जज्ब है। भक्तिमय प्रेममूलक अहिंसा को खोजता हुआ विद्वानों का वर्ग प्राग्वैदिक काल में भक्ति के बीज पाता है और बाद में कस्मै देवाय हविषा विधेम् का भाव्य भक्ति भाव की प्रेरणा का संकेत है। वे उषा, इंद्र, वरुण, अग्नि की प्रसन्नता के लिए यह कहते हैं-यह बहुदेववाद प्रेम का विस्तार है। ऋत के नियम ही सत्य हैं, सत्य ही धर्म है। यह धर्म अपने आधार अहिंसा पर टिका है-और सभी धर्मों के मूल में अहिंसा का सामरस्य विद्यमान है। इसी भाव से कहा गया है अहिंसा ही परम धर्म है। बाह्य को प्राप्त करने के साधनों में कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति मार्ग की गणना होती है। सहज साध्य होने के कारण भक्ति आंदोलन के आचार्यों, संप्रदायों ने भक्ति मार्ग का प्राधान्य स्वीकार किया। सभी उपनिषदों में निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति है और इसी में शिव, रुद्र, विष्णु, अच्युत, नारायण आदि के ब्रह्म रूप की उपासना का निर्देश है। भक्तिमार्ग में वासुदेव भक्ति की प्रधानता थी। बुद्धोत्तर काल में उसका स्वरूप बहुत विस्तृत हो गया। प्रत्यक्ष नामरूपात्मक उपासना ही भक्ति कहलाई। इस भक्ति-भाव को भागवत धर्म से बल मिला। मूलतः, भागवत धर्म के चार उपभेद हैं (1) श्री संप्रदाय : रामानुजाचार्य द्वारा स्थापित (2) ब्रह्म-संप्रदाय : मध्वाचार्य द्वारा संस्थापित (3) रुद्र संप्रदाय : विष्णु स्वामी द्वारा स्थापित (4) सनकादि संप्रदाय : निंबाकाचार्य द्वारा स्थापित। ये चारों संप्रदाय शंकराचार्य के अद्वैत-सिद्धांत और मायावाद को अस्वीकार करते हैं तथा ब्रह्म को सगुण साकार मानकर उसकी भक्ति पर ध्यान केंद्रित करते हैं। भागवतकार ने श्रीमद्भागवत में कहा है कि उत्पन्नाद्रविड़ं साऽहं वृद्धिं कर्नाटिटकेगता। क्वचित क्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जरे जीर्णतां गतः। अर्थात् भक्ति द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में वृद्धि को प्राप्त हुई, कभी-कभी महाराष्ट्र में पोषण हुआ और गुजरात में जीर्ण हो गई। इस जीर्णता को लेकर पुत्रों सहित वृंदावन पहुंची और वहां सुंदर युवती के रूप को प्राप्त हुई। भागवत धर्म का विस्तार हुआ तो गीता, महाभारत, शांतिपर्व, पांचरात्रसंहिता, शांडिल्यसूत्र, भागवत पुराण, हरिवंश पुराण नारदीय भक्ति सूत्र नारद पांचरात्र में पुनर्नवा भाष्य किया गया। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद आए। कहा गया भक्ती द्रविड़ऊपजी लाए रामानंद। परगट किया कबीर ने सातद्वीप नवखंड। कहना होगा कि रामानंद ही मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के मेरुदंड हैं। इसलिए यह कहना कि भारत में भक्ति का विकास इस्लाम, ईसाई धर्म आने से हुआ एकदम अतार्किक है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को हिंदी साहित्य की भूमिका में भारतीय चिंताधारा का स्वाभाविक विकास के अंतर्गत कहना पड़ा कि ऐसा करके मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं रहा हूं। लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूं कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना, वैसा ही होता जैसा आज है। भारतीय सभ्यता-संस्कृति का स्वभाव रहा है-अन्य धर्मों के प्रति, संस्कृतियों के प्रति सहनशील रहना। भारतीय संस्कृति में चरम मूल्य प्रेम, करुणा, अहिंसा रही है-जिसमें मानव धर्म की रक्षा के लिए मैं और अन्य के भेद को मिटाकर अभेद की स्थापना की है।
रवींद्रनाथ टैगोर ने भारतवर्ष में इतिहास की धारा शीर्षक निबंध में भारतीय सभ्यता-संस्कृति के प्रेम-अहिंसा भाव के विस्तार पर ध्यान देते हुए कहा है वैष्णव-धर्म में एक ओर भगवद्गीता का विशुद्ध उच्च धर्म तत्त्व है तो दूसरी ओर अनार्य ग्वालों में प्रचलित दैवलीला की विचित्र कहानियां भी उसमें सम्मिलित हैं। वैष्णव धर्म का उपाश्रय लेकर जो लोक प्रचलित पौराणिक कथाएं आर्य समाज में प्रतिष्ठित हुईं उनमें प्रेम, सौंदर्य और यौवन की लीला है, प्रलय पिनाक के स्थान पर बांसुरी के स्वर है; भूत-प्रेत के स्थान पर वहां गोपियों का विलास है, वहां वृंदावन का चिर-वसंत और स्वर्गलोक का चिर ऐश्वर्य है। इस तरह आभीरों में प्रचलित कृष्ण-कथा वैष्णव-धर्म में घुल मिल गई। इसी लोकाधार को ग्रहण करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भक्ति आंदोलन, भक्ति शास्त्र और भक्ति काव्य पर गंभीर विमर्शकिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी-साहित्य का विकास में भक्ति-काल प्रकरण के अंतर्गत सामान्य-परिचय में भक्ति की स्थिति-परिस्थिति प्रवाह प्रसार का निरुपण किया। देश में वज्रवानी सिहर, कापालिक, नाथपंथी योगीअघोरी अवधूत रमते आ रहे थे और धर्म का प्रवाह कम, ज्ञान और भक्ति की तीन धाराओं में प्रवाहित था। ये निर्गुणिया संत भी लोक-विरोधी न थे, उन्होंने भी प्रेम एवं करुणा-अहिंसा का जन-मन में प्रसार किया। ऐसा भक्ति का प्रवाह दक्षिण और उत्तर में फूट-फूट पड़ा कि रामानुजाचार्य अंततः रामानंद में प्रवेश कर गए। रामानंद (1400-1470 ई०) ने उदार विचारधारा के कारण अपने गुरु राघवानंद से अलग संप्रदाय स्थापित किया और स्वतंत्र-चिंतन का भाव लेकर पूरे लोक मन को समझने के लिए प्रमुख तीर्थों की यात्राएं की। रामानंद संप्रदाय के प्रमुख संत-शिष्यों में कबीर तुलसीदास के साथ सुखानंद, अजंतानंद, सुरसुरानंद, पदमावती, नरहर्वानंद, पीपा, भावानंद, रैदास, धन्ना और सुरसरी आदि प्रमुख थे। प्रेम अहिंसा-मार्ग के लिए रामानंद ने वेदांत विचार, गीता भाष्य, श्री वैष्णव मताब्ज भास्कर, रामार्चनपद्धति, उपनिषद भाष्य, आनंद भाष्य, योग चिंतामणि जैसे ग्रंथों की रचना की। इधर नागरी प्रचारिणीसभा ने रामानंद की हिंदी रचनाएं प्रकाशित की है इसमें हनुमान आरती के साथ तमाम निर्गुण भाव के भक्ति पद हैं। विशेष बात यह कि जात-पात बूझै नहिं कोई/हरि कौ भजै सो हरि को होई गाकर रामानंद ने भक्ति के द्वार शूद्र और स्त्री सभी के लिए खोल दिए। फलतः, भक्ति युग के भक्ति काव्य में प्रेम धारा का प्रवाह उमड़कर प्रवाहित हुआ। निर्गुण-सगुण संत साहित्य की अधिकांश उदार प्रेम-भावना के मूल में रामानंद का चिंतन है। इसी चिंतन से खिंचकर रामानंद के पास मुसलमान और हिंदू दोनों खिंचकर आए। एक ओर से कबीर आए और दूसरी ओर तुलसी। इसी भक्ति प्रवाह में वल्लभाचार्य, मध्वाचार्य, निंबार्क, विष्णुस्वामी का प्रेम-रस कृष्णा लीला चिंतन मिलकर एकाकार हो गया। इस दृष्टि से भक्ति काव्य और भक्ति शास्त्र प्रेम दर्शन से उत्पन्न अहिंसा का सर्वोच्च शिखर है। इसमें मनुष्य, पशु, जीव-जंतु, नदी-प्रकृति पूरा चराचर जगत है। यहां कोई भी अन्य नहीं है। सभी आत्म के विस्तार है तथा उसी में समाहित है। यही विस्तार भाव आध्यात्मिक चिंतन का अमृत लिए है। इसी संत चिंतन ने अरविंद-विवेकानंद, गांधी, विनोबा भावे, नरेंद्र देव और राममनोहर लोहिया में नवीन निष्पत्ति पाई है।
भक्ति-आंदोलन की महाराष्ट्र में अगुआई की नामदेव, संत ज्ञानेश्वर ने और गुजरात में नरसी मेहता ने। इसी प्रवाह में चैतन्य, तुकाराम, दादू, पलटू-सुंदरदास, नानक, रज्जब जैसे संत सामने आए। इस्लाम के बहुत सारे विचार हिंदुओं के पास सूफियों के साथ पहुंचे। इन सूफियों ने कबीर, नानक, रज्जब के प्रेमपंथ को गहराई से प्रभावित किया। कबीर के गुरु एक ओर तो रामानंद थे, दूसरी ओर शेख तकी। इस्लाम के बहुत से विचार हिंदुओं के पास कबीर की संत-वाणी से पहुंचे। आठवीं-नवीं शताब्दी में भागवत पुराण की रचना ने भक्ति-प्रेम की सर्जनात्मकता का विस्तार किया। अब जीवन से यज्ञवाद बाहर हो गया है। धर्म के भीतर भक्ति में प्रेम-अहिंसा का जल भरने लगा। जीवन में प्रपत्तिवाद या शरणागति का सिद्धांत प्रबल हुआ तथा सखा भाव, मधुरा भाव और दास्य भाव की भक्ति का जन-मन में उभार आया।
भक्ति-काव्य और भक्ति शास्त्र की केंद्रीय-भाव भक्ति या प्रेम हमारे चिंतन की लंबी परंपरा का प्रदेय है। अपने अखिल भारतीय सांस्कृतिक स्वरूप से भक्ति आंदोलन ने पूरे देश को एकता के सूत्र में बांध दिया। पांचवी शताब्दी से नवीं शताब्दी तक भक्ति आंदोलन का केंद्र रहा तमिलनाडु। आलवार संतों की कीर्ति तमिल दिव्य प्रबंधम् से पूरे देश में फैल गई। कश्मीर में लल्लेश्वरी, तमिल में अंडाल, बंगाल में चंडीदास, पंजाब में नानक जैसे संतों ने पूरे देश को प्रेम-करुणा-अहिंसा से सींचकर अमृतवाणी का प्रभाव जमाया। संतकाव्य में किसी भी प्रकार की हिंसा के लिए स्थान नहीं है। जो विद्वान यह प्रचार करते रहे हैं कि गांधी की अहिंसा और भारत की राष्ट्रीय एकता अंग्रेजों की देन हैं-उन्हें संत-काव्य की अहिंसा केंद्रित परंपराओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। श्री रामानुजाचार्य (1027-1137 ई०) ने आलवार और नायनार दोनों तरह के दक्षिण भारत के संतों को मिलाकर एक नया भक्ति-रसायन तैयार किया-जिसमें नर-नारी, शूद्र-ब्राह्मण सभी समान थे। शैवाचार्यों की शिव-भक्ति का ऐसा प्रभाव पड़ा कि दक्षिण के मंदिरों में तिरसठ नायनार भक्तों की प्रतिमाएं पूजी जाने लगी। शैवाचार्य नांबियार नंबी ने शैवपदों-गानों का संकलन ग्यारह जिल्दों में किया, जिन्हें नाम दिया तिरुमरइ अर्थात् पवित्र पुस्तक।
दरअस्ल, भक्ति-आंदोलन में सूफी प्रेम-धारा के प्रवाह का महत्त्व कम करके न आंकना चाहिए। इन सूफियों ने प्रेम-पद्धति, प्रेम-दर्शन से राम-रहीम की एकता को दृढ़ किया। हिंदी में सूफी आख्यान-काव्य लोक प्रचलित कहानियों के आधार पर लिखे गए। ये आख्यान प्रेममूलक हैं। सूफी कवियों ने लोक में प्रसिद्ध प्रेम कहानियों को आधार बनाकर प्रेम-काव्य लिखे। लौकिक प्रेम कहानियों में अलौकिक प्रेम का आभास दिया। यहां प्रेम से परमात्मा को प्राप्त करने का संकल्प है। परमात्मा को प्रिय और साधक को प्रेमी बनाकर काव्य रचे गए। हिंदी का सूफी काव्य ईरानी परंपरा से प्रभावित हुआ, लेकिन उसकी नकल नहीं है। सूफियों ने प्रेम संबंधों में खंडन-मंडन की बुद्धि को किनारे रखकर मानव के हृदय को स्पर्श करने का प्रयास किया। इन निर्गुण के उपासक एकेश्वरवादी सूफी संत भक्त और कवियों ने-चाहे कुतबन की मृगावती हो मंझन कवि की मधुमालती, मलिक मुहम्मद जायसी का पदमावत हो या कन्हावत, उस्मान की चित्रावली या कासिम शाह की हंसजवाहिरे-सभी सूफी मसनवियों में प्रेम की अपार महिमा। पदमावत जैसी ट्रेजेडी में मूल व्यंजना यही है कि मनुष्य हिंसा, घृणा क्रूरता से बड़ा नहीं हुआ है। मानुष प्रेम नपउ वैकुंठी का अर्थ है प्रेम से मनुष्य वैकुंठी या दिव्य हुआ है।
निर्गुण संत काव्य धारा में कबीर ने सूफी मुसलमान फकीर शेख तकी से दीक्षा ली और संत आचार्य रामानंद से भी। फलतः, ना हिंदू ना मुसलमान दोनों से परे मानव-भाव का वरण किया। कबीर के राम रामानंद के राम से भिन्न हो गए, उन्होंने अतिक्रमण किया-और प्रेम को उपासना का विषय बनाया। सांई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय इसलिए जाति-पांति का खंडन किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में स्पष्टता से कहा है-वैष्णव संप्रदाय से उन्होंने अहिंसा का तत्त्वग्रहण किया जो कि पीछे होने वाले सूफी फकीरों को भी मान्य हुआ। हिंसा के लिए वे मुसलमानों को बराबर फटकारते रहे, दिन भर रोजा रहत है रात हनत हैं गा। कबीर ने ज्ञान-मार्ग की बातें साधु-सन्यासियों से ग्रहण की और प्रेमतत्त्व का मिश्रण करके अपना अलग पंथ चलाया। कबीर ने बीजक में हिंदुओं-मुसलमानों को खरी खोटी सुनाकर तथा राम-रहीम की एकता का अर्थ समझाकर मानव हृदय को शुद्ध प्रेममय मार्ग दिखाया। कबीर की परंपरा में यही प्रेममार्ग रैदास ने थावर जंगम कीट पतंगा पूरि रह्यो हरिराई कहकर दिखाया। गुरुनानक ने नानक भक्तल दे पद परसे निसदिन रामचरन चित लाय कहकर प्रेम-अहिंसा के भावों की दृढ़ स्थापना की। दादू दयाल ने कबीर के अनुयायी बनकर दादू पंथ चलाया और घीव दूध में रम्मि रहा व्यापक-सब ही ठौर। सुंदरदास, धर्मदास, मलूकदास, अक्षर अनन्य, पीपा, पलटू-रज्जब सभी ज्ञानमार्गी संत प्रेममार्ग पर चले। ये संत अपने पूरे चिंतन में प्रपत्ति और अहिंसा की दृष्टि से बेजोड़ रहे-एकदम अनुपम।
सगुण धारा की रामभक्ति शाखा ने विशिष्टाद्वैत को आधार बनाकर बताया कि चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के अंश जगत के प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते हैं। अतः, जीव के उद्धार का एकमात्र मार्ग भक्ति मार्ग है। रामानुज के श्री संप्रदाय में विष्णु नारायण की उपासना शुरू हुई और इस परंपरा में एक से एक अच्छे साधु-संत हुए। इन सभी ने लीलावतारी राम का आश्रय लिया। रामानंद ने राम-नाम के द्वार सभी जातियों के लिए खोल दिए। रामानंद के शिष्य अनंतानंद और अनंतानंद के शिष्य कृष्णादास पथहारी ने आमेर-राजपूताना में रामानंद की गद्दी स्थापित की और कनफटा नाथपथियों का प्रभाव कम करके प्रेम-मार्ग की महिमा का बखान किया। इस राम-भक्ति को गोस्वामी तुलसीदास ने समन्वय-सामंजस्य की भावना से उदार और व्यापक बनाया। अपने समय की सभी रचना शैलियों को अपनाकर अवधी, ब्रज भाषा दोनों में कविता की। रामचरित मानस में ज्ञान-भक्ति की चर्चा उठाकर यही घोषणा की रामहि केवल प्रेम पियारा। प्रेम से ही ईश्वर प्रकट होता है-प्रेम से प्रकट होहि भगवाना। दास्य भाव की भक्ति में प्रपत्ति और अहिंसा की सर्वोच्च वैष्णव भूमि लोक-मंगल के साथ सामने आई। वैष्णव-शैव परंपराओं में प्रेम का और राम राज्य का एक मॉडल ही प्रस्तुत कर दिया। तुलसी का लोक-धर्म सच्चे अर्थों में रघुवर प्रेम-प्रसूति का आदर्श है। तुलसी ने सीय राममय सब जगजानी/करौ प्रनाम जोरिजुग पानी में संदेश दिया कि यह जगत सीयराम है, सीता प्रकृति स्वरूपा है और राम ब्रह्म। इन सीता-राम को खिन्न-उदास गरीब परमप्रिय हैं। गीतावली, कृष्णगीतावली, कवितावली, विनयपत्रिका, हनुमान चालीसा में लोक मंगल का आधार है प्रेम। वैष्णव प्रेम-मार्ग की पराकाष्ठा में दया करुणा रक्षा, ममता, अहिंसा का भंडार निहित है।
सगुण भक्ति धारा के वैष्णव धर्म आंदोलन की एक प्रेम दर्शन भुजा का नाम है-वल्लभाचार्य। वे कृष्ण-भक्ति के प्रधान प्रवर्तकों में से एक हैं। वल्लभाचार्य ने शंकराचार्य के मायावाद-विवर्तवाद से पीछा छुड़ाने के लिए ब्रह्म में ही सभी धर्मों की स्थापना की और समान सृष्टि को उन्होंने लीलावतारी ब्रह्म की आत्मकृति कहा। श्रीकृष्ण ही परम ब्रह्म हैं-पुरुषोतम हैं-गोपीवल्लभ हैं, ब्रजपति हैं। वे अपने भक्तों के लिए व्यापी वैकुंठ-भूलोक वृंदावन में अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं करते रहे हैं। वे पूर्ण ब्रह्म पुरुषोतम हैं और प्रेम लक्षणा भक्ति से ही उन्हें पाया जा सकता है। मूल बात यह कि सभी संप्रदायों के कृष्णभक्त भागवत में वर्णित कृष्ण की ब्रजलीला बाल ब्रह्म की उपासना को लेकर चले। वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत-दर्शन तथा पुष्टि मार्ग की सेवा में महाकवि सूरदास को श्रीनाथ जी के मंदिर की कीर्तन सेवा सौंपी। इसी सेवा में सूरसागर की राग-रागनियां फूटीं और सूरसारावली, साहित्य लहरी का भावलोक निर्मित हुआ। वल्लभ के पुत्री विट्ठलनाथ जी गद्दी पर बैठे तो उन्होंने पुष्टिमार्गी आठ सर्वोत्तम कवियों को चुनकर अष्टछाप की स्थापना की। ये आठ कवि हैं-सूरदास, कुंभलदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविंदस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास। इस तरह कृष्णभक्ति परंपरा में श्रीकृष्ण की प्रेममूर्ति को लेकर प्रेमतत्त्व की बड़े विस्तार के साथ महत्त्व प्रतिष्ठा हुई। इस धारा में उधो विरहौ प्रेम कहै का भ्रमर गीत रचा गया। प्रेम प्रेमते, द्वेष प्रेम से परहि लहिए की लोक-ध्वनि उठी। बहुत कठिन समय में इन कवियों की प्रेम रसमयी बानी ने जीवन को जीने की चाह बनी रहने दी। प्रेम का सबसे बड़ा सौंदर्य लोक हेरी मैं तो प्रेम दीवानी मीराबाई के पदों में अद्भूत सर्जनात्मकता से फूट पड़ा। इसी धारा मे प्रेम दीवाने रसखान आए-तानसेन, बैजूबाबरा, हरिदास, चाचाहिंद हरिवंश और सखी संप्रदाय के अनेक भक्त इसी धारा में आए, लेकिन मीरा के प्रेम माधुर्य भाव की ऊंचाई कोई नहीं पा सका। यहां प्रेम करुणा का आधार है-अहिंसा। अतः उज्ज्वल नील मणि और भक्तिरसामृत सिंधु की रूप गोस्वामी-जीव गोस्वामी चिंतन धारा की प्रतिपत्ति भी भक्ति रस में हुई।
भारतीय भक्ति आंदोलन और भक्तिकाव्य समाज की विषम परिस्थिति में पैदा हुआ है। वह भारतीय जनता की दीन-दशा का दर्पण है। कबीर, जायसी, सूर, मीरा, तुलसी में करुणा-प्रेम की पुकार का दर्द है। अपनी लोक-धर्म चेतना के कारण यह लोकजागरण का काम है। यहां उच्चतर मानव मूल्य हैं करुणा, शील और भक्ति का लोक-रसायन। यह राम का धर्ममय रथ अविश्रित इसलिए है कि वह नैतिक शक्ति से संपन्न है। यहां प्रेम करुणा से फलित मानवतावाद के कारण सभी क्षुद्रताएं, विषमताएं, विकृतियां गल जाती हैं। भक्ति-आंदोलन और भक्ति काव्य में इसी प्रेम-अहिंसा-करुणा स्रोतों से भारतेंदु और मैथिली शरण गुप्त जुड़े हैं। प्रसाद और अज्ञेय ने इसी प्रेम दर्शन में स्वाधीनता और मुक्ति का मंत्र पाया है। इसी संत-धारा को गांधी-विचार दर्शन ने आजादी के आंदोलन में भारतीय जीवन की आंतरिक लय अहिंसा में पाकर उसका नया भाष्य किया इसी लय में बिनोबा ओर लोहिया ने अपने को समर्पित किया। गांधीजी ने इसे सनातन धर्म के सिद्धांत से दुह कर पाया। गांधी ने विश्वास जगाया कि अहिंसा-सत्याग्रह कभी असफल नहीं हो सकते हैं। इसी बात पर स्वराज के लिए उन्होंने सत्य का सौदा नहीं किया। उन्होंने हमेशा कहा हमारा संघर्ष मात्र राजनीतिक नहीं है। यह संघर्ष धार्मिक हैं, इसलिए अत्यधिक शुद्ध है। मानव को समस्त शक्तियों का उपयोग मानव-सेवा जीव-सेवा प्रकृति सेवा में होना चाहिए। वस्तुतः संत काव्य की अहिंसा बहुवचनात्मक है और प्राणिमात्र की रक्षक शक्ति है।
- प्रो० कृष्णदत्त पालीवाल
भारतीय संविधान में अहिंसा : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(अ) में प्रत्येक नागरिक के मूलभूत कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध हैं, हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझे व उसका परीक्षण करे, प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीवन है, रक्षा करे और उनका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखे तथा सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा करे और हिंसा से दूर रहे तथा संविधान का पालन करे, उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे, आदि।
संविधान की उद्देशिका को पढ़े तो एक नए समाज की संरचना की बात उसमें कही गई है। जहां सबको सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक न्याय मिले, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त हो तथा सबमें व्यक्ति की गरिमा व राष्ट्र की एकता और अखंडता बढ़ाने वाली बंधुता बढ़ाने वाला संकल्प हो।
राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व भी स्पष्ट करते हैं कि राज्य का कर्त्तव्य होगा कि वह देश के पर्यावरण के सरंक्षण तथा संवर्धन के हेतु वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करे तथा गायों और बछडों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परीक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए राज्य कदम उठाए। पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का भी राज्य का कर्त्तव्य हो, इसे स्पष्ट रूप से उल्लेखित किया गया।
जीने के अधिकार को महत्त्व दिया गया है, अर्थात् प्रदूषण रहित पर्यावरण में खाने व पीने के पानी व आवास की सुविधा के साथ जीने का अधिकार माना है।
हमारे संविधान में प्राणी की परिभाषा में मानव के अतिरिक्त पशु-पक्षियों को भी शामिल किया गया है और उनके प्रति करुणा की भावना की अपेक्षा सभी नागरिकों से की गई है, जिसमें सरकारी कर्मचारी व स्वयं राज्य अपवाद नहीं है। मानव के अस्तित्व के साथ अन्य प्राणियों के अस्तित्व की स्वीकृति को पारमार्थिक स्थिति मात्र नहीं मानकर उसे जीवन की उपयोगिता के साथ जोड़ा गया है। सभी की सुरक्षा का दायित्व प्रत्येक नागरिक का है। जहां जैन धर्म में जियो व जीने दो के सिद्धांत को धर्म का आधार माना है, वहीं संविधान की व्याख्या करते हुए न्यायालय ने इसे नागरिक का कर्त्तव्य बताया है। प्रत्येक नागरिक को हिंसा से दूर रहने को कहा गया है। उसे निर्देश दिए हैं कि वह सभी के प्रति बंधुत्व की भावना रखेगा, समानता व समसरता का व्यवहार करेगा, व्यक्ति की गरिमा को अक्षुण रखेगा। सहिष्णुता का संभाव सभी के प्रति होगा, पर्यावरण का सरंक्षण करेगा। धर्म को मानने वाला प्रत्येक व्यक्ति दूसरे धर्म के प्रति सहिष्णुता का भाव रखेगा। इस प्रकार यदि हम संविधान की उद्देशिका, मूल अधिकार व मूल कर्त्तव्यों की सही समीक्षा करे तो इनके पीछे अहिंसा का विशद् दर्शन ही दिखाई देगा जो संविधान सम्मत है।
अहिंसा के दर्शन ने संविधान के कलेवर को प्रभावित किया है और अनुच्छेद 48(अ), अनुच्छेद 51(अ) व 42 वें संशोधन के फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की नई व्याख्या की है और अहिंसा व प्राणीमात्र के प्रति करुणा की भावना को एक नया धरातल दिया है। इस संबंध में स्टेट आफ गुजरात बनाम मिर्जापुर मोती कुरेशी कस्साब जमात्, अखिल भारत गो सेवा संघ बनाम स्टेट आफ आंध्रप्रदेश, हिंसा विरोधक संघ बनाम मिर्जापुर, मोती कुरेशी जमा व अन्य के निर्णय बहुत प्रासंगिक व महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें अहिंसा, पर्यावरण का संरक्षण, वन्य जीव रक्षा बंधुत्व की भावना व विविधतामें समभाव व समता पर तथा धार्मिक सहिष्णुता पर सटीक टिप्पणी की गई है और अहिंसा के महत्त्व को समझाया गया है। अनेकांत दर्शन के सहारे हम कह सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के ये निर्णय व्यक्ति, जाति, वर्ग, संप्रदाय के बीच संघर्ष को समाप्त करने में मील का पत्थर साबित होंगे। ये निर्णय अहिंसा व धर्म निरपेक्ष व प्राणी मात्र के प्रति करुणा भावना की ऋचाएं हैं।
संविधान का प्राणी मात्र के प्रति करुणा भाव और हिंसा से दूर रहने का निर्देशन, पशुवध के औचित्य को स्वीकार नहीं करता। जार्ज बर्नार्ड शॉ ने जब यह कहा था-मैं मानव हूं न कि मृत पशुओं का श्मशान, तो संभवतः, प्राणी मात्र के प्रति करुणा का भाव ही उनके मन में होगा और शायद उन्होंने तोलस्तोय के इस विचार की पुष्टि की थी कि शाकाहारी होना मानवीय प्रगति का प्रथम लक्षण है।
- पाना चंद जैन
भू-नैतिकी : द्रष्टव्य : लियोपोल्ड, आल्डो।
भारतीय समाजवाद :पश्चिमी में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप पूंजीपति वर्ग के साथ-साथ श्रमिक वर्ग का भी विकास हुआ और उसके शोषण से उद्विग्न बौद्धिक वर्ग के चिंतन ने एक नई विचारधारा का विकास किया जिसे समाजवाद कहा जाता है। यह स्वीकार किया जाने लगा कि उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम को भी पूंजी का दर्जा दिया जाना चाहिए और इसलिए उत्पादन के लाभ पर श्रमिक वर्ग का अधिकार होना चाहिए। इस चाहिए के ही कारण बाद में इसे काल्पनिक समाजवाद के नाम से पहचाना गया जिससे आगे बढ़कर कार्ल मार्क्स के चिंतन में इस विचार को एक विज्ञानसम्मत आधार देने की कोशिश हुई। कार्ल मार्क्स के समाजवाद को इसीलिए वैज्ञानिक समाजवाद कहा जाता है।
मार्क्स एक भौतिकवादी विचारक हैं। उनके अनुसार द्वंद्वात्मकता भौतिक जगत का नियम होने के कारण मनुष्य के इतिहास की भी संचालक विधि है। मानवीय जीवन के लिए उत्पादन एक मूलभूत भौतिक आवश्यकता है और द्वंद्वात्मकता का नियम उत्पादन की प्रक्रिया के विकास पर भी लागू होता है। इसलिए मानव-इतिहास की प्रक्रिया को उत्पादन के साधनों में हुए परिवर्तन और विकास के आधार पर भी समझा जा सकता है, क्योंकि भौतिक उत्पादन ही मानव-जीवन का केंद्रीय आधार है। उत्पादन के साधन ही वह बेस है, जिस पर सारी सामाजिक व्यवस्था का सुपर स्ट्रक्चर खड़ा होता है। द्वंद्वात्मकता के नियम से संचालित होने तथा उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व के कारण समाज में भी द्वंद्वात्मकता की प्रक्रिया चलती है और दो वर्गों का संघर्ष दिखाई देता है-एक वह जिसका साधनों पर स्वामित्व है और दूसरा वह जो इन पर स्वामित्व से वंचित होने के कारण शोषित-दमित रहता है। आदिम युग से लेकर आज तक के इतिहास को उत्पादन के साधनों में हुए परिवर्तन के आधार पर चार बड़े युगों में विभाजित करते हुए मार्क्स ने बताया कि आदिम कम्यून युग, दासता का युग, सामंतवाद का युग और बुर्जुआ युग इसी द्वंद्वात्मक प्रक्रिया के कारण विकसित हुए हैं। सामाजिक संरचना में भी उत्पादन-प्रणाली के परिवर्तन के साथ-साथ बदलाव आवश्यक है और शोषित एवं शोषक वर्गों के बीच का संघर्ष इतिहास का बुनियादी संघर्ष है। आधुनिक युग में बुर्जुआ वर्ग और श्रमिक वर्ग के बीच संघर्ष का नतीजा उत्पादन के साधनों और अधिरचना (सुपरस्ट्रक्चर) पर श्रमिक या सर्वहारा वर्ग का स्वामित्व होगा। बुर्जुआ वर्ग के नष्ट हो जाने पर केवल सर्वहारा वर्ग ही बचा रहेगा, अतः इस प्रक्रिया में एक वर्गहीन समाज की स्थापना होगी। इसका प्रतिफलन अधिरचना (सुपर स्ट्रक्चर) में भी होगा, जिसका तात्पर्य एक राज्यविहीन समाज की स्थापना होगा। राज्य वर्गीय स्वार्थों का पोषण करने वाली संस्था है। अतः, वर्गीय स्वार्थों के न रहने के कारण राज्य भी नहीं रह पाएगा। मार्क्स के अनुसार यह आवश्यक है कि हम इतिहास की इस अवश्यंभावी गति को पहचानकर इस प्रक्रिया को तीव्र करने का प्रयत्न करें। इसके लिए किसी भी तरह के साधनों-हिंसा आदि को भी-काम में लिया जा सकता है, क्योंकि साध्य का औचित्य साधनों को भी उचित करार दे सकता है। इतिहास की इस व्याख्या को ऐतिहासिक भौतिकवाद कहा जाता है। इतिहास की इस गति के साथ होना प्रगतिवाद और साथ होने के बजाय बाधक हो जाना या सचेत विरोध करना प्रतिक्रियावाद है।
यूरोप के कई समाजवादी चिंतकों का मानना था कि मार्क्स का ऐतिहासिक भौतिकवाद एक तरह का ऐतिहासिक नियतिवाद हो जाता है, क्योंकि उसकी अवश्यंभावी गति में मानवीय स्वतंत्रता के लिए गुंजाइश नहीं रहती। दूसरे यह कि जिस वर्ग-संघर्ष की बात मार्क्स करते हैं, उसका हिंसक होना अनिवार्य नहीं है, क्योंकि लोकतांत्रिक राज्य के माध्यम से भी ऐसी नीतियां और कार्यक्रम लागू किए जा सकते हैं, जो समाजवाद की स्थापना के साथ-साथ व्यक्ति-स्वातंत्र्य को भी पोषित कर सकें। समानता स्वतंत्रता का विलोम नहीं है बल्कि दोनों परस्पराश्रित है। इस विचार को मोटे तौर पर लोकतांत्रिक समाजवाद की संज्ञा की गई।
भारतीय समाजवाद के विकास में मार्क्सवाद और लोकतांत्रिक समाजवाद दोनों की ही प्रेरणा देखी जा सकती है, लेकिन उसका अपना एक विशिष्ट रूप भी उभरता है जो उसे पश्चिमी समाजवाद की अवधारणाओं से भिन्न एक स्वतंत्र पहचान देता है। भारतीय समाजवाद के प्रमुख चिंतकों आचार्य नरेंद्रदेव, डॉ० राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के विचारों में भी समरूपता होने के साथ-साथ कई भिन्नताएं भी हैं।
भारतीय समाजवाद की एक प्रमुख विशेषता यह है कि वह किसी भी स्थिति में हिंसा की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करता और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के साथ-साथ सामाजिक पहल को भी अनिवार्य मानता है। इन चिंतकों पर महात्मा गांधी के चिंतन का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई देता है। आचार्य नरेंद्रदेव इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या से सहमत होते तथा गांधीवाद को वैज्ञानिक न मानते हुए भी सत्याग्रह को एक तारक अस्त्र के रूप में स्वीकार करते हैं। डॉ० लोहिया के लिए भी सिविल नाफरमानी (सविनय अवज्ञा) राजनीतिक प्रतिरोध का वह माध्यम है जो समाजवाद की स्थापना में कारगर हो सकता है और जयप्रकाश नारायण भी एक अहिंसक वर्ग-संघर्ष की अनिवार्यता अपने अंतिम दिनों में महसूस करते हैं।
एक और बात जो भारतीय समाजवादी चिंतन को पश्चिमी-समाजवादी चिंतन से अलग करती है, वह यह कि जहां पश्चिमी प्रकार में पूर्ण औद्योगीकरण समाजवाद के लिए एक पूर्व-शर्त है, वहीं भारतीय समाजवाद न केवल बड़े उद्योगों के विकास को अनिवार्य नहीं मानता, बल्कि कृषि को भी समाजवादी व्यवस्था का एक प्रमुख आधार स्वीकार कर लेता है-शर्त इतना है कि कृषि जमींदारी व्यवस्था से मुक्त हो-जबकि पश्चिमी समाजवाद कृषि-आधारित अर्थ-व्यवस्था को अनिवार्यतः सामंतवादी व्यवस्था के रूप में देखने के कारण उद्योगों को कृषि से ऊपर रखते हुए कृषि के भी उद्योगीकरण की वकालत करता है। जयप्रकाश नारायण सहकारी खेती को समाजवाद की एक अनिवार्य प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ० राममनोहर लोहिया और जे०पी० तीनों ही छोटी मशीन तथा लघु उद्योगों के माध्यम से विकसित आर्थिक विकेंद्रीकरण को समाजवाद के आर्थिक आधार के रूप में प्रस्तावित करते और उद्योगों का नियमन राज्य के माध्यम से नहीं बल्कि गैर-सरकारी संस्थाओं और श्रमिक वर्ग के स्वतंत्र संगठनों द्वारा चाहते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय समाजवादी चिंतन अहिंसक संघर्ष या सत्याग्रह का एक रचनात्मक आयाम भी मानता है और रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से सामाजिक पहल के आधार पर समाजवाद का विकास चाहता है। जे०पी० इसलिए सर्वोदय को भी समाजवाद का ही परम शुद्ध रूप मानते हैं। सांख्य-दर्शन की त्रिगुणात्मक प्रकृति की अवधारणा के आधार पर हिंसा के माध्यम से स्थापित समाजवाद को तामसिक, राज्य-शक्ति के माध्यम से स्थापित समाजवाद को राजसिक और जनता के विचारों या व्यवहार में परिवर्तन के माध्यम से स्थापित समाजवाद को सात्विक समाजवाद या सर्वोदय कहते हैं।
भारतीय समाजवादी चिंतन में भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दोनों का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। आचार्य नरेंद्रदेव पूर्णतः भौतिकवादी हैं, लेकिन गांधी के नैतिक महत्त्व को स्वीकार, एक तारक अस्त्र के रूप में सत्याग्रह की स्वीकृति तथा बौद्ध दर्शन के प्रति उनका रुझान उनके चिंतन को पश्चिमी भौतिकवादी समाजवाद से कुछ अलग कर देता है। डॉ० लोहिया भी अपने को नास्तिक मानते हैं, लेकिन धर्म को एक दीर्घकालीन राजनीति अर्थात अच्छाई की स्थापना का दीर्घकालीन कौशल मानते और राजनीति को अल्पकालिक धर्म कहते हैं तथा भारतीय देवी-देवताओं और तीर्थों की सांस्कृतिक-सामाजिक व्याख्या के माध्यम से मनुष्य के अस्तित्व को केवल भौतिक स्तर से ऊपर उठाने का प्रयत्न करते हैं। जयप्रकाश नारायण तो अपने समाजवादी दौर में ही स्पष्टतः स्वीकार कर लेते हैं कि आध्यात्मिकता के आधार के बिना नैतिक हो पाना संभव ही नहीं है।
पश्चिमी समाजवादी चिंतन से भारतीय समाजवादी चिंतन को भिन्न रूप देने में इस बात का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है कि जहां पश्चिमी समाजवाद आर्थिक समानता को ही लक्ष्य मानता है, वहां भारतीय समाजवाद में समानता एक बहुआयामी अवधारणा है। आचार्य नरेंद्रदेव गणतंत्र को एक मूल्य मानते हुए उसे राज्य-व्यवस्था-प्रबंधन से बाहर सामाजिक एवं वैयक्तिक-पारिवारिक जीवन में भी प्रतिफलित देखना चाहते हैं और इसे केवल आर्थिक व्यवस्था के अनिवार्य परिणाम के रूप में नहीं देखते। डॉ० लोहिया की सप्तक्रांति की अवधारणा में आर्थिक समानता के साथ-साथ नर-नारी समानता, जातिभेद की समाप्ति, रंगभेद की समाप्ति, अस्त्रों के क्षेत्र में गैर-बराबरी की समाप्ति तथा व्यक्ति और समाज एवं व्यक्ति और राज्य के बीच गैर-बराबरी की समाप्ति को भी शामिल किया गया है। जयप्रकाश नारायण भी सात्विक समाजवाद की स्थापना के लिए जिस संपूर्ण क्रांति की बात करते हैं, उसमें आर्थिक आयाम के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, मानसिक, नैतिक और शैक्षणिक आयाम भी सम्मिलित हैं।
दरअस्ल, भारतीय समाजवादी चिंतन का लक्ष्य अहिंसक संघर्ष के साथ-साथ लोक-शिक्षण और सामाजिक पहल के माध्यम से एक ऐसे अहिंसक समाज की स्थापना करना है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति, महात्मा गांधी की पदावली का प्रयोग करें तो, अपने स्वराज में रह सके। पश्चिमी अवधारणा में समाजवाद एक राजनीतिक आर्थिकी की विचारधारा है, जबकि भारतीय विचारक इसे एक जीवन-दर्शन के रूप में प्रस्तावित करते हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
भ्रूण-हत्या : हर जीव/प्राणी के प्रकृति नियत दो मूल धर्म होते हैं-(1) स्वयं का अस्तित्व बनाए रखने के लिए अपने शरीर की रक्षा करना और (2) अपनी प्रजाति का अस्तित्व बनाए रखने के लिए प्रजनन और संतति उत्पत्ति करना।
प्रकृति नियत, गुणसूत्र आधारित, इन मूल-भूत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किए गए सभी कर्म अहिंसा की श्रेणी में आते हैं और इसके विपरीत किए गए सभी कर्म हिंसा। प्रकृति नियत आहार और व्यवहार, जो सभी इन मूल धर्मों के निमित होते हैं, अपने सरल और स्वाभाविक रूप में, अहिंसा होते है, अपने विकृत रूप में हिंसा। स्वसुरक्षा के लिए आंतरिक (त्रिस्तरीय रक्षा संस्थान) और बाहरी (भय, पलायन, प्रतिशोध प्रक्रिया) संघर्ष स्वाभाविक और अवश्यंभावी है जिसके लिए प्रकृति हर जीव को, गुणसूत्रों के द्वारा, सक्षम बनाकर भेजती है। गुणसूत्रों द्वारा संचालित शरीर के बहुआयामी रक्षा संस्थान का जीवन संघर्ष के लिए प्रयोग प्रकृति नियत सर्वथा अहिंसक है। इसके विपरीत कार्य आत्मघाती और हिंसक।
अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए आवश्यक आंतरिक शारीरिक प्रक्रियाएं, और बाहरी खतरों से स्वयं की सुरक्षा के लिए उपायों का नियंत्रण कुंडलीय मस्तिष्क करता है। आंतरिक शारीरिक प्रक्रिया यथा श्वास, हृदयगति, रक्तचाप, रक्तसंचार, पाचन, पोषण, अपशिष्ट विसर्जन आदि, और बाहरी खतरों में अनुभूत डर और प्रतिक्रियात्मक पलायन या प्रतिशोध, सबका निर्धारक और नियंत्रक कुंडलीय मस्तिष्क और हाईपोथैलेमस होते हैं। स्वजाति सुरक्षा के लिए प्रजनन प्रक्रिया भी इन्हीं केंद्रो से संचालित होती है।
स्वजाति सुरक्षा के लिए गुणसूत्र संचालित, प्रकृति नियत, अहिंसा के सभी तत्त्व प्रजनन और संतान उत्पत्ति प्रक्रिया में प्राकृतिक रूप प्रतिलक्षित होते हैं। संयम, संवाद, सौहार्द, समन्वय, सहिष्णुता, सहअस्तित्व, समर्पण, ममता, मातृत्व और वात्सल्य-प्रजनन प्रक्रिया के प्राकृतिक आधार होते हैं। सृजन सबसे सार्थक सकर्म अहिंसा है।
मां की कोख का मानवीय महत्त्व असीम होता है। कोख और गर्भ के बीच संबंध क्या मात्र भौतिक है या गहरा भावनात्मक लगाव? गहरे भावनात्मक लगाव का आधार क्या है? कोख का भौतिक रूप है गर्भाशय। गर्भाशय आज किराए पर मिल सकता है, मां की कोख कभी नहीं। कोख और गर्भ के बीच का रिश्ता विलक्षण होता है, और रिश्ते किराए पर नहीं मिलते। स्वयं का मां से ही नहीं, उसी कोख से जन्मे सहोदरों के बीच रिश्ता भी गहरा होता है। गर्भाशय की कोख बनने की क्रिया एक जटिल रासायनिक प्रक्रिया है, जिसके गहरे भावनात्मक पहलू हैं।
गर्भाशय मांसपेशियों की मोटी थैली होती है, जिसे कोख बनने के लिए कम से कम 12-13 साल का सफर तय करना होता है। उसके बाद उसे नियमित मासिक यज्ञ करना होता है, अपने रक्त की आहुति देनी होती है। आत्मशुद्धि के लिए यज्ञ या अनशन का सात्विक प्रतिरूप है गर्भाशय का कोख बनने के लिए यह नियमित अनुष्ठान। हर बच्ची के मस्तिष्क में एक जैविक घड़ी होती है और साथ में एक डायरी भी। इस जैविक डायरी में गर्भाशय में होने वाले प्रतिवर्ष के परिवर्तनों का लेख-जोखा दर्ज होता है और किशोरी अवस्था के आते-आते जब मालूम होता है कि गर्भाशय कोख बनने में सक्षम हो गया है तो जैविक घड़ी से पीयूष ग्रंथि को इसकी सूचना दी जाती है। संकेत पाकर पीयूषग्रंथि जननग्रंथि-प्रेरक हार्मोन स्रावित करती है। इस हार्मोन से प्रेरित होकर डिंबग्रंथि स्त्रीबीज (ओवम) तैयार करती है, हर महीने एक-एक। तैयार होता स्त्रीबीज और उसकी सहायक कोशिकाएं गर्भाशय को प्रेरक हार्मोन इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन, भेजकर तैयार होने का संदेश भेजती हैं।
स्त्रीबीज के परिपक्व होकर आने के 11-12 दिनों के दौरान प्रतिदिन इस्ट्रोजन हार्मोन से प्रेरित होकर गर्भाशय की आंतरिक झिल्ली, एंडोमैट्रियम, गर्भ के आने की अपेक्षा में, गर्भ के स्वागत, सत्कार और पोषण की तैयारी में जुट जाती है। एंडोमैट्रियम की रक्त नलिकाएं लंबी और सर्पिल आकार की हो जाती हैं, ताकि प्रचुर मात्रा में रक्त उपलब्ध हो सके। एंडोमैट्रियम में स्थित नन्हीं ग्रंथिया बड़ी हो जाती हैं ताकि इनमें पोषक तत्त्व संग्रहित हो सके। पूरी एंडोमैट्रियम मखमली व गुदगुदी हो जाती है। अतिथि सत्कार की इससे अच्छी मिसाल ढूंढे नहीं मिलेगी।
अवचेतन मस्तिष्क में स्थित रज घड़ी अब दूसरा संदेश पीयूष ग्रंथि को भेजती है। पीयूष ग्रंथि डिंब क्षरण हार्मोन स्रावित करती है। डिंब, डिंबग्रंथि से निकलकर गर्भाशय की डिंबवाहक नली में आ गिरता है। हार्मोनस की रासायनिक प्रक्रिया के फलस्वरूप ही डिंब वाहक नली ठीक समय पर डिंब को हाथ फैलाए लपकने को तैयार रहती हैं, अतिथि के स्वागतार्थ, वरना तो, नन्हें डिंब का, उदर गुहा में गिरने पर, कहीं अतापता ही नहीं चले।
डिंब क्षरण होते ही डिंबग्रंथि में स्थित ग्रेनुलोसा कोशिकाएं गर्भाशय की सूचनार्थ एक नया गर्भ प्रेरक-पोषक हार्मोन, स्रावित करती हैं। इस प्रोजेस्टेरोन हार्मोन के व्यापक प्रभाव होते हैं। गर्भाशय को सूचना मिल जाती है कि स्त्रीबीज आ रहा है। गर्भाशय की एंड्रोमैट्रियम में इस्ट्रोजन से प्रेरित पोषक ग्रंथिया अब पोषक तत्त्वों से भर जाती हैं। एंड्रोमैट्रियम की सतही कोशिकाओं को संदेश मिलता है कि एक नन्हा प्राणी आ रहा है। अतः, उसके स्वागत-सत्कार के लिए तैयार रहें, तत्पर रहें। एंडोमैट्रियम की सभी लाखों कोशिकाओं को यह संदेश जाता है, मालूम नहीं नन्हा प्राणी उनमें से किसके पास पहुंचे।
ईस्ट्रोजन से संवेदनशील बने गर्भाशय पर जहां प्रोजेस्टेरोन गर्भ-प्रेरक हार्मोन का कार्य करता है, वहीं यह हार्मोन मस्तिष्क के लिंबिक लोब स्थित यौन केंद्रों को भी प्रेरित करता है। यौन कल्पना, परिकल्पना, सुखानुभूति, स्मृति और संवेदनशीलता की प्रेरणा मिलती है और शरीर के अंग-अंग को यौन आतुरता रहती है। क्षरित स्त्रीबीज बस एक दिन ही जीवित रह सकता है। अतः, यही, और मात्र यही, समय है जब शुक्राणु का मिलन स्त्रीबीज से हो सकता है। अतः इसका प्रयास अवचेतन में भी होता है। अगर यह मिलन नहीं हुआ तो गर्भाशय की व्यापक तैयारियां व्यर्थ जाएंगी, और व्यर्थ जाती हैं। डिंबग्रंथि प्रोजेस्टेरोन बनाना बंद कर देती है। गर्भाशय की सर्पिल रक्त नलियां संकुचित हो जाती हैं, रक्त प्रवाह रुक-सा जाता है, एंडोमैट्रियम का सतही भाग नष्ट हो जाता है, ऋतुस्राव शुरू हो जाता है। यज्ञ की समाप्ति, पूर्ण आहुति। गर्भाशय गर्भाशय ही रह जाता है, कोख नहीं बन पाता।
यौन मस्तिष्क, हाइपोथैलेमस, पीयूष ग्रंथि, डिंब ग्रंथि और गर्भाशय के पारस्परिक विलक्षण रासायनिक संवाद व समन्वय हैं ऋतुचक्र रूपी यज्ञ। निष्काम लोकहितार्थ कर्म ही धर्म होता है, इसलिए ही इसे मासिक धर्म कहते हैं।
लेकिन इस बीच अगर संभोग होता है, और शुक्राणु योनिपथ के जटिल मार्ग को सफलता पूर्वक पार कर समय सीमा में स्त्रीबीज तक पहुंचता है और मिलन (निषेचन) हो जाता है, तो स्त्रीबीज के आधे गुणसूत्र, शुक्राणु के आधे गुणसूत्रों से मिलकर पूरक गुणसूत्रों से युग्म बनाते हैं। और तब प्रारंभ होती है सृष्टि सृजन की विलक्षण प्रक्रिया, जिसमें एक कोशकीय युग्म से लाखों-अरबों कोशिकाओं वाला मानव शरीर विकसित होता है। और यह सब संचालित होता है हर गुणसूत्र पर स्थित डी०एन०ए० से बने जींस से। हर जीव को यही जीवन चक्र शाश्वतता प्रदान करता है, सृष्टि में निरंतरता।
स्त्रीबीज शुक्राणु से मिलकर युग्म बनता है, युग्म गर्भ बन जाता है, गर्भाशय कोख और स्त्री मां। इसका आधार है जटिल, किंतु विलक्षण रूप से समन्वित रासायनिक प्रक्रियाएं।
निषेचन उपरांत बना युग्म कोशिकाओं में विभाजित होता हुआ डिंब वाहिनी से गर्भाशय की ओर अग्रसर होता है। कौन करता है इसके लिए प्रेरित? कौन करता है इसका पथ प्रदर्शन? चेतन मस्तिष्क को तो इसका बोध भी नहीं होता, लेकिन युग्म और योनिपथ के बीच पारस्परिक रासायनिक संवाद होता है। सृजन के अहिंसक धर्म-निर्वाह में अवचेतन में सतत पारस्परिक संवाद अहं भूमिका निभाता है।
कुछ ही दिनों में कोशिकाओं में विभाजित होता युग्म कोशिकाओं का पुंज बना गर्भाशय में पहुंचता है। स्त्रीबीज में स्थित ऊर्जा के संग्रहित पोषक तत्त्व खत्म होते जाते हैं और युग्म को जीवित रहने के लिए इनकी आवश्यकता होती है। कोशिकाओं का पुंज बना युग्म एंडोमैट्रियम की सतही कोशिकाओं से संपर्क साधता है। लेकिन, एक बड़ी दुविधा उपस्थित होती है। युग्म की कोशिकाओं में आधे गुणसूत्र पिता के होते हैं। ये गुणसूत्र महिला के गुणसूत्रों से विषम होते हैं। प्रकृति का शाश्वत नियम है कि कोई भी जीव अपने से भिन्न गुणसूत्रों वाले को स्वीकार नहीं करता, उसको नष्ट कर बाहर फेंकने के लिए शरीर का रक्षा संस्थान तत्पर रहता है। गर्भाशय भी इसमें सक्षम होता है। हालांकि डिंबग्रंथि से आने वाले गर्भ प्रेरक व गर्भ पोषक इसके लिए संदेश भेज चुके होते हैं। गर्भाशय इसके प्रति संवेदनशील भी होता है, लेकिन व्यावहारिक स्तर पर युग्म की कोशिकाओं और गर्भाशय की सतही कोशिकाओं के बीच रासायनिक संवाद होता है। पारस्परिक सहिष्णुता का रासायनिक परिवेश तैयार होता है। आपस में सौहार्द बनता है। गर्भाशय अब कोख बन जाता है। कोख, जो विषम गुणसूत्रों वाले इस जीव के स्वागत, संरक्षण और संवर्द्धन को तैयार और तत्पर हो जाती है। सहअस्तित्व की अनूठी मिसाल। युग्म से संचालित रसायनों से भ्रूण, गर्भपथ और माता के शरीर से, अवचेतन में व्यापक और सतत संवाद स्थापित करता है। डिंब वाहिनी से चलकर गर्भाशय में आता युग्म यह विलक्षण संवाद स्थापित करता है। गर्भाशय को स्वीकार करने के अनुकूल ही नहीं बनाता वरन् उसे अति आतुर और अपेक्षारत बनाता है। मातृत्व, मानसिक चेतना से उत्पन्न भाव नहीं, अवचेतन में रासायनिक अनुभूति आधारित सहजवृत्ति (इंसिटिंक्ट) है। संतति उत्पत्ति से प्रकृति में निरंतरता और शाश्वत्तता का आधार।
पारस्परिक रासायनिक संवाद द्वारा कोख की सतही कोशिकाएं युग्म की कोशिकाओं को स्थापित होने के लिए पथ प्रदर्शित करती हैं और गर्भ की कोख में स्थापना हो जाती है। गर्भ को पोषण, संरक्षण मिलता है और कोख को सृजन का आत्मसुख।
डिंबग्रंथि को गर्भ-स्थापना की रासायनिक सूचना जाती है। आग्रह होता है कि वह गर्भप्रेरक एवं पोषक प्रोजेस्टेरोन हार्मोन बनाना चालू रखे। अगर संवाद नहीं पहुंचता तो डिंब ग्रंथि यह हार्मोन बनाना बंद कर देती है और ऋतुस्राव हो जाता है। गर्भ की स्थापना की सूचना यौन मस्तिष्क और पीयूष ग्रंथि को भी पहुंचती है।
स्थापित गर्भ के भ्रूण में विकसित होने की प्रक्रिया में उसके पोषण की आवश्यकताएं उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं। कोख अब भ्रूण को नए संबंध के लिए प्रेरित करती है। अपरा (प्लेसेंटा) विकसित होता है और भ्रूण नाभिनाल से जुड़ जाता है। अपरा की संरचना और कार्य विलक्षण होते हैं। भ्रूण और मां के बीच संपर्क सेतु और संबंध सेतु। अपरा में भ्रूण का रक्त शुद्धिकरण के लिए आता है और शुद्ध और पोषक तत्त्वों से लैस होकर भ्रूण के पास वापस लौट जाता है। भ्रूण का रक्त कोख के रक्त में मिश्रित नहीं होता और न ही सीधा संपर्क में आता है। दोनों के बीच भ्रूण की एक कोशिकीय परत होती है। सृजन के लिए, परोपकार स्वरूप, मां भ्रूण को अपने रक्त से सींचती है।
कोख में स्थापित यह अपरा भ्रूण की आंत, गुर्दे और फेफड़ों का कार्य करने का माध्यम होता है। अपरा और कोख के बीच सतत रासायनिक संकेतों और संदेशों के अनुरूप ये सारी प्रक्रियाएं संचालित होती है। भ्रूण के शरीर के सभी अपशिष्ट अपरा द्वारा कोख के रक्त में छोड़ दिये जाते हैं। कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्ग अपरा करता है और कोख के रक्त से प्राण वायु ले लेता है। भ्रूण अपनी आवश्यकता के अनुरूप मां की कोख से पोषक तत्त्व ले लेता है।
अपरा कोख से रिश्ते में इससे भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जो गर्भप्रेरक और गर्भपोषक हार्मोन पहले डिंब ग्रंथि बनाती थी, वे अब अपरा बनाता है। भ्रूण की निर्भरता कम होती जाती है, कोख उसे स्वतंत्र बनाती है, स्वायत्तता देती है। इसके अतिरिक्त अपरा अनेक हार्मोन और रसायन बनाता है, जो मां की अंतःस्रावी ग्रंथियों से संपर्क स्थापित करता है और वस्तुतः उनके ऊपर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेता है। भ्रूण मां के शरीर का अंतरंग अंग बन जाता है। यह वर्चस्व यहां तक होता है कि भ्रूण की आवश्यकताओं की पूर्ति प्राथमिकता से होती है, मां के शरीर के लिए पर्याप्त न हो तब भी।
कोख का संबंध मात्र भौतिक नहीं है। गर्भ की अनुभूति उसके हिलने-डूलने और दिल की धड़कनों से ही नहीं होती। कोख के माध्यम से गर्भ की अनुभूति गहन भावनात्मक होती है। भौतिक अनुभूति होने से कहीं पहले जब गर्भ के रूप में युग्म कोख में आता है, तब से रासायनिक अनुभूति आरंभ हो जाती है। अपरा के हार्मोन, भावना प्रवर मस्तिष्क लिंबिक लोब को गर्भ निहित भावनाओं के प्रति संवेदनशील बनाता है। गर्भ की रासायनिक अनुभूति इसी लिंबिक लोब (चक्रिल मस्तिष्क) में होती है। गर्भ संरक्षण, ममत्व के भाव, मातृत्व, सबका केंद्र, मस्तिष्क का यही भाग होता है। मातृत्व चेतन मस्तिष्क का बौद्धिक पक्ष नहीं वरन अर्ध-चेतन और अवचेतन मस्तिष्क की रासायनिक अनुभूति जनित भाव है। कोख और अपरा मिलकर एक विलक्षण रसायनेंद्री का कार्य करते हैं जो शरीर की सभी ज्ञानेंद्रियों, जननेंद्रियों और रसेंद्रियों को अति संवेदनशील बना देते हैं। मां का समस्त अस्तित्व ही कोख केंद्रित हो जाता है। मातृसुख से बड़ा कोई सुख नहीं है।
गर्भ कोख से केवल अपरा से ही नहीं जुड़ा होता, वरन् गर्भ का आवरण, एम्नियोटिक मेंब्रेन (जेरा), कोख की समस्त अंदरूनी सतह से जुड़ी होती है। इनमें भी बड़ा अंतरंग संबंध होता है। एम्नियोटि थैली में स्थित तरल, गर्भ के चारों ओर होता है, जिसमें गर्भ मछली की तरह तैरता और जीता है। एम्नियोटिक मेंब्रेन और तरल के माध्यम से भी भ्रूण कोख से और कोख के माध्यम से माता से संपर्क साधता है, रासायनिक संकेत और सूचनाएं भेजता और प्राप्त करता है।
कोख बनने से पहले गर्भाशय मांसपेशियों की एक मोटी थैली था। मांसपेशियों की प्रकृति होती है संकुचन। गर्भस्थापना के लिए यह आवश्यक था कि इस संकुचन प्रक्रिया को रोका जाए, वरना तो गर्भ ठहर ही नहीं पाएगा (प्रतिहिंसात्मक प्रवर्तियों का दमन)। पहले डिंबग्रंथि स्रावित इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन हार्मोनों से संकुचन का शमन होता रहा। तत्पश्चात् जब अपरा यह हार्मोन बनाने लगा तो कोख, गर्भावस्था के अनुरूप धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। कोख गर्भाशय से पचास गुणा बड़ी होती है।
गर्भावस्था के पूर्णकालीन अवस्था में पहुंचने पर अपरा संकुचन शामक हार्मोन स्रावित करना बंद कर देता है। फलस्वरूप कोख अपनी स्वाभाविक, संकुचन प्रकृति में लौट आती है। गर्भाशय की मांसपेशियां बड़ी शक्तिशाली होती हैं। प्रसव प्रारंभ हो जाता है। प्रसव का प्रारंभ भ्रूण से मिले संकेतों के फलस्वरूप ही होता है।
प्रसव पीड़ा कोख केंद्रित होती है। कोख एक संवेदनशील इंद्रिय का कार्य करती है। अपनी पीड़ा से अधिक मां को, प्रसवपथ से गुजरते कोमल शिशु की संभावित पीड़ा और कष्ट का भान होता है। यही है ममता। प्रसव पीड़ा का सुख, गर्भ-सृजन की पूर्ण परिणति का सुख होता है, अद्भुत, अद्वितीय, अवस्मिरणीय।
वीर्य की एक बूंद को अगर सूक्ष्मदर्शी यंत्र (माइक्रोस्कोप) के नीचे रखकर देखें तो आप आश्चर्यचकित रह जाएंगे। लाखों-लाखों शुक्राणुओं की विशाल सेना युद्धस्थल पर सक्रिय एवं गतिशील सैनिकों सी नजर आएगी। इस लाखों शुक्राणुओं की युद्धतत्पर सेना का तात्पर्य क्या है, जबकि डिंब (ओवम) को निषेचन के लिए मात्र एक शुक्राणु चाहिए? कहते हैं, प्रकृति में सब कुछ पूर्व नियोजित होता है, व्यर्थ कुछ नहीं। फिर इन लाखों शुक्राणुओं का अर्थ क्या है? आवश्यकता क्या है? यह यज्ञ प्रश्न है। फिर क्या है जो योनि में स्खलित वीर्य से शुक्राणुओं को गर्भाशय की ऊबड़ खाबड़ लंबी गुहा, और फिर डिंबवाहिनी (टयूब) की अति जटिल गुहिकाओं से होते हुए, अंतिम सिरे पर अवस्थित डिंब की ओर ले जाता है? ऐसा कौन सा रासायनिक आकर्षण है जो करोड़ों शुक्राणुओं को प्रतिस्पर्धा में उत्सर्ग होने को तत्पर करता है?
