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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम नागमती-संदेश खंड पीछे     आगे

फिरि फिरि रोव कोइ नहिं डोला । आधाी राति बिहंगम बोला॥

'तू फिरि फिरि दाहै सब पाँखी । केहि दुख रैनि न लावसि ऑंखी'॥

नागमती कारन कै रोई । का सोवै जो कंत बिछोई॥

मनचित हुँते न उतरै मोरे । नैन क जल चुकि रहा न मोरे॥

कोइ न जाइओहि सिंघलदीपा । जेहि सेवाति कहँ नैना सीपा॥

जोगी होइ निसरा सो नाहू । तब हुँत कहा सँदेस न काहू॥

निति पूछौं सब जोगी जंगम । कोइ न कहै निज बात बिहंगम॥

चारिउ चक्र उजार भए, कोइ न सँदेसा टेक।

कहौं बिरह दुख आपन, बैठि सुनहु दँड एक॥1॥

तासौं दुख कहिए, हो बीरा । जेहि सुनि कै लागै पर पीरा॥

को होइ भिउँ ऍंगवै परदाहा । को सिंघल पहुँचावै चाहा?

जहँवाँ कंत गए होइ जोगी । हौ किंगरी भइ झूरि बियोगी॥

वै सिंगी पूरी, गुरु भेंटा । हौं भइ भसम, न आइ समेटा॥

कथा जो कहै आइ ओहि केरी । पाँवरि होउँ, जनम भर चेरी॥

ओहि के गुन सँवरत भइ माला । अबहुँ न बहुरा उड़िगा छाला॥

बिरह गुरु, खप्पर कै हीया । पवन अधाार रहै सो जीया॥

हाड़ भए सब किंगरी, नसै भईं सब ताँति।

रोवँ रोवँ ते धाुनि उठै, कहौं बिथा केहि भाँति?॥2॥

पदमावति सौं कहेउ बिहंगम । कंत लोभाइ रही करि संगम॥

तू घर घरनि भइ पिउ हरता । मोहि तन दीन्हेसि जप औ बरता॥

रावट कनक सो तोकहँ भएउ । रावट लंक मोहि कै गएऊ॥

तोहि चैन सुख मिलै सरीरा । मो कहँ हिये दुंद दुख पूरा॥

हमहुँ बियाही संँग ओहि पीऊ । आपुहि पाइ जानु पर जीऊ॥

हमहुँ मया करु, करु जिउ फेरा । मोहिं जियाउ कंत देइ मेरा॥

मोहिं भोग सौं काज न बारी । सौंह दीठि कै चाहनहारी॥

सवति न होहि तू बैरिनि, मोर कंत जेहि हाथ।

आनि मिलाव एक बेर, तोर पाँय मोर माथ॥3॥

रतनसेन कै माइ सुरसती । गोपीचंद जसि मैनावती॥

ऑंधारि बूढ़ि होइ दुख रोवा । जीवन रतन कहाँ दहुँ खोवा॥

जीवन अहा लीन्हसौ काढ़ी । भइ बिनु टेक, करै को ठाढ़ी?

बिनु जीवन भइ आस पराई । कहाँ सो पूत खंभ होइ आई॥

नैन दीठ नहिं दिया बराहीं । घर ऍंधिायार पूत जौ नाहीं॥

को रे चलै सरवन के ठाऊँ । टेक देह औ टेकै पाऊँ॥

तुम सरवन होइ काँवरि सजा । डार लाइ अब काहे तजा?

