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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम गंधार्वसेन मंत्राी खंड पीछे     आगे

राजै सुनि जोगी गढ़ चढ़े । पूछै पास जो पंडित पढ़े॥

जोगी गढ़ जो सेंधिा दै आवहिं । बोलहु सबद सिध्दि जस पावहिं॥

कहहिं बेद पढ़ि पंडित बेदी । जोगि भौंर जस मालति भेदी॥

जैसे चोर सेंधिा सिर मेलहिं । तस ए दुवौ जीउ पर खेलहिं॥

पंथ न चलहिं बेद जस लिखा । सरग जाए सूरी चढ़ सिखा॥

चोर होइ सूरी पर मोखू । देह जौ सूरि तिन्हहिं नहिं दोखू॥

चोर पुकारि बेधिा घर मूसा । खेलै राजभँडार मँजूसा॥

जस ए राजमँदिर महँ, दीन्ह रैनि कहँ सेंधिा।

तस छेंकहु पुनि इन्ह कहँ, मारहु सूरी बेधिा॥1॥

राँधा जो मंत्राी बोले सोई । ऐस जो चोर सिध्दि पै कोई॥

सिध्द निसंक रैनि दिन भवँहीं । ताका जहाँ तहाँ अपसवहीं॥

सिध्द निडर अस अपने जीवा । खड़ग देखि कै नाव¯ह गीवा॥

सिध्द जाइ पै जिउबधा जहाँ । औरहि मरन पंख अस कहाँ?॥

चढ़ा जो काँपि गगन उपराहीं । थोरे साज मरै सो नाहीं॥

जंबुक जूझ चढ़ै जौ राजा । सिंघ साज कै चहुँ तौ छाजा॥

सिध्द अमर, काया जस पारा । छरहिं मरहिं बर जाइ न मारा॥

छरहीं काज कृस्न कर, राजा चढ़ै रिसाइ।

सिध्द गिध्द जिन्ह दिस्टि गगन पर, बिनु छर किछु न बसाइ॥2॥

अबहीं करहु गुदर मिस साजू । चढ़हिं बजाइ जहाँ लगि राजू॥

होहि सँजोवल कुँवर जो भोगी । सब दर छेंकि धारहिं अब जोगी।

चौबिस लाख छत्रापति साजे । छपन कोटि दर बाजन बाजे॥

बाइस सहस हस्ति सिंघली । सकल पहार सहित महि हली॥

जगत बराबर वै सब चाँपा । डरा इंद्र, बासुकि हिय काँपा॥

पदुम कोट रथ साजै आवहिं । गिरि होइ खेह गगन कहँ धाावहिं॥

जनु भुइँचाल चलत महि परा । टूटी कमठ पीठि, हिय डरा॥

छत्राहिं सरग छाइगा, सूरुज गयउ अलोपि।

दिनहि राति अस देखिय, चढ़ा इंद्र अस कोपि ॥3॥

देखि कटक औ मैमँत हाथी । बोले रतनसेन कर साथी॥

होत आव दल बहुत असूझा । अस जानिय किछु होइहि जूझा॥

राजा तू जोगी होइ खेला । एही दिवस कहँ हम भए चेला॥

जहाँ गाढ़ ठाकुर कहँ होई । संग न छाँड़ै सेवक सोई॥

जो हम मरन दिवस मन ताका । आजु आइ पूजी वह साका॥

बरु जिउ जाइ, जाइ नहिं बोला । राजा सत सुमेरु नहिं बोला॥

गुरु केर जौ आयसु पावहिं । सौंह होहिं औ चक्र चलावहिं॥

