इकबाल ने उन कवियों, कलाकारों और कहानीकारों पर बड़ा तरस खाया है जिनके मन-मस्तिष्क पर औरत सवार है। मगर हमारे मित्र और प्रशंसित बिशारत फारूकी उन बदनसीबों में से थे, जिनकी बेदाग जवानी उस शायर की शायरी की तरह थी जिसके बारे में किसी ने कहा था कि उसका कलाम गलतियों और मजे दोनों से खाली है। बिशारत की ट्रेजडी कवियों, कलाकारों और कहानीकारों से कहीं अधिक घोर गंभीर थी। इसलिए कि दुखिया के मन-मस्तिष्क पर औरत को छोड़ के हमेशा कोई-न-कोई सवार रहा। उम्र के उस दौर में जिसे अकारण ही जवानी-दीवानी से परिभाषित किया जाता है, उनकी सोच पर क्रमानुसार मुल्ला, बुजुर्ग, मास्टर फाखिर हुसैन, परीक्षक, मौलवी मुजफ्फर, दाग देहलवी, सहगल और ससुर सवार रहे। खुदा-खुदा करके वो इसी क्रम में उन पर से उतरे तो घोड़ा सवार हो गया। जिसका किस्सा हम 'स्कूल मास्टर का ख्वाब में' बता चुके हैं। वो मनहूस-कदम उनके सपनों, शांति और घरेलू बजट पर झाड़ू फेर गया। रोज-रोज के चालान, जुर्माने और रिश्वत से वो इतने तंग आ चुके थे कि अक्सर कहते कि अगर मुझे च्वायस दी जाये कि तुम घोड़ा बनना पसंद करोगे या उसका मालिक या कोचवान तो मैं बिना किसी हिचकिचाहट के वो इंस्पेक्टर बनना पसंद करूंगा जो इन तीनों का चालान करता है।
संगीन गलती करने के पश्चात hindsight करने वालों की भांति वो उस जमाने में च्वायस की बात बहुत करते थे, मगर च्वायस है कहां? महात्मा बुद्ध ने तो दो टूक बात कह दी कि अगर च्वायस दी जाती तो वो पैदा होने से ही इंकार कर देते। परंतु हम पूरे विश्वास से कह सकते हैं कि घोड़े को च्वायस दी जाये तो वो अगले जन्म में भी घोड़ा ही बनना पसंद करेगा, महात्मा बुद्ध बनना नहीं, क्योंकि वो घोड़ियों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता जैसे गौतम बुद्ध ने यशोधरा के साथ किया अर्थात उन्हें बेखबर सोता छोड़ कर जंगल को निकल जाये या किसी जॅाकी के साथ भाग जाये। घोड़ा कभी अपने घोड़ेपन से शर्मिंदा नहीं हो सकता। न कभी उस गरीब को आसमान वाले से शिकवा होगा, न अपने सवार से कोई शिकायत, न हर दम किसी और की तलाश में रहने वाली मादाओं की बेवफाई से गिला। यह तो आदमी ही है जो हर दम अपने आदमीपन से लज्जित और परेशान रहता है और इस चिंता में खोया रहता है कि
'डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता'
घोड़ा-तांगा रखने और उसे ठिकाने लगाने के बाद बिशारत में दो विपरीत परिवर्तन दिखाई दिये। पहला तो यह कि घोड़े और उसके दूर-निकट के सारे संबंधियों से हमेशा के लिए नफरत हो गयी। अकेले एक लंगड़े घोड़े ने उन्हें जितना नुकसान पहुंचाया, उतना सारे हाथियों ने मिल कर पोरस को नहीं पहुंचाया होगा। दूसरा परिवर्तन यह आया कि अब वो सवारी के बिना नहीं रह सकते थे। आदमी को एक बार सवारी की आदत पड़ जाये तो फिर अपनी टांगों से उनका स्वाभाविक काम लेने में अपमान के अतिरिक्त कमजोरी भी महसूस होने लगती है। उनका लकड़ी का कारोबार अब काफी फैल गया था जिसे वो कभी अपनी दौड़-धूप का फल और कभी अपने पिता जी की जूतियों के कारण बताते थे। जबकि स्वयं आदरणीय इसे भागवान घोड़े के कदमों की बरकत मानते थे। बहरहाल, ध्यान देने योग्य बात यह थी कि उनकी तरक्की का साधन और कारण कभी पैरों और जूतियों से ऊपर नहीं गया। किसी ने बल्कि स्वयं उन्होंने भी बुद्धिमानी और कुशलता को इसका क्रेडिट नहीं दिया। लकड़ी की बिक्री बढ़ी तो कार्यालयों के चक्कर भी बढ़े। उतनी ही सवारी की आवश्यकता भी बढ़ी। उस जमाने में कंपनियों में रिश्वत नहीं चलती थी इसलिए काम निकालने में कहीं अधिक तिरस्कृत और अपमानित होना पड़ता था। हमारे यहां ईमानदार अफसर के साथ मुसीबत यह है कि जब तक अकारण सख्ती, नुक्ताचीनी, अड़ियल, सड़ियलपन और सबको अपनी ईमानदारी से दुःखी न कर दे वो अपनी नौकरी को पक्का और अपने-आप को सुरिक्षत नहीं समझता।
बेईमान अफसर से बिजनेसमैन आसानी से निपट लेता है। ईमानदार अफसर से उसे घबराहट होती है। सूरते-हाल यह थी कि कंपनी से लकड़ी और खोखों का आर्डर लेने के लिए पांच चक्कर लगायें तो बिल की वसूली के लिए दस चक्कर लगाने पड़ते थे। जब से कंपनियां लीचड़ हुईं उन्होंने दस फेरों का किराया और मेहनत भी लागत में जोड़ के कीमतें बढ़ा दीं। उधर कंपनियों ने उनकी नयी कीमतों को लुट्टस करार दे कर दस प्रतिशत कटौती शुरू कर दी। बात वहीं की वहीं रही। अंतर केवल इतना पड़ा कि दोनों पार्टियां एक दूसरे को लालची, काइयां और चोर समझ कर लेन-देन करने लगीं और यह चौकस और कामयाब बिजनेस का बुनियादी उसूल है।
अब सवारी के बिना गुजारा नहीं हो सकता था, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि वो हो कौन-सी। उस समय टैक्सी केवल खास मौकों पर उपयोग की जाती थी। उदाहरण के तौर पर हार्ट-अटैक के मरीज को अस्पताल ले जाने, अपहरण करने, डाका डालने और पुलिस वालों को लिफ्ट देने के लिए, किसी को अस्पताल ले जाते थे तो केवल यह मालूम करने के लिए ले जाते थे कि जिंदा है या मर गया, क्योंकि बड़े अस्पताल में उन्हीं मरीजों को दाखिला मिलता था जो पहले उसी अस्पताल के किसी डाक्टर के प्राइवेट क्लीनिक में Preparatory इलाज करवा के अपनी हालत इतनी खराब कर लें कि उसी डाक्टर के माध्यम से अस्पताल में आखिरी मंजिल आसान करने के लिए दाखिला मिल सके। वैसे तो मरने के लिए कोई भी जगह अनुचित नहीं, परंतु प्राइवेट अस्पताल और क्लीनिक में मरने का सब से बड़ा फायदा यह है कि मरने वाले की जायदाद, जमा-जत्था और बैंक-बैलेंस के बंटवारे पर मृतक के संबंधियों में खून-खराबा नहीं होता, क्योंकि वो सब डाक्टरों के हिस्से में आ जाता है। अफसोस! शाहजहां के समय प्राइवेट अस्पताल न थे। वो उनमें दाखिल हो जाता तो आगरा किले में इतने लंबे अर्से तक कैद रहने और ऐड़ियां रगड़-रगड़ कर जीने से साफ बच जाता और उसके चारों बेटे तख्तनशीनी की जंग में एक-दूसरे के सर काटने के जतन में सारे हिंदुस्तान में आंख-मिचौली खेलते न फिरते, क्योंकि फसाद की जड़ यानी राज्य और खजाना तो बिल अदा करने में अत्यंत शांतिपूर्ण ढंग से जायज वारिसों यानी डाक्टरों के पास चला जाता। बल्कि सत्ता परिवर्तन के लिए पुरानी एशियाई परंपरा यानी बादशाह के मरने की भी आवश्यकता न रहती। इसलिए कि जीते-जी तो हर शासक इंतकाले-इक्तिदार (सत्ता-परिवर्तन) को अपना जाती इंतकाल (निजी मृत्यु) समझता है।
बिलों की वसूली के सिलसिले में वो कई बार साइकिल रिक्शा में भी गये, लेकिन हर बार तबियत भारी हुई। पैडल रिक्शा चलाने वालों को अपने से दुगनी सवारी ढोनी पड़ती थी, जबकि खुद सवारी को इससे भी जियादा भारी बोझ उठाना पड़ता था कि वो अपने जमीर से बोझों मरती थी। हमारे विचार में आदमी को आदमी ढोने की इजाजत सिर्फ दो सूरतों में मिलनी चाहिये, प्रथम तो उस समय जब दोनों में से एक मर चुका हो, दूसरे इस सूरत में जब दोनों में से एक उर्दू आलोचक हो, जिस पर मुर्दे ढोना फर्ज ही नहीं रोजी का साधन और शोहरत का कारण भी हो।
आत्महत्या , गरीबों की पहुंच से बाहर
एकाध बार खयाल आया कि बसों में धक्के खाने और स्ट्रिपटीज करवाने से तो बेहतर है कि आदमी मोटरसाइकिल खरीद ले। मोटरसाइकिल रिक्शा का सवाल ही पैदा नहीं होता था इसलिए कि तीन पहियों पर आत्महत्या का यह सरल और शर्तिया तरीका अभी ईजाद नहीं हुआ था। उस जमाने में आम आदमी को आत्महत्या के लिए तरह-तरह की मुसीबतें और खखेड़ उठानी पड़ती थीं। घरों का यह नक्शा था कि एक-एक कमरे में दस-दस आदमी इस तरह ठुंसे होते कि एक-दूसरे की आंतों की आवाज तक सुन सकते थे। ऐसे में इतना एकांत कहां नसीब, कि आदमी फांसी का फंदा कड़े में बांध कर अकेला शांति से लटक सके। इसके अतिरिक्त कमरे में सिर्फ एक ही कड़ा होता था, जिसमें पहले ही एक पंखा लटका होता था। गर्म कमरे के वासी इसकी जगह किसी और को लटकने की अनुमति नहीं दे सकते थे। रहे पिस्तौल और बंदूक, तो उनके लिए लाइसेंस की शर्त थी जो सिर्फ अमीरों, वडेरों और अफसरों को मिलते थे, सो आत्महत्या करने वाले रेल की पटरी पर दिन-दिन भर लेटे रहते क्योंकि ट्रेन बीस-बीस घंटे लेट होती थी। आखिर गरीब मौत से मायूस हो कर कपड़े झाड़ कर उठ खड़े होते।
मोटरसाइकिल में बिशारत को सबसे बड़ी खामी यह नजर आई कि मोटरसाइकिल वाला सड़क के किसी भी हिस्से पर मोटरसाइकिल चलाये, महसूस यही होगा गलत जगह चला रहा है। ट्रैफिक की दुर्घटनाओं पर रिसर्च करने के बाद हम भी इसी नतीजे पर पहुंचे हैं कि हमारे यहां, पैदल चलने और मोटर साइकिल चलाने वाले का सामान्य स्थान ट्रक और मिनी बस के नीचे है। दूसरी मुसीबत यह कि हमने आज तक कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो पांच साल से मोटरसाइकिल चला रहा हो और किसी दुर्घटना में हड्डी-पसली न तुड़वा चुका हो। मगर ठहरिये, खूब याद आया, एक व्यक्ति बेशक ऐसा मिला जो सात साल से किसी दुर्घटना का शिकार हुए बिना मोटर साइकिल चला रहा था। लेकिन वो सिर्फ मौत के कुएं में (well of death) में चलाता था। तीसरी समस्या उन्हें यह नजर आई कि मेनहोल बनाते समय म्यूनिसिपल कॅारपोरेशन दो बातों का लिहाज अवश्य रखती है, पहली तो यह कि वो हमेशा खुले रहें ताकि ढकना देख कर चोरों और उचक्कों को यह जिज्ञासा न हो कि न जाने भीतर क्या है। दूसरी, मुंह इतना चौड़ा हो कि मोटरसाइकिल चलाने वाला उसमें अंदर तक बिना किसी रुकावट के चला जाये। आसानी के साथ, तेज रफ्तारी के साथ, पीछे बैठी हुई सवारी के साथ।
गधा बीती
संभवतः आपके मन में यह प्रश्न उठे कि जब हर सवारी के गुणों-अवगुणों पर बाकायदा गौर और आप से मशवरा किया गया तो गधा और गधागाड़ी को क्यों छोड़ दिया। एक कारण तो वही है जो सहसा आपके दिमाग में आया, दूसरा ये कि जब से हमने गधे पर चेस्टरटन की जबरदस्त कविता पढ़ी, हमने इस जानवर पर हंसना और इसे तुच्छ समझना छोड़ दिया। ग्यारह वर्ष लंदन में रहने के बाद हम पर स्पष्ट हो गया कि पश्चिम में गधे और उल्लू को गाली नहीं समझा जाता। विशेष रूप से उल्लू तो उच्च चिंतन तथा बुद्धिमानी का प्रतीक है। सर्वप्रथम तो यहां कोई ऐसा नहीं मिलेगा जिसे सही अर्थों में उल्लू कह दिया जाये तो वो अपने जामे बल्कि अपने परों में फूला नहीं समायेगा। लंदन के चिड़िया-घर में उल्लू के कुछ नहीं तो पंद्रह पिंजरे जुरूर होंगे। हर बड़े पश्चिमी देश का प्रतिनिधि उल्लू मौजूद है। हर पिंजरा इतना बड़ा, जितना अपने यहां शेर का होता है और हर उल्लू इतना बड़ा जितना अपने यहां का गधा। अपने यहां का उल्लू तो उनके सामने बिल्कुल ही उल्लू लगता है। इंग्लैंड में चश्मे बनाने वालों की सबसे बड़ी कंपनी Donald Aitcheson का प्रतीक चिह्न उल्लू है जो उनके साइन बोर्ड, लेटर हेड और बिलों पर बना होता है। इसी प्रकार अमरीका के एक बड़े स्टाक ब्रोकर का लोगो उल्लू है। यह महज सुनी सुनायी बात नहीं हमने खुद डोनाल्ड ऐचिसन की ऐनक लगा कर उसी स्टाक ब्रोकर की सलाह तथा भविष्यवाणी के अनुसार कंपनी शेयर्ज और बांड्ज के तीन-चार 'फारवर्ड' सौदे किये, जिनके बाद हमारी सूरत दोनों के प्रतीक चिह्न से मिलने लगी।
पूर्व राष्ट्रपति कार्टर की डेमोक्रेटिक पार्टी का निशान गधा था, बल्कि हमेशा से रहा है। पार्टी के झंडे पर भी यही बना होता है। इसी झंडे के नीचे पूरा अमरीका राष्ट्र ईरान के विरुद्ध सीसा पिलाई दीवार की भांति खड़ा रहा। हमारा मतलब है - एकदम संवेदनहीन, जड़। पश्चिम को गधे में कोई हास्यास्पद बात नजर नहीं आती। फ्रांसीसी चिंतक और निबंध लेखक मोंतेन तो इस जानवर के गुणों को इतना प्रशंसक था कि एक जगह लिखता है कि 'धरती पर गधे से अधिक विश्वसनीय, दृढ़-निश्चयी, गंभीर, संसार को तुच्छ समझने वाला और अपने ही ध्यान और धुन में मग्न रहने वाला अन्य कोई प्राणी नहीं मिलेगा।' हम एशियाई दरअस्ल गधे को इसलिए जलील समझते हैं कि इसमें कुछ मानवीय गुण पाये जाते हैं। मिसाल के तौर पर यह अपनी सहार और साहस से बढ़कर बोझ उठाता है और जितना जियादा पिटता तथा भूखों मरता है, उतना ही अपने मालिक का आज्ञाकारी और शुक्रगुजार होता है।
