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विमर्श

सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक

जोतीराव गोविंदराव फुले


बलवंतराव : किसको पुण्‍य कहा जाय?

जोतीराव : स्‍वयं को सुख चाहिए, इसलिए सभी मानवी प्राणियों को शारीरिक और मानसिक कष्‍ट न देने को ही पुण्‍य कहना चाहिए।

बलवंतराव : वह कैसे? उसके बारे में हमको खुले रूप से समझा दिया जाए तो बहुत ही अच्‍छा होगा।

जोतीराव : स्‍वयं सुख पाने के लिए दूसरे किसी व्‍यक्ति ने यदि आपको कष्‍ट पहुँचाया और आपके पास की कोई चीज धर्म के नाम पर फुसलाकर ले ली या जबर्दस्‍ती से लेकर उसका उपयोग वह आपके सामने ही करने लगा तो उसका उस तरह से करना आपको क्या अच्‍छा लगेगा?

बलवंतराव : उसका उस तरह से करना मुझे ही तो क्या बल्कि इस दुनिया के किसी भी मनुष्‍य को अच्‍छा नहीं लगेगा।

जोतीराव : तो प्रश्‍न उठता है कि अन्‍य मानवी प्राणियों की उनके पास से कोई चीज धर्म के नाम पर फुसलाकर या जबर्दस्‍ती लेकर उसका उपभोग उनके ही सामने करने का क्या हमको कोई अधिकार है?

बलवंतराव : उस तरह से करने का हमको कोई अधिकार नहीं है और इसके बारे में भूदेव (ब्राह्मण) आर्यों के धर्मशास्‍त्रों में भी कहा गया है कि, 'परोपकार : पुण्‍याय पापाय परपीडनम्।'

जोतीराव : इस तरह का यदि आपके धर्मशास्‍त्रों का सिद्धांत है, तो आपके आर्य ब्राह्मण (भूदेव) अपने धर्मग्रंथों को इन बातों से तो अछूते रखते ही हैं, लेकिन स्‍वयं भी रजस्‍वला नारी की तरह अछूते रहकर ईसाई-मुसलिमों को तथा शूद्रादि-अतिशूद्रों को भी नीच मानते हैं और उनको हर तरह का नुकसान पहुँचाते हैं, इसका मतलब आखिर क्या है?

बलवंतराव : इस संबंध में आपने कुछ सार्वजनिक मिसालें दीं तो लोगों का हित होगा, इसमें कोई संदेह नहीं।

जोतीराव : इसमें पहली बात यह है कि आर्य ब्राह्मण लोग अपने स्‍वार्थ के लिए ईसाई लोगों के साथ उनके टेबिल पर जाहिर तौर पर जाकर बैठते हैं, फिर उनके साथ बैठकर मद्य-मांस भी खा-पी लेते हैं, और घर में जाने के बाद स्नान करके पवित्र हो जाते हैं, फिर वे उन्‍हीं के पवित्र ईसाई धर्म की निंदा करते हैं और अनपढ़-अज्ञानी लोगों के दिलों और दिमाग में उनके प्रति नफरत की भावना भी पैदा करते हैं। फिर दूसरी बात यह है कि भीतर ही भीतर से जवानी की मस्‍ती में मस्‍तानी नारी जैसे वेश्‍या के साथ अपनी स्‍त्री से भी ज्‍यादा संपर्क में रहते व उसी के साथ अपना ज्‍यादा से ज्‍यादा समय बिताते हैं, लेकिन उसकी कोठी से बाहर निकलने के बाद एकदम पाक-पवित्र होकर निर्मल मुसलिम धर्म की निंदा करते हैं। वे उनको अपने कुएँ के पानी को भी छूने नहीं देते, और अन्‍य अनपढ़-अज्ञानी लोगों के दिलो-दिमाग में उनके प्रति जहर फैलाकर मुसलमानों से नफरत करना सिखाते हैं। फिर तीसरी बात यह है कि अज्ञानी शूद्रादि-अतिशूद्रों की मेहनत के पैसे पर पर्वती जैसे धार्मिक संस्‍थानों की स्‍थापना करके उसमें स्‍वयं शामिल होकर मनचाहे पकवान खाते हुए शोर-गुल मचाते हैं, लेकिन कर देने वाले भूखे-प्‍यासे शूद्रादि-अतिशूद्रों को ज्‍वार-बाजरे के बासी बचे हुए भोजन का एक कौर भी नहीं देते, और घर लौटकर आने के बाद शिंदे, होलकर, गायकवाड़ जैसे कुलीन शुद्र राजा-रजवाड़ों के स्‍पर्श भी नहीं होने देते, उनको नीच मान-कर ये लोग अपनी जाति की श्रेष्‍ठता का घमंड दिखाते हैं।


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