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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम रत्नसेन सूली खंड पीछे     आगे

बाँधिा तपा आने जहँ सूरी । जुरे आइ सब सिंघलपूरी॥

पहिले गुरुहि देइ कहँ आना । देखि रूप सब कोइ पछिताना॥

लोग कहहिं यह होइ न जोगी । राजकुँवर कोइ अहै बियोगी॥

काहुहि लागि भएउ है तपा । हिये सो माल करहु मुख जपा॥

जस मारै कहँ बाजा तूरू । सूरी देखि हँसा मंसूरू॥

चमके दसन भएउ उजियारा । जौ जहँ तहाँ बीजु अस मारा॥

जोगी केर करहु पै खोजू । मकु यह होइ न राजा भोजू॥

सब पूछहिं, कहु जोगी! जाति जनम औ नाँव।

जहाँ ठाँव रोवै कर, हँसा सो कहु केहि भाव॥1॥

का पूछहु अब जाति हमारी । हम जोगी औ तपा भिखारी॥

जोगिहि कौन जाति, हो राजा । गारि न कोह, मारि नहिं लाजा॥

निलज भिखारि लाज जेइ खोई । तेहि के खोज परै जिनि कोई॥

जाकर जीउ मरै पर बसा । सूरी देखि सो कस नहिं हँसा?॥

आजु नेह सौं होइ निबेरा । आजु पुहुमि तजि गगन बसेरा॥

आजु कया पीजर बँदि टूटा । आजुहिं प्रान परेवा छूटा॥

आजु नेह सौं होइ निनारा । आज प्रेम सँग चला पियारा॥

आजु अवधिा सिर पहुँची, किए जाहु मुख रात।

बेगि होहु मोहिं मारहू, जिनि चालहु यह बात॥2॥

कहेन्हि सँवरु जेहि चाहसि सँवरा । हम तोहि करहिं केत करभँवरा॥

कहेसि ओहि सँवरौं हरि फेरा । मुए जियत आहौं जेहि केरा॥

औ सँवरौं पदमावति रामा । यह जिउ नेवछावरि जेहि नामा॥

रकत क बूँद कया जस अहही । 'पदमावति पदमावति' कहही॥

रहै त बूँद बूँद महँ ठाऊँ । परै त सोई लेइ लेइ नाऊँ॥

रोंव रोंव तन तासौं ओधाा । सूतहि सूत बेधिा जिउ सोधाा॥

हाड़हि हाड़ सबद सो होई । नस नस माँह उठै धाुनि सोई॥

जागा बिरह तहाँ का, गूद माँसु कै हान?।

हौं पुनि साँचा होइ रहा, ओहि के रूप समान॥3॥

जोगिहि जबहिं गाढ़ अस परा । महादेव कर आसन टरा॥

वै हँसि पारबती सौं कहा । जानहुँ सूर गहन अस गहा॥

आजु चढ़ै गढ़ ऊपर तपा । राजै गहा सूर तब छपा॥

जग देखै गा कौतुक आजू । कीन्ह तपा मारै कहँ साजू॥

पारबती सुनि पायन्ह परी । चलि महेस! देखैं एहि घरी॥

भेस भाँट भाँटिनि कर कीन्हा । औ हनुवंत बीर सँग लीन्हा॥

आए गुपुत होइ देखन लागी । वह मूरति कस सती सभागी॥

कटक असूझ देखि कै, राजा गरब करेइ।

दैउ क दमा न देखै, दहुँ का कहँ जय देइ॥4॥

आसन लेइ रहा होइ तपा । 'पदमावति पदमावति' जपा॥

मन समाधिा तासौं धाुनि लागी । जेहि दरसन कारन बैरागी॥

रहा समाइ रूप औ नाऊँ । और न सूझ बार जहँ जाऊँ॥

