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विमर्श

भोजपुरी लोकगीतों में औरत की दुनिया

अशोक सिंह यादव

अनुक्रम प्रेम और परिवार पीछे     आगे

कुछ गीतों को गाते हुए औरतें इतनी तन्मय हो जाती हैं कि लाज-झिझक छोड़कर, ताली बजा-बजाकर, चहक-चहक उठती हैं। मैंने इन गीतों की रिकार्डिंग चलाकर सुनी, तो पाया कि प्रेम अथवा भक्ति विषयक गीतों पर ही औरतें ऐसी प्रतिक्रिया करती हैं। इस पर विचार करते हुए लोक और भक्ति साहित्य की उन स्थापनाओं की ओर ध्यान गया, जिनमें प्रेम और भक्ति को जीवन-जगत के तमाम भेदों से ऊपर उठाने वाला कहा गया है। लोक में कहा जाता है, 'प्रेम न देखे जात-कुजात' और संतों ने कहा है, 'जाति-पाँति देखै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई'। प्रेमी और भक्त होने के लिए ताज और लाज छोड़कर आना पड़ता है, कबीर कहते हैं, ''प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाइ। राजा परजा जेइ रुचे, सीस देइ लेइ जाइ'' और मीरा ने प्रायः अपने हर दूसरे पद में 'कुल की मर्यादा छोड़ आने' का जिक्र किया है। इसी के साथ ये भी खयाल आता है कि भारत - या शायद दुनिया - की श्रेष्ठतम कलात्मक कृतियाँ वे हैं, जिनमें प्रेम और/या भक्ति की प्रतिष्ठा है। गाँव-नगर के जनसामान्य से लेकर भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठतम मनीषियों के सृजन-चिंतन में यह विशेषता देखी जा सकती है। इसीलिए हमारे यहाँ रस-चिंतन में भी रस को 'रसो वै सः' और 'ब्रह्मानंद सहोदर' कहा गया है। असल में, प्रेम और भक्ति की आनन्दानुभूति लगभग समान भावभूमि से होती है। इसी से भक्त कवियों की रचनाओं में प्रेम और भक्ति के एक दूसरे में अंतर्भुक्त होकर रचे जाने का रहस्य भी समझ में आता है। भक्ति का सर्वोत्तम रूप प्रेम के मुहावरे में रचा-गढ़ा गया है और प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्तियाँ भक्ति के प्रतीकों का सहारा लेते हुए और भक्ति के ही ढाँचे में अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम और भक्ति की यह संगति लोकगीत और भक्तिकाव्य में समान रूप से पाई जाती है। ढेर सारे गीत और पद ऐसे भी हैं जिनमें प्रेम या भक्ति में से किसी एक को भी गौण या सहायक विषय कहना नामुमकिन है। इस किस्म के कुछ गीत आप इस लेख के परिशिष्ट में देख सकते हैं और कबीर, सूर, मीरा के ऐसे तमाम पद अब तक आपके जेहन में आ चुके होंगे। निचोड़ यह रहा कि प्रेम और भक्ति के बीच रसात्मक अभेद है। इसी के साथ यह भी कहना जरूरी लगता है कि प्रेम का विस्तार वात्सल्य और करुणा है तथा भक्ति का विस्तार अध्यात्म है।

भारतीय परिवार एवं समाज में स्त्री-पुरुष आकर्षणजन्य प्रेम-संबंध की वैधानिक स्वीकृति विवाह संस्था से परे नहीं रही है। यह मान्य व्यवहारों और संबंधों के बाहर पड़ता है। किंतु, जैसा कि राम नरेश त्रिपाठी ने भी प्रेमगीतों के संदर्भ में लिखा है, प्रेम नैसर्गिक है जबकि विवाह एक नियोजित संस्था है। इनसान की खूबी ये है कि तमाम प्रयासों के बावजूद उसके जीवन को पूर्णतः नियोजित नहीं किया जा सकता। अतः स्त्री-पुरुष आकर्षणजन्य प्रेम-संबंध भी वैवाहिक संबंधों के समांतर चलते रहते हैं। गाँव-नगर का अमूमन हर व्यक्ति अपने टोले-मुहल्ले के प्रायः सारे घरों के 'अफेयर' जानता है, सिवाय अपने घर के। हर व्यक्ति को अपना घर 'बचा हुआ' लगता है और इसी भ्रम के कारण प्रेम-संबंधों के अनुपात में इनके प्रति हिंसक घटनाएँ बहुत ही कम घटती हैं। प्रेम संबंधों का इतना चलन है, तो उसकी अभिव्यक्ति स्वाभाविक रूप से लोक गीतों में भी होगी ही।

चूँकि यह हाशिए का संबंध एवं व्यवहार है, इसलिए लोकगीतों में प्रेमी की उपस्थित बहुत ही प्रतीकात्मक और प्रायः निम्नवर्गीय (subaltern) है। वह चोर, बटमार, छलिया और सामाजिक पदानुक्रम में निम्न जाति का होता है; ऐसा इसलिए कि प्रेम करना ही परिवार-समाज से चोरी या छल करना यानी नीच कर्म करना है। आइए, सीधे प्रेमगीतों से रूबरू होते हैं। एक गीत में औरत के ससुर की कोठरी कोठे से भी ऊँची है। उसी के ऊपर 'चोर' चढ़ जाता है :

कोठवा ले ऊँच ए रामऽ
ससुर के कोठरिया न रे जी
ताही कोठवा चढ़लें ए राम
चेतमन चोरवा न रे जी (44)

(औरत के ससुर की कोठी बहुत अधिक ऊँची है। उस ऊँची कोठी के कोठे पर 'चेतमन चोर' चढ़ जाता है।)

इसी बीच औरत का पति कचहरी से वापस आ जाता है और चोर को पकड़ लेता है। वह औरत पति से मिन्नत करती है, 'इसे आँगन में मत मारिएगा, द्वार पर भी मत मारिएगा। गाँव के दक्षिण में गंगा नदी है, इसे वहीं ले जाकर मारिएगा।' चोर को मारने के बाद पति विजयी मुद्रा में घर आता है। औरत अपने पति से गुजारिश करती है, 'स्वामी, आपको छोड़कर किसी और की तो होऊँगी नहीं। चेतमन की लाश जरा मुझे दिखा दीजिए!' चेतमन की लाश के पास जाकर औरत अपने पति को भरमाते हुए कहती है, 'ए स्वामी, तनिक आग ले आइए तो चेतमन की लाश को मिलकर जला दिया जाय।' (यहाँ आपको लोककथा पर आधारित गिरीश कर्नाड के प्रसिद्ध नाटक 'नागमंडलम्' और लोककथाओं पर ही आधारित विजयदान देथा की कहानियों की याद आ रही होगी।) पति आग का इंतजाम करने चला जाता है, तब औरत चेतमन की लाश से मुखातिब होकर दुहाई देती है :

जाहुँ तोहीं होइबा ए चेतमन
नइहर के इयरवा न रे जी
अँचरे अगिनिया धधकइब
जरी जाए छरवा न रे जी (44)

(ए चेतमन! अगर तुम मेरे असल प्रेमी हो, तो इसी आँचल से आग धधकाओगे और हम दोनों जलकर राख हो जाएँगे।)

औरत अपनी बात पूरी कहने भी न पाई थी कि उसके आँचल से आग धधक उठी और दोनों जलकर खाक हो गए। पति आग लेकर आया तो यह देखते ही मुरझाकर गिर पड़ा। पति कहता है, 'यदि मैं जानता की तुम इस तरह मुझे मतिभ्रम करोगी, तो मैं चेतमन की लाश को गंगा में बहा देता।' याद कीजिए, चेतमन को मारने के बाद यही 'पति' महोदय विजयी मुद्रा में घर पहुँचे थे। पति को छकाकर प्रेमी के लिए सती होने की यह कल्पना 'सती' की पारंपरिक अवधारणा को समस्याग्रस्त बनाती है।

