hindisamay head


अ+ अ-

कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम पद्मावती-रूप चर्चा खंड पीछे     आगे

वह पदमावति चितउर जो आनी । काया कुंदन द्वादसबानी॥

कुंदन कनक ताहि नहिं बासा । वह सुगंधा जस कँवल बिगासा॥

कुंदन कनक कठोर सो अंगा । वह कोमल, रँग पुहुप सुरंगा॥

ओहि छुइ पवन बिरिछ जेहि लागा । सोइ मलयागिरि भयउ सभागा॥

काह न मूठि भरी ओहि देही ? असि मूरति केइ दैउ उरेही?॥

सबै चितेर चित्रा कै हारे । ओहिक रूप कोइ लिखै न पारे॥

कया कपूर हाड़ सब मोती । तिन्हतें अधिाक दीन्ह बिधिा जोती॥

सुरुज किरिन जसि निरमल, तेहितें अधिाक सरीर।

सौंह दिस्टि नहिं जाइ करि नैनन्ह आवै नीर॥1॥

ससि मुख जबहिं कहै किछु बाता । उठत ओठ सूरुज जस राता॥

दसन दसन सौं किरिन जो फूटहिं । सब जग जनहुँ फुलझरीछूटहिं॥

जानहुँ असि महँ बीजु देखावा । चौंधिा परै किछु कहै न आवा॥

कौंधात अह जस भादौं रैनी । साम रैनि जनु चलै उड़ैनी॥

जनु बसंत ऋतु कोकिल बोली । सुरस सुनाइ मारि सर डोली॥

ओहि सिर सेसनाग जौ हरा । जाइ सरन बेनी होइ परा॥

जनु अमृत होइ बचन बिगासा । कँवल जो बास बास धानि पासा॥

सबै मनहि हरि जाइ मरि, जो देखै तस चार।

पहिले सो दुख बरनि के, बरनौं ओहिक सिंगार॥2॥

कित हौं रहा काल कर काढ़ा । जाइ धाौरहर तर भा ठाढ़ा॥

कित वह आइ झरोखे झाँकी । नैन कुरगिनि चितवन बाँकी॥

बिहँसी ससि तरई जनु परी । की सा रैनि छुटीं फुलझरी॥

चमक बीजु जस भादौं रैनी । जगत दिस्टि भरि रहीं उड़ैनी॥

काम कटाछ दिस्टि बिष बसा । नागिनि अलक पलक महँ डसा॥

भौंह धानुष पल काजर बूड़ी । वह भइ धाानुक हौं भा ऊड़ी॥

मारि चली मारत हू हंसा । पाछे नाग रहा हौं डँसा॥

काल घालि पाछे रखा, गरुड़ न मंतर कोइ।

मोरे पेट वह पैठा, कासौं पुकारौं रोइ?॥3॥

बेनी छोरि झार जौ केसा । रैनि होइ जग दीपक लेसा॥

सिर हुँत बिसहर परे भुइँ बारा । सगरौं देस भयउ ऍंधिायारा॥

सकपकाहिं बिष भरे पसारे । लहिर भरे लहकहिं अति कारे॥

जानहुँ लोटहिं चढ़े भुऍंगा । बेधो बास मलयगिरि अंगा॥

लुरहिं मुरहिं जनु मानहिं केली । नाग चढ़े मालति कै बेली॥

लहरै देइ जनहुँ कालिंदी । फिरि फिरि भँवर होइ चित बंदी॥

चँवर ढुरत आछै चहुँ पासा । भँवर न उड़हिं जो लुबुधो बासा॥

होइ ऍंधिायार बीजु धान, लोपै जबहि चीर गहि झाँप।

केस नाग कित देख मैं, सँवरि सँवरि जिय काँप॥4॥

माँग जो मानिक सेंदुर रेखा । जनु बसंत राता जग देखा॥

कै पत्राावलि पाटी पारी । औ रुचि चित्रा बिचित्रा सँवारी॥

भए उरेह पुहुप सब नामा । जनु बग बिखरि रहे घन सामा॥

जमुना माँझ सुरसती मंगा । दुहुँ दिसि रही तरंगिनि गंगा॥

सेंदुर रेख सो ऊपर राती । बीरबहूटिन्ह कै जसि पाँती॥

बलि देवता भए देखि सेंदूरू । पूजै माँग भोर उठि सूरू॥