आजु करहिं रन भारत, सत बाचा देइ राखि।

सत्य देख सब कौतुक, सत्य भरै पुनि साखि॥4॥

गुरु कहा चेला सिधा होहू । पेम बार होइ करहु न कोहू॥

जाकहँ सीस नाइ कै दीजै । रंग न होइ ऊभ जौ कीजै॥

जेहि जिउ पेम पानि भा सोई । जेहि रँग मिलै ओहि रँग होई॥

जौ पै जाइ पेम सौं जूझा । कित तप मरहिं सिध्द जो बूझा॥

एहि सेंति बहुरि जूझ नहिं करिए । खड़ग देखि पानी होइ ढरिए॥

पानिहि काह खड़ग कै धाारा । लौटि पानि होइ सोइ जो मारा॥

पानी सेंति आगि का करई । जाइ बुझाइ जौ पानी परई॥

सीस दीन्ह मैं अगमन, पेम जानि सिर मेलि।

अब सो प्रीति निबाहौं, चलौं सिध्द होइ खेलि॥5॥

राजै छेंकि धारे सब ओगी । दुख ऊपर दुख सहै वियोगी॥

ना जिउ धारक धारत होइ कोई । नाहीं मरन जियन डर होई॥

नाग फाँस उन्ह मेला गीवा । हरख न विसमौ एकौ जीवा॥

जेइ जिउ दीन्ह सो लेइ निकासा । बिसरै नहिं जौ लहि तन साँसा॥

कर किंगरी तेहि तंतु बजावै । इहै गीत बैरागी गावै॥

भलेहि आनि गिउ मेली फाँसी । है न सोच हिय, रिस सब नासी॥

मैं गिउ फाँद ओहि दिन मेला । जेहि दिन पेम पंथ होइ खेला॥

परगट गुपुत सकल महँ, पूरि रहा सो नाँव।

जहँ देखौं तहँ ओही, दूसर नहिं जहँ जाँव॥6॥

जब लगि गुरु हौं अहा न चीन्हा । कोटि ऍंतरपट बीचहि दीन्हा॥

जब चीन्हा तब और न कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई॥

हौं हौं करत धाोख इतराहीं । जय भा सिध्द कहाँ परछाहीं?॥

मारै गुरु, कि गुरु जियावै । और को मार? मरै सब आवै॥

सूरी मेलु, हस्ति करु चूरू । हौं नहिं जानौं, जानै गूरू॥

गुरु हस्ति पर चढ़ा सो पेखा । जगत जो नास्ति, नास्ति पै देखा॥

ऍंधा मीन जस जल महँ धाावा । जल जीवन चल दिस्टि नआवा॥

गुरु मोरे मारे हिये, दिए तुरंगम ठाठ।

भीतर करहिं डोलावै, बाहर नाचै काठ॥7॥

सो पदमावति गुरु हौं चेला । जोग तंत जेहि कारन खेला॥

तजि वह बार न जानौं दूजा । जेहि दिन मिलै, जातरा पूजा॥

जीउ काढ़ि भुइँ धारौं लिलाटा । ओहि कहँ देउँ हिये महँ पाटा॥

को मोहिं ओहि छुआवै पाया । नव अवतार देइ, नइ काया॥

जीउ चाहि जो अधिाक पियारी । माँगै जीउ देउँ बलिहारी॥

माँगे सीस, देउँ सह गीवा । अधिाक तरौं जौं मारै जीवा॥

अपने जिउ कर लोभ न मोहीं । पेम बार होइ माँगौं ओही॥

