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विमर्श

भोजपुरी लोकगीतों में औरत की दुनिया

अशोक सिंह यादव

अनुक्रम पति और ससुराल पीछे     आगे

भारतीय वांगमय एवं संस्कृति में प्रेम और रोमांस की रचनात्मक-कलात्मक अभिव्यक्ति पर कभी भी बंदिश नहीं रही है। कालिदास, चंडीदास, जयदेव, विद्यापति, सूरदास, बिहारी की शृंगारिक रचनाएँ तथा खजुराहो, कोणार्क के मंदिरों की दीवारों पर अंकित कामकला के दृश्य इसकी पुष्टि करते हैं। ये सारे रचयिता-कलाकार पुरुष हैं। स्त्री द्वारा अपने प्रेम और रोमांस की अभिव्यक्ति के ऐसे प्रमाण नहीं मिलते। आम धारणा यही है कि आधुनिकता (औपनिवेशिक) के साथ स्त्री को ऐसी अभिव्यक्ति के सीमित अवसर मिलने शुरू होते हैं। लेकिन यह बात अगर सही है कि प्रेम और रोमांस मनुष्य की सहज इच्छाएँ हैं, तो स्त्री भी अपनी इन इच्छाओं की अभिव्यक्ति तो करती ही रही होगी। यदि इसके प्रमाण नहीं मिलते तो हमें साक्ष्य एवं अभिलेख ढूँढ़ने के तौर-तरीकों पर पुनर्विचार करना चाहिए।

भारत में (या शायद पूरी दुनिया में) निम्नवर्ग - दलित, स्त्री, आदिवासी - का प्रायः विहंगम अध्ययन ही किया गया है। इससे न तो इस वर्ग के द्वारा भोगे जा रहे दुखों और झेली जाने वाली मुसीबतों को जाना जा सका है, और न ही इसके जीवन में व्याप्त खुशी-उल्लास और इसके कारणों को जाना जा सकता है। इस वर्ग के दुखों और खुशियों को जानने के लिए बाह्य अवलोकन के बजाय इसके गली-कूचों, खेत-खलिहानों, चौका-चौकी (रसोई और चौपाल), कोल्हार-सीवान के बीच जाकर और उसके भीतर से निकलने वाली दृष्टि, चेतना, तार्किकता, भावुकता एवं विश्वासों को हृदयंगम करके ही उचित समझ विकसित की जा सकती है। इस वर्ग को समझने के लिए इसके द्वारा रचा-गढ़ा गया लोकसाहित्य एक (और शायद एकमात्र) महत्वपूर्ण अभिलेख है।

देवी-देवताओं को मनाते हुए, व्रत-उपवास रखते हुए लड़की बार-बार मनचाहे पति, देवर, सास, ससुर और ससुराल का वरदान माँगती है। उसकी इस चाहत का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है। लेकिन विवाह तय हो जाने के बाद लड़की के 'सपनों की दुनिया' गीतों में जिस प्रकार रची गई है, उसमें लड़की है, उसका पति (होने वाला) है, उनके बीच आकर्षण, प्रेम, मनुहार-इकरार, रसीली नोकझोंक और चुहलबाजी है। इसके अलावा कायनात में और कुछ नहीं, जो है भी, वह दोनों के बीच के प्रेम और आनंद को बढ़ाने के लिए है।

एक गीत में लड़की अपने पिता से सुंदर मँड़वा बनवाने की फरमाइश करती है। तैयार मँड़वा देखने (निरीक्षण) के लिए वह लड़की जाती है कि उसके आँचल में धूल लग जाती है। इतने में उसका दूल्हा घोड़ा दौड़ाते हुए आता है और आँचल की धूल झाड़ने लगता है :

घोड़ा दवरवनँ हो दूलहे कवन राम
झारै लगनँ अँचरे क धूर (19)

इस गीत में लड़कियों की अपने होने वाले पति से जुड़ी कल्पना एवं भावना का प्रक्षेपण है। हर लड़की चाहती है कि होने वाला पति उसके रूप-सौंदर्य को सराहे और सुख-सुविधा का खयाल रखे। एक अन्य गीत में दूल्हा मंडप में चौका यानी बैठने के लिए नियत स्थान पर बैठा है। वैवाहिक रस्मों के लिए होने वाले हवन का धुआँ उससे सहा नहीं जा रहा। वह अपनी होने वाली पत्नी को पुकारता है :

बाहरि बाड़ू कि भीतर ए कवन सुभवा
मोरे मुखे बेनिया डोलाव (20)

(अरी सौभाग्यवती! घर के भीतर हो कि बाहर हो? मेरे मुँह पर पंखी झलो।)

इस पर लड़की कहती है, 'श्रीमान, मैं कैसे पंखी झल सकती हूँ? मायके के सभी लोग बैठे हुए हैं।' इतना सुनते ही दूल्हा जोड़ा-जामा (वैवाहिक पोशाक) झाड़ते हुए उठ खड़ा होता है। उसने सोचा, ये तो मेरे बजाय मायके वालों की परवाह कर रही है। इसलिए वह अपनी दुल्हन को 'ससुर की बिटिया' के रूप में संबोधित करते हुए कहता है, 'तुम्हे मड़वे में ही छोड़ जाऊँगा और दूसरा विवाह करूँगा।' इतना सुनते ही दुल्हन घोड़े की लगाम पकड़ लेती है, कहती है, 'हे स्वामी! आप के साथ जोगिन बन कर रहूँगी, माँ-बाप थोड़े न साथ जाएँगे।'

पति के नाज करने की यह कल्पना दुल्हन के मायके की है। पति का मान रखने के लिए लड़की थोड़ा नय (झुक) जाती है। दूल्हे के घर सुहाग-कक्ष में मान-मनुहार का यह क्रम उलट जाता है। पति सुहाग सेज पर सोया हुआ है। दुल्हन जाकर पैताने (उनचने) बैठ या सो जाती है। पति दिल्लगी करता है, 'और आगे जाओ, और आगे जाओ! मेरा जोड़ा जामा (तुम्हारे बैठने से) धूमिल हो जाएगा।' दुल्हन पहले से ही एकदम किनारे पर थी। दूल्हे के ऐसा कहते ही वह मानिनी तुरंत उछल कर और पति की सेज से बिछड़कर नीचे जमीन पर उतर जाती है :

एतना बचन जब सुनलीं कवनि देई
अब ऊछड़ि बीछड़ि भुइयाँ जायँ रे
सोहाग मोर अजब बनी (21)

दुल्हन के मान करने पर दूल्हा मनुहार करके उसे सेज पर बुलाने लगता है :

गोड़ तोरऽ लागीला ससुर जी क बिटिया रे
आगुर आ आगुर आ सरवन क बहिनी रे
जोड़ा जमवाँ लेबों मों धोवाय रे
सोहाग मोर अजब बनी (21)

ये सारी कल्पनाएँ उस लड़की के मनोभावों का प्रक्षेपण हैं, जिसकी शादी हो रही है। लड़की जब दुल्हन बन कर ससुराल पहुँचती है, तो वहाँ की औरतें बहू की अगवानी छेड़छाड़ और चुहल के साथ करती हैं (22)। ऐसा इसलिए कि बहू सहज हो सके और मायके से दूर अपरिचित घर में आने का एहसास उसे बहुत न साले।

नई दुल्हन प्रिय-मिलन के क्षणों की नानाविध कल्पनाएँ करती है। प्रिय-मिलन के अनुभवों और इन कल्पनाओं के मेल से स्त्री अपने गीतों में प्रेमरस छलकाती अद्भुत लीलाएँ रचती है। एक गीत में दुल्हन को अपने पति से शिकायत है कि पति उसे रूप-शृंगार की ऐसी चीजें लाकर नहीं देता, जिससे प्रेम के क्षणों का आनंद और बढ़ सके। अपने पति को उलाहना देते हुए वह प्रेम की शर्त इस प्रकार रखती है -