बेकार न रह
सवारियों के गुणों-अवगुणों पर इस बहस का उद्देश्य केवल यह दिखाना था कि बिशारत ने जाहिर यह किया कि वो खूब सोच-विचार के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि कार खरीदना कारोबारी जुरूरत से अधिक तर्कसंगत तकाजा है और अगर कार न खरीदी तो कारोबार ठप होगा सो होगा, तर्क का खून हो जायेगा और अरस्तू की आत्मा स्वर्ग में या जहां कहीं भी हैं, तड़प उठेगी। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत थी, उन्हें जिंदगी में किसी चीज की कमी शिद्दत से महसूस होने लगी थी जो दरअस्ल कार नहीं, स्टेटस-सिंबल था। जब कोई व्यक्ति दूसरों को आश्वस्त करने के लिए जोर-शोर से फलसफा और तर्क बघारने लगे तो समझ जाइये कि अंदर से वो बेचारा खुद भी ढुलमुल है और किसी ऐेसे भावुक नामाकूल निर्णय का बौद्धिक, तार्किक कारण ढूंढ़ रहा है, जो वो बहुत पहले ले चुका है। हेनरी सप्तम ने शादी रचाने के लिए पोप से संबंध तोड़ कर एक नये मजहब की शरुआत कर दी। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि इंग्लैंड के मजहब यानी चर्च आफ इंग्लैंड की बुनियाद एक तलाक पर रखी गयी थी। मिर्जा कहते हैं कि आज के युग में नये धर्म की ईजाद का इससे अधिक उचित कारण और हो भी नहीं सकता।
विधवा मेम की मुस्कुराहट की कीमत
बिशारत काफी अर्से से सेकेंड हैंड कार की तलाश में मारे-मारे फिर रहे थे कि एक दिन खबर मिली कि एक ब्रिटिश कंपनी के अंग्रेज अफसर की 6 सिलिंडर की बहुत बड़ी कार बिकाऊ है। अफसर का दो महीने पहले अचानक निधन हो गया था और अब उसकी जवान विधवा उसे औने-पौने ठिकाने लगाना चाहती थी। बिशारत ने विधवा को एक नजर देखते ही फैसला कर लिया कि वो उसकी कार को जिसे उन्होंने अभी तक दूर से भी नहीं देखा था, खरीद लेंगे। वो इस कंपनी को तीन साल से चीड़ के पैकिंग केस और लकड़ी सप्लाई कर रहे थे, कंपनी के पारसी चीफ एकाउटेंट ने कहा कि आप यह कार 3483 रुपये 10 आने 11 पाई में ले जाइये। हो सकता है पाठकों को यह रकम और आखिरी आने पाई तक की बारीकी अजीब लगे, मगर बिशारत को अजीब नहीं लगी, इसलिए कि यह वो रकम थी, जो कंपनी एक अर्से से इस बहाने से दबाये बैठी थी कि उन्होंने खराब खोखे सप्लाई किये। जिसके कारण चिन्योट और सियालकोट में बाढ़ के दौरान कंपनी के सारे माल की लुगदी बन गयी। बिशारत कहते थे कि मैंने बारह-बारह आने में चीड़ के खोखे सप्लाई किये थे, पनडुब्बी या नूह की नाव नहीं। कंपनी के खिसियाने अफसर Act of God का आरोप मुझ परेशान पर लगा रहे हैं।
खूबसूरत मेम ने जिसके विधवा होने से वो अप्रसन्न न थे, परंतु जिसे विधवा कहते हुए उनका कलेजा मुंह को आता था, यह शर्त और लगा दी कि तीन महीने बाद जब वो पानी के जहाज से लंदन जायेगी तो उसके सामान की पैकिंग के लिए मुफ्त क्रेट, कीलें और तुरखान साथ में सप्लाई करने होंगे। इस शर्त को उन्होंने न केवल स्वीकार किया बल्कि अपनी ओर से यह और बढ़ा दिया कि मैं रोज आपके बंगले पर आ कर आपकी और अपनी निगरानी में स्वयं पैकिंग कराऊंगा। बिशारत ने चीफ एकाउंटेंट से कहा कि कार बहुत पुरानी है, 2500 में मुझे दे दो। उसने जवाब दिया ठीक है, आप अपने खराब खोखों का बिल घटा कर 2500 कर दें। बिशारत ने मेम से गुहार लगाई कि कीमत बहुत जियादा है, कह सुन के कुछ कम करा दो। उसकी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए यह वाक्य और जोड़ दिया कि 'गरीब आदमी हूं सात-आठ बच्चे हैं। उनके अतिरिक्त तेरह भाई बहन मुझसे छोटे हैं।'
यह सुनते ही मेम के चेहरे पर आश्चर्य, सहानुभूति और प्रशंसा का मिला-जुला भाव आया, कहने लगी
"Oh! my dear! I see what you mean. Your parents too were poor but passionate"
इस पर उन्हें बहुत क्रोध आया। उत्तर में कहना चाहते थे कि तुम मेरे बाप तक क्यों जाती हो? लेकिन इस वाक्य की अंग्रेजी नहीं बनी और जो अनुवाद उनकी जबान पर आते-आते रह गया, उस पर खुद उन्हें हंसी आ गयी। उन्होंने उसी समय मन-ही-मन निर्णय किया कि अब कभी अपने बच्चों और भाई बहनों की संख्या बढ़ा चढ़ा कर नहीं बतायेंगे, राशन कार्ड बनवाते समय की बात अलग है। इतने में मेम बोली कि 'इन दामों यह कार महंगी नहीं। इससे अधिक तो मेरे पति के सागवान के ताबूत की लागत आई थी' इस पर सेल्जमैनशिप के जोश में बिशारत के मुंह से निकल गया कि 'मैडम आप आइंदा यह चीज हम से आधे दामों में ले लीजियेगा' मेम मुस्कुरा दी और सौदा पक्का हो गया। यानी 3483 रुपये, दस आने और ग्यारह पाई में कार उनकी हो गयी।
इस घटना का उन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि किसी ग्राहक के नाम का बिल बनाते तो यह लिहाज जुरूर रखते कि कम से कम कीमत पर माल बेचें ताकि कम से कम रकम डूबे और अगर कोई उनका बिल दिये बिना मर जाये और उसकी सुंदर विधवा से रकम के बदले कोई चीज लेनी पड़े तो कम से कम दामों में हाथ लग जाये।
मैं खुद आई नहीं लाई गयी हूं
बिशारत इस गुमान में थे कि उन्होंने सस्ते दामों कार खरीदी है जबकि हकीकत यह थी कि उन्होंने अपने खोखे घाटे से बेचे थे, लेकिन खुशफहमी और धोखे से दिल खुश हो जाये तो क्या हर्ज है। मिर्जा इसी बात को अपने बुकराती अंदाज में इस प्रकार कहते हैं कि हमने बावन गज गहरे ऐसे अंधे कुएं भी देखे हैं जो समझते हैं कि वो खुद को औंधा दें यानी सर के बल उल्टे खड़े हो जायें तो बावन गज की मीनार बन जायेंगे। बहरहाल, बिशारत ने Beige रंग की कार खरीद ली। वो अत्यंत विनम्र स्वभाव वाले व्यक्ति हैं, इसलिए दोस्तों से यह तो नहीं कहा कि हम भी कार वाले हो गये। अल्बत्ता अब एक-एक से कहते फिर रहे हैं कि आपने 'बेइज रंग' देखा है। हर व्यक्ति न में गर्दन हिलाता। फर्माते 'साहब, अंग्रेज ने अजीब रंग ईजाद किया है। उर्दू में तो इसका कोई नाम भी नहीं। नमूना पेश करूंगा।'
कार खरीदते ही वो बेहद सोशल हो गये और ऐसे लोगों के घर भी बेइज रंग का नमूना दिखाने के लिए ले जाने लगे जिनसे वो ईद बकरईद पर भी मिलने को तैयार न थे, जो मित्र यह अजूबा देखने उनके घर आते, उन्हें मिठाई खाये बिना नहीं जाने देते थे। इसी मुबारक, सलामत में एक महीना बीत गया। एक दिन एक दोस्त के यहां कार की मुंह दिखाई करवाने जा रहे थे कि वो आधे रास्ते में हचकोले खाने लगी फिर उस पर काली खांसी का दौरा पड़ा। दम घुटने की वज्ह से धड़कन कभी हल्की-हल्की सुनायी देती, कभी एकदम गायब, सोचा शायद बहाना किये पड़ी है। अचानक संभाला लिया, हेड लाइट में एक पल के लिए रोशनी आई, हार्न ने कुछ बोलना चाहा मगर कमजोरी आड़े आई। कुछ क्षणों के उपरांत धकड़-पकड़ धक-धक धूं करके जहां खड़ी थी वहीं अंजर-पंजर बिखेर के ढेर हो गयी। radiator के एक सिरे से भाप और दूसरे से तलल-तलल पानी निकलने लगा। गधा गाड़ी से खिंचवा के घर लाये मिस्त्री को घर बुला कर दिखाया उसने बोनट खोलते ही तीन बार दायें हाथ से अपना माथा पीटा। बिशारत ने पूछा खैर तो है? बोला बहुत देर कर दी, इसमें तो कुछ रहा नहीं, सब पुर्जे जवाब दे चुके हैं। आपको मुझे छः महीने पहले बुलाना चाहिये था। बिशारत ने जवाब दिया कि बुलाता कहां से, खरीदे हुए कुल एक महीना हुआ है। बोला तो फिर खरीदते समय पूछा होता। आदमी सुराही भी खरीदता है तो पहले टन-टन बजा कर देख लेता है यह तो कार है आप जियादा खर्च नहीं करना चाहते तो मैं फिलहाल काम चलाऊ मरम्मत कर देता हूं। बुजुर्ग कह गये हैं कि आंखों, गोड़ों में पानी उतर आये तो माजून और चंपी मालिश कारगर नहीं होती फिर तो लाठी बैसाखी चाहिये या जवान जोरू। बिशारत को उसकी यह बेतकल्लुफी बहुत बुरी लगी, मगर गर्जमंद सिर्फ आइने को मुंह चिढ़ा सकता है।
इसके बाद कार लगातार खराब रहने लगी। कोई पुर्जा ठीक नहीं लगता था सिर्फ rear view mirror यानी पीछे आने वाला ट्रेफिक दिखाने वाला आईना सही काम कर रहा था। कई बार कार की रफ्तार गधा-गाड़ी से भी अधिक सुस्त हो जाती जिसकी वज्ह यह थी कि वो इसी में बांध, खींच कर लाई जाती थी।
मैं खुद आई नहीं, लाई गयी हूं
कार स्टार्ट करने से पहले वो गधा-गाड़ी का किराया और बांधने के लिए रस्सी इत्यादि अवश्य रख लेते थे। इस मशीनी जनाजे को गलियों में खींचने की प्रक्रिया, जिसे वो tow करना कहते थे, इस हद तक दोहराया गया कि घर में किसी नेफे में कमरबंद और चारपायी में अदवान न रही। चारपायी पर सोने वाले रात भर करवट-करवट झूला झूलने लगे। नौबत यहां तक पहुंची कि एक दिन बनारस खां चौकीदार की बकरी की जंजीर खोल लाये, मिर्जा कहते ही रह गये कि जो जंजीर बालिश्त भर की बकरी को काबू में न रख सकी, तीन बार 'हरी' हो चुकी है, वो तुम्हारी कार को क्या खाक बांध के रखेगी।
हरफन (मस्त) मौला: अलादीन बेचिराग
ड्राइवर की समस्या अपने-आप इस प्रकार हल हो गयी कि मिर्जा वहीदुज्जमां बेग उर्फ खलीफा ने, जो कुछ अर्सा पहले उनका तांगा चला चुका था, स्वयं को इस सेवा पर नियुक्त कर लिया। तन्ख्वाह अलबत्ता दुगनी मांगी, कारण यह बताया कि पहले आधी तन्ख्वाह पर इसलिए काम करता था कि घोड़े का दाना-चारा खुद बाजार से लाता था। पहले-पहल कार देखी तो बहुत खुश हुआ। इसलिए कि इसकी लंबाई घोड़े से तीन हाथ जियादा थी। दूसरे इस पर सुब्ह-शाम खरेरा करने का झंझट नहीं था। पुश्तैनी पेशा हज्जामी था, लेकिन वो हरफनमौला नहीं हरफन-मस्त-मौला था। दुनिया का कोई काम ऐसा नहीं था जो उसने न किया हो और बिगाड़ा न हो। कहता था कि जिस जमाने में वो बर्मा फ्रंट पर जापनियों को पराजित कर रहा था तो उनके सर कुचलने से जो समय बचता, जो कि बहुत कम बचता था, उसमें फौजी ड्राइविंग किया करता था। उसकी सवारियों ने कभी उसकी ड्राइविंग पर नाक भौंह नहीं चढ़ाई। बड़े-से-बड़ा एक्सीडेंट भी हुआ तो कभी किसी सवारी की मृत्यु नहीं हुई, जिसकी वज्ह यह थी कि वो गोरों की मुर्दागाड़ी चलाता था। जो शेखी भरी कहानियां वो सुनाता था उनसे जाहिर होता था कि रेजिमेंट के मरने वालों को उनकी कब्र तक पहुंचाने का और जो फिलहाल नहीं मरे थे, उनकी हजामत का कर्तव्य उसने अपनी जान पर खेल-खेल कर अंजाम दिया। इस बहादुरी के बदले में एक कांसे का मेडल मिला था जो 1947 के हंगामों में एक सरदार जी ने किरपाण दिखा कर छीन लिया।
ऐसे अभिमान-भरे गुब्बारों में सूई चुभोना बिल्कुल जुरूरी नहीं, हां! इतनी पुष्टि हम भी कर सकते हैं कि जब से उसने सुना कि बिशारत कार खरीदने वाले हैं, उसने गुल बादशाह खान ट्रक ड्राइवर से कार चलाना सीख लिया। लेकिन यह ऐसा ही था जैसे कोई व्यक्ति लुहार की शागिर्दी करके सुनार का काम शुरू कर दे। ड्राइविंग टेस्ट उस जमाने में एक एंग्लो-इंडियन सार्जेंट लिया करता था। जिसके सारे परिवार के बाल वो पांच-छः साल से काट रहा था। खलीफा का कहना था कि सार्जेंट ने कोर्ट के पास वाले मैदान में मेरा टेस्ट लिया। टेस्ट क्या था सिर्फ रस्मी खानापूरी कहिये। बोला ^^Well! Caliph! कार से इंग्लिश का figure of 8 बना कर दिखाओ। खाली उस ऐरिया में जहां हम यह लाल झंडी लिए खरा है। इस लाइन को क्रास नईं करना। 8 एक दम रिवर्स में बनाना मांगटा।' यह सुनते ही मैं भौचक्का रह गया। रिवर्स मैंने सीखा ही नहीं था। गुल बादशाह खान से मैंने एक बार कहा था कि उस्ताद मुझे रिवर्स में भी चलाना सिखा दो तो वो कहने लगा 'यह मेरे उस्ताद ने नहीं सिखाया, न कभी इसकी जुरूरत पड़ी। मेरा उस्ताद चिनार गुल खान बोलता था कि शेर, हवाई जहाज, गोली, ट्रक और पठान रिवर्स गियर में चल ही नहीं सकते।'
'मैंने अपने दिल में कहा कि चुकंदर की दुम! मैं अंग्रेजी का 8 अंक बना सकता तो तेरे जैसे भालू की हजामत काये को करता, गवर्नर की चंपी-मालिश करता। क्या बताऊं इस गुनहगार ने कैसे-कैसे पापड़ बेले हैं...