'सरवन! सरवन!' ररि मुई, माता काँवरि लागि।

तुम्ह बिनु पानि न पावै, दसरथ लावै आगि॥4॥

लेइ सो सँदेस बिहंगम चला । उठी आगि सगरौं सिंघला॥

बिरह बजागि बीच को ठेघा? । धाूम सो उठा साम भए मेघा॥

भरिगा गगन लूक अस छूटे । होइ सब नखत आइ भुइँ टूटे॥

जहँ जहँ भूमि जरी भा रेहू । बिरह के दाघ भई जनु खेहू॥

राहु केतु, जब लंका जारी । चिनगी उड़ी चाँद महँ परी॥

जाइ बिहंगम समुद डफारा । जरे मच्छ पानी भा खारा॥

दाधो बन बीहड़, जड़, सीपा । जाइ निअर भा सिंघलदीपा॥

समुद्र तीर एक तरिवर, जाइ बैठ तेहि रूख।

जौ लगि कहा सँदेस नहिं, नहिं पियास, नहिं भूख॥5॥

रतनसेन बन करत अहेरा । कीन्ह ओही तरिवर तर फेरा॥

सीतल बिरिछ समुद के तीरा । अति उतंग औ छाँह गँभीरा॥

तुरय बाँधिा कै बैठ अकेला । साथी और करहिं सब खेला॥

देखत फिरै सो तरिवर साखा । लाग सुनै पंखिन्ह कै भाखा॥

पंखिन महँ सो बिहंगम अहा । नागमती जासौं दुख कहा॥

पूछहिं सबै बिहंगम नामा । आहो मीत! काहे तुम सामा?॥

कहेसि मीत! मासक दुह भए । जंबूदीप तहाँ हम गए॥

नगर एक हम देखा, गढ़ चितउर ओहि नाँव।

सो दुख कहौं कहाँ लगि, हम दाढ़े तेहि ठाँव॥6॥

जोगी होइ निसरा सो राजा । सून नगर जानहु धाुँधा बाजा॥

नागमती है ताकरि रानी । जरी बिरह भइ कोइल बानी॥

अब लगि जरि भइ होइहि छारा । कही न जाइ बिरह कै झारा॥

हिया फाट वह जबहीं कूकी । परै ऑंसु अब होइ होइ लूकी॥

चहँ खंड छिटकी वह आगी । धारती जरति गगन कहँ लागी॥

बिरह दवा को जरत बुझावा । जेहि लागै सो सौहैं भावा॥

हौं पुनि तहाँ सो दाढ़ै लागा । तन भा साम जीउ लेइ भागा॥

का तुम हँसहु गरब कै, करहु समुद महँ केलि।

मति ओहि बिरहा बस परै, दहै अगिनि जो मेलि'॥7॥

सुनि चितउर राजा मन गुना । बिधिा सँदेस मैं कासौं सुना॥

को तरिवरि पर पंखी बेसा । नागमती कर कहै सँदेसा?

को तुँ मीत मन-चित्ता-बसेरू । देब कि दानव पवन पखेरू?

ब्रह्म बिस्नु बाचा है तोही । सो निज बात कहै तू मोही॥

कहाँ सो नागमती तैं देखी । कहेसि बिरह जग मनहिं बिसेखी॥

हौं सोई राजा भा जोगी । जेहि कारन वह ऐसि बियोगी॥

जस तूँ पंखि महूँ दिन भरौं । चाहौं कबहि जाइ उड़ि परौं॥

पंखि! ऑंखि तेहि मारग, लागी सदा रहाहिं।

कोइ न सँदेसी आवहि, तेहि क सँदेस कहाँहि॥8॥

पूछसि कहा सँदेस बियोगू । जोगी भए न जानसि भोगू॥

दहिने संख न, सिंगी पूरै । बाएँ पूरि राति दिन झूरै॥

तेलि बैल जस बावँ फिराई । परा भँवर महँ सो न तिराई॥

तुरय, नाव, दहिने रथ हाँका । बाएँ फिरै कोहाँर क चाका॥

तोहिं अस नाहीं पंखि भुलाना । उड़ै सो आव जगत महँ जाना॥

एक दीप का आएउँ तोरे । सब संसार पाँय तर मोरे॥

दहिने फिरै सो अस उजियारा । जस जग चाँद सुरुज मनियारा॥

मुहमद बाइँ दिसि तजा, एक स्रवन एक ऑंखि।

जब तें दाहिन होइ मिला, बोल पपीहा पाँखि॥9॥

हौं धाुव अचल सौं दाहिनि लावा । फिरि सुमेरु चितउर गढ़ आवा॥

देखेउँ तोरे मँदिर घमोई । मातु तारि ऑंधारि भइ रोई॥

जस सरवन बिनु अंधाी अंधाा । तस ररि मुई तोहि चित बंधाा॥

कहेसि मरौं, को काँवरि लेई ? पूत नाहिं, पानी को देई?

