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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम नागमती-पदमावती-विवाद खंड पीछे     आगे

जाही जूही तेहि फुलवारी । देखि रहस रहि सकी न बारी॥

दूतिन्ह बात न हिये समानी । पदमावति पहँ कहा सो आनी॥

नागमती है आपनि बारी । भँवर मिला रस करै धामारी॥

सखी साथ सब रहसहिं कूदहिं । औं सिंगार हार सब गूँथहिं॥

तुम जो बकावरि तुम सौं भरना । बकुचन गहै चहै जो करना॥

नागमती नागेसरि नारी । कँवल न आछै आपनि बारी॥

जस सेबतीं गुलाल चमेली । तैसि एक जनु बहू अकेली॥

अलि जो सुदरसन कूजा, कित सदबरगै जोग?

मिला भँवर नागेसरिहि, दीन्ह ओहि सुख भोग॥11॥

सुनि पदमावति रिस न सँभारी । सखिन्ह साथ आई फुलवारी॥

दुवौ सबति मिलि पाट बईठी । हिय विरोधा, मुख बातैं मीठी॥

बारी दिस्टि सुरँग सो आई । पदमावति हँसि बात चलाई॥

बारी सुफल अहै तुम रानी । है लाई, पै लाइ न जानी॥

नागेसर औ मालति जहाँ । सँगतराव नहिं चाही तहाँ॥

रहा जो मधाुकर कँवल पिरीता । लाइउ आनि करीलहि रीता॥

जहँ अमिलीं पाकै हिय माहाँ । तहँ न भाव नौरँग के छाहाँ॥

फूल फूल जस फर जहाँ, देखेहु हिये विचारि।

ऑंब लाग जेहि बारी, जाँबु काह तेहि बारि?॥2॥

अनु, तुम कही नीक यह सोभा । पै फल सोइ भँवर जेहि लोभा॥

साम जाँबु कस्तूरी चोवा । ऑंब ऊँच हिरदय तेहि रोवाँ॥

तेहि गुन अस भइ जाँबु पियारी । लाई आनि माँझ कै बारी॥

जल बाढ़े बहि इहाँ जो आई । है पाकी अमिली जेहि ठाई॥

तूँ कस पराई बारी दूखी । तजा पानि धााई मुँह सूखी॥

उठै आगि दुइ डार अभेरा । कौन साथ तहँ बेरी केरा॥

जो देखा नागेसर बारी । लगे मरै सब सूआ सारी॥

जो सरवर जल बाढ़ै, रहै सो अपने ठाँव।

तजि कै सर औ कुंडहि जाइ न पर ऍंवराव॥3॥

तुइँ ऍंबराव लीन्ह का जूरी? । काहे भई नीम विषमूरी॥

भई बैरि कित कुटिल कटैली । तेंदू टेंटी चाहि कसैली॥

दारिउँ दाख तोरि फुलवारी । देखि मरहिं का सूआ सारी?॥

औ न सदाफर तुरँज जँभीरा । लागे कटहर बड़हर खीरा॥

कँवल के हिरदय भीतर केसर । तेहि न सरि पूजै नागेसर॥

जहँ कटहर ऊमर को पूछैं? । बर पीपर का बोलहिं छूँछैं॥

जो फल देखा सोई फीका । गरब न करहिं जानि मन नीका॥

रहु आपनि तू बारी, मो सौं जुझु, न बाजु।

मालति उपम न पूजै, बन कर खूझा खाजु॥4॥

जो कटहर बड़हर झड़बेरी । तोहि असि नाही, कोकाबेरी!॥

साम जाँबु मोर तुरँज जँभीरा । करुई नीम तौ छाँह गँभीरा॥

नरियर दाख ओहि कहँ राखौं । गलगल जाउँ सवति नहिं भाखौं॥

तोरे कहे होइ मोरकाहा? । फरे बिरिछ कोइ ढेल न बाहा॥

नवै सदाफर सदा जो फरई । दारिउँ देखि फाटि हिय मरई॥

जयफर लौग सोपारि छोहारा । मिरिच होइ जो सहै न झारा॥

हौं सो पान रँग पूज न कोई । बिरह जो जरै चून जरि होई॥

लालहिं बूड़ि मरसि नहिं, ऊभि उठावसि बाँह।