'तो जनाबे-आली! सार्जेंट ने अपने बूट से जमीन पर 8 बना कर दिखाया। मैं बेफिजूल डर गया था। अब पता लगा कि साईसी में जिसे अटेरन कहते हैं, उसे अंग्रेजी में 'फिगर आफ 8' कहते हैं। जंगली घोड़े को साधने और उसकी सारी मस्ती निकालने के लिए उसे तेजी से दो घड़ी फिरत चक्कर देने को अटेरन कहते हैं। तो ड्राइविंग टेस्ट का यह मकसद है। पर मैं कुछ नहीं बोला, बस जल तू जलाल तू कह के रिवर्स में 8 के बजाय कसे हुए कमरबंद की सी गिरह बनाने लगा कि एकाएक पीछे से सार्जेंट के चीखने चिल्लाने की आवाजें आयीं। 'स्टाप! स्टाप! यू इंडियन!' वो अपनी जान बचाने के लिए कार के बंपर पे लाल झंडी समेत चढ़ गया था। कमरबंद की गिरह में लिपटते-लिपटते यानी कार के नीचे आते-आते बचा। मैंने कहा, 'सर दोबारा टेस्ट के लिए आ जाऊं?' मगर उसने दोबारा टेस्ट लेना मुनासिब न समझा। दूसरे दिन आपके गुलाम को लाइसेंस मिल गया।
'आपकी जूतियों के सदके हर कला में निपुण हूं। मुझे क्या नहीं आता। जर्राही (शल्य चिकित्सा) भी की है। एक आपरेशन बिगड़ गया तो कान पकड़े। हुआ यूं कि मेरा दोस्त अल्लन अपने मामूं की बेटी पर दिलो-जान से फिदा था पर वो किसी तरह शादी पर तैयार नहीं होती थी। न जाने क्यों अल्लन को यह वहम हो गया कि उसकी बायीं टांग पर जो मस्सा है, उसकी वज्ह से शादी नहीं हो रही। मैंने वो मस्सा काट दिया जो नासूर बन गया। वो लंगड़ा हो गया। वो दिन है और आज का दिन, मैंने सर्जरी नहीं की। वो लड़की आखिरकार मेरी बीबी बनी। मेरी दायीं टांग पे मस्सा है।'
माहौल पर लाहौल और मार्कोनी की कब्र पर ...
कार अनेक अंदरूनी तथा बाहरी गुप्त-प्रकट रोगों से पीड़ित थी। एक पुर्जे की मरम्मत करवाते तो दूसरा जवाब दे देता। जितना पेट्रोल जलता, उतना ही मोबिल-ऑइल और इन दोनों से दुगना उनका अपना खून जलता। आज क्लच-प्लेट जल गयी तो कल डाइनेमो बैठ गया और परसों गियर-बाक्स बदलवा कर लाये तो ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई सीट के नीचे कुदाल चला रहा है। खलीफा ने रोग का निदान किया साहब! अब यूनिवर्सल अड़ी कर रहा है, फिर ब्रेक गड़बड़ करने लगे। मिस्त्री ने कहा, माडल बहुत पुराना है, पुर्जे बनने बंद हो गये। आप कहते हैं तो मरम्मत कर दूंगा, मगर मरम्मत के बाद ब्रेक या तो हमेशा लगा रहेगा या खुला रहेगा। सोच कर दोनों में से चूज कर लीजिये। दो सप्ताह पश्चात खलीफा ने सूचना दी कि कार के Shock Observers समाप्त हो गये। वो Shock Absorbers को Shock Observers कहता था और सच तो यह है कि अब वो शॉक रोकने के योग्य नहीं रहे थे। अनुभवी बड़े-बूढ़ों की भांति हो गये थे जो किसी अंधेरे कोने या सीढ़ियों के नीचे वाली तिकोनी में पड़े-पड़े सिर्फ सिर्फ सिर्फ Observe कर सकते हैं, जो नालायक दिखायें सो लाचार देखना। यह मंजिल आत्मज्ञान की है, जब इंसान अपनी आंख से बेहूदा-से-बेहूदा हरकत और करतूत देख कर न दुःखी हो, न क्रोध में आये और न माहौल पर लाहौल पढ़े (लानत भेजे) तो इसके दो कारण हो सकते हैं। पहले हम दूसरा कारण बतायेंगे - वो यह कि वह बुजुर्ग अनुभवी, पारखी, गंभीर और क्षमाशील हो गया है और पहला कारण यह कि हरकत उसकी अपनी ही है।
एक दिन ग्यारह बजे रात को कहीं से वापसी में कब्रिस्तान के सामने से गुजर रहे थे कि अचानक हार्न की आवाज में कंपन पैदा हुआ, घुंघरू-सा बोलने लगा, स्वयं उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया कि हेड लाइट की रोशनी जा चुकी थी। खलीफा ने कहा, 'जनाबे-आली! बैटरी जवाब दे रही है' उन्हें आश्चर्य हुआ, क्योंकि वो रोज अपनी लकड़ी की दुकान पर पहुंचते ही बैटरी को कार से निकाल कर आरा मशीन में जोड़ देते थे ताकि आठ घंटे तक चार्ज होती रहे। शाम को घर पहुंचते ही उसे निकालकर अपने रेडियो से जोड़ देते जो सिर्फ कार बैटरी से चलता था। फिर रात को बारह-एक बजे जब रेडियो प्रोग्राम समाप्त हो जाते तो उसे रेडियो से अलग करके वापस कार में लगा देते। इस तरह बैटरी आठ-आठ घंटे की-तीन शिफ्टों में तीन अलग-अलग चीजों से जुड़ी रहती थी। जवाब न देती तो क्या करती, बिल्कुल कन्फ्यूज हो जाती थी। हमने खुद देखा कि उनके रेडियो से तय कार्यक्रम की बजाय अक्सर आरा मशीन की आवाजें प्रसारित होती रहती थीं जिन्हें वो पक्का राग समझ कर एक अर्से तक सर धुना किये। इसी प्रकार कार के इंजन से मोटर की खराबी की रेडियाई आवाजें आने लगी थीं। अजीब घपला था, रात को पिछले पहर के सन्नाटे में जब अचानक अजीब-अजीब आवाजें आने लगतीं तो घर वाले यह नहीं बता सकते थे कि वो रेडियो की हैं या कार की, या आरा मशीन में कव्वाल फंस गया है। उन बेचारों की मजबूरी क्षमा-योग्य थी, इसलिए कि इन आवाजों का स्रोत दरअस्ल वो गला था जिससे बिशारत खर्राटे ले रहे होते थे। एक और मुसीबत यह कि जब तक रेडियो स्टेशन बंद न हो जाता, तीन चार पड़ोसी उनकी छाती पर सवार कार्यक्रम सुनते रहते। बिशारत इस दुःखदायी अविष्कार से सख्त नफरत करने लगे थे। संभवतः ऐसी ही परिस्थितियों और ऐसे ही ब्लैक मूड में अंग्रेजी कवि फिलिप लोर्केन ने कहा था कि मार्कोनी की कब्र पर पब्लिक टॉयलट बना देना चाहिये।
सौदावी (वात-संबंधी विकार) और सूबाई (प्रांतीय) स्वभाव के चार पहिये
कुछ रोज से जब गर्मी ने तेजी पकड़ी तो चारों पहियों का स्वभाव सौदावी और सूबाई हो गया। मतलब यह कि चारों पहिये चार अलग दिशाओं में जाना चाहते और स्टेयरिंग व्हील पहियों की इच्छानुसार घूमने लगता था। खलीफा से पूछा 'अब यह क्या हो रहा है?' उसने बताया 'हुजूर! इसे वॉबलिंग (wobbling) कहते हैं।' उन्होंने इत्मीनान का लंबा सांस लिया, रोग का नाम मालूम हो जाये तो तकलीफ तो दूर नहीं होती, उलझन दूर हो जाती है। जरा बाद यह सोच कर मुस्कुरा दिये कि कार यह चाल चले तो woobling राजहंस चले तो waddling, नागिन चले तो wriggling और नारी चले तो wiggling
यह किनारा चला कि नाव चली
वाह क्या बात ध्यान में आई
इस बार वो खुद भी वर्कशाप गये। मिस्त्री ने कहा 'जंग से साइलेंसर भी झड़ने वाला है' उसने सलाह दी कि 'अगले महीने जब नया हार्न फिट करायें तो साइलेंसर भी बदलवा लें, इस समय तो यह अच्छा-खासा हार्न का काम दे रहा है,' बिशारत ने झुंझला कर पूछा 'इसका कोई पुर्जा काम भी कर रहा है या नहीं?' मिस्त्री पहले तो सोच में पड़ गया, फिर जवाब दिया कि mileometer दुगनी रफ्तार से काम कर रहा है! दरअस्ल अब कार की कार्यक्षमता बल्कि कार्य-अक्षमता Murphy's law (Any thing that can go wrong will go wrong) के ठीक अनुसार हो गयी थी। इस सूरत में सरकार तो चल सकती है, कार नहीं चल सकती।
ऊंट तराना
लगातार मरम्मत के बावजूद ब्रेक दुरुस्त न हुए, लेकिन अब इनकी कमी महसूस नहीं होती थी, इसलिए कि इनके इस्तेमाल की नौबत नहीं आती थी, जिस जगह ब्रेक लगाना हो कार उससे एक मील पहले ही रुक जाती थी। बिशारत ने तो जब से ड्राइविंग सीखनी शुरू की, वो बिजली के खंबों से ब्रेक का काम ले रहे थे। खंबों के इस्तेमाल पर इनका कई कुत्तों से झगड़ा भी हुआ, मगर अब कुछ कुत्तों ने चमकती व्हील कैप से खंबे का काम लेना शुरू कर दिया था। वो अपने-आप को गर्दन मोड़-मोड़ कर व्हील-कैप में देखते भी जाते थे। हाल ही में बिशारत ने यह भी नोटिस किया कि कार कुछ अधिक ही संवेदनशील हो गयी है, सड़क क्रास करने वाले की गाली से भी रुकने लगी है। अगर गाली अंग्रेजी में हो वो आहिस्ता-आहिस्ता खुश खिरामी (अच्छी रफ्तार) से सुबुक खिरामी (तेजी की रफ्तार) और मस्त खिरामी (मजे की रफ्तार) फिर आहिस्ता खिरामी (हल्की रफ्तार) और अंत में मखिरामी (ना चलना) की मंजिलों से गुजर कर अब निरी नमकहरामी पर उतर आती थी। उसकी चाल अब उन अड़ियल ऊंटों से मिलने लगी जिसका चित्रण किपलिंग ने ऊंटों के Marching Song में किया है, जिसकी तान इस पर टूटती हैः
Can't! Don't! Shan't! won't!
निःसंदेह यह तान इस योग्य है कि तीसरी दुनिया के देश जो किसी प्रकार आगे नहीं बढ़ना चाहते, इसे अपना राष्ट्र-गान बना लें।
'स्टूपिड काउ' से संवाद
ढाई-तीन महीने तक बिशारत का सारा समय, मेहनत, कमाई, दुआयें और गालियां नकारा कार पर खर्च होती रहीं। अभी बलबन का घाव पूरी तरह नहीं भरा था कि यह 'फोपा' हो गया। बेकौल उस्ताद कमर जलालवी
अभी खा के ठोकर संभलने न पाये
कि फिर खाई ठोकर संभलते-संभलते
कार अब अपनी मर्जी की मालिक हो गयी थी, जहां चलना चाहिये, वहां ढिठाई से खड़ी हो जाती और जहां रुकना होता वहां ख्वामखा चलती रहती। मतलब यह कि चौराहे और सिपाही के ग्रीन सिग्नल पर खड़ी हो जाती परंतु बंपर के सामने कोई राहगीर आ जाये तो उसे नजरअंदाज करती हुई आगे बढ़ जाती। जिस सड़क पर निकल जाती, उसका सारा ट्रैफिक उसके चलने और रुकने के हिसाब से चलता-रुकता था।
थक हार कर बिशारत उसी मेम के पास गये और खुशामद की कि खुदा के लिए पांच सौ कम में भी यह कार वापस ले लो। वो किसी प्रकार न मानी। उन्होंने अपनी फर्जी दरिद्रता और उसने अपने वैधव्य का वास्ता दिया। इंसाफ की उम्मीद न रही तो रहम की अपील में जोर पैदा करने के लिए दोनों अपने-आपको एक-दूसरे से अधिक बेचारा और बेसहारा साबित करने लगे। दोनों परेशान थे, दोनों दुखी और मुसीबत के मारे थे, लेकिन दोनों एक-दूसरे के लिए पत्थर का दिल रखते थे। बिशारत ने अपनी आवाज में बनावटी दर्द और जल्दी-जल्दी पलकें पटपटा कर आंखों में आंसू लाने चाहे, मगर उल्टा हंसी आने लगी। मजबूरी में दो-तीन बेहद दर्दनाक, परंतु एकदम फर्जी दृश्य (अपने मकान और दुकान की कुर्की और नीलामी का दृश्य, ट्रैफिक की दुर्घटना में अपनी असमय मृत्यु और इसकी खबर मिलते ही बेगम का झट से सफेद मोटी मलमल का दुपट्टा ओढ़ कर छन-छन चूड़ियों तोड़ना और रो-रो कर अपनी आंखें सुजा लेना) आंखों में भर कर रोने का प्रयास किया, लेकिन न दिल पिघला, न आंख से आंसू टपका। जीवन में पहली बार उन्हें अपने सुन्नी होने पर क्रोध आया। सहसा उन्हें अपने इन्कम-टैक्स के नोटिस का खयाल आ गया और उनकी घिग्घी बंध गयी। उन्होंने गिड़गिड़ाते हुए कहा कि 'मैं आप से सच कहता हूं, अगर यह कार कुछ दिन और मेरे पास रह गयी तो मैं पागल हो जाऊंगा या बेमौत मर जाऊंगा'।
यह सुनते ही मेम पिघल गयी, आंखों में दुबारा आंसू भर के बोली, 'आपके बच्चों का क्या बनेगा जिनकी ठीक संख्या के बारे में भी आपको शक है कि सात हैं या आठ। सच तो यह है कि मेरे पति की हार्ट अटैक से मौत भी इसी मनहूस कार के कारण हुई और उन्होंने इसी के स्टेयरिंग व्हील पर दम तोड़ा।'
उनके मुंह से बरबस निकला कि इससे तो बेहतर था मैं घोड़े के साथ ही गुजारा कर लेता। इस पर वो चौंकी और बड़ी बेसब्री से पूछने लगी।
"Your mean! a real horse?"
"Yes of course! why?"