दरसन ओहि कर दिया जस, हौं सो भिखारि पतंग।

जो करवत सिर सारै, मरत न मोरौं अंग॥8॥

पदमावति कँवला ससि जोती । हँसैं फूल, रोवै सब मोती॥

बरजा पितै हँसी औ रोजू । लागे दूत, होइ निति खोजू॥

जबहिं सुरुज कहँ लागा राहू । तबहिं कँवल मन भएउ अगाहू॥

बिरह अगस्त जो बिसमौ उएऊ । सरवर हरष सूखि सब गएऊ॥

परगट ढारि सकै नहिं ऑंसू । घटि घटि माँसु गुपुत होइ नासू॥

जस दिन माँझ रैनि होइ आई । बिगसत कँवल गएउ मुरझाई॥

राता बदन गएउ होइ सेता । भँवत भँवर रहि गए अचेता॥

चित्ता जो चिंता कीन्ह धानि, रोवै रोवँ समेत।

सहस साल सहि आहि भरि, मुरुछि परी, गा चेत॥9॥

पदमावति सँग सखी सयानी । गनत नखत सब रैनि बिहानी॥

जानहिं मरम कँवल कर कोईं । देखि बिथा बिरहिन कै रोईं॥

बिरहा कठिन काल कै कला । बिरह न सहै, काल बरु भला॥

काल काढ़ि जिउ लेइ सिधाारा । बिरह काल मारे पर मारा॥

बिरह आगि पर मेलै आगी । बिरह घाव पर धााक बजागी॥

बिरह बान पर बान पसारा । बिरह रोग पर रोग सँचारा॥

बिरह साल पर साल नवेला । बिरह काल पर काल दुहेला॥

तन रावन होइ सर चढ़ा, बिरह भयउ हनुवंत।

जारे ऊपर जारै, चित मन करि भसमंत॥10॥

कोइ कुमोद पसारहिं पाया । कोइ मलयगिरि छिरकहिं काया॥

कोइ मुख सीतल नीर चुवावै । कोई अंचल सौं पौन डोलावै॥

कोइ मुख अमृत अनि निचोवा । जनु बिष दीन्ह, अधिाक धानिसोवा॥

जोवहिं साँस खिनहिं खिन सखी । कब जिउ फिरै पौन पर पँखी॥

बिरह काल होइ हिये पईठा । जीउ काढ़ि लै हाथ बईठा॥

खिनहिं मौन बाँधो खिन खोला । गही जीभ मुख आव न बोला॥

खिनहिं बेझि कै बानन्ह मारा । कँपि कँपि नारि मरै बेकरारा॥

कैसेहु बिरह न छाँड़ै भा ससि गहन गरास।

नखत चहूँ दिसि रोवहिं, अंधार धारति अकास॥11॥

घरी चारि इमि गहनगरासी । पुनि विधिा हिये जोति परगासी॥

निसँस ऊभि भरि लीन्हेसि साँसा । भा अधाार, जीवन कै आसा।

बिनवहिं सखी, छूट ससि राहू । तुम्हरी जाति जोति सब काहू॥

तू ससि बदन जगत उजियारी । केइ हरि लीन्ह, कीन्ह ऍंधिायारी?॥

तू गजगामिनि गरब गहेली । अब कस आस छाँड़ तू बेली॥

तू हरिलक हराए केहरि । अब कित हारि करति है हिय हरि॥

तू कोकिल बैनी जग मोहा । केइ ब्याधाा होइ गहा निछोहा॥

कँवल कली तू पदमिनि! गइ निसि भयउ बिहान।