औ महेस कहँ करौं अदेसू । जेइ यह पंथ दीन्ह उपदेसू॥

पारबती पुनि सत्य सराहा । औ फिरि मुख महेस कर चाहा॥

हिय महेस जौं कहै महेसी । कित सिर नावहिं ए परदेसी?॥

मरतहु लीन्ह तुम्हारहिं नाऊँ । तुम्ह चित किए एहि ठाऊँ॥

मारत ही परदेसी, राखि लेहु एहि बीर।

कोइ काहू कर नाहीं जो होइ चलै न तीर॥5॥

लेइ सँदेस सुअटा गा तहाँ । सूरी देहिं रतन कहँ जहाँ॥

देखि रतन हीरामन रोवा । रजा जिउ लोगन्ह हठि खोवा॥

देखि रुदन हीरामन केरा । रोवहिं सब, राजा मुख हेरा॥

माँगहिं सब बिधिाना सौं रोई । कै उपकार छोड़ावै कोई॥

कहि सँदेस सब बिपति सुनाई । बिकल बहुत, किछु कहा न जाई॥

काढ़ि प्रान बैठी लेइ हाथा । मरै तौ मरौं, जिऔं एक साथा॥

सुनि सँदेस राजा तब हँसा । प्रान प्रान घट घट महँ बसा॥

सुअटा भाँट दसौंधाी भए, जिउ पर एक ठाँव।

चलि सो जाइ अब देख तहँ, जहँ बैठा रह राव॥6॥

राजा रहा दिस्टि कै औंधाी । रहि न सका तब भाँट दसौंधाी॥

कहेसि मेलि कै हाथ कटारी । पुरुष न आछे बैठ पेटारी॥

कान्ह कोपि जब मारा कंसू । तब जाना पूरुष कै बंसू॥

गंधा्रबसेन जहाँ रिस बाढ़ा । जाइ भाँट आगे भा ठाढ़ा॥

बोला गंधा्रबसेन रिसाई । कस जोगी कस भँट असाई॥

ठाढ़ देख सब राजा राऊ । बाएँ हाथ दीन्ह बरम्हाऊ॥

जोगी पानि, आगि तू राजा । आगिहि पानि जूझ नहिं छाजा॥

आगि बुझाइ पानि सौं, जूझु न, राजा! बूझु।

लीन्हें खप्पर बार तोहि, भिच्छा देहि, न जूझु॥7॥

जोगि न होइ, आहि सौ भोजू । जानहु भेद करहु सो खोजू॥

भारत ओइ जूझ जौ ओधाा । होहिं सहाय आइ सब जोधाा॥

महादेव रनघंट बजावा । सुनि कै सबद बरम्हा चलि आवा॥

फनपति फन पतार सौं काढ़ा । अस्टौ कुरी नाग भए ठाढ़ा॥

छप्पन कोटि बसंदर बरा । सवा लाख परबत फरहरा॥

चढ़े अत्रा लै कृस्न मुरारी । इंद्रलोक सब लाग गोहारी॥

तैंतिस कोटि देवता साजा । औ छानबे मेघदल गाजा॥

नवौ नाथ चलि आवहिं, औ चौरासी सिध्द।

आजु महाभारत चले, गगन गरुड़ औ गिध्द॥8॥

भइ अज्ञा को भाँट अभाऊ । बाएँ हाथ देह बरम्हाऊ॥

को जोगी अस नगरी मोरी । जो देइ सेंधिा चढ़ै गढ़ चोरी॥

इंद्र डरै निति नावै माथा । जानत कृस्न सेस जेइ नाथा॥

बरम्हा डरै चतुरमुख जासू । औ पातार डरै बलि बासू॥

मही हलै औ चलै सुमेरू । चाँद सूर औ गगन कुबेरू॥

मेघ डरै बिजुरी जेहि दीठी । कूरुम डरै धारति जेहि पीठी॥

चहौं आजु माँगौं धारि केसा । और को कीट पतंग नरेसा?॥

बोला भाँट, नरेस सुनु! गरब न छाजा जीउ।

कुँभकरन कै खोपरी, बूड़त बाँचा भीउँ॥9॥