'मेरे पहले पति की मृत्यु घोड़े से गिरने से हुई थी। वो भला-चंगा पोलो खेल रहा था कि घोड़े का हार्ट फेल हो गया। घोड़ा उस पर आ गिरा। वो मुझे बड़े प्यार से Stupid cow कहता था।' उसकी एंग्लो सेक्सन ब्लू ग्रे आंखों में सचमुच के आंसू तैर रहे थे।
वैसे बिशारत बड़े नर्म दिल के हैं। जवान औरत की आंखों में इस तरह आंसू देख कर उनके दिल में उसके आंसुओं को रेशमी रूमाल से पोंछने और उसकी विधवा की स्थिति तुरंत समाप्त करने की तीव्र इच्छा जागी
'कि बने हैं दोस्त नासेह'
इंसान का कोई काम बिगड़ जाये तो नाकामी से इतनी उलझन नहीं होती जितनी उन बिनमांगे मशवरों और नसीहतों से होती है, जिन्हें हर वो शख्स देता है जिसने कभी इस काम को हाथ तक नहीं लगाया। किसी ज्ञानी ने कैसे पते की बात कही है कि कामयाबी का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपको कोई मशवरा देने का साहस नहीं कर सकता। हम अपने छोटे मुंह से न बड़ी बात कह सकते हैं, न छोटी, इसलिए यह नहीं बता सकते कि हम कामयाब हैं या नाकाम, लेकिन इतना अता-पता बताये देते हैं कि अगर हमारे स्क्रू और ढिबरियां लगी होतीं तो हमारे सारे मित्र, परिचित, शुभचिंतक, सब काम-धंधे छोड़-छोड़, अपने-अपने पेचकस और पाने ले कर हम पर पिल पड़ते। एक अपने चौकोर पाने से हमारी गोल ढिबरी खोलने का प्रयास करता, दूसरा तेल देने के सूराख में हथौड़े से स्क्रू ठोक देता, तीसरा दिन-रात की मेहनत से हमारे तमाम स्क्रू और 'टाइट' कर देता। आखिर में सब मिल कर हमारे सारे स्क्रू और ढिबरियां खोल कर फेंक देते, महज यह देखने के लिए कि हम इनके बिना भी सिर्फ दोस्तों की इच्छा-शक्ति से चल-फिर और चर-चुग सकते हैं या नहीं। हमारी और उनकी सारी उम्र इस खुड़पेच में समाप्त हो जाती। कुछ ऐसा ही हाल मियां बिशारत का कार के हर ब्रेकडाउन के बाद होता था। उन्हें बड़ी संख्या में ऐसी नसीहतें सुननी पड़तीं जिनमें कार की खराबियों के बजाय उनकी अपनी खामियों की ओर ऐसे इशारे होते, जिन्हें समझने के लिए बुद्धिमान होना आवश्यक नहीं। उधर पैदल चलने वाले बिशारत को देख-देख कर शुक्र करते कि हम कितने भाग्यशाली हैं कि कार नहीं रखते।
नसीहत करने वालों में सिर्फ हाजी अब्दुर्रहमान अली मुहम्मद बांटू वाले ने काम की बात कही। उसने नसीहत की कि कभी किसी बुजुर्ग के मजार, इन्कम टैक्स के दफ्तर या डाक्टर के प्राइवेट क्लीनिक में जाना हो तो कार एक मील दूर खड़ी कर दो। एक सप्ताह पहले से पान खाने के बाद दांत साफ करना बंद कर दो। मुंह के दोनों ओर रेखाओं में पीक के ब्रेकेट लगे रहने दो और चार दिन के पहने हुए कपड़े और इतनी ही मुद्दत का बढ़ा हुआ शेव लेकर उनके सामने जाओ। अगर फैक्ट्री के मालिक हो तो रेहड़ी वाले का-सा हुलिया बना लो 'नईं तो साला लोग एक दम चमड़ी उतार लेंगा और कोरे बदन पे नमक-मिर्ची लगा हवा बंदर को भेज देंगा। ऐ भाई! हम तुमारे को बोलता है, कभी इन्कम-टैक्स अफसर, पुलिस, जवान जोरू और पीर फकीर के पास जाओ तो सोल्जर की माफिक खाली हाथ हिलाते, डबल मार्च करते नईं जाओ, हमेशा कोई डाली, कुछ माल-पानी, कुछ नजर-नजराना ले के जाओ। नईं तो साला लोग खड़े-खड़े खाल खिंचवा के उसमें अखबार की रद्दी भरवा देंगा। सब्ज (सौ रुपये का नोट) देख के जिसकी आंख में टू हंडेरेड केंडल पावर का चमकारा नईं आये तो समझो, साला सोलह आने कलर ब्लाइंड है या औलिया अल्लाह बनेला है, नईं तो फिर होये न होये बैंक का गवर्नर है जो नोटों पर दसखत करता है।'
नीम की निंदा में संवाद
कभी ऐसा भी होता कि कार की बुराइयों पर से पर्दा उठाते-उठाते खलीफा अपनी कर्म-कुंडली खोल के बैठ जाता और अपनी करतूतों को करिश्मों की तरह बयान करने लगता। यह तो कोई स्वभाव समझने वाला ही बता सकता था कि हकीकत कह रहा है या अतृप्त इच्छाओं के मैदान में खयाली घोड़े दौड़ा रहा है। एक दिन फकीर मुहम्मद रसोइये से कहने लगा, 'आज तो सईद मंजिल के सामने हमारी घोड़ी (कार) बिल्कुल बावली हो गयी। हर पुर्जा अपना-अपना राग अलापने लगा। पहले तो इंजन गरम हुआ, फिर radiator जिसके लीक को मैंने साबुन की लुगदी से बंद कर रखा था, फट गया। फिर पिछला टायर लीक करने लगा। मैंने हवा भरने के लिए कार की ही उम्र का पंप निकाला तो मालूम है क्या हुआ! पता चला कि पंप से हवा लीक कर रही है। फैन बेल्ट भी गर्मी से टूट गयी। अंग्रेज की सवारी में रहने से इसका मिजाज सौदावी (वात रोग संबंधी) हो गया है हकीम फहीमुद्दीन आगरे वाले कहा करते थे कि स्त्री सौदावी स्वभाव की हो तो पुरुष आतिशी (अग्नि संबंधी) मिजाज का चाहिये ही चाहिये। यार! आतिशी मिजाज पे याद आया, अब्दुल रज्जाक छैला को, अबे! वही छैला, नाज सिनेमा का गेट कीपर, उसी को गुप्त रोग हो गया है। साला अपने अंजाम को पहुंचा। कहता है, अंग्रेजी फिल्में देखने, गुड़ की गजक खाने और नूरजहां के गानों से खून गर्मी खा गया है। पुराने जमाने में हमारे यहां यह नियम था, पता नहीं तेरी तरफ था कि नहीं, कि तमाशबीनी के चक्कर में किसी को ऐसा रोग हो जाये तो उसे टखनों से एक बालिश्त ऊंचा तहमद बंधवा के नीम की टहनी हाथ में थमा देते थे। जवानी में मैंने अच्छे-अच्छे शरीफ लोगों को मुहल्ले में हरी झंडी लिए फिरते देखा है। मशहूर था कि नीम की टहनी से छूत की बीमारी नहीं लगती, पर मेरे विचार से तो केवल ढिंढोरा पीटने के लिए यह ढोंग रचाते थे। खून और तबियत साफ करने के लिए मरीज को ऐसा कड़वा चिरायता पिलाया जाता था कि हल्क से एक घूंट उतरते ही पुतलियां ऊपर चढ़ जातीं। अगले वक्तों में इलाज में सजा छुपी होती थी। मौलवी याकूबअली नक्शबादी कहा करते थे कि इसीलिए देसी (यूनानी) इलाज को हिकमत कहते हैं!
'यार उन दिनों साले नीम ने भी जान आफत में कर रखी थी। गरीबों को यह रईसों का रोग लग जाये या मामूली फोड़े फुंसियां निकल आयें तो गांव कस्बे के हकीम शुरू से आखिर दम-तलक नीम ही से इलाज करते थे। सारी दवायें नीम से ही बनती थीं। नीम के साबुन से नहलवाते, नीम की निंबौली और जल का लेप बताते। नीम का मरहम लगाते, नीम की सींकों और सूखे पत्तों की धूनी देते। जवान खून जियादा गर्मी दिखाये तो नीम के बौर और कोंपलों का रस पिलाते। नीम के गोंद की दवा चटाते। निंबोली का पाउडर जहर-मार कराते। हर खाने से पहले नीम की दातुन करवाते ताकि हर खाने में उसी का मजा आये। खून साफ करने के बहाने जोंकों को आये दिन सेरों खून पिलवा देते, यहां तक कि अगला एक-दम चुसा आम हो जाता और हरमजदगी तो दूर नमाज भी पढ़ता तो घुटने चट चट चटखने लगते। नासूर को नीम के गरम पानी से धारते ताकि रोग के कीटाणु मर जायें और रोगी कीटाणुओं से पहले ही हकीम को प्यारा हो जाये तो घड़े में नीम के पत्ते उबाल, शव को नहला के जनाजा नीम के नीचे रख देते। फिर ताजा कब्र पे तीन डोल पानी छिड़क के सिरहाने नीम की टहनी गाड़ देते। दफ्ना के घर आते तो मरने वाले की विधवा की सोने की लौंग उतरवा कर उसी नीम की सींक नाक में पहना दी जाती, जिसमें झूला डाल के वो कभी सावन में झूला करती थी। फिर उसे सफेद दुपट्टा उढ़ाते और एक हाथ में सरौता और दूसरे में कव्वे उड़ाने के लिए नीम की झंडी थमा कर नीम की छांव तले बिठा देते।
खलीफा की पापबीती
खलीफा की मुसीबत यह थी कि एक बार शुरू हो जाये तो रुकने का नाम नहीं लेता था। बूढ़ा हो चला था, परंतु उसकी डींगों से ऐसा लगता था कि बुढ़ापे ने फैंटेसी को भी सच बना दिया था कि बस सब मान लेते थे और यह कोई अनोखी बात नहीं थी। एक पुरानी कहावत है कि बुढ़ापे में मनुष्य की यौन-शक्ति जबान में आ जाया करती है। उसकी शेखी-भरी दास्तान सच्ची हो या न हो, दास्तान कहने का अंदाज सच्चा और खरा था। उससे सीधे-सादे सुनने वाले ऐसी सम्मोहित होते थे कि खयाल ही न आता कि सच बोल रहा है या झूठ, बस जी चाहता यूं ही बोले चला जाये। खलीफा की कहानी उसी की जबानी जारी है। हमने केवल नयी सुर्खी लगा दी है।
'और यार फकीरा! गुलबिया नटनी तो जानो आग-भरी छछूंदर थी। उचटती-सी भी नजर पड़ जाये तो झट नीम की टहनी हाथ में थमा देती थी। यार! झूठ नहीं बोलूंगा, कयामत के दिन अल्लाह मियां के अलावा अब्बा जी को भी मुंह दिखाना है। अब तुम से क्या पर्दा मैं कोई पीर-पयंबर तो हूं नहीं। गोश-पोश का इंसान हूं और जैसा कि मौलवी हशमतुल्लाह कहते हैं, इंसान गलतियों का पुतला है। तो यार! हुआ यूं कि नीम की टहनी मुझे भी लहरानी पड़ी। मीठा बरस भी नहीं लगा था। सत्रहवां चल रहा था कि कांड हो गया। पर यकीन जानो तमीजन एक नंबर की शरीफ औरत थी। ऐसी-वैसी नहीं, ब्याही-त्याही थी। पड़ोस में रहती थी। सच तो यह है कि मैंने जवानी और पड़ोसी के घर में एक साथ ही कदम रखा। उम्र में मुझसे बीस नहीं तो पंद्रह बरस जुरूर बड़ी होगी पर बदन जैसे कसी-कसायी ढोलक। हवा भी छू जाये तो बजने लगे। मैं उसके मकान की छत पर पतंग उड़ाने जाया करता था। वो मुझे आते-जाते कभी गजक तो कभी अपने हाथ का हलवा खिलाती। जाड़े के दिन थे, उसका आदमी उससे बीस नहीं तो पंद्रह बरस तो जुरूर ही बड़ा था, औलाद का तावीज लेने फरीदाबाद गया हुआ था। खी...खी...खी...खी..., मैं चार पतंगें कटवा के चर्खी बगल में दबाये छत पे से उतारा तो देखा वो छिदरे बानों की चारपायी की आड़ करके नहा रही है। आंखों में अब तलक बान की जालियों के पीछे का नजारा बसा हुआ है। मुझे आते देख कर एक दम अलिफ नंगी खड़ी हो गयी। यार! तुझे क्या बताऊं मेरी रग-रग में फुलझड़ियां छूटने लगीं। घड़ी भर में उलट के रख दिया, गजक की तासीर गर्म होती है।
मेरी बीमारी का भांडा फूटा तो अब्बा, अल्लाह उनको करवट-करवट जन्नत बख्शे, आपे से बाहर हो गये। जूता तान कर खड़े हो गये, कहने लगे 'तू मेरी औलाद नहीं! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी गर्दन उड़ा दूंगा।' हालांकि तलवार तो दूर, घर में भोंटी (कुंद) छुरी तलक न थी, जिससे नकटे की नाक भी कट सके। फिर मैं उनसे कद में डेढ़ बालिश्त बड़ा था, पर उनका इतना रुआब था कि मैं अपने रंगीन तहमद में थर-थर कांप रहा था। मां मेरे और उनके बीच ढाल बन के खड़ी हो गयी और उनका हाथ पकड़ लिया। मुझे एक-एक बात याद है। बीच बचाव कराने में चूड़ियां टूटने से मां की कलाई से खून टपकने लगा। दिन-रात मेहनत-मजदूरी करती थी। जहां तक मेरी छुटपन की याद्दाश्त काम करती है, मैंने उसके चेहरे पर हमेशा झुर्रियां ही देखीं, आंसू उसकी झुर्रियों से रेख-रेख बह रहे थे। मुझे आज भी ऐसा लगता है जैसे मां के आंसू मेरे गालों पे बह रहे हैं। वो कहने लगीं 'अल्लाह कसम! मेरे लाल पे दुश्मनों ने झूठा इल्जाम लगाया है' मैंने अब्बाजी से बहुत कहा कि 'पुराने बाजरे की खिचड़ी और पाल के आम खाने से गर्मी चढ़ गयी है। सुनिये तो सही, काले घोड़े की नंगी पीठ पे बैठने से मुझे यह रोग लगा है। तुखमरैयां (एक पौधे के बीज, गर्मियों में फालूदे में डाल कर पीते हैं) से गर्मी निकल जायेगी।' पर वो भला मानने वाले थे! कहने लगे, 'अबे तुखमरैयां के बच्चे! मैंने गुड़िया नहीं खेली हैं। तूने नाइयों की इज्जत खाक में मिला दी, बुजुर्गों की नाक कटवा दी।' मां के अलावा किसी ने मेरी बात पर भरोसा नहीं किया। छोटे भाई रोज मुझसे झगड़ने लगे, इसलिए कि मां ने उनके और अब्बा के आम और घी में तरतराती बाजरे की खिचड़ी बंद कर दी थी। यार फकीरा! कभी-कभी सोचता हूं कि अल्लाह मियां को अपने बंदों से इतनी भी मुहब्बत हुई जितनी मेरी अनपढ़ मां को मुझसे थी तो अपना बेड़ा पार जानो। हश्र के दिन सारे गुनाह माफ कर दिये जायेंगे और मौलवियों की खिचड़ी और आम बंद हो जायेंगे! इंशाअल्लाह!
'खैर और तो जो कुछ हुआ सो हुआ, पर मेरे फरिश्तों को भी पता नहीं था कि तमीजन पर मेरे चचा जान किसी जमाने में मेहरबान रह चुके हैं। जवानी कसम! जरा भी शक गुजरता तो मैं अपना दिल मार के बैठ रहता। बुजुर्गों की शान में गुस्ताखी न करता। यार! जवानी में यह हालियत थी कि नब्ज पे उंगली रखो तो हथौड़े की तरह चोट लगती थीं। शक्ल भी मेरी अच्छी थी। ताकत का यह हाल कि किसी लड़की की कलाई पकड़ लूं तो उसका छुड़ाने को जी न चाहे। खैर! वो दिन हवा हुए। मैं कह रहा था कि इलाज रोग से कहीं अधिक जानलेवा था। बाद को गर्मी छांटने के लिए मुझे दिन में तीन बार यह बड़े-बड़े पियाले ठंडाई, धनिये के अर्क और कतीरा गोंद के पिलाये जाते। दोनों समय फीकी रोटी, हरे धनिये की बिना नमक मिर्च की चटनी के साथ खिलाई जाती। अब्बा को इस घटना से बहुत दुःख पहुंचा। शक्की तो थे ही, कभी खबर आती कि शहर में किसी जगह नाजायज बच्चा पड़ा मिला है तो अब्बा मुझी को आग-भभूका नजरों से देखते। उन्हें मुहल्ले में कोई लड़की तेज-तेज कदमों से जाती नजर आ जाये तो समझते कि हो न हो मैं पीछा कर रहा हूं। उनकी सेहत तेजी से गिरने लगी। दुश्मनों ने मशहूर कर दिया कि तमीजन ने एक ही रात में दाढ़ी सफेद कर दी। खुद उनका भी यही खयाल था। उन्होंने मुझे शर्मिंदा करने के लिए रेलवाई गार्ड की झंडी से भी जियादा लहूलुहान रंग का तहमद बंधवा दिया और टहनी के बजाय नीम का पूरा गुद्दा - मेरे कद से भी बड़ा - मुझे थमा दिया। मैंने संक्रात के दिन उससे आठ पतंगें लूटीं। लड़कपन बादशाही का जमाना होता है। उस जमाने में कोई हजरत सुलैमान का तख्त, हुदहुद, (पक्षी जिसके सर पे ताज होता है) महारानी साब के साथ भी दे देता तो वो खुशी नहीं होती जो एक पतंग लूटने से होती थी। यार! किसी दिन तले मखाने तो खिला दे। मुद्दतें हुई मजा तक याद नहीं रहा। मां बड़े मजे के बनाती थी। फकीरा मैंने अपनी मां को बड़ा दुःख दिया' अपनी मां को याद करके खलीफा की आंखों में एकाएक आंसू आ गये।
बुजुर्गों का कत्ले -आम
खलीफा अपने वर्तमान पद और कर्तव्यों के लिहाज से कुछ भी हो, उसका दिल अभी तक घोड़े में अटका हुआ था। एक दिन वो दुकान के मैनेजर मौलाना करामत हुसैन से कहने लगा कि 'मौलाना हम तो इतना जानते हैं कि जिस बच्चे के चपत और जिस सवारी के चाबुक न मार सको वो कयामत के दिन तलक काबू में नहीं आने की। नादिरशाह बादशाह तो इसीलिए हाथी के हौदे से कूद पड़ा और झूंझल में आ के कत्ले-आम करने लगा। हमारे सारे बुजुर्ग कत्ले-आम में गाजर मूली की तरह कट गये। गोद के बच्चों तक को बल्लम से छेद के एक तरफ को फेंक दिया। एक मर्द जिंदा नहीं छोड़ा' मौलाना ने नाक की नोक पर रखी हुई ऐनक के ऊपर से देखते हुए पूछा 'खलीफा पिछले पांच सौ साल में कोई लड़ाई ऐसी नहीं हुई जिसमें तुम अपने बुजुर्गों को चुन-चुन कर न मरवा चुके हो। जब कत्ले-आम में तुम्हारा बीज ही मारा गया, जब तुम्हारे सारे बुजुर्ग एक-एक करके कत्ल कर दिये गये तो अगली पीढ़ी पैदा कैसे हुई?' बोला, 'आप जैसे अल्लाह वाले लोगों की दुआओं से!'