रोवाइ हम्में मरला, रोवाइ हम्में मरला
ए हमरे राजा
सीनवाँ में सीनवाँ जब हो मिलइबऽ
सीनेदार चेस्टर जब हो लीअइबा (24)

(मेरे राजा! आपने मुझे रुला-रुला कर मार डाला। मैं आपके सीने से अपना सीना तभी लगाऊँगी जब आप मेरे सीने योग्य (सीने के नाप की) चोली लाकर देंगे।)

गीत में आगे दुल्हन अपने होठों के मेल की मिसिया और नैनों के मेल का काजल माँगती है। रूप-यौवन सजाकर बलम को लुभाने की कल्पना भी गीतों में खूब आई है। एक गीत में नायिका कहती है :

चाकर सीधरिया क चाकर चुइयवाँ
बलम हो पातर मोर करिहइयाँ
टीकवा पहिनि हम सूतलीं अटरिया
बलम हो कोई नाहीं सान मरवइया
कीया सान मारेला लहुरा देवरवा
बलम हो कूल रस लेला ननदोइया (25)

(सिधरी - छोटी मछली की एक प्रजाति - तो बहुत चौड़ी है उसकी चुइयाँ - ऊपर की पतली त्वचा - भी चौड़ी है। मैं तो उससे भी पतली कमर वाली पतली छरहरी हूँ। मैं टीका पहन कर यानी शृंगार करके अटारी पर सोई हूँ। हे बलम! कोई भी मुझे सान नहीं मार रहा है यानी प्रेम पूर्ण इशारे नहीं कर रहा। या तो छोटा देवर इशारे करता है या ननदोई मुझे देख-देखकर रस ले रहा है।)

इस गीत में भी देवर और ननदोई का जिक्र पति-पत्नी के बीच होने वाली दिल्लगी और चुहलबाजी के आनंद को बढ़ाने के लिए ही आया है।

जिन गीतों में पति-पत्नी के अलावा और कोई नहीं है और ये दोनों प्रेम-प्रसंग के लिए राजी हैं यानी कोई भी मान नहीं कर रहा, वहाँ प्रेम के उन्मुक्त और बिंदास चित्र दिखते हैं :

सोने की थारी में जेवना परोसलों
जेवना ना जेवँऽ टीकउआ गिर गय नारी में
सारी देहिया गिर गइलीं बलम की अँकवारी में (26)

(सोने की थाली में नायिका अपने पति को खाना खिलाने गई, लेकिन उसके पति ने इतना उन्मुक्त प्रेमालिंगन किया कि उसके माथे का टीका नाली में गिर गया और पूरी देह पति के आगोश में गिर पड़ी।)

गीत की आगे की कड़ियों में पानी पिलाते और सेज लगाते समय पति द्वारा उन्मुक्त प्रेमालिंगन किए जाने का वर्णन है।

पति-पत्नी के बीच मजाक और चुहलबाजी का एक कोण दूल्हे की बहन होती है। यह कोण ननद-भाभी के बीच परिहास के रिश्ते से बनता है। दुल्हन का ननद और देवर से परिहास का संबंध होता है। एक गीत में सजी-धजी दुल्हन अपने पति के लिए खाना परोसकर बैठी हुई है। पति भोजन करने के बजाय पत्नी को निहार रहा है :

जेवना न जेवँ हरि निरेखँऽ मोर टीकुलिया
बड़ी रे दूर ले, धन तोर चमके चमके टीकुलिया (27)

(पत्नी की बिंदिया निहारते हुए पति कहता है, 'धनिया तुम्हारी टीकुली बहुत चमक रही है।')

इसके बाद पति दिल्लगी करते हुए कहता है, 'ये टीका तुम्हारी माँ-बहन ने दिया है या तुमने किसी मनिहार को अपना यार बना कर लिया है (जिसने तुम्हें यह टीका लाकर दिया है)।

पत्नी भी मजाक और ताने का मिला-जुला जवाब देती है :

ई टीकवा हमरे ननदा क हउअँऽ
ननद कइलीं ना, मनिहरवा इयरवा (27)

(यह टीका मेरी ननद का है। ननद ने ही मनिहार को अपना यार बना लिया है।)

ससुराल में जाकर दुल्हन अपनी माँ की सीख पर अमल करते हुए ससुराल के सारे कामकाज सँभाल लेती है। अब रोजमर्रा के कामकाज के बीच ही वह पति का साथ पाने की हसीन कल्पनाएँ करती है। सास या ससुराल के अन्य लोग देखते हैं, तो देखा करें; चिढ़ते हैं, तो चिढ़ा करें। इस तरह के एक गीत में खाना बनाते हुए गरमी के मारे बेकल होकर औरत अपने पति को बेनिया (पंखी) झलने के लिए कहती है। पति को पटाने वाले अंदाज में वह कहती है :

सासू जी क पुतवा, ननद जी क भइया, हमारे स्वामी ना!
मुखे बेनिया डोलवता, हमारे स्वामी ना! (28)

(मेरे सासू जी के बेटवा, मेरी ननद जी के भइया, हे मेरे स्वामी! मेरे मुँह पर पंखी से हवा झल दो ना!)

पति पंखा झल रहा था कि सास ने देख लिया और अफसोस के साथ कहने लगी, 'मेरा बेटा तो बहू का गुलाम हो गया।' इस पर बहू तपाक से जवाब देती है :

जवने ही दिन सासू, सिरे सेंदुर डलनँ
ओही रे दिनवाँ, पूता भइनँ तोर गुलमवाँ
ओही रे दिनवाँ (28)

(ए सासू! जिस दिन तुम्हारे बेटे ने मेरे सिर में सिंदूर डाला, उसी दिन वे मेरे गुलाम हो गए।)

इस गीत की शुरुआत में औरत अपने पति को स्वामी कहकर संबोधित करती है और अब सास को जवाब देने के लिए उसे गुलाम कहती है। इन दो संबोधनों में स्त्री अपने पति पर प्रेमपूर्ण अधिकार जताती है। आखिरकार सिंदूरदान की रस्म के जरिए उसे इसके लिए धार्मिक और सामाजिक अनुमोदन जो प्राप्त है।

इस गीत में पति और पत्नी के अलावा किसी अन्य यानी सास की मौजूदगी को लाया भी गया है, तो आनंद को बढ़ाने के लिए, और प्रेम के आगे सबको निरुत्तर कर देने के लिए। इस तरह के गीतों में स्त्री की प्रेम और रोमांस की इच्छाओं-कल्पनाओं की अभिव्यक्ति है। इनमें मनचली स्त्री है, उसका पति (कभी अनारी, कभी रसिया) है, तीसरा कोई नहीं। इन गीतों में स्त्री ने समाज और दुनिया के जंजालों से आजाद होकर एक स्वप्नलोक रचा है। इस स्वप्नलोक में वह पति से इठलाती है, उसको उलाहना देती है, उसकी बाँहों में गिर जाती है। सब कुछ अपने मन का करती है। बेरोकटोक और बिंदास।

स्त्री अपने गीतों में केवल स्वप्न और इच्छाओं की ही अभिव्यक्ति नहीं करती है। इच्छाओं और सपनों को जब मूर्त रूप देने की बारी आती है, तब उसका सामना परिवार, समाज आदि संस्थाओं और इनके मूल्यों-मान्यताओं से होता है। अब स्वप्न और यथार्थ में टकराव होता है। इस टकराव और तनाव को वो प्रायः आख्यान के जरिए गीतों में ले आती है। इस तरह के गीत लंबे-लंबे और बड़ी संख्या में मिलते हैं।