इस गीत में कोठरी को बहुत ऊँची कहकर परिवार-समाज की कठोर मर्यादाओं और नैतिकताओं की ओर संकेत किया गया है। चेतमन चूँकि ब्याहता औरत का प्रेमी है, अतः चोर है। इसलिए पूरे गीत में उसे चोर के रूप में ही संबोधित किया गया है। अंत में चेतमन की लाश से मुखातिब होते हुए औरत केवल एक बार उसे अपने 'बचपन का यार' कहकर संबोधित करती है। यानी जो बचपन से प्रेम कर रहा है, औरत के शादीशुदा हो जाने के बाद भी यदि प्रेम-संबंध बनाए रखना चाहे तो वह सामाजिक व्यवस्था में चोर या घुसपैठिया है।

प्रेमी यदि उच्च कुल का हुआ और उसकी ताकत सामाजिक रवायतों से बढ़कर है, तो स्वाभाविक है कि उसे चोर बनकर मर्यादाओं को लाँघने की जरूरत नहीं। वह प्रत्यक्ष प्रेम-प्रस्ताव करने में समर्थ है। लोकगीतों में ऐसे प्रेमी के चरित्र में आक्रांता और आततायी का पुट रहता है। इस तरह के एक गीत की कथा इस प्रकार है :

नदी किनारे मिर्जा का ऊँचा महल है। महल के ऊपरी कोठे पर मिर्जा कचहरी (दरबार) लगाता है। नदी में दसवत नाम की सुंदर राजकुमारी नहा रही होती है, तभी कचहरी में बैठा मिर्जा महल के झरोखे से उसे देखकर मोहित हो जाता है और पूछता है, 'तुम किसकी बेटी और किसकी बहन हो?' दसवत बताती है कि वह जासर राजा की बेटी और हरी सिंह की बहन है। पूरे गीत की संरचना से और गीत गाने वाली महिला से बातचीत के बाद यह साबित हो जाता है कि जासर केवल कहने भर को राजा थे यानी उनकी ताकत मिर्जा के मुकाबले बहुत कम थी। गीत में आगे मिर्जा द्वारा हरी सिंह को बंदी बना लिया जाता है। हरी सिंह की पत्नी अपनी ननद दसवत को धिक्कारती है, 'तुम्हारी वजह से मेरे पति कैदी बनाए गए हैं।' भाई को बचाने के लिए राजकुमारी दसवत अपनी भाभी के गहने और माँ की झिलमिल साड़ी पहनकर (सज-धजकर) मिर्जा के पास जाती है। वह न सिर्फ भाई को छुड़ाती है, बल्कि मिर्जा से अपने पिता, भाई, माँ, भाभी के लिए हाथी, घोड़ा, गहना और साड़ी भी दिलवाती है। दसवत की हर माँग मिर्जा खुशी-खुशी पूरी करता है और उसके बेबस परिजन दुखी मन से ये सारी भेंट स्वीकार करते हैं। यहाँ तक तो गनीमत है, आगे मिर्जा से दसवत अपने लिए सिंहोरा माँगती है। दसवत की इस माँग से इस बात की भी गुंजाइश बनती है कि मिर्जा-दसवत का एक-दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण आकर्षण है। चूँकि मिर्जा ताकतवर है, इसलिए गीत में उसके प्रेम-प्रस्ताव को कैदी बनाने और धौंस जमाने का रूप दे दिया गया है। इसी प्रकार सामान्य दशा में दसवत के द्वारा प्रेम-प्रस्ताव स्वीकार करना अमर्यादित माना जाता, अतः स्त्रियों ने गीत में ऐसी स्थितियाँ गढ़ी हैं कि जैसे मायके वालों की खातिर ही वह मिर्जा का प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए विवश है।

मिर्जा के द्वारा दिए गए गहने-कपड़े-सिंदूर इत्यादि से सजकर दसवत उसके साथ जाने लगती है। दसवत गैर जाति-धर्म के पुरुष के साथ प्रेम विवाह करके चली जाएगी तो सारी नैतिकताएँ और मर्यादाएँ तार-तार हो जाएँगी। गीत के अभी तक के हिस्से में प्रेम की बलिहारी है अर्थात गीत का संतुलन प्रेम के पक्ष में है। गीत के आगे के हिस्से में यह संतुलन बदल जाता है। कुछ ही दूर चलने पर रास्ते में जासर राजा का तालाब पड़ता है। दसवत उस तालाब में पानी पीने की इच्छा जाहिर करती है। मिर्जा कहता है, 'हमारे नगर चलो, वहीं हमारे तालाब में पानी पीना।' दसवत कहती है, 'ए स्वामी, आपके तालाब का पानी तो रोज सुबह उठकर पीऊँगी, लेकिन पिता जी का तालाब तो अब सपना (दुर्लभ) हो जाएगा।' पानी पीने के बहाने दसवत तालाब में घुसती है और डूब मरती है। इसके बाद मिर्जा बेचैन होकर तालाब में जाल डालता है। उसकी जाल में घुँघची, सेवार आदि उलझकर आती है। इसके बाद दसवत के पिता और भाई भी तालाब में जाल डालते हैं। इनकी जाल में दसवत की देह आ जाती है। पिता-भाई संतोष जताते हैं कि उनकी बेटी/बहन ने पत (मरजाद) रख ली और मिर्जा रो-रोकर कहता है कि 'राजा की बेटी' उसको पाठ पढ़ा गई। (45)

इस गीत की पूरी संरचना को देखें तो यह बात समझ में आती है कि स्त्री अपने प्रेम और प्रेमी के लिए परिवार-समाज की चौहद्दी से बाहर निकलना चाहती है और निकलने की कोशिश भी करती है। लेकिन वह इसी चौहद्दी के भीतर जीने की अभ्यस्त भी होती है। उसके इस कदम से अब तक जी गई जिंदगी के मूल्य टूटने लगते हैं। इस स्थिति से वह सामंजस्य नहीं बिठा पाती। यह स्थिति उसके अंतर्मन में खालीपन का एहसास भर देती है। ऐसे में पुराने जीवन-मूल्य बहुत तेजी से खाली जगह को भरकर और अधिक ताकतवर हो जाते हैं और इनके प्रभाव से प्रेमिका अपनी जान दे देती है। तालाब में मिर्जा द्वारा डाला गया जाल वास्तव में प्रेम की डोर है और जासर राजा का जाल मर्यादा का फंदा। बाजी अंततः मर्यादा के पक्ष में छूटती है। इस गीत में प्रेम और पारिवारिक-सामाजिक मर्यादा के तनाव को बखूबी रचा गया है। स्त्री का मन सहज रूप से प्रेम की ओर खिंचा हुआ है, लेकिन उसके जेहन में मर्यादा के संस्कार भी बहुत गहरे पैठे हुए हैं। परिवार-समाज की कठोर नैतिकताएँ एवं मर्यादाएँ उसकी इच्छाओं और भावनाओं को कुचल देती हैं।

