राजै सुनि जोगी गढ़ चढ़े । पूछै पास जो पंडित पढ़े॥
जोगी गढ़ जो सेंधिा दै आवहिं । बोलहु सबद सिध्दि जस पावहिं॥
कहहिं बेद पढ़ि पंडित बेदी । जोगि भौंर जस मालति भेदी॥
जैसे चोर सेंधिा सिर मेलहिं । तस ए दुवौ जीउ पर खेलहिं॥
पंथ न चलहिं बेद जस लिखा । सरग जाए सूरी चढ़ सिखा॥
चोर होइ सूरी पर मोखू । देह जौ सूरि तिन्हहिं नहिं दोखू॥
चोर पुकारि बेधिा घर मूसा । खेलै राजभँडार मँजूसा॥
जस ए राजमँदिर महँ, दीन्ह रैनि कहँ सेंधिा।
तस छेंकहु पुनि इन्ह कहँ, मारहु सूरी बेधिा॥1॥
राँधा जो मंत्राी बोले सोई । ऐस जो चोर सिध्दि पै कोई॥
सिध्द निसंक रैनि दिन भवँहीं । ताका जहाँ तहाँ अपसवहीं॥
सिध्द निडर अस अपने जीवा । खड़ग देखि कै नाव¯ह गीवा॥
सिध्द जाइ पै जिउबधा जहाँ । औरहि मरन पंख अस कहाँ?॥
चढ़ा जो काँपि गगन उपराहीं । थोरे साज मरै सो नाहीं॥
जंबुक जूझ चढ़ै जौ राजा । सिंघ साज कै चहुँ तौ छाजा॥
सिध्द अमर, काया जस पारा । छरहिं मरहिं बर जाइ न मारा॥
छरहीं काज कृस्न कर, राजा चढ़ै रिसाइ।
सिध्द गिध्द जिन्ह दिस्टि गगन पर, बिनु छर किछु न बसाइ॥2॥
अबहीं करहु गुदर मिस साजू । चढ़हिं बजाइ जहाँ लगि राजू॥
होहि सँजोवल कुँवर जो भोगी । सब दर छेंकि धारहिं अब जोगी।
चौबिस लाख छत्रापति साजे । छपन कोटि दर बाजन बाजे॥
बाइस सहस हस्ति सिंघली । सकल पहार सहित महि हली॥
जगत बराबर वै सब चाँपा । डरा इंद्र, बासुकि हिय काँपा॥
पदुम कोट रथ साजै आवहिं । गिरि होइ खेह गगन कहँ धाावहिं॥
जनु भुइँचाल चलत महि परा । टूटी कमठ पीठि, हिय डरा॥
छत्राहिं सरग छाइगा, सूरुज गयउ अलोपि।
दिनहि राति अस देखिय, चढ़ा इंद्र अस कोपि ॥3॥
देखि कटक औ मैमँत हाथी । बोले रतनसेन कर साथी॥
होत आव दल बहुत असूझा । अस जानिय किछु होइहि जूझा॥
राजा तू जोगी होइ खेला । एही दिवस कहँ हम भए चेला॥
जहाँ गाढ़ ठाकुर कहँ होई । संग न छाँड़ै सेवक सोई॥
जो हम मरन दिवस मन ताका । आजु आइ पूजी वह साका॥
बरु जिउ जाइ, जाइ नहिं बोला । राजा सत सुमेरु नहिं बोला॥
गुरु केर जौ आयसु पावहिं । सौंह होहिं औ चक्र चलावहिं॥
आजु करहिं रन भारत, सत बाचा देइ राखि।
सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरै पुनि साखि॥4॥
गुरु कहा चेला सिधा होहू । पेम बार होइ करहु न कोहू॥
जाकहँ सीस नाइ कै दीजै । रंग न होइ ऊभ जौ कीजै॥
जेहि जिउ पेम पानि भा सोई । जेहि रँग मिलै ओहि रँग होई॥
जौ पै जाइ पेम सौं जूझा । कित तप मरहिं सिध्द जो बूझा॥
एहि सेंति बहुरि जूझ नहिं करिए । खड़ग देखि पानी होइ ढरिए॥
पानिहि काह खड़ग कै धाारा । लौटि पानि होइ सोइ जो मारा॥
पानी सेंति आगि का करई । जाइ बुझाइ जौ पानी परई॥
सीस दीन्ह मैं अगमन, पेम जानि सिर मेलि।
अब सो प्रीति निबाहौं, चलौं सिध्द होइ खेलि॥5॥
राजै छेंकि धारे सब ओगी । दुख ऊपर दुख सहै वियोगी॥
ना जिउ धारक धारत होइ कोई । नाहीं मरन जियन डर होई॥
नाग फाँस उन्ह मेला गीवा । हरख न विसमौ एकौ जीवा॥
जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा । बिसरै नहिं जौ लहि तन साँसा॥