बुजुर्गों में सर्वाधिक गर्व अपने दादा पर करता था। जिसके सारे जीवन का इकलौता कारनामा ये लगता था कि पिचासी वर्ष की उम्र में भी सूई में धागा पिरो लेता था। खलीफा इस कारनामे से इतना संतुष्ट बल्कि प्रभावित था कि यह तक नहीं बताता था कि सूई पिरोने के बाद दादा उससे करता क्या था।
कार की काया पलट
एक दिन राब्सन रोड के तिराहे के पास कार का ब्रेक डाउन हुआ। उसी समय उसमें गधागाड़ी जोत कर लारेंस रोड ले गये। इस बार मिस्त्री को भी रहम आ गया। कहने लगा, 'आप शरीफ आदमी हैं, कब तक बर्बाद होते रहेंगे। ओछी पूंजी व्यापारी को और मनहूस सवारी मालिक को खा जाती है। कार के नीचे आ कर आदमी मरते तो हमने भी सुने थे लेकिन यह डायन तो अंदर बैठे आदमी को खा गयी! मेरा कहना मानें, इसकी बॉडी कटवा कर ट्रक की बॉडी फिट करवा लें। लकड़ी लाने ले जाने के काम आयेगी। मेरे साले ने बॉडी बनाने का कारखाना नया-नया खोला है। आधे दामों में आपका काम हो जायेगा। दो सौ रुपये में इंजन की reboring मैं कर दूंगा, औरों से पौने सात सौ लेता हूं। काया-पलट के बाद आप पहचान नहीं सकेंगे।
यह उसने कुछ गलत नहीं कहा था। नयी बॉडी फिट होने के बाद कोई पहचान नहीं सकता था कि यह है क्या? आरोपियों को अदालत ले जाने वाली हवालाती वैगन? कुत्ते पकड़ने वाली गाड़ी? बूचड़खाने से थलथलाती रासें लाने वाला खूनी ट्रक? इस शक्ल की या इससे दूर परे की समानता रखती हुई कोई चीज उन्होंने आज तक नहीं देखी थी। मिस्त्री ने विश्वास दिलाया कि आप इसे दो-तीन महीने सुब्ह-शाम लगातार देखते रहेंगे तो इतनी बुरी नहीं लगेगी। इस पर मिर्जा बोले कि तुम भी कमाल करते हो यह कोई बीबी थोड़ी है! पुरानी कार यानी नये ट्रक के पीछे ताजा पेंट किया गया निर्देश 'चल रे छकड़े तेनू रब दी आस' पर उन्होंने उसी समय पुचारा फिरवा दिया। दूसरे फिकरे पर भी उन्हें आपत्ति थी। इसमें जगत यार यानी 'पप्पू यार' को चेतावनी दी गयी थी कि तंग न करे। चौधरी करमदीन पेंटर ने समझौते के अंदाज में कहा कि जनाबे-आली अगर आपको यह नाम पसंद नहीं तो बेशक अपनी तरफ का कोई मनपसंद नाम लिखवा लीजिये। इसी प्रकार उन्होंने इस शेर पर भी सफेदा फिरवा दिया :
मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है
वही होता है जो मंजूरे-खुदा होता है
इस सुधार के बाद भी जो कुछ बाकी रह गया वो खुदा को मंजूर हो तो हो, उन्हें हरगिज मंजूर नहीं था परंतु भोंडी बॉडी से अलग, रिबोरिंग के बाद जब वो चली तो सारी कुढ़न दूर हो गयी। अब वो स्टार्ट होने और चलने में ऐसी अनावश्यक फुर्ती और नुमाइशी चुस्त दिखाने लगी जैसे रिटायर्ड लोग नौकरी में एक्सटेंशन से पहले या कुछ बुड्ढे दूसरी शादी के बाद दिखाते हैं। बाथरूम में भी जॉगिंग करते हुए जाते हैं। जीने पर दो-दो सीढ़ियां फलांगते चढ़ते हैं। पहले दिन सुब्ह नौ बजे से शाम के छः बजे तक इस ट्रक-नुमा कार या कार-नुमा ट्रक से लकड़ी की डिलीवरी होती रही। कार की दिन-भर की आमदनी यानी 45 रुपये (जो आज के 450 रुपये के बराबर थे) को पहले उन्होंने 30 दिन और बाद में 12 महीने से गुणा किया तो हासिल 16200 रुपये निकला। दिल ने कहा 'जब कार की कुल कीमत 3483 रुपल्ली है! पगले! इसे गुजर प्राप्ति नहीं, जीवन प्राप्ति कहो! वो बड़ी देर तक पछताया किये कि कैसी मूर्खता थी, इससे बहुत पहले कार को ट्रक में क्यों न परिवर्तित करवा लिया। मगर हर मूर्खता का एक समय निश्चित है। अचानक 'वही होता है जो मंजूरे-खुदा होता है' उनके जह्न में आया और वो अनायास मुस्कुरा दिये।
मेरा भी तो है !
तीन-चार सप्ताह गाड़ी किसी तरह चली, हालांकि किराये का वो आनंददायक औसत न रहा। नौ-दस बार वर्कशाप भेजनी पड़ी। मिस्त्री ने पूरे एक महीने की गारंटी दी थी। अल्बत्ता गधा-गाड़ी वाला रोज सुब्ह पता करने आता कि आज कहां और किस समय आऊं, फिर एक दिन ऐसा हुआ कि बिशारत ने उस पर दो ग्राहकों की खरीदी हुई सात हजार रुपये की लकड़ी लदवा कर खलीफा को दस बजे डिलीवरी के लिए रवाना कर दिया। कोई दो बजे होंगे कि वो हांपता-कांपता आया। बार-बार अंगोछे से आंखें पोंछ कर नाक से सुड़-सुड़ कर रहा था। कहने लगा 'सरकार! मैं लुट गया, बर्बाद हो गया, अल्लाह मुझे उठा ले' बिशारत समझ गये कि इसकी सदा रोगी बीबी की मौत हो गयी है। उसे समझाने लगे कि खुदा की मर्जी में किस का दख्ल है, सब्र से काम लो, वही होता है जो..। लेकिन जब उसने कहा कि 'कूक करूं तो जग हंसे, चुपके लागे घाव, सरकार मेरा दिल खून के आंसू रो रहा है,' तो बिशारत की चिंता कुछ कम हुई कि जो व्यक्ति अत्यंत दुःख के अवसर पर भी शेर और मुहावरे के साथ रोये वो आपकी सहानुभूति नहीं अपने भाषा-ज्ञान की दाद चाहता है। जब खलीफा अंगोछा मुंह पर डाल कर जोर-जोर से बखान करके रोने लगा तो अचानक उन्हें खयाल आया कि नुकसान इस हरामखोर का नहीं मेरा हुआ है! कहने लगे 'अबे! कुछ तो बोल इस बार मेरा क्या नुकसान हुआ है?' बनावटी सिसकियों के बीच बोला 'मेरा भी तो है!' फिर सारी कहानी बतायी - गाड़ी बहुत 'ओवर लोड' थी, फर्स्ट गियर में भी बार-बार दम तोड़ रही थी। सड़क के मोड़ तक तो जैसे-तैसे वो लौंडों के धक्कों और नारों के जोर से ले गया, लेकिन चौराहे पर स्प्रिंग जवाब देने लगे। उसने बोझ हल्का करने के लिए आधी लकड़ी उतार कर मस्जिद की सीढ़ियों के पास बड़ी अच्छी तरह लगा दी और बाकी माल की डिलीवरी देने दूसरी जगह चला गया। वहां प्लाट पर कोई नहीं था। डिलीवरी दिये बिना वापस मस्जिद आया तो लकड़ी गायब! 'सरकार! मैं दिन-दहाड़े लुट गया! बरबाद हो गया'
अगले वक्तों के हैं ये लोग, इन्हें कुछ न कहो
अब उन्हें स्वयं अपनी मूर्खता पर भी अफसोस होने लगा कि साढ़े तीन हजार की खटारा कार में दुगनी मालियत यानी साढ़े सात हजार का माल भेजना कहां की बुद्धिमानी है। काश! चोर लकड़ी के बजाय कार ले जाता, जान छूटती। उन्हें यकीन था कि खलीफा आदत से बाज नहीं आया होगा। भरी गाड़ी खड़ी करके कहीं हजामत बनाने, खत्ना करने या किसी जजमान से शादी-ब्याह की बधाई वसूल करने चला गया होगा। कई बार ऐसी हरकत कर चुका था। पहाड़ का टलना संभव है, आदत का बदलना संभव नहीं वाली कहावत अचानक उन्हें याद आई और यह भी याद आया कि यह कहावत अपने हवाले से उन्होंने पहली बार मास्टर फाखिर हुसैन से सुनी थी। क्लास में शरारत करने पर मास्टर फाखिर हुसैन ने उनको 'बूजना' (बंदर) करार देने के बाद इस कहावत की सलीब पर उल्टा लटका दिया था, बूजना कहने का जब उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो मास्टर साहब ने उनसे बूजना का अर्थ पूछा, फिर बारी-बारी सब लड़कों से पूछा। किसी को मालूम नहीं था, इसलिए सारी क्लास को बेंच पर खड़ा करके कहने लगे 'नालायकों! मेरा नाम डुबाओगे... बूजना बंदर को कहते हैं समझे?' हाय! कैसे जमाने और कैसे उस्ताद थे। अर्थहीन बात के भी शाब्दिक अर्थ बताते थे। क्रोध में भी शिक्षा के तकाजों का लिहाज रखते थे, केवल गाली ही नहीं देते थे, उसका इमला और मतलब भी बताते थे।
कुसूर अपना निकल आया
वो सीधे पुलिस स्टेशन रपट लिखवाने गये। अफसर इंचार्ज ने कहा, यह थाना नहीं लगता। आप जहां रहते हैं उसके संबंधित थाने में एफ.आई.आर. दर्ज कराइये। वहां पहुंचे तो जवाब मिला कि जनाबे-आली! जुर्म की रपट आपकी रिहाइश वाले थाने में बेशक दर्ज की जा सकती है अगर जुर्म आपने किया हो। आप रपट, वारदात वाली जगह से संबंधित थाने में लिखवाइये। वहां पहुंचे तो कहा गया कि वारदात वाली जगह दो थानों के संगम पर स्थित है, मस्जिद की इमारत बेशक हमारे थाने में है, परंतु इसकी सीढ़ियों की तलहटी के इलाके, साथ वाले थाने में लगते हैं। साथ वाले थाने पहुंचे तो वहां किसी को न पाया। बस एक व्यक्ति था, जिसके माथे से खून बह रहा था, दायें हाथ में कंपाउंड फ्रेक्चर था और बायीं आंख सूज कर बंद हो चुकी थी। वो कहने लगा कि मैं दफा 324 की रपट लिखवाने आया हूं। दो घंटे से इंतजार कर रहा हूं, अंधेर है। सिविल अस्पताल वाले कहते हैं कि जब तक थाने वाले एफ.आई.आर. दर्ज करके पर्चा न काट दें हम इलाज नहीं कर सकते। विजयी अंदाज में वो छीना हुआ हथियार यानी शाम चढ़ी लाठी पकड़े हुये था, जिससे उसका सर फाड़ा गया था। उसके साथ उसका चचा था, जो किसी दीवानी वकील का मुंशी था। वो भतीजे को दिलासा दे रहा था कि मुजरिम ने लाठी और कानून अपने हाथ में लेकर कानून और तुम्हारे सर को एक ही वार से तोड़ा है। उस हरामजादे को हथकड़ी न पहना दूं तो मैं अपने बाप की औलाद नहीं। उसने तो खैर संगीन जुर्म किया है, मैंने तो कइयों को बिना जुर्म के जेल की हवा खिलवा दी है! उसने बिशारत को कानूनी सलाह दी कि आपको दरअस्ल उस थाने से संपर्क करना चाहिये जिसकी सीमा में चोर का रिहाइशी मकान आता है। बिशारत उससे उलझने लगे। बहस के दौरान पता लगा कि इस वक्त S.H.O. की लड़की की सगाई की रस्म हो रही है। अधिकतर स्टाफ वहीं तैनात है। एक डेढ़-घंटे बाद आयेंगे। असिस्टेंट सबइंस्पेक्टर दोपहर से सड़क पर सुरक्षा डयूटी और स्कूल की लड़कियों को इकट्ठा करके सड़क पर दोनों ओर खड़ा करने में लगा है, इसलिए कि प्रधानमंत्री एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय जा रहा है। हेड कांस्टेबल तफ्तीश पर निकला हुआ है।
कोई दो घंटे के बाद एस.एच.ओ. का एक वकील की कार में आगमन हुआ। वकील का ब्रीफकेस, जिस पर खाकी जीन का गिलाफ चढ़ा था, एक मुल्जिमनुमा मुअक्किल उठाये हुआ था। वकील के हाथ में सगाई की मिठाई के डिब्बे थे, जो उसने स्टाफ को बांट दिये। एक डिब्बा बिशारत को भी दिया। एस.एच.ओ. ने बिशारत से सरसरी रूदाद सुन कर कहा, आप जरा बाहर प्रतीक्षा कीजिये। अस्ल रिपोर्टकर्ता ड्राइवर है, उससे पूछ-ताछ करनी है। घंटे भर तक उससे न जाने क्या उल्टी-सीधी तफ्तीश करता रहा। खलीफा बाहर निकला तो उसका केवल मुंह ही लटका हुआ नहीं था, खुद भी सारे-का-सारा लटका हुआ दिखाई दे रहा था। इसके बाद एस.एच.ओ. ने बिशारत को अंदर बुलाया तो उसके तेवर बिल्कुल बदले हुए थे। कुर्सी पर बैठने को भी नहीं कहा, सवालों की भरमार कर दी। थोड़ी देर के लिए तो बिशारत ने सोचा कि शायद उसे धोखा हुआ है और वो उन्हें चोर समझ बैठा है। लेकिन जब उसने कुछ ऐसे चुभते हुए प्रश्न किये जो सिर्फ इन्कम-टैक्स अफसर को करने चाहिये तो उनका अपना धोखा दूर हो गया। मिसाल के तौर पर जब आपने चुरा ली जाने वाली इमारती लकड़ी बेची तो रोकड़ बही में दर्ज किया या ऊपर-ऊपर कैश डकार गये? ड्राइवर को जो तन्ख्वाह देते हैं तो रसीद उतनी ही रकम की लेते हैं या जियादा की? गोदाम से लकड़ी बिना डिलीवरी आर्डर के कैसे निकलती है! आप स्वयं बिना Learner's Licence के ट्रक कैसे चलाते हैं? लकड़ी के तख्ते जब ट्रक में ले जाने के लिए रखे गये तो क्या नियम उंतीस सौ कुछ के नियमानुसार पीछे सुर्ख झंडी लगाई थी? और हां! याद आया कि मेरा मकान नींव तक आ गया है, कितने फुट लकड़ी की जुरूरत होगी? हिसाब लगा कर बताइये 'सौ गज का वेस्ट ओपन कार्नर प्लाट है। आपके यहां जो रेडियो है उसका लाइसेंस आपने बनवाया? क्या यह सही है कि आपकी फर्म में आपके पिछत्तर वर्षीय अब्बा और दूध पीता बेटा भी पार्टनर हैं? लकड़ी जब ली मार्केट से नाजियाबाद ले जानी थी तो रणछोड़ लाइन की परिक्रमा की जुरूरत क्यों पड़ी? क्या यह सही है कि आप पांचों वक्त नमाज पढ़ते हैं और हार्मोनियम बजाते हैं। जवाब में बिशारत ने कहा नमाज मैं पढ़ता हूं हार्मोनियम अब्बा बजाते हैं। इस जवाब पर एस.एच.ओ. ने देर तक हथकड़ी बजायी और पहली बार मुस्कराते हुए बोला, 'हूं! सुनना मुंशी जी? यानी गुनाह का बखान गुनाह से अधिक मजेदार है? लकड़ी खुले-तौर पर ठीक मस्जिद के दरवाजे पर रखी तो क्या इससे नमाजियों का इम्तहान लेना मकसद था? ड्राइवर से आपका सारा टब्बर हजामत बनवाता है, कोरमा पकवाता है। उसने आपके जूनियर पार्टनर के खत्ने भी किये। मेरा मतलब आपके छोटे साहबजादे से है। आपने उससे घोड़ा तांगा भी चलवाया, यही आपके घोड़े और अब्बा जी का क्रमानुसार खरेरा और मालिश करता था। यह लेबर लाज की खुली अवहेलना है। क्या यह सही है कि कुछ समय पहले एक आरा चलाने वाले की आंख में छिपटी उचट कर पड़ने से रोशनी जाती रही और आपने उसे घर भेज दिया? कोई मुआवजा नहीं दिया और आपने दुगनी कीमत पर लकड़ी कैसे बेची? अंधेर है। मुझे अपने मकान के लिए आधे दाम मिल रही है! खुले भाव!'