लोक-साहित्य एवं लोक-कलाओं के बारे में एक सतही समझ यह है कि ये निहायत स्थानीय होती हैं और एक संकुचित परिवेश के बाहर स्थित एवं विकसित ज्ञान, विज्ञान, साहित्य एवं कलाओं से इनका अपरिचय होता है। इस कारण इनके रूपों में परिवर्तन भी नहीं होता। किंतु यदि लोकसाहित्य का गहराई से अध्ययन करें तो पता चलता है कि लोकगीत एवं लोककथाएँ एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में संचरित होकर नवसृजित होती रहती हैं। असल में, पूरा लोकसाहित्य ही इंटर टेक्सचुएलिटी' के कारण समृद्ध होता रहा है। जब किसी लोकगीत का अन्य क्षेत्र की बोलियों में नवसृजन होता है तो गीत के नवरचित रूप पर उस क्षेत्र की संस्कृति, जीवन-मूल्य और विश्वासों का रूपांतरकारी प्रभाव पड़ता है। इसके आधार पर दो भिन्न क्षेत्रों की संस्कृतियों का अध्ययन किया जा सकता है। इसके जरिए उन मूल्यों और संवेदनाओं को भी समझा जा सकता है, जिनकी ओर भिन्न परिवेश और संस्कृति में भी इनसान का मन सहज एवं समान रूप से खिंचा रहता है। लोकगीत अथवा लोककथा का नवसृजित रूप एक नई रचना होने के अलावा पहले के रूप (Form) की और अपने समय-समाज की व्याख्या और आलोचना भी है। इस नए 'रूप' में उस समाज के लोगों के स्वप्न भी शामिल हो जाते हैं। इसलिए लोकसाहित्य में जीवन के यथार्थ और स्वप्न इस प्रकार गुँथे होते हैं कि न तो इन्हें अलग करके देखा जा सकता है और न ऐसा करने की जरूरत ही है। लगातार नवसृजित होते रहने के कारण लोकसाहित्य के सर्जक, वाचक, श्रोता, व्याख्याता, आलोचक के बीच सीधे-सीधे भेद नहीं होता। और इसी कारण एक ही लोकगीत या लोककथा रचना, भाष्य और आलोचना भी है। किसी लोकगीत या लोककथा का नया रूप सृजित होने के साथ-साथ उसके पूर्व के 'रूप' भी चलन में बने रहते हैं। इस प्रकार एक ही लोकगीत या लोककथा के कई-कई रूप पाए जाते हैं। इसे ही स्त्रियाँ कहती हैं, 'सभी गीत छहमुखी-सातमुखी (छह-सात यानी अनेक ढंग से गाए जाने वाले) होते हैं।' उत्तर भारत के गीतों में मिर्जा का चरित्र पंजाब के लोकप्रिय प्रेमाख्यान 'मिर्जा साहिबाँ' से लिया गया जान पड़ता है (देखें परिशिष्ट)। मिर्जा के प्रसंग वाले उत्तर भारतीय लोकगीत और 'मिर्जा साहिबाँ' प्रेमाख्यान की आंतरिक संरचना के अध्ययन से यह अनुमान पक्के विश्वास में तब्दील हो जाता है। वहाँ मिर्जा विशुद्ध प्रेमी या नायक है। उत्तर भारत तक आते-आते चतुराई से मिर्जा के चरित्र के नकारात्मक आयाम भी गढ़ लिए जाते हैं। इस कारण स्त्रियों के लिए ये गीत गाना आसान हो जाता है और गाने वाली महिला किसी आरोप से बची रहती है। भिन्न 'लिंग समूह' के कलारूप में ढलने पर इसकी बाह्य संरचना एवं कहन के ढंग में बदलाव आ जाता है, इसके बावजूद इसका मुख्य कथ्य प्रेमाख्यान ही रहता है। इस कथा के दोनों कलारूपों में कुछ समानताएँ सहज ही देखी जा सकती हैं। लोकगाथा में मिर्जा तेज-तर्रार तीरंदाज और घुड़सवार है तथा लोकगीत में वह ताकतवर राजा। लोकगाथा में नायिका (साहिबाँ) अपने प्रेमी मिर्जा के साथ घर से भाग जाने के बाद मिर्जा के अचूक तीरों से अपने भाइयों को बचाने के लिए उसके तीखे तीरों को तोड़ देती है और प्रेमी के साथ खुद भी मारी जाती है। लोकगीत में मिर्जा से अपने पिता-भाई को बचाने के लिए नायिका (दसवत) उसके साथ जाने को राजी होती है और अपने भाई-बाप की मर्यादा बचाने के लिए अपनी जान दे देती है। इन समानताओं के बावजूद इसमें किए गए बदलावों के कारण भोजपुरी क्षेत्र का लोकगीत पंजाबी लोकगाथा से भिन्न व नवीन रचना है। पंजाबी लोकगाथा पुरुषों द्वारा गाई जाती रही है (हालाँकि लोकप्रियता के कारण इस कथा के कुछ हिस्से स्त्री-लोकगीत के रूप में भी गाए जाने लगे हैं।), उत्तर भारत में पाया जाने वाला यह गीत स्त्रियों द्वारा गाया जाता है। भिन्न 'लिंग समूह' के द्वारा रचे और गाए जाने के कारण इसमें रूपांतरकारी बदलाव आए हैं। पंजाबी लोकगाथा में नायिका का अपने प्रेमी से सहज प्रेम-संबंध है जबकि भोजपुरी लोकगीतों में ऐसा करने के लिए नायिका के समक्ष कुछ मजबूरियाँ गढ़ी जाती हैं। पुरुषों के कलारूप में मिर्जा स्वाभाविक प्रेमी है और उनके गायन में प्रेमी के साथ तादात्म्य का भाव पाया जाता है। स्त्रियों के लोकगीत में मिर्जा परायी स्त्री पर नजर डालने वाला है और गीत के अभिधेयार्थ में स्त्रियों द्वारा प्रेमी को नापसंद करने का भाव पाया जाता है। लेकिन यह अभिधेयार्थ केवल एक आवरण भर है, ताकि स्त्रियाँ अपनी चाहतों और भावनाओं को छिपाकर रच और गा सकें।

भोजपुरी और अवधी में इसी विषय के कुछ और गीत भी पाए जाते हैं, वहाँ मिर्जा के बजाय मुगल या दरोगा के रूप में प्रेमी का जिक्र आता है। ज्यादातर गीतों के एक ही क्षेत्र एवं बोली में कई-कई रूप मिलते हैं। इससे यह पता चलता है कि किसी विषय पर एक ही क्षेत्र एवं समाज में कई तरह की धारणाएँ और मान्यताएँ साथ-साथ पाई जाती हैं।

उच्च वर्ग के प्रेमी से संबंधित एक और गीत। इसके बाद स्त्रियों के प्रेम-कथन संबंधी कुछ और निहितार्थ। किसी किशोरवय विवाहिता का पति परदेश चला गया है। वह अपने प्रेमी राजकुँवर से मिलने के लिए गंगा किनारे जाना चाहती है। वह ससुर, सास, देवर से जाने की अनुमति माँगती है। सबकी मनाही के बावजूद वह गंगा नहाने के बहाने जाती है और अपने प्रेमी से मुलाकात करती है। इसी बात को गीत में ऐसे रचा गया है कि राजकुँवर उस किशोरी के रूप पर इस कदर मोहित हो गया है कि उसने एक कुटनी के जरिए नायिका (लाची) को भरमा (बहका) लिया है। कुटनी की बातों में आ जाने के कारण लाची घरवालों की बातों को नजरअंदाज करके गंगा नहाने चली जाती है। गंगा के तीरे वह अपने बाल सँवार रही होती है, तब तक राजकुँवर उसे देख लेता है। राजकुँवर माँ गंगा से मनौती करता है : लाची के संग वह सेज सुख पा जाए तो माँ गंगा को जोड़ा चुनरी व जोड़ा कड़ाही चढ़ाएगा। इतना सुनते ही लाची बोली :

एइसन बोली राजवा तोहूँ जनि हो बोलिहा
अरे मोरे सामी हउँएँ हवलदरवा न रे दइवऽ
मोरे सामी हउँएँ कोतवलवा न रे दइवऽ
तोहरी सरीखे हमरे घरवाँ हो नोकरवा
अरे मुँहवाँ हो तोपी के भागी जइबा न रे दइवऽ (46)

(ए राजकुँवर! तुम ऐसी जबान मत बोलो। मेरे पति हवलदार-कोतवाल हैं। तुम्हारे जैसे तो मेरे घर नौकर हैं। मुँह ढँककर यहाँ से भाग जाओ।)

ज्यादातर प्रेमगीतों में स्त्री प्रेम-प्रस्ताव या प्रेम की पहल नहीं करती है। प्रेम-प्रस्ताव स्वीकार करने के पीछे भी उसकी कोई मजबूरी गढ़ दी जाती है। इसी गीत में प्रेम-प्रसंग की सारी घटनाओं की जिम्मेदारी पुरुष पर डाल दी गई है : वह नायिका को पसंद करता है, कुटनी के जरिए मिलन को विवश करता है, गंगा माँ के प्रताप के सहारे उसे सेज पर ले जाना चाहता है इत्यादि। नायिका थोड़े न उसे पसंद करती है। वह तो उसे दुत्कारती है, 'तुम्हारे जैसे तो मेरे घर के नौकर हैं।'