अबहुँ न संपुट खोलसि, जब रे उआ जग भानु॥12॥

भानु नाँव सुनि कँवल बिगासा । फिरि कै भौंर लीन्ह मधाु बासा॥

सरद चंद मुख जबहिं उघेली । खंजन नैन उठे करि केली॥

बिरह न बोल आव मुख ताईं । मरि मरि बोल जीउ बरिआईं॥

दवैं बिरह दारुन हिय काँपा । खोलि न जाइ बिरह दुख झाँपा॥

उदधिा समुद जस तरँग देखावा । चख घूमहिं मुख बात न आवा॥

यह सुनि लहरि लहरि पर धाावा । भँवर परा जिव थाह न पावा॥

सखी आनि बिष देहु तौ मरऊँ । जिउ न पियार, मरै का डरऊँ॥

खिनहिं उठै, खिन बूडै, अस हिय कँवल सँकेत।

हीरामनहिं बुलावहि, सखी! गहन जिउ लेत॥13॥

चेरी धााय सुनत खिन धााई । हीरामन लेइ आइँ बोलाई॥

जनहु बैद ओषद लेइ आवा । रोगिया रोग मरत जिउ पावा॥

सुनत असीस नैन धानि खोले । बिरह बैन कोकिल जिमि बोले॥

कँवलहिं बिरह बिथा जस बाढ़ी । केसर बरन पीर हिय गाढ़ी॥

कित कँवलहिं भा पेम ऍंकुरू । जो पै गहन लेहि दिन सूरू॥

पुरइनि छाँह कँवल कै करी । सकल बिथा सुनि अस तुम हरी॥

पुरुष गँभीर न बोलहिं काहू । जो बोलहि तौ ओर निबाहू॥

एतनै बोल कहत मुख, पुनि होइ गई अचेत।

पुनि को चेत सँभारै? उहै कहत मुख सेत॥14॥

और दगथ का कहौं अपारा । सती जो जरै कठिन अस झारा॥

होइ हनुवंत पैठ है कोई । लंकादाहु लागु करै सोई॥

लंका बुझी आगि जो लागी । यह न बुझाइ ऑंच बज्रागी॥

जनहु अगिनि के उठहिं पहारा । औ सब लागहिं अंग ऍंगारा॥

कटि कटि माँसु सराग पिरोवा । रतक कै ऑंसु माँसु सब रोवा॥

खिन एक बार माँसु अस भूँजा । खिनहिं चबाइ सिंधा अस गूँजा॥

एहि रे दगधा हुँत उतिम मरीजै । दगधा न सहिय जीउ बरु दीजै॥

जहँ लगि चंदन मलयगिरि, औ सायर सब नीर।

सब मिलि आइ बुझावहिं, बुझै न आगि सरीर॥15॥

हीरामन जौ देखेसि नारी । प्रीति बेल उपनी हिय बारी॥

कहेसि कस न तुम्ह होहु दुहेली । अरुझी पेम जो पीतम बेली॥

प्रीति बेलि जिनि अरुझै कोई । अरुझे, मुए न छूटै सोई॥

प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा । पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा॥

प्रीति बेलि कै अमर को बोई? । दिन दिन बढ़ै, छीन नहिं होई॥

प्रीति बेलि सँग बिरह अपारा । सरग पतार जरै तेहि झारा॥

प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि छावा । दूसरि बेलि न सँचरै पावा॥

