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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम सात समुद्र खंड पीछे     आगे

सायर तरै हिये सत पूरा । जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा॥

तेइ सत बोहित कुरी चलाए । तेइ सत पवन पंख जनु लाए॥

सत साथी, सत कर संसारू । सत्ता खेइ लेइ लावै पारू॥

सत्ता ताक सब आगू पाछू । जहँ जहँ मगरमच्छ औ काछू॥

उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा । चढ़ै सरग औ परै पतारा॥

डोलहिं बोहित लहरैं खाहीं । खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं॥

राजै सो सत हिरदै बाँधाा । जेहि सत टेकि करै गिरि काँधाा॥

खार समुद सो नाँघा, आए समुद जहँ खीर।

मिले समुद वै सातौ, बेहर बेहर नीर॥1॥

खीर समुद का बरनौं नीरू । सेत सरूप, पियत जस खीरू॥

उलथहिं मानिक, मोती, हीरा । दरब देखि मन होइ न थीरा॥

मनुआ चाह दरब औ भोगू । पथ भुलाइ बिनासै जोगू॥

जोगी होइ सो मनहिं सँभारै । दरब हाथ कर समुद पवारै॥

दरब लेइ सोई जो राजा । जो जोगी तेहिक कहि काजा॥

पंथहि पंथ दरब रिपु होई । ठग, बटपार, चोर संग सोई॥

पँथी सो जो दरब सो रूसे । दरब समेटि बहुत अस मूसे॥

खीर समुद सो नाँघा, आए समुद दधिा माँह।

जो हैं नह क बाउर, तिन्ह कहँ धाूप न छाँह॥2॥

दधि समुद्र देखत तस दाधाा । पेम क लुबुधा दगधा पै साधाा॥

पेम जो दाधाा धानि वह जीऊ । दधिा जमाइ मथि काढैं घीऊ॥

दधिा एक बूँद जाम सब खीरू । काँजा बूँद बिनसि होइ नीरू॥

साँस डाँड़ि मन मथनी गाढ़ी । हिय चाटै बिनु फूट न साढ़ी॥

जेहि जिउ पेम चदन तेहि आगी । पेम बिहून फिरै डर भागी॥

पेम कै आगि जरै जौं कोई । दुख तेहि कर न ऍंबिरथा होई॥

जो जानै सत आपुहि जारै । निसत हिये सत करै न पारै॥

दधिा समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार?॥

भावै पानी सिर परै, भावै परै अंगार॥3॥

आए उदधिा समुद्र अपारा । धारती सरग जरै तेहि झारा॥

आगि जो उपनी ओहि समुंदा । लंका जरी ओहि एक बुंदा॥

बिरह जो उपना ओहि तें गाढ़ा । खिन न बुझाइ जगत महँ बाढ़ा॥

जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी । सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी॥