क्या एक शुक्राणु की सफलता के लिए करोड़ों शुक्राणुओं की बलि निरर्थक थी? नहीं। वीर्य एक विरल तरल है। इसमें अनेक हार्मोन और रसायन होते हैं। शुक्राणुओं के अवशेष और वीर्य के ये रसायन योनिपथ और गर्भपथ द्वारा अवशोषित होकर महिला के अंग अंग का प्रभावित करते हैं। संभोग का क्षणिक आनंद अपनी जगह है, परंतु महिला के शरीर की तृप्ति और तुष्टि के लिए ये रासायनिक आत्मसुख अहम है। संतति प्राप्ति के शाश्वत सत्य के लिए यह आवश्यक भी है।
गर्भाशय में विकसित होते और पनपते भ्रूण के प्रति ममता का आधार भी व्यापक रासायनिक संवाद और अवचेतन से होती अनुभूति ही है। गर्भस्थ शिशु के आंवल (प्लेसेंटा) से संचारित हार्मोन तो माता के अंतःस्रावी ग्रंथि संस्थान को एक प्रकार से अपने पक्ष में कर लेते हैं। आंवल गर्भस्थ शिशु के फेंफड़ों और गुर्दे का काम करता है। पोषण जैसी आवश्यकताओं पर माता के शरीर से पहले गर्भस्थ शिशु का अधिकार हो जाता है। गर्भस्थ शिशु के आवरण आदि से भी सतत संवाद होता है। इन रासायनिक संवेदनाओं के फलस्वरूप, शिशु का पोषण और रक्षण, अवचेतन के प्रमुख भाव होते हैं मातृत्व के आधार।
प्रसव भी गर्भस्थ शिशु और माता के बीच रासायनिक संवाद के फलस्वरूप ही होता है। शिशु द्वारा स्रावित रसायन, गर्भाशय को शिशु के विकास के अनुरूप ढालता है। पूर्ण विकास पर गर्भस्थ शिशु, गर्भाशय को अनुकूल बनाने वाले रसायन बनाना छोड़ देता है। फलस्वरूप गर्भाशय की सशक्त मांसपेशियां अपने प्राकृतिक स्वरूप में संकुचन करने की अवस्था में आ जाती हैं। प्रसव पीड़ा होती है। प्रसवपथ से गुजरते शिशु के प्रति मां का ध्यान अपनी पीड़ा से अधिक शिशु की संकटपथ से गुजरने की पीड़ा और उसकी सुरक्षा के प्रति होता है। चेतन और अवचेतन की यह विरल प्रक्रियाएं ममता का अधार होती हैं।
प्रसवोपरांत शिशु को गोद में लेकर वक्ष से लगाने की आतुरता वात्सल्य का आधार होती है। बच्चे के कोमल अधरों के स्पर्श से उत्पन्न संवेदना मां की पीयूष ग्रंथि तक पहुंचती है। वहां से स्रावित हार्मोन, स्तन में दुग्ध-उत्पादन और प्रवाह करते हैं। दूध पीने को जितना आतुर शिशु रहता है उससे कहीं ज्यादा आतुर दूध पिलाने को मां रहती है। यह है वात्सल्य। बच्चे की चाह में स्तन से झरता दूध इसके साक्ष्य हैं। स्तनपान और दूध का रिश्ता मात्र शिशु के पोषण के लिए नहीं वरन् मां के अगाध लगाव का आधार होता है। कोख और दूध का रिश्ता विलक्षण होता है। अवचेतन अधिक, चेतन कम और बुद्धि परक न्यूनतम।
भ्रूण-हत्या या गर्भपात पर हिंसा-अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में इसी दृष्टि से विचार अपेक्षित है-कानूनी व्यवस्थाएं बदलती रह सकती हैं। नैतिक-भावात्मक दृष्टि से सृष्टि की निरंतरता बनाए रखना अहिंसा है और उसे नष्ट करना हिंसा। इसलिए गर्भपात या भ्रूण-हत्या का आधार केवल माता की जीवन-रक्षा का ही हो सकता है। अन्य आधारों पर गर्भपात-चाहे कानूनी तौर पर मान्य हो-नैतिक औचित्य हासिल नहीं कर पाता।
- डॉ० श्रीगोपाल काबरा
मंडेला, नेल्सन : दक्षिण अफ्रीका के गांधी के नाम से विख्यात नेल्सन रोलीहृला मंडेला (जन्म-18 जुलाई 1918 ई०) जनतांत्रिक चुनावों के उपरांत (1994-99 ई०) दक्षिण अफ्रीका के प्रथम अश्वेत राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते है। राष्ट्रपति बनने से पूर्व मंडेला नस्लवाद विरोधी कार्यकर्ता के रूप में दुनिया भर में जाने जाते थे, जिन्होंने महात्मा गांधी के आदर्शों के अनुरूप लंबे समय तक संघर्ष किया, जिसके कारण उन्हें अपने जीवन के 27 वर्ष कारावास में बिताने पड़े।
कारावास से मुक्ति के उपरांत दक्षिण अफ्रीका में बहु-नस्लीय लोकतंत्र की स्थापना में उन्होंने महत्त्वपूर्ण योगदान किया। नेल्सन मंडेला को पिछले चार दशकों में अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए हैं, जिसमें प्रतिष्ठित नोबेल शांति पुरस्कार (1993 ई०) भी शामिल हैं।
नेल्सन मंडेला महात्मा गांधी के विचारों से बहुत प्रभावित हैं। सत्याग्रह के बारे में मंडेला का मानना था कि सत्य को साकार करने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों ही किस्म के संघर्ष करने होंगे। इस सत्य की खोज अलग-थलग रहते हुए आत्म-केंद्रित ढंग से नहीं की जा सकती। महात्मा गांधी की इस बात से वह प्रभावित थे कि सत्य को ईश्वर के, परम नैतिकता के साथ एकाकार करके ही देखा जा सकता है। वह इस बात से भी बहुत प्रभावित थे कि वह दक्षिण अफ्रीका के निवासी हैं, जिसने गांधी को प्रभावित किया और स्वयं भी उनके विचार-दर्शन से प्रभावित हुआ। नेल्सन मंडेला के अनुसार गांधी की सीख के मुताबिक उन लोगों ने अपने संघर्षों के समाधान हेतु मध्यस्थता एवं समझौते के मार्ग का अनुसरण किया।
स्वदेशी के संदर्भ में उनका मानना था कि संसार भर की, और खासकर अफ्रीका की भुखमरी की एक बड़ी वजह तैयार मालों के लिए विदेशी बाजार पर लगातार जारी निर्भरता है। इसके कारण घरेलू उत्पादन का गला घुटता है और घरेलू कौशल नाकारा हो जाता है; विदेशी कर्जों का बोझ चढ़ता है सो अलग। आत्म-निर्भरता के संदर्भ में गांधीजी के आर्थिक सिद्धांतों का मंडेला व्यापक समर्थन करते और व्यापक अनुसरण करने की कोशिश भी करते हैं। उनके शब्दों में तीसरी दुनिया से भुखमरी मिटाने और विकास को गति प्रदान करने में आत्म निर्भरता/स्वदेशी की बड़ी भूमिका हो सकती है।
नेल्सन मंडेला का जन्म 18 जुलाई 1918 ई० को दक्षिण अफ्रीका के केप प्रोविंस के उमटाटा जिले के मेविजों गांव में हुआ। इनका संबंध थेंबू वंश से है जो वहां का राजघराना हुआ करता था। इनके पिता का नाम गोडला हेनरी मफ्हाफाकेन्यीस्व (Godla Henry Mphakanyiswa) था, जो मेविजो के प्रमुख थे, इनकी माता का नाम नोसकिनी फेनी (Nusekeni Fanny) था। इनके बचपन का नाम रोलीहृला (Rolhlahla) था जिसका तात्पर्य होता है-समस्या उत्पन्न करने वाला। रोलीहृला अपने परिवार का प्रथम सदस्य था जो स्कूल गया था। जहां इनकी शिक्षिका मिस मेडिनगेने ने इनका नाम नेल्सन रखा। जब नेल्सन नौ वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। इनकी प्राथमिक पढ़ाई वेल्सीयन मिशन स्कूल में हुई। इन्होंने फोर्ड हेरे विश्वविद्यालय में स्नातक के लिए दाखिला लिया, लेकिन विश्वविद्यालय की नीतियों के विरोध-प्रदर्शन में भाग लेने के कारण विश्वविद्यालय से निलंबित कर दिया गया। बाद में इन्होंने लंदन विश्वविद्यालय के दूरस्थ कार्यक्रम के अंतर्गत कानून में स्नातक (विधि स्नातक) की उपाधि प्राप्त की। नेल्सन मंडेला ने तीन शादियां की, जिनसे उन्हें छह बच्चे हुए। नेल्सन मंडेला का प्रथम विवाह 26 वर्ष की आयु में 1944 ई० को ईविलयन नटूको मशे (Evelyan Ntoko Mase) से हुआ। नेल्सन मंडेला की दूसरी शादी विनी मेडिकीजिला मंडेला (Winne Madikizela Mandela) से हुई। नेल्सन मंडेला की तीसरी शादी उनके 80 वें वर्षगांठ पर 1998 ई० में ग्रेका मिकल (Greca Machel) से हुई जो मोजांबिक के पूर्व राष्ट्रपति समोरा मिकल की पत्नी थी।
1948 ई० के चुनावों के बाद जब नस्लभेद समर्थक नेशनल पार्टी सत्ता में आई तब नेल्सन मंडेला सक्रिय राजनीति में शामिल हुए। 1952 ई० में ये अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (ANC) के अवज्ञा अभियान में जुड़े तथा 1955 ई० में जनता की कांग्रेस अभियान का हिस्सा बने, जिसने फ्रीडम चार्टर को लागू करने की बात की। 5 दिसंबर 1956 ई० को मंडेला अपने 150 सहयोगियों केसाथ गिरफ्तार किए गए तथा इन पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया। 1961 ई० में मंडेला अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के सशस्त्र शाखा उमखोंतो वे सिजवे (Umkhonto we Sizwe) के नेता चुने गए। 5 अगस्त 1962 ई० को मंडेला दोबारा गिरफ्तार किए गए, तथा उन्हें जोहानिसबर्ग किले में बंदी बनाया गया। 25 अक्टूबर 1962 ई० को मंडेला को पांच साल की सजा सुनाई गई। सजा काटने के दौरान ही इन पर देशद्रोह का भी आरोप लगाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनते समय मंडेला ने कहा कि मैंने श्वेत आधिपत्य को चुनौती दी है तथा अश्वेत आधिपत्य के खिलाफ भी लड़ चुका हूं। एक लोकतांत्रिक एवं स्वतंत्र समाज के आदर्श की आकांक्षा उन्होंने अपने दिल में संजोई ताकि सभी लोग समान अवसर प्राप्त कर सकें एवं सौहार्द के साथ रह सकें। मंडेला का मानना था कि यह एक ऐसा आदर्श है जिसे वह पाना तथा इसके लिए जीना चाहते हैं। लेकिन यह एक ऐसा आदर्श भी है कि जरूरत पड़े तो इसके लिए मैं मरने को भी तैयार हूं। उन्होंने अपने जिंदगी के 27 वर्ष रॉबेन द्वीप पर कारागार में रंगभेद नीति के खिलाफ लड़ते हुए बिताए। जेल में रहते हुए उन्हें यह प्रस्ताव दिया गया कि यदि वह बंटुस्तान नीति को स्वीकार करले तो उन्हें रिहा किया जा सकता है, जिसमें ट्रांसकी की स्वतंत्रता को स्वीकार करना तथा वहां बसना था। मंडेला ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। जेल में रहते हुए मंडेला ने सीखा कि साहस डर की अनुपस्थिति मात्र नहीं है, बल्कि उस पर विजय प्राप्त करना है। उनके शब्दों में साहसी व्यक्ति वह नहीं जो डरता नहीं है, बल्कि वह है जिसने डर पर विजय प्राप्त की है। महात्मा गांधी को पढ़ते हुए उन्हें यह अहसास भी हुआ कि यदि आप अपने शत्रु के साथ शांति बनाए रखना चाहते हैं तो आपको अपने शत्रु के साथ काम करना चाहिए। इससे वह आपका सहयोगी हो जाएगा। गांधी-दर्शन से प्रभावित मंडेला ने अपनी आत्मकथा लांग वॉक टू फ्रीडम में कहा है कि कोई व्यक्ति जन्म से ही रंग, उसके परिवेश अथवा धर्म के आधार पर किसी व्यक्ति से नफरत करना नहीं सीखता। वह इसे समाज में ही रहकर सीखता है। लेकिन यदि समाज में रहकर घृणा/नफरत सीखी जा सकती है तो प्रेम/सद्भाव क्यों नहीं सीखा जा सकता है? इसके लिए जरूरी यह है कि आप अपने प्रतिपक्षी से घृणा के बजाय प्रेम करें।
2 फरवरी 1990 ई० को तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रेडरिक विलियम डी क्लार्क ने अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस एवं अन्य नस्लवाद विरोधी संगठनों पर प्रतिबंध समाप्त करने की घोषणा की, जिसके फलस्वरूप नेल्सन मंडेला आजाद किए गए। अपनी आजादी के दिन मंडेला ने देश के नाम अपने संबोधन में शांति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दोहराया, लेकिन साथ ही इस बात को स्वीकार किया कि अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का सशस्त्र संघर्ष समाप्त नही हुआ है। इसके साथ ही उन्होंने अश्वेत जाति में शांति स्थापित करने पर जोर दिया तथा राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय चुनावों में अश्वेतों के मतदान के अधिकार की बात की।
जेल से रिहा होने के बाद मंडेला अफ्रीका नेशनल कांग्रेस के नेता चुने गए तथा 1990-94 ई० तक देश के पहले बहुनस्लीय चुनावों के लिए जमीन तैयार करने में अपनी पार्टी की अगुवाई की। 1991 ई० में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के सम्मेलन में इन्हें निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया। अपने नस्लवाद विरोधी अभियानों के लिए 1993 ई० में इन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति एफ०डब्ल्यू०डी० क्लार्क के साथ संयुक्त रूप से नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया।
अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के वयोवृद्ध नेता चेरिस हनी की अप्रैल 1993 ई० में हत्या के बाद जब हालात गृह-युद्ध जैसे बन गए उस समय मंडेला ने देश के नाम अपने संबोधन में हत्यारे के प्रति क्षमा की अपील की। हत्यारे के प्रति क्षमा, दरअस्ल, मंडेला के अहिंसा के प्रति बढ़ते लगाव का परिणाम था।
27 अप्रैल 1994 ई० को दक्षिण अफ्रीका में पहला बहु-नस्लीय चुनाव संपन्न हुआ। चुनावों में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस को 62 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए। अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में नेल्सन मंडेला ने 10 मई 1994 ई० को देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। नेल्सन मंडेला द०अफ्रीका के सबसे बुजुर्ग राष्ट्रपति के रूप में भी जाने जाते हैं जिन्होंने 77 वर्ष की आयु में राष्ट्रपति का पद ग्रहण किया। राष्ट्रपति के रूप में 1994 ई० से 1999 ई० तक के अपने कार्यकाल में मंडेला नस्लवाद विरोधी अपने कार्यों के लिए दुनिया भर में सराहे गए। अल्पसंख्यकों की सत्ता से बहुसंख्यकों की सत्ता के प्रतीक के रूप में मंडेला राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में इज्जत से देखे जाते हैं। अश्वेतों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने में उनका योगदान सराहनीय रहा है। राष्ट्रपति चुने जाने के उपरांत उनके ट्रेडमार्क के लिए विख्यात वाटिक शर्ट, जिसे मंडेला शर्ट भी कहा जाता है, के लिए भी नेल्सन मंडेला प्रसिद्ध हुए। अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण मंडेला ने तय किया कि वह दोबारा राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ेगें।
राष्ट्रपति के रूप में 1999 ई० में अपने कार्यकाल के खत्म होने पर नेल्सन मंडेला सक्रिय राजनीति से अपने को अलग करते हुए विभिन्न सामजिक एवं मानवाधिकार कार्यक्रमों से जुड़ गए। जिसमें मेक पावर्टी हिस्ट्री कार्यक्रम में हिस्सेदारी उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त अनाथ बच्चों के पुनर्वास को समर्पित एस०ओ०एस० कार्यक्रम के लिए धन-जुटाने में भी इन्होंने उल्लेखनीय कार्य किया है। शांति और अहिंसा पर दिल्ली में जनवरी 2004 ई० में आयोजित सम्मेलन में अपने संदेश में उन्होंने कहा कि पिछली शताब्दी में मनुष्य जाति की तमाम उपलब्धियों के बावजूद भी हमारे विभिन्नतामूलक सह-जीवन हेतु शांति एवं अहिंसा एक स्वचालित या प्रभावशाली तत्त्व नहीं बन सके हैं। मनुष्य आज जिस स्थिति में है, उसे उस स्थिति में पहुंचाने के आरोप से हममें से कोई भी नहीं बच सकता। हमने दुनिया के हर हिस्से में भिन्नताओं वाले मामले में बल और हिंसा के प्रयोग के तर्क ढूंढे जबकि उन्हें वार्तालाप, मध्यस्थता एवं विवेक से हल किया जा सकता था।
शांति के संदर्भ में उनका मानना था कि संघर्ष की अनुपस्थिति का नाम शांति नहीं है; अपितु, यह तो एक ऐसे वातवरण के निर्माण का नाम है, जिसमें सभी लोग नस्ल, रंग, संप्रदाय, धर्म, लिंग, वर्ग, जाति या समाज में अंतर पैदा करने वाले पहचान चिह्नों के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव के बगैर विकसित हो सकें। धर्म, नृजातीयता, भाषा, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवहार ऐसे तत्त्व है जो मानवीय सभ्यता एवं विविधता को समृद्ध करता है। इन्हें विभाजन/अलगाव का साधन नहीं बनाना चाहिए।
उनके अनुसार मनुष्य ने हमेशा से एक-दूसरे के विरोध करने के तर्क ढूंढे, समझौते के नहीं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य विवेक, करुणा एवं परिवर्तन में समर्थ है। आज के हिंसक एवं अपने अस्तित्व के प्रति संघर्षशील वातावरण में शांति एवं अहिंसा के प्रति प्रयास एक समसामयिक पहल है। यह एक ऐसा क्षण है जब हम महात्मा गांधी जैसे महान शांतिदूतों की जीवन शिक्षाओं की स्मृतियों को ताजा करे। 2001 ई० के जुलाई में नेल्सन मंडेला प्रोस्टेंट कैंसर से पीड़ित हुए। जून 2004 ई० में मंडेला ने सार्वजनिक जीवन से संन्यास की घोषणा की।
नेल्सन मंडेला को अनेकों राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। जिसमें प्रतिष्ठित नोबेल शांति पुरस्कार (1993 ई०) सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न (1990 ई०) भी इन्हें प्रदान किया है। इसके साथ ही ओर्डर ऑफ मेरिट, ओर्डर ऑफ सेंट जॉन (ब्रिटेन) स्वतंत्रता का राष्ट्रपति पुरस्कार (संयुक्त राज्य अमरीका) ओर्डर ऑफ कनाडा आदि शामिल है। जुलाई 2004 ई० में जोहानिसबर्ग में फ्रीडम ऑफ द सिटी पुरस्कार प्रदान किया जो दक्षिण अफ्रीका का सर्वोच्च पुरस्कार है।
दक्षिण अफ्रीका एवं समूचे विश्व में रंगभेद नीति का विरोध करते हुए श्री नेल्सन मंडेला पूरी दुनिया में स्वतंत्रता एवं समानता के प्रतीक बन गए हैं। वर्षों तक रंगभेद की नीति पर चलने वाली सरकारें मंडेला को कम्युनिस्ट एवं आतंकवादी बताती रही, लेकिन दक्षिण अफ्रीका में प्रायः उन्हें मदीबा कहकर बुलाया जाता रहा जो, बुजुर्गों के लिए एक सम्मान सूचक शब्द हैं। श्री मंडेला अपने कार्यों का प्रेरणा स्रोत महात्मा गांधी को बताते रहे हैं, जिनसे उन्होंने अहिंसक संघर्ष का मुख्य सिद्धांत सीखा।
- मिथिलेश कुमार
ममफोर्ड, लीविस : आधुनिक सभ्यता की संरचना में मशीन का स्थान केंद्रीय है। इसके कारण संरचनात्मक हिंसा का जो रूप प्रकट होता है, उसकी ओर महात्मा गांधी के अलावा जिन कई समाज-वैज्ञानिकों का ध्यान भी आकर्षित हुआ है, जिनमें अमरीकी बौद्धिक लीविस ममफोर्ड (1895-1990 ई०) का नाम विशेष उल्लेखनीय है। ममफोर्ड की बौद्धिक प्रतिभा बहुआयामी थी। वह एक इतिहासकार, वास्तु-विशेषज्ञ तथा प्रभावशाली साहित्यिक आलोचक होने के साथ-साथ विज्ञान और तकनीकी के दार्शनिक भी थे। उनकी पुस्तक दि सिटी इन हिस्टरी को उनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। हर्मन मेलविल पर उनके आलोचनात्मक अध्ययन ने भी साहित्य-जगत में उल्लेखनीय प्रतिष्ठा हासिल की। तकनीकी के प्रभाव का उनका अध्ययन दि मिथ ऑफ दि मशीन दो खंडों (टेकनिक्स एंड ह्यूमन डेवलपमेंट और दि पेंटागन ऑफ पॉवर) में प्रकाशित हुआ, जिसने मशीन-केंद्रित व्यवस्था की हिंसा को विश्लेषणपूर्वक उजागर किया।
तकनीकी-केंद्रित इतिहास-दृष्टि मनुष्य को औजार इस्तेमाल करने वाले प्राणी के रूप में परिभाषित करती है, जिसका स्पष्ट निहितार्थ यह होता है कि मनुष्य और सभ्यता के विकास का तात्पर्य तकनीकी यानी औजारों का विकास है। इस दृष्टि के अनुसार समाज की रचना का आधार तकनीकी है। ममफोर्ड इस दृष्टि से सहमत नहीं होते। वह यह मानते हैं कि मनुष्य एक प्रतीक-स्रष्टा प्राणी है, जिसका विकसित रूप भाषा है, जो समाज-रचना का प्राथमिक आधार भी है। ममफोर्ड के अनुसार समाज-रचना का आधार भावनाओं, विचारों और ज्ञान का पारस्परिक आदान-प्रदान है, जिसका प्रमुख माध्यम भाषा है। औजार या तकनीकी मनुष्य के विकास में सहायक हो सकती है, उसकी नियंता नहीं।
ममफोर्ड का निष्कर्ष है कि आधुनिक तकनीकी का विकास मनुष्य में सामाजिकता की भावना विकसित करने के बजाय उसे अकेला और बेचारा बना रहा है। पारंपरिक तकनीकी मनुष्य और समाज पर इस तरह हावी नहीं थी, जिस तरह वह आधुनिक तकनीकी हो गई है। ममफोर्ड के अनुसार यह परिवर्तन औद्योगिक क्रांति से भी दो सौ वर्ष पूर्व राजनीतिक और सैनिक तंत्र के केंद्रीकरण के दबाव से शुरू हो गया था। परंपरागत तकनीकी के विकेंद्रीकृत और स्थानीय होने के कारण उसमें वैविध्य और मानवीय सर्जनात्मकता के लिए पर्याप्त अवकाश था। लेकिन आधुनिक केंद्रीकृत तकनीकी अपने बड़े पैमाने के कारण स्थानीय सर्जनात्मकता और मानव-स्वातंत्र्य के लिए हिंसक साबित हुई है। ममफोर्ड का मानना है कि आधुनिक तकनीकी अपनी तेज गति के कारण व्यक्ति की सर्जनात्मकता के लिए बहुत कम अवकाश छोड़ती है क्योंकि सर्जनात्मकता एक चिंतनपरक व अनुभूतिपरक प्रक्रिया है, जिसे कृत्रिम तरीकों से तेज नहीं किया जा सकता।
ममफोर्ड के अनुसार तेज गति और मशीन के सर्वग्रासी केंद्रीकृत जाल के कारण आर्थिक-राजनीतिक केंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने शक्ति के एक वृहद तंत्र को-जिसे वह मेगामशीन कहते हैं-जन्म दिया। बृहदकाय मशीने ही नहीं, तत्जनित आर्थिक-राजनीतिक तंत्र भी उसी के रूप हैं। स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी ही नहीं, कथित बृहदकाय लोकतंत्र भी मेगामशीन ही है। सभी सामाजिक संस्थाएं, नौकरशाही और सेना इसके आधार बन गए। इस केंद्रीकृत संगठन के सम्मुख व्यक्ति नागरिक असहाय होता गया और आज स्थिति यह है कि जो इस संगठन से बाहर रह जाता है, उसका अस्तित्व ही जैसे अर्थहीन हो गया है। अन्य प्रकार के शोषण-दमन के साथ-साथ स्वयं राज्य की दमनकारी शक्ति इतनी बढ़ गई है कि संरचनात्मक स्तर पर भी स्वायत्तता की स्थिति संदेहास्पद हो गई है। स्वायत्त मानी जाने वाली सभी संस्थाएं वस्तुतः राज्य या बाजार के एजेंट की तरह काम करती दिखाई देती है।
क्या इस मेगामशीन की व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है? ममफोर्ड बायोटेकनिक्स (Biotechnics) का प्रस्ताव करते हैं, जो मेगाटेकनिक्स का विकल्प हो सकती है। वह कहते हैं कि जैविक संगठन-पद्धतियां (Monotechnics) मात्रात्मक दबावों और संकुलता से मुक्त गुणात्मक संपन्नता और विस्तार की ओर उन्मुख होती है। आत्म-नियमन, आत्म-शोषण और आत्म-प्रेरणा इन जैविक-संगठनों के उतने ही आवयविक धर्म हैं जितने पोषण, पुनर्जनन, वृद्धि और सुधार। बायोटेकनिक्स जीवन के संतुलन, समग्रता और पूर्णता की ओर निर्देश है।
ममफोर्ड का यह भी कहना है कि तकनीकी वैविध्य (appropriate technology) की तकनीकी एकरूपता पर सदैव वरीयता दी जानी चाहिए। वह अपने मत के समर्थन में अमरीकी परिवहन व्यवस्था का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि आधुनिक स्वचालित परिवहन व्यवस्था ने अमरीकी सड़कों पर अन्य परिवहन साधनों का चलना असंभव कर दिया है क्यांकि अपनी अति तेज रफ्तार के कारण वह अन्य साधनों के लिए बाधा बन गई है-और इसी कारण मनुष्यों के लिए खतरनाक भी। यह स्वचालित परिवहन व्यवस्था न जाने कितने मनुष्यों की प्रतिवर्ष बलि ले लेती है।
ममफोर्ड द्वारा एकरूपीय बृहद यंत्र के विरोध और तकनीकी वैविध्य के प्रस्ताव का उत्तर आधुनिक समाज-वैज्ञानिकों पर गहरा असर पड़ा है और जो लोग उनसे प्रभावित हुए हैं उनमें हर्बट मारक्यूज जैसे नव वामपंथी विचारक हैं तो शुमाकर जैसे नैतिक अर्थशास्त्री और मार्शल मैक्लूहन जैसे संचार-विशेषज्ञ भी। पर्यावरणवादी आंदोलन पर भी उनका असर बहुत गहरा रहा है तथा समुचित तकनीकी की अवधारणा के विकास पर भी ममफोर्ड के विचारों का असर देखा जा सकता है।
ममफोर्ड को उनके अवदान के लिए प्रेसीडेंसियल मेडल ऑफ फ्रीडम (1964 ई०) और प्रिक्स मोंडियल निनो डेल डुका (1976 ई०) से सम्मानित किया गया तथा उनकी प्रसिद्ध पुस्तक दि सिटी इन हिस्टरी को 1961 ई० में नेशनल बुक अवार्ड भी प्राप्त हुआ।
- नंदकिशोर आचार्य
मशीनीकरण (महात्मा गांधी) : महात्मा गांधी के लिए साधारणतया यह कहा जाता रहा है कि वह मशीनों के बहुत विरोधी थे। स्वयं गांधी जी के ऐसे वक्तव्य मिल जाते हैं, जिनमें उन्होंने मशीनों का त्याग करने का स्पष्ट आग्रह किया है; लेकिन, दूसरी ओर, कुछ ऐसे वक्तव्य भी मिलते हैं, जिनमें वह एक सीमा तक मशीनों को स्वीकार करते हैं। दरअस्ल, इस बारे में गांधी जी के मंतव्य को जानने के लिए हमें उनके अहिंसा के सिद्धांत की दृष्टि से विचार करना चाहिए।
आधुनिक उत्पादन प्रक्रिया और आर्थिक विकास एक भारी और जटिल प्रौद्योगिकी पर निर्भर करता है। उत्पादन में अधिकाधिक वृद्धि और उसके लिए अधिक से अधिक कुशल और शक्तिशाली प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। लेकिन आर्थिक विकास को पूर्णतया मशीनों पर निर्भर कर देने का अर्थ उत्पादन-प्रक्रिया और आर्थिक जीवन को अमानवीय नियंत्रण में कर देना है। सामान्यतः मनुष्य यही सोचता है कि यंत्रोद्योग उसके नियंत्रण में है और वह अपनी इच्छा के अनुसार उनका उपयोग कर सकता है, लेकिन यंत्रों और प्रौद्योगिकी की अपनी वृत्ति और प्रक्रिया होती है और वह एक ऐसा दुश्चक्र होता है जिससे बचना संभव नहीं रहता। प्रौद्योगिकीय नियतिवाद-टेक्नोलाजिकल डिटरमिनिज्म-आधुनिक युग की एक ऐसी समस्या है जिसने बहुत से अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों का ध्यान आकर्षित किया है। आधुनिक प्रौद्योगिकी प्रकृति के साथ भी एक अनिवार्य हिंसा का रिश्ता रखती है। उसका पेट भरने के लिए अधिकाधिक प्राकृतिक साधनों की आवश्यकता होती है, जो निरंतर बढ़ती ही जा रही है तथा उसके भंडार में इतनी तेजी से आ रही कमी को पूरा करने का कोई उपाय नहीं है। यदि इन साधनों का प्रयोग कम कर दिया जाता है तो यह प्रौद्योगिकी घाटा देने लगती है और तब उस वांछित आर्थिक विकास की दृष्टि से अनुपयोगी हो जाती है, जिसके लिए उसका विकास और स्थापन किया गया है। यही नहीं, इस प्रौद्योगिकी के कारण पर्यावरण में जिस तरह का रासायनिक प्रदूषण फैल रहा है, वह धीरे-धीरे केवल मनुष्य जाति को ही नहीं, पूरे जीवन को नष्ट कर देने की आशंका पैदा करता जा रहा है।
यह भली-भांति प्रमाणित है कि किसी भी तरह का केंद्रीकरण अनिवार्यतः मानवीय स्वंत्रता का हनन करता और किसी न किसी प्रकार के अधिनायकवाद या सर्वसत्तावाद को जन्म देता है। दूसरी ओर, यह भी उतना ही सही है कि वर्तमान प्रौद्योगिकी पर आश्रित उत्पादन-प्रकिया और आर्थिक व्यवस्था में आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का केंद्रीकरण अवश्यंभावी है। इस प्रौद्योगिकी के लिए व्यापक पैमाने पर जिस तरह के नीति निर्देशों ओर आर्थिक-स्रोतों पर एकाधिकार की ही नहीं, बल्कि बाजार पर भी अधिकाधिक नियंत्रण की आवश्यकता होती है, वह सत्ता के केंद्रीकरण की ओर उन्मुख है। इसका परिणाम होता है मनुष्य का राजनीतिक स्तर पर सर्वसत्तावादी होते जा रहे राज्य और आर्थिक स्तर पर पूंजी संस्थानों के सम्मुख अपने को असहाय और हीन अनुभव करना। एक श्रमिक के रुप में भी वह यंत्रोद्योग के सम्मुख अपने को बौना और अनुपयोगी अनुभव करता है, जिसका सीधा मनोवैज्ञानिक परिणाम यह होता है कि पहल ले सकने की मनोवृत्ति निरंतर क्षीण होती चली जाती है और उसमें अंतर्निहित सृजनात्मक उत्कर्ष की सारी संभावनाएं कुंठित होने लग जाती हैं। कार्ल फ्रेडरिक और ब्रजेजेंस्की जैसे समाज वैज्ञानिकों का अध्ययन यह प्रमाणित करता है कि अधिनायकतंत्रीय और सर्वसत्तावादी शासन-व्यवस्था के लिए संचार-व्यवस्था, अस्त्र-शस्त्र तथा आर्थिक जीवन पर केंद्रीय नियंत्रण आवश्यक है और वह किसी न किसी प्रकार के केंद्रीकृत प्रौद्योगिक आधार के बिना संभव नहीं है। दूसरी ओर, एरिक फ्रॉम जैसे मनोवैज्ञानिकों की राय में इस प्रौद्योगिकी-आश्रित उत्पादन व्यवस्था में मनुष्य स्वयं एक वस्तु जैसा हो जाता है और अपने को असमर्थ, अकेला और उद्विग्न अनुभव करता है। इसलिए मशीनों के प्रति गांधी जी की मनोवृत्ति को अहिंसा के आधार पर समझने की जरुरत है। जो यंत्र मनुष्य की स्वाधीनता, स्वास्थ्य और नैतिक विकास के लिए घातक हों, उन्हें गांधीजी किसी भी तरह स्वीकार नहीं कर सकते। दरअस्ल, गांधीजी कार्ल मार्क्स की इस स्थापना को एक नया नैतिक आयाम दे देते हैं कि अंततः उत्पादन के साधनों पर ही सामाजिक अधिरचना निर्भर होती है। यदि हम पूंजीवाद और साम्यवाद के कथित द्वंद्व के आवेश से थोड़ा अलग हटकर विचार करें तो पाएंगे कि ये दोनों आधुनिक प्रौद्योगिकी से उत्पन्न उद्योगीकरण की ही दो प्रक्रियाएं हैं। उन्हें वास्तविक अर्थों में दर्शन या विचारधारा कहना उचित नहीं होगा। दर्शन या विचारधारा तो स्वयं प्रौद्योगिकी और उससे उत्पन्न उद्योगवाद है, जिसका आधार इस मान्यता में है कि दुनिया की सभी समस्याओं का हल उत्पादन और इसलिए उपभोग की भी निरंतर वृद्धि में है। यह बात इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस उत्पादन और उसके वितरण पर बाजार-सत्ता का नियंत्रण रहता है या राज्य सत्ता का। बाजार सत्ता भी अंततः राजसत्ता को अपने अनुकूल कर वांछित कानूनों ओर राजनीतिक प्रक्रिया का समर्थन-सहयोग अपने लिए जुटाती ही है। उत्पादन वृद्धि और उसके लिए आधुनिकतम मशीनों और प्रबंधन का विकास उद्योगीकरण की अनिवार्य प्रक्रिया है। जिसे पूंजीवाद ओर साम्यवाद दोनों ही पूरी तरह स्वीकार करते हैं। इसे लेकर पूंजीवाद और साम्यवाद में कोई राजनीतिक संघर्ष कभी नहीं रहा कि यह अंधाधुंध मशीनीकरण मनुष्य की स्वतंत्रता के लिए कितना घातक हो सकता है। मानवीय स्वतंत्रता का जैसा दमन सर्वसत्तावादी समाजवाद के नाम पर हुआ, वैसा ही पूंजीवाद ने साम्राज्यवाद के द्वारा ही नहीं, औद्योगिक विकासवाद के नाम पर भी किया। स्थानीय समाजों का विनाश प्रगति या विकास की एक अनिवार्य शर्त रही।
कार्लमार्क्स की सर्वाधिक अंतदृष्टिपूर्ण स्थापना शायद यही है कि उत्पादन के उपकरण अर्थात् प्रौद्योगिकी ही वह आधार है जिस पर आर्थिक ही नहीं राजनीतिक-सामाजिक अधिरचना की इमारत खड़ी होती है। यदि हम थोड़ी देर के लिए इस दार्शनिक बहस में न भी पड़ें कि प्रौद्योगिकी हमारी मानसिकता का निर्माण करती है या हम अपनी मानसिकता के अनुसार प्रौद्योगिकी का चुनाव और विकास करते हैं, तो भी यह तो स्पष्ट ही है कि एक बार विशेष प्रकार की प्रौद्योगिकी को चुन लेने के बाद समाज की मानसिकता और संस्थाओं की वह नियंता होने लगती है।
आर्थिक समानता की विचारधारा के पक्षधर साम्यवाद की असफलता का मुख्य कारण यही रहा कि उसने अपनी सामाजिक-राजनीतिक संरचना को उत्पादन के पूंजीवादी साधनों पर ही आधारित करना चाहा। यदि उसे एक वर्गहीन या न्यायपूर्ण समाज की रचना करनी थी तो उसके लिए उत्पादन के नए साधनों, नई प्रौद्योगिकी के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए था। आखिर पूंजीवादी बेस पर साम्यवादी सुपरस्ट्रक्चर कब तक खड़ा रह सकता था?