भोर साँझ रबि होइ जो राता । ओहि रेखा राता होइ गाता॥

बेनी कारी पुहुप लेइ, निकसी जमुना आइ॥

पूज इंद्र आनंद सौं, सेंदुर सीस चढ़ाइ॥5॥

दुइज लिलाट अधिाक मनियारा । संकर देखि माथ तहँ धाारा॥

यह निति दुइज जगत सब दीसा । जगत जोहारै देइ असीसा॥

ससि जो होइ नहिं सरवरि छाजै । होइ सो अमावस छपि मनलाजै॥

तिलक सँवारि जो चुन्नी रची । दुइज माँझ जानहुँ कचपची॥

ससि पर करवत सारा राहू । नखतन्ह भरा दीन्ह बड़ दाहू॥

पारस जोति लिलाटहि ओती । दिस्टि जो करै होइ तेहि जोती॥

सिरी जो रतन माँग बैठारा । जानहु गगन टूट निसितारा॥

ससि औ सूर जो निरमल, तेहि लिलाट के ओप।

निसि दिन दौरि न पूजहिं पुनि पुनि होहिं अलोप॥6॥

भौंहै साम धानुक जनु चढ़ा । बेझ करै मानुष कहँ गढ़ा॥

चंद क मूठि धानुक वह ताना । काजर पनच बरुनि विष बाना॥

जा सहुँ हेर जाइ सो मारा । गिरिवर टरहिं भौंह जो टारा॥

सेतुबंधा जेइ धानुष बिड़ारा । उहौ धानुष भौंहन्ह सौं हारा॥

हारा धानुष जा बेधाा राहू । और धानुष कोइ गनै न काहू॥

कित सो धानुष मैं भौंहन्ह देखा । लाग बान तिन्ह आउ न लेखा॥

तिन्ह बानन्ह झाँझर भा हीया । जा अस मारा कैसे जीया?॥

सूत सूत तन बेधाा, रोवँ रोवँ सब देह।

नस नस महँ ते सालहिं, हाड़ हाड़ भए बेह॥7॥

नैन चित्रा एहि रूप चितेरा । कँवल पत्रा पर मधाुकर फेरा॥

समुद तरंग उठहिं जनु राते । डोलहि औ धाूमहिं रस माते॥

सरद चंद मह खंजन जोरी । फिरि, फिरि लरै बहोरि बहोरी॥

चपल बिलोल डोल उन्ह लागे । थिर न रहै चंचल बैरागे॥

निरखि अघाहिं न हत्या हुँते । फिरि फिरि òवनन्ह लागहिं मते॥

अंग सेत मुख साम सो ओही । तिरछे चलहिं सूधा नहिं होहीं॥

सुर नर गंधा्रब लाल कराहीं । उलब चलहिं सरग कह जाहीं॥

अस वै नयन चक्र दुइ, भँवर समुद उलथाहिं।

जनु जिउ घालि हिंडोलहिं, लेइ आबहिं लेइ जाहिं॥8॥

नासिक खड़ग हरा धानि कीरू । जोग सिंगार जिता औ बीरू॥

ससि मुँह सीहँ खड्ग देइ रामा । रावन सौं चाहै संग्रामा॥

दुहुँ समुद्र महँ जनु बिच नीरू । सेतुबंधा बाँधाा रघुबीरू॥

तिल के पुहुप अस नासिक तासू । औ सुगंधा दीन्हीं बिधिा बासू॥

हीर फूल पहिरे उजियारा । जनहुँ सरद ससि सोहिल तारा॥

सोहिल चाहि फूल वह ऊँचा । धाावहिं नखत न जाइ पहूँचा॥

न जनौं कैस फूल वह गढ़ा । बिगसि फूल सब चाहहिं चढ़ा॥

अस वह फूल सुबासित, भयउ नासिका बंधा।

जेत फूल ओहि हिरकहिं तिन्ह कहँ होइ सुगंधा॥9॥

अधार सुरंग पान अस खीने । राते रंग अमिय रस भीने॥

आछहिं भिजे तँबोल सौं राते । जने गुलाल दीसहिं बिहँसाते॥

मानिक अधार दसन जनु हीरा । बैन रसाल खाँड़ मुख बीरा॥

काढ़े अधार डाभ जिमि चीरा । रुहिर चुवै जौ खाँड़ै बीरा॥

ढारै रसहि रसहि रस गीली । रबत भरी औ सुरँग रँगीली॥

जनु परभात राति रवि रेखा । बिगसे बदन कँवल जनु देखा॥