फौजदारी से छेड़खानी
जब बिशारत हर सवाल का गैर तसल्लीबख्श जवाब दे चुके तो एस.एच.ओ. ने कहा, 'मैं इसी समय मुआयना करूंगा। कल इतवार है, थाने नहीं आऊंगा। सवारी है?' बिशारत ने कहा, 'हां!' और उसे गाड़ी तक ले आये, 'मगर यह है क्या!' एस.एच.ओ. ने आश्चर्य से पूछा। 'इसी में लकड़ी गयी थी।'
'मगर यह है क्या'
उसने चोरी से बच जाने वाले उन तख्तों को छू-छू कर देखा, जो उसमें चुने हुए थे। फिर गाड़ी के गिर्द चक्कर लगा कर उनकी लंबाई का अनुमान लगाया। इसके बाद वो एक दम बिफर गया। कैसी वारदात वाली जगह और कैसा मुआयना, उल्टे धर लिए गये। एस.एच.ओ. बकता-झकता वापस थाने में ले गया। जैसे ही वो अपने कुढब प्रश्न से उन्हें चारों-खाने चित करता, वैसे ही उसका खुशामदी असिस्टेंट उन्हें अपने सींगों पर उठा कर दोबारा जमीन पर पटक देता। एक सवाल हो तो... पैसिंजर कार को किसकी अनुमति से ट्रक में परिवर्तित किया गया। जिस गली से इसका गुजरना बताया जाता है, वो तो वन वे है! इसकी इंश्योरेंस पॉलिसी तो कभी की Lapse हो चुकी। व्हील टैक्स एक साल से नहीं भरा गया। आपके ड्राइवर ने अभी स्वयं इकबाले-जुर्म किया है कि ब्रेक न होने के कारण गाड़ी गियर के द्वारा रोकता है। इसी वज्ह से कुछ रोज पहले गार्डन ईस्ट की झुग्गियों के सामने एक मुर्गी कार के नीचे आ गयी, जिसका हरजाना खलीफा के पास नहीं था। झुग्गी वालों ने रात भर कार impound किये रखी और मुर्गी के बदले खलीफा को पकड़ लिया, हालांकि वो चीखता रहा कि दोष कार का नहीं, मुर्गी खुद उड़ कर इसके नीचे आई थी। दिन निकलने के बाद खलीफा ने हर्जाने के तौर पर मुर्गी मालिक और उसके डेढ़-दो दर्जन बेटों, भतीजों, दामादों और दूर-निकट के पड़ोसियों की हजामत बनायी, तब कहीं जा कर मुक्ति मिली। एक पड़ोसी तो अपने पांच वर्षीय नंग-धड़ंग बेटे को गोटे की टोपी पहना कर ले आया कि जरा इसके खत्ने कर दो। इस मुशक्कत से फारिग हो कर वो डेढ़-दो बजे आपके पास पहुंचा तो इसका बदला आपने यह दिया कि उस पर आरोप लगाया कि तुम कार के टूल-बक्स में कैची-उस्तरा रखे हजामतें बनाते फिरते हो और एक दिन की तन्ख्वाह काटने की धमकी दी। खैर, यह एक अलग तफ्तीश योग्य-समस्या है, परंतु यह बताइये कि आपकी कार चिमनी की तरह धुआं क्यों देती है। सड़क पर हर कहीं खड़ी हो जाती है। मुंशी जी! अमां सुन रहे हैं मुंशी जी? आम रास्ते पर रुकावट पैदा करने की कै महीने की है? महज? या बामुशक्कत? और जनाबे-वाला! अगर यह सही है कि यह ट्रक है तो शाम को इसमें आपका पूरा खानदान कचरधान क्यों रंगा फिरता है? और मुंशी जी जरा इनको ओवर लोडिंग की दफा तो पढ़कर सुना दीजिये।
संक्षेप में यह कि दंड संहिता और फौजदारी अधिनियम की कोई दफा ऐसी नहीं बची जिसे तोड़ कर वो उस समय रंगे हाथों न पकड़े गये हों। उनका प्रत्येक कर्म किसी न किसी दफा की लपेट में आ रहा था और उन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे उनका समस्त जीवन कानून से छेड़खानी में गुजरा है। पहले तो उन्हें इस पर आश्चर्य हुआ कि एस.एच.ओ. को उनके तमाम कानून के उल्लंघनों का पता कैसे चला, फिर वो बार-बार खलीफा को कच्चा चबा जाने वाली नजरों से देखने लगे। जैसे ही आंखें चार होतीं, खलीफा झट से हाथ जोड़ लेता।
इतने में एस.एच.ओ. ने आंख से कुछ इशारा किया और एक कांस्टेबल ने आगे बढ़ कर खलीफा के हथकड़ी डाल दी। हेड कांस्टेबल बिशारत के कंधे पर हाथ रख कर उन्हें दूसरे कमरे में ले गया। 'पहले आपके खिलाफ पर्चा कटेगा। चूंकि Vehicle खुद नाजायज है, इसीलिए मुंशी जी! सुपुर्दनामा तैयार कीजिये। शिकायत दर्ज कराने वाले से स्वयं बहुत से अपराध हुए हैं, इसलिए...'
बिशारत को चक्कर आने लगे।
कुछ हाल हवालात का
थाने के हवालात या जेल में, आदमी चार घंटे भी गुजार ले, तो जिंदगी और हजरत इंसान के बारे में इतना कुछ सीख लेगा कि यूनिवर्सिटी में चालीस बरस रह कर भी नहीं सीख सकता। बिशारत पर चौदह तबक (सात आकाश-लोक, सात पृथ्वी-लोक) से भी बढ़ कर कुछ रौशन हो गया और वो दहल गये। सबसे अधिक आश्चर्य उन्हें उस भाषा पर हुआ जो थानों में लिखी और बोली जाती है। रिपोर्ट करने वालों की हद तक तो बात समझ में आती है परंतु मुंशी जी एक व्यक्ति को (जिस पर एक नाबालिग लड़की के साथ जर्बदस्ती निकाह पढ़वाने का आरोप था) बलपूर्वक निकाह करने वाला कह रहे थे। स्टाफ की आपस की बातचीत से उन्हें अंदाजा हुआ कि इस थाने ने इंसानों को दो हिस्सों में बांट रखा है, एक वो जो सजायाफ्ता हैं, दूसरे वो जो नहीं हैं, मगर होने चाहिये। देश में बड़ी संख्या गैर-सजायाफ्ता लोगों की है और यही सारे झगड़े की जड़ है। बातचीत में जिस किसी का भी जिक्र आया, वो कुछ न कुछ 'याफ्ता' (पाने वाला) या 'शुदा' (हुआ) अवश्य था। 'मिजाज पुर्सी' वाले कमरे में जो व्यक्ति थोड़ी-थोड़ी देर में चीखें मार रहा था, वो सजायाफ्ता और मुचलके-शुदा था। सरेआम आलिंगन चुंबन के आरोप में जिन दो महिलाओं को गिरफ्तार किया गया था, उनमें से एक को एक ए.एस.आई. शादी-शुदा और दूसरी को महज-शुदा यानी गयी-गुजरी बता रहा था। हेडकांस्टेबल जो स्वयं इनआमयाफ्ता था, किसी मरने वाले का अंतिम समय दिया गया बयान पढ़ कर सुना रहा था। एक पर्चे में किसी गुंडे के बेकाबू चाल-चलन का विवरण दर्ज था, एक जगह आतिशजदा मकान के अलावा एक निवासी के बर्बादशुदा सामान और तबाहशुदा शुहरत का भी जिक्र था।
इस थाने में हथियार की सिर्फ दो किस्में थी। धारदार और गैर-धारदार। जिस हथियार से सरकारी गवाह के कूल्हों पर नील पड़े और सर पर गूमड़ उभरा, उसके बारे में रोजनामचे में लिखा था कि डाक्टरी मुआयने में जाहिर होता है कि गवाह को बीच बाजार में गैर-धारदार आले से मारा गया। इस हथियार से मुराद जूता था! रात के दस बजे 'मिजाज पुर्सी' वाले कमरे में एक व्यक्ति से जूते के द्वारा सच बुलवाया जा रहा था। पता चला कि जूते खा कर ना किये गये जुर्म को स्वीकार करने वालों को सुल्तानी गवाह कहते हैं। वो व्यक्ति बड़ी देर से जोर-जोर से चीखे जा रहा था, जिससे मालूम होता था कि अभी तक जूते खाने को झूठ बोलने से अधिक महत्व दे रहा है। जूते के इस Extra Curricular इस्तेमाल को पंजाबी में छतरोल कहते हैं। थाने में लोगों का आना-जाना कुछ कम हुआ तो तीन कांस्टेबल सुब्ह दर्ज किये गये एक बलात्कार के मामले के चश्मदीद गवाह को आठवीं बार लेकर बैठ गये जो उस समय इस घटना को इस तरह बयान कर रहा था जैसे बच्चे अपने पिता के मित्रों को इतरा-इतरा कर नर्सरी राइम सुनाते हैं। हर बार वो इस वारदात में नयी-नयी बातों से अपनी अपराधिक अतृप्त इच्छाओं का रंग भरता चला जाता।
'यूं न था मैंने फकत चाहा था यूं हो जाये'
तीनों कांस्टेबल सर जोड़े इसे अच्छे शेर की तरह सुन रहे थे और बीच-बीच में आरोपी को हसरत-भरी दाद और दाद भरी गालियां देते जाते। सुब्ह जब बंद कमरे में बयान लिए जा रहे थे तो सब-के-सब, यहां तक कि हवालात में बंद आरोपियों के भी कान दीवार से लगे थे।
नौ बजे किसी शाम के अखबार का क्राइम रिपोर्टर आया, जिसके अखबार का सर्कुलेशन किसी तरह बढ़ के नहीं दे रहा था। ए.एस.आई. से कहने लगा 'उस्ताद! दो सप्ताह से खाली हाथ जा रहा हूं। यह थाना है या लावारिसों का कब्रिस्तान। तुम्हारे इलाके के सभी गुंडों ने या तो तौबा कर ली है या पुलिस में भर्ती हो गये हैं। यही हाल रहा तो हम दोनों के घरों में चूहे कलाबाजियां खायेंगे।' उसने जवाब दिया, 'जाने-मन! बैठो तो सही, आज एक के गले में घंटी बांध दी है। ऐसा स्कूप बरसों में नसीब होता है। बगल वाले कमरे में चश्मदीद गवाह दसवीं बार पाठ सुना रहा है। तुम भी जा के सुन लो और यार! चार दिन से तूने मेरे तबादले के खिलाफ एक भी लेटर टू दि एडिटर नहीं छपवाया। हमीं जब न होंगे तो तुझे कौन हथेली पे बिठायेगा? ओये बशीरे! दो चाय सुलेमानी। फटाफट, लबालब। मलाई ऐसी दबादब डलवाइयो कि चाय में पेन्सिल खड़ी हो जाये और भाई फीरोजदीन! उस इन्कलाबिये को चुपका करो। शाम ही से साले के दर्दें उठने लगीं 'इब्तिदाये-इश्क है रोता है' चीखते-डकराते गला बैठ गया है। जनाब! मर्द के रोने से अधिक जलील चीज दुनिया में नहीं। साला स्वयं को हुसैन-नासिर से कम नहीं समझता। मैंने पांच बजे उसे आइस कोल्ड बीयर के चार मग पिला दिये। बहुत खुश हुआ। तीसरे मग के बाद मुझे! जी हां मुझे! 'सुतूने-दार पे रखते चलो सरों के चिराग' का मतलब समझाने लगा! चौथा पी चुका तो मैंने टायलेट जाने की मनाही कर दी। इसलिए तीन बार खड़े-खड़े पतलून में ही चिराग जला चुका है जनाब! हम तो हुक्म के गुलाम हैं अभी तो बड़े मेहमानखाने में इसकी आरती उतरेगी। वो सब कुछ कुबूल करा लेते हैं। इस साले की ट्रेजडी यह है कि इसके पास कुबूल करने को कुछ है ही नहीं, इसलिए जियादा पिटेगा।
वारदात में शामिल
ताजा वारदात की सूचना पा कर रिपोर्टर की बांछें खिल गयी। इस खुशी में उसने एक सिग्रेट और दो मीठे पानों का आर्डर दिया। जेब से पिपरमेंट और नोट बुक निकाली। लंबे समय बाद एक चटपटी खबर हाथ लगी थी। उसने फैसला किया कि वो इस केस का प्लाट अपने कहानीकार मित्र सुल्तान को दे देगा जो रोज रीयल लाइफ ड्रामे का तकाजा करता है। बलात्कार के इस केस का विवरण सुनने से पहले ही दिमाग में सुर्खियां सनसनाने लगीं। अब की बार हैडिंग में ही कागज पे कलेजा निकाल के रख दूंगा। उसने दिल में निश्चय किया 'सत्तर वर्षीय बूढ़े ने सात वर्षीय लड़की से मुंह काला किया' यह हैडिंग जमाने की खातिर पिछले साल उसे लड़की की उम्र से दस साल निकाल कर बूढ़े की उम्र में जोड़ने पड़े थे ताकि उसी अनुपात से जुर्म की संगीनी और पाठक की रुचि बढ़ जाये। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग कहते हैं कि यह कैसी बदनसीबी है कि सीधे-सादे और सपाट शब्द rape के जितने विकल्प हमारे यहां प्रचलित हैं, उनमें एक भी ऐसा नहीं जिसमें स्वतः आनंद न आता हो। कोई सुर्खी, कोई-सा वाक्य उठा कर देख लीजिये, यौनानंद के रस में डूबा नजर आयेगा। 'सत्तर वर्षीय बूढ़ा रात के अंधेरे में मुंह काला करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया।' 'पैंसठ साला बूढ़ा रात भर कमसिन युवती की इज्जत से खेलता रहा।' जैसे कि अस्ल एतराज पैंसठ बरस पर है जिसमें अपराधी का कोई दोष नहीं (दरअस्ल इस सुर्खी में नैतिकता, आश्चर्य, कुरेद और जलन समानुपात में मिले हुए हैं, अर्थात नैतिकता सिर्फ नाम की) 'चारों आरोपियों ने नवयुवती को अपनी हवस का निशाना बनाया। हैवान बार-बार पिस्तौल दिखा कर आबरू पर डाका डालता रहा, पुलिस के आने तक धमकियों का सिलसिला बराबर जारी रहा।' यह हैडिंग और वाक्य हमने अखबारों में से हू-ब-हू नक्ल किये हैं, कुछ टर्म्ज और पूरे-के-पूरे वाक्य ऐसे हैं जिन्हें हम नक्ल नहीं कर सकते, जिनसे लगता है कि बयान करने वाला Voyeur मन के साथ वारदात में शामिल होना चाहता है। नतीजा यह कि पढ़ने वाले की कानूनी हमदर्दियां युवती के साथ, परंतु दिल आरोपी के साथ होता है।
'समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा'
कोयले की इस खान से और नमूने बरामद करना आवश्यक नहीं है कि हाथ काले करने के लिए यही काफी है। संक्षेप में इतना बता दें कि जरा खुरचिये तो आपको यौन अपराध से संबंधित कोई वाक्य आनंद से खाली नहीं मिलेगा। हर शब्द सिसकी और हर वाक्य चुस्की लेता दिखाई देगा।
कुत्ता क्यों काटता है ?