हौं रानी, पिय राजा, तो कहँ जोगी नाह॥5॥

हौं पदमावति मानसर केवा । भँवर मराल करहिं मोरि सेवा॥

पूजा जोग दई हम्ह गढ़ी । औ महेस के माथे चढ़ी॥

जानै जगत कँवल के करी । तोहि असि नहिं नागिनि बिष भरी॥

तुइँ सब लिए जगत कै नागा । कोइल भेस न छाँड़ेसि कागा॥

तू भुजइल, हौं हंसिनि भोरी । मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी॥

कंचन करी रतन नग बाना । जहाँ पदारथ सोह न आना॥

तू तौ राहु, हौं ससि उजियारी । दिनहि न पूजै निसि ऍंधिायारी॥

ठाढ़ि होसि जेहि ठाईं, मसि लागै तेहि ठावँ्।

तेहि डर राँधा न बैठौं, मकु साँवरि होइ जावँ॥6॥

कँवल सो कौन सोपारी रोठा । जेहि के हिये सहस दस कोठा॥

रहै न झाँपै आपन गटा । सो कित उघेलि चहै परगटा॥

कँवल पत्रा तरदारिउँ चोली । देख सूर देखि है खोली॥

ऊपर राता, भीतर पियरा । जारौं ओहि हरदि अस हियरा॥

इहाँ भँवर मुख बातन्ह लावसि । उहाँ सुरुज कहँ हँसि बहरावसि॥

सब निसि तपि तपि मरसि पियासी । भोर भए पावसि पियबासी॥

सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी । तू मोसौं का सरवरि करसी?॥

सुरुज किरिन बहरावै, सरवर लहरि न पूज।

भँवर हिया तोर पावै, धाूप देह तोरि भूँज॥7॥

मैं हौं कँवल सुरुज कै जोरी । जौ पिय आपन तौ का चोरी?॥

हौं ओहि आपन दरपन लेखौं । करौं सिंगार भोर मुख देखौं॥

मोर बिगास ओहिक परगासू । तू जरि मरसि निहारि अकासू॥

हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता । तिमिर बिलाइ होत परभाता॥

कँवल के हिरदय महँ जो गटा । हरि हर हार कीन्ह का घटा?॥

जाकर दिवस तेहि पहँ आवा । कारि रैनि कित देखै पावा॥

तू ऊमर जेहि भीतर माखी । चाहहिं उड़ै मरन के पाँखी॥

धाूप न देखहि बिषभरी, अमृत सो सर पाव।

जेहि नागिनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव॥8॥

फूल न कँवल भानु बिनु ऊए । पानी मैल होइ जरि छूए॥

फिरहिं भँवर तोरे नयनाहाँ । नीर बिसाइँधा तोहि पाहाँ॥

मच्छ कच्छ दादुर कर बासा । बग अस पंखि बसहिं तोहि पासा॥

जे जे पंखि पास तोहि गए । पानी महँ सो बिसाइँधा भए॥

जौ उजियार चाँद होइ ऊआ । बदन कलंक डोम लेइ छूआ॥

मोहि तोहि निसि दिन कर बीचू । राहू के हाथ चाँद कै मीचू॥

सहस बार जौ धाोबै कोई । तौहु बिसाइँधा जाइ न धाोई॥

काह कहौं ओहि पिउ कहँ मोहि सिर धारेसि ऍंगारि।

तेहि के खेल भरोसे, तुइ जीती, मैं हारि॥9॥

तोर अकेल का जीतिउँ हारू । मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू॥

बदन जितिउँ सो ससि उजियारी । बेनी जितिउँ भुअंगिनिकारी॥

नैनन्ह जितिउँ मिरिग के नैना । कंठ जितिउँ कोकिल के बैना॥

भौंह जितिउँ अरजुन धानुधाारी । गीउ जितिउँ तमचूर पुछारी॥

नासिक जितिउँ पुहुप तिल सूआ । सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ॥