हमारे समाज में परिवार की संरचना अत्यंत जटिल रही है। परिवार के हर रिश्ते की अलग-अलग उम्मीदें होती हैं। प्रत्येक रिश्ते से जुड़े हुए कुछ सांस्कृतिक मूल्य होते हैं। हर सदस्य की कुछ सामाजिक मर्यादाएँ होती हैं। परिवार की जटिल संरचना में इन मूल्यों और मर्यादाओं को साधते-साधते, रिश्तों की उम्मीदों को पूरा करते-करते पति-पत्नी के संबंधों के लिए कितनी जगह बचती है, इसकी बानगी हमें स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले लोकगीतों में मिलती है। इस विषय से संबंधित वृत्तांत प्रायः सोहर और जँतसार में मिलते हैं। इन गीतों में सास-ननद अपने बेटे/भाई पर उसकी पत्नी के मुकाबले अपना अधिक हक मानती और जताती हैं। घर का पुरुष इन सबका मान रखने में इतना खोया रहता है कि प्रायः पत्नी की इच्छाओं और जरूरतों का उसे खयाल ही नहीं रहता।

पति घर के भीतर की तमाम बातें नहीं जानता। बहू जानती है। बहू को पता है कि उसकी सास और ननद सुनियोजित तरीके से पति के मिलन से वंचित रखती हैं। लेकिन बहू भी कहाँ मानने वाली। वह सास को चुनौती देती रहती है कि चाहे जितनी चालें चलो, प्रिय-मिलन का अवसर तलाश ही लूँगी। एक सोहर सास-बहू-संवाद के रूप में है (29)। इसमें बहू का मन पान खाने के लिए मचलता है। सास से अपनी यह माँग पूरी न होने पर वह तय करती है, 'जब पतिदेव को भोजन कराऊँगी, उसी समय यह माँग उनके सामने रखूँगी।' इस पर सास कहती है, 'मेरी बिटिया खाना बनाकर अपने भाई को खिलाएगी। ए बहू! मैं आँगन में बैठकर बराबर नजर रखूँगी। भला बताओ, तुम कैसे पान का बीड़ा माँग पाओगी?' बहू फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ती। वह सास को चुनौती देते हुए अगले अवसर की तलाश करती है। वह कहती है, 'ए सासू, आपने बढ़िया किया कि अपना बेटा बरज (रोक) लिया। ए सासू! मेरे पति जब पानी पीने आएँगे, तब उनसे पान का बीड़ा माँगूँगी।' इस बार भी सास कहती है कि 'मेरी बिटिया अपने भाई को पानी पिलाएगी। मैं चौखट पर बैठकर रखवाली करूँगी।' इसके बाद बहू कहती है -

सासू जब राजा अइहँऽ मोरि सेजरिया
तबऽ हो बीरवा माँगब (29)

(हे सास! जब मेरे पति मेरी सेज पर आएँगे, तब मैं उनसे बीड़ा मागूँगी।)

गीत की रिकॉर्डिंग करते समय इस प्रसंग के आने पर मैंने सोचा कि यह बहू का नितांत व्यक्तिगत अधिकार-क्षेत्र है। अब सास हार मान लेगी। लेकिन उम्मीद के विपरीत और आश्चर्यजनक रूप से सास के द्वारा बहू को पति की सेज (शय्या) के अधिकार और अवसर से भी वंचित रखा जाता है। सास कहती है, 'मेरी बिटिया बिस्तर लगाकर अपने भाई को सुलाएगी। ए बहू! मैं चारपाई के पैताने (उनचन) बैठकर रखवाली करूँगी। भला तुम कैसे बीड़ा माँग पाओगी?' पति की सेज वह एकांत स्थल है जहाँ सिर्फ पत्नी का हक होता है। इस अधिकार का बँटवारा उसे मंजूर नहीं। यहाँ से वंचित होने पर वह ठान लेती है कि अब सारी लाज-शरम छोड़कर पति तक अपने दिल की बात जरूर पहुँचाएगी। अब अगली कड़ी में वह किसी एकांत या व्यक्तिगत स्थल पर नहीं, पति की कचहरी में जाकर अपने मन की बात उससे कहने का इरादा करती है और इस बार सफल रहती है। पति पूछ-पूछकर पत्नी की इच्छा भर ढेर सारा खैर-सुपारी-पान इत्यादि लाकर देता है। बहू के द्वारा पति को अपना लिए जाने पर सास तिलमिला जाती है। बाहर से ससुर के आने पर सास शिकायत करती (लाई लगाती) है, 'हे स्वामी! अब की बहुएँ कलियुगी होती हैं। अपने पति को केवल अपना बना के रख लेती हैं।' इसके बाद ससुर कहते हैं कि 'ए मेरी धनिया! चुप रहो। कुछ मत कहो-सुनाओ! हे प्रिया! अपने पति के साथ चुटकी भर सिंदूर से बँध गई ये बहुएँ किसी के रोकने से नहीं रुकती हैं।'

इस तरह के गीतों पर चर्चा के दौरान औरतें कहतीं, 'पहिले के जमाने में सास किसिम-किसिम के छल रचती रहती थीं। अब के बेटे थोड़े न माँ की सुनते हैं। अब तो वे केवल मेहरी के पास सटे रहते हैं।' यह टिप्पणी पारंपरिक समाज में होते रहने वाले मंथर बदलाव को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यद्यपि इन गीतों को सभी उम्र की औरतें गाती हैं, किंतु इनका गायन एक बहू के दृष्टिकोण से किया जाता है। पति-समागम से वंचित होने की पीड़ा प्रकट करने के लिए बहू कुछ घटना-प्रसंग रचती है। इस वंचना की कई वजहें हो सकती हैं। बहू की दृष्टि में इसकी वजह सास और ननद हैं। उसके मन में यह इच्छा तो है ही कि कोई ऐसी जगह हो, जहाँ सबको धता-बताते हुए पति से मिल जाए। हकीकत में न सही, गीतों में ही। मूल्यों-मर्यादाओं से बाहर निकलने वाला कोई भी कदम पहले विचारों और सपनों में ही उठाया जाता है। बार-बार, हजार बार। इस विचार के व्यवहार रूप में प्रकट होने की स्थिति तब आती है, जब यह फैलते-फैलते संवेदना के धरातल पर समाज के बहुसंख्यक लोगों को स्वीकृत हो जाता है। घर की बहू का कचहरी में जाना सामाजिक मर्यादाओं की लक्ष्मणरेखा को पार करना है। कचहरी सार्वजनिक परिक्षेत्र (Public Domain) है। यह बहू के लिए वर्जित क्षेत्र है। पहले तो बहू व्यक्तिगत अधिकार क्षेत्र में ही पति का साहचर्य पाने का प्रयास करती रही, किंतु इससे लगातार वंचित किए जाने पर व्यक्तिगत परिक्षेत्र (Private Domain) की मर्यादा से बाहर निकलकर सार्वजनिक परिक्षेत्र में पति से मिलने का निर्णय लेती है। सास इसके लिए पहले से तैयार नहीं रहती। घर की चारदीवारी में सिमटी बहू ऐसा कदम उठा सकती है, सास इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती थी। इसलिए बहू के द्वारा अचानक उठाए गए इस कदम को रोकने के लिए वह कुछ नहीं कर पाती है और बहू सफल रहती है। इस गीत में बहू के द्वारा सास को यह भी एहसास कराया गया है कि मेरी कुछ मजबूरियाँ हैं, तो आपके अधिकार-क्षेत्र की भी सीमा है। परिवार के दायरे में ही आप मुझ पर बंदिश लगा सकती हैं। इसके बाहर की दुनिया मेरे और आपके लिए लगभग समान रूप से खुली और बंद है। मैं वहाँ जाकर पति से मिलूँगी और आप रोक नहीं पाएँगी। बहू के द्वारा पति को अपना लिए जाने पर सास-ससुर इसको नए जमाने का दस्तूर कहकर कोसते हैं। सास आज की बहुओं को कलियुगी कहती है। ससुर कहते हैं कि ये बहुएँ चुटकी भर सिंदूर के जरिए केवल अपने पति से बँधी हैं। ये अपने पर आ जाएँ तो किसी और मूल्य या मर्यादा के बंधन से बाँधने पर भी नहीं बँधतीं।