इस दृष्टि से गांधी जी की दृष्टि मार्क्स की अपेक्षा अधिक नैतिक ही नहीं, अधिक वैज्ञानिक भी है। गांधी जी ने यदि इस सभ्यता को शैतानी सभ्यता कहा तो उसके पीछे उनकी यह समझ भी काम कर रही थी कि यह सभ्यता जिस प्रौद्योगिकी पर आश्रित है, उसका अनिवार्य परिणाम एक हिंसक और अनैतिक समाज का विकास है क्योंकि यह प्रौद्योगिकी न केवल मनुष्य को उपभोक्ता मात्र बना देने पर जोर देती है, बल्कि अनिवार्यतः सत्ता के विभिन्न रूपों के केंद्रीकरण की ओर ले जाती है और केंद्रीकरण अनिवार्यतः हिंसा की ओर।
इस ऐतिहासिक नियति में कोई भी परिवर्तन तभी संभव हो सकता है, जब हम अपने को इतिहास के प्रवाह में न छोड़कर उसके कारणों को समझते हुए उसे अनुकूल रुख देने की कोशिश करें और यह केवल तभी संभव हो सकता है जब हमारे उद्देश्य और हमारे राजनीतिक-आर्थिक साधन दोनों अहिंसक हों। गांधीजी के साथ-साथ प्रारंभिक मार्क्स ने भी यह माना था कि वह साध्य न्यायपूर्ण नहीं है जिसके लिए अन्यायपूर्ण साधन की आवश्यकता पड़े। यदि हम एक न्यायपूर्ण और अहिंसक समाज का विकास करना चाहते हैं तो हमें इन उद्देश्यों के अनुरुप जीवन-दृष्टि का ही नहीं, एक अहिंसक और न्यायपूर्ण तकनीकी का, उत्पादन के अहिंसक और न्यायपूर्ण साधनों का भी विकास करना होगा।
लेकिन, यह केवल छोटे पैमाने और बड़े पैमाने की प्रौद्योगिकी का ही सवाल नहीं है, बल्कि एक सार्वभौमिक प्रौद्योगिकी और स्थानीय या स्वदेशी प्रौद्योगिकी का भी है। हर स्थान की जरुरतों को पूरा करने के लिए उसके अपने संसाधन होते हैं और वास्तविक अर्थों में स्वदेशी प्रौद्योगिकी वह है जो इन संसाधनों का सही विनियोग कर सके। हम कह सकते हैं कि जरुरतें सार्वभौमिक होती हैं, इसलिए उनको पूरा करने में जुटी प्रौद्योगिकी भी सार्वभौमिक क्यों नहीं होगी? लेकिन, जरुरतों का स्वरूप स्थानीय होता है और इसलिए उनकी पूर्ति भी देसी प्रौद्योगिकी से ही हो सकती है। सार्वभौमिक प्रौद्योगिकी, वस्तुतः, पहले स्थानीय स्वभाव की जरुरतों को सार्वभौमिक स्वरुप में बदलती है और तब उन्हें सार्वभौमिक संसाधनों से पूरा करने का दावा करती है। यही कारण है कि उपभोक्ता का वस्तु के उत्पादन, प्रबंधन और कीमत पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं रहता।
इस पृष्ठभूमि और अहिंसा की कसौटी के आधार पर ही हम महात्मा गांधी के प्रौद्योगिकी संबंधी विचारों और स्वदेशी के आग्रह को समझ सकते हैं क्योंकि दोनों एक-दूसरे से संश्लिष्ट हैं। सबसे पहली बात तो यही है कि गांधीजी उस विशाल पैमाने के उत्पादन को ही विश्व-संकट का मूल कारण मानते हैं, जिसके लिए मशीनीकरण की आवश्यकता बताई जाती है। विशाल पैमाने के उत्पादन का कारण लोगों का अपनी जरुरतों को अंधाधुंध बढ़ाते जाना है, पर गांधीजी को इसमें कोई सार नहीं दिखाई देता। इसलिए वह विशाल पैमाने के उत्पादन का विरोध करते हैं : मैं पक्के तौर पर अपनी राय जाहिर करना चाहूंगा कि विशाल पैमाने के उत्पादन का उन्माद विश्व-संकट के लिए उत्तरदायी है। एक क्षण के लिए अगर मान भी लें कि मशीनें मानवजाति की सभी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती हैं तो भी इनका कार्य उत्पादन के विशिष्ट क्षेत्रों पर ही केंद्रित होगा और आपको वितरण का नियमन करने के लिए एक जटिल व्यवस्था अलग से करनी होगी। इसके विपरीत, जिस क्षेत्र में जिस वस्तु की आवश्यकता है, अगर वहीं उस का उत्पादन और वितरण दोनों किए जाएं तो इनका नियमन स्वयमेव हो जाता है और उसमें धोखेधड़ी की गुंजाइश कम रहती है तथा सट्टेबाजी की तो बिल्कुल ही नहीं। इसी प्रकार वह उन सभी मशीनों का विरोध करते हैं जो श्रमिकों को विस्थापित करके उन्हें बेरोजगार बनाती हैं और इस प्रकार उनके विनाश का कारण बनती हैं। मशीनीकरण दुधारी तलवार है, जो जिसे रोजगार से हटाता है उसका तो विनाश करता ही है, जिसे रोजगार देता है उसके अस्तित्व ओर व्यक्तित्व को भी मशीनी बना देता है। इसलिए गांधी जी कहते हैं : मुझे इसमें कोई संशय नहीं है कि जहां मशीनयुग का ध्येय मनुष्य को मशीन में परिवर्तित कर देना है, वहीं मेरा ध्येय मशीन बने हुए मनुष्य को अपनी मूल स्थिति में पुनः प्रतिष्ठित कर देना है।
सार्वभौमिक प्रौद्योगिकी वाले मशीनीकरण को गांधी जी व्यक्ति और समाज की आर्थिक-राजनीतिक आजादी के लिए भी घातक मानते हैं। भारत के संदर्भ में उनका तर्क है : भारत के सात लाख गांवों में फैले लाखों-करोड़ों लोग जिस प्रकार अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, उसी प्रकार यदि अपने वस्त्र भी खुद ही तैयार करने लगें तो यह हर दृष्टि से बेहतर और अधिक सुरक्षित होगा। यदि हमारे गांवों का अपने जीवन की प्रमुख आवश्यकताओं के उत्पादन पर नियंत्रण न रहा तो वे उस आजादी को कायम नहीं रख पाएंगें जिसका सुख वे अनादिकाल से उठा रहे हैं। मशीनों के विरोध के पीछे गांधी जी का एक प्रमुख तर्क यह भी था कि उनकी रामराज्य की कल्पना आर्थिक असमानता के रहते साकार नहीं हो सकती थी जबकि उनका अनुभव मशीनों को इस आर्थिक असमानता का मूल कारण मानता था। दक्षिण अफ्रीका मे प्रवास के समय से ही वह मशीनीकरण को सामान्य जनता के शोषण का एक माध्यम मानने लगे थे : उसी समय मेरे मन में इस विचार का उदय हुआ था कि लाखों-करोड़ों लोगों का दमन ओर शोषण करने के लिए मशीन एक ऐसा दैत्य है जिसका कोई जवाब नहीं है। यदि समाज में सभी लोगों को बराबरी का दर्जा दिया जाना है तो मानव-अर्थव्यवस्था में मशीन का कोई स्थान नहीं हो सकता। मेरा विश्वास है कि मशीन ने आदमी की हैसियत में कोई इजाफा नहीं किया है और जब तक हम इसे इसके उचित स्थान पर नहीं बिठाएंगें तब तक यह दुनिया की सेवा नहीं करेगी बल्कि उसे विघटित कर देगी। मशीन को उसके उचित स्थान पर बिठाना-यह है आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रति गांधी जी की नीति। इसीलिए वह उन सब मशीनों को स्वीकार करते हैं जो मनुष्य और प्रकृति के प्रति हिंसक या विनाशकारी नहीं होतीं ओर उसे किसी प्रौद्योगिकीय नियतिवाद का शिकार नहीं बनातीं।
- नंदकिशोर आचार्य
महाकरुणा : नागार्जुन बौद्धों की महायान शाखा के अंतर्गत माध्यमिक दर्शन के प्रवर्त्तक थे। बुद्ध वचनों-पालि निकाय-की करुणा महायान में महाकरुणा के रूप में विकास की चरमावस्था प्राप्त करती है। महायानी महाकरुणा का आलंबन लेकर बुद्धत्व अथवा निर्वाण को गौण और प्राणीमात्र के कल्याण को अपनी साधना का प्रमुख ध्येय बनाते हैं। वस्तुतः महाकरुणा अहिंसा, सद्भाव, सौहार्द, मैत्री और समता की पराकाष्ठा है।
महात्मा बुद्ध ने भिन्न-भिन्न लोगों को उनकी बौद्धिक और ग्रहण क्षमता के अनुरूप भिन्न-भिन्न उपदेश दिए। फलस्वरूप बौद्ध-धर्म मोटे रूप में श्रावकयान, प्रत्येक बुद्धयान और बोधिसत्त्वयान में विभक्त हो गया। श्रावकयान और प्रत्येक बुद्धयान हीनयानी हैं, जो केवल स्वमुक्ति हेतु ही सम्यक् सम्बुद्धत्व प्राप्ति की अभिलाषा रखते हैं। बोधिसत्त्वयानी महायानी कहलाते हैं। बोधिसत्त्वयान पारमितानय भी कहलाता है, क्योंकि बोधिसत्त्व षट्पारमिताओं की साधना करके पुद्गल नैरात्म्य (अनात्मवाद) और धर्म नैरात्म्य (धर्मों की निःस्वभावता) का ज्ञान प्राप्त कर क्लेशावरण और श्रेयावरण दोनों का नाश कर बुद्धत्व की प्राप्ति करते हैं। हीनयानी केवल पुद्गल नैरात्म्य (अनात्मवाद) को जानकर क्लेशावरण का नाश करते हुए स्वमुक्तिप्राप्त करते हैं।
शून्यता और महाकरुणा नागार्जुन के माध्यमिक दर्शन के दो आधार स्तंभ है। इन्हें सत्यद्वय के रूप में देख सकते हैं। शून्यता परमार्थ सत्य है तो महाकरुणा व्यवहार है। महायान षट्-पारमिताओं की साधना होने के कारण पारमितानय के रूप में भी जाना जाता है। पारमिता का तात्पर्य पूर्णता से है। साधक साधना-पथ पर चलते हुए दान, शील, क्षांति (शांति), वीर्य, ध्यान और प्रज्ञा की पराकाष्ठा पर पहुंचते हुए बोधिसत्त्व के आदर्श को प्राप्त करते हैं। बोधिसत्त्व भव (संसार) और शम (बुद्धत्व अथवा निर्वाण) के मध्य सेतु होता है। निर्वाण के द्वार पर पहुंचा हुआ बोधिसत्त्व लोकहितार्थ अपनी मुक्ति का निलंबन कर देता है। उसका ध्येय बुद्धत्व न होकर प्राणीमात्र के कष्ट का निवारण होता है। दान, शील, क्षांति, वीर्य और ध्यान ये पांच पारमिताएं व्यवहार, पुण्यसंभार, उपाय, भव कहलाती है। प्रज्ञा शून्यता, परमार्थ सत्य, बुद्धत्व और निर्वाण के रूप में अभिहित है। इन्हें सम्मिलित रूप से प्रज्ञोपाय अथवा महाकरुणा और प्रज्ञा भी कहते हैं। बोधिसत्त्व प्रज्ञा को धारण कर यथाभूतज्ञान अर्थात् शून्यता को जानता है (किं पुनरस्य शमथस्य माहात्म्यं यथाभूतज्ञान जननशक्तिः। रूस्मात् समाहितो यथाभूतं जानातीव्युक्त्वान मुनिः - शिक्षा समुच्चय - शांतिदेव)। शून्यता उच्छेदवाद नहीं है, अपितु अस्तित्त्व-अनस्तित्त्व, भाव-अभाव, सत्-असत् के दोनों अति छोरों का निरसन करते हुए मध्य मार्ग का चयन है। नागार्जुन अपने ग्रंथ मूल माध्यमिक कारिका में मध्यमार्ग को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि सत्ता शाश्वतता का एक छोर है और असत्ता उच्छेद का दूसरा अंत (छोर)। इन दोनों का परिहार मध्यमार्ग है। परमार्थतः भाव नहीं है और व्यवहारतः अभाव भी नहीं है। (अस्तीति शाश्वतग्राहो नास्तीव्युच्छेद दर्शनम्। तस्माद् अस्तित्त्वनास्तित्त्वे नाश्रीयेत विचक्षणः) उनके अनुसार पंडित जन को अंतों (छोरों) में कहीं भी सद् दृष्टि नहीं रखनी चाहिए। अतः नागार्जुन सत्यद्वय का निरुपण करते हैं। शून्यता वस्तुओं की निःस्वभावता का तात्त्विक ज्ञान है। निःस्वभावनता के तात्त्विक ज्ञान से साधक के चित्त में संसार के प्रति अनासक्ति का भाव उदय होता है और वह वैयक्तिक हित से ऊपर उठकर परहित की ओर प्रवृत्त होता है। नागार्जुन के माध्यमिक दर्शन में शून्यता महाकरुणा का तत्त्वमीमांसीय आधार है। शून्यता के ज्ञान से साधक के चित्त में सब सत्त्वों (प्राणियों) के लिए अहिंसा का भाव तो जाग्रत होता ही है; साथ ही, उनके दुःखों को दूर करने और उनका कल्याण करने का भी भरसक प्रयास करता है। यहां यह द्रष्टव्य है कि हीनयानी जहां कामराग (आसक्ति) के समूल नाश का प्रयत्न करता है, वहीं महायानी कामराग का दमन न करके अपने उपाय-कौशल से उसे लोक-कल्याण का साधन बना देता है। लोक-कल्याण के रूप में कामराग का यह उत्कृष्ट उदात्तीकरण है।
माध्यमिकों के लिए महाकरुणा ही एकमात्र धर्म है। अन्य सभी धर्म महाकरुणा का स्वतः ही अनुसरण करने लगते हैं। नागार्जुन के अनुयायी प्रज्ञाकरमति कहते हैं कि जिस प्रकार जीवितेंद्रिय (प्राण) के रहते हुए अन्य सब इंद्रियों की प्रवृत्ति होती है, उसी प्रकार महाकरुणा के रहने से बोधिकारक अथवा बोधिपाक्षिक धर्मों की प्रवृत्ति होती है। (भगवन्! येन बोधिसत्त्वस्य महाकरुणा गच्छति तेन सर्व बुद्धधर्माः गच्छंति। तद्यथा भगवन जीवितेंद्रिये सति शेषाणाम् इंद्रियाणां प्रवृत्ति र्भवति एवमेव भगवन महाकरुणायां सत्याम् बोधि-कारकाणाम् धर्माणां प्रवृत्तिर्भवति-प्रज्ञाकरमति-बोधिचर्यावतार पंजिका) महाकरुणा अहिंसा से कहीं अधिक व्यापक है। किसी भी प्राणी को मन-वचन-कर्म से दुःख न पहुंचाना अहिंसा है। महाकरुणा के अंतर्गत न केवल सभी सत्त्वों को दुःख न देने का ही भाव है, अपितु कष्टों के निवारण के साथ-साथ उनके कल्याण की सक्रिय कामना रहती है। महाकरुणा निषेधात्मक न होकर सतत सकारात्मक प्रवृत्ति है। इसीलिए महाकरुणा को चित्त की सक्रिय अवस्था कहा गया है। दुःख करुणा का आलंबन है और दुःख को सहन नहीं करना करुणा का आकार है। करुणावान व्यक्ति को किसी भी सत्त्व का दुःख अपने दुःख की भांति ही लगता है। अतः, वह किसी भी प्राणी को दुःखी नहीं देख सकता और उसके दुःख को दूर करने का भरसक प्रयत्न करता है। बौद्धों की करुणा सामान्य व्यक्तियों की दया से उच्चतर सक्रिय मनोभाव है, जिसके उदय होने पर साधक बिना सत्प्रयास किए रह ही नहीं सकता। महाकरुणा की साधना करने वाले बोधिसत्त्व का एकमात्र ध्येय पर दुःख विमुक्ति होता है।
बोधिसत्त्व की साधना होने के कारण महायान को बोधिसत्त्व यान भी कहा जाता है। महायान की दोनों शाखाएं-(1) नागार्जुन का माध्यमिक दर्शन और (2) असंग का विज्ञानवाद सिद्धांत पक्ष में मत वैभिन्न्य रखते हुए भी बोधिसत्त्व की साधना में एकमत है। नागार्जुन का शून्यवाद बाह्य और आंतरिक दोनों ही प्रकार के धर्मों को अर्थात् चतुष्कोटि विनिर्मुक्त (सत्, असत्, सत्-असत् दोनों, न सत्-न असत्) मानता है। विज्ञानवादी बाह्य धर्मों की सत्ता अस्वीकार करते हुए विज्ञान अर्थात् चित्त के सतत् प्रवाह को सत् रूप में स्वीकार करते हैं। तथापि, दोनों ही महायान के आदर्श बोधिसत्त्व और महाकरुणा को अंगीकार करते हैं। बोधिसत्त्व निर्वाण की अर्हता प्राप्त करके भी लोकहितार्थ उसका निलंबन करता है।
बोधिचित्त लोक-कल्याणकारी बोधिसत्त्व-साधना का प्रवेश द्वार है। बोधिचित्तोत्पाद के बिना बोधिसत्त्व साधना संभव नहीं है। बोधिचित्तोत्पाद के पश्चात् ही साधक षट्पारमिताओं की साधना में प्रवृत्त होता है। जगत् कल्याण के लिए अर्थात् सभी प्राणियों को दुःखों से मुक्त करने के लिए मैं बुद्धत्व प्राप्त करुंगा (बुद्धो भवेयं जगतो हिताय-अद्वयवज्रसंग्रह कुदृष्टिनिर्धातन) ऐसी अकृत्रिम दृढ़ अभिलाषा बोधिचित्तकहलाती है। बोधिचित्त वस्तुतः सार्वभौमिक दुःख-क्षय हेतु स्वेच्छया लिए गए दायित्व का दृढ़ संकल्प है। अभिसमयालंकार में परार्थ सम्यक् संबोधि की दृढ़ इच्छा शक्ति वाले चित्त विशेष को बोधिचित्त कहा गया है (चित्तोत्पादः परार्थाय सम्यक् संबोधिकामता)। समस्त सत्त्वों (जीवों) के उद्धार हेतु बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए चित्त को सम्यक्-संबोधि में प्रतिष्ठित करना ही बोधिचित्त है। महायान में बोधिचित्त का कितना अधिक महत्त्व है, यह इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि इसे सब बुद्ध धर्मों का बीज बतलाया है (बोधिचित्तं हि कुलपुत्रबीजभूतं सर्व बुद्ध धर्माणाम)। बोधिचित्त की उत्पत्ति के साथ ही सभी बुद्धधर्म इसका अनुसरण करने लगते हैं; अर्थात् बोधिचित्त एक प्रकार का रसधातु है जो मनुष्य के स्वभाव को बुद्ध-स्वभाव में परिवर्तित कर देता है। शांतिदेव के बोधिचर्यावतार में यहां तक कह दिया गया है कि बोधिचित्तोत्पाद से अनेक कल्पों के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। बोधिचित्तोत्पाद के बिना कोई व्यक्ति बोधिसत्त्व की चर्या ग्रहण करने का अधिकारी नहीं हो सकता। बोधिचित्त दो प्रकार का है-(1) बोधिप्रणिधि-चित्त और (2) बोधिप्रस्थान-चित्त। सर्वप्रथम साधक लोक-कल्याण का दृढ़ संकल्प लेता है, यह बोधिप्रणिधि-चित्त है; तत्पश्चात् वह ब्रह्मविहार और षट्पारमिता की साधना में प्रवृत्त होता है तो बोधिप्रस्थान चित्त कहा जाता है।
बोधिसत्त्वचर्या अति उदार लोक-कल्याणकारी साधना है। जहां हीनयान में बुद्धत्व साध्य है, वहीं महायान में बुद्धत्व महाकरुणा का साधन है। हर प्रकार से प्रत्येक सत्त्व के कष्टों का निवारण करना ही बोधिसत्त्व चर्या है। परिपूर्ण योग्यता और परिपूर्ण सामर्थ्य बुद्धत्व है, जिसकी प्राप्ति होने पर बोधिसत्त्व अपनी पूरी सामर्थ्य से लोक-कल्याण में जुट जाता है। बोधिसत्त्व चर्या अथवा बोधिसत्त्व साधन के उत्तरोत्तर विकासमान दस सोपानों को माध्यमिक दर्शन में दशभूमि कहा गया है। दशभूमि में सातवीं भूमि अनुत्पत्तिकधर्म-क्षांति महत्त्वपूर्ण भूमि है, जहां पहुंचने पर साधक की फिर अधोगति नहीं होती। इस भूमि पर पहुंचने के बाद बोधिसत्त्व सभी प्रकार की आसक्ति तृष्णा, और समस्त प्रकार के आग्रहों से मुक्त हो जाता है। यहां तक कि बोधिसत्त्व में त्रिशरण (बुद्ध, धर्म और संघ) के प्रति भी आग्रह नहीं रहता। बोधिसत्त्व इस भूमि में धर्मकाय को ग्रहण कर लेता है, धर्मता ही उसका शरीर होता है। तथापि वह जनहितार्थ जन्म लेता है और स्थूल शरीर धारण करता है। बोधिसत्त्व संसार में रहकर भी कमल की भांति उससे अलिप्त रहता है। निर्वाण प्राप्ति की योग्यता रखता हुआ भी उसमें प्रवेश नहीं करता। बोधिसत्त्व की यह संसार और निर्वाण के बीच की स्थिति अप्रतिष्ठित निर्वाण कहलाती है। अप्रतिष्ठित निर्वाण में स्थित बोधिसत्त्व षट्पारमिताओं की साधना में संलग्न रहता हुआ लोकहित के लिए अनेक योनियों में बार-बार जन्म लेता रहता है। षट्पारमिताओं में प्रज्ञा पारमिता मुकुट मणि है। प्रज्ञा के बिना अन्य पारमिताएं नेत्र विहीन है। प्रज्ञा और महाकरुणा (प्रथम पांच पारमिताएं) दोनों परस्पर एक दूसरे की वृद्धि करते हुए भी प्रज्ञा की तार्किक पूर्वापेक्षा रहती है। प्रज्ञारूपी नेत्रों की देख-रेख में अन्य पारमिताओं की दोषरहित ओर सुचारु रूप से अनुपालना संपन्न होती है।
बोधिसत्त्व का समग्र आचरण परहित के लिए ही होता है (पारंपर्येण साक्षद्वासत्त्वार्थं नान्यदाचरेत्-बोधिचर्यावतार) नागार्जुन रत्नावली में बतलाते है कि दान, शील आदि पारमिताओं अर्थात् महाकरुणा की साधना में तब तक प्रवृत्त नहीं हुआ जा सकता जब तक साधक के चित्त में परात्मसमता (अन्य प्राणियों को स्वयं के समान समझना) और परात्मपरिवर्तन (स्वयं को अन्य प्राणियों की स्थिति में रखना) के भाव का उदय नहीं हो जाता। परात्मसमता और परात्मपरिवर्तन सामाजिक समता और सौहार्द की आधारभूमि है। शांतिदेव भी बोधिचर्यावतार में लिखते हैं कि साधक को सर्वप्रथम परात्मसमता की भावना उत्पन्न करते हुए यह अनुभव करना चाहिए कि जैसे मैं अपने लिए दुःख नहीं चाहता और सुख की अभिलाषा करता हूं वैसे ही प्रत्येक प्राणी भी सुख का अभिलाषी है और दुःख का अनिच्छुक है। अतः मैं जैसे अपने दुःख की निवृत्ति और सुख प्राप्ति की चेष्टा करता हूं, वैसे ही मुझे हर एक प्राणी के लिए भी ऐसा प्रयास करना चाहिए (परात्मसमतादौ भावयेरेवमादरात्। सम दुःखसुखाः सर्वे पालनीया मयात्मवत्) कर्मसिद्धांत की सामान्य मान्यता है कि व्यक्ति को स्वकृत कर्म ही भोगने होते हैं, परंतु महायान बौद्ध दर्शन और वैष्णव वेदांत की यह धारणा है कि कोई व्यक्ति अपने शुभ अर्थात् पुण्यकर्मों के फल में अन्यों को भागीदार बना सकता है। बोधिसत्त्व ऐसा ही करता है। वह यह संकल्प करता है कि सभी दिशाओं में कोई भी व्यक्ति जो शारीरिक और मानसिक व्यथाओं से पीड़ित है, वह मेरे पुण्यों से सभी व्यथाओं से मुक्त होकर सुख और आनंद प्राप्त करे (सर्वातु दिक्षु यावंतः कायचित्त व्यथातुराः। ते प्राप्नुवंतु मत्पुण्यैः सुख प्रामोद्यसागरम्)।। बोधिचर्यावतार-शांतिदेव।
उपर्युक्त बोधिसत्त्वचर्या से इस धारणा की पुष्टि हो जाती है कि महाकरुणा अहिंसा से कहीं अधिक व्यापक है। अहिंसा में मूल भाव यही रहता है कि किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुंचे; जबकि महाकरुणा के मूल में सब प्राणियों के कष्टों को दूर करने के सत्प्रयास का संकल्प विद्यमान रहता है। इस सत्प्रयास में बोधिसत्त्वों को स्वयं कष्ट उठाना पड़े तो वे ऐसा सहर्ष स्वीकार करते हैं। पर-कष्ट निवारणार्थ और पर-हितार्थ महाकरुणा का साधक स्वयं की मुक्ति (निर्वाण) को भी अस्वीकार कर देता है। माध्यमिकों (महायान) की पारमिता साधना अथवा महाकरुणा-साधना अत्यंत उदात्त सार्वभौमिक मूल्य है। बोधिसत्त्वों को दूसरों के दुःख दूर करने में बहुत प्रसन्नता मिलती है। भले ही इसके लिए उन्हें कितना ही कष्ट उठाना पड़े। बोधिचर्यावतार में कहा गया है कि जिस प्रसन्नता से हंस पद्म-सरोवर में प्रवेश करते हैं, वैसे ही बोधिसत्त्व दूसरे प्राणियों के दुःख निवारणार्थ अवीचि नरक में भी प्रसन्नता के साथ प्रवेश कर स्वयं दुःख भोगने को तत्पर रहते हैं। (एवं भावितसंतानाः पर दुःख सम प्रियाः। अवीचिमवगाहने हंसाः पद्मवनं यथा-शांतिदेव-बोधियर्चावतार)। प्राणियों के कष्ट निवारण से बोधिसत्त्वों को जो सुख मिलता है, वह उनके लिए निर्वाण से भी बढ़कर है। अतः, स्वयं की मुक्ति उनका प्रयोजन नहीं है। बोधिसत्त्व दान पारमिता में बाहर-भीतर अपनी सभी वस्तुओं को दान कर देते हैं। वे भोग्य वस्तुओं का तो त्याग करते ही हैं, इससे भी बढ़कर अतीत, वर्तमान, अनागत के लिए अर्जित समस्त कुशलमूल अर्थात् संचित पुण्यों का भी प्राणियों की अर्थसिद्धि के लिए दान कर देते हैं। यही नहीं, वे आत्म भाव का भी त्याग करके अनासक्त और निरभिमानी हो जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर, जैसे भयंकर दुर्भिक्षकाल में अपनी देह तक का भी दान कर देते हैं जिसका भक्षण कर प्राणी अपने प्राणों की रक्षा कर सके। शील पारमिता में पंचशील का पालन करते हुए न केवल चित्त को शुद्ध करते हैं, अपितु इससे मिलने वाले पुण्य को परहितार्थ दान कर देते हैं। क्षांतिपारमिता की साधना दुरुह और अत्यंत कठिन है जिसे बोधिसत्त्व सहजता और अप्रमाद से संपन्न करते हैं। इस पारमिता का ध्येय चित्त को निर्वात दीपक की भांति शांत और अखिन्न करना है। क्षांतिपारमिता का मूलमंत्र है-द्वेष के समान दूसरा पाप नहीं और क्षांति (शांति) के समान कोई तप नहीं। बोधिसत्त्व अत्यंत अनिष्ट होने पर भी दौर्मनस्य को उत्पन्न नहीं होने देते हैं। मुदिता के अभ्यास से, जो कि दौर्मनस्य का प्रतिपक्ष है, वे इस पर विजय प्राप्त करते हैं। अन्य प्राणियों की प्रसन्नता में स्वयं भी प्रसन्न रहना मुदिता है। यह ब्रह्मविहार का एक अंग है। क्षांतिपारमिता के अंतर्गत बोधिसत्त्व कष्ट सहन करने और कष्ट देने वाले को क्षमा करने की असीम सहन शक्ति अर्जित कर लेता है। दुष्ट व्यक्ति के द्वारा किए गए अपकार को बिना उस पर क्रोध किए, सहजता से यह समझकर सहन कर लेता है कि जैसे अग्नि का स्वभाव जलाना है, वैसे ही दुष्टता दुष्ट व्यक्ति का स्वभाव है। क्षांतिपारमिता के निरंतर अभ्यास से बोधिसत्त्व के अहिंसक ओर शांति चित्त में अपकार करने वाले के प्रति भी लेशमात्र हिंसा का भाव जाग्रत नहीं होता। बोधिसत्त्व यह विचार करता है कि अपकारी के अपकार को सहन करने से उसके दुःखों का क्षय हो रहा है; अतः, वह मेरा उपकारी है, अपकारी नहीं। उत्साह से कुशलकर्म के अभ्यास में निरंतर संलग्न रहना वीर्य-पारमिता है। प्रमाद, आलस्य, विषाद का त्याग करता हुआ बोधिसत्त्व कुशलकर्म अर्थात् परहित के शुभ कर्म में सतत् प्रयत्नशील रहता है। ध्यान पारमिता से चित्त की एकाग्रता को प्राप्त कर चित्त को दृढ़ और शक्ति संपन्न बनाता है।
ये पांच पारमिताएं उपाय अथवा महाकरुणा कहलाती हैं। छठी पारमिता प्रज्ञा मुकुटमणि पारमिता है। शून्यता का ज्ञान ही प्रज्ञा है। वस्तुओं की निःस्वभावता ही शून्यता है। शून्यता के ज्ञान से ही बोधिसत्त्व में आत्मभाव, अभिमान, आसक्ति और तृष्णा का नाश होता है; तत्पश्चात् ही बोधिसत्त्व महाकरुणा की साधना और निर्वाण दोनों के योग्य हो जाता है। किंतु, वह निर्वाण को निलंबित कर परदुःख निवारणार्थ महाकरुणा की साधना का चयन करता है। बोधिसत्त्व का यह आदर्श आज के हिंसक और अनुदार युग में अत्यधिक प्रासंगिक है। बोधिसत्त्व के आदर्श पर न पहुंचकर भी निष्ठा से इस मार्ग पर चलते हुए हम समाज में समता, प्रेम, सौहार्द, सहयोग और शांति के समाजिक मूल्यों का संवर्द्धन करते हुए विश्वशांति में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। इस संदर्भ में प्रो० मूर्ति के विचार उल्लेखनीय हैं-यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि बोधिचित्त किन्हीं ऐसे असांसारिक आदर्शों के लिए तैयारी है, जिनका आज की दुनिया की समस्याओं से कोई संबंध नहीं है। इस संसार में भी इसका बहुत प्रभाव है; सभी प्रकार के परोपकारवाद के आधार रूप में यह सामाजिक एकात्मता और प्रसन्न मानवीय संबंधों की रचना करता है।
- प्रो० शिवनारायण जोशी ‘शिवजी’
महाघोषानंद : बीसवीं शताब्दी में लगभग प्रत्येक बौद्ध देश को किसी-न-किसी प्रकार की भयंकर हिंसा से गुजरना पड़ा है और उस हिंसा का अहिंसक प्रतिरोध करने वालों में तिब्बत के दलाई लामा और विएतनाम के थिच न्हाट हान्ह (Thick Nhat Hanh) के साथ कंबोडिया के महाघोषानंद (1913-2007 ई०) का नाम भी अत्यंत उल्लेखनीय है। अहिंसा और शांति के लिए निरंतर सक्रिय महाघोषानंद को कंबोडियाई गांधी कहा जाता है तथा उन्हें पांच बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था।
कंबोडिया के इतिहास में पिछली शताब्दी का उत्तरार्ध अत्यंत हिंसक दौर रहा है। पहले अमरीकी बमबारी, और लोन नोल की सरकार और फिर ख्मेर रूज के अत्याचारी शासन तथा गृहयुद्ध ने कंबोडिया की आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को तो अस्त-व्यस्त किया ही, साथ ही, कंबोडियाई चित्त में घोर निराशा और आत्महीनता पैदा कर दी। माना जाता है कि करीब बीस से तीस लाख के बीच लोग इस दौर में मारे गए। घायलों और अन्य प्रकार के कष्ट सहन करने वालों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती। इस स्थिति में महाघोषानंद एक ऐसी व्यक्तित्व के रूप में उभरते हैं, जिन्होंने न केवल ख्मेर रूज का अहिंसक प्रतिरोध किया-बल्कि उस शासन की समाप्ति के बाद कंबोडियाई लोगों के पुनर्वास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ-साथ उनके जीवन में आंतरिक शांति और आत्मविश्वास लाने के अथक प्रयास किए।
सामदेक प्रेह (Samdech Preah) महाघोषानंद अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे। शिक्षा प्राप्त करने के बाद 1934 ई० में 21 वर्ष की उम्र में वह बौद्ध संन्यासी हो गए। उन्होंने नालंदा विश्वविद्यालय से डॉक्टर उपाधि हासिल की तथा अपनी भारत-यात्रा के दौरान फुजीई गुरुजी के माध्यम से वह महात्मा गांधी के व्यक्तित्व, विचारों और कार्य-प्रणाली से घनिष्ठ रूप से परिचित एवं प्रभावित हुए। महाघोषानंद हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, चीनी और फ्रेंच सहित कुल पंद्रह भाषाओं के विद्वान थे। 1965 ई० में महाघोषानंद थाईलैंड के एकांत जंगलों में चले गए, जहां वह आचान धम्मदारो (Achaan Dhammadaro) के निर्देशन में ध्यान एवं आध्यात्मिक साधना में लगे। 1969 ई० में कंबोडिया पर अमरीकी बमबारी ने उन्हें बहुत विचलित किया, लेकिन उन्होंने और नौ वर्ष अपनी साधना पूरी करने में ही लगाए। 1978 ई० में उन्होंने शाकियो शरणार्थी शिविर की यात्रा की और उसके बाद उनका पूरा जीवन कंबोडिया के पुनर्निमाण तथा शांति के लिए अथक प्रयास की लंबी कहानी है।
महाघोषानंद ने सभी शरणार्थी शिविरों में सादा बौद्ध मंदिर बनवाए, जहां शस्त्र रखने का निषेध था। सभी शिविरों में भ्रमण करते हुए उनका मूल संदेश यही था कि पहले अपने मन को शांत करो ताकि तुम हर एक से -शत्रु से भी-प्यार कर सको। तभी पूरी दुनिया में शांति स्थापित हो सकती है। मन को शांत करने के लिए बौद्ध ध्यान-पद्धतियों की उपयोगिता पर बल देते हुए उन्होंने स्वयं कई स्थानों पर उनका प्रशिक्षण दिया।
1980 ई० में महाघोषानंद को निर्वासित ख्मेर शासन के प्रतिनिधि के रूप में संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक-सामाजिक परिषद में सलाहकार बनाया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से महाघोषानंद ने कई मानव-एकतापरक पहलकदमियां शुरू कीं तथा विश्व जनमत को कंबोडिया की तकलीफों के प्रति जागरूक किया। उन्होंने कंबोडिया में शांति-स्थापना के लिए आयोजित वार्ताओं में भी हिस्सा लिया तथा वहां भी अहिंसात्मक मनोवृत्ति से काम लेने पर बल दिया। 1988 ई० में महाघोषानंद को कंबोडियाई बौद्ध संघ का सर्वोच्च धर्माधिपति घोषित किया गया।
कंबोडिया में शांति-स्थापना के लिए 1992 ई० में महाघोषानंद ने धर्मयात्रा का प्रवर्तन किया। इसका प्रयोजन कंबोडियाई नागरिकों को भयमुक्त करना तथा दो दशकों के नरसंहार के बाद शांति-स्थापना के लिए मेल-मिलाप करना था। यह एक निर्गुट प्रयास था-जिसमें प्रतिद्वंद्वी पक्षों को अलग रखा गया था। धर्मयात्रा के इस आयोजन को आशातीत सफलता मिली है। यह आयोजन प्रतिवर्ष एक माह तक चलने वाली यात्रा के रूप में होता है, जिसमें सामूहिक निर्णय की विधियों, अहिंसात्मक सक्रियता, राजनीतिक जागरूकता के साथ-साथ वैयक्तिक एवं सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिए बौद्ध शिक्षाओं तथा अहिंसात्मक उपायों को लागू करने बल दिया जाता है। प्रथम धर्म यात्रा में शुरू में 100 शरणार्थी सम्मिलित हुए थे, लेकिन जिन-जिन स्थानों से यह यात्रा गुजरी, वहां स्थानीय लोगों के समर्थन और शामिल होते चले जाने ने यह प्रमाणित कर दिया कि लोग शांति के लिए कितने आकुल हैं। यह यात्रा अंदरूनी प्रदेशों में होती थी, जहां भयंकर गर्मी, पानी और खाद्य सामग्री के अभाव के साथ गुप्त बारुदी सुरंगों का खतरा भी बना रहता था। इन धर्मयात्राओं में निर्वनीकरण, घरेलू हिंसा, स्त्रियों की समस्याओं, तथा लोकतांत्रिक एवं अहिंसक प्रक्रियाओं और कंबोडियाई समाज के सामने आने वाले मुद्दों को केंद्र में रखा जाता है तथा इनमें शामिल होने वाला प्रत्येक व्यक्ति हर हालत में अहिंसा का पालन करने की शपथ लेता है। महाघोषानंद का कहना है कि जब हम शांत मन के साथ गलियों में से गुजरते हैं तो युद्ध पर शांति की विजय सुनिश्चित हो जाती है। अपनी एक कविता में महाघोषानंद लिखते हैं : कंबोडिया की वेदना गहरी है/गहरी वेदना से उपजती है गहरी करुणा/गहरी करुणा से उपजता है शांत मन/शांत मन से उपजता है शांत व्यक्ति/शांत व्यक्ति से उपजता है एक शांत परिवार और समुदाय/शांत समुदायों से उपजता है शांत राष्ट्र/शांत राष्ट्र से उपजता है एक शांत संसार।
महाघोषानंद इस प्रक्रिया को कदम-दर-कदम (Step by step) कहते हैं। एक कदम दूसरे कदम की भूमिका बन जाता है। महात्मा गांधी भी कहते थे कि मेरे लिए एक कदम पर्याप्त है-वह आगे चलेगा ही। महाघोषानंद भी यही कहते थे-यहां/यह/अभी। यह नैतिकता की तात्का-लिकता है, जिसकी बात डॉ० लोहिया ने भी कही है।
यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी की ही परंपरा के अनुरूप महाघोषानंद में भी सत्ता के प्रति कोई आकर्षण नहीं था-न आरामदायक जीवन के प्रति। वह यात्रा भी अकेले ही करते थे-और वह भी अघोषित। उन्हें जो कुछ भी मिलता था, वह जरूरतमंदों को देते रहते थे। दलाई लामा ने उन्हें बुद्ध की एक मूल्यवान मूर्ति भेंट की थी, वह भी उन्होंने अपने पास नहीं रखी। कहा जाता है कि उनका चीवर और पासपोर्ट ही उनकी संपत्ति थे। 1998 ई० में जापान के निवानो शांति प्रतिष्ठान ने महाघोषानंद को शांति पुरस्कार से विभूषित करते हुए कहा था-इन यात्राओं के माध्यम से महाघोषानंद शांति-सेतु बन गए हैं-युद्ध द्वारा विलग कर दिए गए लोगों को साथ लाते हुए.....शांति की अपनी पुकार से उनके भय को दूर करते हुए। निर्वनीकरण और ऐसी ही अन्य समस्याओं के समाधान के लिए उनके प्रयत्नों को सराहते हुए प्रतिष्ठान ने अभिनंदन पत्र में लिखा : आत्मा और कर्म दोनों में ही उन्होंने विश्व में क्षेत्रीय और जातीय संघर्षों के बुनियादी समाधान का रास्ता दिखाया है।
- नंदकिशोर आचार्य
महाभारत : महाभारत भारतीय संस्कृति का मूलाधार महाकाव्य एवं ज्ञान-स्रोत है। कहा जाता है कि जो महाभारत में नहीं है, वह कहीं नहीं है। महाभारत के बारे में उल्लेखनीय बात यह है कि मूलतः युद्ध-काव्य होते हुए भी इसका केंद्रीय रस शांतरस है। युद्धों और योद्धाओं का चरित-वर्णन होने पर भी यह ग्रंथ युद्ध और हिंसा के प्रति विरक्ति पैदा करता तथा अहिंसा और शांति का संदेश देता है। इसीलिए इसका केंद्रीय रस शांत माना गया है। यह भी स्मरणीय है कि अहिंसा परमोधर्म का मंत्र इसी महाकाव्य का उद्घोष है, जिसे इस काव्य में कई स्थलों पर दोहराया गया है।
भारतीय परंपरा के पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) के अनुसार सभी कुछ धर्म के माध्यम से उपलब्ध होने पर ही मोक्ष संभव है, अतः धर्म पुरुषार्थ का सर्वाधिक महत्त्व माना गया है। लेकिन महाभारतकार व्यास ने अहिंसा को धर्म पुरुषार्थ से भी बड़ा माना है क्योंकि सभी धर्म इसके अंतर्गत आ जाते हैं। महाभारत का शांति पर्व धर्म और राजधर्म की व्याख्या की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसी शांतिपर्व में अहिंसा को सकल धर्म और हिंसा को अधर्म कहा गया है। (अध्याय 272) इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि के रूप में महाभारतकार यह मानते हैं कि ब्रह्मभाव को प्राप्त करने के लिए जीवात्मा का अपने और अन्य सब प्राणियों के अभेद की अनुभूति करना आवश्यक है। यही मोक्ष है और इसके लिए ऐसा आचरण अपेक्षित है जिससे सभी प्राणियों में अभेद की अनुभूति संभव हो सके। इसलिए अहिंसा ही सर्वोच्च धर्म है और हिंसा उसका उल्लंघन। शांतिपर्व में व्यास और शुकदेव के वार्तालाप में यह दार्शनिक पृष्ठभूमि स्पष्ट तौर पर अभिव्यक्ति पाती है। (अध्याय, 239)
महाभारत का अनुशासन पर्व अहिंसा को परम धर्म घोषित करते हुए उसे ही परम सत्य, परम तप, परम संयम, परम दान, परम फल, परम मित्र तथा परम सुख के रूप में उसकी व्याख्या करता एवं उसे सभी धर्मों का मूल मानता है (अध्याय 115-116)। शांतिपर्व (अध्याय 162) में सत्य के तेरह रूपों का वर्णन करते हुए अहिंसा की गणना भी की गई है, लेकिन यदि इन रूपों की व्याख्या की जाए तो ये सभी अहिंसा की ही विविध अभिव्यक्तियां दिखाई देते हैं। ये तेरह रूप हैं : सत्य, समता, दम, अमत्सरता, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा, अनसूया, त्याग, परमात्म भाव का ध्यान, आर्यत्व, स्थैर्य तथा अहिंसा। स्पष्ट है कि सूक्ष्म स्तर पर अहिंसा और सत्य एक हो जाते हैं-जैसा हमारे युग में महात्मा गांधी भी मानते हैं-और इसीलिए महाभारत अहिंसा को महानतम धर्म घोषित करता है।
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि महाभारतकार वैदिक धर्म के अनुयायी होने पर भी यज्ञ में पशु-बलि के विरोध में मत व्यक्त करते हैं। शांतिपर्व में राजा विचरण्णु के उदाहरण के माध्यम से भीष्म युधिष्ठिर को बताते हैं कि मनुष्य अपनी इच्छा से ही पशु-बलि करते हैं, जबकि वैदिक प्रमाण से धर्म के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय करने पर अहिंसा ही सर्वोच्च धर्म है। यज्ञ में भी हिंसा का समर्थन वही लोग करते हैं, जो धर्म की मर्यादा से भ्रष्ट हो चुके हैं, मूर्ख हैं, नास्तिक हैं तथा जिन्हें आत्मा के विषय में संदेह है (अध्याय 265)।
शांतिपर्व में ही धर्म के प्रयोजन से किए जाने वाले यज्ञ के संपादन के संबंध में युधिष्ठिर के प्रश्न के उत्तर में भीष्म नारद द्वारा वर्णित पूर्वकाल का एक वृत्तांत सुनाते हैं जिसमें एक तपस्वी ब्राह्मण किसी प्रकार की प्राणी-हिंसा न करते हुए यज्ञ का अनुष्ठान करता है। उसका सहवासी एक मृग, जो धर्म का ही रूप है, नाना प्रकार से उसे प्रलोभन देता है कि यदि वह यज्ञ में विधिपर्वूक उसकी बलि देगा तो दोनों को ही उत्तम गति प्राप्त हो जाएगी। ब्राह्मण आरंभ में सहमत नहीं होता, लेकिन, अंततः बार-बार कहने पर स्वर्ग के प्रलोभन के कारण मान जाता है। लेकिन, मृग का वध करने के लिए उद्यत होते ही उसका सारा महान तप नष्ट हो जाता है। धर्म मृगस्वरूप छोड़कर अपने वास्तविक रूप में आकर ब्राह्मण का यज्ञ करवाते हुए स्थापित करते हैं कि हिंसा यज्ञ के लिए हितकर नहीं है तथा अहिंसा ही संपूर्ण धर्म है (अध्याय 272)।
इसी तरह शांतिपर्व में ही ब्रह्मर्षियों और देवताओं के बीच अज के द्वारा यज्ञ करना चाहिए विधान में अज के अर्थ को लेकर विवाद होता है। देवता अज का अर्थ बकरा करते हैं जबकि ब्रह्मर्षि उसका तात्पर्य अन्न मानते हैं। राजा उपरिचर से जब इसका निर्णय करने को कहा जाता है तो वास्तविक अर्थ जानते हुए भी उनके द्वारा देवताओं का पक्ष लेने पर ब्रह्मर्षि आकाश में विचरने की उनकी शक्ति के पतन का शाप देते हुए कहते हैं कि यदि राजा ने वेद और शास्त्रों के विरुद्ध कहा हो तो शाप लागू हो जाए और यदि ब्रह्मर्षियों ने शास्त्रविरुद्ध कहा हो तो उनका पतन हो जाए। शाप का राजा पर प्रभाव होते ही वह आकाश से पतित होकर पृथ्वी-विवर में प्रवेश कर जाते हैं। यह कथा भी यज्ञ में पशु-बलि का निषेध करती है (अध्याय 337)।
इसी प्रकार महाभारत राज्यशासन में भी अहिंसा को सर्वोच्च महत्त्व देता है। युधिष्ठिर जब भीष्म से यह प्रश्न करते हैं कि बिना हिंसा के प्रयोग के प्रजा की रक्षा कैसे की जा सकती है तो उसके उत्तर में भीष्म राजा सत्यवान और उनके पिता द्युमत्सेन के संवाद का हवाला देते हैं। अपराधियों को शूली के लिए ले जाते हुए देखकर सत्यवान अपने पिता से प्रश्न करता है कि यद्यपि धर्म-अधर्म का निर्णय सतही तौर पर नहीं हो सकता, लेकिन ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि किसी प्राणी का वध करना भी धर्म हो। पिता-पुत्र में इस विषय पर हो रहे संवाद में कहा गया है कि दंड देते हुए जो दंड-विधान शरीर के पांचों तत्त्वों को अलग-अलग न कर सके अर्थात् किसी के प्राण न ले, उसी का प्रयोग करना चाहिए। नीतिशास्त्र की आलोचना और अपराधी के कार्य पर भलीभांति विचार किए बिना ही इसके विपरीत कोई दंड नहीं देना चाहिए। इस संवाद में कहा गया है कि मृत्यु-दंड पाए हुए व्यक्ति के माता-पिता, स्त्री और संतान आदि भी जीविका का कोई उपाय न रहने के कारण मानो मार दिए जाते हैं। दुष्ट पुरुष भी कभी साधुसंग से सुधर कर सुशील बन जाते हैं तथा बहुत-से दुष्ट पुरुषों की संतान भी अच्छी निकल जाती है, अतः दुष्टों को प्राणदंड देकर उनका मूलाच्छेद नहीं करना चाहिए। किसी की जड़ उखाड़ना सनातन धर्म नहीं है। जब द्युमत्सेन कहता है कि यदि धर्म का उल्लंघन करने पर भी लुटेरों का वध न किया जाए तो उनसे सारी प्रजा को कष्ट पहुंच सकता है तो सत्यवान जवाब देता है कि यदि लुटेरों का वध न करके साधुओं की रक्षा करने में असमर्थता है अथवा उन दस्युओं को साधु नहीं बनाया जा सकता तो भूत, भविष्य और वर्तमान में उनके पारमार्थिक लाभ का उद्देश्य सामने रखकर किसी उत्तम उपाय से उनका या उनकी दस्युवृत्ति का अंत कर देना चाहिए। सत्यवान एक शासक के लिए यही वरेण्य मानता है कि भय दिखाकर प्रजा को धर्म में लगाना तो दंड का उद्देश्य हो सकता है, पर किसी का प्राण लेना नहीं और श्रेष्ठ नरेश प्रायः सत्कर्मों और सद्व्यवहारों द्वारा ही दीर्घकाल तक प्रजा पर शासन करते हैं (अध्याय 267)। स्पष्ट है कि महाभारतकार राज्यशासन के लिए भी हिंसा के साधन को वरीयता नहीं देते तथा प्राणदंड को तो बिल्कुल अनुचित मानते हैं। इसे आधुनिक काल में मृत्युदंड के औचित्य-अनैचित्य की बहस के साथ रखकर देखा जा सकता है।