दामिनि जितिउँ दसन दमकाहीं । अधार रंग जीतिउँ बिंबाहीं॥

केहरि जितिउँ लंक मैं लीन्हीं । जितिउँ मराल, चाल वै दीन्हीं॥

पुहुप बास मलयागिरि, निरमल अंग बसाइ।

तू नागिनि आसा लुबुधा डससि काहु कहँ जाइ॥10॥

का तोहि गरब सिंगार पराए । अबहीं लैहिं लूट सब ठाए॥

हौं साँवरि सलोन मोर नैना । सेत चीर, मुख चातक बैंना॥

नासिक खरग, फूल धाुव तारा । भौंहैं धानुक गगन गा हारा॥

हीरा दसन सेत औ सामा । छपै बीजु जौ बिहँसै बामा॥

बिद्रुम अधार रंग रस राते । जूड़ अमिय अस, रवि नहिं ताते॥

चाल गयंद गरब अति भरी । बसा लंक, नागेसर करी॥

साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी । का सरवरि तू करसि जो फीकी॥

पुहुप बास औ पवन अघारी, कवँल मोर तरहेल।

चहौं केस धारि नावौं, तोर मरन मोर खेल॥11॥

पदमावति सुनि उतर न सही । नागमती नागिनि जिमि गही॥

वह ओहि कहँ, वह ओहि कहँ गहा । काह कहौं तस जाइ नकहा॥

दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं । अछरी जनहुँ अखारे बाजैं॥

भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा । हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा॥