रावन गरब बिरोधाा रामू । ओही गरब भएउ संग्रामू॥

तस रावन अस को बरिवंडा । जेहि दस सीस, बीस भुजदंडा॥

सूरुज जेहिकै तपै रसोई । नितिहिं बसंदर धाोती धाोई॥

सूक सुमंता, ससि मसिआरा । पौन करै निति बार बोहारा॥

जमहिं लाइकै पाटी बाँधाा । रहा न दूसर सपने काँधाा॥

जो अस बज्र टरै नहिं टारा । सोउ मुवा दुइ तपसी मारा॥

नाती पूत कोटि दस अहा । रोवनहार न कोई रहा॥

ओछ जानि कै काहुहि, जिनि कोइ गरब करेइ।

ओछे पर जो दैउ है, जीति पत्रा तेइ देइ॥10॥

अब जो भाँट उहाँ हुत आगे । बिनै उठा राजहि रिस लागे॥

भाँट अहै संकर कै कला । राजा सहुँ राखै अरगला॥

भाँट मीचु पै आप न दीसा । ता कहँ कौन करै अस रीसा?॥

भएउ रजायसु गंधा्रबसेनी । काहे मीचु के चढ़ै नसेनी?॥

कहा आनि बानी अस पढ़ै । करसि न बुध्दि भेंट जेहि कढ़ै॥

जाति भाँट कित औगुन लावसि । बाएँ हाथ राज बरम्हावसि॥

भाँट नाँव का मारौं जीवा? । अबहूँ बोलु नाइ कै गीवा॥

तुँ रे भाँट ए जोगी, तोहिं एहि काहे क संग?।

काह छरे अस पावा, काह भएउ चितभंग॥11॥

जौं सत पूछसि गँधा्रब राजा । सत पै कहौं परै नहिं गाजा॥

भाँटहिं काह मीचु सौं डरना । हाथ कटार, पेट हनि मरना॥

जंबूदीप चित्ताउर देसा । चित्रासेन बड़ तहाँ नरेसा॥

रतनसेन यह ताकर बेटा । कुल चौहान जाइ नहिं मेटा॥

खाँड़ै अचल सुमेरु पहारा । टरै न जौं लागै संसारा॥

दान सुमेरु देत नहिं खाँगा । जो ओहि माँग न औरहि माँगा॥

दाहिन हाथ उठाएउँ ताही । और को अस बरम्हावौं जाही?॥

नाँव महापातर मोहिं, तेहिक भिखारी ढीठ।

जौं खरि बात कहै रिस, लागै कहै बसीठ॥12॥

ततखन पुनि महेसमनलाजा । भाँट करा होइ विनवा राजा॥

गंधा्रबसेन! तुँ राजा महा । हौं महेस मूरति, सुनु कहा॥

जौ पै बात होइ भलि आगे । कहा चहिय, का भा रिस लागे॥

राजकुँवर यह, होहि न जोगी । सुनि पदमावति भएउ बियोगी॥

जंबूदीप राजघर बेटा । जो है लिखा सो जाइ न मेटा॥

तुम्हरहि सुआ जाहि ओहि आना । औ जेहि कर, बर कै तेइमाना॥

पुनि यह बात सुनी सिव लोका । करसि बियाह धारम है तोका॥

माँगे भीख खपर लेइ, मुए न छाँड़ै बार।

बूझहु कनक कचोरी, भीखि देहु नहिं मार॥13॥

ओहट होहु रे भाँटभिखारी । का तू मोहिं देहि असि गारी॥

को मोहिं जोग जगत होइ पारा । जा सहुँ हेरौं जाइ पतारा॥

जोगी जती आव जो कोई । सुनतहि त्राासमान भा सोई॥

भीख लेहिं फिरि माँगहिं आगे । ए सब रैनि रहे गढ़ लागे॥

जस हींछा, चाहौं तिन्ह दीन्हा । नाहिं बेधिा सूरी जिउ लीन्हा॥

