सन 1897 की जनवरी में मैं डरबन उतरा, तब मेरे साथ तीन बालक थे। मेरा भानजा लगभग दस वर्ष की उमर का, मेरा बड़ा लडका नौ वर्ष का और दूसरा लड़का पाँच वर्ष का। इन
सबको कहाँ पढ़ाया जाए?
मैं अपने लड़कों को गोरों के लिए चलनेवाले स्कूलों में भेज सकता था, पर वह केवल मेहरहबानी और अपवाद-रूप होता। दूसरे सब हिंदुस्तानी बालक वहाँ पढ़ नहीं सकते थे।
हिंदुस्तानी बालकों को पढ़ाने के लिए ईसाई मिशन के स्कूल थे, पर उनमें मैं अपने बालकों को भेजने के लिए तैयार न था। वहाँ दी जानेवाली शिक्षा मुझे पसंद न थी।
वहाँ गुजराती द्वारा शिक्षा मिलती ही कहाँ से? सारी शिक्षा अंग्रेजी में ही दी जाती थी, अथवा प्रयत्न किया जाता, तो अशुद्ध तमिल या हिंदी में दी जा सकती थी। पर
इन और ऐसी अन्य त्रुटियों को सहन करना मेरे लिए संभव न था।
मैं स्वयं बालकों को पढ़ाने का थोड़ा प्रयत्न करता था। पर वह अत्यंत अनियमित था। अपनी रुचि के अनुकूल गुजराती शिक्षक मैं खोज न सका।
मैं परेशान हुआ। मैंने ऐसे अंग्रेजी शिक्षक के लिए विज्ञापन दिया, जो बच्चों को मेरी रुचि के अनुरूप शिक्षा दे सके। मैंने सोचा कि इस तरह जो शिक्षक मिलेगा उसके
द्वारा थोड़ी नियमित शिक्षा होगी और बाकी मैं स्वयं, जैसे बन पड़ेगी, दूँगा। एक अंग्रेज महिला को 7 पौंड के वेतन पर रखकर गाड़ी कुछ आगे बढ़ाई।
बच्चों के साथ मैं केवल गुजराती में ही बातचीत करता था। इससे उन्हें थोड़ी गुजराती सीखने को मिल जाती थी। मैं उन्हें देश भेजने को लिए तैयार न था। उस समय मेरी यह
खयाल था कि छोटे बच्चों को माता-पिता से अलग नहीं रहना चाहिए। सुव्यवस्थित घर में बालकों को जो शिक्षा सहज ही मिल जाती है, वह छात्रालयों में नहीं मिल सकती।
एतएव अधिकतर वे मेरे साथ ही रहे। भानजे और बड़े लडके को मैंने कुछ महीनों के लिए देश में अलग-अलग छात्रालयों में भेजा अवश्य था, पर वहाँ से उन्हें तुरंत वापस
बुला लिया था। बाद में मेरा बड़ा लड़का, व्यस्क होने पर, अपनी इच्छा से अहमदाबाद के हाईस्कूल में पढ़ने के लिए दक्षिण अफ्रीका छोड़कर देश चला गया था। अपने भानजे
को जो शिक्षा मैं दे सका, उससे उसे संतोष था, ऐसा मेरा खयाल है। भरी जवानी में, कुछ दिनों की बीमारी के बाद, उसका देहांत हो गया। मेरे दूसरे तीन लड़के कभी किसी
स्कूल में गए ही नहीं। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह के सिलसिले में मैंने जो विद्यालय खोला था, उसमें उन्होंने थोड़ी नियमित पढ़ाई की थी।
मेरे ये प्रयोग अपूर्ण थे। लड़को को मैं स्वयं जितना समय देना चाहता था उतना दे नहीं सका। इस कारण और दूसरी अनिवार्य परिस्थितियों के कारण मैं अपनी इच्छा के
अनुसार उन्हें अक्षरज्ञान नहीं दे सका। इस विषय में मेरे सब लड़को को न्यूनाधिक मात्रा में मुझ से शिकायत भी रही है, क्योंकि जब-जब वे 'बी.ए.', 'एम.ए.' और
'मैंट्रिक्युलेट' के भी संपर्क में आते, तब स्वयं किसी स्कूल में न पढ़ सकने की कमी का अनुभव करते थे।
तिस पर भी मेरी अपनी राय यह है कि जो अनुभव-ज्ञान उन्हें मिला है, माता-पिता का जो सहवास वे प्राप्त कर सके है, स्वतंत्रता का जो पदार्थपाठ उन्हें सीखने को मिला
है, वह सब उन्हें न मिलता यदि मैंने उनको चाहे जिस तरह स्कूल भेजने का आग्रह रखा होता। उनके बारे में जो निश्चिंतता आज मुझे है वह न होती, और जो सादगी और