काफी देर तक तो बिशारत को विश्वास नहीं आया कि सब कुछ सच हो सकता है। परंतु जब रात के नौ बज गये तो मामला सचमुच गंभीर नजर आने लगा। ए.एस.आई. ने कहा 'आज की रात, कल का दिन और रात आपको हवालात में गुजारने पड़ेंगे। कल इतवार पड़ गया। परसों से पहले आपकी जमानत नहीं हो सकती' उन्होंने पूछा 'किस बात की जमानत?' उन्हें फोन भी नहीं करने दिया। उधर हवालात की कोठरी में जिसके जंगले से पेशाब की खरांद भक-भक आ रही थी, खलीफा थोड़ी-थोड़ी देर बाद हथकड़ी वाला हाथ आसमान की ओर उठाता और ही ही ही ही करके इस तरह रोता कि लगता हंस रहा है। बिशारत का गुस्सा अब एक अपंग और गूंगे का गुस्सा था। इतने में थाने के मुंशी जी इशा (रात) की नमाज से फारिग होकर उनके पास आये। सूख कर बिल्कुल टिड्डा हो गये थे, मगर ऐनक के पीछे आंखों में बला की चमक थी। स्वर में ममता और मिठास घुली हुई थी। एक बोतल लेमोनेड की अपने हाथ से गिलास में उड़ेल कर पिलाई। इसके बाद दोनों ने एक-दूसरे को अपनी डिबिया से पान निकाल कर खिलाया।
मुंशी जी बड़ी विनम्रता से कहने लगे कि हमारे सरकार (एस.एच.ओ.) बड़े भले आदमी हैं - शरीफों के साथ शरीफ और बदमाशों के हक में हलाकू। यह मेरी गारंटी है कि आपका चोरी हुआ माल तीन दिन में बरामद करा दिया जायेगा। सरकार अंतड़ियों में से खींच कर निकाल लाते हैं। इलाके के हिस्ट्री शीटर उनके नाम से थर-थर कांपते हैं। वो रेडियोग्राम, जेवरात और साड़ियां जो उस कमरे में आपने देखीं, आज सुब्ह ही बरामद की गयी हैं। कहने का मकसद यह है कि हूजूर की गाड़ी में जो लकड़ी पड़ी है, वो सरकार के प्लाट पर डलवा दीजिये, आपकी इसी मालियत की चोरीशुदा लकड़ी सरकार तीन दिन में बरामद करवा देंगे यानी आपकी जेब से तो कुछ नहीं गया। मैंने इसकी उनसे बात नहीं की, हो सकता है सुन कर खफा हो जायें। बस यूं ही आपकी राय ले रहा हूं। सरकार की साहबजादी का रिश्ता खुदा-खुदा करके तय हुआ है बिटिया तीस बरस की हो गयी है। बड़ी नेक और सुशील है। आंख में मामूली-सा टेढ़ापन है, लड़के वाले दहेज में फर्नीचर, रेडियोग्राम और वैस्ट ओपन प्लाट में बंगला मांगते हैं। खिड़की-दरवाजे उम्दा लकड़ी के हों अगर चूक जायें तो फिर यह सब कुछ भोगना-भुगतना पड़ता है वरना हमारे सरकार इस किस्म के आदमी नहीं। आज कल बहुत परेशान और चिड़चिड़े हो रहे हैं। यह तो सब देखते हैं कि बावला कुत्ता हरेक को काटता फिरता है यह कोई नहीं देखता कि वो अपनी मर्जी से बावला थोड़े ही हुआ है। आपने उनकी बातों से खुद स्वभाव का अनुमान लगा लिया होगा। तीन बरस पहले तक शेर कहते थे। शाम को थाने में शायरों की ऐसी भीड़ होती थी कि कभी-कभी तो हवालात में कुर्सियां डलवानी पड़ती थीं। एक शाम बल्कि रात का जिक्र है - घमासान का मुशायरा हो रहा था। सरकार तरन्नुम से ताजा गजल पढ़ रहे थे। सारा स्टाफ दाद देने में जुटा हुआ था। मकते (गजल का आखिरी शेर) पर पहुंचे तो संतरी जरदार खां ने थ्री नाट थ्री राइफल चला दी। उपस्थितगण समझे, शायद कबाइली तरीके से दाद दे रहा है, परंतु जब वो शोर मचाने लगा तो पता चला कि गजल के दौरान जब मुशायरा अपने शबाब पर पहुंचा तो डकैती केस में शामिल एक आरोपी जो हवालात का जंगला बजा-बजा के दाद दे रहा था, भाग गया। शायरों ने उसका पीछा किया। मगर उसे तो क्या पकड़ के लाते, खुद भी नहीं लौटे। खुदा जाने, कांस्टेबलों ने पकड़ने में काहिली बरती या उसने पकड़ाई नहीं दी, मगर, सरकार ने हिम्मत नहीं हारी। रातों-रात उसी नाम के एक छंटे हुए बदमाश को पकड़ के हवालात में बंद कर दिया। कागजों में फरार आरोपी के पिता का नाम बदल दिया लेकिन उसके बाद शेर नहीं कहा। तीन बरस से सरकार की तरक्की और शेर की आमद बंद है। अदम साहब से यारी है पिछले बरस अपने मासूम बच्चों के हल्क पे छुरी फेर कर ऊपर के अफसरों को डेढ़ लाख की भेंट चढ़ायी तो 'लाइन हाजिरी से छुटकारा मिला और इस थाने में तैनाती मिली। अब सरकार कोई वली-औलिया तो हैं नहीं कि सलाम फेर कर नमाज की चटायी का कोना उलट कर देखें तो डेढ़ लाख के नोट आसमान से धरे मिलें। दूध तो आखिर थनों से ही निकालना पड़ता है, भैंस न मिले तो कभी-कभी चुहिया ही को पकड़ के दुहना पड़ता है।
बिशारत को अस्ल नुकसान से अधिक इस अपमान भरी मिसाल पर क्रोध आया। बकरी भी कह देता तो चल जाता (वैसे छोटी है जात बकरी की) लेकिन सूरते-हाल कुछ-कुछ समझ में आने लगी। उन्होंने कहा मैं अपनी रपट वापस लेता हूं। ए.एस.आई. ने उत्तर दिया कि दिन दहाड़े चोरी ऐसा अपराध है कि जिस पर राजीनामा नहीं हो सकता यानी पुलिस का हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है। रपट वापस लेने वाले आप कौन होते हैं? अगर आपने वापस लेने पर जोर दिया तो झूठी रपट कराने पर आपका यहीं 'आन दि स्पाट' चालान कर दूंगा। इज्जत के लाले पड़ जायेंगे। आपका वकील बहुत योग्य हुआ तो तीन महीने की होगी। एस.एच.ओ. साहब सोमवार को निर्णय लेंगे कि आप किस-किस दफा के तहत शामिल पाये गये हैं।
उन्हें ऐसा लगा जैसे उनका प्रत्येक कर्म, उनका सारा जीवन पुलिस-हस्तक्षेप के योग्य रहा है और यह सरासर पुलिस की गफलत का नतीजा था कि वो अब तक जिंदगी इज्जत आबरू से बसर कर रहे थे।
उन्होंने तैश में आकर धमकी दी कि मुझे फिजूल में कैद किया गया है, यह गैर कानूनी हिरासत है। मैं हाईकोर्ट में Habeas Corpus Petition पेश करूंगा। ए.एस.आई. बोला, 'आप पिटीशन क्या पेश करेंगे। हम खुद आपको हथेली पर धर के अदालत में पेश कर देंगे। धड़ल्ले से दस दिन का जिस्मानी रिमांड लेंगे, देखते जाइये।'
आपबीती लिखने की खातिर जेल जाने वाले
ए.एस.आई. यह धमकी दे कर चला गया। कुछ मिनट बाद उसका बॉस एस.एच.ओ. भी अपना डंडा बगल में दबाये अहम-ओहम-आहम, खांसता-खंखारता अपने घर चला गया। ठीक उसी समय मिठाई वाला वकील न जाने कहां से दोबारा आन टपका। रात के ग्यारह बजे भी उसने काला कोट और सफेद पतलून पहन रखी थी। वकीलों का विशेष कलफदार सफेद कालर भी लगाये हुए था। कहने लगा, 'भाई! बेशक मेरा इस मुकदमे से कोई संबंध नहीं, महज इंसानी हमदर्दी की बिना पर कह रहा हूं कि आप अनेक अपराधों में फंसाये जा सकते हैं। खुदा न करे अभी दफा 164 फौजदारी अधिनियम के तहत आपके ड्राइवर का इकबाले-जुर्म कलमबंद हो जाये तो लेने-के-देने पड़ जायेंगे। आप सूरत से बाल-बच्चेदार आदमी मालूम होते हैं - लीडर तो हैं नहीं जो राजनैतिक कैरियर बनाने और आत्मकथा लिखने के लालच में जेल जायेंगे। विभाजन से पहले बात और थी। लीडर बागियाना तकरीर करके जेल जाते तो सारा देश इंतजार में रहता कि दो-तीन बरस बाद छूटेंगे तो कोई व्याख्यान, कोई आपबीती, कोई रचना पूरी करके निकलेंगे। बहरहाल वो समय और था आजकल वाला हाल नहीं था कि भाषण देने से पहले ही धर लिए गये और छूटे तो जेल के दरवाजे पर कोई फूलमाला पहनाने वाला तक नहीं। विश्वास कीजिये, मैं यह सजेस्ट नहीं कर रहा कि आप मुझे वकील कर लें, हालांकि मैं आपको मना भी नहीं कर सकता। महज आपके भले की खातिर कह रहा हूं, मुझे प्रेक्टिस करते पच्चीस बरस एक महीना बीता, मैंने आज तक कोई कानूनी गुत्थी ऐसी नहीं देखा जिसे नावां रुपया न सुलझा सके। सारे सिम-सिम इसी से खुलते हैं। आगे जैसी आपकी मर्जी अल्बत्ता इतना फूड फार थॉट रात बिताने के लिए छोड़े जाता हूं कि इस समय रात के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं, आपने इन आठ घंटों में पुलिस का क्या बिगाड़ लिया जो आगे आठ घंटों में पुलिस का बिगाड़ लेंगे। कल इतवार है, आप इसी तरह हवालात में उकड़ूं बैठे अपने संवैधानिक अधिकारों और फौजदारी अधिनियम के हवाले देते रहेंगे। अदालत अधिक-से-अधिक यही तो तीर मार लेगी कि आपको सोमवार के दिन रिहा कर देगी, सो हम तो सोमवार से पहले ही आपको इस चूहेदान से बाहर देखना चाहते हैं। आप हिरासत में हैं। अच्छा बहुत रात हो गयी। मैं चलता हूं मुंशी जी को मेरे घर का फोन नंबर मालूम है।'
वकील के जाने बाद हेड कांस्टेबल एक चटाई, एल्यूमीनियम का लोटा और खजूर का हाथ का पंखा ले आया और खुली वाली हवालात की ओर इशारा करके बिशारत से कहने लगा, 'दिन भर बैठे-बैठे आपकी कमर तख्ता हो गयी होगी। अब आप यह बिछा कर वहां लेट जाइये, मुझे जंगले में ताला लगाना है। मच्छर बहुत हैं, यह कंबल ओढ़ लीजियेगा। अधिक गर्मी लगे तो यह पंखा है। बाथरूम की आवश्यकता हो तो बेशक वहीं... बारह बजे के बाद हवालात का ताला नहीं खोला जा सकता' उसने बत्तियां बुझानी शुरू कर दी।
मगर कारूरा (पेशाब) कुछ और कहता है
बत्तियां बुझने लगीं तो खलीफा जोर-जोर से 'सरकार! सरकार!' करके रोने लगा। हवालात की दीवारों पर खटमलों की कतारें रेंगने लगीं और चेहरे के चारों ओर खून के प्यासे मच्छरों का दायरा घूमने लगा। इस मोड़ पर मुंशी जी अचानक फिर प्रकट हुए और मलबारी होटल से मंगवाया हुआ कीमा जिसमें पड़ी हुई हरी मिर्चों और हरे धनिये की अलग से खुशबू आ रही थी और तंदूर से उतरी नान बिशारत के सामने रखी। गरम नान से भूख को बावला कर देने वाली वो लपट आ रही थी जो हजारों वर्ष पूर्व मनुष्य को आग की खोज करने के बाद गेहूं से आई होगी। इसे खाने से इनकार करने के लिए बिशारत ने कुछ कहना चाहा तो कह न सके कि भूख से बुरा हाल था और सारा मुंह लार से भर गया था। हाथ के एक लिजलिजे से इशारे से इनकार किया और नाक दूसरी ओर फेर कर बैठ गये। इस पर मुंशी जी बोले, 'कसम खुदा की! मैं भी नहीं खाऊंगा। इसका अजाब (ईश्वरीय दंड) आपकी गर्दन पर। तीन बजे एक 'बन' चाय में डुबो के खाया था बस! डाक्टर आंतों की टी.बी. बताता है, परंतु हकीम साहब को दिखाया तो वो कहने लगे कि ये बीमारी जियादा खाना खाने से होती है। लो और सुनो! मैंने कहा, हकीम साहब मेरा यह शरीर, कद-काठी तो देखिये। बोले, मगर कारूरा कुछ और कहता है।'
एकाएक मुंशी जी ने बात का रुख मोड़ा। बिशारत के घुटने छू कर कहने लगे, 'मैं आपके पैरों की खाक हूं, पर दुनिया देखी है। आप इज्जतदार आदमी हैं, परंतु मामले की नजाकत को नहीं समझ रहे कि कारूरा क्या कह रहा है। मैं आपके ससुर का मुहल्लेदार रह चुका हूं। देखिये! मान-सम्मान माल से बढ़ कर नहीं होता, लकड़ी दे दिला के रफा-दफा कीजिये। कुछ दो-तीन हजार की दूसरी लाट मिल जायेगी, फिर झगड़ा किस बात का! सरकार शेर के मुंह से शिकार ही नहीं छीनते, उसके दांत भी उखाड़ लाते हैं। इलाके में कहीं कोई वारदात हो, सरकार को मानों पूर्वाभास हो जाता है कि किस का काम है। किसी-किसी को तो महज अनुमान पर ही धर लेते हैं जैसा कि माफ कीजिये! हुजूर के साथ हुआ। पिछले साल इन्हीं दिनों की बात है सरकार ने एक व्यक्ति को गाली-गलौज से आम रास्ते पर रुकावट पैदा करने पर गिरफ्तार किया। देखने में तो यह जरा-सी बात थी, मगर कारूरा कुछ और कह रहा था। सब को आश्चर्य हुआ, परंतु दो घंटे बाद सरकार ने उसके घर से व्हाइट हार्स व्हिस्की की तीन सौ बोतलें, दो घोड़ा बोस्की के थान, चोरी के गहने, दर्जनों रेडियोग्राम और दुनिया-भर का चोरी का माल बरामद कर लिया। घर में हर चीज चोरी की थी। बाप के अलावा एक चीज भी अपनी नहीं निकली, जिसने कहा कि मैं इस नालायक का त्याग करता हूं। परंतु हमारे सरकार दिल के बहुत अच्छे हैं। पिछले वर्ष इसी जमाने में मेरी बेटी की शादी हुई, सारा खर्च सरकार ने स्वयं उठाया, इन्हीं में से एक रेडियोग्राम भी दहेज में दिया। मैं इसकी गारंटी देता हूं कि चोरी हुई लकड़ी और ट्रक की रजिस्ट्रेशन बुक आपको तीन दिन के अंदर-अंदर दुकान पर ही डिलीवर हो जायेगी। मेरी मान जाइये, वैसे भी बेटी की शादी के लिए रिश्वत लेने और देने का शुमार नेग-न्योते में करना चाहिये। आप समझ रहे हैं?