जेहि अस साधा होइ जिउ खोवा । सो पतंग दीपक तस रोवा॥

सुर, नर, मुनि सब गंधा्रब देवा । तेहि को गनै? करहिं निति सेवा॥

मोसौं को सरवरि करै? सुनु, रे झूठे भाँट।

छार होइ जौ चालौं, निज हस्तिन कर ठाट॥14॥

जोगी घिरि मेले सब पाछे । उरए माल आए रन काछे॥

मंत्रिान्ह कहा, सुनहु हो राजा । देखहु अब जोगिन्ह कर काजा॥

हम जो कहा तुम्ह करहु न जूझू । होत आव दर जगत असूझू॥

खिन इक महँ झुरमुट होइ बीता । दर महँ चढ़ि जो रहै सो जीता॥

कै धाीरज राजा तब कोपा । अंगद आइ पाँव रन रोपा॥

हस्ति पाँच जो अगमन धााए । तिन्ह अंगद धारि सूँड़ फिराए॥

दीन्ह उड़ाइ सरग कहँ गए। लौटि न फिरे, तहँहिं के भए॥

देखत रहै अचंभौ जोगी, हस्ती बहुरि न आय।

जोगिन्ह कर अस जूझब। भूमि न लागत पाय॥15॥

कहहिं बात, जोगी अब आए । खिनक माहँ चाहत हैं भाए॥

जौ लहि धाावहिं अस कै खेलहु । हस्तिन केर जूह सब पेलहु॥

जस गज पेलि होहिं रन आगे । तस बगमेल करहु सँग लागे॥

हस्ति क जूह आय अगसारी । हनुवँत तबै लँगूर पसारी॥

जैसे सेन बीच रन आई । सबै लपेटि लँगूर चलाई॥

बहुतक टूटि भए नौ खंडा । बहुतक जाइ परे बरम्हंडा॥

बहुतक भँवत सोह ऍंतरीखा । रहे जो लाख भए ते लीखा॥

बहुतक परे समुद महँ, परत न पावा खोज।

जहाँ गरब तह पीरा, जहाँ हँसी तह रोज॥16॥

पुनि आगे का देखै राजा । ईसर केर घंट रन बाजा॥

सुना संख जो बिस्नू पूरा । आगे हनुवँत केर लँगूरा॥

लीन्हे फिरहिं लोक बरम्हंडा । सरग पतार लाइ मृदमंडा॥

बलि, बासुकि औ इंद्र नरिंदू । राहु, नखत, सूरुज औ चंदू॥

जावत दानव राच्छस पुरे । आठौ बज्र आइ रन जुरे॥

जेहि कर गरब करत हुत राजा । सो सब फिरि बैरी होइ साजा॥

जहवाँ महादेव रन खड़ा । सीस नाइ नृप पायन्ह परा॥

केहि कारन रिस कीजिए? हौं सेवक औ चेर।

जेहि चाहिय तेहि दीजिय, बारि गोसाईं केर॥17॥

पुनि महेस अब कीन्ह बसीठी । पहिले करुइ, सोइ अब मीठी॥

तू गंधा्रव राजा जग पूजा । गुन चौदह सिख देइ को दूजा॥

हीरामन जो तुम्हार परेवा । गा चितउर औ कीन्हेसि सेवा॥

तेहि बोलाइ पूछहु वह देसू । दहुँ जोगी, की तहाँ नरेसू॥

हमरे कहत न जौं तुम्ह मानहु । जो वह कहै सोइ परवाँनहु॥

जहाँ बारि, बर आवा ओका । करहिं बियाह धारम बड़ तोका॥

जो पहिले मन मानि न काँधौ । परखै रतन गाँठि तब बाँधौ॥

रतन छपाए ना छपै, पारिख होइ सो परीख।

घालि कसौटी दीजिए, कनक कचोरी भीख॥18॥

राजै जब हीरामन सुना । गएउ रोस, हिरदय महँ गुना॥

अज्ञा भई बोलावहु सोई । पंडित हुँते धाोख नहिं होई॥

