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विमर्श

सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक

जोतीराव गोविंदराव फुले


सवाल और जवाब

 

यशवंत जोतीराव फुले : मानव प्राणी सारी दुनिया में कैसे सुखी होगा?

जोतीराव गोविंदराव फुले : सत्‍य आचरण के बगैर मानव प्राणी दुनिया में सुखी नहीं होगा। इसके लिए कुछ सबूत दे रहा हूँ :

अखंड

सत्‍य सभी का है आदि घर । सभी धर्मों का है पीहर ।।धृ।।
दुनिया में सुख है सारा । खास सत्‍य का है वह छोकरा ।।1।।
सत्‍य सुख का है आधार । बाकी सारा है अंधकार ।।
दुनिया में है सत्‍य का बल । निकालता झगड़ालू का जल ।।2।।
सत्‍य है जिसका मूल । खींचता धूर्तों की खाल ।।
सामर्थ्‍य सत्‍य का देखकर । बुरूपी जलता मन में खाक होकर ।।3।।
सही सुख कहाँ अभिनेता को । त्‍यागना चाहे ईसा को ।।
जीती प्रार्थी सभी जनों को। व्‍यर्थ दंभ न दिखाओ लोगों को ।।4।।

यशवंत : इसी तरह देशस्‍थ आर्य ब्राह्मण रामदास स्‍वामी का श्‍लोक इस प्रकार का है कि "इस दुनिया में पूरी तरह सुखी ऐसा कौन है, जाग्रत मन, तू ही खोज कर देख," इसके संबंध में आपका क्या कहना है?

जोतीराव : देशस्‍थ आर्यभट्ट ब्राह्मण रामदास ने इस श्‍लोक के द्वारा यह दिखाने का प्रयास किया है कि निर्माता ने जिस पवित्र दुनिया को पैदा किया है, वह सब व्‍यर्थ है। उसने इस संसार के बारे में अपनी शूद्रादि-अतिशूद्रों के मन में घृणा पैदा कर दी है। इस श्‍लोक को लिखने के पीछे उसका उद्देश्‍य यह भी हो सकता है कि वे निरिच्‍छ और भ्रमित होकर अपने आचरण का परित्‍याग कर दें और ऐसा करते ही उन पर मनचाहे आरोप लगाए जा सकें; क्‍योंकि आर्य रामदास को अपनी जाति के मतलब के लिए ही, 'सत्‍य किसको कहा जाए?' यह समझ में नहीं आया, ऐसा मुझे लगता है। इसके बारे में मैं आपसे एक सवाल पूछता हूँ, उसका जवाब देते समय ही आर्य रामदास का श्‍लोक कितना सही है, इसके बारे में आप स्‍वयं आसानी से निर्णय कर सकेंगे।

यशवंत : यदि ऐसी बात है तो आपका सवाल क्या है, यह हमें बतायें तो बहुत ही अच्‍छा" हो।

जोतीराव : ऐसा कौन-सा क्षुल्‍लक सार्वजनिक सत्य" है जिसका आचरण करने से मानव प्राणी दुख भोगने लगता है?

यशवंत : सत्‍य का स्‍मरण करके सभी सार्वजनिक सत्य", चाहे फिर वे क्षुल्‍लक ही क्‍यों न हों, उनको आचरण में लाने से कोई भी मानव प्राणी कदापि दुख नहीं भोगेगा, यह खोज के बाद का निष्‍कर्ष है। फिर भी आर्य रामदास ने किस आधार पर इस श्‍लोक की कल्‍पना की होगी?

जोतीराव : इसका आधार मूर्ख शूद्रादि-अतिशूद्रों का अज्ञान है और ब्राह्मणों का स्‍वार्थ तथा धूर्तता भी इसके पीछे है। इसके संबंध में धूर्त ब्राह्मण रामदास ने अपने ग्रंथो में जो कुछ लिखा है, उस पर निष्‍पक्षता से विचार होना चाहिए, इसलिए उस बात को आगे रख रहा हूँ :

देवता हुए हैं बहुत,
देवता की सजी हैं दुकानदारियाँ बहुत ।।
प्रोतों, पिशाचों और देवता का ढकोसला,
एक हो गया ।।
प्रमुख ईश्‍वर कौल-समझ में न आए,
किसी को कुछ भी न समझ आए ।।
एक-दूसरे को समझ न पाएँ,
काम सारा बेलगाम ।।
ऐसा गंदा हुआ है विचार,
कौन देखता है सार-असार ।।
कौन छोटा, कौन बड़ा,
कुछ समझ में न आए ।।
धर्मशास्‍त्रों की मंडी लगी,
देवताओं का शोरगुल शुरू हुआ ।।
लोक संकल्‍पपूर्ति के लिए,
बौखलाते रहते ।।
ऐसे सारे सड़ गये,
सत्‍य-असत्‍य को ठुकरा दिया ।।
सी एक जैसे हुए,
चारों ओर ।।
धर्मपंथों का बोलबाला,
कोई न पूछे किसी को ।।
जिसके मन को जो भाया,
उसके लिए वही महान हो गया ।।
असत्‍य पर अभिमान,
उसी से हुआ है उनका पतन ।।
इसीलिए समझदार जन,
खोज करते हैं सत्‍य की ।।

यशवंत : समर्थ रामदास असत्‍य आर्य ब्राह्मण कुल का था। फिर भी उसने अपने-आपको राम शर्मा पद लगाने के बजाय अतिशूद्र सूरदास जैसा पद अपने नाम के साथ क्‍यों लगाया? इसमें उसका उद्देश्‍य क्या रहा होगा, इस बात को आप बता सकेंगे?

जोतीराव : शिवाजी राजा शुद्र जाति में बहुत बड़ा शूर-योद्धा हो गया है; लेकिन उसके अनपढ़ होने की वजह से तथा रामदास के सही में धूर्त आर्य ब्राह्मण जाति के साधु होने की वजह से, उसने अपने नाम के साथ 'शर्मा' शब्‍द (पद) जोड़ने की बजाय अतिशूद्र सूरदास की तरह अपने-आपको रामदास कहलवाने लगा। इसमें उसका मूल उद्देश्‍य अज्ञानी शूद्र शूर-योद्धा शिवाजी को खुश करना था। तात्‍पर्य, निर्माता (निर्मिक) के नाम पर धर्म के संबंध में डकैती करने से सुख मिलता है परंतु विद्रोहियों से अज्ञानी और दुर्बल लोगों को मुक्ति दिलाने में सुख नहीं मिलता; ऐसे ही, निराधार, बेसहारा, अंधे, अपाहिज और अनाथ लड़के-लड़कियों को और अन्‍य सभी प्रकार की मुसीबतों में फंसे हुए लोगों को मदद करने से सुख नहीं मिलता, ऐसा कहना केवल किसी एक नास्तिक द्वारा सृष्टि निर्माणकर्ता के अस्तित्‍व को नष्‍ट किए जाने के समान है।


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