hindisamay head


अ+ अ-

विमर्श

भोजपुरी लोकगीतों में औरत की दुनिया

अशोक सिंह यादव

अनुक्रम विवाह और विदाई पीछे     आगे

बाँस के करील की तरह तेजी से बढ़ती बेटी जब शादी के योग्य हो जाती है, तो अपने पति, ससुराल और भावी जीवन के प्रति उसमें ढेर सारी आकांक्षाएँ और कल्पनाएँ भी हिलोरें लेने लगती हैं। भारतीय परिवारों का जो ताना-बाना रहा है और शादी-ब्याह को लेकर जो चलन है, उसमें कोई लड़की (लड़का भी) परिजनों से अपनी पसंद प्रायः जाहिर नहीं कर पाती/पाता। लड़की अपनी हसरतों को गीतों में बयाँ करती है। एक गीत में सीता की ओट ले कर अपनी पसंद जाहिर की गई है। गीत में सीता सूर्यदेव से मनचाहे पति, देवर, ससुर, ससुराल इत्यादि का वरदान माँगती है :

सीता झमकि के चढ़ैलीं अटरिया
त अदित मनावेलीं हो
ससुर माँगे राजा दसरथ
सासु कोसिल्या एइसन हो
हे ललना देवर माँगेली बाबू लछिमन
पुरुख भगवान एइसन हो (5)

(सीता झमक कर अटारी पर चढ़ती हैं और सूर्यदेव का ध्यान करके उनसे राम जैसा पति, लक्ष्मण जैसा देवर, राजा दशरथ जैसा ससुर, रानी कौशल्या जैसी सास, अयोध्या जैसी ससुराल, अयोध्या का राज और सरयू का सुलभ-दर्शन माँगती हैं।)

विवाह के गीतों में ऐसे प्रसंग भी रचे गए हैं, जिनमें बेटी सीधे पिता से अपनी पसंद जाहिर करती है :

फूलवा बरन हम सुंदर ए बाबा
सेंदुर बरन चटकार
हमरे सरेखे बर खोजिहा ए बाबा
तब रचिहा हमरो बियाह (6)

(मैं फूल जैसी सुंदर और सिंदूर के रंग-सी चटख हूँ। पिताजी! मेरे लायक वर खोज लीजिएगा, तब मेरा विवाह करिएगा।)

ऐसा वर पिता जी कहाँ पाएँगे? एक दूसरे विवाह गीत में बेटी सुझा रही है :

बाबा बरवा त खोजीहा सहरीया
सहर के लोगवा सुंदर हो (7)

(पिताजी! मेरे लिए शहरी लड़का ढूँढ़िएगा, शहर के लोग सुंदर होते हैं।)

शादी की दहलीज पर खड़ी बेटी ख्वाबों-खयालों की दुनिया में खोई है, लेकिन इधर पिता की मनोदशा क्या है, इसको भी स्त्रियों ने गीतों में बखूबी उभारा है :

सोइ गइलँऽ तोता रे, सोइ गइलँऽ मैना
अरे सोइ गइलँऽ देस संसार रे ललनवाँ
एक नाहिं सूतेलँऽ बेटी क बाबा
अरे जेकरे दहेजवा क सोच रे ललनवाँ (8)

(तोता सो गया, मैना सो गई, देश-दुनिया के सभी लोग सो गए। बेटी के पिता को नींद नहीं, क्योंकि उन्हें दहेज की चिंता है।)

यहाँ दहेज की चिंता को बेटी के भावी जीवन को सुखी बनाने की चिंता के अर्थ में लेना चाहिए। एक अन्य गीत में बेटी को ऐसा लगता है कि उसके पिता नीम तले शीतल बयार लेते हुए निश्चिंत सोए हैं। बेटी अपने पिता को चेताती है :

जेकरे ही घरवाँ ए बाबा कन्या कुँआरी हो
ते कइसे सोवे अनचीत (9)

(पिताजी! जिसके घर कुँवारी कन्या हो, वह भला निश्चिंत होकर कैसे सो सकता है)

लेकिन बेटी के पिता सो नहीं, सोच रहे थे। वह कहते हैं :

कुछु बेटी सोईला, कुछु बेटी जागीला
कुछु रे दहेजवा क सोच (9)