गई पियास लागि तेहि साथा । पानि दीन्ह दसरथ कै हाथा॥

पानि नि पियै, आगि पै चाहा । तोहि अस सुत जनमे अस लाहा॥

होइ भगीरथ करु तहँ फेरा । जाहि सवार, मरन कै बेरा॥

तू सपूत माता कर, अस परदेस न लेहि।

अब ताइँ मुइ होइहि, मुए जाइ गति देहि॥10॥

नागमती दुख बिरह अपारा । धारती सरग जरै तेहि झारा॥

नगर कोट घर बाहर सूना । नौजि होइ घर पुरुष बिहूना॥

तू काँवरू परा बस टोना । भूला जोग, छरा तोहि लोना॥

वह तोहि कारन मरि भइ छारा । रही नाग होइ पवन अधाारा॥

कहुँ बोलहि 'मो कहँ लेइ खाहूँ' । मांसु न, काया रचै जो काहू॥

बिरह मयूर नाग, वह नारी । तू मजार करु बेगि गोहारी॥

माँसु गिरा, पाँजर होइ परी । जोगी! अबहुँ पहुँच लेइ जरी॥

देखि बिरह दुख ताकर, मैं सो तजा बनबास।

आएउँ भागि समुद्रतट, तबहुँ न छाड़ै पास॥11॥

अस परजरा बिरह कर गठा । मेघ साम भए धाूम जो उठा॥

दाढ़ा राहु, केतु गा दाधाा । सूरज जरा चाँद जरि आधाा॥

औ सब नखत तराईं जरहीं । टूटहिं लूक धारति महँ परहीं॥

जरै सो धारती ठावहिं ठाऊँ । दहकि पलास जरै तेहि दाऊँ॥

बिरह साँस तस निकसै झारा । दहि दहि परबत होहिं ऍंगारा॥

भँवर पतंग जरैं औ नागा । कोइल, भुजइल, डोमा कागा॥

बन पंखी सब जिउ लेइ उड़े । जल महँ मच्छ दुखी होइ बुड़े॥

महूँ जरत तहँ निकसा, समुद बुझाएउँ आइ।

समुद पानि जरि खर भा, धाुऑं रहा जग छाइ॥12॥

राजै कहा, रे सरग,सँदेसी । उतरि आउ मोहि मिलु रे बिदेसी॥

पाय टेकि तोहि लायौं हियरे । प्रेम सँदेस कहहु होइ नियरे॥

कहा बिहंगम जो बनबासी । कित गिरही तं होइ उदासी?

जेहि तरिवर तर तुम अस कोऊ । कोकिल काग बराबर दोऊ॥

धारती महँ विषचारा परा । हारिल जानि भूमि परिहरा॥

फिरौं बियोगी डारहिं डारा । करौं चलै कहँ पंख सँवारा॥

जियै क घरी घटति निति जाहीं । साँझहिं जीउ रहै, दिन नाहीं॥

जौ लहि फिरौ। मुकुत होइ, परौं न पींजर माँह।

जाऊँ बेगि थल आपने, है जेहि बीच निबाह॥13॥

कहि संदेस बिहंगम चला । आगि लागि सगरौं सिंघला॥

घरी एक राजा गोहरावा । भा अलोप, पुनि दिस्टि न आवा॥

पंखी नाव न देखा पाँखा । राजा होइ फिरा कै साँखा॥

जस हेरत वह पंखि हेराना । दिन एक हमहूँ करब पयाना॥

जौ लगि प्रान पिंडएक ठाऊँ । एक बार चितउर गढ़ जाऊँ॥

आवा भँवर मँदिर महँ केवा । जीउ साथ लेइ गएउ परेवा॥

तन सिंघल मन चितउर बसा । जिउ बिसँभर नागिनि जिमि डसा॥

जेति नारि हँसि पूँछहीं, अमिय बचन जिउ तंत।

रस उतरा बिष चढ़ि रहा, ना ओहि तंत न मंत॥14॥

बरिस एक तेहि सिंघल भएऊ । भोग बिलास करत दिन गयऊ॥

भा उदास जौ सुना सँदेसू । सँबरि चला मन चितउर देसू॥

कँवल उदास जो देखा भँवरा । थिर न रहै अब मालति सँवरा॥

जोगी, भँवरा, पवन परावा । कित सो रहै जो चित्ता उठावा॥

जौ पै काढ़ि देइ जिउ कोई । जोगी भँवर न आपन होई॥

तजा कँवल मालति हिय घाली । अब हित थिर आछै अलि, आली॥

गंधा्रबसेन आव सुनि बारा । कस जिउ भएउ उदास तुम्हारा?

मैं तुम्हही जिउ लावा, दीन्ह नैन महँ वास।

जौ तुम होहु उदास तौ, यह काकर कविलास?॥15॥

(1) कारन कै=करुणा करके (अवधा)। तब हुँत=तब से। टेक=ऊपर लेता है।

(2) बीरा=भाई। भिउँ=भीम। ऍंगवै=अंग पर सहे। चाहा=खबर। पाँवरि=जूती।

(3) घर=अपने घर में ही। घरनि=घरवाली, गृहिणी। रावट=महल। लंक=जलती हुई लंका। चाहनहारी=देखनेवाली।