अहिंसा को परम धर्म मानने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि महाभारतकार मांसाहार को भी अनुचित मानते हैं। अनुशासन पर्व (अध्याय 115-116) में मांसाहार के बारे में प्रश्न किया जाने पर भीष्म कहते हैं कि मद्य और मांस के परित्याग से प्राप्त होने वाला फल प्रतिमास अश्वमेघ यज्ञ के फल के समकक्ष है। मांस के परित्याग को धर्म, स्वर्ग और सुख का आधार बताते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य हत्या के लिए पशु लाता है, जो उसे मारने की अनुमति देता है, जो उसका कहा करता है तथा जो खरीदता, बेचता, पकाता और खाता है, वे सबके सब खाने वाले ही माने जाते हैं। मांस खाने वाले का अनुमोदन करने वाला मनुष्य भी भावदोष के कारण मांस-भक्षण के पाप का भागी होता है। यदि मांस खाना बंद हो जाए तो जीवों की हत्या भी बंद हो जाए और वे अभय होकर जी सकें। अनुशासन पर्व के इन दोनों अध्यायों में मांस-भक्षण से होने वाली हिंसा का निषेध करते हुए अंत में कहा गया है कि अहिंसा परम धर्म है और उससे होने वाले लाभों का तो वर्णन सौ वर्षों तक किया जाए तो भी पूरा नहीं हो सकता।
- नंदकिशोर आचार्य
महावीर : चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का जीवन काल 599 ई०पू० से 527 ई०पू० तक रहा। अप्रेल 2001 ई० से अप्रेल 2002 ई० को न केवल भारत भर में बल्कि विश्व के सभी प्रमुख देशों में उनका 2600वां जन्म कल्याणक समारोह विस्तृत रूप से मनाया गया। भगवान महावीर जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर ही नहीं, बल्कि विश्व के प्रमुख पंक्ति के आध्यात्मिक महासंत हो गए हैं जिनका अहिंसा, शांति और करूणा का संदेश पिछली 25 शताब्दियों बाद आज भी प्रासंगिक है।
जैन शास्त्र सूत्र कृतांग में कहा गया है-जिस प्रकार हाथियों मे ऐरावत सर्वोच्च है, पशुओं में सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में गरुड़, उसी प्रकार ज्ञातृपुत्र महावीर मोक्षमार्ग का रास्ता दिखाने वाले पथ-प्रदर्शकों में सर्वोच्च है।
महावीर का जीवनकाल 72 वर्ष का था। वे राजसी वातावरण में जन्मे, पले-बढ़े और अपने जीवन के 30 वर्ष उसी में व्यतीत किए। तीस वर्ष की उम्र में वैराग्य लेने के बाद लगभग 121/2 वर्ष (बारह वर्ष, पांच माह और पंद्रह दिन) तक कठोरतम् साधना में लगे रहे। तत्पश्चात् केवलज्ञान प्राप्ति होने और अपने प्रथम समवशरण प्रवचन के बाद 30 वर्ष पूरे देश में पैदल भ्रमण कर अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत के दर्शन का प्रचार-प्रसार निर्वाण प्राप्ति तक अभूतपूर्व संगठन शक्ति, अथक परिश्रम, सूझ-बूझ और अनासक्ति से करते रहे।
जैन शास्त्र उनके पिछले जन्मों के विवरणों से भरपूर हैं जिसमें मनुष्य और पशु योनियों में रहकर क्रमशः पुण्योदय की ओर अग्रसर होते रहे। कहते हैं कि उनके एक पिछले जन्म में वे प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के पोते मरीच थे।
जब महावीर का जन्म हुआ, लिछ्छवी गणराज्य समृद्धि शिखर पर था और उसकी राजधानी वैशाली वैभव संपन्न थी। अपने यात्रा विवरणों में चीनी यात्री ह्यूंसांग ने वैशाली को कई मीलों में फैली हुई अट्टालिकाओं से सम्पन्न सुंदर नगरी वर्णित किया है। महावीर की माताश्री त्रिशला लिछ्छवी गणराज्य के प्रमुख सम्राट चेटक की पुत्री थी और कुंड़ग्राम के ज्ञातृवंशी राजा सिद्धार्थ की रानी थी। जब महावीर गर्भ में आए तो रानी त्रिशला को कई अनूठे सपने आए जिनको होने वाले शिशु की दैविक आभा का प्रतीक माना गया। दिगंबर परंपरा में 16 स्वप्न व श्वेतांबर परंपरा में 14 स्वप्न माने गए हैं।
बचपन में महावीर का नाम वर्द्धमान था। नाम वर्द्धमान इस बात का द्योतक था कि महावीर के जन्म के बाद राजा सिद्धार्थ के परिवार में समृद्धि बढ़ती गई। बचपन से ही महावीर बड़े गुणवान, ज्ञानवान, धीर, गंभीर और साहसी थे। राजमहल में आने वाले संत उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें सन्मति कहकर पुकारने लगे। ज्ञातृवंश के होने के नाते वे ज्ञातृपुत्र भी कहलाए। उनकी बहादुरी, शौर्य और साहस की प्रतिभा देखकर उनका नाम वीर, अतिवीर और अंततः महावीर पड़ गया।
बचपन से ही उनकी वृत्तियां आत्मोन्मुखी थीं। दिगंबर परंपरा के अनुसार वे अविवाहित रहे। श्वेतांबर परंपरा अनुसार उनका विवाह राजकुमारी यशोधरा से हुआ, लेकिन वे भोग-विलास में आसक्त नहीं हुए और क्रमशः उनकी वैराग्य की प्रवृत्ति बलवती होती गई। जब वे केवल 28 वर्ष के थे उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया और महावीर ने दीक्षा लेकर वैराग्य लेने का निश्चय कर लिया। बड़े भाई नंदीवर्द्धन के आग्रह का आदर करते हुए वे दो वर्ष गृहस्थ योगी बने रहे।
तीस वर्ष की उम्र में महावीर वैराग्य पथ पर अग्रसर हो गए। छूट गए पीछे सारे राजसी ठाठ, संपन्नता के सुख-साधन, भोग-विलास के समस्त भौतिक वैभव। प्रारंभ हुआ उनका लगभग 121/2 वर्ष तक का अनवरत साधक-जीव। जैन आगमों में उनके लंबे साधना काल का विस्तृत विवरण दर्शाता है कि न केवल उनकी तप-तपस्या कठोर और अपूर्व थी, बल्कि उन्हें भयानक यातनाएं बड़े धैर्य और शांत चित्त रहकर भुगतनी पड़ी। तत्कालीन लाढ़ देश के अनार्य प्रजाजनों एवं चंड़कौशिक सर्प, गौशालक, संगम देव, शूलपाणि यक्ष आदि द्वारा पहुंचाई गई पीड़ाएं और कष्ट उन्होंने सम्यक् क्षमा भाव और सहिष्णुता से झेले। उन्होंने साधना काल में सिद्ध कर दिया कि वे यथार्थ में महावीर हैं।
121/2 वर्ष की साधना के बाद जब महावीर स्वामी को केवल-ज्ञान की प्राप्ति हुई तो वे बिहार में सम्मेदशिखर तीर्थ से 15-20 किलोमीटर दूर जांभिग गांव के समीप रिजकुला नदी के किनारे उपवन में शाल्मली वृक्ष की छाया में स्वच्छ स्फटिकसी शिला पर समवशरण के केंद्र में ध्यानस्थ बैठ गये। 66 दिन के मौन के बाद इंद्रभूति गौतम के उनके प्रथम गणधर बनते ही भगवान् महावीर की दिव्य वाणी गूंजी। समवशरण की छटा ही निराली थी। कहते हैं सब जातियों के मानव समूहों के अलावा पशु, पक्षी भी उनकी आध्यात्मिक शक्ति के प्रति संवेदनशील होकर वहां एकत्रित हो गए। नैसर्गिंक वातावरण भी उनकी उपस्थिति से दिव्यमान हो गया। समवशरण की रचना एवं उसका समस्त नैसर्गिंक वातावरण परस्परोपग्रहो जीवनाम को चरितार्थ कर रहा था।
दिव्य ध्वनि की प्रथम प्रवचन में गूंज से प्रारंभ हुआ महावीर का संदेश : जो पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन और हरियाली के अस्तित्व की उपेक्षा करता है वह वस्तुतः, स्वयं के अस्तित्व की उपेक्षा करता है जो उन सबके साथ एक ताने-बाने सरीखा जुड़ा हुआ है।
इस संदेश ने जैन धर्म के पर्यावरणीय पहलू को जागृत किया और उसे अहिंसा धर्म के पालन की एक महत्वपूर्ण आधार-शिला बनाया। केवल-ज्ञान की प्राप्ति के बाद अगले 30 वर्षों तक भगवान् महावीर ने पूरा जीवन जैन दर्शन के प्रचार प्रसार के लिये समर्पित कर दिया।
सर्वप्रथम महावीर ने देश के सब प्रदेशों का सब दिशाओं में पैदल भ्रमण किया और व्यापक जनसंपर्क स्थापित किया। वे लोकप्रिय हुए क्योंकि उन्होंने पहले अपनी आत्माशुद्धि के लिय चरम त्याग और कठोर उपासना की और केवल-ज्ञान प्राप्ति के बाद ही दूसरों को उपदेश दिए।
वे समाज के जाति भेदों, वर्ग भेदों, लिंग भेदों को नहीं मानते थे, क्योंकि वे सदा कहते थे कि हर प्राणी या मानव की, वह छोटा हो या बड़ा, काला हो या गोरा, नर हो या नारी सबकी आत्मा बराबर हैं। उस युग में जब वर्ण-भेद और उससे जन्य भेद-भाव आकार लेने लगा था, महावीर ने सामाजिक समता और बराबरी की आवाज उठाई। जैन धर्म सब वर्गों के लिये खुला था। यह था महावीर का आध्यात्मिक समाजवाद (Spiritual socialism), महावीर का समता दर्शन विचार, वाणी और दृष्टि में ही नहीं बल्कि आचरण के प्रत्येक चरण में। वे कहते थे कि जब समता भाव मनुष्य के मन में होगा तो वह समाज के जीवन में भी आ जाएगा।
महावीर ने जात-पात के भेद-भावों को भुलाकर एक सर्व सुलभ धर्म व्यवस्था स्थापित की। उनके संघ में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, अस्पृश्य माने जाने वाले वर्ग के नर-नारी सभी बराबरी के आधार पर शामिल थे। उनके धर्म ध्वज के पीछे किसान, मछुआरे, व्यवसायी, दार्शनिक, राजा, रंक सभी थे। वस्तुतः अपने युग में महावीर ने एक महान् सामाजिक क्रांति का उद्घोष किया। जन्मजात जातिवाद को ठुकरा कर उन्होंने गुणकर्म के आधार पर समाज व्यवस्था का प्रतिपादन किया। उदाहरण है हरिकेश मुनि का, जो चांडाल कुल में जन्में लेकिन जैन शासन में दीक्षित होकर वे महामुनि बन गए महावीर को मानने वालों में उस समय के लगभग सारे राजधराने थे जैसे लिछवी गणराज्य के सम्राट चेतक, कुंड़ग्राम के राजा सिद्धार्थ, मगध के राजा श्रेणिक बिंबिसार, सिंधु-सबीर के राजा उदयन, वत्स के राजा शातनिक, हेमाकुंड़ (अब कर्नाटक) के राजा जीवनधर, पोलाशपुर के राजा विजयसेन, चंपा के राजा अजातशत्रु, काशी के राजा जीतशत्रु आदि। महावीर के समय आठ राजाओं ने मुनि दीक्षा स्वीकार की थी।
अपने युग में महावीर ने महिला कल्याण पर भी विशेष ध्यान दिया। चंदन बाला की कहानी महावीर की सहृदयता, करूणा और संकल्प की कहानी है। जब उन्होंने गुलामी की जंजीरों में त्रस्त चंदनबाला को देखा तो सहर्ष और तुरंत उससे आहार ले लिया। आहार देते देते चंदनबाला की बेड़ियां टूट पड़ी। बाद में वह महावीर के संघ में साध्वियों के प्रवर्तक पद पर पहुंच गई। उनके संघ में 36,000 साध्वियां थी, उनमें ये प्रमुख थी। बाजार में बिकी एक दासी का उद्धार कर उन्होंने चंदनबाला को ज्ञानी, गुण संपन्न व तपोनिष्ठ बनाकर व श्रमण संघ की शिखर पंक्ति में लाकर नारी समाज को अद्भुत प्रेरणा दी।
उनके द्वारा की गई धर्म की व्याख्या में अनुभवों में ढ़ली मौलिकता थी। अहिंसा धर्म फैलाने के लिये अदम्य उत्साह, साहस और सामर्थ्य भरी आस्था थी। भगवान् महावीर के नेतृत्व में जैन धर्म का इतना विराट, स्पष्ट और व्यापक रूप प्रकट हुआ है कि कई इतिहासज्ञों ने भूल से उन्हें जैन धर्म के संस्थापक की ही संज्ञा दे ड़ाली एवं इतिहास की दृष्टि से जैन धर्म और बौद्ध धर्म को समकालीन बता दिया जबकि जैन धर्म अति प्राचीन था और बुद्ध धर्म का प्रारंभ महावीर के युग में गौतम बुद्ध ने किया।
भगवान् महावीर का उदय लोकशक्ति का उदय था। धर्म क्षेत्र में तर्कसंगत और वैज्ञानिक चिंतन प्रतिष्ठित हुआ; राजतंत्र अधिक मानवीय बना; समाज में समता-भाव फैला और जनमानस में शोषण रहित अनेकांती आत्मोदय की प्रेरणा और उमंग हिलोरे लेने लगी। 30 वर्षों तक पृथ्वी पर अनवरत अहिंसा, अनेकांत और अपरिग्रह का प्रचार करने के बाद 72 वर्ष की आयु में पावापुरी में एक झील के समीप महावीर भगवान् का अंतिम ध्यान हुआ और वही उन्होंने ईसा पूर्व 527 में निर्वाण प्राप्ति की। तब से जैन परंपरा में उनका निर्वाण दिवस दीपावली के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है।
- डॉ० नरेंद्र जैन
मानव-केंद्रीयता : मानव-केंद्रीयता (anthro-pocentrism) एक ऐसी विचार-दृष्टि है, जो सृष्टि के केंद्र में मनुष्य को रखती और इसलिए मानवेतर सृष्टि अर्थात् प्रकृति, पारिस्थितिकीय संतुलन और शेष जीव-जगत को मनुष्य के प्रयोजन के लिए मानती है। इस कारण, मनुष्य के जीवन और ज्ञान-विज्ञान का विकास केवल इस दृष्टि से किया जाता है कि मनुष्य के लिए क्या अनुकूल या सुविधाजनक है-बिना इस बात की पर्वाह किए कि शेष सृष्टि पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है। इस कारण बहुत से पर्यावरण-विज्ञानी प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन के कारण स्वयं मानव-अस्तित्व के लिए आसन्न संकट का मूल कारण इस मानव-केंद्रीयता की दृष्टि को मानते हैं। इनमें कनफेशंस ऑफ एन इको-वारियर के लेखक डेव फोरमैन, ग्रीन रेज के लेखक क्रिस्टोफर मेंस, तथा हरित सिद्धांत के विमर्शकार वाल प्लमवुड आदि का नाम विशेष उल्लेखनीय है। वाल प्लमवुड का कहना है कि हरित विमर्श में मानव-केंद्रीयता की वही स्थिति है, जो स्त्रीवादी विमर्श में पुरुष-केंद्रीयता और नस्लविरोधी विमर्श में जाति-केंद्रीयता की है, अर्थात् जैसे स्त्रियों की हीनतर स्थिति के लिए पुरुष-केंद्रीयता और नस्लीय श्रेष्ठता-बोध के लिए जाति-केंद्रीयता उत्तरदायी है, वैसे ही पर्यावरण के प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन के लिए मानव-केंद्रित दृष्टिकोण।
बहुत-से पर्यावरणवादी विचारकों की मान्यता है कि इस मानव-केंद्रीयता के बीज पुरानी ईसाइयत के समय से ही मिल जाते हैं। मसीही परंपरा के अनुसार सृष्टि की सभी चीजों का निर्माण मनुष्य के प्रयोजन के लिए किया गया है। बहुत-से विचारकों-यथा लिन वाइट जूनियर (Lynn White Jr) और डेविड सुजुकि (David Suzuki) आदि का विचार है कि आधुनिक विज्ञान और तकनीकी के मानव-केंद्रित दृष्टिकोण की दार्शनिक पृष्ठभूमि में ओल्ड टेस्टामेंट और न्यू टेस्टामेंट की सृष्टि-रचना की अवधारणा ही सक्रिय है। लिन वाइट ने अपने प्रसिद्ध लेख दि हिस्टोरिकल रूट्स ऑफ अवर इकॉलॉजिक क्राइसिस में कहा है कि पैगनवाद पर ईसाइयत की विजय हमारे सांस्कृतिक इतिहास में महानतम मानसिक (Psychic) क्रांति है। प्राचीन पश्चिम के विचारकों ने सृष्टि को अनादि माना था। लेकिन, यहूदी परंपरा और ईसाइयत में सृष्टि का एक आरंभ-बिंदु माना गया, जिसमें ईश्वर ने इस सृष्टि को मनुष्य के लिए निर्मित किया। मनुष्य ने सबको नाम देकर उन पर अपना आधिपत्य जमाया। सृष्टि के आरंभ से काल-प्रवाह शुरू होने के कारण यह निरंतर एकरैखिक प्रवाह में बहता चला जाता है, जिसका रुकना या लौटना संभव नहीं होता। इस एकरैखिक काल-बोध ने ही निरंतर विकास की अवधारणा को प्रस्तुत किया, और सारी मानवेतर सृष्टि का प्रयोजन मनुष्य के लिए होने के कारण मनुष्य अपने विकास के लिए शेष सृष्टि का मनमाना इस्तेमाल अपना हक समझने लगा। पर्यावरणवादियों के अनुसार यह दृष्टिकोण ही प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन का तात्त्विक आधार है। यही कारण है कि पर्यावरणीय नैतिकी पर विचार करते हुए भी जॉन पासमोर जैसा विचारक अपनी पुस्तक मैंस रेस्पांसिबिलिटी फॉर नेचर में इस मानव-केंद्रीयता वाले दृष्टिकोण से मुक्त नहीं हो पाता। यह भी उल्लेखनीय है कि अधिकांशतः टिकाऊ विकास या पर्यावरण-संतुलन की चिंता भी मानव-केंद्रीयता की दृष्टि से ही की जा रही है। पर्यावरण-प्रदूषण मनुष्य के अस्तित्व के लिए बड़ा खतरा है, या पारिस्थितिकीय असंतुलन भावी मानव-संतति के लिए भारी समस्याएं पैदा करने वाला है, इसी कारण हमें पर्यावरण-पारिस्थितिकी की चिंता सताने लगी है। इसमें मानवेतर सृष्टि के प्रति किसी वास्तविक दायित्व-बोध की नितांत अनुपस्थिति है। यदि मनुष्य का अस्तित्व खतरे में न हो तो पर्यावरण की चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होती। यह मानव-केंद्रीयता की दृष्टि का ही प्रतिफलन है। विलियम ग्रे जैसे विचारकों के अनुसार तो अभी हो रहे विकास से उत्पन्न प्रदूषण एक लघुजीवी मानव-स्वार्थ के कारण है; हमें एक अधिक दीर्घजीवी और अधिक मजबूत मानव-केंद्रित दृष्टिकोण की जरूरत है।
लेकिन, कुछ अन्य ईसाई विचारकों के अनुसार यह मानव-केंद्रीयता, वस्तुतः, बाइबिल की शिक्षाओं का अतिक्रमण करने के परिणामस्वरूप विकसित हुई है क्योंकि ईसाइयत मानव-केंद्रित नहीं बल्कि ईश्वर केंद्रित दृष्टि है और ईसा की शिक्षाएं ईश्वरेच्छा का प्रतिबिंब है। ईसा की शिक्षाएं त्याग, सादा जीवन, मानवेतर सृष्टि के प्रति दायित्व-बोध तथा सार्वभौमिक प्रेम की बात करती हैं-क्योंकि ईश्वर प्रेम है-इसलिए मानव-स्वार्थ से प्रेरित दृष्टिकोण को ईसाइयत नहीं माना जा सकता। संत फ्रांसिस ऑफ असीसी इसी दृष्टिकोण के समर्थक हैं। लेकिन, यह स्पष्ट है कि मानव-केंद्रीयता की अवधारणा या मानव के सबसे श्रेष्ठ होने के कारण शेष सृष्टि पर उसके अधिकार के औचित्य की अवधारणा ने पर्यावरण-प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन पैदा करने में एक तात्त्विक आधार की भूमिका निश्चय ही निभाई है। यह भुला दिया गया है कि मानव की श्रेष्ठता उसकी चेतना-संपन्नता का परिणाम है और इसलिए उसकी वास्तविक अभिव्यक्ति अन्य के प्रति प्रेम और दायित्व-बोध के रूप में होनी चाहिए।
- नंदकिशोर आचार्य
मानवाधिकारों की विश्व घोषणा : एक अहिंसक समाज के विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य और मनुष्य-समूह के लिए कुछ बुनियादी अधिकारों की स्वीकृति आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 10 दिसंबर 1948 ई० को घोषित मानवाधिकारों की विश्व घोषणा (दि यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स) तथा अनंतर समय-समय पर घोषित अन्य संविदाओं यथा नागरिक-राजनीतिक अधिकारों की संविदा (1966 ई०), आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की संविदा (1966 ई०), नस्लीय भेदभाव के विरूद्ध घोषणा (1967 ई०), अल्पसंख्यकों के अधिकारों की घोषणा (1992 ई०), सामाजिक विकास के लिए संविदा (1969 ई०), सांस्कृतिक अधिकारों की घोषणा (1966 ई०) आदि में मानवीय स्वतंत्रता तथा गरिमा पर आघात करने वाली प्रक्रियाओं से बचाव के लिए प्रावधान किए गए हैं। यह उल्लेखनीय है कि मानवाधिकारों की विश्वघोषणा को संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा द्वारा सर्वसम्मति से पारित किया गया था, यद्यपि तत्कालीन सोवियत ब्लॉक के देशों तथा सऊदी अरब और दक्षिण अफ्रीका ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था; लेकिन, उन्होंने भी उसके विरोध में मतदान नहीं किया। इससे यह प्रकट हो जाता है कि मानवाधिकारों को विश्व भर का नैतिक समर्थन प्राप्त है। यह नहीं कहा जा सकता कि सभी जगह सभी मानवाधिकारों को व्यवहार में लागू कर दिया जा सका है; लेकिन, इतना स्पष्ट है कि मानवाधिकारों को मनुष्य पर की जा रही किसी भी तरह की हिंसा के विरूद्ध एक अंतर्राष्ट्रीय नैतिक दबाव और राजनीतिक आंदोलन की तरह देखा जाता है।
मानवाधिकार का तात्पर्य व्यक्ति मनुष्य के ऐसे अधिकारों से है, जिनसे उसे किसी भी स्थिति में वंचित नहीं किया जा सकता-स्वयं उसके चाहने पर भी नहीं। संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्व-घोषणा की प्रस्तावना के शुरू में विश्व में स्वतंत्रता, न्याय और शांति की नींव मानव-परिवार के सभी सदस्यों की जन्मजात गरिमा और उनके अहस्तांतरणीय तथा समान अधिकारों की स्वीकृति है। स्पष्ट है कि प्रत्येक मनुष्य को जन्म से ही स्वतंत्र या गरिमा और अधिकारों में समान मानते हुए इन अधिकारों को किसी भी स्थिति में अहस्तांतरणीय माना गया है।
इन अधिकारों का दायरा इतना व्यापक है कि सारे मानवीय कार्य-व्यापार इनके अंतर्गत आ जाते हैं। घोषणा-पत्र की प्रस्तावना में उन्हें सभी राष्ट्रों और समूहों को सामान्य लक्ष्य घोषित किया गया है जिसे प्राप्त करने पर एक ऐसे संसार का निर्माण होगा, जिसमें भय, हिंसा और अभाव नहीं होंगे। घोषणा की पहली और बाईसवीं धारा में मानवीय समानता और मानवीय व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का आग्रह किया गया है। पहली धारा में प्रत्येक मनुष्य को विवेक ओर अंतःकरण से युक्त मानते हुए उनसे एक-दूसरे के प्रति बंधुत्व की अपेक्षा की गई है। इसी तरह बाईसवीं धारा में समाज के एक सदस्य के नाते प्रत्येक के लिए सामाजिक सुरक्षा के अधिकार को स्वीकृति दी गई है और यह उम्मीद की गई है कि राष्ट्रीय प्रयत्नों और अंतरराष्ट्रीय सहयोग से प्रत्येक राष्ट्र अपने संगठन और स्रोतों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के उन आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की रक्षा करेगा जो उसके व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के लिए आवश्यक हैं।
धारा तीन में प्रत्येक को जीवन, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सुरक्षा का अधिकार दिया गया है और धारा चार में बेगारी तथा गुलामी को प्रतिबंधित करने का आग्रह करते हुए धारा पांच में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति के साथ अत्याचार, निर्दयता अथवा क्रूरता या ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया जाएगा जो उसकी मानव-गरिमा पर आघात करता हो; किसी अपराधी को भी इस तरह की सजा नहीं की जाएगी। किसी भी तरह के अपराध के लिए भी उसे कोई यंत्रणा नहीं दी जाएगी।
मानवाधिकारों की विश्वघोषणा में प्रत्येक व्यक्ति के रोजगार तथा काम करने की स्वस्थ परिस्थिति की गारंटी की गई है। हर किसी वैचारिक-धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है-जिसमें धर्म और आस्था बदलने की स्वतंत्रता भी शामिल है। स्त्रियों और बच्चों के अधिकारों को मान्यता देते हुए धारा पच्चीस (दो) में कहा गया है कि मातृत्व और शैशवावस्था विशेष देख-भाल और सहायता पाने के अधिकारी हैं। सभी बच्चे चाहे वे वैध हो या अवैध, समान सामाजिक संरक्षण के हकदार माने गए हैं।
धारा पच्चीस (एक) में प्रत्येक व्यक्ति को भोजन, कपड़ा, आवास तथा चिकित्सा-सुविधा के साथ पर्याप्त जीवन-स्तर का अधिकार दिया गया है और उसके नियंत्रण से बाहर की किसी भी स्थिति, जैसे विकलांगता, बीमारी, वैधव्य, बुढ़ापा, बेरोजगारी आदि में सुरक्षा के अधिकार की स्वीकृति है।
मानवाधिकारों की विश्वघोषणा में प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समान मानते हुए (धारा छह) धारा बारह में किसी भी व्यक्ति की निजता, एकांत, परिवार तथा पत्राचार में अहस्तक्षेप को स्वीकार करते हुए गारंटी की गई है कि उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान को कोई चोट नहीं पहुंचाई जा सकेगी। राजनीतिक अधिकारों के क्षेत्र में हर एक को अपना मत रखने और उसको अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता का अधिकार (धारा उन्नीस) देते हुए धारा बीस (एक) में शांतिपूर्वक एकत्रित होने और संघ बनाने का अधिकार दिया गया है। हर किसी को प्रत्यक्षतः या प्रतिनिधि के जरिए अपने देश की सरकार में हिस्सा लेने का अधिकार (धारा इक्कीस-एक) है।
यह उल्लेखनीय है कि घोषणा-पत्र की किसी भी धारा की व्याख्या या उसकी इस्तेमाल किसी भी स्थिति में ऐसा नहीं किया जा सकता जिससे संयुक्त राष्ट्र संघ के सिद्धांतों या उद्देश्यों का विरोध होता हो; अर्थात् इस घोषणा में सन्निहित स्वतंत्रताओं का इस्तेमाल किसी भी हिंसात्मक या घृणा पैदा करने वाली कारर्वाई के लिए किया जाना स्वीकृत नहीं है (धारा उनतीस-तीन) और इस घोषणा की किसी भी बात का अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता है कि किसी को भी इस घोषणा में निहित किसी भी अधिकार या स्वतंत्रता को नष्ट करने के उद्देश्य से किसी गतिविधि में भाग लेने या कोई काम करने का अधिकार है (धारा तीस)।
स्पष्ट है कि मानवाधिकार घोषणा एक अहिंसक या कहें स्वस्थ समाज के लिए स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की पूर्व-मान्यता करती है। पूंजीवादी लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्त्व देते हुए समता को केवल कानून के समक्ष समता तक सीमित कर देते हैं तो साम्यवादी सरकार समता को महत्त्व देती हुई स्वतंत्रता का दमन करती नजर आई हैं। दोनों की ओर से समता बनाम स्वतंत्रता अथवा रोटी बनाम अभिव्यक्ति जैसे कृत्रिम विवाद चलाए जाते हैं और एक अधिकार को दूसरे अधिकार बरक्स खड़ा कर दिया जाता है, जबकि मानवाधिकारवादियों का मानना है कि आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक अधिकारों में कोई अंतर्विरोध नहीं मिला है। इन अधिकारों के संबंध में जो संविदाएं हैं या विश्वभर में जो अलग-अलग मानवाधिकार आयोग हैं या हेलसिंकी में जिस तरह के मानवाधिकार स्वीकृत हैं, वे मानवाधिकारों के बारे में उक्त प्रकार के कृत्रिम विवादों की निरर्थकता बताने के लिए स्पष्ट हैं।
मानवाधिकारों की विश्व-घोषणा की नैतिक शक्ति को लगभग सभी द्वारा स्वीकार किया गया है-चाहे व्यवहार में उसे पूरी तरह लागू न किया जा सका हो। जस्टिस वी०एम० तारकुंडे का मानना है कि अब तक घोषणा-पत्र को व्यावहारिक सत्ता प्राप्त हो चुकी है, जिससे कई लोग यह विश्वास करने लगे हैं कि यह लगभग अंतरराष्ट्रीय कानून का हिस्सा बन चुका है। दरअस्ल, घोषणा-पत्र को प्राप्त राजनीतिक या कानूनी शक्ति उस नैतिक शक्ति का परिणाम है, जो विश्व-जनमत के समर्थन से प्राप्त हुई है। इसलिए प्रो० जोन पी० हम्फे का यह कथन संगत है कि हमारे समय के चिंतन पर संयुक्त राष्ट्र के किसी अन्य कानून का इतना प्रभाव नहीं पड़ा। इसमें सर्वोत्तम आकांक्षाएं निहित एवं घोषित हैं। संभव है कि यह इतिहास में मुख्य रूप से महान नैतिक सिद्धांतों के वक्तव्य के रूप में जीवित रहे। किसी भी अन्य राजनीतिक दस्तावेज या कानूनी उपकरण की तुलना में इसका प्रभाव अधिक गहरा एवं स्थाई है।
- नंदकिशोर आचार्य
मिल, जौन स्टूअर्ट : जौन स्टूअर्ट मिल (1806-1873 ई०) 19 वीं शताब्दी के इंगलैण्ड में अत्यंत प्रभावशाली बौद्धिक पुरोधा हुए हैं। व्यक्ति, समाज, मानवीय लक्ष्य, मानवों के परस्पर संबंध, शासन की सीमाएं, समाज में स्त्रियों का स्थान, अर्थतंत्र की भूमिका एवं धार्मिक विश्वास आदि वे अनेक दिशाएं थीं, जिनमें उनका चिंतन सक्रिय रहा तथा जिसके फलस्वरूप अनेक प्रबुद्ध कृतियों की रचना हुई। उनके उदारवादी विविधायामी विचारों के मूल में तीन प्रेरक देखे जा सकते हैं : अनुभव, अन्वीक्षण, कार्यकारण दृष्टि-जनित विचार प्रणाली। इनमें अनुभव को मूल प्रेरक कहा जा सकता है। दूसरे दो के अन्तर्गत, चरित्र की उत्कृष्टता तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता को ले सकते हैं।
विचारों की उदात्त दिशा उन्हें कोलरिज, कार्लाइल तथा ग्व्टे जैसे विचारकों से प्राप्त हुई, जबकि प्रत्यक्षवादी तथा अनुभववादी दृष्टि ब्रिटिश अनुभववादी चिंतन परंपरा से प्राप्त हुई, जिसके अंतर्गत लॉक, बर्कले तथा ह्वूम के नाम लिये जाते हैं। नीति तथा आचार संबंधी चिंतन का निर्धारण बहुत कुछ अपने पिता जेम्स मिल तथा उनके घनिष्ठ मित्र जेरेमि बेंथम के विचारों के द्वारा हुआ है। परंतु जे० एस० मिल ने इन विचारों को नई दिशा दी।
1861 ई० में मिल ने यूटिलिटेरियनिज्म शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने बेंथम की इस दृष्टि का प्रतिपादन किया कि हमें अपने कर्म इस प्रकार करने चाहिए जिससे सभी संवेदनशील प्राणियों का अधिकाधिक कल्याण सिद्ध हो। अधिकाधिक कल्याण का अर्थ अधिकाधिक सुख। परंतु मिल ने बेंथम द्वारा प्रस्तुत सुख की कल्पना को परिमाणात्मक न रखकर उत्कृष्ट गुणात्मक रूप में स्वीकार किया। उनका प्रसिद्ध कथन है, असंतुष्ट सुकरात संतुष्ट शूकर की तुलना में अधिक श्रेष्ठ है। यह बात अलग है कि गुणात्मक उत्कृष्ट सुख की व्याख्या विचार का विषय रही है।
बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के बीच प्रचलित परस्पर विरोधी दृष्टियों में मिल ने अनुभववाद को प्रश्रय दिया। उनका सोच था कि अनुभव से स्वतंत्र अंतर्दृष्टि अथवा चेतना गलत विचार-प्रणाली को रूपायित करते हैं। उनसे मिथ्या सिद्धांतों तथा खराब संस्थाओं का जन्म होता है। 1865 ई० में प्रकाशित ऐग्जामिनेशन ऑव सर विलियम हैमिल्टंस फिलॉसोफि पुस्तक में मिल ने इसी दृष्टि का प्रतिपादन किया है।
22 वर्ष पूर्व 1843 ई० में मिल ने अपनी पुस्तक सिस्टम ऑव लॉजिक में अंतर्दिृष्टवाद अथवा इंट्यूश्निज्म के विरूद्ध, सामाजिक एवं प्राकृतिक घटनाओं को तार्किक तथा वैज्ञानिक पद्धतियों द्वारा समझने पर बल दिया। मिल ने तार्किक प्रणाली के जिस रूप की सिफारिश की, उसमें प्रमाण की महती भूमिका थी। निष्कर्ष प्रमाणों पर आधारित होने चाहिए। वस्तुतः, प्रमाण की समझ घटना के कारण की समझ थी। किसी घटना के सही कारणों का अन्वेषण उस घटना के स्वरूप को समझने में मदद कर सकता था। इस प्रक्रिया में आनुभविक अन्वीक्षण का आधारभूत महत्त्व था। इसी पर आधारित थी मिल की आगमनात्मक पद्धति।
मिल का मानना था कि इसी प्रकार की वैज्ञानिक पद्धति तथा आगमनात्मक युक्ति को सामाजिक विज्ञानों के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जा सकता था।
1848 ई० में मिल ने प्रिंस्पिल्स ऑव पुलिटिकल इकॉनोमि प्रकाशित की, जिसका व्यापक प्रभाव पड़ा। अर्थ संबंधी विचारों में, मूल्य को श्रम सिद्धांत के रूप में समझा जाता था। मिल ने श्रम सिद्धांत के स्थान पर कीमत का सिद्धांत प्रस्तुत किया। एक महत्त्वपूर्ण विचार, जो मिल ने प्रस्तुत किया, वह आर्थिक वृद्धि के स्थान पर, वातावरण की रक्षा पर ध्यान देना था। माल्थस का अनुसरण करते हुए मिल ने जनसंख्या को नियंत्रित रखने का सुझाव दिया। यदि जनसंख्या को नियंत्रित नहीं रखा गया तो भुखमरी की भयावह स्थिति उत्पन्न होने का संकट बना रहेगा। मिल ने एक ऐसी आदर्श आर्थिक व्यवस्था का प्रस्ताव रखा, जिसमें श्रमिक एवं कर्मधर्मी स्वयं अपनी सहकारी संस्थाओं का संचालन करें। यह कल्पना समाजवाद के ही एक रूप को दर्शाती है।
1859 ई० में मिल ने अपना प्रसिद्ध प्रबंध ऑन लिबर्टि लिखा। इसका प्रमुख विवेच्य विषय व्यक्ति की स्वतंत्रता तथा सामाजिक एवं राजनैतिक सत्ता के बीच तालमेल बिठाना था। मिल ने एक सिद्धांत प्रतिपादित किया कि समाज में किसी व्यक्ति को तभी दंड दिया जाना चाहिए, अथवा उस पर दमनकारी दबाव डालना चाहिए, जब उससे, उसके किसी कृत्य से, दूसरों की हानि होती हो। इस सिद्धांत में यह बात निहित नहीं थी कि लोगों को उन्हीें का हित ध्यान में रखते हुए, उन्हें अपने से बचाने के निमित्त, उनके कार्यों में पैतृक प्रवृत्ति के अधीन हस्तक्षेप किया जाय।
मिल का मानना था कि मनुष्य उन्नतिशील प्राणी हैं। उपयोगिता का सिद्धांत उन्हें आत्माकुंश में रखेगा। आत्माकुंश का सिद्धांत सत्य की ओर ले जाता है तथा व्यक्ति को उसके विकास अथवा उन्नयन में सहायक होता है। यह ध्यातव्य है कि मिल की रुचि मनुष्य में व्यक्ति के उत्कर्ष के रूप में थी न कि मानव जाति के सामान्य विकास में। लेकिन, जौन स्टूअर्ट मिल एक व्यक्तिवादी विचारक होने के साथ मानते थे कि सामाजिकता मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है।
1869 ई० में मिल ने द सब्जैक्शन ऑव वीमेन में, अपने समय के परिप्रेक्ष्य में क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए। उनकी दृष्टि में स्वतंत्रता का जो महत्त्व पुरुषों के लिए है, वही नारी के लिए भी। जो तर्क पुरुष तथा नारी की प्रकृति के अंतर को आधार बनाकर नारी स्वतंत्रता को सीमित करने के निमित्त दिए जाते हैं, वे असंगत तथा अंधविश्वास पर निर्भर थे।
स्वतंत्रता को लेकर मिल के विचार आज भी प्रासंगिक वाद-विवाद का विषय हैं। थी्र ऐस्सेज़ ऑन रिलीजन मिल के निधन के बाद 1874 ई० में प्रकाशित हुई। मिल नहीं चाहते थे कि यह पुस्तक उनके जीते जी छपे। इस कृति में मिल ने यह मत प्रतिपादित किया कि यह असंभव है कि ऐसा कोई ईश्वर है जो सर्वशक्तिमान हो, वात्सल्यपूर्ण हो तथा विश्व या सृष्टि का संचालन करता हो। फिर भी ऐसी संभावना हो सकती है कि कोई शुभ शक्ति विश्व में सक्रिय हो। मिल के अनिश्चयपरक विचारों से न तो उग्रवादी संतुष्ट हुए और न ही वे जो उसे अज्ञेयवादी मानते थे।
यह स्मरणीय है कि जौन स्टूअर्ट मिल ईस्ट इंडिया कंपनी में एक अधिशासी कर्मचारी रहे। 1858 ई० में जब कंपनी की जगह भारत में शासन की बागडोर ब्रिटेन के राज्य ने संभाल ली, तब मिल भी सेवा से मुक्त हो गए। रोचक बात यह है कि अपने हानि के सिद्धांत तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता को महत्त्व देते हुए भी मिल ने भारत में कंपनी की दमन नीति का पक्ष लिया। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि भारत में स्वेच्छाचारी शासकों का राज्य था, ऐसा मिल का ख्याल था। जिस प्रकार की अराजकता अथवा तानाशाही भारत में प्रचलित समझी जाती थी, उसमें कंपनी की दमनकारी अथवा हिंसक नीति ठीक ही थी। भारत की स्थिति का ज्ञान मिल को अपने पिता द्वारा लिखित भारत के इतिहास तथा ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करते हुए उपलब्ध हुआ होगा और यह स्पष्ट है कि यहां की सही-सही स्थिति का उन्हें ज्ञान न रहा हो। भारत के विषय में उनके विचार यहां की सही स्थिति की जानकारी के अभाव में, संगत न रहे हों।
जीवन के अंत समय के निकट मिल ने अपनी आत्मकथा ऑटोबायोग्राफि लिखी (1873 ई० में)। अपने लालन-पोषण तथा शिक्षादीक्षा का उन्होंने सजीव वर्णन करते हुए उसका श्रेय अपने पिता जेम्स मिल को दिया है। यह एक विलक्षण तथ्य है कि ऐंग्लिकन चर्च के प्रभाव के कारण मिल ने केंब्रिज अथवा ऑक्सफर्ड में अध्ययन नहीं किया। तीन वर्ष की अवस्था में मिल ने यूनानी भाषा सीखी, और कुछ ही समय बाद लेटिन। 12 वर्ष की आयु में वह एक परिपक्व तर्कशास्त्री तथा 16 वर्ष की अवस्था में भलीभांति प्रशिक्षित अर्थशास्त्री हो गये। कहा जाता है कि 20 वर्ष की अवस्था में मिल को स्नायविक अस्वस्थता से पीड़ित होना पड़ा। कुल मिलाकर मिल एक असाधारण प्रतिभा के धनी थे।
यह तो सीधे तथा स्पष्ट रूप में कहना संभव प्रतीत नहीं होता कि मिल अहिंसावादी थे। परंतु उनके उदारवादी तथा व्यक्तिवादी विचार, अहिंसक वृत्ति से संगति रखते थे। व्यक्ति के उन्नयन की कल्पना, जीवन के उत्कृष्ट आदर्श, अधिकाधिक संवेदनशील प्राणियों का सुख एवं कल्याण, नारी की पुरुष के साथ समता एवं आत्माकुंश पर मिल के विचार अहिंसा के आदर्श के साथ सामंजस्य रखते हैं।
-प्रो० राजेन्द्र स्वरूप भटनागर
मीडिया हिंसा :हिंसा के नए रूपों में मीडिया हिंसा को लेकर समाजवैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों में बहुत बहस चल रही है। एक वर्ग का मानना है कि मीडिया में दिखाई जा रही हिंसा का दर्शकों-खास तौर पर अवयस्क दर्शकों-पर अत्यधिक असर पड़ता है तथा यह वर्ग अपने सामाजिक व्यवहार में अधिक हिंसक तथा समाज में हो रही हिंसा के प्रति असंवेदनशील हो जाता है। लेकिन, एक दूसरा वर्ग इस निष्कर्ष से सहमत नहीं है। उसका मानना है कि मीडिया हिंसा के प्रभाव को लेकर हुए शोध का स्वरूप वैज्ञानिक नहीं है और मीडिया हिंसा तथा सामाजिक या अंतर्वैयक्तिक हिंसा का कोई सीधा संबंध स्थापित नहीं किया जा सकता। एक तर्क यह भी है कि समाज में हिंसा की व्याप्ति के और कई कारण हैं तथा वह मुख्यतया सामाजिक-आर्थिक कारणों से घटित होती है-उसके लिए मीडिया में दिखाई जा रही हिंसा को मुख्य रूप से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन, इस बारे में निरंतर शोध-कार्य जारी है।
प्रयोगशालागत अध्ययनों से इतना तो प्रमाणित ही है कि मीडिया पर हिंसक दृश्यों का दर्शकों की हृदय-गति, रक्त-दबाव तथा श्वास-गति पर गहरा असर पड़ता है और यह भी कि ऐसी स्थिति में अन्य को पीड़ा पहुंचाने की प्रवृत्ति भी सक्रिय होने लगती है। मीडिया हिंसा के कारण व्यक्तियों के अधिक आक्रामक या हिंसक होने का शायद वस्तुपरक तरीके से मूल्यांकन करना पूरी तरह संभव नहीं लगता; लेकिन समुदायों को लेकर किए गए अध्ययन में यह बात अवश्य प्रमाणित होती है कि टी०वी० आने से पहले तथा उसके कुछ अर्से बाद अध्ययनांतर्गत समुदायों के व्यवहार में अधिक आक्रामकता दिखाई दी है। ब्रिटिश कोलंबिया की प्रोफेसर टानिस मैकबेथ विलियंस (Tannis Mcbeth Wiliams) ने ब्रिटिश कोलंबिया के एक सुदूर गांव में टी०वी० आने के दो साल बाद अपने अध्ययन में हिंसक घटनाओं में 160 प्रतिशत की वृद्धि पाई। इसी तरह वाशिंगटन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ब्रेंडन सेंटरवाल (Brandon Centerwall) उत्तरी अमेरिका तथा दक्षिण अफ्रीका के तुलनात्मक अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि टी०वी० पर हिंसक घटनाओं के दिखाए जाने का हत्या दर को बढ़ाने में प्रभाव रहा। लेकिन, टोरंटो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जोनाथन फ्रीडमैन (Jonathan Freedaman) इस निष्कर्ष से असहमत होते हुए तर्क देते हैं कि जापानी टी०वी० पर दुनिया के कुछ हिंसकतम दृश्य दिखाए जाने के बावजूद जापान में संयुक्त राज्य अमेरिका तथा कनाडा जैसे देशों की अपेक्षा हत्या दर कम है, जबकि इन देशों का टी०वी० जापान से कम हिंसक दृश्य दिखाता है।
अमरीकी समाजवैज्ञानिक जार्ज गर्बनर (George Gerbner) का अपने दीर्घ शोध के बाद निष्कर्ष है कि निश्चित ही नियमित दर्शकों पर मीडिया का प्रभाव पड़ता है। वह कहते हैं कि दीर्घावधि तक नियमित टी०वी० कार्यक्रम-चाहे वह खबर हो या मनोरंजक कार्यक्रम-देखने वाले का अपने सामाजिक यथार्थ का बोध वही हो जाता है, जो टी०वी० कार्यक्रमों में दिखाते हैं। गर्बनर मीडिया हिंसा के प्रभाव के एक अन्य रूप की ओर इंगित करते हुए कहते हैं कि मीडिया हिंसा सत्ता (शक्ति) के खेल के नियमों के प्रदर्शन का सर्वाधिक सरल, सर्वाधिक सस्ता और सर्वाधिक नाटकीय माध्यम है क्योंकि वह कम शक्तिशाली लोगों में भय और असुरक्षा पैदा करता तथा उन्हें स्थापित सत्ता पर अधिक निर्भर रहने के लिए मानसिक तौर पर बाध्य कर देता है, जिसका परिणाम यह होता है कि स्थापित सत्ता की अपनी हिंसा के प्रयोग को उनकी दृष्टि में नैतिक वैधता प्राप्त हो जाती है। जब 1997 ई० में कनाडा में गर्बनर के निष्कर्षों का परीक्षण आंद्रे गोसेलिन (Andre Gosselin) जैक द गाइज (Jacques de Guise) और गाई पाके (Guy Paquette) द्वारा किया गया तो उनका भी यही निष्कर्ष था कि दीर्घावधि तक टी०वी० देखने वाले दुनिया को एक संकटपूर्ण स्थान मानने लगते हैं; यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि वे अधिक डरने भी लगते हैं।
फिनिश समाजवैज्ञानिक वीको पिएटिला (Veikko Pietila) के अमेरिकी तथा पूर्व सोवियत संघ में दिखाई जाने वाली मीडिया हिंसा का तुलनात्मक अध्ययन यह बताता है कि यद्यपि दोनों व्यवस्थाओं में हिंसा का चित्रण अलग संदर्भों तथा उद्देश्यों के लिए किया गया-अमेरिका में वैयक्तिक उपलब्धियों तथा सोवियत संघ में विचारधारा के प्रचार के संदर्भ में-लेकिन, दोनों ही जगह स्थापित व्यवस्था ही मूल संदेश था।