(बेटी, कुछ सोता हूँ, कुछ जागता हूँ और कुछ दहेज के बारे में सोचता हूँ।)

जिस बाप के पास बेटी ब्याहने के लिए पर्याप्त संसाधन न हों, उसे न केवल अपना जीवन, बल्कि पूरा संसार ही सूखा और बेजान मालूम पड़ता है :

धनवाँ सूखइनँ ए बेटी
धान के कियरियाँ हो
पनवाँ बरइया के दुकान
गंगा सूखइनीं ए बेटी जमुना सूखइलीं हो
सूखि गइलीं नदी क सेवार
बेटी के बाबा के मनवाँ सूखइलँ हो
अब बेटी रहबू कुँआर (10)

(धान के खेत में धान और बरई की दुकान पर पान सूख गया है। गंगा-यमुना सूख गईं और नदी की सेवार (काई जैसी घास) भी सूख गई। बेटी के पिता का मन सूखा हुआ है कि अब बेटी की शादी नहीं हो पाएगी।)

जीवन का जितना हिस्सा मनुष्य असल में जीता है, उससे कई गुना जीवन वह सपनों में जीता है। ऊपर की पंक्तियों में जो दुख है, वह असल जीवन की उपज है। अगर जीवन का बड़ा हिस्सा सपनों में है, तो वहाँ ये दुख क्यों सहा जाय? गीत की अगली कड़ी में ये कल्पना है कि पिता के पास बेटी की शादी करने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हो गए हैं। ऐसे में पिता को पूरी प्रकृति और पूरा परिवेश ही भरा-पूरा लगने लगता है :

धान हरियइलँ ए बाबा
धान के कियरियाँ हो
पनवा बरइया के दुकान
गंगा उमड़लीं ए बाबा जमुना उमड़लीं हो
बढ़ि गइलीं नदी के सेवार
बेटी के बाबा के मन हरियइलँ हो
अब बेटी ब्याहन जाय (10)

(खेत में धान, बरई की दुकान पर पान हरे-भरे हो गए। गंगा और यमुना उमड़ पड़ीं तथा नदी की सेवार बढ़ गई। बेटी के पिता का मन हरा या हर्षित हो गया कि अब बेटी का ब्याह हो जाएगा।)

आधुनिक आलोचना ने भारतीय समाज में स्त्री और पुरुष को एक दूसरे के प्रायः विरोधी खेमों में खड़ा किया है। इन गीतों में वह ढाँचा निहायत ही झूठा साबित होता है। समाज में प्रचलित किसी ताकतवर अमानवीय प्रवृत्ति के कारण केवल किसी एक पक्ष -स्त्री या पुरुष - को ही पीड़ा झेलनी होगी, यह संभव नहीं। पारिवारिक-सामाजिक रिश्तों के इतने आयाम हैं कि पुरुष भी उस पीड़ा से नहीं बच सकता जो स्त्री झेल रही है, क्योंकि वह सिर्फ पति नहीं है, भाई और पिता भी है। इसी प्रकार आगे हम देखेंगे कि रिश्तों के इन्हीं आयामों के कारण स्त्री भी जाने-अनजाने परपीड़क की उस भूमिका में आने से अपने को नहीं रोक पाती, जो भूमिका पितृसत्तात्मक समाज में प्रायः पुरुष निभाता दिखाया जाता है।

दरअसल किसी समाज के पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के पैमाने पर ही यह देखना चाहिए कि पिता-भाई अपनी बेटी बहन के सुखी और समृद्ध जीवन के प्रति कितने चिंतित और प्रयासरत हैं। इसके लिए यह भी जानना जरूरी है कि उस समाज में स्त्री के सुखी और सार्थक जीवन के मायने क्या हैं।

उस समाज के 'जायज और मान्य विकल्पों' के पैमाने पर यह देखा जाना चाहिए कि पिता-भाई के मन में अपनी बेटी-बहन को दुखों से छुटकारा दिलाने के प्रति कितनी छटपटाहट है और दुखों को दूर न कर पाने पर वे खुद कितने विवश और दुखी हैं। यह सही है कि सुख की अवधारणा और समाज के मान्य विकल्प भी पुरुषसत्ता के मूल्यों द्वारा तय किए जाते हैं। बेटी के सुखी जीवन की अवधारणा में स्त्रियों की आवाज शामिल नहीं होती। स्त्रियों के लिए सुखी जीवन के मायने क्या हैं, इसे हम आगे प्रेम-प्रसंग वाले गीतों में ज्यादा साफ तौर पर देख सकते हैं, जहाँ स्त्रियाँ पितृसत्ता और पुरुषश्रेष्ठता के मूल्यों को ध्वस्त करती और उनसे आगे निकलती हैं।