एकहि कहत सहस्रक धााए । हीरामनहिं बेगि लेइ आए॥

खोला आगे आनि मँजूसा । मिला निकसि बहु दिनकर रूसा॥

अस्तुति करत मिला बहु भाँती । राजै सुना हिये भइ साँती॥

जानहुँ जरत आगि जल परा । होइ फुलवार रहस हिय भरा॥

राजै पुनि पूछी हँसि बाता । कस तन पियर भएउ मुख राता॥

चतुर बेद तुम पंडित, पढ़ै शास्त्रा औ बेद।

कहाँ चढ़ाएहु जोगिन्ह, आइ कीन्ह गढ़ भेद॥19॥

हीरामन रसना रस खोला । दै असीस, कै अस्तुति बोला॥

इंद्रराज राजेसर महा । सुनि होइ रिस, कछु जाइ न कहा॥

पै जो बात होइ भल आगे । सेवक निडर कहै रिस लागे॥

सुवा सुफल अमृत पै खोजा । होहु न राजा बिक्रम भोजा॥

हौं सेवक तुम आदि गोसाईं । सेवा करौं जिऔं जब ताईं॥

जेइ जिउ दीन्ह देखावा देसू । सो पै जिउ महँ बसै, नरेसू!॥

जो ओहि सँवरै 'एकै तुहीं' । सोई पंखि जगत रतमुहीं॥

नैन बैन ओ सरवन सब ही तोर प्रसाद।

सेवा मोरि इहै निति, बोलौं आसिरबाद॥20॥

जो अस सेवक जेइ तप कसा । तेहि क जीभ पैं अमृत बसा॥

तेहि सेवक के करमहिं दोषू । सेवा करत करैं पति रोषू॥

औ जेहि दोष निदोषहि लागा । सेवक डरा जीउ लेइ भागा॥

जो पंछी कहवाँ थिर रहना । ताकै जहाँ जाइ भए डहना॥

सप्त दीप फिर देखेउँ राजा । जंबूदीप जाइ तब बाजा॥

तहँ चितउरगढ़ देखेउँ ऊँचा । ऊँच राज सरि तोहिं पहूँचा॥

रतनसेन यह तहाँ नरेसू । एहि आनेउँ जोगी के भेसू॥

सुआ सुफल लेउ आएउँ, तेहि गुन तें मुख रात।

कया पीत सो तेहि डर, सँवरौं विक्रम बात॥21॥

पहिले भएउ भाँट सत भाखी । पुनि बोला हीरामन साखी॥

राजहि भा निसचय मन माना । बाँधाा रतन छोरि कै आना॥

कुल पूछा चौहान कुलीना । रतन न बाँधो होइ मलीना॥

हीरा दसन पाँन रँग पाके । बिहँसत सबै बीजु बर ताके॥

मुद्रा स्रवन विनय सौं चाँपा । राजपना उघरा सब झाँपा॥

आना काटर एक तुखारू । कहा सो फेरौ, भा असवारू॥

फेरा तुरय, छतीसौ कुरी । सबै सराहा सिंघलपुरी॥

कुँवर बतीसौ लच्छना, सहस किरिन जस भान।

काह कसौटी कसिए? कवन बारह बान॥22॥

देखि कुँवर बर कंचन जोगू । 'अस्ति अस्ति' बोला सब लोगू॥

मिला सो बंस अंस उजियारा । भा बरोक तब तिलक सँवारा॥

अनिरुधा कहँ जो लिखा जयमारा । को मेटै? बानासुर हारा॥

आजु मिली अनिरुधा कहँ ऊखा । देव अनंद, दैत सिर दूखा॥

सरग सूर, भुइँ सरवर केवा । बनख्रड भँवर होइ रसलेवा॥

पच्छिउँ कर बर पुरुब क बारी । जोरी लिखी न होइ निनारी॥

मानुष साज लाख मन साजा । होइ सोई जो विधिा उपराजा॥

गए जो बाजन बाजत, जिन्ह मारन रन माहिं।