अमेरिका के नेशनल कमीशन ऑन दि कॉजेज एंड प्रिवेशन ऑफ वॉयलेंस की रिपोर्ट को हिंसा-अध्ययन का सर्वोत्कृष्ट प्रामाणिक शोध माना जाता है। यह रिपोर्ट समाज में व्याप्त हिंसा और उसकी निरंतर वृद्धि के लिए मुख्य रूप से मीडिया हिंसा को उत्तरदायी नहीं ठहराती; लेकिन, उसे पूरी तरह दोषमुक्त भी नहीं करती। यह रिपोर्ट यह मानती है कि बढ़ती हिंसा के लिए मुख्य रूप से सामाजिक अन्याय उत्तरदायी है, इसलिए वह न्याय की स्थापना तथा आंतरिक शांति की गारंटी के लिए राष्ट्रीय प्राथमिकताओं के पुनस्संयोजन तथा संसाधनों के महत्तम निवेश की मांग करती है। स्पष्ट है कि हिंसा को मिटाने तथा अहिंसक संस्कृति के लिए सामाजिक न्याय की स्थापना जरूरी है। हिंसा का मूल कारण मीडिया पर थोपना व्यवस्थाओं को जिम्मेदारी से बचाने का बहाना है। यहां यह भी स्मरणीय है कि गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक शोषण, रंगभेद, लैंगिक भेदभाव, सांप्रदायिकता, राष्ट्रवाद तथा समस्याओं को सुलझाने के लिए हिंसा को एक वैध उपाय के रूप में स्वीकृति तथा अन्य ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो हिंसा के दायरे में आती हैं-और ये सब उस हिंसा का कारण बनती हैं, जिसे कोई भी व्यवस्था हिंसा मानकर उसे दबाने के हिंसक प्रयास को वैध या कानूनी हिंसा के रूप में प्रचारित करती है। मीडिया हिंसा को निश्चय ही उचित नहीं कहा जा सकता और मीडिया के मनोवैज्ञानिक प्रभाव से भी इनकार करना संभव नहीं है-हिंसा को बढ़ाने और उसे दबाने वाली हिंसा को वैध ठहराने, इन दोनों ही तरीकों से हिंसा की वृद्धि के लिए मीडिया को कुछ अंशों में जिम्मेवार ठहराया जा सकता है-लेकिन समाज में हिंसा की परिस्थिति का कारण मीडिया नहीं, सामाजिक व्यवस्था होती है।
- नंदकिशोर आचार्य
मुहम्मद, हजरत : इस्लामी परंपरा के अनुसार हजरत मुहम्मद (स०अ०व० सलल्लाहो अलै हे व सल्लम अर्थात् उन पर अल्लाह की ओर से सलामती और विशेष कृपा हो) (521-634 ई०) ईश्वर की ओर से मानवता के मार्गदर्शन के लिए भेजे गए अंतिम पैगंबर थे। आप भी वही संदेश लेकर आए, जो आपसे पहले धरती पर भेजे गए, हजरत आदम (अ०हि०स० अलैहिस्स सलाम उन पर अल्लाह की सलामती हो) से हजरत ईसा (अ०हि०स०) तक एक लाख से अधिक पैगंबर लेकर आए थे। सभी पैगंबरों (नबियों) का संदेश मूलतः एक ही था। कुरआन में इसे इस्लाम कहा गया है। इस्लाम का अर्थ है-ईश्वर के आदेशों के समक्ष पूर्ण समर्पण, अम्न-शांति। शांति धरती पर व्यक्ति के दिल-ओ-दिमाग में ईश्वर के समक्ष समर्पण से ही स्थापित हो सकती है।
पैगंबर (नबी) का दायित्व ईश्वर के संदेश को न्यूनाधिक किए बिना, ज्यूं का त्यूं संपूर्ण मानव जाति तक पहुंचाना होता है। नबी अर्थात् संदेशवाहक पैगंबर जो ईश्वर की ओर से बंदों की हिदायत के लिए आया हो। नबी सामान्य है, चाहे उस पर आस्मानी किताब, नाजिल (उतरी) हुई हो, न हुई हो। रसूल खास है अर्थात् वह पैगंबर जिस पर आस्मानी किताब नाजिल हुई हो। ह० मुहम्मद नबी भी हैं और रसूल भी। आप पर आस्मानी किताब-कुरआन नाजिल हुआ। हजरत मुहम्मद का संकल्प था कुरआन के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेशों के आधार पर न्याय आधारित शांतिमय अहिंसक समाज का निर्माण।
40 वर्ष की आयु तक ह० मुहम्मद ने एक आम इंसान की तरह अरब के हालात का गंभीर चिंतन-मनन किया। तब तक तो उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उन्हें अल्लाह की ओर से पैगंबर बनाए जाने वाला है। पूरे अरब क्षेत्र और आस-पास की स्थिति बहुत ही विकट थी। चारों ओर अराजकता, कबीलों के आपसी खूनीसंघर्ष, लूट-पाट, बात-बात पर बरसों चलने वाली शत्रुता, एक आम बात थी। लोग अपने-अपने कबीलों के बुजुर्गों की मूर्तियों की पूजा, स्त्रियों पर अत्याचार, लड़कियों को जिंदा दफन करने जैसी कुरीतियों में लिप्त थे। अहंकार और कबीलाई वर्चस्व के लिए छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा करना पूरे समाज का स्वाभाविक लक्षण था।
ह० मुहम्मद साहब को पैगंबर घोषित किए जाने से पहले काबे की मरम्मत के अवसर पर पवित्र काले पत्थर (संग-ए-असवद) को काबे में कौन स्थापित करे के सवाल पर ही कबीलों में असहमति के कारण तलवारें खिंच गईं और एक खूनी संघर्ष की संभावना बढ़ गई। कुछ समझदार लोगों ने सुझाव दिया कि जो कल प्रातः सबसे पहले काबे में प्रवेश करेगा, उसका फैसला सर्व मान्य होगा। प्रातः, जब लोग काबा में पहुंचे तो देखा ह० मुहम्मद वहां मौजूद हैं। लोगों ने कहा हमें इनका फैसला मंजूर होगा। आपने एक चादर बिछाई और पवित्र पत्थर उस पर रख दिया-कहा सब मिलकर उठाएं। सबने मिलकर चादर को उठाया और ह० मुहम्मद साहब ने अपने हाथों से पत्थर को काबे की इमारत में लगा दिया। इस तरह एक हिंसक संघर्ष टल गया। शुरू से ही ह० मुहम्मद चिंतनशील, सत्यनिष्ठ ओर सदाशयी स्वभाव के थे। अपने व्यवहार से लोगों में आत्मविश्वास और सद्भावना उत्पन्न करने के कारण लोग उन्हें अल-अमीन (अमानतदार/वफादार और विश्वसनीय) कहकर पुकारते थे।
ह० मुहम्मद रमजान के महीने में अपना समय गार-ए-हिरा (हिरा पर्वत की गुफा) में एकांतवास में व्यतीत करते थे। एक रात जब आप गार-ए-हिरा में चिंतन में लीन थे, अल्लाह का फरिश्ता जिब्रील प्रकट हुए। फरिश्ते ने आपको पकड़कर बड़ी ताकत से दबाया और कहा-पढ़। ह० मुहम्मद ने उत्तर दिया-मैं पढ़ नहीं सकता। इस तरह तीन बार वही बात दोहराने के पश्चात् फरिश्ते ने पुनः कहा-पढ़, अपने रब के नाम से, जिसने खून के एक कतरे से इंसान को पैदा किया। पढ़, तुम्हारा रब, बड़ा दयालु है, जिसने कलम से, कुछ न जानने वाले इंसान को सिखाया, जो वह नहीं जानता था। फरिश्ते ने कहा-ओ मुहम्मद मैं जिब्रील हूं और आप अल्लाह के नबी हैं। ह० मुहम्मद इस घटना की दहशत से पसीना-पसीना हो गए। घर आकर सारा वाकिया अपनी पत्नी ह० खदीजा को कह सुनाया। ह० खदीजा ने आपको सांत्वना दी और ढाढ़स बंधाया और आपको लेकर अपने चचा के बेटे वरकाह बिन नोफल के पास आईं। वरकाह जाहलियत के जमाने में ईसाई हो गया था, आस्मानी किताब, तौरात और इंजील का बड़ा विद्वान था। इन किताबों में ह० मुहम्मद के अंतिम पैगंबर (नबी) होने के बारे में वह खूब जानता था, इस आधार पर वरकाह ने आपके अंतिम नबी होने की शहादत दी।
इस प्रकार 40 वर्ष की आयु में ह० मुहम्मद को अल्लाह का संदेशवाहक नबी बनाए जाने की घोषणा अल्लाह ने अपने फरिश्ते ह० जिब्रील के माध्यम से की और कुरआन की पहली वह्इ आप पर गार-ए-हिरा में नाजिल (उतरी) हुई। फिर तो जिब्रील अक्सर आने लगे और वही नाजिल होने का सिलसिला शुरु हो गया, जो परिस्थितियों के अनुकूल थोड़ा-थोड़ा अवतरित होकर 23 वर्षों में पूरा हुआ। कुरआन के आदेशों को जन-जीवन तक सही रूप में पहुंचाना और समाज में प्रचलित कुरीतियों में सुधार, दिग्भ्रमित अपनों ही के कारण एक बड़ी चुनौतीपूर्ण कार्य था, परंतु भटकी हुई मानवता को सन्मार्ग पर लाने का मुहम्म्द का संकल्प इतना प्रबल था कि अकल्पनीय कष्टों और विरोधों को धैर्यपूर्वक सहन करते हुए उन्होंने कुरआन के आदेश लोगों तक पहुंचाने में सफलता हासिल की और कुरआन के आदेशों पर आधारित एक आदर्श दीन-ए-इस्लाम मुकम्मल हुआ।
जीवनकाल ही में कुरआन के आदेशों पर आधारित दीन-ए-इस्लाम का परचम पूरे अरब क्षेत्र पर फहराने लगा। कुरआन के आदेश इंसान के जीवन को गरिमामय बनाने, उनमें आपसी प्रेम, सह-अस्तित्व की भावना और गुनाहों से तोबा का जज्बा पैदा करने में सफल हो गए। हजरत मुहम्मद का जीवन कुरआन के आदेशों पर अमल का एक आदर्श प्रतिमान है। आपने जो किया-कहा वह कुरान के आदेशों के ऐन मुताबिक है और कुरआन की व्यावहारिक व्याख्या है। जो हदीस और सुनः के रूप में पूर्णतया संकलित एवं सुरक्षित है, जो कुरआन के आदेश से बिल्कुल अलग हैं।
कुरआन ह० मुहम्मद के चिंतन-मनन या उनके विचारों का परिणाम नहीं है, बल्कि ईश्वर की ओर से फरिश्ते जिब्रील द्वारा लाई गई वह्इ में शब्दशः अवतरित हुआ है, जो 23 वर्षों में आवश्यकतानुसार पूरा कुरआन आप पर नाजिल (अवतरित) हुआ। इसमें घटाने-बढ़ाने या परिवर्तन का अधिकार ह० मुहम्मद को भी नहीं दिया गया।
ईश्वर कुरआन में संबोधन करता है-
ऐ नबी! हमने आपको सारे संसार के लिए रहमत (दया एवं कृपा) बनाकर भेजा है। अर्थात् ह० मुहम्मद को ईश्वर ने मानव जाति के लिए शांति स्थापित कर उनका मार्गदर्शन करने एवं स्वयं उस मार्ग पर चलकर प्रदर्शन करने वाला बनाकर भेजा है। आपने जब मक्का के लोगों को एक ईश्वर की बंदगी का संदेश दिया तो लोगों ने उसे नकारकर उन पर पत्थर बरसाए, अपमान किया, वह हर तरह की प्रताड़ना और कष्टों को सहन करते रहे। हजरत मुहम्मद लोगों को एकत्र कर उनके समक्ष एक ईश्वर की बंदगी का संदेश पेश करते, तो उद्दंड किस्म के युवक उन्हें पत्थरों से लहूलुहान कर देते, लेकिन उन्होंने उनके लिए भी कभी बद्दुआ नहीं की।
ह० मुहम्मद ने मक्का से दूर अरब के एक प्रसिद्ध शहर तायफ जाकर वहां के लोगों को ईश्वर का संदेश पहुंचाने का फैसला किया और तायफ के महत्त्वपूर्ण लोगों को एकत्र कर उनके समक्ष एक ईश्वर की बंदगी का संदेश पेश किया। उन लोगों ने भी सुनने से इंकार कर दिया और शहर के उद्दंड लोगों को पत्थर बरसाने को उकसाया और उन्हें लहूलुहान कर दिया। उनकी ऐसी हालत देखकर ईश्वर की ओर से भेजे गए फरिश्ते ने कहा-ऐ नबी! मुझे अल्लाह ने भेजा है, आपके साथ जो हो रहा है, अल्लाह सब देख रहा है। यदि आप आदेश करें तो दो पहाड़ों के बीच बसे इस तायफ शहर को, पहाड़ों को आपस में टकराकर तबाह कर दूं। हजरत मुहम्मद ने फरिश्ते से कहा-नहीं, मैं लोगों के लिए रहमत (दया) बनाकर भेजा गया हूं, आज नहीं तो भविष्य में ये लोग और इनकी नस्लें विश्वास करेंगी। हजरत मुहम्मद ने उनके लिए भी प्रार्थना की, जिन्होंने उन्हें लहूलुहान कर दिया था।
मक्का शहर के अपने ही कबीले और खानदान के लोगों ने ह० मुहम्मद को नबी बनाए जाने के बाद 13 साल तक सताया, अपमानित किया तथा उन पर ईमान लाने वालों और साथ देने वालों पर घोर अत्याचार किए। 13 वर्ष की इन यातनाओं को सहन करते रहने के पश्चात् ईश्वर के संकेत पर, मुहम्मद मक्का छोड़कर मदीना चले गए। वहां भी उन्हें शांति से नहीं रहने दिया गया। बार-बार मदीना पर हमले किए गए।
मदीना में हिज्रत (प्रवास) के छठे वर्ष में ह० मुहम्मद अपने हजारों साथियों-अनुयायियों के साथ हज के लिए मक्का के लिए रवाना हुए। लेकिन विरोधियों ने उन्हें हुदैबिया नामक स्थान पर रोक लिया। यद्यपि उनके पास मुकाबला करने के लिए वांछित शक्ति थी फिर भी आप खूनी संघर्ष को टालने के लिए अवांछनीय शर्तों वाली संधि स्वीकार कर वापिस लौट गए।
प्रवास के आठवें वर्ष में ह० मुहम्मद ने अपने दस हजार निष्ठावान अनुयायियों को साथ लेकर अपने ईश्वर की प्रशंसा और कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए, शीश झुकाए मक्का में प्रवेश किया। दस हजार लोगों की कदम चाप से मक्का के दरोदीवार लरज गए। लोग अपनी जाने बचाने की फिक्र में थे-ह० मुहम्मद ने हुक्म दिया कि कोई किसी पर तलवार न उठाए, हमला न करे क्योंकि आज क्षमा और शत्रुओं को मुआफ करने का दिन है।
मक्का की वह घटना किसी चमत्कार से कम नहीं थी। ह० मुहम्मद ने कभी भी किसी युद्ध, संघर्ष या हिंसा को पसंद नहीं किया। संघर्ष तो उनके लिए सदैव अंतिम विकल्प था।
कुरआन में बार-बार कहा गया है कि ईश्वर हिंसा (फसाद) करने वालों को पसंद नहीं करता। ह० मुहम्मद ने कहा है-जो तुमसे न लड़े, उससे न लड़ो। औरतों बच्चों और ईश्वर की भक्ति में लगे लोगों पर कदापि हाथ न उठाओ। जिसने किसी व्यक्ति को, किसी के खून का दंड देने या धरती में फसाद फैलाने के अतिरिक्त किसी और कारण से मार डाला, तो मानो उसने सारे ही इंसानों की हत्या कर डाली और जिसने उसे जीवन प्रदान किया, उसने मानो सारे इंसानों को जीवनदान किया। यहां तक कि युद्ध की हालत में फौज को भी हिदायत थी कि पेड़ों को न काटें, फसलों को नुकसान न पहुंचाएं।
आपने फरमाया-तुम जमीन वालों पर दया करो। आसमान वाला तुम पर दया करेगा। दया और क्षमा, क्रोध और नफरत की आग को ठंडा कर देती है। क्षमा से इंसान के दिल में शांति और प्रेम का प्रवाह होता हैं।
इस्लाम शांति का साकार संदेश है। इस्लाम में तो आपसी अभिवादन भी एक-दूसरे के लिए शांति और सलामती की प्रार्थना है। अस्स-लामुअलैकुम-तुम पर ईश्वर की ओर से शांति हो, उत्तर-वअलैकुमअस्सलाम-तुम पर भी ईश्वर की ओर से शांति हो।
कुरआन में फरमाया गया-ऐ! ईमान वालो-इंसाफ पर दृढ़ता से जम जाने वाले, सच्चाई की गवाही देने वाले बन जाओ, चाहे वह गवाही तुम्हारे स्वयं के विरुद्ध या तुम्हारे मां-बाप या अन्य रिश्तेदारों के विरुद्ध ही क्यों न हो। न्याय की स्थापना से ही हिंसा और अशांति के मार्ग बंद होते हैं। न्याय के आधार पर ही स्थाई शांति स्थापित होती है। हिंसा अहंकार और क्रोध से उत्पन्न होती है, जो इस पर नियंत्रण कर ले वह महान वीर है, भाग्यशाली है।
इंसानी जान ईश्वर की निगाह में बहुत महत्त्वपूर्ण है। हर व्यक्ति की जान उसके पास ईश्वर की अमानत है। इस्लाम में आत्महत्या का प्रयास बहुत घिनौना अपराध है। हदीस में कहा है-आत्महत्या करने वाला जहन्नम (नरक) में जाएगा।
भ्रूणहत्या, चाहे वह नर हो या मादा, जघन्य अपराध है। अपने जीवन के अंतिम हज के अवसर पर लगभग सवा लाख लोगों के समक्ष हिंसा और खून-खराबे को रोकने के आदेश दिए।
ह० मुहम्मद के जमाने में औरतों की स्थिति बहुत दयनीय थी। घरों में लड़की का होना अपमान समझा जाता था। पैदा होते ही उसे जिंदा दफन कर दिया जाता था। आपने इसे रोका और उस व्यक्ति को सौभाग्यशाली बताया जो अपनी बेटियों की बिना पक्षपात के परवरिश करता है। औरत को गरिमा प्रदान करते हुए ह० मुहम्मद ने फरमाया-मां के कदमों के नीचे जन्नत है।
ह० मुहम्मद ने इंसानों के साथ ही नहीं, जानवरों के साथ भी अच्छा व्यवहार और उन पर सदैव दया करने का आदेश दिया, साथ ही उन पर होने वाली हिंसा को रोका। केवल शौक और मनोरंजन के लिए जानवरों को सताना, शिकार करना उनके शरीर को दागना, बिना वास्तविक आवश्यकता खाने इत्यादि के लिए, जानवरों को मारना बहुत बड़ा अपराध है।
अनावश्यक रूप से हरे-भरे वृक्षों को काटने को बहुत बुरा कहा है। उन्होंने पेड़ लगाने, हरियाली को बढ़ाने को बहुत पसंद किया। आपने फरमाया-पेड़ लगाना सदक-ए-जारिया है-ऐसी भलाई जिसका पुण्य मरने के पश्चात भी उसे लगाने वाले व्यक्ति को तब तक मिलता रहेगा, जब तक लोग उस पेड़ से लाभान्वित होते रहेंगे।
- मोहम्मद सलीम इंजीनियर
मूलवासियों के मानवाधिकार : मानवाधिकारों की अवधारणा के प्रारंभ में उन्हें एक व्यक्ति के अधिकारों के रूप में देखा जाता था; लेकिन, शनैः-शनैः सामुदायिक मानवाधिकारों के महत्त्व की ओर भी मानवाधिकारवादियों का ध्यान आकर्षित होने लगा। इन सामूहिक या सामुदायिक मानवाधिकारों में किसी भी प्रदेश के मूलवासियों या आदिवासियों के अधिकारों की स्वीकृति भी शामिल है क्योंकि यह वह वर्ग है जो आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण की प्रक्रिया में अपने संसाधनों से वंचित होकर अपने अस्तित्व पर आए संकट से जूझ रहा है। यह आश्चर्यजनक है कि संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार घोषणा-पत्र अथवा प्रसंविदाओं में मूलवासियों के अधिकारों के बारे में कोई उल्लेख नहीं है। 1977 ई० में जेनेवा में हुए गैर-सरकारी संगठनों के सम्मेलन में मूलवासियों के अधिकारों का सवाल उभर कर आया और पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर आकर्षित होने लगा। 1992 ई० को संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व के मूलवासियों का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया। बुतरस बुतरस घाली ने कहा कि मूलवासियों के अधिकारों का संरक्षण ही मानवाधिकारों की कसौटी होगा। एरिका-आइरीन ए० डेज (Erica-Irene A. Daes) ने तो यहां तक कह दिया कि स्वयं संयुक्त राष्ट्र संघ का भविष्य आंतरिक उपनिवेशीकरण से मूलवासियों की मुक्ति पर निर्भर करता है। 1993 ई० में वियना में आयोजित मानवाधिकारों के विश्व सम्मेलन में मूलवासियों के अधिकारों को स्वीकार किया गया। इन अधिकारों में उनके आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करते हुए यह स्पष्ट कर दिया गया कि आत्मनिर्णय के अधिकार का प्रयोजन कोई नया राष्ट्र-राज्य बनाना नहीं, बल्कि अपने तरीके से जीने के उनके अधिकार को मान्यता देना है। उनका अपनी जमीन और संसाधनों पर पूरा अधिकार मान्य होना चाहिए तथा अपने से संबंधित विकास कार्यक्रमों में उनकी पूरी सहभागिता होनी चाहिए। उनकी भाषा एवं संस्कृति को राज्य की मान्यता एवं समर्थन मिलना चाहिए।
यहां, लेकिन, यह सवाल अवश्य उठता है कि कितनी भाषाओं और सांस्कृतिक समूहों यानी कितनी विविधताओं को समान हैसियत देना व्यावहारिक हो सकता है। कितनी भाषाओं को राजभाषा की हैसियत दी जा सकती है? प्रकृति, समाज, राज्य तथा अर्थ-व्यवस्था को लेकर विभिन्न समूहों के अलग-अलग विचार हो सकते हैं। प्रत्येक पारिस्थितिकीय परिवर्तन का उनके लिए धार्मिक और सांस्कृतिक महत्त्व है।
1989 ई० में मूलवासियों और जनजातियों पर केंद्रित अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सम्मेलन के अनुच्छेद 7 में मूलवासियों को अपने विकास और अपनी पारंपरिक भूमि के विकास के संभव सीमा तक नियंत्रण का अधिकार मान्य किया गया। 1992 ई० में रियो दि जेनेरियो की घोषणा में भी प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में मूलवासियों की मुख्य भूमिका का उल्लेख किया गया। मूलवासियों के अधिकारों के संयुक्त राष्ट्र के प्रारूप में भी इन सिफारिशों को शामिल किया गया।
अधिकांश सरकारों ने मूलवासियों के आंतरिक आत्म-शासन के अधिकार को स्वीकार किया। यह भी महसूस किया गया कि टिकाऊ विकास और उसकी लागत-कुशलता की दृष्टि से अपने विकास में मूलवासियों की सहभागिता अधिक महत्त्वपूर्ण है। डेनमार्क (ग्रीनलैंड), संयुक्त राज्य, कनाडा, निकारागुआ, पनामा आदि देशों में मूलवासियों की आंतरिक स्वायत्तता के प्रयोगों का परिणाम सकारात्मक रहा है।
यह सवाल अवश्य उठता है कि इस आंतरिक स्वायत्तता को राज्य की अपनी अवधारणा में कैसे समायोजित किया जाए। साथ ही, वैयक्तिक और सामूहिक अधिकारों में टकराव का सवाल भी है। वैयक्तिक अधिकार व्यक्ति को वैधानिक समता का अधिकार देते हैं, जबकि समूह की अपनी अस्मिता से उसकी टकराहट भी हो सकती है। वैयक्तिक अधिकार और सामूहिक सांस्कृतिक अस्मिता में टकराहट होने पर व्यक्ति के अधिकार को मान्यता दी जाए या समूह को। बहुत से सामाजिक रिवाजों से मुक्ति के व्यक्ति के अधिकार को मान्यता मिलनी चाहिए या नहीं। इस बारे में मानवाधिकारवादियों की स्पष्ट मान्यता है कि सांस्कृतिक अस्मिता के नाम पर कोई भी समूह किसी व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर सकता। उनका कहना है कि मानवाधिकारों के सार्वभौमिक सिद्धांतों पर किसी तरह का समझौतावादी रुख अपना कर उन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। मानवाधिकारवादी लोग यह उम्मीद करते हैं कि शिक्षा वैयक्तिक अधिकारों की मान्यता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है और शनैः-शनैः यह द्वंद्व सुलझाया जा सकता है। लेकिन, मुख्य बात यह है कि एक समूह के रूप में मूलवासियों को आंतरिक उपनिवेशीकरण से मुक्ति को वांछनीयता को स्वीकार करते हुए उसके लिए प्रयासों को बढ़ाया जाए। हमारी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था की संरचना ऐसी होनी चाहिए कि वह मूलवासियों और उनके संसाधनों को किसी का उपनिवेश न होने दे और अपने संसाधनों और विकास-प्रक्रिया पर मूल नियंत्रण उन्हीं का बना रहे। स्थानीय समुदायों द्वारा अपने संसाधनों पर बाहरी नियंत्रण के खिलाफ हिंसक प्रतिक्रियाएं मूलवासियों के मानवाधिकारों के अतिक्रमण का ही परिणाम है।
- नंदकिशोर आचार्य
मेंसियस : मेंसियस (चौथी शताब्दी ई०पू०) को चीनी दार्शनिक परंपरा में कन्फ्यूशयस का अनुयायी माना जाता है। उसे मेंग-त्जू (Meng-tgu) और मेंग को (Meng K’o) के नामों से भी जाना जाता है। कन्फ्यूश्यस की ही तरह मेंसियस के दर्शन का प्रयोजन एक नैतिक समाज और उसके लिए नैतिक व्यक्ति का विकास करना है। मेंसियस की मान्यता है कि नैतिक व्यक्ति के लिए परहितेच्छा या परोपकार (Benevolence) की भावना होनी आवश्यक है। दार्शनिकों और मनोवैज्ञानिकों में इस सवाल पर बहुत बहस है कि परहितेच्छा या परोपकार मनुष्य में अंतर्जात है या उसे कृत्रिम तरीकों से विकसित किया जाता है।
मेंसियस उन दार्शनिकों में अग्रणी है, जो परहितेच्छा को मनुष्य में अंतर्जात (innate) मानते हैं। यदि वह मनुष्य में अंतर्जात नहीं है तो उसका विकास कैसे हो सकता है? मेंसियस परहितेच्छा को अंतर्जात मानने के पक्ष में अनुभवपरक तर्क देते हैं। उनका मानना है कि कई बार मनुष्य के मन में ऐसे विचार उठते हैं, जो दूसरों के भले से संबंधित होते हैं, जिनसे उसका कोई स्वार्थ पूरा नहीं होता। कई बार मनुष्य ऐसा आचरण भी करता है, जो उसके किसी स्वार्थ से प्रेरित नहीं होता। वह इसके पक्ष में एक उदाहरण भी देते हैं : यदि बुरे से बुरा आदमी, कोई अपराधी भी किसी बच्चे को कुंए में गिरते हुए देखेगा तो वह उसे बचाने का प्रयास करेगा-जबकि उसका उस बच्चे से न तो कोई संबंध है और न उसका कोई स्वार्थ ही बच्चे के बचने से जुड़ा है। ऐसे उदाहरण जीवन में मिलते हैं, जो मेंसियस के अनुसार, इस बात की पुष्टि करते हैं कि मनुष्य में जन्मजात या अंतर्जात परहितेच्छा का भाव रहता है, जो ऐसे अवसरों पर अंकुरित हो आता है। आधुनिक काल में डेविड ह्यूम जैसे दार्शनिक भी मेंसियस के विचार से सहमत होते हैं।
सवाल उठ सकता है कि यदि परहितेच्छा मनुष्य में अंतर्जात है तो वह इससे विरोधी आचरण क्यों करता है। मेंसियस के अनुसार ऐसा सामाजिक परिवेश और परिस्थिति के कारण होता है। इसमें परिवार, माता-पिता और शिक्षक की भूमिका भी बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। मेंसियस बच्चे के विकास को एक पौधे के विकास की तरह देखता है। यदि जमीन अच्छी नहीं है और पौधे की ठीक तरह से देखभाल नहीं कर पाती है तो वह आदर्श तरीके से विकसित नहीं हो पाएगा। ऐसा ही मनुष्य के विकास के साथ है। परिवेश और परिस्थितियां वह जमीन है, जिस पर परहितेच्छा का पौधा अंकुरित और विकसित होता है। कभी-कभी अविचारशीलता भी परहितेच्छा के विरोधी आचरण का कारण बनती है। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि किसी-किसी मनुष्य में परहितेच्छा का पूरी तरह अभाव पाया जाता है। मेंसियस का मानना है कि ऐसा तभी संभव होता है, जब उसके जीवन की परिस्थितियां लगातार इसके विरोध में रहती हैं। वह इसके लिए भी पेड़-पौधों का उदाहरण देते हुए कहता है कि यदि ऑक्स-पर्वत के पेड़-पौधों पर लगातार कुल्हाड़ी चलाई जाती रहे और उसके बाद उसे चरागाह की तरह लगातार इस्तेमाल किया जाता रहे तो वहां पेड़-पौधों के विकास की संभावना बिल्कुल नहीं रहती। मेंसियस के विचारों का आशय यह लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति में परहितेच्छा अंतर्जात है, पर उसे विकसित करने के लिए जिस सामाजिक परिवेश और परिस्थितियों की आवश्यकता होती है, वह उसे नहीं मिल पाता। इसलिए परहितेच्छा के अभाव के लिए व्यक्ति से अधिक सामाजिक परिस्थिति उत्तरदायी है।
लेकिन, मेंसियस मानता है कि परहितेच्छा का विकास किया जा सकता है। लगातार परहितेच्छा के बारे में सोचने और अवसर आने पर उसके अनुरूप काम करने से उसका विकास होता रहता है। इसके लिए, मेंसियस के अनुसार, मनुष्य में निरंतर परिष्करण (refinement) की आवश्यकता होती है। कन्फ्यूश्यस की तरह मेंसियस भी इसके लिए अनुष्ठानों और संगीत (अर्थात् कला-साहित्य) को लाभदायक माध्यम मानता है। इनके माध्यम से मनुष्य की संवेदना का परिष्कार होता है और परहितेच्छा परिष्कृत संवेदनशीलता की मांग करती है। इसी तरह यदि परहितेच्छा की अन्य व्यक्तियों में अनुकूल प्रतिक्रिया न हो रही तो व्यक्ति को अपना आत्मपरीक्षण करके देखना चाहिए कि उसकी अपनी मानसिकता और व्यवहार में कहां खामी रह गई है। मेंसियस की मान्यता है कि हमें अपनी परहितेच्छा को अन्य लोगों को नियंत्रित करने के लिए काम में नहीं लेना चाहिए।
दरअस्ल, मेंसियस मानता है कि प्रत्येक मनुष्य के चार हृदय या अंकुर (sprout) होते हैं : परहितेच्छा, नीतिपरायणता, आनुष्ठानिक औचित्य और विवेक। इनके विकास के लिए एकाग्रता या ध्यान की जरूरत होती है। जो व्यक्ति जितना इन गुणों के विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करता है, उतना ही वह एक नैतिक, विवेकशील और परोपकारी व्यक्ति के रूप में विकसित होता जाता है-यद्यपि इसके लिए हमें ऐसी शासन-व्यवस्था और सामाजिक-आर्थिक परिवेश भी चाहिए जो इस विकास को संभव कर सके।
अंतर्जात परहितेच्छा के मेंसियस के विचार को आधुनिक काल में डेविड ह्यूम जैसे दार्शनिक और शेरिंगटन जैसे जीव-वैज्ञानिक का समर्थन भी प्राप्त है। ह्यूम भी मनुष्य में अंतर्जात परहितेच्छा को स्वीकार करते हैं और शेरिंगटन का मानना है कि मनुष्य स्तर के विकास पर ही यह संभव हो पाता है कि हम अन्य की पीड़ा को समझ सकें और उसके उपचार के लिए भी सचेत निर्णय के आधार पर सक्रिय हो सकें।
द्रष्टव्य : ह्यूम; शेरिंगटन; परहित।
- नंदकिशोर आचार्य
मैक्फर्सन, सी०बी० (Macphersm, C.B.):राजनीति-विज्ञान को मानववादी दिशा प्रदान करने वाले कनाडाई विचारक सी०बी० मैक्फर्सन (1911-87 ई०) राजनीतिक विचार के क्षेत्र में सृजनात्मक स्वतंत्रता की अवधारणा के प्रस्तोता हैं। दि रियल वर्ल्ड ऑफ डेमोक्रेसी तथा डेमोक्रेटिक थियरी : एस्सेज इन रिट्रीवल जैसे अपने ग्रंथों में मैक्फर्सन केवल सार्वजनीन मताधिकार तथा चुनाव की स्वतंत्रता मात्र को लोकतंत्र नहीं मानते। अधिकांश राजनीतिक विचारक लोकतंत्र का प्रयोजन विभिन्न परस्पर विरोधी हितों में संतुलन बनाए रखना मानते हैं। लेकिन मैक्फर्सन जे०एस० मिल और उनके साथी विचारकों से सहमत होते हुए लोकतंत्र को एक ऐसी नैतिक व्यवस्था मानते हैं, जिसका ध्येय मानव-जाति का नैतिक उत्थान है। मैक्फर्सन अपनी कल्पना के लोकतंत्र को उत्तर-उदार लोकतंत्र (Post-liberal democracy) की संज्ञा देते हैं क्योंकि यह वर्तमान में प्रचलित उदारवादी लोकतंत्र से आगे बढ़कर मनुष्य की स्वतंत्रता का वास्तविक अर्थ उसके सृजनात्मक चरित्र के विकास में खोजता है।
मैक्फर्सन इसी दृष्टि से शक्ति की एक नई परिभाषा प्रस्तुत करते हैं, जिसे वह विकासात्मक शक्ति कहते हैं। सामान्यतः, शक्ति का तात्पर्य अन्य पर नियंत्रण माना जाता है-इसे मैक्फर्सन ने दोहन शक्ति (extractive power) कहा जो केवल स्वामी-पूंजीपति और भूपति-वर्ग के पास होती है और इसका उपयोग वह वंचित वर्ग के श्रम और बुद्धि को खरीदकर उससे लाभ कमाने के लिए करता है। यह एक सूक्ष्म हिंसक शक्ति है। विकासात्मक शक्ति (developmental power) का तात्पर्य है मनुष्य द्वारा अपनी क्षमताओं के विकास की शक्ति-जो अन्य पर नियंत्रण या उसके शोषण के बिना संभव होती है। मैक्फर्सन का कहना है कि विवेकपूर्ण ज्ञान, नैतिक बोध, कलात्मक सृजन, प्रेम और मैत्री जैसी भावनाएं तथा प्रकृति-प्रदत्त को परिष्कृत करने की क्षमताएं विकासात्मक शक्ति मानी जा सकती हैं और इन शक्तियों का विस्तार ही स़ृजनात्मक स्वतंत्रता की प्रक्रियागत सिद्धि है। मैक्फर्सन मानते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में सामान्य लोगों की इस विकासात्मक शक्ति का दोहन पूंजीपति वर्ग द्वारा किया जाता है तथा इसका माध्यम बाजार-संस्थान है। इसलिए मैक्फर्सन एक गैर-बाजार समाजवादी समाज (Non-market socialist society) का आग्रह करते हैं, जिसमें सामाजिक स्वामित्व के अंतर्गत सबको अपनी विकासात्मक शक्ति के विस्तार के अवसर सुलभ हो सकें। वह साधनों एवं संरक्षण के अभाव को सृजनात्मक स्वतंत्रता के मार्ग में बाधक मानते हैं। इसलिए वह ऐसे लोकतंत्र की कल्पना करते हैं, जो केवल बहुमत के शासन या अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य तक सीमित नहीं रहता, न केवल आर्थिक-ऐंद्रिक संतुष्टि को अपनी कसौटी मानता है। मैक्फर्सन के अनुसार उत्तर-उदार लोकतंत्र की कसौटी सृजनात्मक स्वतंत्रता की सिद्धि ही हो सकती है।
- नंदकिशोर आचार्य
मैत्री : जैन धर्म में साधना का विशद् वर्णन व विवेचन है। उसमें जो साधना सभी साधकों के लिए प्रतिदिन करना आवश्यक हैं, उनका वर्णन आवश्यक सूत्र में है। इस सूत्र में साधक बुराई से कैसे बचा रहे तथा उसका क्या कर्त्तव्य है और क्या अकर्त्तव्य है, यह बतलाया है। उसमें निम्न गाथा का साधना में विशेष स्थान है, यथाः खामेमि सव्वेजीवा, सव्वेजीवा खमन्तु में/मित्ति में सव्व भूएसु, वेरं मज्झं ण केणई॥ (पांचवा आवश्यक)
अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूं। सब जीव मुझे क्षमा करें। सब जीवों से मेरी मित्रता है। किसी भी जीव से मेरा बैर नहीं है। साधु-साध्वी हो या गृहस्थ साधक श्रावक -श्राविका हो, सभी के लिए प्रतिदिन यह भावना प्रातः एवं सायंकाल अवश्य करणीय है।
उपर्युक्त सूत्र में आगमकार मेरा किसी जीव से वैर नहीं है, केवल यह निषेधात्मक सूत्र देकर ही नहीं रह गये हैं, अपितु इसके साथ मेरा सब जीवों के साथ मैत्रीभाव है, यह विधेयात्मक सूत्र भी दिया है। यदि आगमकार को मित्रता का केवल निषेधात्मक रूप ही अभीष्ट होता तो मेरा किसी से वैर नहीं है इतना सूत्र ही पर्याप्त होता और सब जीवों के प्रति मेरी मित्रता है यह सूत्र जोड़ने की आवश्यकता ही न होती। इससे यह प्रकट होता है कि सूत्रकार को मित्रता का सकारात्मक पक्ष भी अभीष्ट है। कारण कि अनंतानंत प्राणियों के प्रति हमारा वैर भाव नहीं है, किंतु वैर न होने से हमारा उन प्राणियों के साथ मैत्रीभाव है, यह नहीं कहा जा सकता।
मित्र वह है जो निश्छल स्नेह रखता है तथा समस्त प्राणियों के प्रति स्नेहभाव मैत्री है। मैत्रीभाव भगवान महावीर के द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का एक सकारात्मक आयाम है। उत्तराध्ययन सूत्र एवं आवश्यक सूत्र में समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री की प्रेरणा की गई है। मैत्रीभाव को प्राप्त जीव अपने भावों की विशुद्धि कर निर्भय होता है। जो मैत्रीभाव रखता है वह स्वयं तो निर्भय बनता ही है, किंतु जिन प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखता है वे भी उससे निर्भयता एवं निश्ंिचतता का अनुभव करते हैं।
मित्रता में प्रेम होता है, स्वार्थ नहीं होता है। स्वार्थ वहीं होता है जहां अन्य से, पर से सुख लेने की या सुख पाने की इच्छा होती है। जबकि प्रेम में अपना सुख वितरण करने का, त्यागने का भाव होता है, सुख लेने का नहीं। मित्र में निःस्वार्थ त्याग होता है। निःस्वार्थ त्याग ही धर्म है, वही साधना है। अतः मित्रता त्याग का, धर्म का, साधना का जीता जागता रूप है।
मैत्रीभाव का नाम ही प्रेम है। प्राणिमात्र को रस या सुख स्वभाव से ही प्रिय है। इसका स्रोत है प्रेम, मैत्रीभाव। मैत्री या प्रेम का विकृत रूप ही स्वार्थ है। राग में दूसरे से सुख पाने की इच्छा रहती है। अतः जहां राग है, वहां विषय सुख का भोग है, वहां हीनता है, दीनता है, पराधीनता है। इसके विपरीत प्रेम या मैत्रीभाव में दूसरों को प्रसन्नता प्रदान करने की, सेवा की, सहायता की उदात्त भावना रहती है। जहां उदात्त भावना व उदारता है वहां स्वाभाविक प्रसन्नता निवास करती है।
जहां छोटे-बड़े का भेद है वहां प्रेम या मित्रता नहीं हो सकती। प्रेम या मित्रता वहीं संभव है जहां समानता का भाव है। समानता में समता और समता में समानता ओतप्रोत है। समानता या समता विषमता को खा जाती है। विषमता ही समस्त द्वंद्वों व दुःखों का कारण है। अतः विषमता के अंत में ही समस्त द्वंद्वों, दोषों व दुःखों का अंत है। यही मुक्ति है। अतः मुक्ति मैत्री (प्रीति) की देन है, यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा।
वस्तुतः उपर्युक्त गाथा में साधना का चरम व परम रूप तथा मर्म अंतनिर्हित है। क्षमादान, उदारता, क्षमायाचना, नम्रता, वैरत्याग, समता एवं प्रियता आदि गुण मित्रता के द्योतक हैं। इन गुणों का विकास अर्थात् मित्रता का विकास दुरात्मा को पुण्यात्मा, धर्मात्मा और अंत में परमात्मा बनाने में समर्थ है।
मित्रता आत्मीयता की द्योतक है। अतः मित्ती मे सव्वभूएसु का अर्थ हुआ सब प्राणियों के प्रति आत्मीयभाव, अपनेपन का भाव अर्थात् सर्वात्मभाव। आत्मीयभाव में परायेपन का भाव नहीं रहता। सर्वात्मभाव में कोई भी जीव पराया नहीं रहता। अतः प्राणिमात्र के प्रति सहायता का भाव होता है। वस्तुतः सक्रिय सहायता ही सेवा है। सेवा में सक्रिय सर्वहितकारी भाव होता है, यही मैत्रीभाव है। जहां सब प्राणियों की सेवा का भाव नहीं है, प्रत्युत उनके प्रति उपेक्षा का यह भाव है कि जीव दुःख पाते हैं तो पाते रहें अपनी बला से, दुःख पाते होंगे अपने कर्मों से, हमें उनसे क्या मतलब, क्या लेना देना? ऐसा भाव जहां है, वहां मैत्रीभाव नहीं है। ऐसा व्यक्ति प्राप्त सामग्री, सामर्थ्य, शक्ति, योग्यता का उपयोग अपने सुख-भोग के लिए करता है, वहां सर्वात्म भाव नहीं स्वार्थभाव है। जहां स्वार्थभाव है भोग है। जो समस्त दोषों व दुःखों का बीज है।
सेवा का क्रियात्मक रूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य, योग्यता के अनुसार होता है अतः सीमित होता है, परंतु सेवा का भावात्मक रूप सर्वात्मभाव असीम होता है। सर्वात्मभाव ही सबके प्रति आत्मीयभाव या प्रेम का भाव है। यही सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव है।
मैत्रीभाव राग को तो गलाता ही है, साथ ही द्वेष का भी नाश करता है क्योंकि मैत्रीभाव का विपरीत वैरभाव है। वैरभाव द्वेष का द्योतक है। अतः वैरभाव का त्याग कर मैत्री भाव को अपनाना द्वेष को त्याग कर प्रेम को अपनाना है। इस प्रकार मैत्रीभाव राग-द्वेष का नाशक है। अतः मैत्रीभाव वीतराग साधना का, संयम का, विरति का अंग है। जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है-मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु। (तत्त्वार्थ सूत्र (7.6)
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति मैत्रीभाव, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव और दोषियों के प्रति माध्यस्थ भाव रखना संयम में सहायक है।
जहां भेद है, भिन्नता है, अलगाव है, छोटे-बड़ेपन का भाव है, वहां मैत्री नहीं है। मैत्री में दो मित्रों के बीच अभिन्नता, अभेदता, समता, स्नेहशीलता एवं प्रेम होता है। जहां मैत्रीभाव है वहां परमात्मभाव है। मित्रता और समता सहवर्ती है और परमात्मा समता में ही बसता है, अतः दूसरे शब्दों में कहें तो मित्रता में ही परमात्मा बसता है। इसीलिए बौद्ध धर्म में मैत्री प्रमोद, करुणा और उपेक्षा, इन चार को ब्रह्म-विहार कहा है (विभंग 642)।
पातञ्जल योग दर्शन में, समाधि पाद के सूत्र 33 में भी मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भाव से चित्त शुद्ध होना कहा है। यजुर्वेद में मित्रस्याहं चक्षुषा र्वाणि भूतानि समीक्षे (यजुर्वेद 36, 19) के रूप में सभी प्राणियों के प्रति मित्रभाव की अभिलाषा की गई है।
मित्रता में सर्वहितकारी भाव होता है। स्वार्थभाव या भोगभाव का अभाव होता है। अपना पराया भेद वहीं गलता है, जहां अहंभाव गलता है, क्योंकि अहंभाव के रहते मैं रहता है। जहां मैं रहता है वहां भिन्नता व भेद रहता है। अतः वहां आत्मीयता या मित्रता संभव नहीं है। अहं के गलने पर ही, अर्थात् मैं कुछ भी नहीं हूं, ऐसा अकिंचन भाव होने पर ही आत्मीयता या मित्रता का भाव जगता है। जहां अहंभाव नहीं है म पन का अभाव है, वहां कामना, ममता, भोगवृत्ति, स्वार्थभाव, मोह आदि का अभाव है। अतः मैत्रीभाव वीतरागता का पोषक है।
मित्रता का क्रियात्मक रूप उदारता है। उदारता शब्द उदर से बना है। जैसे उदर भोजन को पचाता है, उसे रस व रक्त बनाता है। परंतु उसका वह संग्रह न करके सारे शरीर को बांटता है, जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। शरीर के स्वस्थ रहने से वह भी स्वस्थ रहता है, इसी प्रकार उदार व्यक्ति जो भी उत्पादन करता है, उसे संग्रह न करके सर्वहितकारी प्रवृत्ति में लगाता है। सबके हित में उसका हित स्वतः होता है। सर्वहितकारी प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के हृदय में किसी के प्रति और किसी के हृदय में उसके प्रति उसके अहित की भावना नहीं जागती। अतः उदार व्यक्ति निश्ंिचत व निर्भय रहता है। उदारता में सब का हित है। सब के हित में स्व का हित है। सब का कल्याण है।
पारस्परिक स्नेह की एकता मित्रता है। स्नेह की एकता समाज का आधार है। स्नेह में छोटे-बड़े का भेद नहीं रहता है। परस्पर में सम्मान व समानता का व्यवहार होता है, जो संघर्ष को निर्मूल कर देता है। संघर्र्ष वहीं होता है, जहां भेद-भाव है, विषमता है। अतः, मानवजाति व समाज को संघर्ष और द्वंद्व से मुक्ति प्राप्ति मित्रताजनित समानता व स्नेह को अपनाने से ही संभव है।
विषमता ही समस्त संघर्षों व युद्धों व विप्लवों की जड़ है। अतः, संघर्षों व युद्धों से मुक्ति पाने का उपाय पारस्परिक हार्दिक स्नेहजनित समानता है। सच्ची व सम्यक् क्षमापना स्नेह की एकता में, मित्रता में ही निहित है।
मित्रता का भावात्मक रूप आत्मीयता है और क्रियात्मक रूप उदारता है। आत्मीयता में अपनत्व भाव है। सर्वभूतेषु आत्मवत् सूत्र के अनुसार सब प्राणियों को अपने समान समझे, अपने समझे और जैसे हम अपने प्रति-व्यवहार पसंद करते हैं वैसा ही व्यवहार सबके प्रति करें। किसी को पराया न समझे। सभी को अपने समझे। यह ही मित्रता का मूल मंत्र है कि हम अपने लिए दूसरों से जैसा हितकारी व्यवहार चाहते है वैसा ही हितकारी व्यवहार दूसरों के साथ करें। मित्ति में सव्वभूएसु का अर्थ है कि सब के प्रति मैत्रीपूर्ण अर्थात् हितकारी व्यवहार करें। किसी के प्रति अहितकारी व्यवहार न करें, यह ही सब प्राणियों के प्रति मैत्री भाव है।