पिता कितना ही गरीब क्यों न हो, उसे अपनी बेटी के लिए वर तो ढूँढ़ना ही है। शादी तय हो जाने के बाद लड़की अपने वैवाहिक जीवन के सपनों में जीने लगती है। इस समय लड़की की जो मनोदशा होती है उसे लेकर गीतों में अत्यंत मोहक और भावुक प्रसंग रचे गए हैं। इस पर विस्तार से चर्चा पति के संदर्भ में की जाएगी। फिर भी, एक गीत में बेटी अपने पिता से छायादार मंडप बनवाने के लिए कहती है इस पर पिता जी कहते हैं :

कहतू त ए बेटी छत्र पीटवतीं
कहतू त सुरुजू अलोप (11)

(ए बेटी, तुम कहो तो छत बनवा दूँ, कहो तो सूरज को अलोप कर दूँ।)

फिर बेटी कहती है, 'मेरे पिताजी! क्यों छत बनवाएँगे और क्यों सूरज को अलोप करेंगे। आज की रात आप के मंडप में रहूँगी, कल तो अपने सुंदर वर के साथ चली जाऊँगी।' ऐसा कहके वह पिता के बेटी के बिछड़ने के हृदय-विदारक दुख को हल्का करना चाहती है। किंतु यह क्या, पिता का दुख तो और भी बढ़ जाता है, वह याद करते/दिलाते हैं :

खोरवन खोरवन बेटी दुधवा पीअवलीं
दहिया खीअवलीं साढ़ीदार
कोराँ से ए बेटी भुइयाँ ना उतरलीं
बेटो ले अधिको दुलार (11)

(बेटी! मैंने तुम्हे कटोरा भर-भरकर दूध पिलाया, मलाईदार दही खिलाई, अपनी गोद से कभी नीचे नहीं उतारा, उससे भी अधिक दुलार किया जितना लोग अपने बेटों को करते हैं।)

संतान को दुलार करने का मानक है बेटा को दुलार करना। अतः बेटा से भी अधिक दुलार का अर्थ इसी से जोड़कर तय किया जाना चाहिए। गीत के इस हिस्से को लेख के उस प्रसंग से भी जोड़कर देखना चाहिए, जहाँ कहा गया है कि पैदा होने के बाद बेटी भी अपने माँ-बाप के लिए प्यारी संतान है। यह गीत इस बात की ओर संकेत करता है कि माँ-बाप अपनी बेटी की परवरिश - काफी कुछ अंशों में - बतौर संतान करते हैं। जीवन के कुछ आयाम अवश्य ऐसे रहे हैं, जहाँ बेटा-बेटी में भेद रहा है। जैसे पूर्व में उल्लिखित एक सोहर में यह बात आई है कि स्त्री अपने ईष्टदेव से वरदान में पुत्र माँगती है विरासत सौंपने के लिए, और पुत्री माँगती है धर्म पूरा करने के लिए। कह सकते हैं कि संपत्ति में आज की तरह पुत्री का अधिकार नहीं था। यद्यपि यह वैधानिक अधिकार आज भी व्यावहारिक रूप में पूरी तरह लागू नहीं हो सका है। हुआ यह है कि पूर्व के भारतीय समाजों के अध्ययन में औपनिवेशिक योजना के अनुकूल पड़ने वाले कथित यथार्थ के अंशों को चुनकर और आदर्शों को नकार कर भारतीय समाज की आलोचना का सुनियोजित आधार तैयार किया गया। इसके ठीक उलट आधुनिकता निर्मित समाज की श्रेष्ठता साबित करने के लिए संविधान प्रदत्त अधिकारों एवं समानता के अवसरों का हवाला दिया जाता है, इनकी व्यावहारिक परिणतियों का जिक्र नहीं किया जाता। इसलिए यह भी देखा जाना चाहिए कि पिता अपनी शक्ति भर (संपत्ति भी शक्ति के दायरे में शामिल है) यह व्यवस्था करने के लिए चिंतित और प्रयासरत रहता है कि बेटी का जीवन सुखी हो सके। यह बात गीतों में बार-बार आई है। दरअसल, इस पूरे मुद्दे को ही गलत बिंदु (अधिकार के बिंदु) से देखा गया है। अधिकार निहायत आधुनिक शब्दावली है। भारतीय समाज में पुत्र या पुत्री में से किसी का संपत्ति में कोई अधिकार नहीं होता था, बल्कि ये माँ-बाप का धर्म या दायित्व (आधुनिक शब्दावली में कर्तव्य) होता था कि वे अपनी विरासत बेटे को सौंपे और अपनी हैसियत के अनुसार बेटी का सुखी जीवन सुनिश्चित करें। यह हम पहले ही कह चुके हैं कि सुख की अवधारणा पितृसत्तात्मक मूल्यों से ही संचालित होती है।