जग महँ कठिन खड़ग कै धाारा । तेहि तें अधिाक बिरह कै झारा॥

अगम पंथ जो ऐस न होई । साधा सिए पावै कब कोई॥

तेहि समुद्र महँ राजा परा । जरा चहै पै रोवँ न जरा॥

तलफै तेल कराह जिमि, इमि तलफै सब नीर।

यह जो मलयगिरि प्रेम कर, बेधाा समुद समीर॥4॥

सुरा समुद पुनि राजा आवा । महुआ मद छाता दिखरावा॥

जो तेहि पियै सो भाँवरि लेई । सीस फिरै, पथ पैगु न देई॥

पेम सुरा जेहि के हिय माहाँ । कित बैठै महुआ कै छाहाँ॥

गुरु के पास दाख रस रसा । बैरी बबुर मारि मन कसा॥

बिरह के दगधा कीन्ह तन भाठी । हाड़ जराइ दीन्ह सब काठी॥

नैन नीर सौं पोता किया । तस मद चुवा बरा जस दिया॥

बिरह सरागन्हि भूँजै माँसू । गिरि गिरि परै रकत कै ऑंसू॥

मुहमद मद जो पेम कर, गए दीप तेहि साधा।

सीस न देइ पतंग होइ, तौ लगि लहै न खाधा॥5॥

पुनि किलकिला समुद महँ आए । गा धाीरज देखत डर खाए॥

भा किलकिल अस उठै हिलोरा । जनु अकास टूटै चहुँ ओरा॥

उठै लहरि परबत कै नाईं । फिरि आवै जोजन सौ ताईं॥

धारती लेइ सरग लहि बाढ़ा । सकल समुद जानहुँ भा ठाढ़ा॥

नीर होइ तर ऊपर सोई । माथे रंभ समुद जस होई॥

फिरत समुद जोजन सौ ताका । जैसे भँवै कोहाँर क चाका॥

भै परलै नियराना जबहीं । मरै जो जब परलै तेहि तबहीं॥

गै औसान सबन्ह कर, देखि समुद कै बाढ़ि।

नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढ़ि॥6॥

हीरामन राजा सौं बोला । एही समुद आए सत डोला॥

सिंहलदीप जो नाहिं निबाहू । एही ठाँव साँकर सब काहू॥

एहि किलकिला समुद्र गंभीरू । जेहि गुन होइ सौ पावै तीरू॥

इहै समुद्र पंथ मझधाारा । खाँड़े कै असि धाार निनारा॥

तीस सहस्र कोस कै पाटा । अस साँकर चलि सकै न चाँटा1॥

खाँडै चाहि पैनि बहुताई । बार चाहि ताकर पतराई॥

एही ठाँव कहँ गुरु सँग लीजिए । गुरु संग होइ पार तौ कीजिए॥

मरन जियन एहि पंथहि, एही आस निरास।

परा सो गयउ पतारहि, तरा सो गा कविलास॥7॥

राजै दीन्ह कटक कहँ बीरा । सुपुरुष होहु, करहु मन धाीरा॥

ठाकुर जेहिकसूर भा कोई । कटक सूर पुनि आपुहि होई॥

जौ लहि सती न जिउ सत बाँधाा । तौ लहि देइ कहाँर न काँधाा॥

पेम समुद महँ बाँधाा बेरा । यह सब समुद बूँद जेहि केरा॥

ना हौं सरग क चाहौं राजू । ना मोहिं नरक सेंति किछु काजू॥

चाहौं ओहि कर दरसन पावा । जेइ मोहि आनि पेम पथ लावा॥

काठहिं काह गाढ़ का ढीला । बूड़ न समुद, मगर नहिं लीला॥

कान समुद धाँसि लीन्हेसि, भा पाछे सब कोइ।

कोइ काहू न सँभारै, आपनि आपनि होइ॥8॥

कोइ बोहित जस पौन उड़ाहीं । कोई चमकि बीजु अस जाहीं॥

कोई जस भल धााव तुखारू । कोई जैस बैल गरियारू॥

कोइ जानहुँ हरुआ रथ हाँका । कोई गरुअ भरि बहु थाका॥

कोई रेंगहिं जानहुँ चाँटी । कोई टूटि होहिं तर माटी॥

कोई खाहिं पौन कर झोला । कोई करहिं पात अस डोला॥

कोई परहिं भौंर जल माहाँ । फिरत रहहिं, कोइ देइ न बाहाँ॥

राजा कर भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुआ परेवा॥

कोइ दिन मिला सबेरे, कोइ आवा पछराति।

जाकर जस जस साजु हत, सो उतरा तेहि भँति॥9॥

सतएँ समुद मानसर आए । मन जो कीन्ह साहस, सिधिा पाए॥

देखि मानसर रूप सोहावा । हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥

गा ऍंधिायार, रैनि मसि छूटी । भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥

'अस्ति अस्ति' सब साथी बोले । अंधा जो अहै नैन बिधिा खोले॥

कवँल बिगस तब बिहँसी देहीं । भौंर दसन होइ कै रस लेहीं॥

हँसहिं हँस औ करहिं किरीरा । चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा॥

जो अस आव साधिा तप जोगू । पूजै आस, मान रस भोगू॥

भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ।

धाुन जो हियाव न कै सका, झूर काठ तस खाइ॥10॥

(1) सायर=सागर। कुरी=समूह। बेहर बेहर=अलग-अलग।

(2) मनुआ=मनुष्य या मन। पवारै=फेंके। रूसे=विरक्त हुए। मूसे=मूसे गए, ठगे गए।

(3) दगधा साधाा=दाह सहने का अभ्यास कर लेता है। दाधाा=जला। डाँड़ि=डाँड़ी, डोरी। ऍंबिरथा=वृथा, निष्फल। निसत=सत्य विहीन। भावै=चाहे।

(4) झार=ज्वाला, लपट। उपनी=उत्पन्न हुई। आगि कह डीठी=आग को क्या धयान में लाता है। सौंह=सामने। यह जो मलयगिरि=अर्थात् राजा।

(5) छाता=पानी पर फैला फूल पत्ताों का गुच्छा। सीस फिरैं=सिर घूमता है। मन कसा=मन वश में किया। काठी=ईंधान। पोता=मिट्टी के लेप पर गीले कपड़े का पुचारा जो भबके से अर्क उतारने में बरतन के ऊपर दिया जाता है। सराग=सलाख, शलाका, सीखचा जिसमें गोदकर मांस भूनते हैं। खाधा=खाद्य, भोग।

(6) धरती लेइ=धारती से लेकर। माथे=मथने से। रंभ=घोर शब्द। औसान=होश-हवास।

(7) साँकर=कठिन स्थिति। साँकर=सकरा, तंग।

(8) सेंति=सेती, से। गाढ़=कठिन। ढीला=सुगम। कान=कर्ण, पतवार।

1. कुछ प्रतियों में इसके स्थान पर यह चौपाई है-'एही पंथ सब कहँ है जाना। होइ दुसरै बिसवास निदाना।' मुसलमानी धार्म के अनुसार जो वैतरणी का पुल माना गया है उसकी ओर लक्ष्य है। विश्वास के कारण यह दूसरा ही (अर्थात् चौड़ा) हो जाता है।

(9) गरियारू=मट्ठर, सुस्त। हरुआ=हलका। थाका=थक गया। झोला=झोंका, झकोरा। अगमन=आगे। पछराति=पिछली रात। हुत=था।

(10) पुरइनि=कमल का पत्ताा (सं. पुटकिनी, प्रा. पुड़इणी)। रैनिमसि=रात की स्याही। 'अस्ति-अस्ति'=जिस सिंहलदीप के लिए इतना तप साधाा वह वास्तव में है, अधयात्मपक्ष में 'ईश्वर या परलोक है।' किरीरा=क्रीड़ा। मुकुताहल=मुक्ताफल। मनसा=मन में संकल्प किया। हियाव=जीवट, साहस।


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