कुच सों कुच भइ सौंहैं अनी । नवहिं न नाए, टूटहिं तनी॥

कुंभस्थल जिमि गज मैमंता । दूवौ आइ भिरे चौदंता॥

देवलोक देखत हुत ठाढ़े । लगे बान हिय जाहिं न काढ़े॥

जनहुँ दीन्ह ठगलाडू देखि आइ तस मीचु।

रहा न कोइ धारहरिया करै दुहुँन्ह महँ बीचु॥12॥

पवन स्रवन राजा के लागा । कहेसि लड़हि पदमावति औं नागा॥

दूनौ सवति साम औ गोरी । मरहिं तौ कहँ पावसि असि जोरी॥

चलि राजा आवा तेहि बारी । जरत बुझाई दूनौ नारी॥

एक बार जेइ पिय मन बूझा । सो दुसरे सौं काहे क जूझा?॥

अस गियान मन आव न कोई । कबहूँ राति, कबहुँ दिन होई॥

धाूप छाँह दोउ पिय के रंगा । दूनौ मिली रह एक संगा॥

जूझ छाँड़ि अब बूझहु दोऊ । सेवा करहु सेव फल होऊ॥

गंग जमुन तुम नारि दोउ, लिखा मुहम्मद जोग।

सेव करहु मिलि दूनौ, तौ मानहु सुख भोग॥13॥

अस कहि दूनौ नारि मनाई । बिहँसि दोउ तब कंठ लगाई॥

लेइ दोउ संग मँदिर महँ आए । सोन पलँग जहँ रहे बिछाए॥

सीझी पाँच अमृत जेवनारा । औ भोजन छप्पन परकारा॥

हुलसीं सरस खजहजा खाई । भोग करत बिहँसीं रसनाई॥

सोन मँदिर नगमति कहँ दीन्हा । रूप मँदिर पदमावति लीन्हा॥

मंदिर रतन रतन के खंभा । बैठा राज जोहारै सभा॥

सभा सो सबै सुभर मन कहा । सोई अस जो गुरु भल कहा॥

बहु सुगंधा, बहु भोग सुख, कुरलहिं केलि कराहिं।

दुहुँ सौं केलि नित मानै, रहस अनँद दिन जाहिं॥14॥

(1) धामारी करै=होली की सी धामार या क्रीड़ा करता है। तुम जो बकावरि...भर ना=तुम जो बकावली फूल हो, क्या तुमसे राजा को जो नहीं भरता? बकुचन गहै...करना=जो वह करना फूल को पकड़ना या आलिंगन करना चाहता है। नागेसरि=नागकेसर। कँवल न आपनि बारी=कँवल (पदमावती)अपनी बारी (बगीचा, जल) या घर में नहीं है अर्थात् घर नागमती का जान पड़ता है। जस सेवतीं...चमेली=जैसे सेवती और गुलाला आदि (स्त्रिायाँ) नागमती की सेवा करती हैं वैसे ही एक पदमावती भी है। अलि जो...सदबरगै जोग=जो भँवरा सुदरसन फूल पर गूँजैगा वह सदबर्ग (गेंदा) के योग्य कैसे रह जाएगा?

(2) संगतराव=(क) सँगतरा नींबू, (ख) संगत राव, राजा का साथ। अमिलीं=(क) इमली; (ख) न मिली हुई; विरहिणी। नौरँग=(क) नारंगी, (ख) नए आमोद-प्रमोद।

(3) अनु=और। तजा पानि=सरोवर का जल छोड़ा। अभेरा=भिडंत, रगड़ा। सारी=सारिका, मैना। सरवर जल=सरोवर के जल में। बाढ़ै=बढ़ता है।

(4) तुइँ ऍंवराव...जूरी=तूने अपने अमराव में इकट्ठा ही क्या किया है? ऊमर=गूलर। न बाजु=न लड़। खूझा खाजु=खर-पतवार, नीरस फल।

(5) झड़बेरी=झड़बेर, जंगली बेर। कोकाबेरी=कमलिनी। गलगल जाऊँ (क) चाहे गल जाऊँ; (ख) गलगल नींबू। सवति नहिं भाखौं=सपत्नी का नाम न लूँ। कोई ढेल न बाहा=कोई ढेला न फेंके (उससे क्या होता है)। ऊभि=उठाकर।

(6) केवा=कमल। कागा=कौआपन। भुजइल=भुजंगा पक्षी। पोत=काँच या पत्थर की गुरिया। मसि=स्याही। राँधा=पासु समीप।

(7) रीठा=रोड़ा, टुकड़ा। जेहि के हिये...कोठा= कँवलगट्टे के भीतर बहुत से बीजकोश होते हैं। गटा=कँवलगट्टा। उघेलि=खोलकर। दारिउँ=अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है। निसि भरसी=रात बिताती है तू। करसी=तू करती है। सरवर...पूज=ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती, वह जल के ऊपर उठा रहता है। भूँज=भूनती है।

(8) हरि हर हारकीन्ह=कमल की माला विष्णु और शिव पहनते हैं। मरन के पाँखी=कीड़ों को जो पंख अंत समय में निकलते हैं।

(9) जरि=जड़, मूल। डोम छुआ=प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के ऋणी हैं; वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता है।

(10) आसा लुबुध=सुगंध की आशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं।

(11) सिंगार पराए=दूसरों से लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है। जूड़ अमिय=ताते=उन अधारों में बालसूर्य की ललाई है पर वे अमृत के समान शीतल हैं, गरम नहीं। नागेसर करी=नागेसर फूल की कली। तरहेल=नीचे पड़ा हुआ, अधाीन।

(12) बाजैं लड़ती है। बाग न मोरा=बाग नहीं मोड़तीं, अर्थात् लड़ाई से हटतीं नहीं। अनी=नोक।तनी=चोली के बंद। चौदंत स्याम देश का एक प्रकार का हाथी, अथवा थोड़ी अवस्था का उद्दंड पशु (बैल, घोड़े आदि के लिए इस शब्द का प्रयोग होता है)। ठगलाडू=ठगों के लड्डू जिन्हें खिलाकर वे मुसाफिरों को बेहोश करते हैं। धारहरिया=झगड़ा छुड़ानेवाला। बीचु करै=दोनों को अलग करे, झगड़ा मिटाए।



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