रोटी मेरी काठ दी , लावण मेरी भुक्ख
अब प्याज से सब छिल्के एक-एक करके उतर चुके थे, बस आंखों में हल्की-हल्की जलन बाकी रह गयी थी। अपमान का अस्ल कारण समझ में आ जाये तो झुंझलाहट जाती रहती है, फिर इंसान को चुप लग जाती है। मुंशी जी अब उन्हें अपने ही आदमी लगने लगे।
'मुंशी जी! यहां सभी?'
'हुजूर! सभी।'
'वकील साहब भी?'
'मुंशी जी! फिर आप...?'
'हुजूर! मेरे सात बच्चे हैं। बड़ा बेटा इंटर में है। पत्नी को भी टी.बी. बतायी है। दिन में दो-तीन बार खून डालती है। इलाज में अच्छा खाना भी शामिल है। तन्ख्वाह इस साल की तरक्की मिला कर अट्ठाइस रुपये पांच आने बनती है।'
बिशारत ने ट्रक में लदी हुई लकड़ी एस.एच.ओ. को भेंट करने की स्वीकृति दे दी। आधी रात इधर, आधी रात उधर, बारह बजे खलीफा की हथकड़ी खुली तो वहीं यानी मोरी के मुहाने के बीच सिजदे में चला गया। शुक्राने के सजदे से अभी पूरी तरह नहीं उठा था कि हाथ फैला कर हेड कांस्टेबल से बीड़ी मांग ली। इधर बिशारत को भी कमरे से बाहर निकलने की अनुमति मिली। मुंशी जी ने मुबारकबाद दी। अपनी पीतल की डिबिया से निकाल कर दुबारा पान की कतरन यह कह कर पेश की कि यह गिलोरियां आपकी भाभी ने खास तौर पर बनायी थीं। हेड कांस्टेबल ने बिशारत को अलग ले जाकर मुबारकबाद देते हुए कहा 'खुशी का मौका है, मुंशी जी को पच्चीस रुपये दे दीजिये। गरीब, बाल-बच्चेदार, ईमानदार आदमी है और जनाबे-आली! अब हम सब का मुंह मीठा कराइये। ऐसे खुशी के मौके बार-बार थोड़े ही आते हैं। आप बेशक घर फोन कर लें। घर वाले परेशान होंगे कि सरकार अब तक क्यों नहीं लौटे। एक्सीडेंट तो नहीं हो गया। ढुंड़ैया मच रही होगी। अस्पतालों के केजुअल्टी वार्ड में हर मुर्दे की चादर हटा-हटा के देख रहे होंगे और निराश लौट रहे होंगे।' बिशारत ने सौ रुपये जेब से निकाल कर मिठाई के लिए दिये। थोड़ी देर बाद एस.एच.ओ. के कमरे से वही वकील साहब मिठाई के वैसे ही चार डिब्बों का मीनार गोद में उठाये और ठुड्डी के ठोंगे से उसे संतुलित करते हुए प्रकट हुए। उन्होंने भी बड़ी गर्मजोशी से मुबारकबाद दी और उनकी समझदारी को सराहा। तीन डिब्बे स्टाफ को बांटे और चौथा बिशारत की ओर बढ़ाते हुए बोले, यह हमारी तरफ से भाभी साहिबा और बच्चों को दे दीजियेगा। डिब्बा हवाले करने के बाद उन्होंने अपना कलफदार कालर उतार दिया और काला कोट उतार कर हाथ पर लटका लिया।
भिखारी कौन ?
वकील साहब ने सलाह दी कि लगे-हाथों लकड़ी एस.एच.ओ. साहब के प्लाट पर डालते जाइये। नेक काम में देर नहीं करनी चाहिये। गाड़ी में एक कांस्टेबल राइफल संभाले खलीफा के पहलू में बैठ गया। खलीफा ने इस बार 'पिदर सोख्ता' कह कर एक ही गाली से गाड़ी स्टार्ट कर दी। कोई बहुत पढ़ा-लिखा या प्रतिष्ठित आदमी पास बैठा हो तो वो गाड़ी को फारसी में गाली देता था। गाली देते समय उसके चेहरे पर ऐसा भाव आता कि गाली का अर्थ चित्रित होकर सामने आ जाता था। थाने वालों ने एक गैस की लालटेन साथ कर दी ताकि अंधेरे में प्लाट पर माल उतरवाने में आसानी रहे। गाड़ी के पिछले हिस्से में लकड़ी के तख्तों पर लालटेन हाथ में लिए बिशारत बैठ गये। झटकों से मेंटल झड़ जाने के डर से उन्होंने लालटेन हाथ में उठा रखी थी। खलीफा ऐसा बन रहा था जैसे गाड़ी हमेशा ही आहिस्ता चलाता है। कांस्टेबल ने झुंझलाते हुए उसे दो बार डांटा 'अबे ट्रक चला रहा है या अपनी बीबी के जनाजे का जुलूस निकाल रहा है!' बिशारत की आंखें नींद से बंद हो चली थीं, मगर शहर की सड़कें जाग रही थीं। सिनेमा का अंतिम शो अभी समाप्त हुआ ही था। पैलेस सिनेमा के पास बिजली के खंबे के नीचे एक जवान अर्धनग्न पागल स्त्री अपने बच्चे को दूध पिला रही थी, बच्चे की आंखें दुखने आई हुई थीं और सूजन और चीपड़ों से बिल्कुल बंद हो चुकी थीं। नंगी जतियों पर बच्चे ने दूध डाल दिया था जिस पर मक्खियों ने छावनी छा रखी थी। हर गुजरने वाला उन हिस्सों को जो मक्खियों से बच रहे थे न केवल गौर से देखता बल्कि मुड़-मुड़ के ऐसी नजरों से घूरता चला जाता कि यह फैसला करना कठिन था कि दरअस्ल भिखारी कौन है? पास ही एल्युमीनियम के बिना धुले पियाले में मुंह डाले एक कुत्ता उसे जबान से चाट-चाट कर साफ कर रहा था। उससे जरा दूर एक सात-आठ साल का लड़का अभी तक मोतिया के गजरे बेच रहा था। उन्होंने तरस खा कर एक गजरा खरीद लिया और कांस्टेबल को दे दिया। उसने उसे राइफल की नाल पर लपेट लिया। बिशारत सर झुकाये, विचारों में खोये प्लाट पर पहुंचे तो एक बजा होगा। उन्होंने लालटेन गाड़ी के बोनट पर रख दी और उसकी रोशनी में वो लकड़ी, जो चोरों से बच गयी थी, अपने हाथों से थानेदार के प्लाट पर डाल आये।
तोते की भविष्यवाणी
ढाई बजे रात को जब वो घर पहुंचे तो निर्णय ले चुके थे कि इस ऑटोमेटिक छकड़े को औने-पौने ठिकाने लगा देंगे। घर, घोड़े, घरवाली, सवारी और अंगूठी के पत्थर के सिलसिले में वो शुभ और अशुभ के कायल थे, उन्हें याद आया कि 1953 में मोटर साइकिल-रिक्शा की दुर्घटना में घायल होने के पश्चात जब वो नगर-पालिका के सामने बैठने वाले एक ज्योतिषी के पास गये तो उसने अपने सधाये हुए तोते से एक लिफाफा निकलवा कर भविष्यवाणी की थी कि तुम्हारे भाग्य में एक पत्नी और तीन हज हैं। संख्या क्रम इसके विपरीत होता तो क्या ही अच्छा होता, उन्होंने दिल में कहा। वैसे भी हज जीवन में एक ही बार अनिवार्य है। पुण्य लूटने के मामले में वो लालची बिल्कुल नहीं थे। ज्योतिषी ने कुंडली बना कर और हाथ की लकीरें मैग्निफाइंग ग्लास से देख कर कहा कि दो, तीन और चार पहियों वाली गाड़ियां तुम्हारे लिए अशुभ रहेंगी। यह बात वो कुंडली और मैग्निफाइंग ग्लास के बिना सिर्फ उनके हाथ और गर्दन पर बंधी हुई पट्टियां देख कर भी कह सकता था। बहरहाल, अब वो इस नतीजे पर पहुंचे कि जब तक एक या पांच पहिये की गाड़ी का आविष्कार न हो, उन्हें अपनी टांगों पर ही गुजारा करना पड़ेगा। ऐसा लगता था कि इस गाड़ी को खरीदने का उद्देश्य लकड़ी को चोरों और एस.एच.ओ. तक सुरक्षा-पूर्वक पहुंचाना था जो खुदा के करम से बिना देरी और रुकावट के पूरा हो चुका था।
बंगाल टाइगर गया , बब्बर शेर आ गया
सुब्ह जब उन्होंने खलीफा को सूचित किया कि अब वो उसकी सेवाओं से लाभान्वित होने योग्य नहीं रहे तो वो बहुत रोया गाया। पहले तो कहा मैं गाड़ी को अकेला छोड़ कर कैसे जाऊं? फिर कहने लगा, कहां जाऊं? बाद में उसने मालिक और नौकर के अटूट रिश्ते और नमक खाने के नतीजों पर भाषण दिया। जिसका सार यह था कि उसे अपनी गलती का अहसास है और जो भारी नुकसान उनको पहुंचा है, उसकी भरपाई वो इस तरह करना चाहेगा कि साल भर में उनकी हजामत की जो रकम बनती है, उसमें से वो लकड़ी की रकम काट लें। इस पर वो चीखे, 'खलीफे! तू समझता है कि मैं साढ़े-तीन हजार सालाना की हजामत बनवाता हूं?' खलीफा ने दोबारा अपनी गलती को खुले दिल से स्वीकार किया और साथ ही गाड़ी को मोबाइल हेयर कटिंग सैलून बनाने का मूर्खतापूर्ण प्रस्ताव पेश किया, जो उतने ही अपमान के साथ रद्द कर दिया गया। तंग आ कर उसने यहां तक कहा कि वो तमाम उम्र - यानी गाड़ी की या उसकी अपनी स्वाभाविक उम्र तक, जो भी पहले दगा दे जाये, बिल्कुल मुफ्त ड्राइवरी करने के लिए तैयार है, अर्थात जो नुकसान पहले तन्ख्वाह लेकर पहुंचाता था वो अब बिना तन्ख्वाह लिए पहुंचायेगा। गर्ज कि खलीफा देर तक इसी प्रकार के प्रस्तावों से उनके जख्मों पर फिटकरी छिड़कता रहा।
वो किसी तरह न माने तो खलीफा ने हथियार डाल दिये, मगर उस्तरा उठा लिया। मतलब यह कि अंतिम इच्छा यह प्रकट की कि इस संबंध-विच्छेद के बावजूद, उसे कम-से-कम हजामत के लिए तो आने की इजाजत दी जाये जो बिशारत ने सिर्फ इस शर्त पर दी कि अगर मैं आइंदा कोई सवारी, किसी भी प्रकार की सवारी रखूं तो हरामखोर उसे तुम नहीं चलाओगे।
कुछ दिन बाद खलीफा यह खबर देने आया कि साहब जी! यूं ही मेरे दिल में उचंग हुई कि जरा थानेदार साहब बहादुर के प्लाट की ओर होता चलूं। मैं तो देख के भौंचक्का रह गया। क्या देखता हूं कि अपनी रिश्वत में दी हुई लकड़ी के पास अपनी चोरी-शुदा लकड़ी पड़ी है! हमारा माल एक शेर दूसरे शेर के मुंह में से निकाल कर डकार गया। हमें क्या अंतर पड़ता है कि धारीदार शेर (Bengal Tiger) चला गया और बब्बर शेर आ गया। मेरा यकीन नहीं तो खुद जा के देख लीजिये।
खलीफा हंसने लगा उसे अपनी ही बात पर बेमौका, बेअख्तियार और लगातार हंसने की बुरी आदत थी। सांस टूट जाता तो जरा दम लेके फिर से हंसना शुरू कर देता। वो हंसी अलापता था। दम लेने के अंतराल में आंख मारता जाता। सामने का एक दांत टूटा हुआ था। इस समय वो अपनी हंसी को रोकने की कोशिश कर रहा था और बिल्कुल क्लाउन मालूम हो रहा था।
यह ट्रक बिकाऊ है
गाड़ी एक महीने तक बेकार खड़ी रही। किसी ने झूठों भी दाम न लगाये। उपहास और अपमान के पहलू से बचने की खातिर हमने उसे गाड़ी कहा है। बिशारत बेहद भावुक हो गये थे। कोई इसे कार कहता तो उन्हें लगता कि व्यंग्य कर रहा है और ट्रक कहता तो उसमें अपमान का पहलू नजर आता। वो स्वयं Vehicle कहने लगे थे। वो मायूस हो गये थे कि अचानक एक-एक दिन के गैप से इकट्ठी तीन 'ऑफर्ज' आ गयीं। पड़ोस में सीमेंट डिपो के मालिक ने उस तिरपाल के, जो कभी गाड़ी पर चढ़ा रहता था, तेरह रुपये लगाये, जबकि एक गधा गाड़ी वाले ने बारह रुपये के बदले चारों पहिये निकाल कर ले जाने की ऑफर दी। उन्होंने उस जाहिल को बुरी तरह लताड़ा कि यह भी एक ही रही। तेरा खयाल है कि यह गाड़ी पहियों के बिना भी चल सकती है! उसने जवाब दिया, 'साईं! यह पहियों के होते हुए कौन-सी चल रही है!' रकम के लिहाज से तीसरी ऑफर सब से अच्छी थी। यह एक ऐसे व्यक्ति ने दी जो हुलिए के लिहाज से स्मगलर लगता था। उसने गाड़ी की नंबर प्लेट के दो सौ रुपये लगाये।
इन अपमानजनक आफर्ज के बाद बिशारत ने गाड़ी पर तिरपाल चढ़ा दिया और तौबा की कि आइंदा कभी कार नहीं खरीदेंगे। आगे चल कर आर्थिक स्थिति और तबीयत का चुलबुलापन वापस लौटा तो इस तौबा में इतना संशोधन कर लिया कि आगे किसी स्वर्गवासी गोरे की गाड़ी नहीं खरीदेंगे, चाहे उसकी विधवा मेम कितनी ही खूबसूरत क्यों न हो। मिर्जा ने सलाह दी कि अगर तुम्हारी किसी से दुश्मनी है तो गाड़ी उसे उपहार में दे दो। बिशारत ने कहा 'पेश है' कुछ रोज बाद उन्होंने तिरपाल उतार दिया और एक गत्ते पर 'बिक्री के लिए' लिख कर गाड़ी पर टांग दिया। दो-तीन दिन में गाड़ी और गत्ते पर गर्द और आरा मशीन से उड़ते हुए बुरादे की मोटी परतें चढ़ गयीं। मौलाना करामत हुसैन ने जो अब फर्म के मैनेजर कहलाते थे, विंड स्क्रीन की गर्द पर उंगली से Vehicle और 'यह ट्रक बिकाऊ है' लिख दिया, जो दूर से नजर आता था। रोज दोपहर की नमाज को जाते तो वजू के बाद अक्षरों पर गीली उंगली फेर कर उन्हें रोशन कर देते। नमाज के बाद मस्जिद से आ कर गाड़ी पर फूंक मारते। कहते थे कि ऐसा जलाली वजीफा पढ़ रहा हूं कि जिस चीज पर भी फूंक मार दी जाये वो या तो चालीस दिन के अंदर-अंदर बिक जायेगी, वरना वजीफा पढ़ने वाला खुद अंधा हो जायेगा। दिन में तीन-चार बार अपनी आंखों के सामने हाथ की कभी दो, कभी तीन या चार उंगलियां दायें-बायें घुमाते, यह देखने के लिए कि रोशनी जाती तो नहीं रही। वजीफे के बाद मस्जिद से दुकान तक रास्ते भर जलाली फूंक को अपने मुंह में बड़ी एहतियात से कैद रखते कि 'लीक' हो कर गलती से किसी और चीज पर न पड़ जाये।