माँ के लिए बेटा कलेजे का टुकड़ा होता है। वह चाहती है कि बेटे पर सबसे ज्यादा हक उसी का रहे। बहू के आ जाने पर माँ को लगता है कि बेटा उससे दूर और बहू के करीब होता जा रहा है। इसे वह बरदाश्त नहीं कर पाती। वह तमाम कोशिशें करती है कि बेटे-बहू के बीच इतनी नजदीकी न हो कि वह अपने बेटे से ही दूर हो जाए। बेटे से दूरी के लिए सास अपनी बहू को दोषी मानती है, इसलिए प्रायः वह बेटे के द्वारा ही बहू को प्रताड़ित कराने का कुचक्र भी रचती है। एक 'जाँता-गीत' में छोटी बहू चूल्हा पोतने के लिए चलती है, तब तक सास चूल्हे के बीच में चीन्हा (लाइन) खींच देती है। बहू कहती है कि 'मेरी सास! चीन्हा क्यों डाल दिया? चूल्ह पोतने में चीन्हा मिट गया।' इतना सुनते ही सास सिर से पाँव तक चादर ओढ़कर सो जाती है। बहू के बहुत मनाने पर भी वह नहीं उठती। तब बहू राह चलते बटोही से अपने पति को कचहरी में खबर भेजवाती है। यहाँ पर स्त्री द्वारा पुरुष के सौंदर्य-वर्णन का अवसर भी आता है। बटोही को अपने पति की पहचान बताते हुए बहू कहती है -

हमरे हरी जी कऽ काली काली जुलुफी
उहै हउअँ हरी जी हमार न हो
हमरे हरी जी कऽ लंबी-लंबी अँखिया
नकिया त हउअ जइसे सुगना क ठोरवा
दंतवा अनरवा क दनवा न हो जी
हमरे जे हरी जी कऽ एड़िया ले धोतिया
उहे हउअँ हरी जी हमार न हो जी (30)

(मेरे पति की जुल्फें काली-काली हैं। मेरे हरि की बड़ी-बड़ी आँखें हैं। उनकी नाक तोते की चोंच जैसी सुदर्शन है। उनके दाँत अनार के दाने की तरह हैं। उनकी धोती एड़ी तक फहराती है। ऐसे हैं मेरे हरि।)

बटोही से खबर पाते ही पति तुरंत घर पहुँचता है और माँ से उसकी तकलीफ पूछता है। रूठी हुई माँ कहती है, 'मेरी वेदना तुम नहीं समझोगे। मेरी वेदना बस भगवान समझ सकते हैं।' यह बात बेटे के दिल पर चोट करती है और वह कहता है, 'तुम्हारी वेदना केवल भगवान नहीं बूझेंगे, मैं भी बूझूँगा।' तब माँ कहती है -

लहुरी पतोहिया सिरवा ओखद हो जी (30)

(छोटी बहू ही मेरे सिर की दवा है)।

यहाँ पर इसी विषय से मिलते एक अन्य जँतसार गीत का प्रस्तुत गीत के पूरक/स्थानापन्न के रूप में उल्लेख जरूरी जान पड़ता है। इस दूसरे गीत में पत्नी अपने पति को बेनिया (पंखी) से हवा देती है। हवा की ठंडक से दोनों प्राणी सुकून की नींद सो जाते हैं-

बेनिया डोलवतऽ कऽ अइलीं सुखनिंदिया
अरे रामा सुति हो गइलँ दुनहून परनियइ हो राम (31)

यह दृश्य देखकर ननद अपनी माँ से शिकायत करती (लाई लगाती) है, 'माँ! तुम्हारे जीते ही भइया भाभी के नौकर बन गए। अर्थात उसको पंखे से हवा झल रहे हैं और वो सो रही है।'

पति-पत्नी को एक-दूसरे के साथ सुख पाते देख-सुनकर सास-ननद के मन में बेटा/भाई खो देने का डर बना रहता है। अतः बेटी के मुँह से कही हुई बात सुनते ही माँ चादर ओढ़कर सो जाती है और बेटे के पूछने पर कहती है -

पूता धन क हो करेजवा सिरवाँ ओखद हो राम (31)

(बेटा! मेरे सिर (दर्द) की दवा तुम्हारी पत्नी का कलेजा है।)

सास के द्वारा बहू के कलेजे की माँग की जाती है, क्योंकि उसके कलेजे (बेटे) को बहू ने उससे दूर किया है। इसके आगे की कहानी दोनों जँतसार गीतों में लगभग समान है, लेकिन पहले गीत में ब्यौरों का विस्तार अधिक है। इसलिए पहले गीत के आधार पर ही आगे की घटनाओं की चर्चा होगी। जहाँ दूसरे गीत का उल्लेख जरूरी होगा, किया जाएगा। माँ की बात सुनते ही बेटा रसोई में जाकर अपनी पत्नी से कहता है कि 'ए रानी! जल्दी-जल्दी खाना बनाओ। मैं तुम्हें मायके पहुँचाऊँगा।' फिर पत्नी कुछ सवाल करती है, जिससे पता चलता है कि उसे अनहोनी की आशंका है। इसके बावजूद वह पति के साथ चलने को तैयार है। चलने से पहले पति अपनी पत्नी के शृंगार के लिए तमाम गहने-कपड़े बनवाता है। पहन-ओढ़कर पत्नी जब खड़ी होती है, पति को दुइजी का चाँद लगती है :

ओढ़ि पहिनी धन ठाढ़ि हो जौं भइलीं
जइसे उगऽ दुइजी कऽ चनवा न हो जी (30)

प्रथम मिलन की सौंदर्यानुभूति के वर्णन तो खूब मिलते हैं, लेकिन लोकसाहित्य में यह चिर-बिछोह से ठीक पहले आखिरी मिलन का सौंदर्य-दर्शन है। जंगल में पहुँचकर पति ने डोली ढोने वाले कहार को मजदूरी देकर वापस भेज दिया और कहा कि अब यहाँ से आगे मेरी पत्नी पैदल ही जाएगी। पति वहीं जंगल में पत्नी के सिर से जूँ निकालने लगा। पत्नी का ध्यान थोड़ा-सा भटका तो जेब से सोने की छुरी निकालकर पत्नी की गर्दन पर वार किया और उसे मार डाला। दूसरे जँतसार में कथा जब इस मोड़ पर पहुँचती है तो पति अपनी जाँघ पर पत्नी का सिर रखकर जूँ निकालने (ढील हेरने) लगता है। पत्नी कहती है, 'ए पिया! मैं छह महीने आपके घर रही लेकिन आपने कभी मेरे सिर से जूँ निकालने का काम नहीं किया। ए राजा! अब तो (क्योंकि पति उसे मायके पहुँचाने के बहाने ले आया है) यह काम मेरी माँ और बहन करेंगी और मेरी भाभियाँ करेंगी।' (31)