प्रीति बेलि अरुझै जब, तब सुछाँह सुख साख।

मिलै पिरीतम आइ कै, दाख बेलि रस चाख॥16॥

पदमावति उठि टेकै पाया । तुम्ह हुँत देखौं पीतम छाया॥

कहत लाज औ रहै न जीऊ । एक दिसि आगि दुसर दिसि पीऊ॥

सूर उदयगिरि चढ़त भुलाना । गहनै गहा, कँवल कुँभिलाना॥

ओहट होइ मरौं तौ झूरी । यह सुठि मरौंजो नियर न दूरी॥

घट महँ निकट, विकट होइ मेरू । मिलहि न मिले, परा तस फेरू॥

तुम्ह सो मोर खेवक गुरु देवा । उतरौं पार तेही बिधिा खेवा॥

दमनहिं नलहिं जो हंस मेरावा । तुम्ह हीरामन नाँव कहावा॥

मूरि सजीवन दूर है, सालै सकती बानु।

प्रान मुकुत अब होत है, बेगि देखावहु भानु॥17॥

हीरामन भुई धारा लिलाटू । तुम्ह रानी जुग जुग सुखपाटू॥

जेहि के हाथ सजीवन मूरी । सो जानिय अब नाहीं दूरी॥

पिता तुम्हार राज कर भोगी । पूजै बिप्र मरावै जोगी॥

पौरि पौरि कोतबार जो बैठा । पेम क लुबुधा सुरँग होइ पैठा॥

चढ़त रैनि गढ़ होइगा भोरू । आवत बार धारा कै चोरू॥

अब लेइ गए देइ ओहि सूरी । तेहि सौं अगाह बिथा तुम्ह पूरी॥

अब तुम्ह जिउ काया वह जोगी । कया क रोग जानु पै रोगी॥

रूप तुन्हार जीउ कै, (आपन) पिंड कमावा फेरि।

आपु हेराइ रहा, तेहि काल न पाबै हेरि॥18॥

हीरामन जो बात यह कही । सूर के गहन चाँद तब गही॥

सूर के दुख सौं ससि भइ दुखी । सो कित दुख मानै करमुखी?॥

अब जौं जोगि मरै मोहि नेहा । मोहि ओहि साथ धारति गगनेहा॥

रहै त करौं जनम भरि सेवा । चलै त, यह जिउ साथ परेवा॥

कहेसि कि कौन करा है सोई । पर काया परवेस जो होई॥

पलटि सो पंथ कौन बिधिा खेला । चेला गुरु गुरु भा चेला॥

कौन खंड अस रहा लुकाई । आवै काल, हेरि फिरि जाई॥

चेला सिध्दि सो पावै, गुरु सौं करै अछेद।

गुरु करै जो किरिपा, पावै चेला भेद॥19॥

अनु रानी तुम गुरु वह चेला । मोहि बूझहु कै सिध्द नवेला॥

तुम्ह चेला कहँ परसन भई । दरसन देइ मँडप चलि गई॥

रूप गुरु कर चेलै डीठा । चित समाइ होइ चित्रा पईठा॥

जीउ काढ़ि लै तुम्ह अपसई । बह भा कया, जीब तुम्ह भई॥

कया जो लाग धाूप औ सीऊ । कया न जान, जान पै जीऊ॥

भोग तुम्हार मिला ओहि जाई । जो ओहि बिथा सो तुम्ह कहँआई॥

तुम ओहिके घट, वह तुम माहाँ । काल कहाँ पावै वह छाहाँ?॥

अस वह जोगी अमर भा, परकाया परवेस।

आवै काल, गुरुहि तहँ, देखि सो करै अदेस॥20॥

सुनि जोगी कै अमर जो करनी । नेवरी बिथा बिरह कै मरनी॥

कवँल करी होइ बिगसा जीऊ । जनु रवि देखि छूटिगासीऊ॥

जो अस सिध्द को मारै पारा ? निपुरुष तेइ जरै होइ छारा॥

कहौ जाइ अब मोर सँदेसू । तजौ जोग अब, होहु नरेसू॥

जिनि जानहु हौं तुम्ह सौं दूरी । नैनन्ह माँझ गड़ी वह सूरी॥

तुम्ह परदेस घटे घट केरा । मोहिं घट जीव घटत नहिं बेरा॥

तुम्ह कहँ पाट हिथे मँह साजा । अब तुम मोर दुहूँ जग राजा॥

जौं रे जियहिं मिलि गर रहिह, मरहिं तो एकै दोउ।

तुम्ह जिउ कहँ जिनि होइ किछु, मोहिं जिउ होउ सो होउ॥21॥

(1) सबद=व्यवस्था। सरग जाए=स्वर्ग जाना (अवधाी)। सूरि=सूली।

(2) राँधा=पास, समीप। भवँहीं=फिरते हैं। अपसवहीं=जाते हैं। मरनपंख=मृत्यु के पंख जैसे चींटों को जमते हैं। पारा=पारद। छरहिं=छल से, युक्ति से। बर=बल से।

(3) गुदर=राजा के दरबार में हाजिरी, मोजरा; अथवा पाठांतर 'कदरमस'=युध्द। सँजोबल=सावधाान। दर=दल, सेना। बराबर चाँपा=पैर से रौंदकर समतल कर दिया। भुइँचाल=भूचाल, भूकंप। अलोपि गए=लुप्त हो गए।