कर किंगरी तेहि तंतु बजावै । इहै गीत बैरागी गावै॥
भलेहि आनि गिउ मेली फाँसी । है न सोच हिय, रिस सब नासी॥
मैं गिउ फाँद ओहि दिन मेला । जेहि दिन पेम पंथ होइ खेला॥
परगट गुपुत सकल महँ, पूरि रहा सो नाँव।
जहँ देखौं तहँ ओही, दूसर नहिं जहँ जाँव॥6॥
जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा । कोटि ऍंतरपट बीचहि दीन्हा॥
जब चीन्हा तब और न कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई॥
हौं हौं करत धाोख इतराहीं । जय भा सिध्द कहाँ परछाहीं?॥
मारै गुरु, कि गुरु जियावै । और को मार? मरै सब आवै॥
सूरी मेलु, हस्ति करु चूरू । हौं नहिं जानौं, जानै गूरू॥
गुरु हस्ति पर चढ़ा सो पेखा । जगत जो नास्ति, नास्ति पै देखा॥
ऍंधा मीन जस जल महँ धाावा । जल जीवन चल दिस्टि नआवा॥
गुरु मोरे मारे हिये, दिए तुरंगम ठाठ।
भीतर करहिं डोलावै, बाहर नाचै काठ॥7॥
सो पदमावति गुरु हौं चेला । जोग तंत जेहि कारन खेला॥
तजि वह बार न जानौं दूजा । जेहि दिन मिलै, जातरा पूजा॥
जीउ काढ़ि भुइँ धारौं लिलाटा । ओहि कहँ देउँ हिये महँ पाटा॥
को मोहिं ओहि छुआवै पाया । नव अवतार देइ, नइ काया॥
जीउ चाहि जो अधिाक पियारी । माँगै जीउ देउँ बलिहारी॥
माँगे सीस, देउँ सह गीवा । अधिाक तरौं जौं मारै जीवा॥
अपने जिउ कर लोभ न मोहीं । पेम बार होइ माँगौं ओही॥
दरसन ओहि कर दिया जस, हौं सो भिखारि पतंग।
जो करवत सिर सारै, मरत न मोरौं अंग॥8॥
पदमावति कँवला ससि जोती । हँसैं फूल, रोवै सब मोती॥
बरजा पितै हँसी औ रोजू । लागे दूत, होइ निति खोजू॥
जबहिं सुरुज कहँ लागा राहू । तबहिं कँवल मन भएउ अगाहू॥
बिरह अगस्त जो बिसमौ उएऊ । सरवर हरष सूखि सब गएऊ॥
परगट ढारि सकै नहिं ऑंसू । घटि घटि माँसु गुपुत होइ नासू॥
जस दिन माँझ रैनि होइ आई । बिगसत कँवल गएउ मुरझाई॥
राता बदन गएउ होइ सेता । भँवत भँवर रहि गए अचेता॥
चित्ता जो चिंता कीन्ह धानि, रोवै रोवँ समेत।
सहस साल सहि आहि भरि, मुरुछि परी, गा चेत॥9॥
पदमावति सँग सखी सयानी । गनत नखत सब रैनि बिहानी॥
जानहिं मरम कँवल कर कोईं । देखि बिथा बिरहिन कै रोईं॥
बिरहा कठिन काल कै कला । बिरह न सहै, काल बरु भला॥
काल काढ़ि जिउ लेइ सिधाारा । बिरह काल मारे पर मारा॥
बिरह आगि पर मेलै आगी । बिरह घाव पर धााक बजागी॥
बिरह बान पर बान पसारा । बिरह रोग पर रोग सँचारा॥
बिरह साल पर साल नवेला । बिरह काल पर काल दुहेला॥
तन रावन होइ सर चढ़ा, बिरह भयउ हनुवंत।
जारे ऊपर जारै, चित मन करि भसमंत॥10॥
कोइ कुमोद पसारहिं पाया । कोइ मलयगिरि छिरकहिं काया॥
कोइ मुख सीतल नीर चुवावै । कोई अंचल सौं पौन डोलावै॥
कोइ मुख अमृत अनि निचोवा । जनु बिष दीन्ह, अधिाक धानिसोवा॥
जोवहिं साँस खिनहिं खिन सखी । कब जिउ फिरै पौन पर पँखी॥
बिरह काल होइ हिये पईठा । जीउ काढ़ि लै हाथ बईठा॥
खिनहिं मौन बाँधो खिन खोला । गही जीभ मुख आव न बोला॥
खिनहिं बेझि कै बानन्ह मारा । कँपि कँपि नारि मरै बेकरारा॥