कुछ गीतों में सुग्गा या जोगी भी प्रेमी के प्रतीक के रूप में आते हैं। एक गीत में हरा सुग्गा मंडराते-मंडराते आम की डाल पर बैठ जाता है और मीठे बोल बोलने लगता है। घर में से नायिका का भाई धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाये हुए निकलता है। घर के भीतर से नायिका की भाभी आती है और अपने पति से कहती है, 'इस हरे सुग्गे को मार दीजिए वरना ये आपकी बहन को भगा ले जाएगा।' प्रेमिका घर में से निकलकर भाई से कहती है :

मति मारा ए भइया हरिला सुगनवा
एहि घरे रहना हमार (47)

(ए भइया! प्यारे सुगना को मत मारिए। मुझे इसी घर में रहना है अर्थात सुग्गे के साथ नहीं जाना है।)

प्रेमी के साथ जाने का मतलब है अपनी और प्रेमी की जान को खतरे में डालना। प्रेमी की जान बचाने के लिए अपने प्रेम की ही तिलांजलि देनी पड़ती है। एक अन्य गीत में समउम्र ननद-भौजाई तालाब से पानी भरने जाती हैं। ननद पानी भरने लगती है, तब तक भौजाई कहीं छिप जाती है :

भउजीया छिपीत होइ जाले बिर्दाबन में (48)

राह चलते बटोही से ननद पूछती है, 'ए बटोही भइया! आपने मेरी भौजी को कहीं देखा?' बटोही बताता है :

जोगिया संग जोगिरवा खेलत रहै बिरदाबन में (48)

(तुम्हारी भाभी जोगी के साथ जोगीरा खेल रही थी अर्थात अपने प्रेमी के साथ प्रेमालिंगन कर रही थी।)

भौजाई के लौटकर आने पर ननद पूछती है, 'तुम्हारी पीठ में ये धूल कैसे लगी है? तुम अकेली थी तो तुम्हारी झुल्ली (ब्लाउज) कैसे फट गई?' भौजाई बताती है कि दीवार से सटने के कारण पीठ में धूल लग गई और राह चलने में ब्लाउज फट गई। भौजाई को पता है कि ननद हमउम्र है इसलिए उसके सारे खेल को बखूबी समझ सकती है। वह ननद को प्रलोभन देते हुए कहती है कि वह इस घटना की शिकायत अपने भइया से न करे। ननद अपनी भौजाई के प्रलोभन को ठुकराते हुए अपने भइया से शिकायत करने की धमकी देती है।

विवाह संस्था से परे प्रेम-संबंध और यौन संबंध केवल परिवार के बाहर ही नहीं पाए जाते। परिवार के भीतर भी इस तरह के संबंधों की मौजूदगी और गुंजाइश गीतों में भरपूर दिखाई गई है।

पहले क्रम पर देवर-भौजाई। क्योंकि ये प्रायः हमउम्र होते हैं, एक-दूसरे के राजदार और सहयोगी होते हैं। देवर-भौजाई के बीच हास-परिहास के संबंध प्रकट करने वाले गीत तो भरपूर पाए जाते हैं, लेकिन इनके बीच के आकर्षणजन्य संबंध को आधार बनाकर रचे गए गीतों की संख्या अप्रत्याशित रूप से कम है। देवर और भौजाई का संग-संग खाना-पीना सामाजिक रूप से उतना ही सहज है, जितना स्वाभाविक है साग-चौलाई का हरा होना। उनका साहचर्य उतना ही चित्ताकर्षक है, जितना सुहाना है सावन का आँगन में बरसना। देवर-भौजाई विषयक एक गीत का मुखड़ा इस प्रकार है :

रीमझीम बरिसेला हो सवनवाँ
बड़ा नींक लागे अंगनवाँ ना
आ हो रामा हरऽ ही साग-चवराई
देखत नींक लागै ए हरी (49)

इस गीत की शुरुआती दो कड़ियों में देवर-भौजाई के संग-संग खाने-पीने का जिक्र आता है, लेकिन गीत की तीसरी कड़ी में वे सेज पर सोए हुए हैं;

फूले हजारी क सेज लगवलों
आ हो रामा सोवें देवर भउजाई
देखत नींक लागे ए हरी (49)

देवर-भौजाई का परिहास एवं छेड़छाड़ का संबंध साहचर्य के कारण सहज और स्वाभाविक रूप से कब आकर्षणजन्य दैहिक संबंध में परिणत हो जाता है, प्रायः घर-गाँव वाले इसे लख नहीं पाते। यहाँ तक कि उन्हें (देवर-भौजाई को) खुद अपने रिश्ते के इस बदलाव का प्रायः बहुत सजग-सचेत एहसास नहीं होता। इस गीत में भी इस तरह के संबंध का बनना बिल्कुल सहज रूप से रचा गया है। इस गीत की धुन ऐसी है कि इन पंक्तियों को सुनते हुए सहसा खयाल ही नहीं आता कि स्त्री-पुरुष के मान्य संबंधों से परे कुछ घट गया। गीत खत्म होने के बाद ही इसका एहसास हो पाता है।

भौजाई और देवर के ऐसे संबंध पर एक सीमा तक समाज की मौन स्वीकृति रहती है। संभवतः इसीलिए इसे इतने सहज रूप में रचा गया है। इसके विपरीत ससुर या जेठ अपनी बहू/भयहू को कामुक नजरों से देखें तो यह बात तुरंत खटकने वाली होती है। गीतों में भी ऐसे प्रसंग खटकने वाले अंदाज में ही रचे गए हैं। बहू की खूबसूरती पर ससुर एवं भसुर (जेठ) के आसक्त होने का जिक्र ढेर सारे गीतों में आया है। एक गीत में सुंदर-सजीली बहू को ससुर/भसुर ललचाई नजरों से देखते हैं :

गोरी-गोरी बँहिया में धानी रंग चूड़िया
हथवाँ सोहै हो कितबिया
लोटवा क पानी लेइके ससुर/भसुर अगवाँ गइनीं
ससुर/भसुर नीरेखैं हो बदनिया
अइसन सूरतिया हमरे बहू/भयव्ह जी क हईं
लइका/भइया हाकिम की नोकरिया (50)

(बहू गोरी, सुंदर और पढ़ी-लिखी है। वह ससुर/भसुर को पानी देने गई तो वे उसके रूप-शृंगार को ललचाई नजरों से निहारते हैं और सोचते हैं, 'ऐसी खूबसूरत बहू घर में है और बेटा/भाई अपनी नौकरी पर है।)

स्त्री-लोकगीतों में घरेलू मामलों में जो दुर्गति सास की हुई है, यौन संबंधों के मामले में लगभग वैसी ही दुर्गति जेठ की हुई है। इस तरह के एक गीत में ससुर-भसुर खाने के लिए बैठे हैं। गौरतलब है कि जेठ के लिए भयव्ह (भ्रातृवधू यानी छोटे भाई की पत्नी) का चेहरा देखने की मनाही होती है। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि भयव्ह को जेठ से परदा रखना होता है। बहू सोचती है कि वह कैसे खाना परोसेगी। सास कहती है, 'यदि तुम शऊरदार होगी, अंगुली के सहारे भसुर की थाली उनके आगे टरका दोगी।' बहू ऐसा ही करती है, लेकिन -

जेवना ही टरतऽ क छूटनँऽ हो अँचरवा
अरे राम भसूरू हो बईठल मुरुझइलँइ हो राम
संगहीं क जेवना ससूरू जेई के हो अँचवलँऽ
अरे राम भसूरू हो जेवनवाँ लीहले बइठल हो राम (51)

(भोजन की थाली सरकाते हुए बहू का आँचल छूट गया। उसकी सुंदर देह देखकर जेठ जड़वत बैठा ही रह गया। उसी के साथ खाने बैठे ससुर ने भोजन करके आचमन भी कर लिया और जेठ भोजन की थाली लिए बैठा हुआ है।)