इसका मतलब साफ है कि सब कुछ जानते हुए भी पत्नी अपने प्रति यह क्रूर व्यवहार सहने के लिए अभिशप्त है और यह भी जानती है कि न चाहते हुए भी सामाजिक मूल्यों में उलझा हुआ पति ऐसा करने के लिए विवश है। जाँघ पर सुलाना या छुरी सोने की होना, ये दोनों ही बातें पति के चरित्र और व्यवहार के एक पक्ष को उभारती हैं कि भले ही वह सोने-सा (आकर्षक और प्यारा) है, पर सुनार (सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों) ने उसे छुरी (क्रूर) बना दिया है। वह प्यारा भी है और क्रूर होने के लिए विवश भी। प्रथम जँतसार पर वापस आते हैं। अंतिम छुरी मारते ही पत्नी के पेट में पल रहा बच्चा रोने लगता है। मुँह पर रूमाल रखकर पति रोने लगता है और कहता है, 'मेरी रानी! मैं जानता कि तुम गर्भवती हो, तो हिरन का कलेजा ले जाकर माँ को दे देता।' अपनी पत्नी का कलेजा ले जाकर जब वह माँ को देता है, तो माँ कहती है कि 'बेटा! अपनी बहू को उसके मायके पहुँचा आए और मुझे हिरन का कलेजा दे रहे हो।' इसके बाद बेटा अपना धैर्य खो देता है और कहता है, 'ऐसी माता को मैं डोम के हाथ बेच देता, हलखोर के हाथ बेच देता! इसने मेरी लगी हुई सेज अलगा दी।' (30)

एक तीसरा जँतसार इन दोनों जँतसार गीतों का पूरक कहा जा सकता है। इसमें सास अपनी बहू को मछली के नाम पर साँप देती है, जिसे पकाकर-खाकर बहू अपने रंगमहल (शयनकक्ष) में सो जाती है। हरवाही से (हल जोतकर) आया पति अपनी माता से पूछता है -

माता पतरी हो तिरियवा नाहीं लवकैले हो राऽम (32)

(हे माता! मेरी पतली स्त्री (पत्नी) दिखाई नहीं दे रही है।)

माँ कहती है -

तूहरी रनियवाँ पूता गरबे हो गूमनवाँ
पूता खाई के सूतैले रंगमहलीयउ हो ना (32)

(तुम्हारी पत्नी को घमंड हो गया है। वह गुमान में रहती है। ए बेटा! वह खाकर रंगमहल (अपने शयनकक्ष) में सोई हुई है।)

इतना सुनते ही वह अपनी पत्नी के पास जाकर सिर से पाँव तक छू-छूकर देख आया। फिर माँ से कहता है -

माता कतहूँ ना रानी के परनवउँ हो ना (32)

(माँ! मेरी रानी के शरीर में बिल्कुल प्राण नहीं हैं।)

इसके बाद वह पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए यमुना किनारे जाता है -

आरीं आरीं धरेलँऽ सेखुआ की लकड़ीया
अरे रामा बीचवा में रानी के सुतवलैं हो राम
ध ध ध ध बरऽले सेखुआ की लकरिया
अरे रामा रनिया के संगवा सतिया होइ गइनँऽ हो राम (32)

(पति ने चारों तरफ शेखुआ की लकड़ी रखकर (यानी चिता सजाकर) बीच में अपनी पत्नी को सुला दिया। धधक-धधककर आग जलने लगी और वह उसी चिता में पत्नी के साथ सती हो गया।)

शिष्ट-साहित्य के इतिहास में पुरुष के सती होने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता, लेकिन लोकसाहित्य में ऐसी कल्पना है। इस गीत में सती होने की अवधारणा ही सिर के बल खड़ी कर दी गई है। यह लोक की अपनी रचनात्मक कल्पना है।

ऊपर के तीन जँतसार गीतों (30, 31, 32) के वृत्तांतों पर गौर करें तो केवल अंतिम गीत ऐसा है, जिसमें सास को स्पष्ट रूप से खल पात्र के रूप में पेश किया गया है। अन्यथा इन गीतों की खूबी ये है कि इसमें समाज के सांस्कृतिक मूल्य-मर्यादाओं को इतने ताकतवर रूप में पेश किया गया है कि किसी व्यक्ति - स्त्री या पुरुष - को अपने तईं निर्णय लेने और व्यवहार करने की खास छूट नहीं है। ये मूल्य इतने क्रूर हैं कि स्त्री-पुरुष दोनों को ही मार डालते हैं। दो जँतसार गीतों में पत्नी मरती है, तीसरे में पत्नी के साथ पति को भी मरना पड़ता है। साथ में उल्लिखित घटनाओं से भी पुष्ट होता है कि दोनों ही उत्पीड़न की चरम स्थिति का शिकार होते हैं। पहले जँतसार में पत्नी को मारने के बाद पति का अपनी माँ पर फट पड़ना ही यह एहसास कराता है कि अपनी ही पत्नी की हत्या उसके लिए कितनी त्रासद रही होगी। लोकगीतों की रचयिता-गायिका पत्नियाँ ये बात जानती हैं कि स्त्री अपने प्रति होने वाले उत्पीड़न-आघात को जानते-समझते हुए भी, पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों की वजह से, सहने के लिए विवश है। और परिवार-समाज की उम्मीदों-मान्यताओं में उलझा हुआ पुरुष (पति) न चाहते हुए भी अपनी पत्नी के प्रति कठोर व्यवहार करने के लिए मजबूर है। इन गीतों में पूरी प्रक्रिया और संरचना को उद्घाटित किया गया है। इससे समस्या की जड़ का पता चलता है। वास्तव में उस समाज में स्त्री-पुरुष दोनों को बचाने के लिए उन मूल्यों को बदलना होगा। यह जरूर है कि समाज के पुरुषप्रधान होने के कारण स्त्री की तुलना में पुरुष थोड़ी बेहतर स्थिति में होता है। उसके लिए नैतिक मापदंड भी अलग होते हैं, जिसके कारण उसे कुछ ऐसी छूटें मिली हुई हैं, जो स्त्री के लिए सुलभ नहीं हैं। पुरुष के लिए जो सहज सुलभ छूट है, वही स्त्री के लिए गंभीर एवं अक्षम्य अपराध है।

ये सारी बातें स्त्री-गीतों से निकलकर सामने आती हैं। इन गीतों में किसी पात्र को एक सीमा से अधिक दोषी बनाकर पेश नहीं किया गया है। यहाँ स्त्री-पुरुष का सरल विभाजन भी नहीं किया गया है। एक स्त्री के उत्पीड़न के लिए केवल पुरुष जिम्मेदार नहीं है। पुरुष जिम्मेदार है भी तो एक कठपुतली की तरह। इन गीतों में एक स्त्री के उत्पीड़न के लिए प्रायः स्त्रियाँ ही अधिक जिम्मेदार हैं। यह दोषी स्त्रियाँ सास-ननद के रूप में आई हैं। लेकिन सास भी प्रायः अपने अस्तित्व के लिए ही दुश्चक्र रचती है। उसे खून से सींचे गए और प्यार-दुलार से पाले गए अपने बेटे के दूर हो जाने का भय है।