फिर बाजन तेइ बाजे, मंगलचारि उनाहिं॥23॥

बोल गोसाईं कर मैं माना । काह सो जुगुति उतर कहँ आना?॥

माना बोल, हरष जिउ बाढ़ा । औ बरोक भा, टीका काढ़ा॥

दूवौ मिले मनावा भला । सुपुरुष आपु आपु कहँ चला॥

लीन्ह उतारि जाहि हित जोगू । जो तप करै सो पावै भोगू॥

वह मन चित जो एकै अहा । मारै लीन्ह न दूसर कहा॥

जो असकोई जिउ पर छेवा । देवता आइ करहिं नित सेवा॥

दिन दस जीवन जो दुखदेखा । भा जुग जुग सुख जाइ न लेखा॥

रतनसेन सँग बरनौं, पदमावति क बियाह॥

मंदिर बेगि सँवारा, मादर तूर उछाह॥24॥

(1) करहु मुख=हाथ से भी और मुख से भी। जस=जैसे ही।

(2) अवधिा सिर पहुँची=अवधिा किनारे पहुँची अर्थात् पूरी हुई। बेगि होहु=जल्दी करो।

(3) करहिं...भौंरा=हम तुम्हें सूली से ऐसा ही छेदेंगे जैसा केतकी के काँटे भौंरे का शरीर छेदते हैं। हरि=प्रत्येक। आहौं=हूँ। ओधाा=लगा, उलझा (स. आबध्द), जैसे सचिव सुसेवक भरत प्रबोधो। निज निज काज, पाय सिख ओधो॥-तुलसी। गूद=गूदा। हान=हानि। समान=समाया हुआ।
 

(4) गाढ़=संकट। देखन लागी=देखने के लिए।

(5)कर्रौअदेसू=आदेशकरताहूँ,प्रणामकरता
हूँ। चाहा= ताका। महेसी=पार्वती। हिय महेस...परदेसी=पार्वती कहती हैं कि जब महेश
इनके हृदयमेंहैं तब ये परदेसी क्यों किसी के सामने सिर झुकाएँ। तीर होइ चलै=साथ दे,
पास जाकर सहायता करे।

(6) हेरा=हेर, ताकते हैं। दसौंधाी=भाँटों की एक जाति। जिउ पर भए=प्राण देने पर उद्यत हुए।

(7) राजा=गँधार्वसेन। औंधाी=नीची। असाई=अताई (?) बेढंगा।

(8) भारत=महाभारत का सा युध्द। ओधाा=ठाना, नाँधाा। अस्टौ कुरी=अष्टकुल नाग। बसंदर=वैश्वानर, अग्नि। फरहरा=फड़क उठे। अत्रा=अस्त्रा। लाग गोहारी=सहायता के लिए दौड़ा। नवौ नाथ=गोरखपंथियों के नौ नाथ। चौरासी सिध्द=बौध्द वज्रयान योगियों के चौरासी सिध्द।

(9) अभाऊ=आदर भाव न जाननेवाला, अशिष्ट, बेअदब। बरम्हाऊ=बरम्हाव, आशीर्वाद। बासू=बासुकी। माँगौं धारि केसा=बाल पकड़कर बुला मँगाऊँ।

(10) बरिवंडा=बलवंत, बली। तपै=पकाता (था)। सूक=शुक्र। सुमंता=मंत्राी। मसिआरा=मसियार, मशालची। बार=द्वार। बहारा करै=झाडू देता था। सपने काँधाा=जिसे उसने स्वप्न में भी कुछ समझा। काँधाा=माना, स्वीकार किया। ओछ=छोटा।

(11) सहुँ=सामने। अरगला=(सं. अर्गल) रोक, टेक, अड़। नसेनी=सीढ़ी। भेंटि जेहि कढ़ै=जिससे इनाम निकले। बरम्हावसि=आशीर्वाद देता है। काह छरै अस पावा=ऐसा छल करने से तू क्या पाता है। चितभंग=विक्षेप।