जो हृदयशील व्यक्ति अन्य प्राणी के दुःख से दुःखी होते हैं, उस दुःख को सहन नहीं कर सकते, दूसरों प्रति अनुकंपा उत्पन्न होती है, उनमें सुख भोगने की रुचि (स्वार्थपरता) नहीं रहती। किन्हीं दो व्यक्तियों की योग्यता समान नहीं होती योग्यता भेद होने से कर्म भेद, विचार का भेद, संप्रदायों का भेद, मान्यता भेद, मत-भेद भले ही रहे। परंतु मन भेद व प्रीतिभेद नहीं रहना चाहिए। हृदय में सबके प्रति मैत्रीभाव प्रेम उमड़ता रहना चाहिए। मैत्रीभाव व प्रेम राग-द्वेष को मिटा देता है। जहां प्रेम की गंगा बहती है वहां द्वेष-वैर समीप ही नहीं आते। प्रेम में अपना सुख बांटने की और दूसरों के दुःख बंटाने की भावना होती है, राग में दूसरों से सुख प्राप्त करने की भावना होती है, भले ही उससे दूसरे की हानि हो। राग-द्वेष रहित होना ही समता एवं समत्व में स्थित होना है। समत्व को श्रीमद्भगवतगीता में योग कहा है। समता में ही भेदभाव, अपने-पराये का भाव नहीं रहता, यह ही मानवता है। विषमता में भेदभाव है जो संघर्ष उत्पन्न करता है। संघर्ष सर्वनाश का हेतु होता है। संघर्ष का अंत भेदभाव रहित होने से अर्थात् मैत्रीभाव से ही संभव है। आशय यह है कि मान्यता भेद व मतभेद होने से, मन में भेद व प्रीतिभेद नहीं होना चाहिए। प्रीति मानवता है। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता व सफलता है।
मैत्रीभाव वाले व्यक्ति को सर्वव्यक्ति अपने बन्धु लगते हैं। उसका सबके प्रति व्यवहार पारिवारिक भावना के अनुरुप होता है। जिस परिवार में प्रत्येक परिजन के कर्म में भिन्नता होने पर भी वह किसी को हीन, नीचा नहीं समझता है, सबके प्रति संबोधन, आहार आदि समस्त व्यवहार मित्रतापूर्वक करता है। मैत्रीभाव से जागृति, सहृदयता, सद्भावना से उदितप्रसन्नता का प्रभाव उसके मन एवं तन पर पड़ता है। उसे चिंता, अवसन्नता, खिन्नता, निरसता, हीनता, निराशा, भय आदि मानसिक रुग्णता नहीं सताती तथा मानसिक प्रसन्नता तथा स्वस्थता का प्रभाव शरीर पर पड़ता है। जिससे शरीर में रोग-प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। शरीर स्वस्थ रहता है।
वैरभाव शांति व प्रसन्नता का घातक है क्योंकि वैरभाव की उत्पत्ति का मूल है- दूसरे में बुराई या दोष देखना। दूसरों के दोष-दर्शन, उनके द्वारा अपने प्रति किए गए आघात व अपकार स्मरण करने से प्रतिशोध के भाव पैदा होते हैं। पर-दोष-दर्शन से द्वेष, अपकार और आघात के स्मरण से प्रत्यपकार व प्रत्याघात रूप वैरभाव की ज्वालाएं ज्वलित होती हैं। ऐसा हृदयवृक्ष जो वैर की आग से प्रज्वलित हो रहा हो, उस पर शांति व प्रसन्नता के पक्षी विश्राम नहीं करते।
दूसरे में दोष या बुराई दिखने का मुख्य कारण है उसके कार्य व विचारों की भलाई-बुराई को अपने आदर्श या स्वार्थ के फीते से मापना तथा अपने ही आदर्श को सर्वोत्कृष्ट मानना। अपने ही विचार, सिद्धांत व आदर्श को सर्वोत्तम मानने वाले का आग्रह होता है कि समस्त संसार उसी के सिद्धांत या आदर्श को स्वीकार करे और चले। जो उसे अस्वीकार करता है या विरोध करता है, उसकी दृष्टि में वह दोषी या बुरा है। परंतु विज्ञजन अनेकांत दृष्टि का उपयोग करते हैं। वे जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की विशेष स्थिति, शक्ति व मति होती है। तदनुसार ही वह अपना उद्देश्य बनाता व जीवन ढालता है, अतः बुराई का कारण विवेक की कमी है। अतः वह क्षमा का अधिकारी है न कि द्वेष व दंड का। सत्य तो यह है कि दुरात्मा और महात्मा, पापी और धर्मी में श्रेणि और गुणों के विकास का ही अंतर है। पापियों को दुष्ट समझ उनसे घृणा या वैर रखना वैसा ही है जैसा छोटे बच्चों को अबोध, अनाज्ञाकारी, खिलौने खेलने वाला समझ उनसे घृणा करना या वैर रखना, जो न न्यायोचित है और न मानवोचित ही।
अधम से अधम व्यक्ति में भी अगणित गुण होते हैं। विश्व में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिल सकेगा जिसमें गुण का सर्वथा अभाव हो और जो केवल दोषों का ही पुंज हो। ज्ञानीजनों की दृष्टि व्यक्ति के गुणों पर जाती है, दोषों पर नहीं। अतः उनके हृदय में प्रीति उदित होती है जो उन्हें प्रमुदित बनाती है। इस प्रकार मैत्रीभाव की प्रसन्नता वैरभाव की खिन्नता को खा जाती है। मैत्रीभाव वाला व्यक्ति सदैव आनंदित रहता है। अज्ञजन ही वैर भाव को अपना कर खिन्न व अवसन्न रहते हैं, विज्ञजन तो मैत्रीभाव अपनाकर प्रसन्न ही रहते हैं।
- कन्हैयालाल लोढ़ा
मोंतेस्सोरी, मरीया (Maria Montessori) (1870-1952 ई०) : 31 अगस्त, 1870 ई० के दिन जन्मी मरीया मोंतेस्सोरी ने 1896 ई० में रोम के विश्वविद्यालय से चिकित्सा विज्ञान में डॉक्टर की उपाधि ग्रहण की। इसी वर्ष बर्लिन में आयोजित फेमिनिस्ट कांग्रेस में इटली की महिलाओं के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मरीया ने किया। वहां पर औरतों के काम करने को लेकर उनका भाषण इतना प्रभावशाली था कि यूरोप के कई अखबारों ने उसे फोटो के साथ प्रमुखता से प्रकाशित किया। चार साल बाद लंदन में ऐसी ही एक कांग्रेस में मरीया ने अपने व्याख्यान में सिसली की खदानों में बाल श्रमिकों की प्रथा पर तीखे प्रहार किए और रानी विक्टोरिया के संरक्षण में चल रहे बाल श्रम विरोधी अभियान का समर्थन किया। रानी विक्टोरिया से मरीया की व्यक्तिगत मुलाकात और बातचीत भी हुई, जो ब्रिटिश साम्राज्य के उस चरमोत्कर्ष के दौरान बहुत बड़ा सम्मान समझा जाता था। इसके बाद मरीया मोंतेस्सोरी अपना शेष जीवन एक समर्पित चिकित्सक के रूप में बिता देतीं तो भी महिला अधिकारों के इतिहास में उनका नाम अमर रहता। लेकिन इस महान व्यक्तित्व की यात्रा की यह केवल शुरूआत थी, जिसका अगला पड़ाव दो साल बाद आने वाला था।
पढ़ाई पूरी करने के बाद मरीया मोंतेस्सोरी ने रोम के साइकिएट्रिक क्लिनिक में काम शुरू किया। उनके काम में शामिल था रोम के मनोरोगी केंद्र से ऐसे मरीजों को छांटना, जिनका इलाज और अध्ययन किया जा सके। मनोरोगियों के उपचार का विज्ञान उन दिनों अपनी शैशवावस्था में था और आमतौर पर मनोरोगियों को पागल तथा मनोरोगी केंद्र को पागलखाना ही कहा जाता था। इलाज में भी वैज्ञानिक तत्त्वों का समावेश नई चीज थी। इस पागलखाने में उनका ध्यान मानसिक रूप से विमंदित बच्चों की ओर गया। उस जमाने में विमंदित बच्चों को भी पागल ही समझाा जाता था।
मरीया मोंतेस्सोरी के संवेदनशील हृदय और प्रखर प्रतिभा ने उन बच्चों के हालात से एक नई अंतर्दृष्टि प्राप्त की। उस पागलखाने में ऐसे बच्चों को कैदियों की तरह रखा जाता था। ये उदास बच्चे छोटे-छोटे कमरों में मवेशियों की तरह भरे रहते थे। उनकी देखभाल करने वाली महिला उनसे भयंकर नफरत करती थी और उसे छिपाने की जरा भी कोशिश नहीं करती थी।
मरीया मोंतेस्सोरी जितना अधिक इन बच्चों का अध्ययन करती गईं, उतना ही वे उस समय की प्रचलित मान्यताओं से असहमत होती चली गईं। उनकी यह मान्यता बनने लगी कि विमंदित बच्चों की समस्या चिकित्साशास्त्रीय नहीं, बल्कि सीखने की समस्या है। उनकी यह धारणा बनने लगी कि सिखाने की विशेष विधियां अपनाकर विमंदित बच्चों के हालात में महत्त्वपूर्ण बदलाव लाए जा सकते हैं। लगभग ऐसी ही कुछ मान्यता उन दिनों फ्रांसीसी डॉक्टर ज्यां इटार्ड और एदुआर्द सेग्वें ने भी व्यक्ति की थी।
इन बच्चों को मानव-समाज में पुनः उचित स्थान दिलाना, उन्हें आत्मनिर्भर बनाना और मानवीय गरिमा वापस दिलाना, एक ऐसा काम था जिसमें कई साल तक मरीया का मन रमा रहा। इसी सिलसिले में मरीया ने उन दो फ्रांसीसी डॉक्टरों के काम के बारे में भी पढ़ा, जिनका ऊपर जिक्र हुआ है। इससे मरीया की मान्यताओं को पुष्टि मिली। 1899 ई० में तूरिन में हुई पेडेगोजिकल कांग्रेस में मरीया ने नैतिक शिक्षा विषय पर पत्रवचान किया और कहा कि विमंदित बच्चे कोई असामाजिक जीव नहीं हैं, बल्कि उन्हें भी शिक्षा के लाभ पाने का-अधिक नहीं तो-उतना बराबर का हक तो है ही, जितना किसी सामान्य बच्चे को।
इटली में इस नए दृष्टिकोण ने काफी ध्यान आकर्षित किया। वहां के शिक्षामंत्री डॉ० गुइडो बचेली ने मरीया मोंतेस्सोरी को विमंदित बच्चों की शिक्षा पर व्याख्यानों के लिए आमंत्रित किया। मरीया मोंतेस्सोरी के व्याख्यानों ने इटली में वैज्ञानिक शिक्षण पद्धति की नींव रखी और एक राजकीय मनोवैज्ञानिक स्कूल की स्थापना की गई, जिसका निदेशक मरीया मोंतेस्सोरी को बनाया गया। 1899 ई० से 1901 ई० तक उन्होंने इस पद पर काम किया।
1906 ई० तक के जीवन में मरीया मोंतेस्सोरी के जीवन की दो प्रमुख उपलब्धियां थीं-इटली की पहली महिला चिकित्सक होना और विमंदित बच्चों के उपचार की चर्चित पद्धति का विकास; लेकिन, अगले दो साल में उन्होंने वह महत्त्वपूर्ण खोज कर डाली, जिसकी तुलना कोलंबस द्वारा अमरीका की खोज या न्यूटन द्वारा गति के नियम की खोज से की जाती है। मरीया मोंतेस्सोरी की यह खोज मानव-मस्तिष्क के आंतरिक स्वभाव और विकास के बारे में थी। वास्तव में मरीया मोंतेस्सोरी का महत्त्व मस्तिष्क के विकास की विधि की खोज करने में है, न कि उस पद्धति के विकास में, जिसे शिक्षण की मोंतेस्सोरी पद्धति कहा जाता है। यह पद्धति, मूलतः, उस खोज का नतीजा-भर थी और इसमें देश-काल अनुरूप परिवर्तन-परिवर्द्धन भी लगातार हो रहे हैं। लेकिन शिक्षण-प्रक्रिया की आधारभूमि के रूप में मोंतेस्सोरी सिद्धांत का महत्त्व वैसा ही अटल है जैसे कि पृथ्वी पर गुरुत्वाकर्षण का नियम।
स्वयं मरीया मोंतेस्सोरी ने लिखा है : यह मानना गलत होगा कि केवल बच्चों को ध्यान से देखने-भर से हमें उनके छिपे हुए स्वभाव की जानकारी हो गई और उसके आधार पर विशेष स्कूल और शिक्षण पद्धति का विकास कर लिया गया। जो बात पता न हो, उसे देख पाना भी संभव नहीं है। कोई भी केवल अंतःप्रेरणा से यह कल्पना नहीं कर सकता कि बच्चे की दो प्रवृत्तियां (सामान्य और असामान्य) होती हैं, और न ही उन्हें प्रयोग द्वारा सिद्ध कर सकता है। कोई भी नई चीज सामने आती है अपनी खुद की ऊर्जा के बल पर। वह उभरती है और महज संयोग से ही दिमाग पर छा जाती है।
1906 ई० में रोम में गरीब बच्चों के एक केंद्र की देखरेख का उत्तरदायित्व मरीया मोंतेस्सोरी को सौंपा गया। इस केंद्र में बच्चों के साथ काम करते हुए मरीया मोंतेस्सोरी ने अपनी यह मूलभूत खोज की थी कि बच्चे के असामान्य व्यवहार के पीछे बचपन की एक सामान्य प्रवृत्ति छिपी होती है। बच्चे में जो गुण और क्षमताएं समझी जाती हैं, उनसे कहीं अधिक और ऊंची प्रवृत्ति एक बच्चे में मौजूद रहती है। मानो व्यक्तित्व का एक श्रेष्ठतर पक्ष हर बच्चे के भीतर जन्म लेने को तैयार रहता है।
अपने अनुभवों से मोंतेस्सोरी ने पाया कि बारह महीने की उम्र से लगभग तीन साल की उम्र तक बच्चे में व्यवस्था के प्रति एक नैसर्गिक संवेदनशीलता होती है। इस दौरान वह हर चीज एकदम वैसी ही चाहता है जैसी उसने पहले देखी है।आस-पास के लोग, माहौल, बातें, खेल, कपड़े आदि सब-कुछ उसे एकदम वही चाहिए। जरा-सा भी परिवर्तन होते ही वह उसे ठीक करने की कोशिश करता है। किसी बच्चे को कोई कहानी या गाना सुनाते हुए उसे थोड़ा-सा बदलते ही बच्चा विचलित हो जाता है और उसे सुधारने की कोशिश करता है। आमतौर पर बच्चों को बिखराव और अव्यवस्था का अवतार माना जाता है, पर मरीया मोंतेस्सोरी ने सिद्ध किया कि परिवर्तन और प्रयोग बाद की विकसित अवस्था के गुण हैं। नैसर्गिक रूप से बच्चे के स्वभाव में व्यवस्था की प्रवृत्ति होती है।
मरीया मोंतेस्सोरी ने नतीजा निकाला कि छोटे बच्चों में भी एक गहरी उच्चतर चेतना जाग्रत होती है। एक ऐसी आध्यात्मिकता, जो उन्हें प्राकृतिक जरूरतें पूरा करने-भर से ऊंचा स्थान दिलाती है। इस उच्चतर चेतना या आध्यात्मिकता की तृप्ति सहज ही उन्हें स्वाद या भूख-प्यास जैसी ऐंद्रिक तृप्तियों से ऊंचे स्तर पर ले जाती है।
मरीया मोंतेस्सोरी ने ऐसे ही अन्य अनुभवों के आधार पर इस महत्त्वपूर्ण तथ्य की खोज की कि हर बच्चे में एक गहरा आत्मसम्मान होता है। बच्चे के इस आत्मसम्मान को ध्यान में रखकर उससे बात करना, उसे कुछ बताना या सिखाना हमेशा सकारात्मक फल देता है, जबकि अपने को बड़ा या वयस्क मानते हुए बच्चे को कमतर आंकना और उसे डांट-फटकार कर आदेश देते हुए बात करना बच्चे के मन में स्थायी रूप से गहरे घाव छोड़ देता है जो उसके व्यक्तित्व के विकास में जीवन-भर बाधक बने रहते हैं।
रोम के सान लोरेंजो इलाके की उस बस्ती की इमारत में घटित मरीया मोंतेस्सोरी के चमत्कार की ख्याति रातोंरात फैल गई। पहले रोम और फिर इटली के दूसरे इलाकों में भी मोंतेस्सोरी स्कूल खुलने लगे और पूरे यूरोप अमेरिका में इन स्कूलों के सिद्धांतों के बारे में कई लेख व पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इन स्कूलों या बाल-केंद्रों की विशेषता यह थी कि यहां अनुशासन का स्रोत स्वतंत्रता था। बच्चों के ये समूह एक आदर्श समाज का प्रतिरूप थे, जिसमें व्यक्तित्व की स्वाधीनता से ही व्यवस्था जन्म ले रही थी। यहां बच्चे आत्मगौरव के साथ सक्षम होना सीख रहे थे। न केवल मानसिक और शारीरिक, बल्कि आत्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी यह पद्धति बच्चे के उच्चतर विकास का स्वाभाविक सोपान थी। खास बात यह थी कि यह पद्धति किसी एक विचारधारा या धार्मिक संप्रदाय के चिंतन तक बंधी हुई नहीं थी, बल्कि सभी देशों, धर्मों, मान्यताओं, यहां तक कि परम भौतिकवाद की कसौटी पर भी पूरी तरह सफल सिद्ध हुई थी। एक समाजवादी विचारक की टिप्पणी थी कि मोंतेस्सोरी पद्धति से शिक्षा पाकर बड़े होना प्रत्येक मानव-शिशु का नैसर्गिक अधिकार है।
मरीया मोंतेस्सोरी ने एक बार उल्लेख किया था कि उनके सिद्धांत के बीज संवेदनाओं में थे जो विमंदित बच्चों को देखकर जागी थीं। बाद में कच्ची बस्ती के निराश्रित-से बच्चों की बेचारगी ने, और इस बात के एहसास ने उनके मन को झकझोरा था कि हर बच्चे का अपना एक आत्मसम्मान होता है। उनके पूर्ववर्ती चिकित्सकों परेरा, ईटार्ड और सेग्वें के कार्य की प्रेरणा भी मूक, बधिर या विमंदित जनों की त्रासद सामाजिक स्थिति ही थी। कुल मिलाकर वंचित, कमजोर, लाचार और आश्रितों को क्षमता, स्वाधीनता और आत्मसम्मान लौटाना इस विचार-परंपरा का आधार था। मरीया ने एक बार कहा था कि मोंतेस्सोरी पद्धति की वैचारिक भावभूमि फ्रांस की क्रांति के आदर्श-स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व से उपजी है।
डॉ० मरीया मोंतेस्सोरी का सिद्धांत या कि उनकी खोज मूलरूप से यह थी कि मानव-शिशु का दिमाग जन्म के समय किसी साफ पट्टी की तरह नहीं होता, जिसमें जगत् के प्रभावों के आधार पर उसके व्यक्तित्व और प्रवृत्तियों का विकास हो। मानव-शिशु के मन की बनावट में विकास की सहज और जैविक प्रवृत्ति होती है। इसी प्रवृत्ति के कारण बच्चे के व्यक्तित्व और क्षमता का अनिवार्य विकास होता है।
इस प्रक्रिया के अनेक चरण होते हैं। एक तितली अंडे से विकसित तितली बनने की यात्रा में लार्वा, प्यूपा और फिर पूर्ण विकसित कीट बनने की प्रक्रिया से गुजरती है। हर चरण में उसके रूप, आकार और गुणों में संपूर्ण परिवर्तन होता है। हर विकसित रूप अपने पूर्ववर्ती रूप से पूर्णतः भिन्न होता है। लगभग ऐसा ही मानव के साथ है। लेकिन, फर्क यह है कि मानव में परिवर्तन भौतिक एवं शारीरिक रूप से उतना स्पष्ट नहीं होता जितना मानसिक रूप से। एक शिशु से वयस्क होने की प्रक्रिया में जिन पूर्ण परिवर्तनों के दौर से मानव गुजरता है, उन्हें मरीया मोंतेस्सोरी संवेदनशील काल कहती हैं। यह काल-खंड प्राकृतिक एवं जैविक है और हर एक ऐसे काल के दौरान बालक के व्यक्तित्व में किन्हीं विशेष प्रवृत्तियों का समावेश होता जाता है, जो अंततः उसके वयस्क व्यक्तित्व के कारकों के रूप में प्रतिफलित होता है। हर संवेदनशील काल में किन्हीं विशेष कार्यों की ओर बच्चे की सहज रुचि होती है और वह अपने परिवेश में उन्हीं कार्यों की ओर सहज रूप से आकर्षित होता है। उसके जरिए अपने व्यक्तित्व और क्षमता की उच्चतम संभावनाओं तक बढ़ने का प्रयास बच्चे के लिए नैसर्गिक अनिवार्यता है।
इसलिए अगर बच्चे की उम्र और उसके संवेदनशील काल के अनुरूप तैयार किया गया परिवेश उसे दिया जाए तो वह अंतःप्रेरित उत्साह और प्रसन्नता के साथ उसमें सक्रिय होकर अपना विकास स्वयं करता चला जाता है। इसमें वयस्कों को-अध्यापकों या अभिभावकों को-कोई प्रोत्साहन, दंड का भय या प्रलोभन बच्चों को देने की कोई भूमिका नहीं रह जाती। शिक्षक का काम केवल सही परिवेश प्रदान करने और उस परिवेश में बच्चे को स्वतं गतिविधि की छूट देने तक सीमित रह जाता है।
मोंतेस्सोरी सिद्धांत के अनुसार एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर व्यक्तित्व अर्जित करना बच्चे की नैसर्गिक आकांक्षा होती है। इसी के लिए वह स्व के विकास की ओर स्वप्रेरित होकर अपनी गतिविधि चुनता है और उससे सीखता है। इसके लिए बच्चे को प्रलोभन देना या पारितोषिक देना बच्चे के स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास में बाधक सिद्ध होता है। जो बच्चे लालच में काम करने, काम पूरा करने के बाद इनाम पाने या काम में गलती करने पर सजा या डांट के माहौल में विकसित होते हैं वे पराधीन व्यक्तित्व का विकास करते हैं। वे ऐसे वयस्क बनते हैं जिन्हें सपने देखने, आकांक्षा पालने और उन्हें पूरा करने के लिए भी हमेशा किसी के आदेश, निर्देश या अनुमति की जरूरत होती है। उनकी चर्चित पुस्तकें हैं : सीक्रेट ऑफ चाइल्हुड, द एब्जार्बेंट माइंड और पेडॉगोजिकल एंथ्रोपॉलोजी।
- संजीव मिश्र
(संक्षिप्तीकरण : नंदकिशोर आचार्य)
मौन हिंसा : हिंसा के सूक्ष्म और स्थूल प्रकारों में सामान्यतया हम उस अमुखर या मौन हिंसा को सम्मिलित नहीं करते हैं जो अपनी गहराई और परिमाण में हिंसा के अन्य प्रकारों से कम नहीं होती-बल्कि कभी-कभी तो उसके कारण सामान्य युद्धों से भी अधिक जनहानि हो जाती है। पियरे स्पिट्ज ने अपने निबंध साइलेंट वायलेंस : फेमिन एंड इनइक्वेलिटी में इस हिंसा को अकाल और असमानता के संदर्भ में परिभाषित-व्याख्यायित किया है। सामान्यतया अकाल और उसके कारण हुई जनहानि को हम एक प्राकृतिक दुर्घटना के रूप में देखते हैं, लेकिन, पियरे स्पिट्ज उसमें हुई जनहानि का कारण अकाल से अधिक असमानता को मानते हैं। वह इस विडंबना की ओर इशारा करते हैं कि अकाल में सबसे अधिक जनहानि उस किसान वर्ग की होती है, जो खाद्यान्न उपजाता है। वह इस परिस्थिति पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका के वे लोग लाखों की संख्या में अन्न के अभाव में नष्ट हो गए, जो इन इलाकों की जमीनों पर फसलें उगाते थे, जबकि सचिवालयों, बैंकों अथवा बैरकों में काम करने वालों में किसी एक की भी मृत्यु भोजन के अभाव में नहीं हुई। पियरे स्पिट्ज इसके पीछे उस असमानतामूलक आर्थिक व्यवस्था को देखते हैं, जिसने उनके हाथों से इतनी शक्ति तक छीन ली है कि वे अगले वर्ष या अगले मौसम तक के लिए अपना उगाया हुआ अन्न अपने पास रख सकें। इस स्थिति का तीखा एहसास अकाल जैसी विभीषिका के समय होता है कि हमारी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था की संरचना इतनी हिंसक हो गई है कि वह गरीबतर व्यक्ति को जिंदा रह सकने के लिए भोजन तक की गारंटी नहीं करती। स्पिट्ज का तर्क है कि अकाल के समय नगर-निवासियों को फिर भी कुछ-न-कुछ खाने को मिल जाता है, जबकि देहाती इलाकों में लोग भूख से मर रहे होते हैं और यह इस बात का प्रमाण है कि नगरों और देहातों के बीच सत्ता-समीकरण किस प्रकार के हैं। बंगाल के 1943 ई० के अकाल में पंद्रह लाख से पैंतीस लाख के बीच लोगों के भूख से मरने के अनुमान लगाए गए हैं-और बड़ी संख्या में देहातों से काम या भोजन की तलाश में आए लोग कलकत्ता की सड़कों पर मरे-लेकिन उनमें से एक भी मरने वाला कलकत्ता नगर का निवासी नहीं था।
देहातों में भी धनी किसान और गरीब किसान के बीच का अंतर कितना हिंसक है, यह अकाल जैसी विभीषिका के समय ही पता चलता है। धनी किसान कम बेचकर अधिक मुनाफा कमाते हैं, जबकि गरीब किसान को अपनी खेती का सामान और जमीन तक सस्ते में बेचनी या गिरवी रखनी पड़ती है। एक अनुमान के अनुसार 1961 ई० से 1971 ई० के बीच भारत में खेतीहर मजदूरों की संख्या में लगभग वृद्धि हुई, और किसानों की संख्या में डेढ़ करोड़ की गिरावट दर्ज की गई। लगभग यही स्थिति अकाल-पीड़ित अन्य प्रदेशों में भी पाई जाती है। नतीजा यह होता है कि असमानता के कारण अकाल न केवल गरीबों के प्रति हिंसक साबित होता है, बल्कि भविष्य के लिए भी वह असमानता को ही बढ़ाता है।
आश्चर्य इस बात पर होता है कि बहुत से लोग इस असमानता को न केवल अन्याय नहीं मानते, बल्कि उसे स्वाभाविक और लाभदायक समझते हैं। 1848 ई० की फ्रांसीसी क्रांति की असफलता के बाद तूलो के आर्च बिशप ने कहा था कि इस प्रकार की समानता के बिना कलाएं, विज्ञान और कृषि नष्ट हो जाएंगे और हम सब उन सभी चीजों से वंचित हो जाएंगे, जो जीवन के लिए बहुत आवश्यक हैं। आर्च बिशप के अनुसार असमानता के द्वारा ईश्वर धनिकों को उदार होने का अवसर देता है और गरीबों में कृतज्ञता और प्रेम अनुभव करने का तथा इस प्रकार जरूरत और उदारता मिल कर मानव-समाज की एकता को मजबूत करती है। फ्रांसीसी रसायनज्ञ और पौष्टिक ऊर्जा के प्रथम मापक लेवोसियर (रुड्ड1शद्बह्यद्बद्गह्म्) ने 1777 ई० में लिखा था कि एक धनी व्यक्ति को शारीरिक रूप से उतनी ऊर्जा की जरूरत नहीं होती, जितनी एक गरीब श्रमिक को; इसलिए हमें प्रकृति पर दोष मढ़ने के बजाय अपनी दोषपूर्ण सामाजिक संस्थाओं को इसके लिए जिम्मेदार मानना चाहिए।
पियरे स्पिट्ज ने इस असंगति की ओर भी ध्यान दिलाया कि जब द्वितीय महायुद्ध के बाद सभी सरकारों ने गरीबी को एक बीमारी की तरह बताना शुरू किया तो किसी ने भी इस बीमारी की उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को नहीं समझा कि सम्पन्न देशों के विकास से इस गरीबी का क्या रिश्ता है। विज्ञान और तकनीकी विकास ने बहुत सारे परिवर्तन संभव किए, लेकिन उन्होंने भी, स्पिट्ज के शब्दों में, आंतरिक सामाजिक असमानता और विदेशी निर्भरता में कोई कमी नहीं की। उनका विचार है कि हरित क्रांति ने भी न केवल अमीर और गरीब के बीच बल्कि प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से संपन्न और वंचित इलाकों के बीच भी असमानता को बढ़ाया तथा हरित क्रांति के लिए आवश्यक संसाधनों और तकनीकी जरूरतों के नाम पर बहु-राष्ट्रीय कंपनियों को अधिक लाभ कमाने के अवसर प्रदान किए। यह कहा जा सकता है कि अमीर देशों के खाद्यान्न-सहायता कार्यक्रमों ने हजारों किसानों को मरने से बचाया होगा, लेकिन, साथ ही, यह भी नहीं भुलाया जा सकता कि इन कार्यक्रमों की वजह से किसानों को विद्रोह करने से भी रोका जा सका-और यह भी कि इन कार्यक्रमों ने अविकसित देशों को संपन्न देशों पर निर्भर बनाकर यथास्थिति बनाए रखने में सहयोग दिया।
पियरे स्पिट्ज ने 1973-74 ई० के बंगलादेश के अकाल का जिक्र करते हुए लिखा है कि वहां कुछ ग्रामीण समुदायों ने यह तय किया कि संबंधित समुदाय का कोई भी सदस्य विदेशी मदद वाले राहत केंद्रों में नहीं जाएगा और गांव के बाहर से कोई सहायता नहीं ली जाएगी। स्पिट्ज के अनुसार इसका मतलब यह था कि गांव में खाद्यान्न पर्याप्त था-बस धनी लोगों का यह दायित्व था कि वे गरीब लोगों को भूख से न मरने दें। वह मानते हैं कि जो बात स्थानीय स्तर पर सच है, वही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सच है। सवाल यही है कि असमान संबंधों को बदलने और बाह्य निर्भरता को मिटाने के लिए कोई दीर्घावधि योजना लागू की जाती है या तात्कालिक राहत को ही महत्त्व दिया जाता है। यह उल्लेखनीय है कि 1964 ई० में पहले अंकटाड में तीसरी दुनिया के देशों के इस प्रस्ताव का पहली दुनिया के देशों द्वारा विरोध किया गया था कि देशों के आपसी संबंध-व्यापारिक संबंध भी-सभी राज्यों की सार्वभौमिक समानता, आत्मनिर्णय तथा अन्य देशों के आंतरिक मामलों में अहस्तक्षेप के सिद्धांतों पर आधारित होंगे।
पियरे स्पिट्ज का मानना है कि संपन्न देशों द्वारा प्रदत्त सहायता ने गरीब देशों का विकास नहीं किया है-केवल एक किस्म की औद्योगिक और कृषि वृद्धि हुई है जिसके लाभों के असमान वितरण ने इन गरीब देशों में प्रभुत्वशाली वर्ग की प्रभुता को और मजबूती प्रदान की है। कुछ ही हाथों में केंद्रित अर्थ-सत्ता ने गरीब देशों में संरचनात्मक हिंसा को बढ़ावा ही दिया है।
द्रष्टव्य : संरचनात्मक हिंसा; आर्थिक हिंसा; अहिंसक अर्थव्यवस्था।
- नंदकिशोर आचार्य
मौलिक मानववाद : द्रष्टव्य : राय, एम०एन०।
यहूदी धर्म (Judaism) : यहूदी धर्म या जूडावाद को ईसाइयत और इस्लाम का बीज माना जा सकता है। ईसा स्वयं यहूदी थे और यह माना जाता है कि उनका उपदेश मूलतः यहूदियों के लिए ही था तथा उनके सभी शिष्य भी यहूदी थे, संत पॉल भी जिन्होंने ईसाइयत के द्वार सबके लिए खोल दिए गए थे। इस्लाम में भी अब्राहम, मूसा और ईसा को पैगंबरों में स्वीकार किया गया तथा हजरत मुहम्मद को आखिरी पैगंबर माना गया है।
जूडावाद एकेश्वरवादी धर्म है तथा यह मानता है कि ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ही जीवन का प्रयोजन है। ईश्वर विश्व का स्रष्टा है, जिसने मनुष्य की भी रचना कर उसे सृष्टि के उपयोग में अपना भागीदार बनाया है। इसलिए मनुष्य में भी एक दैवी तत्त्व है। शायद इसीलिए ईश्वर (याहोवा) ने उसे स्वतंत्र इच्छा-शक्ति से संपन्न बनाया है। इस स्वतंत्र इच्छा-शक्ति के ही कारण मनुष्य शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप की ओर प्रवृत्त होता है। जूडावाद की मान्यता है कि ईश्वर ने जब मनुष्य की रचना करनी चाही तो तोरा से परामर्श किया। जूडावाद में तोरा को दैवी प्रज्ञा (Divine Wisdom) माना जाता है। तोरा की सलाह थी कि मनुष्य की रचना करना सही नहीं होगा क्योंकि उसकी स्वतंत्र इच्छा-शक्ति उसे पाप की ओर धकेल सकती है। ईश्वर का विचार था कि पाप से मुक्त होने के उपाय बताकर मनुष्य को धर्माचरण में प्रवृत्त किया जा सकेगा तथा इन उपायों अर्थात् ईश्वर की इच्छा या आदेश को बताने के लिए ईश्वर अपना पैगंबर भेज सकता है। इसीलिए ईश्वर ने आदम और ईव की रचना करके मानवी-सृष्टि का आरंभ किया।
ईश्वर ने अपनी इच्छा या आदेश पैगंबर मूसा (Moses) के माध्यम से प्रेषित किया, जिसे दस आदेश (Ten Commandments) कहा जाता है। इन आदेशों को ईसाइयत में भी सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाता है। महात्मा गांधी भी इनसे बहुत प्रभावित थे। इन आदेशों का विश्लेषण यह बताता है कि जूडावाद में अहिंसा को कितना महत्त्व दिया गया है। इनमें प्रथम चार का संबंध यहूदी धार्मिक आस्था से है, जिसके अनुसार एकेश्वरवाद, मूर्तिपूजा के निषेध, ईश्वर के व्यर्थ उल्लेख का निषेध तथा सब्बाथ दिवस के स्मरण से है। पांचवें आदेश में माता-पिता के प्रति आदर की वांछनीयता बताई गई है। शेष पांच आदेशों में मनुष्य से नैतिक व्यवहार की अपेक्षा करते हुए कहा गया है कि (1) तुम हत्या नहीं करोगे, (2) तुम व्यभिचार नहीं करोगे, (3) तुम चोरी नहीं करोगे (4) तुम अपने पड़ौसी के विरुद्ध झूठी गवाही नहीं दोगे और (5) तुम लालच नहीं करोगे।
उपर्युक्त पांचों आदेशों का सर्वोत्कृष्ट अहिंसक माने जाने वाले जैन धर्म के पंच-महाव्रतों से साम्य उल्लेखनीय है। जैन धर्म में बताए गए पंच महाव्रतों को अंतिम पांच आदेशों से मिलाएं तो ये आदेश क्रमशः अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, सत्य और अपरिग्रह के साथ खड़े दिखाई देते हैं।
स्पष्ट है कि इन आदेशों या पंच महाव्रतों से प्रेरित आचरण मनुष्य को पाप-मुक्त रखने में समर्थ है। लेकिन, यदि कभी पापवृत्ति के कारण जाने-अनजाने गलत आचरण हो भी जाए तो, जूडावाद के अनुसार, ईश्वर ने उससे उबरने के उपाय भी बताए हैं। नरक का भय और स्वर्ग की आशा तो मनुष्य को पाप से बचने की प्रेरणा देते ही हैं, लेकिन सच्चे प्रायश्चित की भावना (Repentance) ऐसा उपाय है, जो मनुष्य को पापमुक्त कर देता है क्योंकि सच्चे मन से किया गया पश्चाताप ईश्वर की दयालुता को प्रेरित करता ही है और वह उसे क्षमा कर देता है।
जूडावाद यह मानता है कि ईश्वर ने मनुष्य को इसीलिए अपनी छवि में बनाया है कि पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर सके। उसने पृथ्वी और उसके साधनों को मनुष्य के लिए बनाया है। कुछ लोगों का मानना है कि यह मान्यता मनुष्य द्वारा पृथ्वी के संसाधनों और मनुष्येतर जीवन का मनमाना दोहन करने का धार्मिक आधार बन जाती है। लेकिन, यदि दस आदेशों के साथ रखकर देखा जाए तो यह धारणा अनुचित प्रतीत होती है क्योंकि यदि उन आदेशों के मुताबिक आचरण किया जाए तो किसी प्रकार के अनुचित दोहन की संभावना ही नहीं रहती। यह तो स्पष्ट है कि मनुष्य प्रकृति के संसाधनों पर ही जीवित रहता है, इसलिए वह उनका अपने लिए उपयोग तो करेगा ही। सवाल उस उपयोग को संयमित करने का है और यदि मनुष्य इन आदेशों के अनुसार लालच से बचता (अपरिग्रह), हत्या नहीं करता (अहिंसा) तथा चोरी नहीं करता अर्थात् अपने हक की कमाई पर आश्रित रहता (अस्तेय) तो प्रकृति और अन्य मनुष्यों के प्रति हिंसक व्यवहार करने का सवाल ही नहीं बनता है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि जूडावाद मनुष्य से वीतराग होने की अपेक्षा नहीं करता। वह जीवन को नैतिक नियमों की परिधि में जीने की बात करता है। इस दृष्टि से वह संसार अर्थात् सांसारिक जीवन के त्याग की बात करने के बजाय इस जीवन को ही नैतिक प्रयत्न द्वारा ईश्वर की कृपा का माध्यम बनाने का आग्रह करता है। अस्तेय, अपरिग्रह आदि भी अहिंसा के बीज से ही प्रस्फुटित होते हैं और अहिंसा नैतिक जीवन का आधार है।
- नंदकिशोर आचार्य
युद्ध : सामान्यतः, माना जाता है कि युद्ध मनुष्य के अस्तित्व में ही अंतनिर्हित हिंसा या विध्वंसात्म-कता की प्रवृत्ति का चरम प्रतिफलन है। ई ग्लोवर जैसे पंडितों का मानना है कि युद्ध का रहस्य मनुष्य के गहनतम अचेतन में निहित है। लेकिन फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक ने भी आइंस्टाइन को लिखे एक पत्र में मनुष्य में अंतनिर्हित किसी विध्वंसात्मकता को युद्धों का कारण नहीं स्वीकार किया था। उनका कहना था कि अधिकांशतः युद्ध मनुष्य की अचेतन प्रवृत्तियों के कारण नहीं, बल्कि यथार्थपरक विवादों या द्वंद्वों का समाधान निकाल पाने में विफलता की वजह से होते हैं। यह ठीक है कि सभी जीवों-और इस नाते मनुष्य में भी-हिंसा या आक्रामकता की प्रवृत्ति दिखाई देती है। लेकिन जीव-जगत् का अध्ययन करने वाले विद्वानों की मान्यता है कि यह हिंसा अधिकांशतः आक्रामक कम और आत्म-रक्षात्मक अधिक होती है। इसलिए इसे मनुष्य की ऐसी सहज या अनिवार्य प्रकृति के रुप में नहीं स्वीकार किया जा सकता जो उसके अस्तित्व का अनिवार्य हिस्सा हो। फ्रायड तक की मान्यता यह रही है कि यदि विवादों के निपटारे के लिए राष्ट्रीय सिविल कानूनों की तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी बाध्यकारी कानून-व्यवस्था होती तो युद्धों से बचा जा सकता था।
बहुत-से लोगों का खयाल है कि अपनी आदिम स्थिति में मनुष्य अधिक हिंसक और रक्त-पिपासु था। लेकिन एरिक फ्राम जैसे मनोवैज्ञानिकों का अध्ययन इस धारणा को पूरी तरह उलट देता है। एरिक फ्राम अपने अध्ययन के उपरांत इस नतीजे पर पहुंचते लगते हैं कि जिसे हम जंगली मनुष्य कहते हैं, वह अभिधात्मक अर्थों में ही जंगली था-क्योंकि जंगल में रहता था-उन अर्थों में नही, जिनमें हम आजकल इस शब्द का लाक्षणिक प्रयोग करते हैं। उनका मानना है कि आदिम युग में भी परस्पर विवाद और कभी-कभी हिंसक द्वंद्व तो होता था, पर उसमें उस तरह की विध्वंसात्मकता नहीं होती थी, जो बाद के अधिक सभ्य कहे जाने वाले इतिहास में दिखाई देती है। जंगली युग के ये युद्ध अपेक्षाकृत कम विध्वंसात्मक और रक्त-पिपासु होते थे। यह ठीक है कि मनुष्य के सभ्य होते चले जाने के साथ-साथ युद्ध-विरोधी विचारों का वातावरण बना है और मानववादी प्रवृत्तियों का विचार के स्तर पर विकास हुआ है, लेकिन, युद्धों की संख्या, उनमें होने वाले नरसंहार की भयावहता और युद्ध के कारणों के अवसर भी अबाधित बढ़ते चले गए हैं।
एरिक फ्राम का मानना है कि जब हम मानवीय प्रवृत्ति को युद्ध के लिए जिम्मेदार मानते हैं तो, दरअस्ल, सामाजिक परिस्थिति और महत्त्वाकांक्षी व्यक्तियों और निहित स्वार्थों की अनदेखी कर रहे होते हैं। उनकी इस मान्यता को अविचारित नहीं कहा जा सकता कि अधिकतर युद्ध-महायुद्ध तक-आर्थिक स्वाथरें और हमारे उद्योगपतियों और राजनीतिक-सैनिक नेतृत्व की महत्त्वाकांक्षा की वजह से हुए हैं। स्वार्थ केवल वैयक्तिक नहीं होता-वह सामूहिक होकर एक तरह के जातीय या राष्ट्रीय अथवा किसी प्रकार की मतवादी आत्मरति में बदल जाता है। इसे ही एमएन राय सुपर ईगो कहते हैं जिसमें व्यक्ति अपनी निजी अस्मिता-और उसके साथ निजी विवेक-का विलय कर देता है और उसका अनिवार्य परिणाम होता है अपने स्वार्थों के लिए अंध आक्रामकता का विस्फोट, जो राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और सैनिकवाद के रुप में प्रकट होता है। एक प्रकार की रक्षात्मक आक्रामकता के नाम पर युद्ध की मानसिकता और तैयारी को बढ़ावा दिया जाता है। महात्मा गांधी के सत्याग्रह के शताब्दी समारोह में सोनिया गांधी तक ने आखिर यही तो कहा कि हम गांधी के सत्याग्रह को वरेण्य समझते हैं, लेकिन आणविक शस्त्रों का निर्माण आत्मरक्षा के लिए आवश्यक हो गया है। नहीं मालूम, स्वयं गांधीजी इस तर्क से कहां तक सहमत होते, जो देश की आजादी के लिए भी हिंसा के लिए तैयार नहीं थे। यह तो तय ही है कि एक बार जब हिंसा या युद्ध का तांडव शुरु हो जाता है तो हमारे सारे नैतिक मूल्य और संवेदनाएं धरी रह जाती हैं और एक उत्तेजना के प्रवाह में सब बहे चले जाते हैं।
युद्ध का अध्ययन करने वाले कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि, दरअस्ल, सभ्य होते चले जाने के साथ-साथ मानव-इतिहास में युद्धों की संख्या भी बढ़ती गई है। शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर क्यू राइट ने पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों से लेकर बीसवीं शताब्दी के मध्य तक हुए युद्धों के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए यह साबित किया है कि तकनीकी सभ्यता के विकास के साथ-साथ युद्धों की संख्या में भी वृद्धि होती गई है। उनके विश्लेषण के अनुसार सन् चौदह सौ अस्सी से चौदह सौ निन्यानबे तक नौ युद्ध हुए। सोलहवीं शताब्दी में सत्तासी, सत्रहवीं में दो सौ उनतालीस, अठारहवीं शताब्दी में सात सौ इक्यासी, उन्नीसवीं में छह सौ इक्यावन और बीसवीं शताब्दी के पहले चार दशकों में आठ सौ बानवे युद्ध हुए। अब यदि हम द्वितीय महायुद्ध के बाद हुए सैनिक संघर्षों में संगठित आतंकवादी आंदोलनों को भी शामिल कर लें-जो प्रकारांतर से युद्ध के सभी तरीकों और आयुधों का इस्तेमाल करते हैं-तो यह अंदाजा हो सकता है कि शताब्दी के बाकी वर्षों में यह संख्या कितनी बढ़ गई होगी। सवाल यह उठता है कि सभ्य कहे जाने वाले इस समाज से जंगली कहा जाने वाला समाज कितना अधिक हिंसक या युद्धप्रिय हो सकता होगा। एरिक फ्राम का कहना है कि हम अपनी सभ्यता को इस विध्वंसात्मकता का जिम्मेदार बताते हुए घबराते हैं, इसलिए उसका दोष अपनी प्रवृत्तियों पर डाल देना चाहते हैं। लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी बयान करते हैं। युद्धों की पृष्ठभूमि में तकनीकी-आर्थिक दबावों-स्वार्थों की जरुरतें अब जगजाहिर हैं।
रूसी वैज्ञानिक और शांतिवादी आंद्रे सखारोव ने शीतयुद्ध के दौर में एक पुस्तक लिखी थी-प्रोग्रेस, को-एक्जिस्टेंस एंड इंटेलेक्चुअल फ्रीडम। सखारोव को रूसी हाइड्रोजन-बम का पिता कहा जाता है। उन्होंने शांति और मनुष्य-जाति के अस्तित्व के लिए जो खतरे बताए थे, उनमें आणविक युद्ध के साथ-साथ व्यापक भुखमरी, मास-कल्चर के उन्माद की जड़ता, संगठित मतवादिता और पृथ्वी पर जीवन की परिस्थिति में हो रहे तेज परिवर्तनों को भी शामिल किया था। इन सब खतरों को बढ़ाते चले जाने में तीव्र गति से हो रहा तकनीकी विकास क्या भूमिका निभाता रहा है, यह अब गोपनीय नहीं रह गया है। दरअस्ल, तकनीकी और निहित स्वार्थों के रिश्ते को हम अकसर भूल जाते हैं। हम यह भी भूल जाते हैं कि अब तकनीकी का विकास किसी सत्य की तलाश के लिए नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की जरुरतों के चलते हो रहा है। तकनीकी आविष्कारों के लिए जो बड़ी धन-राशियां जरूरी होती है, वे बड़े बहुराष्ट्रीय उद्योगों द्वारा मुहैया कराई जाती है और उनसे मिलने वाला अनुदान ही तकनीकी के विकास की दिशा और दशा का निर्धारण करता है।
यह तकनीकी विकास छोटे स्तर पर वैयक्तिक वैशिष्ट्य को निरुत्साहित करता और समाज को एक सामूहिक उन्माद की मनोदशा में लाना चाहता है, क्योंकि इसी में बहुराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का मुनाफा छिपा है। हमारी संचार-तकनीकी इसमें इस बहुराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की पूरी मदद करती है क्योंकि वह भी अपने अस्तित्व के लिए उसी पर निर्भर है। इसलिए बिजली-पानी की मांग कर रहे या आत्महत्या करने वाले किसानों के दुःख दर्द से बड़ी खबर अभिषेक-ऐश्वर्या की सगाई की संभावना या उनका अपने ग्रह-दोष निवारण के उपाय करने के लिए मंदिरों में जाना और अनुष्ठान करना हो जाता है। यह मास-कल्चर के उन्माद की जड़ता का ही एक रुप है। लेकिन दुनिया की बड़ी जनसंख्या की भुखमरी, कुपोषण और शुद्ध-पेयजल तो क्या शौच-स्थान तक न मिल पाना इस संस्कृति की चिंता के विषय नहीं है। यह एक दूसरे प्रकार की विध्वंसात्मकता या हिंसा है, जिसमें हम निजी ग्लानि के भाव से भी बचे रहते हैं। तो क्या सभ्यता का विकास इसमें है कि हम न केवल सूक्ष्म स्तर पर अधिक हिंसक हो जाएं, बल्कि उसके अपराध-बोध से भी बचे रहें?