पुरुषों द्वारा रचित आख्यानों में किसी स्त्री को पाने के लिए पुरुषों को लड़ते-मारते, चालें चलते दिखाया जाता है। यहाँ पुरुषों की एजेन्सी बहुत ही ताकतवर होती है। जीतने वाला लक्ष्यीभूत स्त्री को प्राप्त कर लेता है और विजेता के पास जाने के अलावा स्त्री के पास और कोई विकल्प नहीं होता। स्त्री की पसंद-नापसंद, इच्छा-अनिच्छा कोई मायने नहीं रखती। ऐसे आख्यानों में स्त्री की एजेन्सी बहुत ही कमजोर होती है या नहीं होती है। वो घटनाओं या परिणामों को सक्रिय रूप से प्रभावित नहीं करती। स्त्रियों ने लोकगीतों में जो आख्यान रचे हैं, उनमें यह व्यवस्था ही उलट जाती है। इन गीतों में स्त्रियाँ पत्नी, माँ, बहन के रूप में एक पुरुष पर अधिकार पाने के लिए और उसे केवल अपना पति, बेटा, भाई बना लेने के लिए तमाम कोशिशें करती हैं, चालें चलती हैं। यहाँ स्त्री की एजेन्सी बहुत ही ताकतवर है। यहाँ सभी घटनाएँ स्त्री की सक्रियता से घटती हैं और चाहा-अनचाहा परिणाम भी उसी की चालों और योजनाओं के कारण निकलता है। इन आख्यानों में पुरुष की एजेन्सी बहुत ही कमजोर है। उसकी जो थोड़ी सी सक्रियता है, वह भी खुद की इच्छा या पसंद के बजाय ताकतवर भूमिका वाली स्त्री की योजनाओं और चालों से नियंत्रित होती है। वह प्रायः बेबस और बेचारा दिखाई पड़ता है। इन गीतों में पुरुष की इच्छा और चाहत का संकेत या उल्लेख भी रहता है, भले ही वह इसके अनुरूप न व्यवहार कर पाता हो। इसके विपरीत पुरुषों के आख्यानों में स्त्री की चाहत का उल्लेख प्रायः नहीं रहता है। यानी स्त्रियाँ संवेदनात्मक जटिलताओं की बेहतर रचनात्मक अभिव्यक्ति करती हैं। माना जाता है कि पितृसत्तात्मक भारतीय परिवारों में स्त्रियों को पत्नी, माँ बहन इत्यादि के रूप में थोपी गई भूमिकाएँं बिना इनकार किए निभानी पड़ती हैं। यदि किसी औरत ने इन भूमिकाओं के लिए तय आदर्शों और मर्यादाओं को चुनौती देने या तोड़ने का साहस किया तो घर-समाज का पुरुष (समुदाय) बलपूर्वक आदर्शीकृत मूल्यों की रक्षा करता है। ऊपर उल्लिखित दोनों घटनाओं को छोड़ भी दें, तो गीतों में भी स्त्री पितृसत्तात्मक मूल्यों द्वारा प्रदत्त भूमिकाओं को निभाने के बजाय अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए या बढ़ाने के लिए तमाम कोशिशें करती है। उसकी ये कोशिशें पितृसत्ता के मूल्यों द्वारा तय की गयी आदर्श भूमिकाओं का नकार हैं और इस इनकार के सामने पुरुष बेबस और लाचार दिखता है।

यह सही है कि इन तमाम कोशिशों में कई बार स्त्री भी पितृसत्ता एवं पुरुष प्रभुत्व के मूल्यों का ही प्रतिनिधित्व कर रही होती है। सास एवं ननद के द्वारा परिवार में बहू की भूमिका को नियंत्रित करने का प्रयास पितृसत्ता के मूल्यबोध का ही परिणाम है। सास ननद पुरुष पक्ष हैं, इसलिए प्रायः उत्पीड़क की भूमिका में होती हैं और बेटी के पिता-भाई पुरुष होते हुए भी स्त्री पक्ष हैं, इसलिए बेटी/बहन की ससुराल में अपमानित होते हैं और बेटी/बहन के दुख से दुखी भी।

ढेर सारे गीत ऐसे मिलते हैं, जिनमें एक स्त्री की पीड़ा से पुरुष (भाई-पिता) अधिक दुखी होता है। कई जँतसार गीतों में यह बात आती है कि आँगन झाड़ते हुए बहू से झाड़ू टूट जाता है तो सास ताना मारने और गाली देने लगती है। बहू अपने मायके खबर भेजवाती है। भाई बैलगाड़ी भरकर झाड़ू अपनी बहन के घर पहुँचाता है। जिन दुखों का निवारण सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक मूल्यों के दायरे में किया जा सकता है, उन्हें दूर करने में भाई कोई कसर नहीं छोड़ता। स्त्रियों के गीतों में उनका यह विश्वास प्रतिबिंबित हुआ है कि विवाह से पहले पिता 'यथाशक्ति' अपनी बेटी का सुखी जीवन सुनिश्चित करने के लिए प्रयासरत और चिंतित रहते हैं तथा विवाह के बाद बहन की जरूरतों को पूरा करने और दुखों को दूर करने के लिए उसका भाई 'यथासंभव' प्रयासरत और चिंतित रहता है। यह भी याद रखना चाहिए कि भारतीय समाज में पिता की क्षमता (यथाशक्ति) और भाई के सामने मौजूद विकल्प (यथासंभव) आर्थिक-सामाजिक-जातिगत आधारों पर तय होते रहे हैं। एक बार फिर यह कहना जरूरी लगता है कि प्रायः पिता और भाई की सारी कोशिशें और चिंताएँ पितृसत्ता के मूल्यों द्वारा उपलब्ध कराए गए विकल्पों के दायरे के भीतर होती हैं।

एक गीत में बहन की ससुराल में भेंट करने के लिए भाई आया है। बहन का दुख देख-सुनकर भाई भी उतना ही दुखी है -

अरे बहिनी के रोवले भीजैला रे अँचरवा
अरे भइया के रोवले भीजैला रे रूमलिया (33)

बहन एक-एक कर अपना दुख और उत्पीड़न बताती है, तब भाई कहता है :

कँसवा पितरिया जौ रहतँऽ हमरी बहिनी
अरे बदली रे मंगवतों
अरे तोहरऽ करमवाँ कइसे बदलीं ए बहिनी (33)

(ए बहिनी! काँसा-पीतल होता तो मैं बदल कर दूसरा मँगा लेता। तुम्हारा भाग्य (बदलने की इच्छा रखते हुए भी) भला मैं कैसे बदलूँ।)

यह गीत गाने वाली बुजुर्ग महिला - फेंकना देवी, जाति - गोंड, उम्र 77-78 साल, ग्राम-कस्बा कोइरी, पोस्ट - शादियाबाद, जिला - गाजीपुर, उत्तर प्रदेश उपरिलिखित गीत की अंतिम पंक्तियाँ गाकर रोने लगीं। उन्होंने बताया कि जाँता पीसते समय औरतें ऐसे गीत गाती थीं तो घर के (संवेदनशील) मर्द छुपकर सुनते थे और रोते थे।

एक अन्य जँतसार में बहन का दुख सुनकर भाई दिलासा देता है :

बहिनी लागऽ दा अगमपुर बजरिया
त करम तुहरऽ हम बदलि देबँऽ हो राम (34)

(अगमपुर यानि भाग्य की बाजार लगने दो, तुम्हारा भाग्य बदल दूँगा/लाऊँगा।)

बहन अपनी यथास्थिति को नियति मानते हुए कहती है, 'यदि काँसा-पीतल होता तो बदला जा सकता था। मेरा भाग्य कैसे बदला जा सकता है।' लोकगीतों की 'अगमपुर' की कल्पना का विकास भक्त कवियों रैदास एवं कबीर के यहाँ 'बेगमपुरा' या 'बेगम देस' (दुखरहित नगरी) की अवधारणा में दिखाई पड़ता है। अगमपुर या बेगमपुर एक ऐसा स्वप्नलोक है, जहाँ मनचाहा जीवन सहज सुलभ है। चूँकि यह स्वप्नलोक असल जीवन से ज्यादा आकर्षक है, इसलिए प्रेरक भी है।