बेटी के पैदा होने पर जिस माँ-बाप की दुनिया अंधकारमय हो गई थी, दरवाजे पर बेटी की बारात आने पर उनके जीवन में उजाला हो जाता है। हो भी क्यों न, बेटी के पैदा होने पर जिन आशंकाओं से वे लोग दुखी हुए थे, उनको जैसे-तैसे पार करते हुए आज अपने धर्म से निवृत्त होने जा रहे हैं :

जब हमरे बेटी क अइलीं बरियतिया
अरे चारों ओरियाँ भइन अँजोर रे ललनवा
सासु ननद घरे दियना जरत है
अरे आपन प्रभु चलें हरसाइ रे ललनवाँ (1)

(जब मेरी बेटी की बारात आई तो चारों तरफ उजाला हो गया। सास ननद ने भी दीया जला रखा है। मेरे प्रभु यानी बेटी के पिता खुश होकर चल रहे हैं)।

बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप के दुखी हो जाने का कारण कुछ-कुछ इस प्रसंग से भी समझा जा सकता है, किंतु पूरी बात यथाप्रसंग आगे।

विवाह की रस्मों के दौरान बेटी को मंडप में बैठाने के लिए घर के भीतर से नाऊन-बारी और सहेलियाँ ले आती हैं। उस समय के एक गीत में बेटी/बहन को पिता/भाई की आँखों की पुतली कहा गया है :

अरे काढ़ैलँऽ कवन बाबा आँखी कै पुतरिया
अरे ईह मति जनिहा समधी काठे कै पुतरिया
अरे हमरी कवनि बेटी आँखी कै पुतरिया
.......
अरे काढ़ैलँऽ कवन भइया आँखी कै पुतरिया (1)

(पिता अपने आँखों की पुतली यानी अत्यंत प्यारी बेटी को निकाल कर मंडप में बैठा रहे हैं। समधी जी, इसे काठ की पुतली मत समझिएगा। मेरी बेटी आँखों की पुतली है।)

कवन या कवनि (कौन) के स्थान पर गीत गाते समय लड़की के पिता, भाई और लड़की का नाम लिया जाता है।

बेटी को आँख की पुतली (यानी पिता-भाई की दुलारी) कहना मानो पर्याप्त न हो, इसलिए यह भी जोड़ दिया गया है कि इसे काठ की पुतली मत समझिएगा। सबका ख्याल रखते हुए, सभी जिम्मेदारियों को निभाते हुए परिवार वालों के साथ रागात्मक संबंधों को जीते हुए बेटी घर वालों की प्यारी-दुलारी हो जाती है। चूँकि घर वालों को उसकी इतनी आदत-सी हो जाती है कि इन बातों पर खास ध्यान नहीं जाता। किंतु जैसे-जैसे विवाह की एक-एक रस्म के साथ बेटी मायके वालों से दूर होती जाती है, वैसे-वैसे बेटी और मायके वालों के आपसी रिश्तों के मर्म और मायने भी उद्घाटित होते जाते हैं।

विवाह मंडप में पिता-बेटी एक साथ बैठते हैं और पिता अपनी बेटी को हर एक रस्म के साथ उसके पति के सुपुर्द करते जाते हैं। पिता-पुत्री के इस समय के मनोभावों को गीतों में बखूबी रचा गया है। एक गीत में बेटी कहती है :