- नंदकिशोर आचार्य
रमण महर्षि : भगवान रमण महर्षि आधुनिक भारत के ऐसे महान आध्यात्मिक गुरु हैं जिन्होंने प्राचीन शैव एवं उपनिषदीय अध्यात्म तत्त्वों को आज की मानव राशि के लिए बहुत ही सरल ढंग से समझाया। रमण महर्षि का जन्म दक्षिण तमिलनाडू में कौंडिन्य नदी के किनारे स्थिति तिरुच्चुषी नामक जगह पर 30 दिसंबर 1879 ई० को हुआ। उनके पिताजी सुंदर अय्यर वहां के एक स्थानीय वकील थे और उनकी माता अलगम्माल एक आदर्श नारी थीं। जब वे बारह साल के थे, तब उनके पिताजी की मृत्यु हुई, इसलिए वे मदुरै में अपने चाचाजी के घर में रहकर वहां के अमेरिकन मिशन हाइस्कूल में पढ़ने लगे। उन दिनों उन्होंने तिरुअण्णामलै के प्रसिद्ध अरुणाचलेश्वर मंदिर के बारे में अपने एक रिश्तेदार से सुना। तमिल शैव संतों का चरित ग्रंथ पेरियपुराणं को पढ़ने का अवसर भी उन्हें मिला। एक दिन जब वे मदुरै में अपने चाचाजी के घर के एक कमरे में बैठे थे, तभी अकस्मात् उनको मृत्यु का विकराल भय हुआ। सांस रोककर शव की तरह लेटे रहने पर उनको अनुभव हुआ कि जो मरता है, वह तो यह शरीर है। लेकिन जो आत्म चैतन्य है, वह तो मरता नहीं है। यही उनका आत्मसाक्षात्कार या ईश्वर से एक होने का अनुभव था। मृत्यु भय से वे तुरंत मुक्त हो गए, लेकिन इस घटना ने उनके पूरे जीवन को ही बदल दिया। अपने आत्मानुभव के करीब दो महीने बाद 29 अगस्त 1896 ई० को वे घर छोड़कर तिरु अण्णामलै के मंदिर में स्थित अरुणाचलेश्वर शिव को अपना पिता मानकर वहीं के लिए निकल पड़े। पहली सितंबर को वे तिरु अण्णामलै रेल्वे स्टेशन पहुंचे और वहां से पैदल अरुणाचल मंदिर में पहुंच गए। अरुणाचल पर्वत पर रहते हुए उन्होंने कई वर्षों तक साधना की और शिष्य पलनीस्वामी द्वारा तमिल, संस्कृत और मलयालम के जो वेदांत ग्रंथ लाए जाते थे, उनका भी अध्ययन किया। भक्तों के अनुरोध पर शंकराचार्य की विवेकचूडामणि, देवीकलोत्तरा, सर्वज्ञानोत्तरा, दक्षिणामूर्ति स्तोत्र, हस्तामलक स्तोत्र आदि का तमिल में सरल अनुवाद किया। इसी गुफा में बैठते समय गंभीर शेषय्या और शिवप्रकाशं पिल्लै नामक दो भक्तों ने उनसे जो प्रश्न किए, उनके उत्तर में आत्मान्वेषण, मैं कौन हूं, जैसी उनकी दार्शनिक रचनाएं प्रकाशित हुईं। उन दिनों वे मौन रहते थे, अपने भक्तों के लिए उन्होंने लिखित उत्तर दिया था। सन् 1908 ई० में गणपति शास्त्री नामक एक संस्कृत विद्वान और कवि ने उनसे जो संवाद किया, उसके आधार पर संस्कृत में रमणगीता नामक लघु प्रश्नोत्तर ग्रंथ रचा गया जिसमें सूत्र रूप में भगवान के दार्शनिक विचार दिए गए हैं। गणपति शास्त्री काव्यकंठ गणपति मुनि नाम से विख्यात हुए। उन्होंने ही रमण महर्षि का मूल नाम वेंकटरमण बदलकर भगवान रमण महर्षि रख दिया था। 1949 ई० में उनके हाथ की कुहनी पर जो फोड़ा निकल आया उसका आपरेशन दो बार हुआ। लेकिन वह फिर से निकल आया और कैंसर निकला। डॉक्टरों ने प्रयत्न के बावजूद वह खतरनाक साबित हुआ। लेकिन महर्षि पर इसका कोई असर नहीं हुआ यद्यपि थकावट थी। वे सब को प्रसन्नचित्त रहकर दर्शन देते रहे क्योंकि वे शरीर के बोध से परे थे। 14 अप्रैल 1950 ई० को उनके भौतिक शरीर का अस्तित्व समाप्त हुआ। मां की समाधि के बगल में उनकी समाधि बनी है जो रमणाश्रम के अंदर आज आराधना का मंदिर बन गया है।
जब भगवान रमण महर्षि पहाड़ की गुफाओं में जीवन बिताते थे, पूरा पहाड़, पेड़-पौधे, जंगली जीव-जंतु, पक्षी, तथा नीचे के स्थानीय जनों से उनका आत्मीय संबंध बन गया था। अरुणाचल पहाड़ पर उन्होंने अपने जीवन के पचास से अधिक वर्ष बिताए थे। उनके अनुसार हिमालय में कैलास तो शिव का निवास स्थान है, लेकिन अरुणाचल पहाड़ तो स्वयं शिवरूप है। पुराणों के अनुसार जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच तर्क हुआ था, तब शिव एक महाज्योति के रूप में यहां प्रकट हुए। बाद में दोनों की प्रार्थना पर स्वयं पर्वत रूप में शिव ने यहां अवतार लिया, ऐसी मिथकीय कथा है। इस कारण इस गिरि को अत्यंत पवित्र माना जाता है और हर साल कार्तिक के महीने में पहाड़ के शिखर पर कार्तिक दीप जलाया जाता है। यह एक जन-उत्सव है जिसमें पहाड़ की परिक्रमा प्रमुख है। रमण महर्षि भी सन् 1900 ई० से लेकर 1926 ई० तक भक्त मंडली के साथ पर्वत की परिक्रमा करते थे। बाद में बड़ी भीड़ होने लगी तो उन्होंने यह कार्य भक्तों पर छोड़ दिया। इस पहाड़ के एक-एक खंड, गुफाएं, नाले, झरने, पहाड़ी रास्ते और इसके जंगली जानवरों से वे सुपरिचित थे। अपनी परिक्रमा में एक बार उन्होंने एक सौ आठ पद्यों में अरुणाचल की महिमा गाई। उनके अनुसार विष्णु अहं रूप हैं और ब्रह्मा बुद्धि हैं जो बाहरी तत्त्वों को लेकर तर्क कर रहे हैं जबकि अरुणाचल रूपी सृष्टि के आध्यात्मिक हृदय में शिव की ज्योति प्रकट होती है। यहां पर शिव दक्षिणामूर्ति के रूप में मौन के माध्यम से ज्ञान-दीक्षा दे रहे हैं। ऐसा लगता है कि पूरे पहाड़ पर वह मौन चेतना व्याप्त है। महर्षि मौन की इस भाषा को समझते थे, इसके कई उदाहरण हैं। विरूपाक्ष गुफा के पास बाघ और चीते पानी पीने के लिए आते थे और उनकी ओर देख भगवान मुस्कुराते थे। लोग डर के मार बाजे आदि ले आए तो रमण महर्षि ने यह कहकर उनको मना किया था कि ये जानवर किसी को तंग नहीं करते। यह तो इनका घर है जहां हम आए हैं। उग्र सर्प कभी-कभी उनके शरीर और पाद से लोट-पोट जाते थे। महर्षि के समय में पहाड़ पर वानरों के कई समूह रहते थे। ये बंदर भी भगवान के मित्र थे और इनके बीच झगड़े को भगवान निपटाते थे। एक बार बंदरों ने एक छोटे बंदर को काटकर दंड दिया। भगवान ने उसकी सेवा सुश्रूषा की, वह उनकी गोद में बैठता था। अक्सर मानवों से संपर्क रखने वाले बंदरों को वानरसमूह अपनाते नहीं, लेकिन इस छोटे बंदर को वानर उठा ले गए और बाद में वह उनका नेता या राजा बन गया। एक बार किसी ने पत्थर मारकर एक बंदर को मारा तो मरे बंदर को लेकर भगवान से शिकायत करने अन्य बंदर पहुंचे। महर्षि ने उन्हें तसल्ली देकर भेज दिया। अनेक मोर, गिलहरी आदि भगवान के मित्र थे। गाय लक्ष्मी की कहानी तो प्रसिद्ध है। वह बछड़े के रूप में भगवान से मिलने ऊपर स्कंदाश्रम जाती थी। बाद में वह आश्रम की अंतेवासी बन गई। कुत्ते, नेवले आदि की तो कई कहानियां हैं। किसी जीव, कीड़ा, पक्षी, पेड़ इत्यादि को हानि न पहुंचाने वाला ही ज्ञानी व्यक्ति है, ऐसा रमण का कथन है। इसलिए उन्होंने क्रोध से किसी जीव-जंतु, वृक्ष, पत्ता, फूल आदि को हानि पहुंचाने से विरत होने की शिक्षा दी है। पेड़-पौधों को काटना, यहां तक कि नारियल तोड़ने के लिए तेज दरांती का इस्तेमाल करना, पूजा के लिए ज्यादा मात्रा में विल्व पत्र तोड़ना आदि भगवान को पसंद नहीं था। उनके अनुसार इन सब हिंसात्मक वृत्तियों से पेड़-पौधों को कष्ट पहुंचता है। लगता है कि पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की आत्मा से भगवान मौन संवाद करते थे, पहाड़, प्रकृति, जीव-जंतु सबकी मौन भाषा को वे समझते थे। जो चोर-डाकू उन्हें मारना चाहते थे, महर्षि की अहिंसक वृत्ति को समझकर वे उससे विरत हुए थे। जब चोरों ने एकबार आश्रमवासियों की पिटाई की तब एक अंतेवासी ने लोह दंड उठाया तो भगवान ने उसे मना किया। अक्सर महर्षि बोलते नहीं थे, लेकिन उनकी आंखों से होकर करुणा की धारा मौन भाषा के रूप में बहती थी। रमणाश्रम में कोई भी भक्त या प्रिय जानवर किसी भी समय उनके पास जाने के लिए स्वतंत्र था। वृक्षों को वे स्थिर खड़े मानव कहते थे, वृक्षों को कोई घाव करे तो उनको बहुत दर्द होता था और वे भरसक उसे रोकते थे। वे क्रोध से नहीं बल्कि मुस्कुराहट से ही किसी की गलती को ठीक करते थे। अरुणाचल पर्वत के रूप में मौन दीक्षा देने वाले शिव या दक्षिणामूर्ति स्वयं पर्वत रूप हैं, ऐसा माना गया। रमण महर्षि और अरुणाचल के तादाम्य से मौन के इस दर्शन का आधार बनता है। उनके अनुसार मौन का प्रभाव शब्द से बढ़कर है। महर्षि का मौन धारण किए बैठने पर भी उनकी प्रेमपूर्व उपस्थिति एवं दर्शन मात्र से ही दुःखी प्राणियों को शांति एवं जीवन का सहारा मिलता था।
रमण महर्षि के अनुसार मनुष्य की वास्तविक प्रकृति आनंद रूप है। यह उसकी आत्म चेतना में अवस्थित है। सुख के लिए मानव की जो तलाश है, वह अनजाने में इस आत्मानुसंधान का ही प्रयास है। महर्षि के अनुसार मैं कौन हूं, यह प्रश्न और उसके उत्तर आत्मज्ञान प्राप्त करने का सरल उपाय है। मैं कौन हूं यह प्रश्न पूछने पर उत्तर मिलेगा कि सप्त धातुओं से बनी स्थूल देह मैं नहीं हूं। इसी तरह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के इंद्रिय विषय और ज्ञानेंद्रिय, कर्मेंद्रिय आदि मैं नहीं हूं। प्राण आदि भी मैं नहीं हूं। संकल्प करने वाला मन भी मैं नहीं हूं। उपर्युक्त समस्त मैं नही हूं, मैं नहीं हूं यों नेति नेति कर अवशिष्ट रहने वाला आत्म चैतन्य ही मैं हूं, यह निष्कर्ष निकलेगा। चैतन्य का स्वरूप सच्चिदानंद है। मन आत्म स्वरूप में रहने वाली अद्भुत शक्ति है। वह सकल विचारों को उत्पन्न करती है, समस्त विचारों को दूर करने पर मन जैसी कोई वस्तु पृथक नहीं रहती। मैं विचार प्रथमतः कहां से उदित होता है, यह विचारने पर विदित होगा कि वह हृदय से उदित होता है। वही मन का उद्गम स्थान है। मैं, मैं का चिंतन करते रहने पर यह अपने मूल स्वरूप या आत्मा में पहुंचा देगा। मैं कौन हूं विचारणा से मन निरुद्ध होता है। मैं कौन हूं विचार महर्षि के अनुसार सकल विचारों का नाश कर शव को जलाने वाली लाठी जैसे स्वयं भी विनष्ट हो जाएगा। अन्य विचार उठे तो सोचना चाहिए कि ये विचार कैसे उठे? इस तरह मन अंतर्मुख हो जाएगा। एक मात्र आत्मा का ही अस्तित्व है, यह इस विश्लेषण से सिद्ध होगा। अंत में आत्म स्वरूप ही जगत् है, आत्म स्वरूप ही जीव (मैं) है, आत्मस्वरूप ही ईश्वर है, सब कुछ शिवस्वरूप ही है यह परम अनुभूति होगी। प्राणायाम, ध्यान, जप और आहार नियम मनो-निरोध में सहायक हैं। आत्म विचार या आत्मान्वेषण की प्रक्रिया में भक्ति एवं ज्ञान का समान महत्त्व सिद्ध होगा। श्री रमण महर्षि के अनुसार भक्ति एवं ज्ञान दो अलग-अलग मार्ग नहीं है। आत्मा में अखंड, अटूट रूप से अवस्थित रहना ज्ञान है, आत्मा में अवस्थित रहने के लिए आत्मा से प्रेम आवश्यक है, चूंकि ईश्वर स्वयं ही आत्मा है, आत्मा के प्रति जो प्रेम है, वही ईश्वर के प्रति प्रेम है और वही भक्ति है। इस तरह ज्ञान और भक्ति दोनों एक ही साबित होते हैं। रमण महर्षि के अनुसार आत्मा, ईश्वर और गुरु के प्रति समर्पण एक ही सिद्ध होता है।
- प्रो० जी० गोपीनाथन
रशेल्स, जेम्स : पशु-अधिकार के समर्थक विचारकों में प्रसिद्ध अमरीकी नीतिशास्त्री जेम्स रशेल्स (1941-2003 ई०) को पीटर सिंगर, टॉम रीगन और स्टीवन एम० वाइज के साथ रखकर देखा जाता है। उन्हें बड़ी हद तक पीटर सिंगर से प्रभावित भी माना जाता है। अपनी नीति-मीमांसा में रशेल्स ने शाकाहार, पशु-अधिकारों तथा युथनेसिया (सुख-मृत्यु) के सवालों पर गहराई से विचार किया है। उनकी पुस्तकों में दि एलीमेंट्स ऑफ मोरल फिलॉसफि; मोरल प्राब्लम्स, दि एक्टिव एंड पैसिव युथनेसिया, दि एंड ऑफ लाइफ तथा क्रिऐटेड फ्रॉम एनिमल्स; दि मोरल इंप्लिकेशंस ऑफ डार्विनिज्म को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
पशु-अधिकारों पर विचार करते हुए रशेल्स का तर्क है कि सभी प्रजातियों के प्राणियों को अपनी-अपनी चारित्रिकता के अनुसार विकसित होने के अवसर मिलने चाहिए। उनकी चारित्रकता भिन्न हो सकती है-जैसे कि मनुष्य भाषा का इस्तेमाल कर सकता है और पशु नहीं कर सकते अथवा मनुष्य को नौकरी, व्यवसाय या अपने जीवन के बारे में सोचने की योग्यता मिली है, जो पशु में नहीें है। स्पष्ट है कि मनुष्य के अधिकारों में शिक्षा, व्यवसाय या राजनैतिक-सामाजिक जीवन में भाग लेने और स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अवसरों को शामिल करना जरूरी होगा, जबकि पशुओं के लिए इन अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं होगा। लेकिन, बहुत-सी बातों में मनुष्य और पशु की चारित्रिकता समान है। दोनों का जीवन उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। दोनों को पीड़ा और सुख का अनुभव होता है। इसलिए मनुष्यों की तरह ही पशुओं को यंत्रणा, शोषण और शारीरिक क्षति से बचाव तथा भोजन, निवास और स्वास्थ्य का अधिकार होना चाहिए।
रशेल भी यह तो मानते हैं कि विभिन्न पशु-जातियों और मनुष्यों के जीवन की गुणवत्ता भिन्न है, इसलिए उनके प्रति व्यवहार में अथवा किन्हीं दो के बीच चयन की अनिवार्यता होने पर इस गुणवत्ता के आधार पर निर्णय लिया जाना उचित होगा। एक मच्छर या मक्खी से एक चिड़िया या बंदर के जीवन की गुणवत्ता अधिक है, अतः दोनों के बीच चयन का सवाल प्रस्तुत होने पर चिड़िया या बंदर के पक्ष में निर्णय लिया जा सकता है; इसी प्रकार, चयन की अनिवार्यता होने पर पशु के मुकाबले मनुष्य के पक्ष में भी। लेकिन मनुष्य को पशु को अपना साधन समझकर उसके प्रति क्रूर व्यवहार का अधिकार नहीं दिया जा सकता। शिकार, मांसाहार, चिकित्सकीय प्रयोगों के लिए पशु-यंत्रणा आदि का रशेल्स इसीलिए विरोध करते हैं-यद्यपि वह यह मानते हैं कि पशु-हिंसा को संभवतः संपूर्णतया बंद नहीं किया जा सकता। लेकिन सिंगर से सहमत होते हुए रशेल्स भी एक मंदबुद्धि बच्चे के मुकाबले एक सामान्य चिंपाजी के जीवन को वरीयता देते हैं। तात्पर्य यह है कि किसी संकट की परिस्थिति में न होने पर पशुओं को भी शारीरिक अक्षतता और स्वास्थ्य का अधिकार मिलना चाहिए। इस आधार पर मांसाहार और वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए पशु-हत्या और यंत्रणा को रशेल्स अनुचित ठहराते हैं।
रशेल्स ने युथनेसिया (सुख-मृत्यु) के सवाल पर भी गहराई से विचार किया है। उनका मत है कि कानून में निष्क्रिय युथनेसिया और सक्रिय युथनेसिया में जो अंतर किया जाता है, उसका कोई तर्कसम्मत आधार नहीं है। रशेल्स का कहना है कि निष्क्रिय युथनेसिया का आधार यही है कि रोगी को न बचाए जाने की स्थिति में उपचार बंद कर उसे मरने दिया जाए। लेकिन इससे पीड़ा बढ़ भी सकती है और कभी-कभी मृत्यु में विलंब भी हो सकता है। जब हम यह मान लेते हैं कि बीमारी का उपचार नहीं हो सकता और पीड़ा को भी कम नहीं किया जा सकता तो सक्रिय युथनेसिया की प्रक्रिया न अपनाने का कोई तर्कसम्मत कारण नहीं है, जबकि वह पीड़ा को तत्काल समाप्त कर सकती है। इस दृष्टि से रशेल्स को निष्क्रिय युथनेसिया की तुलना में सक्रिय युथनेसिया अधिक नैतिक लगता है।
द्रष्टव्य : पशु-मुक्ति; टॉम रीगन; स्टीवन एम० वाइज; जीवन-त्याग।
- नंदकिशोर आचार्य
रसेल, बर्ट्रेंड : सभी दार्शनिक प्रयासों का एक उद्देश्य दृष्ट व्यवस्था के पीछे काम करने वाली शक्ति का अनुसंधान रहा है और यह उद्देश्य इस प्रतिज्ञा पर आधारित है कि पूरा विश्व एक इकाई है, जो निश्चित नियमों के अनुसार आपस में संबद्ध है। कुछ दार्शनिकों ने इन नियमों के नियंता के रूप में किसी वैयक्तिक ईश्वर या निवैयक्तिक चेतना की कल्पना की, तो कुछ ने इसे केवल स्वायत्त प्राकृतिक नियमों से संचालित माना। लेकिन, बीसवीं सदी में एक ऐसी दार्शनिक धारा का विकास हुआ, जिसने इस विश्व को स्वायत्त और यथार्थ मानते हुए भी इसमें किसी निश्चित योजना के अस्तित्व से इनकार किया। यह एक तरह का नव-यथार्थवाद था, जिसे आगे चलकर तर्कनिष्ठ अनुभववाद का नाम दिया गया और इसी में से तर्कनिष्ठ भाववाद का विकास संभव हो सका। जी. ई. मूर और बाद में विट्गेंस्टाइन, ए. जे. एयर और कार्नेप आदि विचारकों द्वारा विकसित इस दार्शनिक प्रवृत्ति का प्रारंभिक व्यवस्थित रूप हमें ब्रिटिश दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल में प्राप्त होता है-यद्यपि तर्कनिष्ठ अनुभववाद का दर्शन प्रतिपादित करने वाले 1918 ई० में लंदन में दिए गए अपने आठ व्याख्यानों में रसेल ने यह स्वीकार किया था कि इन विचारों का स्रोत अपने शिष्य विट्गेंस्टाइन के साथ उनका विचार-विमर्श रहा है। विट्गेंस्टाइन का बहुचर्चित ग्रंथ ट्रेक्टाटस लॉजिको-फिलॉसिफिक्स इन्हीं विचारों को कुछ बारीक मतभेदों के साथ प्रस्तुत करता है। इस ग्रंथ की भूमिका स्वयं बर्ट्रेंड रसेल ने लिखी। विट्गेंस्टाइन के विचारों को समझने के लिए यह भूमिका बहुत उपयोगी है। यहां यह ध्यातव्य है कि विट्गेंस्टाइन के अपने विचारों में आगे जाकर बहुत परिवर्तन हुआ और उन्होंने फिलॉसोफिकल इनवेस्टिगेशन नामक एक और ग्रंथ लिखा, जिसके आधार पर तर्कनिष्ठ भाववाद का विकास हुआ।
रसेल की बुनियादी मान्यता यह थी कि विश्व में तथ्यों का स्वतंत्र अस्तित्व है और वे आपस में एक-दूसरे से संबंधित नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, विभिन्न घटनाएं या यह विश्व एक इकाई नहीं है और हम अपने स्वभाव और संस्कारों की वजह से उन्हें एक इकाई या संबंधाश्रित व्यवस्था के रूप में देखते हैं। स्वयं बर्ट्रेंड रसेल के शब्दों में, पार्मेनाइडीज के जमाने से लेकर आज तक विद्वान् दार्शनिक लोग यह विश्वास करते रहे कि संसार एक है। मेरे बौद्धिक विश्वासों में से सर्वाधिक आधारभूत विश्वास यह है कि यह मान्यता थोथी और अर्थहीन है, मेरे विचार से यह विश्व विशृंखल है, इसमें कोई एकता नहीं है, कोई निरंतरता नहीं है, कोई संबद्धता और व्यवस्था अथवा ऐसा कोई अन्य गुण नहीं है, जिसे अध्यापिकाएं बहुत पसंद करती हैं। सच तो यह है कि पूर्वग्रह और आदत को छोड़कर और शायद कुछ भी ऐसा नहीं है, जो इस दृष्टिकोण के पक्ष में प्रस्तुत किया जा सके कि संसार नाम की कोई चीज है भी।......व्यवस्था, एकता और निरंतरता तो मनुष्य के आविष्कार हैं, ठीक वैसे ही, जैसे सूचीपत्र और विश्वकोश मनुष्य के आविष्कार हैं। किंतु मानव-अधिकार कुछ निश्चित सीमाओं के भीतर मानव-संसार में प्रचलित और प्रभावी बनाए जा सकते हैं, और अपने दैनिक जीवन के संचालन में हम नितांत अव्यवस्थापूर्ण अंधेरी रात की कालिमा को भूल सकते हैं, जो शायद चारों ओर से हमें घेरे हुए है......और इसमें हमें लाभ ही होगा।
स्पष्ट है कि रसेल की मान्यता के अनुसार यह विश्व असंबद्ध होते हुए भी यथार्थ है-इसमें संबद्धता मानव चेतना की आदत और पूर्वग्रह की वजह से है। इसलिए यथार्थ केवल वस्तुगत नहीं है, वह मनोवैज्ञानिक भी है। वस्तुओं के संबंधों और विशेषताओं को हम किसी प्राकृतिक विज्ञान में नहीं, बल्कि अपने तर्काश्रित विश्लेषण के द्वारा जानते हैं और हमारा विश्लेषण हमारी आदतों या पूर्वग्रहों के अनुसार होता है, इसलिए वस्तुओं के संबंधों के बारे में हमारा ज्ञान हमारी मनःस्थिति के आधार पर निर्मित तर्कमूलक रचना है। इसी कारण यथार्थ वस्तुगत भी है और मनोगत भी।
लेकिन, यदि यह मान लिया जाए कि विश्व असंबद्ध और अव्यवस्थित है और उसमें सारी व्यवस्था हमारा पूर्वग्रह है तो ईश्वर, परमचेतना या वैश्विक व्यवस्था में किसी योजना की उपस्थिति आदि बातें भी हमारी आदत या पूर्वग्रह हो जाती हैं-यहां तक कि हमारे आचरण के नियम भी। तब मानवीय व्यवहार का आदर्श क्या हो? क्या ऐसे कोई मूल्य नहीं हैं, जिन्हें हम अपने आचरण की कसौटी के रूप में स्वीकार कर सकें?
रसेल का विचार था कि बहुत-सी सामाजिक संस्थाएं या नैतिक मानदंड हमारे पूर्वग्रहों और आदतों का ही परिणाम है और उनमें वस्तुतः ऐसा कुछ नहीं है, जिसे हम पवित्र मान सकें। इसी कारण रसेल मानवीय स्वातंत्र्य के जबरदस्त समर्थक थे। यदि हम किसी भी बात को अंतिम और एकमात्र सत्य की तरह प्रस्तुत नहीं कर सकें, तो मनुष्य के लिए प्रयोगों और गलतियों के माध्यम से निरंतर सीखना और विकसित होते रहना ही एकमात्र रास्ता है। यह रास्ता स्वतंत्र विचारों और बहस के बिना बंद हो जाता है। इसलिए पहली आवश्यकता व्यक्तियों, परिवारों और सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था में स्वतंत्र बहस को प्रोत्साहन देना है। घृणा और युद्ध विचारों की जड़ता से पैदा होते हैं। रसेल इसीलिए उन सारी धार्मिक-सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्थाओं का विरोध करते हैं, जो स्वतंत्र विचार-विमर्श और लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन करती हैं। शायद यही कारण रहा कि रसेल ने एक ओर मार्क्सवाद की राजनीतिक प्रक्रिया को स्वीकार नहीं किया, तो दूसरी और ईसाइयत में भी उन्हें नैतिक नियमों के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार्य नहीं हुआ। साम्यवादी राजनीति का विरोध करने के कारण कुछ लोग रसेल को पूंजीवाद का समर्थक मान सकते हैं। लेकिन, संपत्ति के संबंध में रसेल के विचार बहुत क्रांतिकारी थे। उनकी मान्यता थी कि संपत्ति का उत्स हिंसा और चोरी में है। जिस आर्थिक कार्य-व्यापार का उद्देश्य समुदाय का हित नहीं है और जो व्यक्तिगत मुनाफाखोरी पर आधारित है, वह हिंसा और लूट है। इस तरह की लूट में प्राप्त व्यक्तिगत संपत्ति को यदि राज्य सुरक्षा प्रदान करता है और लूट को विधिसंपन्न बना देता है, तो वह राज्य एक महान् बुराई है। इसलिए इस तरह के राज्य की शक्ति को कमजोर करने के लिए अधिकांश आर्थिक कार्य-व्यापार सहकारिता के आधार पर किए जाने चाहिए। रसेल के सामाजिक नैतिकता संबंधी विचार भी विवाद और आलोचना के केंद्र बने। रसेल का मानना था कि विवाह संस्था में पवित्रता जैसी कोई बात नहीं है और एक सामाजिक आदत के रूप में ही हम इसके अभ्यस्त हो गए हैं। वह विवाह किये बिना भी स्त्री-पुरुष के साथ रहने के समर्थक थे-यद्यपि इस तरह के संबंधों में वह संतानोत्पति की अनुमति नहीं देते। इसी तरह यदा-कदा विवाहेतर यौन-संबंधों में भी रसेल को कोई आपत्ति नहीं थी।
रसेल क्योंकि मानवीय आदतों और पूर्वग्रहों को सभी संस्थाओं का आधार मानते थे, अतः स्वाभाविक था कि सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन करने या उन्हें गतिशील बनाने के लिए वे आदतों और पूर्वग्रहों से मुक्त होने पर जोर देते। यह काम शिक्षा के माध्यम से ही संभव है। रसेल शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य शिक्षार्थी में वैज्ञानिक चिंतन का विकास मानते थे, जिससे वह अपने पूर्वग्रहों से मुक्त होकर स्वतंत्र चिंतन कर सके। साम्यवादी व्यवस्था के आर्थिक उद्देश्यों से सहमत होते हुए भी रसेल इसी कारण उसकी प्रक्रिया से सहमत नहीं हो पाए कि उसमें स्वतंत्र चिंतन और विचार-विमर्श का दमन किया जाता है। रसेल का विचार था कि यदि मानव-जाति को हिंसा और लोभ से मुक्त करना है-क्योंकि यही दो अधिकांश बुराइयों के मूल में हैं-तो हमें अपने विशाल शिक्षा-संस्थान-स्कूलों और विश्वविद्यालयों-के ढांचे और शिक्षा-प्रक्रिया में बुनियादी परिवर्तन करने होंगे। क्रांति किसी हिंसक प्रक्रिया या कागजी कानूनों के जरिये नहीं लायी जा सकती। उसके लिए हमारी आदतों और पूर्वग्रहों से मुक्ति आवश्यक है और उसका सर्वाधिक श्रेष्ठ माध्यम शिक्षा ही हो सकती है, बशर्ते कि हम शिक्षा को केवल औपचारिक और सूचनात्मक ही न बना दें। जिस तरह मनुष्य ने दूसरों को नियंत्रित करना सीखा है, उसी तरह वह अपने को नियंत्रित करना सीख जाए तो दुनिया की अधिकांश सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। यह कार्य शिक्षा से ही हो सकता है, लेकिन तभी, जब हम केवल पाठ्यक्रमों में ही नहीं, अपने पारिवारिक और सामाजिक वातावरण में भी इस संकल्प को वरीयता दें।
रसेल के विचारों की सद्भावना को स्वीकार करते हुए भी यह स्पष्ट है कि मनुष्य के नैतिक आचरण को वह कोई दार्शनिक आधार नहीं देते। समूचे विश्व में संबद्धता का अभाव देखने के कारण मनुष्य और मनष्य की संबद्धता भी आवश्यकतापरक ही रहती है, वह कोई तात्त्विक आधार नहीं ग्रहण करती। अगर पूरा विश्व एक नहीं है और उसमें कोई निरंतरता नहीं है, तो कोई भी मनुष्य क्यों अपने को उसके साथ जुड़ा महसूस करे और उसके कल्याण के लिए दत्तचित्त हो? फिर भी इसमें संदेह नहीं कि रसेल इस शताब्दी के उन चिंतकों में हैं, जिन्होंने मानवीय स्वातंत्र्य को गरिमा दी और किसी भी प्रकार की असहिष्णुता, हिंसा, शोषण और दमन के बरअक्स प्रेम, शांति, सहिष्णुता और वास्तविक लोकतंत्र को प्रतिष्ठित करने में अविस्मरणीय भूमिका निभाई।
- नंदकिशोर आचार्य
रस्किन, जॉन : महात्मा गांधी पर जिन पश्चिमी विचारकों का गहरा प्रभाव माना जाता है, उनमें थोरो और तोलस्तोय के साथ अंग्रेज विचारक जॉन रस्किन (1819-1900 ई०) भी महत्त्वपूर्ण हैं। उनकी पुस्तक अनटु दिस लास्ट उन्होंने अक्टूबर 1904 ई० में अपनी एक डरबन-यात्रा के दौरान रात भर में पढ़ डाली थी। उन्हें यह पुस्तक हेनरी पोलक द्वारा पढ़ने के लिए दी गई थी। लेकिन, जब महात्मा गांधी ने पढ़ना शुरू किया तो उसे पूरी किए बिना सो नहीं पाए। अनतंर स्वयं उन्होंने इस पुस्तक का गुजराती में सर्वोदय शीर्षक से अनुवाद किया।
लेकिन, मूलतः, जॉन रस्किन सामाजिक-राजनीतिक विचारक नहीं थे। उनकी प्रारंभिक रुचि कविता और कला-मीमांसा में थी और अंग्रेजी के प्रारंभिक कला-मीमांसकों में उन्हें श्रेष्ठतम माना जा सकता है। स्थापत्य, चित्रकला और काव्य आदि में उनका अध्ययन बहुत अंतर्दृष्टिपूर्ण है। दरअस्ल, उनकी लेखकीय यात्रा को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। 1810 ई० तक उनका लेखन कला और साहित्य से संबंधित है और उसके बाद उनका ध्यान आर्थिक-राजनीतिक सवालों की ओर अधिक है। लेकिन इन दोनों चरणों के बीच एक अंतस्सूत्र खोजा जा सकता है-ठीक वैसे ही जैसे तोलस्तोय के रचनात्मक साहित्य और उनके वैचारिक लेखन के बीच।
एक कला-मीमांसक के रूप में रस्किन कला को आध्यात्मिक अनुभूति के एक माध्यम के रूप में देखते हैं। उनके लिए कला का मूल प्रयोजन आध्यात्मिक है और कला को धर्म और नैतिकता से विलग करके नहीं देखा जा सकता। अपनी एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक दि सेवन लैंप्स ऑफ आर्किटेक्चर में रस्किन प्रतिपादित करते हैं कि महान कला सत्य, त्याग आदि धार्मिक-नैतिक सिद्धांतों की अभिव्यंजना है।
लेकिन औद्योगीकरण, उससे उत्पन्न पूंजीवाद और दोनों के परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक, बौद्धिक, नैतिक और भावात्मक गंदगी फैलती गई है, जिसके कारण वह उस सौंदर्य के अनुभवन में असमर्थ है, जो कला का प्रयोजन है तथा यह समझ केवल कला-मीमांसा द्वारा नहीं विकसित की जा सकती। सामाजिक परिवेश के भी इस आध्यात्मिक सौंदर्यानुभूति के अनुकूल होने पर ही यह संभव है। इसलिए रस्किन का ध्यान कला-मीमांसा के बजाय राजनीतिक अर्थशास्त्र से संबंधित सवालों की ओर अधिक जाने लगा और न केवल अपने लेखन बल्कि तोलस्तोय की ही भांति अपनी संपत्ति के सामाजिक कार्यों में उपयोग के माध्यम से उन्होंने कुछ प्रयोग भी किए, जो तात्कालिक रूप से तो सफल नहीं हुए-लेकिन, बाद के चिंतन और संबंधित गतिविधियों पर उनका गहरा असर पड़ा।
रस्किन की जिन किताबों का इस सिलसिले में विशेष जिक्र किया जा सकता है, उनमें अनटु दिस लास्ट के साथ उनकी एक और बहुपठित पुस्तक सीसेम एंड लिलीज तथा दि क्राउन ऑफ वाइल्ड ओलिव, एथिक्स ऑफ डस्ट, टाइम एंड टाइड आदि का उल्लेख किया जा सकता है। अनटु दिस लास्ट तथा राजनैतिक अर्थशास्त्र से संबंधित अपने लेखन में रस्किन इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि अर्थशास्त्र संबंधी चिंतन में एक मूलभूत खामी यह रही है कि वह मनुष्य के जीवन के वास्तविक प्रयोजन को भूल जाने के कारण उसके आलोक में अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों को नहीं जांच पाता। रस्किन के अनुसार सामाजिकता मनुष्य की बुनियादी आकांक्षा है, अतः किसी भी प्रकार के सामाजिक कार्यों और संस्थानों में इस आकांक्षा को मूल प्रेरणा और कसौटी की तरह देखा जाना चाहिए। स्वार्थ सामाजिक संबंधों का आधार नहीं हो सकता।
रस्किन इस बात पर भी आग्रह करते हैं कि वास्तविक संपदा तो जीवन है-बैंक में जमा धनराशि नहीं। वह इसीलिए उद्योगपतियों से यह उम्मीद करते हैं कि उन्हें अपने को धन का न्यासी मानते हुए अपने साथ काम करने वालों और समाज के जीवन को बेहतर बनाने में धन का उपयोग करना चाहिए। महात्मा गांधी के ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर रस्किन के इस विचार का असर देखा जा सकता है। अनटु दिस लास्ट को पढ़ने के अपने अनुभव के बारे में बताते हुए महात्मा गांधी ने लिखा है कि उन्हें इस पुस्तक से तीन सूत्र मिले : (1) व्यक्ति का हित सर्वहित में सन्निहित है, (2) एक वकील और एक हज्जाम के काम का समान मूल्य है क्योंकि दोनों को अपने काम से आजीविका कमाने का समान अधिकार है तथा (3) एक श्रमिक का-किसान या दस्तकार का-जीवन जीने योग्य है। फिनिक्स आश्रम की स्थापना में रस्किन के विचारों के प्रभाव को भी देखा जा सकता है।
यह उल्लेखनीय है कि रस्किन ने आयकर को श्रेणीबद्ध करने तथा अधिक संपन्न लोगों से अधिकर लेने का प्रस्ताव किया था, जो बाद में लगभग सभी राज्यों द्वारा स्वीकार किया गया। इसका प्रयोजन वंचित लोगों के लिए राजकोष में वृद्धि करना था। इस तरह राज्य के लोक-कल्याणकारी रूप के विकास में रस्किन के अवदान को स्वीकार किया जाना चाहिए। उन्होंने न केवल क्लासिक अर्थशास्त्र की कमजोरियों को उजागर किया बल्कि इस ओर भी संकेत किया कि सामाजिकता और सामाजिक समरसता किसी भी सामाजिक गतिविधि का प्रथम प्रयोजन होना चाहिए। आल्डुअस हक्सले ने रस्किन के योगदान पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि यूटोपिया तो बहुत लोग रचते हैं, लेकिन कम ही लोग होते हैं, जिनका यूटोपिया व्यावहारिक स्तर पर भी खरा उतरता है। उनके विचार से रस्किन ऐसे ही विचारक हैं, जिनके बहुत से विचार राज्य के ताने-बाने में संग्रथित हो गए हैं। राजनीति में उनका प्रभाव सदैव शुभ रहा है।
रस्किन ने लिखा था कि यदि हम एक सच्चे मानव-जीवन की कल्पना कर सकें और एक ईमानदार तथा सादा जीवन के लिए प्रतिबद्ध हों तो सारी संपदा सर्वजन संपदा (common wealth) हो जाती है तथा हमारी सारी कला, साहित्य, हमारा दैनिक श्रम, पारिवारिक स्नेह और नागरिक कर्त्तव्य सब मिलकर एक शानदार समरस जीवन की रचना कर सकते हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
रहम : इस्लाम को सामान्यतः जिहाद से ही जोड़कर देखा जाता है। लेकिन इसकी मुख्य वजह धर्मशास्त्र के बजाय इतिहास है। यह देखना दिलचस्प है कि जहां जिहाद का संबंध इस्लाम के इतिहास से अधिक है, वहीं रहम का संबंध धर्मशास्त्र से। इस्लाम के पवित्र ग्रंथ कुरआन की शुरुआत में अल्लाह को रहमान और रहीम कहा गया है।
यह देखा जाना चाहिए कि रहम अल्लाह के सर्वाधिक लोकप्रिय नामों में से एक है। मुसलमान अपने हर काम की शुरुआत बिस्मिल्लाह हिर्रहमा-नुर्रहीम से करते हैं। अल्लाह की इबादत करने वाला हर मुसलमान यदि अपने आचरण में रहम को न माने तो उसकी इबादत पूरी नहीं मानी जाएगी। कुरआन में चार केंद्रीय मूल्य हैं : न्याय (अद्ल), परोपकारिता (इहसन), दया (रहम) और बुद्धिमता (हिक्मः)-जबकि जिहाद कोई मूल्य नहीं, वरन किसी विशेष मकसद के लिए साधन-रूप है।
कुरआन में इस्लाम के पैगंबर को भी रहमतु ल्लिल आलमीन अर्थात् पूरी दुनिया पर दया करने वाला बताया गया है। अल्लाह का संदेशवाहक होने के नाते पैगंबर धरती पर उसके गुणों का प्रतिनिधि है। अल्लाह पूर्ण है, इसलिए उसका पैगंबर भी पूर्ण इंसान है जिसमें उसके सभी गुण ह्रदयंगम हैं। इसलिए अन्य मोमिनों को भी, अपनी सीमाओं में इन गुणों को ग्रहण करना चाहिए।
इसलिए कोई भी मोमिन कहलाने का हकदार नहीं है, यदि वह संभव ईंसानी सीमाओं में रहमदिल नहीं हो। एक सच्चे मोमिन को अल्लाह और उसके पैगंबर के इन गुणों को ह्रदयंगम करना ही होगा। दूसरे शब्दों में, कुरआन और सुन्ना सभी मुसलमानों के लिए मानना जरूरी है और इस विषय पर सभी तरह के मुस्लिम आलिमों की राय एक है। पैगंबर के समय की ऐतिहासिक परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि उन्हें कभी शस्त्र का सहारा लेना पड़ा; लेकिन ऐतिहासिक परिस्थिति की अनिवार्यता को मूल्य नहीं माना जा सकता। इसलिए अल-कायदा और ऐसे ही अन्य संगठनों द्वारा जिहाद को एक केंद्रीय मूल्य और अनिवार्य कहना इस्लाम की शिक्षाओं को पूरी तरह नकारना है।
यह गौरतलब है कि आवश्यकता स्थितिपरक है और मूल्य सर्वकालिक-सार्वभौमिक। आवश्यकता कभी कुछ ऐसे कामों के लिए मजबूर कर सकती है जो वांछनीय न हों, लेकिन मूल्य हमेशा समाज को मानवीय बनाते हैं। किसी परिस्थिति में युद्ध आवश्यक हो सकता होगा, लेकिन उसमें जो रक्तपात होता है, उसके कारण संभव सीमा तक उसे टाला जाना ही उचित होगा। दूसरी ओर मूल्य एक आदर्श समाज की रचना में मददगार होने की वजह से शाश्वत होते हैं।
कुछ ऐतिहासिक अनिवार्यता के कारण और मुख्यतः निहित स्वार्थों के कारण जिहाद इस्लाम में केंद्रीय हो गया और रहम जैसे मूल्य सूफियों और कमजोर तबकों तक सीमित रह गए, जिन्हें इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिल सकी क्योंकि हम इतिहास में शासितों के बजाय शासकों के बारे में ही अधिक पढ़ते हैं। शासकों के काम मूल्यपरक होने के बजाय स्वार्थपरक अधिक होते हैं और इस कारण इतिहास के पन्ने रक्तस्नात लगते हैं।
पैगंबर का जीवन मूल्यपरक घटनाओं से भरा पड़ा है, लेकिन इब्ने-ईशाक या इब्ने-हिशाम जैसे उनके जीवनीकारों ने उनके युद्धों पर अधिक रोशनी डाली है बजाय उन घटनाओं के जो पैगंबर को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करतीं। पैगंबर को उनके युद्धों के कारण नहीं बल्कि उनके मानवीय गुणों के कारण मुहम्मद (प्रशंसित) कहा गया।
ये गुण थे सचाई, बुद्धिमता और रहम। पैगंबर को इंसाफ से प्यार था और इसीलिए उन्होंने अन्याय-पीड़ित लोगों की मदद के लिए हिज्ब-अल-फुदूल का गठन किया। अनाथ होने की वजह से वह खुद सारी तकलीफों से गुजर चुके थे और इस कारण समाज के कमजोर तबकों के लिए उनमें गहरी सहानुभूति थी। यह सब उनके दैवी संदेश का हिस्सा है।
एक बार एक गुनहगार औरत को उनके सामने लाए जाने पर पैगंबर ने उनसे पूछा कि क्या उसने कभी रहम का कोई काम किया है। औरत ने बहुत याद करके जब बताया कि उसने एक बार एक प्यासे कुत्ते को पानी पिलाया है तो मुहम्मद ने कहा कि इस रहम के बदले अल्लाह उसके सारे गुनाह माफ कर देगा। इसी तरह एक बहुत ही कमजोर और बीमार आदमी द्वारा किसी औरत से जबर्दस्ती करने का गुनाह खुद कबूल कर लेने पर मुहम्मद ने उसे इस गुनाह की निर्धारित सजा सौ कोड़े मारने के बजाय उसकी बीमारी को देखते हुए खजूर के पेड़ की सौ टहनियों को एक साथ बांध कर हौले-से उसके शरीर पर मारा और उसे छोड़ दिया। एक यहूदी औरत पैगंबर पर हमेशा कूड़ा फेंकती थी। एक दिन जब वह कूड़ा फेंकने नहीं आई तो पैगंबर ने उसके बारे में दरियाफ्त किया और उसकी बीमारी के बारे में पता चलने पर उसके तंदुरुस्त होने की दुआ की। इन घटनाओं से पता चलता है कि पैगंबर दूसरों की तकलीफ को अपनी मानकर उसको दूर करने की कोशिश करते थे। इसे बौद्ध-धर्म की दुःख की अवधारणा के समान समझा जा सकता है और दुःख मिटाना धार्मिक कर्त्तव्य है।
रहमदिली के लिए माफ कर देने का गुण अनिवार्य है। कुरआन में अल्लाह को बार-बार गफूरर्रहीम कहा गया है। वह दंडदाता उतना नहीं है, जितना क्षमाशील है। अल्लाह सच्ची तौबा करने वाले इंसान को माफ कर देता है। पैगंबर की क्षमाशीलता की कई घटनाएं हमें मिल जाती हैं। उन्होंने अबू सूफयान और उसकी पत्नी हिंदा को माफ कर दिया जो हमेशा पैगंबर और उसके अनुयायियों को परेशान करते रहते थे और हिंदा ने तो स्वयं मोहम्मद के चाचा का कलेजा चबा डाला था। कबीलाई अरब समाज में किसस (आंख के बदले आंख का सिद्धांत) एक मान्य सिद्धांत था और कहीं-कहीं कुरआन में भी उसे मान्यता दी गई है, लेकिन, साथ ही, यह भी साफ बताया गया है कि क्षमाशीलता और रहम हमेशा उच्चतर मूल्य हैं। मुहम्मद ने हमेशा इन शिक्षाओं को अपने पर लागू किया।
मुस्लिम दुनिया में दो समांतर धाराएं रहीं और दोनों मिलाकर मुख्य मुस्लिम धारा बनती है। ये दो धाराएं हैं सामाजिक-राजनीतिक धारा और सूफी धारा और दोनों की जिहाद ही अपनी समझ है। सामाजिक-राजनीतिक धारा के मुख्य घटक शासक वर्ग और उच्च वर्ग हैं, और दूसरी तरफ, सूफी संत हैं, जिन्हें मुख्य समर्थन कमजोर वर्गों से मिला; यद्यपि, शासक वर्ग के कुछ अंश भी सूफी संतों के प्रति श्रद्धा रखते थे क्योंकि ये संत आम जनता में बहुत लोकप्रिय होते थे।
शासक वर्गों के लिए जिहाद का मतलब मुस्लिम राज्य की रक्षा और विस्तार करना था। धर्मशास्त्रियों का एक वर्ग अपने पोषण के लिए शासक वर्ग पर आश्रित था, अतः, जिहाद पर उसका विमर्श शासक वर्ग के हितों को बढ़ाने वाला होता था। इस प्रकार जिहाद पर अधिकांश धर्मशास्त्रीय विमर्श जिहाद को सैनिक कार्रवाई की तरह देखता है।
दूसरी ओर, इस्लाम की सूफी शाखा में जिहाद का अर्थ है कामनाओं पर संयम रखते हुए सब्र और तवक्कुल (अल्लाह पर निर्भरता) के गुणों को आत्मसात करना। सूफी संतों में युद्ध और राजनीतिक संघर्ष के लिए खास समर्थन नहीं था। सूफी संतों की दिलचस्पी कुरआन में उल्लिखित नफ्से मुतमन्ना (संतृप्त आत्मा) में थी, न कि नफ्से अम्मारह (कामनारत आत्मा) में। नफ्से मुतमन्ना के लिए बड़े आंतरिक संघर्ष से गुजरना पड़ता है, इसलिए सूफियों के लिए यही वास्तविक जिहाद है।
यह भी गौरतलब है कि नफ्से मुतमन्ना से ही रहम की प्रवृत्ति विकसित होती है। नफ्से-अमारह में अन्य लोगों की तकलीफों के लिए रहम नहीं हो सकता और शासक वर्ग तथा उनके समर्थक अधिकांशतः इसी नफ्स के होते हैं क्योंकि उनका लालच दूसरों को तकलीफ देकर ही पूरा हो सकता है। साफ है कि कुरआन में जिहाद का अर्थ युद्ध अथवा काफिरों के खिलाफ लड़ना नहीं है, जैसा आमतौर पर समझा जाता है।
दूसरी ओर, जिहाद एक बहुस्तरीय अवधारणा है और विभिन्न मुस्लिम वर्गों ने इसकी भिन्न-भिन्न व्याख्याएं की हैं। जिहाद मुख्यतः आध्यात्मिक है और अपने सामने आई जटिल भौतिक और आध्यात्मिक चुनौतियों के कारण इस्लाम के पैगंबर तथा उनके अनुयायियों ने जिहाद का इस्तेमाल दोनों स्तरों पर किया। लेकिन, इसकी केंद्रीयता आध्यात्मिक संघर्ष में है और पैगंबर के आध्यात्मिक संघर्ष से आकर्षित होने के कारण सूफियों के लिए जिहाद नफ्से-अम्मारह का दमन करने का संघर्ष था।
सूफियों में दूसरों की चिंता करने और उनके सुख-दुःख में साथ होने की प्रवृत्ति प्रभावी रही। उन्होंने सदैव समाज के कमजोर वर्गों और पीड़ित लोगों का साथ दिया और इसी कारण उन्हें हजारों लोगों द्वारा सम्मान मिला। उन्हें अपने अनुयायियों और शासक वर्ग के लोगों से भी बड़ी मात्रा में चढ़ावे मिलते थे, पर उन्होंने उसे कभी अपने पर खर्च नहीं किया।
उनके द्वारा लंगर खोले जाते थे, जिनमें किसी भी समय किसी भी जाति या मजहब के व्यक्ति को भोजन मिलता था। उनकी प्रेरणा का स्रोत हदीसे-कदसी था, जिसके अनुसार रोजे-हश्र अल्लाह का सवाल होगा, मैं भूखा था, और तुमने मुझे खाना नहीं खिलाया। मैं प्यासा था, तुमने मुझे पानी नहीं पिलाया। मैं नंगा था, तुमने मुझे कपड़े नहीं पहनाए। बंदा कहेगा-ओ अल्लाह, तुम सबको खाना देते हो, मैं तुमको कैसे खाना दे सकता हूं? अल्लाह कहेगा-मेरा सेवक भूखा था और तुमने उसे खाना नहीं खिलाया। अगर कोई इंसान भूखा है तो मानो मैं भूखा हूं, और यदि एक इंसान प्यासा है तो मानो मैं प्यासा हूं, और यदि एक इंसान नंगा है तो मानो मैं नंगा हूं। इस कारण सूफी हमेशा यह ख्याल रखते थे कि उनके पास आने वाला कोई इंसान भूखा-प्यासा न लौटे। खुद भूखे रहकर भी वे भूखे इंसान की भूख मिटाते थे। यह रहम पशुओं और वनस्पति जगत तक के लिए था। पैगंबर ने एक दफा एक गधे का मुंह दागा हुआ देखा। उन्होंने उसके मालिक को लताड़ा कि उसमें इस बेचारे जानवर के लिए कोई रहम नहीं है। उसने गधे का चेहरा बिगाड़ दिया है। मालिक ने कहा कि गधे की पहचान के लिए यह जरूरी था तो पैगंबर ने कहा कि इसके लिए चेहरा बिगाड़ने के बजाय उसके जिस्म के किसी अन्य हिस्से को दागा जा सकता था।
सूफी जुनैद ने एक दफा अपने कमरे में एक चींटी को रेंगते हुए देखा तो उन्हें फिक्र हुई कि कोई चींटी को पांव से कुचल सकता है। उसकी रक्षा के लिए जुनैद ने चींटी को उठाकर आटे के बर्तन में रख दिया। इंसानों और जानवरों-चींटी तक के लिए सूफियों में इतना रहम था।
पृथ्वी पर जीवन की निरंतरता के लिए रहम बहुत आवश्यक है। केवल रहमदिली ही जिंदगी को खूबसूरत बना सकती है। लालच के कारण ही इंसान दूसरों के प्रति निर्दयी हो जाता है क्योंकि दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर ही लालच की पूर्ति हो सकती है। इसलिए, एक रहम दिल इंसान को जरुरत पर आश्रित जीवन जीना होता है, लालच पर आश्रित नहीं। कुरान का भी कहना है कि अतिरिक्त को जरुरतमंदों को दे देना चाहिए (2.219)।
कुरान में मुसलमानों के लिए जकात जरुरी है, जिसे अनाथों, विधवाओं, जरुरतमंदों, फंकीरों और कैदियों को रिहा करने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। उनके प्रति रहम के बिना यह संभव नहीं है।
रहम के द्वारा ही हम लालच को जीत सकते हैं। दरअस्ल, सभी धर्म रहम (करुणा, दया, अनुकंपा आदि) का उपदेश करते हैं, क्योंकि वह आध्यात्मिक विकास का रास्ता है। कोई धर्म लालच की शिक्षा नहीं देता। लेकिन किसी भी धर्म का इतिहास, दरअस्ल, उसके शासक वर्ग का इतिहास होता है और शासक वर्गों में सत्ता-लिप्सा होती ही है। इसी कारण इस्लाम सहित सभी धर्मों के इतिहास में हम युद्ध और रक्तपात पाते हैं।
लेकिन, इतिहास में एक धारा सूफियों और संतों की भी है, जिसको प्रकाश में नहीं लाया जाता-यह इतिहास सत्ता के लिए संघर्ष का नहीं-बल्कि अपनी कामनाओं और लालच को जीतकर दूसरों के लिए रहम जगाने का इतिहास है। ये लोग ही जिंदगी का नमक (सार) हैं, जिनके लिए इतिहास के पन्नों के बजाय आम लोगों के मन में शाश्वत श्रद्धा होती है।
हम अपने पर्यावरण के प्रति निरंतर असंवेदन-शील होते जा रहे हैं। हम अपने लालच की पूर्ति में पर्यावरण का विनाश करते जा रहे हैं। हमारी उपभोग-वृत्ति के कारण पर्यावरण के विनाश के प्रति हम उदासीन हो जाते हैं। इसलिए हमें पर्यावरण के प्रति भी रहमदिली विकसित करनी होगी। हमारे उपभोग को सीमित करने के दो फायदे हैं : एक तो यह कि इससे उन लोगों की मदद होगी, जो पृथ्वी पर जिंदा रहने के अधिकार से भी वंचित हो जाते हैं, और, दूसरे, इससे पर्यावरण-संतुलन में मदद मिलेगी।
मैं मानता हूं कि धर्म पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं। लेकिन, यह तभी संभव है जब धार्मिक नेताओं द्वारा धर्म की हमारी रुढ़ समझ को बदला जाए।
धर्म की हमारी समझ पूरी तरह अनुष्ठानपरक है। हमें अनुष्ठानपरक मानसिकता से ऊपर उठना चाहिए तथा धर्म को हमारे आंतरिक स्व को रुपांतरित करने में मार्ग-दर्शक होना चाहिए-नफ्से-मुतमन्ना, जिसमें प्रेम, अहंहीनता, रहम और सचाई के मूल्य भरे हों। यही वास्तविक धार्मिकता है, न कि कुछ अनुष्ठानों का वह पालन मात्र जो कई बार विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच प्रतिद्वंदिता और तनाव का कारण बनता है।
कुरआन में बार-बार इस्तिबाकुल खैरात का जिक्र किया गया है, जिसका तात्पर्य है नेक कामों में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ और नेक काम वे हैं, जो प्रेम, रहम और सत्यनिष्ठा पर आधारित हो। पैगंबर का ही कहा बताया गया है कि एक भूखी बेवा को खाना खिलाना रात भर इबादत करने से अधिक सबाब (पुण्य) देता है। इस तरह भूखे को खाना खिलाना प्रार्थना करने से अधिक महत्त्वपूर्ण है। अल्लाह को हमारी इबादत की जरुरत नहीं है।
सच तो यह है कि इबादत और उपवास (रोजा) भी इन मूल्यों के पोषण के लिए ही बताए गए हैं। अनुष्ठान साधन हैं, साध्य नहीं, लेकिन हमने उन्हें साध्य बना दिया है। यदि हम इंसानियत के दर्द को मिटाना चाहते हैं तो हमें तत्काल अनुष्ठानपरक धर्म के प्रति अपना रवैया बदलकर उसे मूल्यपरक बनाना चाहिए। इस्लाम और बौद्ध धर्म दोनों अपने अनुयायियों में रहम (करुणा) को विकसित करने में एक-दूसरे के पूरक हैं। ईसाइयत और हिंदू धर्म भी प्रेम और अहिंसा पर अपने बलाघात के कारण मूल्यवान सहयोगी हो सकते हैं और हम अपनी दुनिया बदल सकते हैं। क्या ये सभी धर्म पृथ्वी पर से दुःख मिटाने के लिए परस्पर हाथ मिलाएंगे?