(4) खंभ=सहारा। बराहीं=जलते हैं। सरवन='श्रवणकुमार' जिसकी कथा उत्तारापथ में घर-घर प्रसिध्द है। एक प्रकार के भिखमंगे सरवन की मातृ-पितृ-भक्ति की कथा करताल बजाकर गाते फिरते हैं। यह कथा वाल्मीकि रामायण में दशरथ ने अपने मरने से पहले कौशल्या से कही है। दशरथ ने युवावस्था में शिकार खेलते समय एक वृध्द तपस्वी केपुत्राकोहाथी के धाोखे में मार डाला था। वह मुनिपुत्रा अंधो वृध्द माता-पिता के लिए पानी लेने आया था। वृध्द मुनि ने दशरथ को शाप दिया कि तुम भी पुत्रावियोग में मरोगे। दशरथ का नाम न देकर यही कथा बौध्दों के 'सामजातक' में भी आई है। पर उसमें अंधो मुनि बुध्द के पूर्ण उपासक कहे गएहैं और उनके जी उठने की बात है। रामायण में 'श्रवणकुमार' शब्द नहीं आया है, केवल मुनिपुत्रा लिखा है। पर इस कथा का प्रचार बौध्दों में अधिाक हुआ, इसी से यह 'सरवन' अर्थात् श्रमण (बौध्द भिक्षु) की कथा के नाम से ही देश में प्रसिध्द है। 'सरवन' के गीत गानेवाले आरंभ में एक प्रकार के बौध्द भिक्षु ही थे। इसका आभास इस बात से मिलता है कि सरवन के गीत गानेवालोंके लिए अभी थोड़े दिन पहले तक यह नियम था कि वे दिन निकलने के पीछे न माँगा करें, मुँहऍंधोरे ही माँग लिया करें। काँवरि=बाँस के डंडे के दोनों छोरों पर बँधो हुए झाबे, जिनमें तीर्थयात्राी लोग गंगाजल आदि लेकर चला करते हैं (सरवन अपने माता-पिता को काँवरि में बैठाकर ढोया करते थे)।

(5) ठेघा=टिका, ठहरा। डफारा=चिल्लाया।

(7) धाुँधा बाजा=धाुंधा या अंधाकार छाया। बानी=वर्ण की। भइ होइहि= हुई होगी। झारा=ज्वाला। लूकी=लुक। दवा=दावाग्नि।

(8) बसेरू=बसनेवाला। दिन भरौं=दिन बिताता हूँ। महूँ=मैं भी।

(9) दहिने संख=दक्षिणावर्त शंख नहीं फूँकता। झूरै=सूखता है। तिराई=पानी के ऊपर आता है। तोहिं पास...भुलाना=पक्षी तेरे ऐसा नहीं भूले हैं, वे जानते हैं कि हम उड़ने के लिए इस संसार में आए हैं। मनियार=रौनक, चमकता हुआ। मुहमद बाईं...ऑंखि=मुहम्मद कवि ने बाईं ओर ऑंख और कान करना छोड़ दिया (जायसी काने थे भी) अर्थात् वाम मार्ग छोड़कर दक्षिण मार्ग का अनुसरण किया। बोल=कहलाता है।

(10) दाहिन लावा=प्रदक्षिणा की। घमोई=सत्यानासी सा भँड़भाँड़ नामक कँटीला पौधाा जो खंडहरों या उजड़े मकानों में प्राय: उगता है। सवार=जल्दी।
 

(11) नौजि=न, ईश्वर न करे (अवधा)। काँवरू=कामरूप में, जो जादू के लिए प्रसिध्द है। लोना=लोना चमारी जो जादू में एक थी। मजार=बिल्ली। जरी=जड़ी-बूटी।

(12) परजरा=प्रज्वलित हुआ, जला। गठा=गट्ठा, ढेर। दाऊँ=दावाग्नि। भुजइल=भुजंगा नाम का काला पक्षी। डोमा कागा=बड़ा कौआ जो सर्वांग काला होता है।

(13) सरग सँदेसी=स्वर्ग से (ऊपर से) सँदेसा कहने वाला। गिरही=गृह। हारिल...परिहरा=कहते हैं, हारिल भूमि पर पैर नहीं रखता, चंगुल में सदा लकड़ी लिये रहता है जिससे पैर भूमि पर न पड़े। चलै कहाँ=चलने के लिए।

(14) गोहरावा=पुकारा। साँखा=शंका चिंता। पिंड=शरीर। मंदिर महँ केवा=कमल (पदमावती) के घर में। विसंभर=बेसँभाल, सुधा, बुधा भूला हुआ। जेति नारि=जितनी स्त्रिायाँ हैं सब। जिउ तंत=जी की बात (तत्तव)।

(15) परावा=पराए, अपने नहीं। चित्ता उठावा=जाने का संकल्प या विचार किया। हिय घाली=हृदय में लाकर।



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