(4) साका=पूजी, समय पूरा हुआ। बोला=बचन, प्रतिज्ञा।

(5) ऊभ=ऊँचा। एहि सेंति=इससे, इसलिए। पानिहि कहा...धाारा=पानी में तलवार मारने से पानी विदीर्ण नहीं होता, वह फिर ज्यों का त्यों बराबर हो जाता है। लौटि...मारा=जो मारता है वही उलटा पानी (कोमल या नम्र) हो जाता है।

(6) धारक=धाड़क। बिसमौ=विषाद (अवधा)। रिस सब नासी=क्रोधा भी सब प्रकार नष्ट कर दिया है।

(7) अहा=था। ऍंतरपट=परदा, व्यवधाान। इतराहीं=इतराते हैं, गर्व करते हैं। करु चूरू=चूर करे, पीस डाले। पै=ही। जल जीवन...आवा=जल सा यह जीवन चंचल है, यह दिखाई नहीं देता है। ठाठ=रचना, ढाँचा। काठ=जड़ वस्तु, शरीर।

(8) जातरा पूजा=यात्राा सफल हुई। पाटा=सिंहासन। करवत सिर सारै=सिर पर आरा चलावै।

(9) रोजू=रोदन, रोना। खोजू=चौकसी। अगस्त=एक नक्षत्रा जैसे, उदित अगस्त पंथ जल सोखा। बिसमौ=बिना समय के। भँवत भँवर...अचेता=डोलते हुए भौंरे अर्थात् पुतलियाँ निश्चल हो गईं।

(10) कोई=कुमुदिनी, यहाँ सखियाँ। काल कै कला=काल के रूप। नवेला=नया।

(11) पौनपर=पवन के परवाला अर्थात् वायु रूप। बेकरारा=बेचैन बेकरार। ऍंधार=ऍंधोरा।

(12) तु हरिलंक... ... केहरि=तूने सिंह से कटि छीनकर उसे हराया। हारि करति है=निराश होती है, हिम्मत हारती है। निछोहा=निष्ठुर।

(13) फिरि के भौंर....मधाु बासा=भौंरों ने फिर मधाुवास लिया अर्थात् काली पुतलियाँ खुलीं। बरिआईं=जबरदस्ती। दबै=दबाता है, पीसता है। झाँपा=ढका हुआ। सँकेत=संकट। गहन=सूर्य रूप रत्नसेन का अदर्शन।

(14) ऍंकूरू=अंकुर। काहू=कभी।

(15) झारा=झार, ज्वाला। सराग=शलाका, सीख। गूँजा=गरजा। दगधा=दाह। उतिम=उत्ताम।

(16) दुहेली=दुखी। पलुहत=पल्लवित होते, पनपते हुए।

(17) तुम्ह हुँत=तुम्हारे व्दारा। ओहट=ओट में, दूर। मेरु=मेल, मिलाप। मिलहिं न मिले=मिलने पर भी पास होने पर भी नहीं मिलता। दमन=दमयंती। मुकुत होत है=छूटता है।

(18) रुप तुम्हार जीउ...फेरि=तुम्हारे रुप (शरीर)में अपने जीव को करके (परकाय प्रवेश करके) उसने मानो दूसरा शरीर प्राप्त किया।

(19) करमुखी=काले मुँहवाली। गगनेहा=गगन में, स्वर्ग में। करा=कला। चेला सिध्दि सो पावै...भेद=यह शुक का उत्तार है। अछेद=अभेद, भेदभाव का त्याग।

(20) अनु=फिर, आगे। मोहि बूझहु...नवेला=नया सिध्द बनाकर उलटा मुझसे पूछती हो। अपसई=चल दी। सीऊ=शीत। अदेस करै=नमस्कार करता है; 'आदेश गुरु' यह प्रणाम साधाुओं में प्रचलित है।

(21) नेवरी=निबटी, छूटी। निपुरुष=पुरुषार्थहीन। सूरी=शूली जो रत्नसेन को दी जानेवाली है। परसेद=प्रस्वेद, पसीना। घट=घटने पर। बेरा=देर, विलंब।


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