इस प्रसंग में भाग्य किसी नकारात्मक मूल्य की व्यंजना नहीं करता। यह जीवन का आखिरी संबल है। ऐसे कठिन और दुखी हालात में अगर भाग्य पर से भी इनसान का विश्वास उठ जाए, तो जीवन जीना असंभव हो जाएगा। यहाँ भाग्य मनुष्य को निष्क्रिय नहीं बनाता। यदि इनसान भाग्य के भरोसे बैठ जाए, समस्याओं के हल की पहल ही न करे, तो भाग्य एक नकारात्मक मूल्य होगा; किंतु असल में ऐसा होता नहीं। इनसान अपने जीवन-जगत में उपलब्ध तमाम विकल्पों को अपनी पूरी ताकत से आजमा लेने के बाद भी यदि समस्या का हल नहीं निकाल पाता, तो वह विवश होकर खुद को या अपने प्रियजन को भाग्य (हालात) के भरोसे छोड़ देता है। यह मनुष्य का आखिरी चुनाव है। इन गीतों में देख सकते हैं कि बहन के दुखों को दूर करने के लिए भाई उपलब्ध सामाजिक विकल्पों के तहत पूरा प्रयास करता है। जिन दुखों का समाधान उसकी दुनिया में नहीं है, वहाँ भी अपने सपनों के एक 'पुर' (अगमपुर) की कल्पना करता है। अगमपुर की कल्पना ही अपने गाँव-पुर की आलोचना है। अंत में भले ही भाई-बहन दोनों ही भाग्य के भरोसे अपने जीवन को छोड़ देते हैं, लेकिन पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों की आलोचना तो कर ही जाते हैं।

बहन अपने दुख से स्वयं तो दुखी है ही, मायके वालों को भी क्यों दुखी करे? एक गीत में बहन अपने सारे दुख बता लेने के बाद भाई से कहती है, 'ये दुख माँ से मत कहना, वो रोएगी। ये दुख पिता से मत कहना, वे चिंतित होंगे। ये दुख चाची से मत कहना, वे माँ को ताना देंगी। ये दुख भाभी से मत कहना, मैं मायके जाऊँगी तो वो मुझे ताना देगी। भइया! ये दुख गंगा किनारे छोड़ देना, ऐसा समझना कि दुख की गठरी छोड़ आए।' (35)

मूल्यवान जीवन पारिवारिक-सांस्कृतिक मूल्यों और सामाजिक मर्यादाओं की भेंट चढ़ जाता है। स्त्री-पुरुष दोनों ही शरीर और संवेदना के स्तर पर इसके शिकार होते हैं। ये सब सहने-देखने के लिए दोनों ही विवश होते हैं। ये गीत इस पूरी जटिलता को उद्घाटित करते हैं। गीत के अंत में बहन अपने भाई से कहती है कि वह ये सारे दुख अगुआ से जाकर कहे। उसी ने ऐसे घर में शादी कराई है। अगुआ पारंपरिक विवाह का मध्यस्थ होता है।

अब तक यह बात साफ हो चुकी है कि बहू अपनी सास, ननद और गोतिनों को ही अपने दुख और उत्पीड़न के लिए कसूरवार समझती है। इसलिए वो एक ऐसे परिवार की कामना करती है जिसमें ससुर, भसुर (जेठ), देवर तो हों, लेकिन सास, ननद, जेठानी, देवरानी और सौत न हों। जिस घर में ये नातेदार स्त्रियाँ न हों, उसकी तुलना वो बिना कांटों वाली बेर से करती है। ससुराल पक्ष की स्त्रियाँ बहू को बेर के काँटे की तरह चुभने वाली लगती हैं। (36)

भारतीय नारी विवाह से पहले मनचाहे पति की और विवाह के बाद मनचाही औलाद की कामना करती है। वह पूज्य देवी-देवताओं से कई बेटों और एक बेटी की कामना करती है। बेटी के जन्म-जीवन से संबद्ध सामाजिक मान्यताओं और धार्मिक विश्वासों की जटिलता के कारण गीतों में स्त्री एक ही बेटी का, किंतु अनिवार्य रूप से, वरदान माँगती है। औलाद की कामना स्त्री की सहज इच्छा, सांस्कृतिक जरूरत और अस्तित्वमूलक विवशता है। औलाद के बिना औरत को अपना जीवन निरर्थक लगता है। एक गीत में बिना औलाद वाली औरत अपने भतीजे को गोद में लेकर उसे दुलार करते-करते सो जाती है। उसकी भाभी आकर अपना बेटा छीन ले जाती है। वह औरत रोते हुए गंगा माँ के पास आती है और मरने की इच्छा जताती है, तो गंगा मइया उसे सुंदर बेटा पैदा होने का आशीर्वाद देती हैं :

तिरिया आजु के नवही हो महीनवाँ
होरिलवा तोहरे जनमिहँ (37)

कुछ गीतों में स्त्री अपनी पसंद की तीलरी, चुनरी पहनने की इच्छा जाहिर करती है या खिड़की के सामने बाग लगाने की फरमाइश करती है, तो पति उसे बाँझ होने का ताना मार देता है। यही औरत जब बेटा जनती है, घर को वारिस देती है, तो परिवार में उसकी अहमियत यकायक बढ़ जाती है। इस बढ़ी हुई अहमियत के अनुसार वह तेवर भी अख्तियार कर लेती है। बेटा पैदा होने की खुशी में पति तत्काल ही पत्नी की पसंद वाली चीजें खरीद कर उसके पास जाता है, तब पत्नी जमकर उसकी खबर लेती है :

हटि जाहू ए राजा हटि जाहू
लम्मे से बात करा हो
हे राजा ओही दिन क मारलऽ मेहनवा
सहलो नाहीं जाला (38)

(ए राजा! हट जाइए, दूर से बात करिए। उस दिन का मारा हुआ आपका ताना सहा नहीं जाता।)

दूसरे गीत में स्त्री जवाबी तंज करती है :

तीलरी पहीरँ तुहरी माई
त चूनरी बहीनि पहीरऽ हो
राजा हम त हईं काली हो कोइलिया
तीलरिया नाहीं सौभै (39)

(तिलरी आपकी माताजी पहनें, चुनरी आपकी बहन पहने। ए राजा! मैं तो कोयल सरीखी काली हूँ, मुझे तिलरी शोभा नहीं देती।)

बेटा जनने वाली स्त्री का परिवार में इतना मान बढ़ना बेशक समाज के पितृसत्ता और पुरुषश्रेष्ठता के मूल्यों का प्रमाण पेश करता है। सही मौका पाकर औरत इन्हीं मूल्यों का इस्तेमाल अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए करती है। बेटा पैदा करने के कारण प्रभावशाली हुई औरत ससुर, भसुर, देवर आदि की हुक्मउदूली कर सकने की स्थिति में आ जाती है। एक सोहर में सभी लोग आकर औरत से कहते हैं, 'आज घर में छठ्ठी-बरही का आयोजन है, ऐसी नींद सोना कि जरूरत पर जाग सको।' इस पर वह माननीया कहती है :

ए ससुरू बेदने क मारल करिहइयाँ सोईला अनचीत
ए ससुरू जागँऽ तोहरे घरे कै हो देवतवा
त हम काहें के जागीं (40)

(ए ससुर जी! पीड़ा के मारे मेरी कमर दर्द कर रही है, मैं निश्चिंत होकर सोऊँगी। आपके घर के देवता जागें, मैं क्यों जागूँ!)