- असगर अली इंजीनियर
(हिंदी रूपातंरण : नंदकिशोर आचार्य)
राजकीय आतंकवाद : राजकीय आतंकवाद के अंतर्गत आतंकवाद की ऐसी गतिविधियां आती हैं, जिनका संचालन शासकीय संस्थाएं करती हैं। गश मार्टिन के अनुसार राजकीय आतंकवाद आतंकवाद की वह श्रेणी है, जिसका संचालन शासकीय एवं अर्द्धशासकीय संगठनों एवं कार्मिकों द्वारा शत्रु विशेष के विरूद्ध किया जाता है। इसका निर्देशन राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर किया जा सकता है।
द एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के अनुसार, आतंकवाद सामान्य रूप से व्यवस्थागत हिंसा के प्रयोग के माध्यम से प्रजा में भय उत्पन्न करने के उद्देश्य से की गई गतिविधियां है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु शासकीय संस्थाओं, उदाहरणस्वरूप सेना, पुलिस एवं गुप्तचर आदि संगठनों के द्वारा की गई अमानवीय गतिविधियों को राजकीय आतंकवाद की श्रेणी में रखा जाता है। एनसाइक्लोपीडिया में स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त है कि संस्थागत आतंकवाद को सामान्य रूप से राजकीय एवं राज्य प्रायोजित आतंकवाद के रूप में स्वीकार किया जाता है। इन क्रियाकलापों में सरकारों के द्वारा नियुक्त या प्रायः सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा नागरिकों के गुट विशेष के संगठन एवं देशीय या विदेशी सरकारों के विरूद्ध की जाने वाली गतिविधियां आती हैं।
इतिहास में राज्य के द्वारा किये जाने वाले आतंक की स्पष्ट रूप से झलक मिलती है। उदाहरण-स्वरूप, अरस्तू ने राज्य के द्वारा प्रजा के विरूद्ध किये जाने वाले आतंकीय गतिविधियों की आलोचनात्मक टिप्पणी की है। आक्सफोर्ड शब्दकोश में फ्रांस में राजकीय आतंकवाद के उदाहरण स्पष्ट किए गए हैं। उसी साल एडमंड बर्क ने यूरोप में आतंकीय चुनौती की चर्चा की है। इस आतंक राज में जेकोब की सरकार व फ्रांस की क्रांति के अन्य सहभागियों ने राज्य के अंगों का प्रयोग तात्कालिक राजनीतिक विरोधियों के विरूद्ध किया। इसी की परिणति है कि आक्सफोर्ड आंग्ल शब्द कोष में आतंकवाद की परिभाषा के संदर्भ में फ्रांस के शासकीय दल के द्वारा सन् 1789-1794 ई० के मध्य किये गये गतिविधियों को स्वीकार किया गया है।
राजकीय आतंकवाद का अन्य उदाहरण सोवियत यूनियन (रूस) के द्वारा 1920 ई० से की गई पुलिस राज्य की गतिविधियों एवं जर्मन के नाजी राज्य के संदर्भ में देखा जा सकता है। इसी के साथ गुरूनीका की बमबारी भी राजकीय आतंकवाद की श्रेणी में रखा गया है।
माइकल स्टोल एंड जार्ज ए० लोपेज आदि विद्वानों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप हुए परिवर्तन में संस्थागत आतंकवाद राज्य के द्वारा संचालित किया गया है। इस विश्लेषण में राजकीय आतंकवाद विदेश नीति का ऐसा रूप है, जिसके अंतर्गत शस्त्रों का प्रयोग विध्वंस के लिए किया जाता है, एवं ऐसे विध्वंसक व्यवहार को वैध माना जाता है, क्योंकि यह राज्य के कार्मिको के द्वारा संपादित किया जाता है।
वर्तमान में विश्व पटल पर राजकीय आतंकवाद मुख्यतया अमेरिका के द्वारा पैदा की गई अव्यवस्था से उभर रहा है। यह सभ्यताओं की टकराहट के सिद्वान्त से मार्गदर्शित है तथा मुस्लिम समुदाय को रूढ़िवादी घोषित करते हुए उस पर सीधा आक्रमण कर रहा है, जबकि यह चोरी छुपे अन्य सभी धार्मिक रूढ़िवादी ताकतों को प्रोत्साहित कर रहा है।
उदाहरणस्वरूप, 1950 ई० के दशक में ईरान एवं मध्य अमेरिका में, 1960 ई० के दशक में ब्राजील, क्यूबा और वियतनाम में, 1970 ई० के दशक में चीली, दक्षिण अफ्रीका, निकारागुहा, एल०एल० सल्वाडोर और अफगानिस्तान में, 1980 ई० के दशक में पनामा, हैती, अंगोला, लीबिया पर सीधा आक्रमण एवं ईरान युद्ध को भड़काया तथा 1990 ई० के दशक में सोमालिया, युगास्लाविया, कोसोवो तथा सुडान व अफगानिस्तान पर क्रुज मिसाइल का हमला, इस सदी में ईराक में सद्दाम हुसैन की सरकार को तख्ता पलट करना, अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार को पलटना, कोसोवो में सैन्य हस्तक्षेप आदि। यह गतिविधि यहीं पर नहीं रुकी, अपितु इससे आगे जनसमर्थक सरकारों को पलटने में भी लगी रही। जैसे 1960 ई० में जेयरे में पोट्रिश लुमुंबा की सरकार को गिराना तथा 1970 ई० में ईरान के डॉ० मुस्सदक की सरकार को गिराना।
वर्तमान परिस्थिति में आतंकवाद दो स्वरूपों में उपस्थित है। (1) सरकार विरोधी या गैर सरकारी समूहों द्वारा प्रयुक्त होने वाला आतंकीय गतिविधि (2) राजकीय आतंकवाद अर्थात् राष्ट्रीय राज्यों द्वारा किया जाने वाला आतंकवाद। दोनों ही किस्मों की आतंकवाद की एक जैसी मानवीय प्रकृति और व्यवहार है। यद्यपि संगठनात्मक स्वरूप भिन्न है। गैर सरकारी आतंकवाद किसी नियमों या प्रक्रियाओं को मानने के लिये बाध्य नहीं है, लेकिन, जब कोई शासन राजकीय आतंकवाद की नीति को अपनाता है तो वह बुनियादी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय कानूनों, सम्मेलनों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पारित मानवाधिकार का हनन करता है।
इस प्रकार राजकीय आतंकवाद में वे सभी गतिविधियां सम्मिलित हैं, जो एक मान्यता प्राप्त या वैधानिक सरकार के माध्यम से अपने देश की सीमाओं के अंदर या अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में आतंकीय गतिविधियों की संवैधानिक शक्ति को प्रयुक्त करने हुए संचालित होती हैं। इस संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग उचित एवं अनुचित दोनों ही संदर्भ में हो सकता है, लेकिन शासन जो कोई भी गतिविधियां करता है उसे उचित ही स्वीकार करती है। इसके विपरीत, गैर सरकारी आतंकवादी अथवा उनसे सहानुभूति रखने वाले, प्रत्येक सरकारी कार्यवाही को दमनकारी एवं राजकीय आतंकवाद की मान्यता प्रदान करते हैं।
अध्ययन की सरलता एवं स्पष्टता की दृष्टि से राजकीय आतंकवाद को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है : (1) शासकीय एवं राज्य प्रयोजित आतंकवाद (2) संवैधानिक दमनकारी आतंकवाद (3) सैन्य शोषण एवं मानवाधिकारों के हनन से सम्बंधित आतंकवाद
शासकीय एवं राज्य-प्रायोजित आतंकवाद में भेद करना दुरूह कार्य है। अधिकांश शासन आतंकवादी नीति का प्रयोग शत्रु पक्ष के शिकार देशों के विपक्षी संगठनों के माध्यम से संचालित करते हैं। विश्व जनमत के भय से वे स्वयं को आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं, परंतु उसे अपनी विदेश नीति और युद्ध नीति का अंग बनाकर धन, हथियार, प्रशिक्षण आदि सुविधाएं उपलब्ध कराकर मदद करते हैं।
वर्तमान में किसी भी राष्ट्र के लिए यह संभव नहीं है कि वह समय-साध्य एवं व्यय-साध्य पारंपरिक युद्ध का संचालन करे। साधनों की कमी एवं अन्य दबावों के परिणामस्वरूप राज्य आज छद्म युद्ध की नीति को अपनाते हैं। इस छदम् युद्ध में उन्हें दुश्मन के राष्ट्रों में विद्रोही आतंकवादियों से महत्त्वपूर्ण सहायता मिलती है। एक राष्ट्र के द्वारा दूसरे राष्ट्र विशेष के विरोधियों, अलगाववादियों, महत्त्वाकांक्षी राजनीतिज्ञों आदि की सहायता की जाती है। आर्थिक मदद, राजनीतिक दुष्प्रचार, राजनीतिक आश्वासन देना व शत्रु राष्ट्र के विरोध में दुनिया के समक्ष अनुचित राय स्थापित करना भी एक तरह का छद्म युद्ध है।
यह छद्म् युद्ध एक ऐसी रणनीति है, जिसके अंतर्गत विरोधी राष्ट्र को शक्तिहीन करने के लिए उसके अंदर की राजनीतिक अस्थिरता एवं अलगाववादी आंदोलनों की विभिन्न प्रकार से मदद की जाती है और विरोधी देशों को संसाधनों का अपव्यय करने के लिये बाध्य किया जाता है। राजनीतिक हत्याएं भी इसी नीति में समाहित हैं। इस छद्म युद्ध को यदि आंतकवादी और अलगावादियों की सहायता से लड़ा जाए तो वह राजकीय आतंकवाद की श्रेणी में आएगा।
संवैधानिक दमनकारी आंतकवाद-जब किसी भी सरकारी तंत्र उदाहरणस्वरूप पुलिस, सेना व प्रशासको के द्वारा अपने संवैधानिक अधिकारों का दुरूपयोग, किसी आंदोलन व क्रांतिकारियों की आवाज को दबाने के लिये प्रयुक्त किया जाता है तो उसे संवैधानिक या दमनकारी आतंकवाद की संज्ञा दी जाती है। इसे दो संदभरें में स्पष्ट किया जा सकता है। नागरिकों को अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर देना अर्थात् संवैधानिक शक्तियों का दुरूपयोग जनहित में न कर प्रजा के दमन या शोषण के लिये करना। संवैधानिक शक्तियों का दुरूपयोग विद्रोहियों एवं क्रांतिकारियों के अस्तित्व को दबाने एवं समाप्त करने के लिए करना। इस प्रयोजन हेतु सरकारों द्वारा दमनकारी कानूनो का निर्माण करना भी आता है।
दमनकारी आतंकवाद का संबंध क्रांतिकारी आतंकवाद से भी जुड़ा हुआ है। क्रांतिकारी आतंकवाद उन संगठनों के द्वारा संचालित किया जाता है, जो अपनी लड़ाई अपनी धरती की मुक्ति के लिए लड़ रहे होते है। इस तरह का संघर्ष आवश्यक नहीं है कि अपने देश की धरती से ही लड़ा जाए। इसे विदेशी धरती से भी संचालित किया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, सुभाषचंद्र बोस ने जर्मनी और जापान के सहयोग से आजाद हिंद फौज का गठन करके अंग्रेजों को पूवरंचल से हटाया था। दूसरे राष्ट्र का उपयोग जब इस प्रकार के क्रांति या आंदोलन के लिए होता है तो स्पष्ट है कि अप्रत्यक्ष रूप से उस देश का राजनीतिक समर्थन उसे प्राप्त होता है अन्यथा वे उन्हें इस हेतु अनुमति क्यों देगे? शनैः शनैः, जब संबंध में प्रगाढ़ता आती है तो उन्हें जमीन के अतिरिक्त धन, राजनीतिक सहायता एवं प्रशिक्षण भी मिलने लगता है। प्रायः, यही कारण है, जैसा कि मैक्स वैल टेलर ने अभिव्यक्त किया है कि दमनकारी आतंकवाद एवं क्रांतिकारी आतंकवाद के मध्य अंतस्संबंध स्पष्ट रूप से परिलक्षित होते हैं तथा दोनों का ही अस्तित्व एक संगठन में संभव है।
इसी प्रकार विल्किन्सन ने स्पष्ट किया है कि कोई भी आतंकवादी कार्यवाही का आवश्यक तौर पर किसी श्रेणी विशेष के अंतर्गत आना जरूरी नहीं है-विशेष तौर पर उसके प्रभाव के संदर्भ में। इस प्रकार क्रांतिकारी आतंकवाद व दमनकारी आतंकवाद में भेद करना दुरूह कार्य है।
अनुचित सैन्य हस्तक्षेप-इसके अंर्तगत सैन्य एवं पुलिस बलों द्वारा किए जाने वाली ज्यादतियों को रखा गया है। वस्तुतः, पुलिस एवं सैन्य बल शासकीय संगठन ही है, और उन्ही के आदेशों के अनुरूप वे, सामान्यतः, अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते है। लेकिन, इसे अलग श्रेणी में रखने का उद्देश्य है कि अनेक बार कुछ राष्ट्रों के शासकीय तंत्र पूर्ण रूप से अकर्मण्य एवं प्रभावहीन हो जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, उनके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लग जाता है, एवं ये कठपुतली सरकार की भांति सैन्य बलो के निर्देशों पर कार्यरत रहते हैं। ऐसी स्थिति में सुरक्षा बलों को असंवैधानिक एवं संविधानेतर अधिकार मिल जाते हैं, तथा ये विद्रोह को समाप्त करने एवं कानून एवं व्यवस्था को स्थापित करने के नाम पर मनमानी करते हैं। वे सुरक्षा बलों के धर्म की अवेहलना करते हुए बलात्कार, हत्याएं, लूटपाट, अमानवीय यातनाएं आदि गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं, तथा स्वयं के कानून बनाकर लोगों को प्रताड़ित करते हैं। इस हेतु उन पर अंकुश लगाने वाले कोई संगठन नहीं रहते। वे बिना भय के मानवाधिकार का उल्लंघन करते हुऐ दृष्टव्य होते हैं।
राजकीय आतंकवाद के प्रमुख कारण है-(1) आर्थिक रूप से सर्वाधिक शक्तिशाली देशों के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक दोनों संस्थाओं में आर्थिक हैसियत के अनुरूप वोट की शक्ति के आधार पर प्रभुत्व। (2) संयुक्त राष्ट्र संघ तथा उसकी सुरक्षा परिषद पर पांच सर्वाधिक परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों ने नियंत्रण कर रखा है, जिन्हें वीटो पावर व स्थायी सदस्यता प्राप्त है। (3) विश्व की पांच बड़ी परमाणु शक्तियों ने परमाणु एकाधिकार प्राप्त किया है, जिसे (व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि) सी०टी०बी०टी० के तहत गांरटी प्राप्त है। (4) विश्व के प्रत्येक देश में संसदीय शासन-व्यवस्था भ्रष्ट या निरंकुश दलों के प्रभुत्व के अधीन हैं और धन और सत्ता बल पर आधारित है-इस प्रकार बहुसंख्यक आम जन की शासन में कोई सहभागिता नहीं है। (5) दुनिया के मुट्ठी भर विकसित देशों ने, जिनकी आबादी विश्व की आबादी का 15 प्रतिशत है, दुनिया के आर्थिक और वित्तीय संसाधनों के 80 प्रतिशत संसाधन पर नियंत्रण कर रखा है, जबकि शेष बचे लगभग 130 विकासशील राष्ट्रों की 85 प्रतिशत जनसंख्या मात्र 20 प्रतिशत संसाधनों पर जीवन यापन कर रही है।
राजकीय आतंकवाद की समस्या को नियंत्रित करने हेतु समुचित उपाय यह है कि वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय एजेंसी संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से इसका समाधान किया जाए। संयुक्त राष्ट्र संघ में गंभीर कमजोरियां होते हुए भी यह बड़ी एवं छोटी महाशक्तियों (आतंकवाद को समाप्त करने में जिनका साझा हित है) तथा अन्य राष्ट्रीय राज्यों की सहायता से आज की विकट स्थिति के अनुकूल कुछ जगहों पर समझौतों से तथा कुछ जगहों पर अन्य तरीकों से इस समस्या को हल कर सकती है।
इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु आवश्यक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ दो अंतस्संबंधित तथ्यों पर ध्यान दे एवं अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उचित रणनीति तैयार करे। प्रथमतः, संयुक्त राष्ट्र को स्थानीय या विश्वस्तरीय आतंकवाद के मूल कारण सामाजिक अन्याय व असमानता से निपटने के उपाय करने चाहिए।
द्वितीयतः, संयुक्त राष्ट्र को न्यायिक व व्यावहारिक कार्यक्रम व इसके लागू करने की योजना बनाकर समता, जनवाद, पारदर्शिता, उत्पादकता, पर्यावरणीय टिकाऊपन के आधार पर नई विश्व व्यवस्था की स्थापना करनी चाहिए।
राजकीय आतंकवाद विश्व के समक्ष एक गंभीर चुनौती के रूप में दिन-प्रतिदिन उभरता जा रहा है। इस समस्या के समाधान हेतु संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के सचेत होकर आमूलचूल परिर्वतन करने की आवश्यकता रेखांकित होती है।
- डॉ० राकेश कुमार झा
राजनीतिक हिंसा : द्रष्टव्य : संरचनागत हिंसा।
रामानंद : मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन के रामानंद मेरुदंड कहे जा सकते हैं। उनका विशेष महत्त्व इस कारण से भी है कि उन्होंने उत्तरी भारत में भक्ति-आंदोलन का नेतृत्व किया है। उनकी शिष्य-परंपरा का विश्वसनीय इतिहास नाभादास ने भक्तिमाल में दिया है। नाभादास के अनुसार अनंतानंद, कबीर, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावती, नरहरि, पीपा, भावानंद, रैदास, धन्ना, सेना आदि अनेक शिष्य हुए। इनके राम निर्गुण ब्रह्म हैं और संत-परंपरा के प्रवर्तक रामानंद के रामरक्षास्त्रोत से ये सभी जुड़े हुए हैं। निर्विवाद तथ्य यह भी है कि संतकाव्य बौद्ध-साहित्य-चिंतन से अनुप्राणित रहा है। बौद्ध-धर्म के शून्यवाद से लेकर नाथ-संप्रदाय के योग तथा वज्रयान के सिद्धों की संध्या भाषा तक की अवधूत भावना का संतकाव्य ने पोषण किया। संतकाव्य ने वैदिक धर्म के हिंसावादी कर्मकांड का विरोध किया और संतमत में अहिंसावाद का भावपक्ष प्रबल होता गया। वैष्णव-धर्म के चिंतन पर वैदिक धर्म का बीज भाव-भक्ति-अपनी पूरी ताकत से संत-चिंतन में दर्शन और काव्य दोनों ही बना है। ऐसा इसलिए हुआ कि विक्रम की चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में रामानंद या रामानंदाचार्य का प्रभाव उत्तरी भारत में व्यापक रूप से पड़ा। भक्ति का जो प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवाहित हुआ, उसने समस्त उत्तरी भारत को भक्ति के प्रति आकृष्ट किया। दक्षिण के आलवार भक्ति का रागात्मक रूप रामानंद लाए जिसने जनता में अपार लोकप्रियता प्राप्त की।
ब्रह्म और जीव जब एक ही हैं तब भक्ति किसकी किसके प्रति होगी? इसलिए ग्यारहवीं शताब्दी में नाथमुनि ने भक्ति की दार्शनिक व्याख्या की और एक शताब्दी बाद रामानुजाचार्य ने अद्वैतवाद के भीतर ही एक नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया जिसमें जीव को ब्रह्म का एक विशिष्ट रूप माना गया-जो ब्रह्म से भिन्न तो नहीं है, किंतु अपने पार्थक्य से वह भक्ति का अधिकारी है। उसे विशिष्टाद्वैतवाद नाम दिया गया है। रामानुजाचार्य के बाद मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निंबाकाचार्य ने मिलकर प्रस्थानत्रयी का नया भाष्य करते हुए भक्ति के पक्ष को सबल बनाया। रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद ने भक्ति सिद्धांतों को नए-नए प्रयोगों, विचार-विमर्शों के साथ उत्तरी भारत में प्रस्थापित किया। यह भक्ति-सिद्धांतों का मार्ग भारत की संस्कृति का नवरागदीप्त सच बना और कहा गया-भक्तीद्राविड़ ऊपजी लाए रामानंद। ज्ञानेश्वर के समकालीन नामदेव (जन्म 1270 ई०) ने विट्ठल की उपासना की जिसमें नाम स्मरण ही भक्ति है। यहां विट्ठल संप्रदाय को कन्नड़ के संत पुंडरीक से रूपाकार मिला जिसमें विट्ठल संप्रदाय, वैष्णव संप्रदाय और शैव संप्रदाय का मिश्रित रूप है। ज्ञानदेव और नामदेव ने पूरे उत्तरी भारत का भ्रमण किया और जाति और वर्ग के द्वेष को तिरोहित कर दिया। इसी स्थिति में महानुभाव संप्रदाय की कृष्ण को लेकर चक्रधर उपासना शुरु हुई। इसमें जाति की उपेक्षा हुई। कुम्हार, नाई, दर्जी, भंगी, शूद्र, वेश्याएं सभी इसमें आदर से आए और माधुर्य-भक्ति को दृढ़ किया गया। यहां कर्मकांड को ठुकराकर हृदय की पवित्रता प्रेम अहिंसा-सदाचार, दया को महत्त्व दिया गया। इसी भक्ति-भाव की जाति सहित भावना को रामानंद का आश्रय प्राप्त हुआ। उन्होंने अनेक नए प्रयोगों से वैष्णव-धर्म को प्रपत्तिवाद-अहिंसा में ले जाकर नया भावाधार दिया। इस तरह रामानंद की इस वैष्णव भक्ति में शैव, मुसलमान, सूफी, सिद्ध, योगी, चंडाल सभी समाहित हो गए। रामानंद ने नारा दिया जांति-पांति बुझै नहिं कोई। हरि कौ भजै सो हरि का होई। इस तरह रामानुजाचार्य की शिष्य-परंपरा में रामानंद ने जिस भक्ति का जनता के हृदय में स्थान बनाया उसमें विट्ठल संप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय का योगदान भी अविस्मरणीय है।
रामानंद को जाति-बंधन की शिथिलता, नाम-स्मरण-कीर्तन की महत्ता, प्रेमाभक्ति की प्रधानता, प्रेम की अहिंसक उज्ज्वल शक्ति के बीज विट्ठल संप्रदाय से ही प्राप्त हुए। रामानंद ने परिवर्तन यह किया कि उन्होंने विष्णु के स्थान पर कृष्ण, चक्रधर, विट्ठल की अपेक्षा राम की सर्वोपरिता घोषित की। इसीलिए उनके शिष्य कबीर ने निर्गुण की तथा उनके शिष्य तुलसी ने सगुण की नवीन प्रयोगशाला में राम-नाम को सर्वोपरि माना। रामानंद से पहले भी राम की उपासना की एक क्षीण धारा थी, लेकिन रामानंद ने विष्णु के स्थान पर राम के रूप में ही ब्रह्म की उपासना करने के पुष्ट विचार को प्रश्रय दिया। रामानंद पहले आचार्य थे जिन्होंने द्विजातियों के साथ सभी जातियों के लिए भक्ति का मार्ग खोल दिया। निम्न जाति के शिष्यों को दीक्षा दी चाहे रैदास हो, सेननाई हो। इस तरह रामानंद ने भक्ति के निर्गुण-सगुण दोनों आधारों को दृढ़ भूमि प्रदान की।
रामभक्ति के प्रथम आचार्य रामानंद के विषय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। प्रायः विद्वान उनका जन्म जीवनकाल 1400 ई० से लेकर 1470 ई० के बीच मानते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में ईसा की 15 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध और 16 वीं शताब्दी के आरंभ में उनकी उपस्थिति का होना माना है। भक्ति के लिए जिस दृढ़ आधार की अपेक्षा थी, उसे रामानुजाचार्य ने श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना से खड़ा कर दिया था। श्री संप्रदाय के विशिष्टाद्वैत में चिदचिद्विशिष्ट ब्रह्म के अंश जगत के सभी प्राणी हैं जो उसी से उत्पन्न होते हैं और उसी में लयलीन हो जाते हैं। रामानुज के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की भक्ति करने वाले बड़े-बड़े संत महात्मा होते रहे। वैष्णव श्री संप्रदाय के प्रधान आचार्य राघवानंद जी काशी में रहते थे। उन्होंने अपने संप्रदाय के सिद्धांतों की दीक्षा रामानंद को प्रदान की। राघवानंद के गोलोकवासी होने पर रामानंद ने पूरे देश का भ्रमण किया और अपने संप्रदाय की स्थापना की जिसे रामानंदी संप्रदाय कहा गया। अगस्त्य संहिता तथा अन्य संप्रदाय से जुड़े ग्रंथों के आधार पर कहा जाता है कि इनका जन्म इलाहाबाद में सन 1299 ई० में हुआ था। कुछ विद्वान इन्हें उत्तरी भारत का न मानकर दक्षिणात्य मानते हैं ओर मलकोटा-मैसूर में इनका जन्म मानते हैं। इनसे संबंधित सबसे प्रामाणिक कृति अगस्त्य संहिता में रामानंद के पिता का नाम पुण्यसदन तथा मां का नाम सुशीला था। कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे-और राघवानंद के शिष्य। अपने स्वतंत्र विचारों के कारण ही अपना स्वतंत्र संप्रदाय स्थापित किया। जिसे रामावत-संप्रदाय भी कहा गया। रामानुज के श्रीसंप्रदाय की दो शाखाएं हो गई थी-एक लक्ष्मी नारायण की उपासना करता था, दूसरा सीता-राम की। इस सीता-राम उपासना की परंपरा को रामानंद ने आगे बढ़ाया। पूरा जीवन राम-भक्ति परंपरा को अर्पित करके कहते हैं कि 1410 ई० को एक सौ ग्यारह वर्ष की अवस्था में गोलोकवासी हुए।
सभी जातियों-धर्मों वर्णों के लिए रामानंद ने रामनाम की महिमा की प्रतिष्ठा की। लोक को महत्त्व देकर शास्त्र-बंधन को ढीला भी किया तथा उसका अतिक्रमण भी। इन्होंने उपासना के लिए वैकुंठ निवासी विष्णु का स्वरूप न लेकर लोक में लीला-विस्तार करने वाले उनके अवतार राम का आश्रय लिया। इस तरह इनके इष्टदेव राम हुए और मूलमंत्र हुआ राम-नाम। ओऽम रामाय नमः इस भक्ति-सिद्धांत का बीज मंत्र है। रामानंद ने स्पष्ट किया कि राम के जितने भी रूप हैं उनमें लोक के लिए कल्याणकारी रूप लीलावतारी राम का है। मनुष्य मात्र को राम-भक्ति का अधिकारी मानकर उसे देश भेद, जाति-भेद, वर्ग-भेद आदि के विचार से दूर रखा। इस लोक भाव की महिमा के कारण ही महाभारत गीता, पुराणों की भक्ति दृष्टि की ओर गए। स्वामी रामानंद ने रामभक्ति के द्वार सभी जातियों के लिए खोलने के साथ एक उत्साही विरक्त दल का संगठन किया जो आज भी वैरागी के नाम से अयोध्या-चित्रकूट में मिलता है। प्रस्थानत्रयी के अनुपम विद्वान आचार्य रामानंद संस्कृत के स्थान पर देशी भाषा या लोक भाषा में रचना करने के समर्थक प्रथम आचार्य हैं। उनके तमाम शिष्य विशेषकर तुलसीदास आदि लोक-भाषा में सृजन करने के लिए स्वामी रामानंद की ही प्रेरणा से प्रवृत्त हुए। इस तरह रामानंद ने राम-नाम, राम-कथा, राम-कीर्तन, राम भजनामृत लीलामृत को घर-घर पहुंचाया। देशी-भाषा में या हिंदी में रामानंद ने स्वयं भी तमाम पद भजनों का सृजन किया और गाया भी।
रामानंद की कोई प्रामाणिक जीवनी न मिलने से उनके विषय में किंवदंतियों की भरमार मिलती है। एक प्रवाह यह है कि रामानंद अद्वैतियों के ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी थे। उस ब्रह्मचारी रामानंद ने वेदांत मठ में रहकर रामानुजाचार्य की सिद्धांत-दृष्टि का अध्ययन किया था। वैष्णवों के प्रधान आचार्य रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत सिद्धांत और प्रपत्ति मार्ग की ओर प्रवृत्त हुए। विशिष्टाद्वैत के आद्याचार्य रंगनाथ मुनि और यामनाचार्य हैं। तत्पश्चात रामानुजाचार्य ब्रह्मसूत्र पर श्री-भाष्य लिखकर आचार्य बने है। इन्होंने गीता-भाष्य किया तथा ब्रह्मसूत्र पर वेदांत-सूर, वेदांत-दीप नाम से टीकाएं की हैं। इनका उद्देश्य रहा दर्शन के ब्रह्मवाद और धर्म के ईश्वरवाद को तर्क एवं श्रद्धा में समन्वय करके जन-मन तक पहुंचाना। ब्रह्म इस जगत का निमित्त कारण एवं आदान दोनों है। रामानुजाचार्य के श्री संप्रदाय से संबंध रखते हुए रामानंद ने देश और काल की आवश्यकता के अनुकूल रामावत संप्रदाय नाम से अलग संप्रदाय चलाया। रामानंद ने मंत्र, उपास्थ-उपासना-पद्धति की दृष्टि से रामानुज संप्रदाय से अलग मौलिक भेद किए। रामानंद के ब्रह्म निर्गुणा होकर भी भक्तों के लिए सगुण रूप धारण करता है। रामानंद ने सभी वैष्णवों के लिए अहिंसा धर्म के पालन पर बल दिया। ब्रह्म एवं जीव में शेष शेषी संबंध स्वीकार किया और मोक्ष के स्थान पर भक्ति की स्थापना की है और नवधा भक्ति में भजन-कीर्तन-संगीत-लय को विशेष महत्त्व दिया।
एक किंवदंति यह भी है कि रामानंद ने बारह वर्ष तक योग साधना की थी। यह कथा वैरागियों की तपसी शास्त्र में आज भी प्रचलित है। सिखों के ग्रंथसाहब में दो पद, रामानंद के मौजूद हैं जिनमें रामानंद रमै एक ब्रह्म का स्मरण है-गुरु महिमा का प्रताप है। श्री वैष्णव मताब्जभास्कर में रामानंद के शिष्य सुरसरानंद ने नौ प्रश्न किए थे-जिनके उत्तर में रामानंद ने तारकमंत्र की विस्तृत व्याख्या की। इस व्याख्या में अहिंसा का महत्त्व, तत्वोपदेश, प्रपत्तिवाद, वैष्णवों की दिनचर्या, षौडशोपचार और पूजन पर विस्तार से गूढ़ और सूक्ष्म विमर्श किया गया है। रामानंद की शिष्य-परंपरा रामभक्ति की अर्चना-वंदना में निरंतर लगी रही और प्रबंध तथा मुक्तकों में राम-महिमा का गायन होता रहा। हिंदी-साहित्य के क्षेत्र में इस परंपरा का रसात्मक सिंध राम-रस को लेकर तब उमड़ा जब कबीर और तुलसी ने अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभाओं से भाषा-काव्य की सभी लोक प्रचलित पद्धतियों के बीच राम-रस की महिमा से मुरझाए मनों को नवजीवन प्रदान किया। रामानंद के शिष्य अनंतानंद, नरहर्यानंद, कबीर, तुलसी के भक्ति-प्रवाह में पूरा उत्तरी भारत लोक जागरण से जगमगाता रहा और आज भी रामानंद चिंतन अतीत से निकलता उजला वर्तमान है। जीव मात्र के प्रति प्रेम और इसके माध्यम से सब तरह के भेदों से मुक्ति रामानंद परंपरा का बीज-सूत्र है।
- डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल
रामानुजाचार्य : रामानुजाचार्य (1017-1117 ई०) को विशिष्टाद्वैत दर्शन का प्रवर्तक माना जाता है। वेदांत दर्शन की शंकराचार्य द्वारा की गई ज्ञानमार्गी अद्वैतवादी व्याख्या से कई परवर्ती अद्वैतवादियों को भी कई आपत्तियां थीं। शंकराचार्य के बाद भास्कर ने दसवीं शताब्दी में ब्रह्मसूत्र पर लिखी अपनी टीका भास्कर भाष्य में भेदाभेद के सिद्धांत का प्रस्ताव किया, जिसके अनुसार ब्रह्म और जीव एकतत्त्वात्मक होते हुए भी उपाधि भेद के कारण भिन्न हैं। कुछ काल तक रामानुजाचार्य के गुरु रहे यादवप्रकाश ने ग्यारहवीं शताब्दी में लिखी अपनी टीका में प्रतिपादित किया कि चेतन और अचेतन में एक ही द्रव्य के अवस्था-भेद के कारण भिन्नता है, जिसका तात्पर्य यह होता है कि अवस्था-भेद के कारण ही ब्रह्म और जगत् भिन्न होते हुए भी वस्तुतः अभिन्न हैं। यादवप्रकाश उपाधियों को भी एकत्व की ही भांति यथार्थ स्वीकार करते हैं।
चिंतन की इसी परंपरा में रामानुज भी आते हैं, लेकिन उनका मत है कि सत्ता है तो वह निर्गुण नहीं है-इसका सीधा तात्पर्य यह है कि ब्रह्म को ईश्वरत्व से अलग नहीं किया जा सकता। इसीलिए वह ईश्वर और ब्रह्म के बीच भेद को अप्रामाणिक मानते हुए ईश्वर को ज्ञान, शक्ति और करुणा से संपन्न कहते हैं और करुणा ही जगत की रचना का कारण है। ईसाई सिद्धांत में भी प्रेम को जगत की रचना का कारण बताया गया है। रामानुजाचार्य मानते हैं कि सभी सांत अस्तित्व अनंत ईश्वर में समाविष्ट हैं तथा सांतता, अंततः, अनंतता में समाविष्ट हो जाती है। लेकिन सांत अस्तित्व होने पर भी उनमें अनंत ईश्वर की तरह स्वतंत्र इच्छा तथा वरण का सामर्थ्य है और इसीलिए जीवात्मा (सांत अस्तित्व) अपनी स्वतंत्र इच्छा से प्रेरित कर्मों का परिणाम भोगती है। रामानुजाचार्य जीवात्मा को सोपाधिक आकृति मानते हैं, जिसके लिए ईश्वर ने कर्मविधान की रचना की है, जो उसकी ही इच्छा की अभिव्यक्ति है। रामानुजाचार्य यह तो मानते हैं कि, अंततः, मुक्ति ईश्वर की कृपा पर अवलंबित है, लेकिन इस कृपा को पुण्य कर्मों के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
कर्मविधान को महत्त्व देने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि रामानुजाचार्य मनुष्य को एक उत्तरदायी प्राणी मानते तथा ईश्वर-प्रदत्त उत्तरदायित्व को निभाने के लिए उसके सभी कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से करने का परामर्श देते हैं। डॉ० राधाकृष्णन के शब्दों का सहारा लें तो इस प्रकार के भाव से किया गया कर्म सात्विक प्रकृति का विकास करता है और पदार्थों के विषय में सत्य-ज्ञान को ग्रहण कर सकने में आत्मा का सहायक होता है। रामानुजाचार्य सर्वाधिक महत्त्व भक्ति-ईश्वर के प्रति समर्पण या प्रपत्ति-को देते हैं। लेकिन, साथ ही, ज्ञान और कर्म को ऐसे साधनों के रूप में प्रस्तावित करते हैं, जो स्वार्थपरता से हमें पूरी तरह मुक्त करके ईश्वर के करीब लाते हैं।
इसलिए, यह स्वाभाविक ही है कि रामानुज के लिए नैतिक साधना भी धार्मिक साधना का रूप हो जाती है। भक्ति में अन्य को भी अपने समान मानते हुए उसके कल्याण की कामना तथा उसके लिए प्रयत्न करना शामिल है क्योंकि, अंततः, वह भी अनंत ईश्वर में अपने ही समान समाविष्ट है। रामानुजाचार्य की नीति-मीमांसा में क्रिया का केंद्रीय महत्त्व है और उसके पांच प्रकारों में स्वाध्याय, ईश्वरोपासना तथा पूर्वजों के प्रति कर्त्तव्यों के साथ-साथ अन्य मनुष्यों तथा पशु-जगत के प्रति कर्त्तव्यों को भी स्वीकर किया गया है। सर्वदर्शन-संग्रह में अन्य प्राणियों के प्रति कल्याण-भावना, दया, अहिंसा और दान को सत्य, आर्जव तथा अनवसाद और आशा के साथ रामानुजीय नैतिकता की चारित्रिकताओं में गिनाया गया है।
सभी जीवात्माओं को एक ही अनंत ईश्वर में समाविष्ट मानने के कारण रामानुज ईश्वर-भक्ति या ईश्वर को प्राप्त करने के लिए किए जाने वालों में कोई जाति भेद स्वीकार नहीं करते और न वे इस दृष्टि से आश्रम-व्यवस्था को ही महत्त्व देते हैं। किसी भी वर्ण, जाति या आश्रम का व्यक्ति समान रूप से ईश्वर से प्रेम कर सकता तथा उसकी कृपा प्राप्त कर सकता है। परिया लोगों को मेलकोट मंदिर में प्रवेश करवाना उनकी इस मान्यता का ही उदाहरण है। तेरहवीं शताब्दी के रामानंदाचार्य को भी रामानुजाचार्य की परंपरा की आचार्य स्वीकार किया जाता है, जिनके शिष्यों में उच्च और निम्न मानी जाने वाली जातियों का अथवा स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं था। स्पष्ट है कि इस प्रकार का भेद मानना अथवा अन्य के साथ भेदमूलक व्यवहार ईश्वर के विधान का उल्लंघन है। इसी प्रकार रामानुज दर्शन में जब प्राणी मात्र के प्रति कल्याण-भावना, अहिंसा, दया और दान को शुभ गुणों के रूप में स्वीकार किया गया है तो स्पष्ट हो जाता है कि रामानुज की अहिंसा निष्क्रिय नहीं बल्कि एक सकारात्मक भाव है।
- नंदकिशोर आचार्य