बहू खाना न खाने का कारण पूछती है। जेठ कहता है, 'न तो खाना खराब बना है, न ही नमक ज्यादा हुआ है।' इसके बाद जेठ अपनी भयव्ह से उसके साथ सेज पर सोने की मंशा जाहिर करता है। इसके लिए साजिश करके वह अपने भाई की हत्या कर देता है। यह जानने के बाद वह औरत अपने जेठ से निवेदन करती है, 'अब आपके अलावा किसी और की तो होऊँगी नहीं! बस आखिरी बार मुझे पति का मुँह दिखा दीजिए!' पति की लाश के पास पहुँचकर वह अंतिम संस्कार के लिए जेठ से आग ले आने के लिए कहती है। आग लेने के लिए जेठ के चले जाने पर वह अपने पति को गुहार लगाती है :

राजा जऊँ होबा हमार सग बीअहुता न हो
राजा अँचरा से धधकी अगिनिया न हो
राजा सती होबै दूनहुन परनियइ हो राम (51)

(ए राजा! यदि आप मेरे असल ब्याहता पति हैं, तो मेरे आँचल से आग धधकेगी और मैं आपके साथ सती हो जाऊँगी।)

जेठ आग लेकर आया, तब तक दोनों जलकर राख हो गए। वह सिर पकड़कर बैठ गया और सोचने लगा कि भयव्ह उसको छका गई।

इस गीत को सुनते हुए मुझे बार-बार जायसी के 'पद्मावत' की याद आई। इसमें भयव्ह के सौंदर्य को देखकर भसुर मुरझा गया। 'पद्मावत' में रत्नसेन एक बार पद्मावती का सौंदर्य-वर्णन सुनकर और दूसरी बार उसे देखकर मूर्च्छित हो जाता है। इस गीत के अंत में औरत अपने पति की लाश के साथ जल मरती है और भसुर के हाथ नहीं लगती। विस्तार से कहने की जरूरत नहीं, आप जानते हैं, पद्मावती और नागमती जलकर राख हो जाती हैं तथा अलाउद्दीन के हाथ नहीं आतीं। यह गीत जब अपने चरम निष्कर्ष पर पहुँचा तो मुझे यकायक 'पद्मावत' एवं अन्य सूफी प्रेमाख्यानों के बारे में कहा गया शुक्ल जी का यह कथन याद आया, 'हमारा अनुमान है कि सूफी कवियों ने जो कहानियाँ ली हैं वे सब हिंदुओं के घर में बहुत दिनों से चली आती कहानियाँ है जिनमें आवश्यकतानुसार उन्होंने हेरफेर किया है।' सही भी है, 'पद्मावत' का दूसरा हिस्सा ऐसे ही गीतों का विकास जान पड़ता है। संभव है 'पद्मावत' के पहले हिस्से की कथा भी लोकगीतों के रूप में प्रचलित रही हो।

बाद में मुझे इस विषय पर रचे गए अनेक गीत मिले। कुछ गीतों के अंत में अपने को ठगा हुआ महसूस कर रहा जेठ सोचता है, 'यदि मैं जानता कि तुम (भयव्ह) मुझे छकाओगी, तो पहले ही तुम्हारी पवित्रता (दैहिक संबंध बनाकर) नष्ट कर देता।' ऐसा करने से अपवित्र हो चुके उसके आँचल से आग नहीं धधकती और वह जेठ के साथ रहने को मजबूर हो जाती।

जेठ की कामभावना को विकृत रूप में रचने वाले गीत बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। पुराने ढंग के गीत गाने वाली अमूमन हर महिला के पास एक-दो ऐसे गीत मिल जाते हैं। गौरतलब है कि भारतीय समाज में भसुर (जेठ) पारिवारिक मर्यादा और नैतिकता का पहरुआ होता है। यह भी ध्यान रहे कि पुरुष समुदाय में प्रचलित कहावतों में औरत को कामुक और भटकाने वाली कहा जाता है। ये गीत जैसे इस तरह के आरोपों का जवाब प्रस्तुत करते-से जान पड़ते हैं। औपनिवेशिक ज्ञानकांड ने केवल पुरुषों की आवाज को भारतीय समाज की प्रतिनिधि आवाज माना। नतीजन भारतीय समाज में स्त्री एकतरफा आरोपित और लांछित जान पड़ती है। यदि स्त्री-पुरुष दोनों की आवाजें सुनी जातीं, तब यह पता चलता कि केवल औरत ही लांछित एवं आरोपित नहीं है, अपनी सीमा में वह आरोप लगाती भी है।

पारिवारिक सदस्यों के अतिरिक्त नातेदारी के पुरुष संबंधियों के संग प्रेम और यौन संबंध भी गीतों में दर्ज किए गए हैं। एक गीत में किसी औरत का पति परदेशी है। औरत के घर के पीछे चंपा का पेड़ है। चंपा की गमक से औरत को गर्भ ठहर जाता है। वह औरत अपनी ननद से कहती है, 'ए ननद! चंपा का गर्भ किसके सिर मढ़ूँगी?' फिर खुद ही जवाब देती है,

अरे चंपा के गरभवा ए रामा
ननदोइया सिरवा ढारब रे जी (52)

(चंपा का गर्भ ननदोई के मत्थे मढ़ूँगी।')

इस प्रसंग की व्यंजना यह है कि चंपा की छाया में औरत ने अपने ननदोई संग संबंध बनाए, नतीजन वह गर्भवती हो गई। यह जानने के बाद दुखी ननद अपना सिर धुनती है और विलाप करती है, 'मेरे प्यारे पति को तुमने बहका लिया।' भाभी कहती है, 'कितना भी रोओ-कलपो, अब मैं ननदोई को नहीं छोड़ूँगी।'

हालाँकि ननद-भौजाई संवाद के ढेर सारे गीत मजाक और चुहलबाजी वाले होते हैं, लेकिन उनकी धुन बिल्कुल अलग होती है। इस गीत की धुन गंभीर और जटिल गीतों वाली है। यह गीत जँतसार है और जँतसार के गीत अमूमन हल्के मिजाज के नहीं होते।

जैसाकि हम पहले भी कह चुके हैं, समाज में जीने और सोचने के तमाम तरीके साथ-साथ पाए जाते हैं। सामाजिक पदानुक्रम में नीचे की जातियों में प्रेम एवं यौन प्रसंगों को इतना अधिक ढककर या उलटकर कहने की जरूरत नहीं होती। वहाँ इसे सीधे-सीधे कहने की गुंजाइश भी रहती है। कुम्हार जाति की महिला द्वारा गाए गए एक गीत में 'यारबाजी' की उन्मुक्त और बिंदास अभिव्यक्ति देखिए -

नदी नरवा में यार लगावैं कँटिया
सोने की थारी में जेवना परोसलीं
जेवना न जेवैं बिछावैं खटिया (53)

(नदी-नाले में मेरा यार मछली फँसाने वाली कँटिया लगाता है। मैंने उसे सोने की थाली में भोजन परोसा, लेकिन खाने के बजाय उसने खटिया बिछा दी अर्थात वह मेरे साथ कामक्रीड़ा करने को आतुर हो उठा।)

गाँव-देहात में 'कँटिया लगाना' एक मुहावरा है और इसका अर्थ है, 'प्रेमिका फँसाना'। चूँकि ऐसे प्रेम-संबंध को समाज का अनुमोदन प्राप्त नहीं होता, इसलिए ये घर-गाँव में नहीं, नदी-नालों के तीरे ही संभव है।

इसी प्रकार गोंड़ जाति की महिला 'फेकना देवी' के गाए गीत में यौनांग एवं यौनक्रिया का जिक्र आता है :

गोंड़वा पूछै गोंड़िनियाँ से
तोरे भरसइयाँ क कारबार कइसे चली
भरसइयाँ में दबिला हीलल करी
भरसाईं घरे दबिला मजा करी (54)

(गोंड़ अपनी गोंड़िन से पूछता है, 'तुम्हारी भरसाँय यानी भाड़ का कारोबार कैसे चलेगा?' फिर खुद ही कहता है, 'भाड़ में घुसकर दबिला हिलेगा और मजा देगा।')