बेटा जनने के बाद औरत पराए घर से आई बहू मात्र नहीं रही। उसने कुल को वारिस दिया है, अब वह घर के अंदरुनी मामलों की भावी मालकिन है। उसके बेटा जनने की खबर पाकर ननद बिन बुलाए खुशी में शरीक होने चली आती है :

हमरे भाभी के जनमैं नंदलाल, ननद अइलीं अपने से हो
भाभी अइले क लाज तोहूँ रखिहा, ननद अइलीं अपने से हो (41)

(भाभी को बेटा पैदा होने की खबर पाकर ननद बिन बुलाए खुद चली आती है, कहती है, 'भाभी, मेरे आने की लाज रखना।')

ननद अपनी भाभी से नेग या उपहार के रूप में जो कुछ माँगती है, भाभी किस्म-किस्म के बहाने करके वो चीज देने से इनकार कर देती है। जैसे ननद सोठउरा (विशेष तरह का लड्डू) माँगती है, तो भाभी कहती है :

ननदा एही गाँव के बनिया त मरि गइलँऽ
मरि के उड़सि गइलँ हो
ननदा चीनिया भइल कंठारोल (41)

(ए ननद! इस गाँव के बनिया मर-बिला गए, चीनी भी दुर्लभ हो गई है।)

इस अवसर से जुड़े भाभी-ननद विषयक ढेर सारे गीतों में छेड़छाड़, चुहलबाजी और हाजिरजवाबी का पुट रहता है। इन गीतों की धुन भी छेड़छाड़ और मस्ती वाली होती है। लेकिन इस तरह के प्रायः सभी गीतों में इस बात का संकेत रहता है कि घर के आंतरिक मामलों में भाभी की भूमिका मजबूत हुई है और ननद उसके प्रत्यक्ष अतिथि के रूप में पेश आती है। इस प्रसंग के गीतों में कहीं भी ननद का पक्ष लेकर सास का दखल नहीं मिलता। कभी-कभी पति प्यार से गुस्सा कर लेता है। पितृसत्ता के मूल्यों की वजह से कभी उत्पीड़ित और लांछित हुई बहू की भूमिका बेटा जनने के बाद इन्हीं मूल्यों की बदौलत प्रभावशाली और निर्णायक होती जाती है। बिल्कुल स्वाभाविक ढंग से सास का प्रभाव घटता जाता है और इसी के साथ धीरे-धीरे बहू का प्रभाव बढ़ता जाता है।

आखिरकार पितृसत्ता और पुरुषश्रेष्ठता के मूल्य ही अंतिम रूप से प्रभावी और निर्णायक साबित होते हैं। हमारा आग्रह भी यही है कि ये मूल्य अंतिम रूप से प्रभावी होते हैं, न कि शुरू से आखीर तक बिना किसी चुनौती, इनकार और प्रतिकार के। रोजमर्रा की तमाम गतिविधियों में इनके वर्चस्व को चुनौती मिलती रहती है और कई बार ये बिल्कुल परास्त-से जान पड़ते हैं। जाहिर है कि रोज-रोज और बार-बार की चोट के कारण इन मूल्यों में तनिक बदलाव तो आता ही है, भले ही वह आधुनिकताजन्य बदलावों की तरह तुरंत और बिल्कुल साफ न दिखे। इन मूल्यों की क्रूरता के कारण केवल औरत ही कष्ट नहीं झेलती, पुरुष भी त्रासद पीड़ा झेलता है। इसी प्रकार केवल पुरुष ही इन मूल्यों का वाहक और प्रहरी नहीं होता। कम से कम घर के आंतरिक मामलों में जाने-अनजाने स्त्री ही इन मूल्यों की वाहक और प्रहरी बन बैठती है। स्त्री और पुरुष दोनों ही रिश्तों के अलग-अलग आयाम के कारण एक ही समय में पीड़ित और परपीड़क दोनों भूमिकाओं में होते हैं। इन गीतों में स्त्री-पुरुष का जटिल समीकरण निहायत ही ईमानदारी से पेश किया गया है। अतः इस समस्या को समझने-सुलझाने का काम सरल और सुविधाजनक ढंग से स्त्री-पुरुष का विभाजन करके नहीं किया जा सकता। खैर!

सहज प्रक्रिया से प्रभावी होती बहू और घटते प्रभाव की सास वाले घर में स्त्रियों के संबंधों का क्या समीकरण होता है, इसको लेकर गीत नहीं मिलते हैं। बेटी, बहन, पत्नी, माँ, सास के रूप में जीवन के तमाम आयाम जी चुकी नाती-पोतों वाली औरत की जीवन-दशा का चित्रण भी गीतों में प्रायः नहीं मिलता। किंतु उम्र के इस पड़ाव की मनोदशा का चित्रण एक निर्गुन में बखूबी हुआ है।

किसी स्त्री को अपने जीवन की सारी उम्मीदें और कोशिशें असफल जान पड़ती हैं। उसने अपने जीवन में जिन लोगों के लिए दुआएँ माँगी, मनौतियाँ की; जिनसे उम्मीदें पाल रखी थीं, सब उसे अर्थहीन हुई-सी जान पड़ती हैं। यहाँ तक कि अब वह अपने दिल का हाल ईश्वर को ही सुना सकती है :

ए दीनानाथ केकर करीं आसा
अपना दिनन खातिर बगिया लगवलों रामा
बहे पुरवइया छोड़न लागे लासा - ए दीनानाथ...
अपना दिनन खातिर बेटा जनमवलों रामा
अइलीं पतोहिया छोड़ाइ देहलीं नाता - ऐ दीनानाथ...
अपना दिनन खातिर बेटी जनमवलों रामा
अइलें दमाद छोड़ाइ दिहलँऽ नाता - ए दीनानाथ...

(हे दीनानाथ! किसकी आस करूँ? अपने आने वाले दिनों की सोचकर मैंने जो बाग लगाया, पुरवा हवा चलने से उसके पेड़ भी लासा छोड़ने लगे। अपने दिनों के लिए मैंने बेटा जन्माया, बहू के आने के बाद उससे भी मेरा पहले-सा नाता नहीं रहा। अपने दिनों के लिए मैंने बेटी पैदा की, दामाद ने आकर उससे भी मेरा नाता छुड़ा दिया।)

स्त्री आजीवन घर-परिवार वालों के लिए जीती रही। उम्र के इस पड़ाव पर आकर सोचती है कि इस 'जी गई' जिंदगी में वह कहाँ? भारतीय परंपरा में वैयक्तिकता की सबसे तीखी अभिव्यक्ति निर्गुण गीतों में और आध्यात्मिक रूप में हुई है। इन गीतों में व्यक्ति को सामाजिक-पारिवारिक रिश्ते-नातों से बँधी हुई जिंदगी बेमानी लगने लगती है। वह बँधी-बँधाई सामाजिकता और दुनियादारी से आगे बढ़कर जीवन-जगत के मायने तलाशने की कोशिश करता है। असल में संसार को माया कहना उस सामाजिकता को खारिज करना और उसमें अपना विलय कर देने से इनकार करना है, जिसमें वैयक्तिकता के सहज विकास की गुंजाइश न के बराबर है। प्रकारांतर से यह वैयक्तिकता की उद्भवभूमि है।

सामाजिक जकड़बंदी से मुक्ति की जो छटपटाहट लोकगीतों में दिखाई पड़ती है, लगता है, वही छटपटाहट भक्तिकालीन कवियों के 'स्वप्नलोक' (Eutopia) को भावभूमि प्रदान करती है। कहने की जरूरत नहीं कि इस प्रकार के 'स्वप्नलोक' सामाजिक जकड़बंदी से मुक्ति की चाहत एवं वैयक्तिकता की चेतना के उद्भव के बिना नहीं रचे जा सकते।


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