केथुअन क छतिया बाबा कइले बाड़ा
हम्में धनकारत बाड़ा (13)

(पिताजी आपने अपनी छाती कैसी बना ली है कि मुझे अपने से दूर कर रहे हैं।)

इस बात पर पिता कहते हैं :

बजरे क छतिया बेटी कइले बाड़ीं
तोहें धनकारत बाड़ीं (13)

(बेटी! मैंने अपनी छाती वज्र की कर ली है, तभी तुम्हें अपने से दूर कर पा रहा हूँ।)

दुल्हन बनी लड़की एक तरफ पति-मिलन की कल्पनाओं से रोमांचित है तो दूसरी ओर माँ-बाप-भाई इत्यादि से दूर होने के एहसास से दुखी भी। संबंधों और संवेदनाओं की इस जटिल घड़ी को कालिदास ने पूरी मार्मिकता के साथ रचा हो। प्रिय मिलन की कल्पना से रोमांचित और विदाई की वेदना से दुखी शकुंतला अपनी सखियों से कहती है, 'आर्यपुत्र के दर्शन (मिलन) को उत्सुक हूँ, किंतु आश्रम (मायका) छोड़ते हुए मेरे पैर दुख के कारण आगे नहीं बढ़ रहे हैं।' (अभिज्ञानशाकुंतलम् - 4.13)

गाने-बजाने, हर्ष-वेदना, रस्मों और मंत्रों के बीच विवाह संपन्न हो जाता है। जैसे सब कुछ सपने की तरह घट गया हो। लेकिन माँ जानती है कि बेटी जिस नए जीवन में प्रवेश करने जा रही है, वह कितना कठिन है। वह बेटी को नए जीवन को सहेजने और रिश्तों को निभाने की सीख देती है। गृहस्थी सँभालने का सलीका इस प्रकार सिखाती है -

घरि झारि अइहा बेटी, चूल्ह पोति अइहा
अरे बरतन मँजिहा पखारि रे ललनवाँ (14)

(घर में झाड़ू लगाना, चूल्हे की पुताई करना, बर्तन को सफाई से माँजना - यानी जो भी काम करना सलीके से करना।)

रिश्ते-नातों को निभाने की तरकीब इस प्रकार सिखाती है -

सासू क बतिया बेटी अँचरे छिपइहा
अरे ननदी जबाब जनि करिहा रे ललनवाँ
देवरू क बतिया बेटी हँसि भूलवइहा
अरे सामी के हिरदयाँ लगइहा रे ललनवाँ (14)

(सास की कही बातों को आँचल में छुपाकर रखना, ननद की बातों का पलट कर जवाब मत देना, देवर की कही बातों को हँसकर भुला देना और अपने पति को हृदय से लगाकर रखना।)

बेटी को विदा करते हुए माँ चिंतित और अधीर होती है। उसके अपने जीवन के अनुभव बेटी के भावी जीवन के प्रति उसे आश्वस्त नहीं होने देते। तुलसीदास ने शिव-पार्वती विवाह के प्रसंग में नारी-जीवन की इस मुश्किल घड़ी का चित्रण किया है। मैना देवी पार्वती को शास्त्र एवं परंपरा द्वारा अनुमोदित व्यवहार करने की सीख देती हैं :

करेहु सदा संकर पद पूजा
नारी धरमु पति देउ न दूजा

'अभिज्ञानशाकुंतलम्' में कण्व ऋषि भी शकुंतला को विदा करते हुए सीख देते हैं। चूँकि शकुंतला राजघराने में जा रही हैं, तो पिता कण्व उसी के अनुरूप उपदेश भी देते हैं कि सपत्नियों के साथ सखियों जैसा व्यवहार करना, सेवकों के प्रति उदार रहना, भोगों को पाकर अभिमान मत करना इत्यादि। (4.20)

इस प्रकार ठेठ लोक द्वारा रचित गीतों से लेकर भारत की श्रेष्ठतम रचनात्मक कृतियों में माँ-बाप अपनी बेटी को भावी जीवन सहेजने की सीख देते हैं। यद्यपि बेटी के मायके और ससुराल के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक स्तर तथा रचनाकारों के अनुभव-ज्ञान-विश्वास में अंतर के कारण माँ-बाप द्वारा दी जाने वाली सीख की प्रकृति में भी अंतर पाया जाता है। यह अंतर उपर्युक्त तीनों संदर्भों में साफ नजर आता है।