भरसाँय और दबिला गोंड़ों के जातीय पेशे के साधन हैं। दबिला लकड़ी का कलछुला होता है, जिससे भाड़ में भूने जाने वाले दाने को चलाते हैं। इस गीत में भरसाँय और दबिला स्त्री-पुरुष के यौनांग के अर्थ में आए हैं। भरसाँय में दबिला का हिलना और इससे मजा मिलना यौनक्रिया को व्यंजित करता है। इस गीत को फेंकना देवी खूब मजे ले-लेकर गा रही थीं। गीत सुनकर वहाँ मौजूद लोग ठठाकर हँस रहे थे। बीच-बीच में गाना बंद कर वह भी हँसने लगतीं। मैंने कहा, 'इन लोगों को हँसने दीजिए, आप गाती रहिए।' इस पर उन्होंने कहा, 'हँसने के लिए ही बने हैं ये सब गीत!' जवाब में मैंने भी हामी भर दी। इसके बाद उन्होंने ऐसा ही एक और गीत सुनाया :

पहिरैं आधा पेट क झुलवा, हबड़ा पुलवा पर खड़ी
मारैं गुंडन से नजरिया हबड़ा पुलवा पर खड़ी (55)

(कोई शोख हसीना तंग कपड़ों में हबड़ा पुल पर खड़ी होकर मनचलों से नजर लड़ाती है।)

इस गीत को पूरा सुना लेने के बाद फेंकना देवी ने एक संस्मरण सुनाया, कहा, 'एक बार अपने मायके में हम लोग गेहूँ काट रहे थे। मेरी बड़ी बहन का मन हुआ और खड़ी होकर यही गीत वो गाने लगी। कुछ ही दूरी पर रेलवे लाइन थी। तभी ट्रेन आई जिसके एक डिब्बे में केवल फौजी सवार थे। बहिनिया को गाते देखकर ट्रेन के डिब्बे में से ही इशारे कर-करके फौजी सब नाचने लगे। मेरी बहिनिया भी बड़ी रसीली थी, वह भी नाच-नाच कर गाने लगी। फौजी सब और चिल्ला-चिल्ला कर इशारे करने लगे। पूरे सीवान में जितने लोग खेतों में कटाई कर रहे थे, सब खड़े होकर देखने लगे। देख-देखकर सभी लोग हँसे जा रहे थे। वो (बड़ी बहन) बहुत गीत जानती थी। उसी से सुनकर मैंने भी सीखे हैं।'

भारतीय समाज के तमाम हिस्से अपने से भिन्न जीवन और विश्वासों की ओर पीठ करके केवल अपने जीवन और विश्वासों में गाफिल कभी नहीं रहे। कथित निम्न जातियों में पाया जाने वाला खुलापन ऊँची जाति की महिलाओं को भी खूब मन भाता है। ये महिलाएँ अपनी जातिगत एवं सामाजिक परिस्थिति के कारण मन को भाने वाले इन भावों का सीधे-सीधे तो नहीं, लेकिन बहाने से खूब लुत्फ उठाती हैं। गिरि या गोसाईं जाति की महिला फूलमती ने उन्मुक्त प्रेम और यौन प्रसंग वाला एक गीत गाने से पहले लगभग सफाई देते हुए कहा, 'पहले के जमाने में बनिहारिन रोपनी-सोहनी करके यह गीत गाते हुए घर लौटती थीं। उन्हीं से मैंने सुना (सीखा) है।' गीत की शुरुआत इस प्रकार है -

घाम के घमाइल जोगियवा एक आइल
जोगिया लाल हमरी ओसरवाँ जूड़ऽ छाँह
त घमवा गँवाइ रे लेहु ना। (56)

(धूप से व्याकुल एक जोगी आया। उसे देखकर औरत कहती है, 'मेरे ओसारे में छाँह है, इसमें आकर अपनी गर्मी निवार लो।')

गीत की अगली कड़ी में जोगी उस औरत से घर का पूरा भेद पूछता है। वह पूछता है कि तुम्हारे घरवाले कहाँ गए हैं। वो औरत बताती है कि सास हाट, ननद पूरब दिशा की ओर, छोटा देवर अपने काम पर तथा पति परदेश गए हैं। जोगी ने गर्मी का निवारण तो किया ही कामक्रीड़ा का भी खूब आनंद लिया। भरपूर कामसुख पा लेने के बाद औरत कहती है :

जोगिया लाल भगबे त भागू
हमारे लोगवा नीयर अइलैं ना (56)

(ए जोगी! यहाँ से जल्दी भाग निकलो, अब मेरे परिजन आते ही होंगे)

इस पूरे गीत का विषय यह है कि सही मौका देखकर औरत अपने प्रेमी को घर में बुलाती है और कामसुख पा लेने के बाद उसे सुरक्षित घर से बाहर निकाल देती है। इस गीत को गाते हुए फूलमती बीच-बीच में हँस देती थीं। पास बैठी हुई औरतें बार-बार कह रहीं थी :

'बक्! चमाइनों वाला गीत गा रही हैं। ...चमाइनें ऐसे ही फूहड़-फूहड़ गाती हैं, वही ये गा रही हैं।'

इस तरह के गीत और इनसे जुड़े प्रसंग इस बात की ओर संकेत करते हैं कि सामाजिक पदानुक्रम में क्रमशः नीचे की जातियों में नैतिकता एवं मर्यादा की कठोरता कम होती जाती है। यानी सबसे ऊपर की जातियों में इस प्रकार का बंधन सर्वाधिक कठोर है और सबसे नीचे की जातियों में सर्वाधिक मानवीय और लचीला है।

स्त्री-लोकगीतों में प्रेम की इच्छाएँ और समस्याएँ ही नहीं रची गई हैं, भिन्न जाति के युवक से प्रेम-विवाह करने की परिणति का एहसास भी बखूबी आया है। प्रेम तो जाति नहीं देखता लेकिन वैवाहिक जीवन में जाति एवं आर्थिक स्तर के भेद से उत्पन्न होने वाली अपनी समस्याएँ हैं। ऊँची जाति के संपन्न घर की लड़की के नीची जाति वाले विपन्न युवक से प्रेम-विवाह कर लेने पर अमीरी का सुख भी चला जाता है। लड़की मायके के सुखों की आदी होती है, वह चाहती है कि पति उसका जीवन-स्तर पहले-सा बनाए रखे। मगर पति की आर्थिक-सांस्कृतिक स्थिति इस लायक नहीं होती। ऐसे में मायके के सुख-संसाधनों का अभाव जल्द ही प्रेम की गरमाहट कम कर देता है। एक लोकगीत में कोई युवती बरतन माँज रही होती है, तभी एक कमकर युवक नाचते हुए आता है। वह युवती उस कमकर युवक के सौंदर्य और नृत्य पर ऐसे मोहित हो जाती है कि बेखयाली में केवल बटलोही ही माँजती रह जाती है :

माँजत रहलीं बरतन माँजऽ हो लगलीं बटुली
नचत आवे ना, एक कमकर छोकरवा
नचत आवे ना! (58)

इसके बाद वह युवती अपने पिता से कहती है, 'इस कमकर के संग मेरा ब्याह कर दीजिए।' पिता उसे समझाते हैं, 'बड़ी (अपनी) जाति के लड़के से विवाह करोगी तो प्रतिष्ठित जीवन जीओगी। कमकर के संग जाओगी तो दूसरों के घरों में पानी भरना पड़ेगा।' इसके बाद की कड़ी में उस युवती और कमकर युवक को पति-पत्नी के रूप में दिखाया गया है। इसका मतलब यह हुआ कि युवती ने पिता की सलाह को न मानकर कमकर से प्रेम-विवाह कर लिया। युवती बड़ी हसरतों से पति (कमकर युवक) के साथ जाती है, लेकिन उसके अरमानों पर पानी फिर जाता है, जब देखती है कि पति का आशियाना झोपड़ी है। यही नहीं, वह कमकर युवक अपनी पत्नी से कहता है :

छोड़ा धन चूनरी पहीरा धन लूगरी
भरा हो धन ना, चला बखरी क पनिया (58)

(ए धनिया! चुनरी उतार दो, लुगरी पहन लो। चलो, घरों में पानी भरने चलें!)

