बलवंतराव हरि साकवळकर : इस प्रकार क्या" किसी भी धर्म-पुस्तक में सभी जीव- प्राणियों को सुख देने के संदर्भ में सत्य नहीं है?
जोतीराव गोविंदराव फुले : इस धरातल पर मानव समाज ने जितनी धर्म-किताबें लिखी हैं, उनमें से किसी भी ग्रंथ में प्रारंभ से अंत तक समान सार्वजनिक सत्य नहीं है; क्योंकि हर धर्म-किताब में कुछ लोगों ने उस काल की स्थिति के अनुरूप मूर्खता की है। वे तमाम धर्म सभी मानव प्राणियों को समान रूप से हितकारी नहीं थे। स्वाभाविकता से उसमें कई समूह बन गए और वे एक-दूसरे की मन से घृणा और नफरत करने लगे।
दूसरी बात यह है कि यदि निर्माता हम सभी मनुष्यों का निर्माण-कर्ता है, तो सभी मानव प्राणियों में हर व्यक्ति को सभी मानवी अधिकारों का उचित उपभोग करने का अवसर प्राप्त होना चाहिए लेकिन ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है। मानव प्राणियों को कई तरह की मुसीबतों को, भारी कठिनाइयों को सहना पड़ता है।
सारांश, अपने इस सूर्यमंडल का और जिस धरती पर हम लोग रह रहे है, उस धरती का निर्माता यदि एक है तो उस धरती पर जितने देश है, वहाँ के लोगों का एक-दूसरे के साथ नफरत और घृणा तथा हर किसी में व्यर्थ की राष्ट्रभक्ति और व्यर्थ का धर्माभिमान क्यों मौजूद है? उसी प्रकार इस धरती के कई देशों की सभी नदियाँ महासागर को जाकर मिलती हैं, फिर एक देश की ही नदी पवित्र कैसे हो सकती है? क्योंकि वह महापवित्र नदी भी कुत्तों का मल-मूत्र अपने जलप्रवाह में लेकर महासागर में जाकर मिलने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं करती?
बलवंतराव : तो फिर इस धरती के पृष्ठभाग पर जो लोग रहते हैं, उनमें से कुछ लोगों को महापवित्र मानकर, उनको भूदेव (ब्राह्मण) की तरह सम्मान देकर उनको ही श्रेष्ठ क्यों मानते हैं?
जोतीराव : इस धरती के पृष्ठभाग पर सभी मानव प्राणी इंद्रियों से और बुद्धि तथा होशियारी से एक समान हैं। फिर उनमें से कुछ लोग खानदानी, पवित्र और श्रेष्ठ कैसे हो सकते हैं? उनको सभी की तरह पैदा होकर सभी की तरह ही मरना है। फिर वे भी सभी लोगों की तरह अच्छे और बुरे गुणों में माहिर है। ऐसा है या नहीं?