तुलसीदास ने पति के प्रति धर्मशास्त्र अनुमोदित निष्ठा और समर्पण का उपदेश दिया है, तो कालिदास ने राजकाज और दुनियादारी के अनुकूल सीख दी है। यही विषय गृहस्थ नारियों ने रचा है तो उसमें रोजमर्रा के जीवन की तमाम चुनौतियों के निवारण तथा विभिन्न रिश्तों-नातों को सँभालने और सहेजने की युक्ति भी शामिल है। जाहिर है, एक पुरुष (भले ही वह संन्यासी हो) स्त्रियों के जीवन की चुनौतियों को गहराई में जाकर स्त्रियों की तरह न तो समझ सकता है और न ही रच सकता है। सहानुभूत और स्वानुभूत अभिव्यक्ति के भेद की वजह से यह फर्क आना लाजिमी है। हाँ, यह जरूर है कि बेटी को इस तरह की नसीहतें देते हुए माँ के हृदय की वेदना को तुलसीदास ने भी अनुभूत किया है :

बचन कहत भरे लोचन भारी
बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी

आँखें भर आईं थीं, फिर भी मैना देवी ने शिष्टता का खयाल कर खुद को रोने से जबरदस्ती रोक रखा था। पर दुख की अधिकता में दुखी व्यक्ति शिष्टता तो क्या, विधाता का भी लिहाज नहीं कर पाता। मैना देवी ने जितनी जबरदस्ती से दुख प्रकट होने से रोक रखा था, आखिरकार उतनी ही ताकत से उनका दुख शिष्टता, मर्यादा, समय-कुसमय के बाँध को तोड़ता हुआ सैलाब की तरह विधाता को भी अपनी चपेट में ले लेता है :

कत विधि सृजीं नारि जग माहीं।
पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं।

चूँकि सामाजिक रीतियाँ धार्मिक विश्वासों से संचालित होती रही हैं और धार्मिक विश्वासों को ईश्वरीय व्यवस्था माना जाता रहा है। इसलिए इन पंक्तियों में विधि (ब्रह्म) के विधान यानी धर्म-अनुमोदित सामाजिक रीति-नीतियों की आलोचना है।

गीतों में यही बात कुछ इस रूप में आती है, 'मैं जान पाती कि बेटी पैदा होगी तो कोई उपाय करके उसे गर्भ में ही मार देती, जिससे उसके जीवन में आने वाले दुख हमें देखने और झेलने न पड़ते।' (1, 17)। बेटी को पैदा होने से पहले ही मार देने की कल्पना और इसके कारणों का उल्लेख करना विधाता के विधान यानी धर्मशास्त्रीय विश्वास और सामाजिक रवायतों की कड़ी आलोचना है।

जब बेटी की विदाई का समय आता है, तब विवाह की रात से ही उमड़-घुमड़ रहे दुख और करुणा के बादल आखिर बरस ही पड़ते हैं। इस वक्त की वेदना को प्रकट करने वाले गीत विदाई के ऐन मौके पर नहीं गाए जाते। इस पर जब मैंने महिलाओं से बात की तो वे कहने लगीं, 'उस बखत किसी को गीत-गवनई थोड़े न सूझती है। उस समय तो जैसे कलेजा फटता है और छटपटा-छटपटा कर रह जाना पड़ता है।' उन लोगों ने बताया कि विदाई की वेदना वाले गीत रात को विवाह की रस्मों के दौरान मंडप में ही गाए जाते हैं। कदाचित इसी के सहारे बेटी के परिवार वाले विदाई की मुश्किल घड़ी का सामना करने के लिए खुद को तैयार भी करते हैं। विदाई के समय का वर्णन एक गीत में इस प्रकार आया है :

दूअरे पर बाबा रोवैं
घरवा में माई रोवैं
अरे माई आजु मोरी
दुनिया अन्हारि भइनीं
बेटी मोरी परायी भइनीं (15)

(द्वार पर पिता रो रहे हैं, घर में माँ रो रही है कि आज हमारी दुनिया अंधकारमय हो गई, हमारी बेटी परायी हो गई।)