इसी विषय के एक अन्य गीत में ब्राह्मण युवती ने कहार जाति के युवक से प्रेम-विवाह कर लिया। भूख-प्यास लगने पर युवती अपने पति से कहती है, 'अपनी बहंगी बेचकर मेरे खाने-पीने के लिए कुछ इंतजाम करो।' इस पर कहार युवक कहता है, 'बहंगी तो कंधे की शोभा (यानी आजीविका का साधन) है। तुम अपनी झुलनी बेच दो, हम दोनों के खाने-पीने का इंतजाम हो जाएगा।' यह सुनकर युवती को अपने पिता की बात न मानने और प्रेम-विवाह करने का फैसला गलत जान पड़ने लगता है, वह कहती है :

नाहक रे कइलीं ना, एहि कहरा संग बियहवा (59)

(मैंने इस कहार के संग ब्याह करके बड़ी गलती कर दी।)

इन गीतों से यह समझ में आता है कि ऊँची जाति की औरतें यद्यपि नैतिकता और मर्यादा के कठोर बंधनों में जकड़ी होती हैं, फिर भी उन्हें अपनी जाति के ही कारण ढेर सारे सुख भी नसीब होते हैं। इसी प्रकार नीची जाति की औरतें बहुतेरे भौतिक सुख-संसाधनों से तो वंचित होती हैं, पर अपनी जातिगत-आर्थिक स्थिति के कारण सवर्ण स्त्रियों की तुलना में नैतिकता और मर्यादा के बंधनों से कमोबेश मुक्त रहती हैं। भारतीय स्त्री की दशाओं में इन भिन्नताओं और जटिलताओं के मद्देनजर यह कहना बिल्कुल उचित है कि स्त्री-जीवन को मुक्त और खुशहाल बनाने की एकरूप प्रक्रिया नहीं अपनाई जा सकती। इसके लिए जाति-समुदाय विशेष की स्त्री की सांस्कृतिक जरूरतों और इच्छाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

ऊपर से नीचे तक सभी जातियों के प्रेमगीतों में कृष्ण-राधा के बहाने अपने प्रेम और काम-भावों के निरूपण की प्रवृत्ति समान रूप से पाई जाती है। कृष्ण-राधा की ओट में स्त्रियाँ वे बातें आसानी से कह जाती हैं, अन्यथा जिसे सार्वजनिक रूप से कहना उनके लिए संभव नहीं होता। समाज में प्रेम व्यापार की सहज स्वीकृति न होने के कारण ही औरतों ने ऐसी तरकीबें अपनाई होंगी।

इस युक्ति की व्याप्ति लोकसाहित्य, लिखित साहित्य, पेशेवर गीत-संगीत, शास्त्रीय गीत-संगीत, मूर्तिकला, चित्रकला यानी कला और संगीत के सभी रूपों तक है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास में सूरदास के पदों पर चौंकते हुए अनुमान किया है : ''सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का - चाहे वह मौखिक ही रही हो - पूर्ण विकास-सा प्रतीत होता है।'' कृष्ण-राधा को आधार बनाकर रचित लोकगीतों में सूरदास के पदों की-सी कलात्मकता और विषयसंबद्धता देखकर शुक्ल जी का अनुमान हमारे यकीन में बदल जाता है। यदि हमारे यहाँ लोकसाहित्य एवं लोकसंस्कृति के अध्ययन की समृद्ध परंपरा रही होती तो शुक्ल जी को सूरदास के पद आश्चर्यजनक नहीं लगते और वो जान पाते कि भारतीय संस्कृति में साहित्य एवं कलाओं के लोक प्रचलित और शास्त्रीय रूप एक ही सातत्य का हिस्सा हैं। ऐसा होता तो यह भी पता चला होता कि न केवल सूर वरन कबीरदास, मीराबाई तथा अन्य भक्त कवियों के पद भी लोकगीतों की बुनियाद पर रचे गए हैं। इन भक्त कवियों ने अपने सगुण/निर्गुण विश्वास के अनुरूप लोकगीतों को चुनकर उनका अध्यात्मीकरण किया है, उन्हें और अधिक कलात्मक ऊँचाई प्रदान की है। यह जानने के बाद हिंदी साहित्य के सबसे बड़े आचार्य को कबीर के कवि होने पर संदेह नहीं रहा होता और वह जान पाते कि कबीर और सूर अलग-अलग मिजाज के किंतु लगभग समान दर्जे के कवि हैं। इन दोनों के अलावा मीरा, जायसी, चैतन्य महाप्रभु आदि भक्तों के यहाँ भी सत्ता, हिंसा और कृत्रिम जीवन की अलग-अलग तेवरों में आलोचना तथा सहज और प्रीतिकर जीवन की प्रतिष्ठा है। इनके बरक्स देखें तो तुलसीदास बेहतर सत्ता, कल्याणकारी हिंसा, विवेकसम्मत कृत्रिमता की बात करने के कारण उसी दुश्चक्र में उलझ जाते हैं, जिसको ऊपर गिनाए गए भक्त कवि तवज्जो देने लायक नहीं समझते। इसके बावजूद तुलसीदास के यहाँ आगम, निगम, पुराण से इतर बहुत कुछ ऐसा है जो भक्ति के परिदृश्य को व्यापक बनाता है। भाषा, संवेदना से लेकर तमाम घटना-प्रसंग उन्होंने लोकजीवन से चुने हैं और उन्हें सुघड़ रूप प्रदान किया है। यह लेख हमें इसके विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं देता, इसलिए हम कृष्ण-राधा को संबोधित कर रचे गए लोकगीतों पर वापस आते हैं। एक कजरी में कृष्ण अपनी प्रेमिका(ओं) के घर तक पहुँचने के लिए मनिहार बनकर साड़ी बेचने लगते हैं :

आहो रामा कृस्न बने मनिहारी बेचन लागे सारी ए हरी
अपने महलिया से निकलें राधे ललिता हो रामा
आहो रामा मोहन संगवाँ करेलीं चिकरिया ए हरी
आहो मोहन साँझी बेर अइहऽ मोर नगरिया ए हरी (60)

(कृष्ण मनिहार बनकर साड़ी बेचने लगे। अपने घर से राधा और ललिता निकलकर आती हैं और कन्हैया से चिकोटी लेते हुए उन्हें साँझ के बखत अपने घर आने के लिए आमंत्रित करती हैं)।

राधा ने कृष्ण को घर का पता बताने के अलावा एकांत मिलन का समय और आने का तरीका भी सुझाया। कृष्ण से एकांत मिलन के लिए राधा ऐसे बेचैन हैं मानो कृष्ण ने उनकी बुद्धि ही छीन ली हो :

आहो राम राधे बुधिया छोरलें साम कन्हइया ए हरी (60)

इस तरह के गीतों में कृष्ण, राधा और गोपियाँ परस्पर प्रेमपूर्ण छल करते रहते हैं, जानते-बूझते अपने प्रेमी से छले जाते रहते हैं। यदि जीवन का सुख प्रेम में है, तो प्रेम का आनंद प्रेमी द्वारा छले जाने में और प्रेमी को छलने में है। इस छल में प्रेम के आनंद को बढ़ाने की चतुराई है। यह भौतिक लाभ-हानि के लिए किए जाने वाले छल से सर्वथा भिन्न है। इस छल का अर्थ प्रेमी कृष्ण के संदर्भ से लिया जाना चाहिए, राजनीतिक कृष्ण के छल का दर्जा इससे नीचे पड़ता है। दरअसल बाल कृष्ण एवं प्रेमी कृष्ण की लीलाएँ छल में सहजता और सहजता से छल का अद्भुत समन्वय हैं। लोकगीतों का यही छल सूर आदि भक्त कवियों के यहाँ आकर रास की व्यापक अवधारणा से जुड़ता है तो 'रासलीला' हो जाता है। बालक एवं प्रेमी कृष्ण के इस अनूठेपन ने हमेशा ही कवियों कलाकारों, गीताकारों और शायरों को बार-बार कुछ नया रचने का अवसर दिया है।