कैसेहु बिरह न छाँड़ै भा ससि गहन गरास।
नखत चहूँ दिसि रोवहिं, अंधार धारति अकास॥11॥
घरी चारि इमि गहनगरासी । पुनि विधिा हिये जोति परगासी॥
निसँस ऊभि भरि लीन्हेसि साँसा । भा अधाार, जीवन कै आसा।
बिनवहिं सखी, छूट ससि राहू । तुम्हरी जाति जोति सब काहू॥
तू ससि बदन जगत उजियारी । केइ हरि लीन्ह, कीन्ह ऍंधिायारी?॥
तू गजगामिनि गरब गहेली । अब कस आस छाँड़ तू बेली॥
तू हरिलक हराए केहरि । अब कित हारि करति है हिय हरि॥
तू कोकिल बैनी जग मोहा । केइ ब्याधाा होइ गहा निछोहा॥
कँवल कली तू पदमिनि! गइ निसि भयउ बिहान।
अबहुँ न संपुट खोलसि, जब रे उआ जग भानु॥12॥
भानु नाँव सुनि कँवल बिगासा । फिरि कै भौंर लीन्ह मधाु बासा॥
सरद चंद मुख जबहिं उघेली । खंजन नैन उठे करि केली॥
बिरह न बोल आव मुख ताईं । मरि मरि बोल जीउ बरिआईं॥
दवैं बिरह दारुन हिय काँपा । खोलि न जाइ बिरह दुख झाँपा॥
उदधिा समुद जस तरँग देखावा । चख घूमहिं मुख बात न आवा॥
यह सुनि लहरि लहरि पर धाावा । भँवर परा जिव थाह न पावा॥
सखी आनि बिष देहु तौ मरऊँ । जिउ न पियार, मरै का डरऊँ॥
खिनहिं उठै, खिन बूडै, अस हिय कँवल सँकेत।
हीरामनहिं बुलावहि, सखी! गहन जिउ लेत॥13॥
चेरी धााय सुनत खिन धााई । हीरामन लेइ आइँ बोलाई॥
जनहु बैद ओषद लेइ आवा । रोगिया रोग मरत जिउ पावा॥
सुनत असीस नैन धानि खोले । बिरह बैन कोकिल जिमि बोले॥
कँवलहिं बिरह बिथा जस बाढ़ी । केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥
कित कँवलहिं भा पेम ऍंकुरू । जो पै गहन लेहि दिन सूरू॥
पुरइनि छाँह कँवल कै करी । सकल बिथा सुनि अस तुम हरी॥
पुरुष गँभीर न बोलहिं काहू । जो बोलहि तौ ओर निबाहू॥
एतनै बोल कहत मुख, पुनि होइ गई अचेत।
पुनि को चेत सँभारै? उहै कहत मुख सेत॥14॥
और दगथ का कहौं अपारा । सती जो जरै कठिन अस झारा॥
होइ हनुवंत पैठ है कोई । लंकादाहु लागु करै सोई॥
लंका बुझी आगि जो लागी । यह न बुझाइ ऑंच बज्रागी॥
जनहु अगिनि के उठहिं पहारा । औ सब लागहिं अंग ऍंगारा॥
कटि कटि माँसु सराग पिरोवा । रतक कै ऑंसु माँसु सब रोवा॥
खिन एक बार माँसु अस भूँजा । खिनहिं चबाइ सिंधा अस गूँजा॥
एहि रे दगधा हुँत उतिम मरीजै । दगधा न सहिय जीउ बरु दीजै॥
जहँ लगि चंदन मलयगिरि, औ सायर सब नीर।
सब मिलि आइ बुझावहिं, बुझै न आगि सरीर॥15॥
हीरामन जौ देखेसि नारी । प्रीति बेल उपनी हिय बारी॥
कहेसि कस न तुम्ह होहु दुहेली । अरुझी पेम जो पीतम बेली॥
प्रीति बेलि जिनि अरुझै कोई । अरुझे, मुए न छूटै सोई॥
प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा । पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥
प्रीति बेलि कै अमर को बोई? । दिन दिन बढ़ै, छीन नहिं होई॥
प्रीति बेलि सँग बिरह अपारा । सरग पतार जरै तेहि झारा॥
प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा । दूसरि बेलि न सँचरै पावा॥
प्रीति बेलि अरुझै जब, तब सुछाँह सुख साख।
मिलै पिरीतम आइ कै, दाख बेलि रस चाख॥16॥
