रतनसेन गए अपनी सभा । बैठे पाट जहाँ अठख्रभा॥
आइ मिले चितउर के साथी । सबै बिहँसि के दीन्ही हाथी॥
राजा कर भल मानहु भाई । जेइ हम कहँ यह भूमि देखाई॥
हम कहँ आनत जौ न नरेसू । तौ हम कहाँ, कहाँ यह देसू॥
धानि राजा तुइँ राज बिसेखा । जेहि के राज सबै किछु देखा॥
भोग बिलास सबै किछु पावा । कहाँ जीभ जेहि अस्तुति आवा?
अब तुम आइ ऍंतरपट साजा । दरसन कहँ न तपावहु राजा॥
नैन सेराने भूखि गइ, देखे दरस तुम्हार।
नव अवतार आजु भा, जीवन सफल हमार॥1॥
हँसि कै राज रजायसु दीन्हा । मैं दरसन कारन एत कीन्हाँ॥
अपने जोग लागि अस खेला । गुरु भएउँ आपु, कीन्ह तुम्ह चेला॥
अहक मोरि पुरुषारथ देखेहु । गुरु चीन्हि कै जोग बिसेखेहु॥
जौ तुम्ह तप साधाा मोहिं लागी । अब जिनि हिये होहु बैरागी॥
जो जेहि लागि सहै सप जोगू । सो तेहि के सँग मानै भोगू॥
सोरह सहस पदमावति माँगी । सबै दीन्हि, ननहिं काहुहि खाँगी॥
सब कर मंदिर सोने साजा । सब अपने अपने घर राजा॥
हस्ति घोर औ कापर, सबहिं दीन्ह नव साज।
भए गृही औ लखपती, घर घर मानहुँ राज॥2॥
(1) हाथी दीन्ही=हाथ मिलाया। भल मानहु=भला मनाओ, एहसान मानो। ऍंतरपट साजा=ऑंख की ओट में हुए। तपावहु=तरसाओ। सेराने=ठंढे हुए।