कृष्ण के बालक, प्रेमी और छलिया रूपों के मेल से रचे गए एक लोकगीत में प्रेम और वात्सल्य का अद्भुत संयोग बन पड़ा है। इस गीत में कृष्ण गाय चराते हुए बंसी बजा रहे हैं। बंसी की मधुर-धुन पर मोहित होकर गोपियाँ दही बेचने के बहाने कन्हैया के पास खिंची आती हैं और शरारतन उनकी बंसी छीन लेती हैं :

अरे मोहनैं बीरीजवा क नारी हो मोहन जी
गोकुला के ग्वालिनि दधी बेचऽ अइलीं
अरे मिलीजुली बंसी छोरी लेलीं हो मोहन जी (61)

इसके बाद कन्हैया जी रोते हुए घर आते हैं। माता यशोदा दौड़कर उन्हें गोद में उठा लेती हैं और पूछती हैं, 'क्या तुम्हारी गौओं ने बेकाबू होकर किसी का खेत चर लिया अथवा किसी ने तुम्हारी बंसी छीन ली?' कृष्ण ने बताया कि ग्वालिनों ने उनकी बंसी छीन ली। यशोदा कहती हैं, 'जाने दो, उस बाँस की बंसी को। मैं तुम्हारे लिए सोने की बंसी बनवा दूँगी।' इस पर कृष्ण कहते हैं :

अगिया लगावों माता सोने की बँसूड़िया
अरे बँसवा में बसै मोर परान हो मोहन जी (61)

(माँ! आग लगाओ सोने की बंसी को, बाँस की बंसी में मेरी जान बसती है।)

तब तक शरारती गोपियाँ भी वहाँ पहुँच जाती हैं और यशोदा से कहती हैं। 'यशोदा जी, अपने बेटे को बरजिए! आपके बेटे ने ऊधम मचा रखा है।' यशोदा जी कहती हैं :

अबहीं त पूता मोरा लड़िका गदेलवा
अरे केसे-केसे रढ़िया मचावैं हो मोहन जी

(अभी तो मेरा बेटा नादान है, वह भला किसी को कैसे परेशान करेगा!)

इस पर गोपियाँ कहती हैं, 'सोलह शृंगार कर लीजिए, मुँह-दाँत सब रंग लीजिए। आप को पता चल जाएगा कि आप का बेटा कितना नादान है। आपका बेटा सुबह उठते ही हम लोगों के घर की राह पकड़ता है।' गोपियों के इस कथन का आशय है कि यशोदा तो माँ हैं, इसलिए उनको कृष्ण अनाड़ी बालक जान पड़ते हैं। युवती और प्रेमिका की नजर से देखें, तब जान पाएँगी कि उनका लाल कितना रसिक और सयाना है। एक और गीत लेते हैं। इसमें कृष्ण के छल का एक और निराला रूप दिखेगा। इस गीत में रूप-शृंगार करके गोपियाँ दूध-दही बेचने जाती हैं। साथ में राधा भी कामधेनु का दूध लेकर बेचने के लिए चलती हैं। लोकगीतों की वर्णन शैली के अनुसार ये सभी एक वन गईं, दूसरे वन गईं और तीसरे में -

ललना तीसरे में कृस्न बटमार डगरिया ओनकर रोकैलँऽ
दूध त देईं कान्हा नाहीं लेलैं
दधीया त नाहीं लेलैं हो
कृस्न माँगेलँऽ हरी जी क रतिया
धरम मोर छोड़ावैलँऽ (62)

(तीसरे वन में बटमार कृष्ण उनका रास्ता रोक लेते हैं। कृष्ण दूध-दही नहीं लेते हैं। वह गोपियों से उनके पतियों की रात माँगते हैं। उनसे उनका धर्म छुड़ाते हैं।)

इस तरह के गीतों को गाने में लीन हो जाने पर स्त्रियाँ कई बार यह भूल जाती हैं कि उन्हें अपनी बात गोपियों और राधा के हवाले से करनी है। इस गीत के ऊपर की पंक्तियों में कृष्ण द्वारा गोपियों की राह रोकने का गायन तो 'अन्य की शैली' में है, लेकिन कृष्ण को दही-दूध देने और कृष्ण द्वारा प्रेम-प्रस्ताव का गायन 'मम शैली' में किया गया है। स्त्रियों की सावधानी के बावजूद गीतों में आने वाले इस तरह के तमाम लक्षण भी यह साबित करते हैं कि कृष्ण, राधा और गोपियों के बहाने स्त्रियाँ अपनी ही चाहतों को रचती हैं। यही काम मीरा ने सचेत रूप में किया है। स्त्रियों ने अपनी भावनाएँ जाहिर करने के लिए खुद का प्रतीक (राधा) रचा है और एक स्त्री (मीरा) ने प्रतीक की जगह खुद को रखकर अपनी भावनाएँ जाहिर की हैं। गौरतलब है कि मीरा ने लोकगीतों के कृष्ण का प्रेमी रूप लगभग बरकरार रखा। खैर, लोकगीत के विषय पर आते हैं। कृष्ण के राह छेकने का उलाहना देने के लिए राधा उनके घर जाती हैं। शिकायत सुनकर माँ यशोदा सिटकुन (पतली छड़ी) लेकर कृष्ण के पास पहुँचती हैं और चेतावनी देती हैं, 'अब अगर ग्वालिनें उलाहना देंगी तो इसी सिटकुन से पीटूँगी।' कृष्ण ने नंद बाबा के पाँव छूकर माफी माँगी और यशोदा के समक्ष कसम ली :

माता सँवरे बरन होई जइबे जौ ग्वालिन ओरहन दीहैं न (62)

(माँ, अब अगर ग्वालिनें उलाहना देंगी तो मैं साँवले रंग का हो जाऊँ।)

कसम में भी छल! कृष्ण तो साँवले हैं ही। प्रेम से बाज नहीं आने की इस फितरत ने ही तो कन्हैया को गोपियों, स्त्रियों, कवियों, कलाकारों का प्यारा-दुलारा बना रखा है।

राधा-कृष्ण-गोपी विषयक गीतों के बारे में सर्वाधिक चौंकाने वाली बात ये है कि इन्हें निरगुन (निर्गुण) भी कहा जाता हैं, जैसे निरगुन कजरी, निरगुन जँतसार, निरगुन सोहर इत्यादि। यहाँ निर्गुण का ईश्वर की निराकार अवधारणा से कोई संबंध नहीं। ये गीत जीवन के असली सुख -प्रेम और वात्सल्य की अनुभूति को रचने वाले होते हैं। हम निर्गुण नाम से जिन लोकगीतों को जानते रहे हैं, उनमें नितांत भौतिक एवं स्थूल सुखों और उपलब्धियों की नश्वरता और निस्सारता की अनुभूति रची जाती है। हर भौतिक वस्तु और उपलब्धि का अंत होना है, अतः इसमें सच्चा और अमर सुख नहीं पाया जा सकता। सच्चा सुख प्रेम के क्षणों की अनुभूति में है। यह सुख कृष्ण-राधा विषयक निरगुन गीतों में रचा गया है। संभव है कि घटना के रूप में ऐसे सुख की गुंजाइश जीवन में कभी-कभार और कुछ क्षणों के लिए ही बने, लेकिन भावना के रूप में इसकी अनुभूति से व्यक्ति क्षणभंगुरता और रोजमर्रेपन को अतिक्रमित कर जीवन की सार्थकता और अर्थवत्ता तलाश कर लेता है।

निर्गुण के इन्हीं दोनों रूपों को कबीर और सूर ने अपने विश्वास के अनुसार चुना और रचा है। लोकसाहित्य और भक्तिसाहित्य दोनों में भौतिक उपलब्धियों को ही सब कुछ माने जाने का नकार है और इनसे परे प्रेम और वात्सल्य की गहन अनुभूति में जीवन के असल सुख तलाशने की कोशिश है। शायद दैनंदिन जीवन के अभाव या दुख और मनुष्य जीवन की अपरिहार्य नश्वरता का मुकाबला करते हुए मनुष्य ने यह युक्ति अर्जित की होगी। इस अंतर्दृष्टि का महत्व आज के कथित उपभोक्तावादी दौर में घटने के बजाय बढ़ गया लगता है।


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