पदमावति उठि टेकै पाया । तुम्ह हुँत देखौं पीतम छाया॥
कहत लाज औ रहै न जीऊ । एक दिसि आगि दुसर दिसि पीऊ॥
सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना । गहनै गहा, कँवल कुँभिलाना॥
ओहट होइ मरौं तौ झूरी । यह सुठि मरौंजो नियर न दूरी॥
घट महँ निकट, विकट होइ मेरू । मिलहि न मिले, परा तस फेरू॥
तुम्ह सो मोर खेवक गुरु देवा । उतरौं पार तेही बिधिा खेवा॥
दमनहिं नलहिं जो हंस मेरावा । तुम्ह हीरामन नाँव कहावा॥
मूरि सजीवन दूर है, सालै सकती बानु।
प्रान मुकुत अब होत है, बेगि देखावहु भानु॥17॥
हीरामन भुई धारा लिलाटू । तुम्ह रानी जुग जुग सुखपाटू॥
जेहि के हाथ सजीवन मूरी । सो जानिय अब नाहीं दूरी॥
पिता तुम्हार राज कर भोगी । पूजै बिप्र मरावै जोगी॥
पौरि पौरि कोतबार जो बैठा । पेम क लुबुधा सुरँग होइ पैठा॥
चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू । आवत बार धारा कै चोरू॥
अब लेइ गए देइ ओहि सूरी । तेहि सौं अगाह बिथा तुम्ह पूरी॥
अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी । कया क रोग जानु पै रोगी॥
रूप तुन्हार जीउ कै, (आपन) पिंड कमावा फेरि।
आपु हेराइ रहा, तेहि काल न पाबै हेरि॥18॥
हीरामन जो बात यह कही । सूर के गहन चाँद तब गही॥
सूर के दुख सौं ससि भइ दुखी । सो कित दुख मानै करमुखी?॥
अब जौं जोगि मरै मोहि नेहा । मोहि ओहि साथ धारति गगनेहा॥
रहै त करौं जनम भरि सेवा । चलै त, यह जिउ साथ परेवा॥
कहेसि कि कौन करा है सोई । पर काया परवेस जो होई॥
पलटि सो पंथ कौन बिधिा खेला । चेला गुरु गुरु भा चेला॥
कौन खंड अस रहा लुकाई । आवै काल, हेरि फिरि जाई॥
चेला सिध्दि सो पावै, गुरु सौं करै अछेद।
गुरु करै जो किरिपा, पावै चेला भेद॥19॥
अनु रानी तुम गुरु वह चेला । मोहि बूझहु कै सिध्द नवेला॥
तुम्ह चेला कहँ परसन भई । दरसन देइ मँडप चलि गई॥
रूप गुरु कर चेलै डीठा । चित समाइ होइ चित्रा पईठा॥
जीउ काढ़ि लै तुम्ह अपसई । बह भा कया, जीब तुम्ह भई॥
कया जो लाग धाूप औ सीऊ । कया न जान, जान पै जीऊ॥
भोग तुम्हार मिला ओहि जाई । जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँआई॥
तुम ओहिके घट, वह तुम माहाँ । काल कहाँ पावै वह छाहाँ?॥
अस वह जोगी अमर भा, परकाया परवेस।
आवै काल, गुरुहि तहँ, देखि सो करै अदेस॥20॥
सुनि जोगी कै अमर जो करनी । नेवरी बिथा बिरह कै मरनी॥
कवँल करी होइ बिगसा जीऊ । जनु रवि देखि छूटिगासीऊ॥
जो अस सिध्द को मारै पारा ? निपुरुष तेइ जरै होइ छारा॥
कहौ जाइ अब मोर सँदेसू । तजौ जोग अब, होहु नरेसू॥
जिनि जानहु हौं तुम्ह सौं दूरी । नैनन्ह माँझ गड़ी वह सूरी॥
तुम्ह परदेस घटे घट केरा । मोहिं घट जीव घटत नहिं बेरा॥
तुम्ह कहँ पाट हिथे मँह साजा । अब तुम मोर दुहूँ जग राजा॥
जौं रे जियहिं मिलि गर रहिह, मरहिं तो एकै दोउ।
तुम्ह जिउ कहँ जिनि होइ किछु, मोहिं जिउ होउ सो होउ॥21॥
(1) सबद=व्यवस्था। सरग जाए=स्वर्ग जाना (अवधाी)। सूरि=सूली।