अलक भुअंगिनि अधार¯ह राखा । गहै जो नागिनि सो रस चाखा॥

अधार अधार रस प्रेम कर, अलक भुअंगिनि बीच।

तब अमृत रस पावै, जब नागिनि गहि खींच॥10॥

दसन साम पानन्ह रँग पाके । बिगसे कँवल माँह अलि ताके॥

ऐसि चमक सुख भीतर होई । जनु दारिउँ औ साम मरोई॥

चमकहिं चौक विहँस जौ नारी । बीजु चमक जस निसि ऍंधिायारी॥

सेत साम अस चमकतदीठी । नीलम हीरक पाँति बईठी॥

केइ सो गढ़े अस दसन अमोला । मारै छीजु बिहँसि जो बोला॥

रतन भीजि रस रँग भए सामा । ओही छाज पदारथ नामा॥

कित वै दसन देख रस भीने । लेइ गइ जोति नैन भए हीने॥

दसन जोति होइ नैन मग, हिरदय माँझ पईठ।

परगट जग ऍंधिायार जनु, गुपुत ओहि मैं दीठ॥11॥

रसना सुनहु जो कह रस बाता । कोकिल बैन सुनत मन राता॥

अमृत कोंप जीभ जनु लाई । पान फूल असि बात सोहाई॥

चातक बैन सुनत होइ साँती । सुनै सो परै प्रेम मधाु माती॥

बिरवा सूख पाव जस नीरू । सुनत बैन तस पलुह सरीरू॥

बोल सेवाति बूँद जनु परहीं । òवन सीप मुख मोती भरहीं॥

धानि वै बैन जो प्रान अधाारू । भूले òवनहिं देहिं अहारू॥

उन्ह बैनन्ह कै काहि न आसा । मोहहि मिरिग बीन बिस्वासा॥

कंठ सारदा मोहै, जीभ सुरसती काह।

इंद्र चंद्र रवि देवता, सबै जगत मुख चाह॥12॥

òवन सुनहु जो कुंदन सीपी । पहिरे कुंडल सिंघलदीपी॥

चाँद सुरुज दुहुँ दिसि चमकाहीं । नखतन्ह भरे निरखि नहिं जाहीं॥

खिन खिन करहिं बीजु अस काँपा । ऍंवर मेघ महँ रहहिं नझाँपा॥

सूक सनीचर दुहुँ दिसि मते । होहि निनार न òवनन्ह हुँते॥

काँपत रहहिं बोल जो बैना । òवनन्ह जौ लागहिं फिर नैना॥

जस जस बात सखिन्ह सौं सुना । दुहुँ दिसि करहिं सीस वै धाुना॥

खूँट दुवौ अस दमकहिं खूँटी । जनहु परै कचपचिया टूटी॥

वेद पुरान ग्रंथ जत, òवन सुनत सिखि लीन्ह।

नाद विनोद राग रस बंधाक, òवन ओहि बिधिा दीन्ह॥13॥

कँवल कपोल ओहि अस छाजै । और न काहु दैउ अस साजै॥

पुहुप पंक रस अमिय सँवारे । सुरँग गेंद नारँग रतनारे॥

पुनि कपोल बाएँ तिल परा । सो तिल बिरह चिनगि कै करा॥

जो तिल देख जाइ जरि सोई । बाएँ दिस्टि काहु जिनि होई॥

जानहुँ भँवर पदुम पर टूटा । जीउ दीन्ह औ दिए न छूटा॥

देखत तिल नैनन्ह गा गाड़ी । और न सूझै सो तिल छाँड़ी॥

तेहि पर अलक मनि जरी डोला । छुवै सो नागिनि सुरँग कपोला॥

रच्छा करै मयूर वह, नाँघि न हिय पर लोट।

गहि रे जग को छुइ सकै, दुइ पहार के ओट॥14॥

गीउ मयूर केरि जस ठाढ़ी । कुन्दै फेरि कुँदेरै काढ़ी॥

धानि वह गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥

घिरिनि परेवा गीउ का बरनौं करा । बाँक तुरंग जनहुँ गहि परा॥

गीउ सुराही कै अस भई । अमिय पियाला कारन नई॥

पुनि तेहि ठाँव परी तिनि रेखा । तेइ सोइ ठाँव होइ जो देखा॥

सुरुज किरिनि हुँत गिउ निरमली । देखे बेगि जाति हिय चली॥