(12) परे नहिं गाजा=चाहे वज्र ही न पड़े। महापातर=महापात्रा (पहले भाँटों की पदवी होती थी)।

(13) भाँट करा=भाँट के समान, भाँट की कला धाारण करके।

(14) ओहट=ओट, हट परे।

(15) मेले=जुटे। उरए=उत्साह या चाव से भरे (उराव=उत्साह, हौसला)। माल=मल्ल, पहलवान। दर=दल। झुरमुट=ऍंधोरा। होइ बीता=हुआ चाहता है। चढ़ि जो रहै=जो अग्रसर होकर बढ़ता है। अगमन=आगे। अचंभौ=अद्भुत व्यापार।

(16) अस कै=इस प्रकार। जूह=यूथ। जस=जैसे ही। तस=तैसे हो। बगमेल=सवारों की पंक्ति। अगसारी=अग्रसर, आगे। भँवत=चक्कर खाते हुए। ऍंतरीख=अंतरिक्ष, आकाश। लीखा=लिख्या, एक मान जो पोस्ते के दाने के बराबर माना जाता है। खोज=पता, निशान। रोज=रोदन, रोना।

(17) ईसर=महादेव। मृदमंडा=धूल से छा गया। फिरि=विमुख होकर। बारि=कन्या।

(18) बसीठी= दूत कर्म। पहिले करुइ जो पहले कड़वी थी। परवाँनहु=प्रमाण मानो। काँधौ=अंगीकार करता है, स्वीकार करता है। परीख=परखता है।

(19) रूसा=रुष्ट। साँती=शांति। फुलवार=प्रफुल्ल। रहस=आनंद।

(20) होहु न ...भोजा=तुम विक्रम के समान भूल न करो। (कहानी प्रसिध्द है कि एक सूए ने राजा विक्रम को दो अमृतफल यह कहकर दिए कि जो यह फल खाएगा वह बुङ्ढे से जवान हो जाएगा। राजा ने फल रख छोड़े। संयोग से एकफल में साँप के दाँत लग गए। वही फल परीक्षा के लिए एक कुत्तो को खिलाया गया और वह मर गया। राजा ने क्रुध्द होकर सूए को मरवा डाला और बचे हुए दूसरे फल को बगीचे में फेंकवादिया।उसफल को एक बुङ्ढे माली ने उठाकर खा लिया और वह जवान हो गया। इस पर विक्रम बहुत पछताया)। रतमुही=लाल मुँहवाली।

(21) तप कसा=तप में शरीर को कसा। पति=स्वामी। निदोषहि=बिना दोष के। बाजा=पहुँचा। सरि=बराबरी। सँवरौं विक्रम बात=विक्रम के समान जो राजा गंधार्वसेन है उसके कोप का स्मरण करता हूँ; ऊपर कह आया है कि 'होहु न राजा बिक्रम भोजा।'

(22) साखी=साक्षी। मुद्रा स्रवन...चाँपा=विनयपूर्वक कान की मुद्रा को पकड़ा। चाँपा=दबाया, थामा। झाँपा=ढका हुआ। काटर =कट्टर। तुखारू=घोड़ा। तुरय=घोड़ा। छतीसौ कुरी=छतीसौ कुल के क्षत्रिाय।

(23) 'अस्ति अस्ति=हाँ हाँ, वाह वाह! बरोक=बरच्छा, फलदान। जयमारा=जयमाल। केवा=कमल (सं. कुव)। उनाहिं=उन्हीं के (मंगलाचार के लिए)।

(24) काह सो जुगुति...आना=दूसरे उत्तार के लिए क्या युक्ति है? लीन्ह उतारि...जोगू=रत्नसेन जिसके लिए ऐसा योग साधा रहा था उसे स्वर्ग से उतार लाया। मारै लीन्ह=मार ही डाला चाहते थे (अवधाी)। न दूसर कहा-पर दूसरी बात मुँह से न निकली। छेवा=(दु:ख) झेला, डाला (सं. क्षेपण) अथवा खेला।


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