(2) राँधा=पास, समीप। भवँहीं=फिरते हैं। अपसवहीं=जाते हैं। मरनपंख=मृत्यु के पंख जैसे चींटों को जमते हैं। पारा=पारद। छरहिं=छल से, युक्ति से। बर=बल से।
(3) गुदर=राजा के दरबार में हाजिरी, मोजरा; अथवा पाठांतर 'कदरमस'=युध्द। सँजोबल=सावधाान। दर=दल, सेना। बराबर चाँपा=पैर से रौंदकर समतल कर दिया। भुइँचाल=भूचाल, भूकंप। अलोपि गए=लुप्त हो गए।
(4) साका=पूजी, समय पूरा हुआ। बोला=बचन, प्रतिज्ञा।
(5) ऊभ=ऊँचा। एहि सेंति=इससे, इसलिए। पानिहि कहा...धाारा=पानी में तलवार मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों बराबर हो जाता है। लौटि...मारा=जो मारता है वही उलटा पानी (कोमल या नम्र) हो जाता है।
(6) धारक=धाड़क। बिसमौ=विषाद (अवधा)। रिस सब नासी=क्रोधा भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है।
(7) अहा=था। ऍंतरपट=परदा, व्यवधाान। इतराहीं=इतराते हैं, गर्व करते हैं। करु चूरू=चूर करे, पीस डाले। पै=ही। जल जीवन...आवा=जल सा यह जीवन चंचल है, यह दिखाई नहीं देता है। ठाठ=रचना, ढाँचा। काठ=जड़ वस्तु, शरीर।
(8) जातरा पूजा=यात्राा सफल हुई। पाटा=सिंहासन। करवत सिर सारै=सिर पर आरा चलावै।
(9) रोजू=रोदन, रोना। खोजू=चौकसी। अगस्त=एक नक्षत्रा जैसे, उदित अगस्त पंथ जल सोखा। बिसमौ=बिना समय के। भँवत भँवर...अचेता=डोलते हुए भौंरे अर्थात् पुतलियाँ निश्चल हो गईं।
(10) कोई=कुमुदिनी, यहाँ सखियाँ। काल कै कला=काल के रूप। नवेला=नया।
(11) पौनपर=पवन के परवाला अर्थात् वायु रूप। बेकरारा=बेचैन बेकरार। ऍंधार=ऍंधोरा।
(12) तु हरिलंक... ... केहरि=तूने सिंह से कटि छीनकर उसे हराया। हारि करति है=निराश होती है, हिम्मत हारती है। निछोहा=निष्ठुर।
(13) फिरि के भौंर....मधाु बासा=भौंरों ने फिर मधाुवास लिया अर्थात् काली पुतलियाँ खुलीं। बरिआईं=जबरदस्ती। दबै=दबाता है, पीसता है। झाँपा=ढका हुआ। सँकेत=संकट। गहन=सूर्य रूप रत्नसेन का अदर्शन।
(14) ऍंकूरू=अंकुर। काहू=कभी।
(15) झारा=झार, ज्वाला। सराग=शलाका, सीख। गूँजा=गरजा। दगधा=दाह। उतिम=उत्ताम।
(16) दुहेली=दुखी। पलुहत=पल्लवित होते, पनपते हुए।
(17) तुम्ह हुँत=तुम्हारे व्दारा। ओहट=ओट में, दूर। मेरु=मेल, मिलाप। मिलहिं न मिले=मिलने पर भी पास होने पर भी नहीं मिलता। दमन=दमयंती। मुकुत होत है=छूटता है।
(18) रुप तुम्हार जीउ...फेरि=तुम्हारे रुप (शरीर)में अपने जीव को करके (परकाय प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर प्राप्त किया।
(19) करमुखी=काले मुँहवाली। गगनेहा=गगन में, स्वर्ग में। करा=कला। चेला सिध्दि सो पावै...भेद=यह शुक का उत्तार है। अछेद=अभेद, भेदभाव का त्याग।
(20) अनु=फिर, आगे। मोहि बूझहु...नवेला=नया सिध्द बनाकर उलटा मुझसे पूछती हो। अपसई=चल दी। सीऊ=शीत। अदेस करै=नमस्कार करता है; 'आदेश गुरु' यह प्रणाम साधाुओं में प्रचलित है।
(21) नेवरी=निबटी, छूटी। निपुरुष=पुरुषार्थहीन। सूरी=शूली जो रत्नसेन को दी जानेवाली है। परसेद=प्रस्वेद, पसीना। घट=घटने पर। बेरा=देर, विलंब।