कंचन तार सोह गिउ भरा । साजि कँवल तेहि ऊपर धारा॥

नागिनि चढ़ी कँवल पर चढ़ि कै बैठ कमंठ।

कर पसार जो काल कहँ सो लागै ओहि कंठ॥15॥

कनक दंड भुज बनी कलाई । डाँडी कँवल फेरि जनु लाई॥

चंदन खाँभहिं भुजा सँवारी । जानहुँ मेलि कँवल पौनारी॥

तेहि डाँड़ी सँग कँवल हथोरी । एक कँवल कै दूनौ जोरी॥

सहजहि जानुहु मेहँदी रची । मुकुताहल लीन्हें जनु घुँघची॥

करपल्लव जो हथोरिन्ह माथा । वै सब रकत भरे तेहि हाथा॥

देखत हिया काढ़ि जनु लेई । हिया काढ़ि कै जाइ न देई॥

कनक ऍंगूठी औ नग जरी । वह हत्यारिनि नखतन्ह भरी॥

जैसी भुजा कलाई, तेहि बिधिा जाइ न भाखि।

कंकन हाथ होइ जहँ, तहँ दरसन का साखि?॥16॥

हिया थार कुच कनक कचोरा । जानहुँ दुवौ सिरीफल जोरा॥

एक पाट वै दूनौ राजा । साम छत्रा दूनहुँ सिर छाजा॥

जानहुँ दोउ लटू एक साथा । जग भा लटू चढ़ै नहिं हाथा॥

पातर पेट आहि जनु पूरी । पान अधाार फूल अस फूरी॥

रोमावलि ऊपर लटु घूमा । जानहु दोउ साम औ रूमा॥

अलक भुअंगिनि तेहि पर लोटा । हिय घर एक खेल दुइ गोटा॥

बान पगार उठे कुच दोऊ । नाँघि सरन्ह उन्ह पाव न कोऊ॥

कैसहु नवहिं न नाए, जोबन गरब उठान।

जो पहिले कर लावै, सो पाछे रति मान॥17॥

भृंग लंक जनु माँझ न लागा । दुइ ख्रड नलिन माँझ जनु तागा॥

जब फिरि चली देख मैं पाछे । अछरी इंद्रलोक जनु काछे॥

जबहि चली मन भा पछिताऊ । अबहूँ दिस्टि लागि ओहि ठाऊँ॥

अछरी लाजि छपीं गति ओही । भईं अलोप न परगट होहीं॥

हंस लजाइ मानसर खेले । हस्ती लाजि धाूरि सिर मेले॥

जगत बहुत तिय देखी महूँ । उदय अस्त अस नारि न कहूँ॥

महिमंडल तौ ऐसि न कोई । ब्रह्ममंडल जौ होइ तौ होई॥

बरनेउँ नारि जहाँ लगि, दिस्टि झरोखे आइ।

और जो अही अदिष्ट धानि, सो किछु बरनि न जाइ॥18॥

का धानि कहौं जैसि सुकुमारा । फल के छुए होइ बेकरारा॥

पखुरी काढ़हिं फूलन सेंती । सोई डासहिं सौंर सपेती॥

फूल समूचै रहै जो पावा । ब्याकुल होइ नींद नहिं आवा॥

सहै न खीर खाँड़ औ घीऊ । पान अधाार रहै तन जीऊ॥

नस पानन्ह कै काढ़हिं हेरी । अधार न गड़ै फाँस ओहि केरी॥

मकरि क तार तेहि कर चीरू । सो पहिरे छिरि जाइ सरीरू॥

पालँग पावँ क आछै पाटा । नेत बिछाव चलै जौ बाटा॥

घालि नैन ओहि राखिय, पल नहिं कीजिय ओट।

पेम क लुबुधाा पाव ओहि, काहु सो बड़ का छोट॥19॥

जौ राघव धानि बरनि सुनाई । सुना साह गइ मुरछा आई॥

जनु मूरति वह परगट भई । दरस देखाइ माहिं छपि गई॥

जो जो मंदिर पदमावति लेखी । सुना जौ कँवल कुमुद अस देखी॥

होइ मालति धानि चित्ता पईठी । और पुहुप कोउ आव न दीठी॥

मन होइ भँवर भयउ बैरागा । कँवल छाँड़ि चित्ता और न लागा॥

चाँद के रंग सुरुज जस राता । और नखत सो पूछ न बाता॥

तब कह अलाउदीं जगसूरू । लेउं नारि चितउर कै चूरू॥

जौ वह पदमावति मानसर, कलि न मलिन होइ जात।