सेवाभाव उन्होंने सीखा है वह मुझसे अलग रह कर विलायत में या दक्षिण अफ्रीका में कृत्रिम शिक्षा प्राप्त करके वे सीख न पाते; बल्कि उनकी बनाबटी रहन-सहन देशकार्य
में मेरे लिए कदाचित् विघ्नरूप हो जाती।
अतएव यद्यपि मैं उन्हें जितना चाहता था उतना अक्षर-ज्ञान नहीं दे सका, तो भी अपने पिछले वर्षों का विचार करते समय मेरे मन में यह खयाल नहीं उठता कि उनके प्रति
मैंने अपने धर्म का यथाशक्ति पालन नहीं किया है और न मुझे उसके लिए पश्चाताप होता है। इसके विपरीत, अपने बड़े लड़के के बारे में मैं जो दुखद परिणाम देखता हूँ,
वह मेरे अधकतरे पूर्वकाल की प्रतिध्वनि है, ऐसा मुझे सदा ही लगा है। उस समय उसकी उमर इतनी थी कि जिसे मैंने हर प्रकार से अपना मूर्च्छाकाल, वैभव-काल माना है,
उसका स्मरण उसे बना रहे। वह क्यों माने कि वलह मेरा मूर्च्छाकाल था? वह ऐसा क्यों न माने कि वह मेरा ज्ञानकाल था और उसके बाद में हुए परिवर्तन अयोग्य और मोहजन्य
थे? वह क्यों न माने कि उस समय मैं संसार के राजमार्ग पर चल रहा था इस कारण सुरक्षित था तथा बाद में किए हुए परिवर्तन मेरे सूक्ष्म अभिमान और अज्ञान की निशानी
थे? यदि मेरे लड़के बारिस्टर आदि की पदवी पाते तो क्या बुरा होता? मुझे उनके पंख काट देने का क्या अधिकार था? मैंने उन्हें ऐसी स्थिति में क्यों नहीं रखा कि वे
उपाधियाँ प्राप्त करके मनचाहा जीवन-मार्ग पसंद कर सकते? इस तरह की दलीले मेरे कितने ही मित्रों ने मेरे सम्मुख रखी है।
मुझे इन दलीलो में कोई तथ्य नहीं दिखाई दिया। मैं अनेक विद्यार्थियों के संपर्क में आया हूँ। दूसरे बालकों पर मैंने दूसरे प्रयोग भी किए है, अथवा कराने में
सहायक हुआ हूँ। उनके परिणाम भी मैंने देखे है। वे बालक और मेरे लड़के आज समान अवस्था के है। मैं नहीं मानता कि वे मनुष्यता में मेरे लड़को से आगे बढ़े हुए है
अथवा उनसे मेरे लड़के कुछ अधिक सीख सकते है।
फिर भी, मेरे प्रयोग का अंतिम परिणाम तो भविष्य ही बता सकता है। यहाँ इस विषय की चर्चा करने का हेतु तो यह है कि मनुष्य-जाति की उत्क्रांति का अध्ययन करनेवाले
लोग गृह-शिक्षा और स्कूली शिक्षा के भेद का और माता-पिता द्वारा अपने जीवन में किए हुए परिवर्तनों का उनके बालकों पर जो प्रभाव पड़ता है उसका कुछ अंदाज लगा सके।
उसके अतिरिक्त उस प्रकरण का एक उद्देश्य यह भी है कि सत्य का पुजारी इस प्रयोग से यह देख सके कि सत्य की आराधना उसे कहाँ तक ले जाती है, और स्वतंत्रता देवी का
उपासक देख सके कि वह देवी कैसी बलिदान चाहती है। बालकों को अपने साथ रखते हुए भी यदि मैंने स्वाभिमान का त्याग किया होता, दूसरे बालक जिसे न पा सके उसकी अपने
बालकों के लिए इच्छा न रखने के विचार का पोषण न किया होता, तो मैं अपने बालकों को अक्षरज्ञान अवश्य दे सकता था। किंतु उस दशा में स्वतंत्रता और स्वाभिमान का जो
पदार्थ पाठ वे सीखे वह न सीख पाते। और जहाँ स्वतंत्रता तथा अक्षर-ज्ञान के बीच ही चुनाव करना हो तो वहाँ कौन कहेगा कि स्वतंत्रता अक्षर-ज्ञान से हजार गुनी अधिक
अच्छी नहीं है?
सन 1920 में जिन नौजवानों को मैंने स्वतंत्रता-घातक स्कूलों और कॉलेजों को छोड़ने के लिए आमंत्रित किया था, और जिनसे मैंने कहा था कि स्वतंत्रता के लिए निरक्षर
रहकर आम रास्ते पर गिट्टी फोड़ना गुलामी में रहकर अक्षर-ज्ञान प्राप्त करने से कहीं अच्छा है, वो अब मेरे कथन के मर्म को कदाचित् समझ सकेंगे।