लेख के शुरू में यह बात आई है कि बेटी के जन्म लेने पर माँ-बाप को लगता है कि उनके जीवन में अँधेरा छा गया और वे दुखी होते हैं। अब बेटी के विदा होने पर फिर उनके जीवन में दुख और अँधेरा छा जाता है। यहाँ आकर वह वृत्त पूरा होता है, जिससे बेटी के पैतृक घर में उसकी भूमिका और महत्व को रेखांकित किया जा सकता है। बेटी के जन्म पर माँ-बाप इसलिए दुखी होते हैं कि लड़कियों से जुड़े पारिवारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य इतने क्रूर और तकलीफदेह हैं कि बेटी इनसे बच नहीं सकती। बेटी का दुख माँ-बाप को अनिवार्य रूप से बेधेगा, लाडली बेटी की विदाई का दुख भी झेलना होगा। एक सोहर में औलाद के रूप में बेटी न चाहने का कारण इस रूप में आता है कि यदि बेटी किसी उपाय से गर्भ में ही मर जाती तो उसके जीवन में आने वाली तकलीफ तो हमें नहीं सालती (धीया क करकिया न होय)। (17)। बेटी के विदा हो जाने पर दुखी माँ तड़पते हुए कहती है, 'मोरे कुइयाँ धधकले आग' (17)। यानी दुख की अधिकता के कारण माँ का अंतर्मन दहक रहा है।

विदाई के अवसर पर कालिदास ने लिखा है कि शकुंतला को विदा करते समय सिद्धि प्राप्त कर चुके ऋषि कण्व भी सोचते हैं, 'आँसुओं के बहने से गला रुंध गया है। दृष्टि चिंता के कारण जड़ हो गई है। जब मेरे जैसे तपस्वी की यह दशा है तो पुत्री के वियोग में गृहस्थ जन कितने दुखी होते होंगे। (अभिज्ञानशाकुंतलम् - 4.8) कण्व ऋषि शकुंतला को ससुराल में इतना सुख और सम्मान मिलने की कामना करते हैं कि उसे आश्रम (मायके) की कमी न महसूस हो। फिर विदाई के अंतिम क्षण वह कहते हैं, 'मैं तुम्हारे लिए जो चाहता हूँ, वह पूर्ण हो।' (वही - 4.21)

बेटी ने मायके की सारी जिम्मेदारियाँ ऐसे सँभाल रखी थीं कि हर-एक काम के लिए सब उसी का मुँह ताकते थे। यह सही है कि इसी में बेटी की उपलब्धि और मुश्किल दोनों शामिल हैं। विदाई के बाद भी घर में बेटी की गैर-मौजूदगी का एहसास परिवार वालों को धीरे-धीरे होता है। बेटी की विदाई के बाद घर कैसा सुनसान और जीवन खाली-खाली लगने लगता है, देखें :

खेत खरीहनवाँ ले आवेनँ बेटी क बाबा
'बेटी-बेटी' डालेनँ पूकार
हमरऽ जे बेटी हो कहाँ चली गइलीं हो
घरवा लगेला सुनसान (18)

(खेत-खलिहान से पिता आते हैं और बेटी को आवाज देते हैं। कोई जवाब न पाकर कहते हैं, 'हमारी बेटी कहाँ चली गई? घर सूना-सूना लग रहा है।)

बेटी के लिए पिता को परेशान देखकर बेटी की माँ उन्हें याद दिलाती है कि 'आपकी बेटी अपने ससुराल चली गई, इसलिए घर सुनसान लग रहा है।'

तुहरे जे बेटी हो ससुरे चली गइलीं हो
घरवा लगेला सुनसान (18)

एक बार फिर अभिज्ञानशाकुंतलम् को याद करें। शकुंतला को विदा करने के बाद आश्रम में प्रवेश करते हुए दोनों सखियाँ कण्व ऋषि से कहती हैं, 'शकुंतला के बिना सूने हो चुके इस तपोवन में हम लोग (आश्रमवासी) प्रवेश कर रहे हैं।' (अभिज्ञान शाकुंतलम्, 4.24)

विदाई के बाद इतनी शिद्दत से बेटी की कमी का एहसास होना, मायके में उसकी भूमिका और उसके महत्व को ही उद्घाटित करता है।


>>पीछे>> >>आगे>>