चितउर महँ जो पदमावति, फरि उहै कहु बात॥20॥

ए जगसूर! कहौं तुम पाहाँ । और पाँच नग चितउर माहाँ॥

एक हंस है पंखि अमोला । मोती चुनै पदारथ बोला॥

दूसर नग जो अमृत बसा । सो बिष हरै नाग कर डसा॥

तीसर पाहन परस पखाना । लोह छुए होइ कंचन बाना॥

चौथ अहै सादूर अहेरी । जो बन हस्ति धारै सब घेरी॥

पाँचव नग सो तहाँ लागना । राजपंखि पेखा गरजना॥

हरिन रोझ कोइ भागि न बाँचा । देखत उड़ै सचान होइ नाचा॥

नग अमोल अस पाँचौ, भेंट समुद ओहि दीन्ह।

इसकंदर जो न पावा सो सायर धाँसि लीन्ह॥21॥

पान दीन्ह राघव पहिरावा । दस गज हस्ति घोड़ सो पावा॥

औ दूसर कंकन कै जोरी । रतन लागि ओहि बत्तिास कोरी॥

लाख दिनार देवाई जेंवा । दारिद हरा समुद कै सेवा॥

हौं जेहि दिवस पदमावति पावौं । तोहि राघव! चितउर बैठावौं॥

पहिले करि पाँचौ नग मूठी । सो नग लेउँ जो कनक ऍंगूठी॥

सरजा बीर पुरुष बरियारू । ताजन नाग सिंघ असवारू॥

दीन्ह पत्रा लिखि बेगि चलावा । चितउर गढ़ राजा पहँ आवा॥

राजै पत्रिा बँचावा, लिखी जो करा अनेग।

सिंघल कै जो पदमावति, पठै देहु तेहि बेग॥22॥

(1) बासा=महक, सुगंधा। ओहि छुइ...सभागा=उसको छूकर वायु जिन पेड़ों में लगी वे मलयागिरि चंदन हो गए। काह न मूठि...देही=उस मुट्ठी भर देह में क्या नहीं है? चितेर=चित्राकार।

(2) साम रैनि=ऍंधोरी रात। उड़ैनी=जुगनू। सर=बाण। चार=ढंग, ढब। दुख=उसके दर्शन से उत्पन्न विकलता।

(3) काल कर काढ़ा=काल का चुना हुआ। पल=पलक। बूड़ी=डूबी हुई। धाानुक=धानुष चलानेवाली। ऊड़ी=पनडुब्बी चिड़िया। घालि...रखा=डाल रखा।

(4) झार=झारती है। जग दीपक लेसा=रात समझकर लोग दीया जलाने लगते हैं। सिर हुँत=सिर से। बिसहर=विषधार, साँप। सकपकाहिं=हिलते डोलते हैं। लहकहिं=लहराते हैं, झपटते हैं। लुरहिं=लोटते हैं। फिरि फिरि भँवर=पानी के भँवर में चक्कर खाकर। बंदी=कैदी, बँधाुआ। ढुरत आछै=ढरता रहता है। झाँप=ढाँकती है।

(5) पत्राावलि=पत्राभंगरचना। पाटी=माँग के दोनों ओर बैठाए हुए बाल। उरेह=विचित्रा सजावट। बग=बगला। पूजै=पूजन करता है।

(6) मनियारी=कांतिमान, सोहावना। चुन्नी=चमकी या सितारे जो माथे या कपोलों पर चिपकाए जाते हैं। पारस जोति=ऐसी ज्योति जिससे दूसरी वस्तु को ज्योति हो जाय। सिरी=श्री नाम का आभूषण। ओप=चमक। पूजहिं=बराबरी को पहुँचते हैं।

(7) बेझ करै=बेधा करने के लिए। पनच=पतंचिका, धानुष की डोरी। बिड़ारा=नष्ट किया। धानुष जो बेधाा राहू=मत्स्यवेधा करने वाला अर्जुन का धानुष। आउ न लेखा=आयु को समाप्त समझा। बेह=बेधा, छेद।

(8) नैन चित्रा...चितेरा=नेत्राों का चित्रा इस रूप से चित्रिात हुआ है। चितेरा=चित्रिात किया गया। बहोरि बहोरी=फिर फिर। फिरि फिरि=घूम घूमकर। मते=सलाह करने में। ऍंग सेत...ओही=ऑंखों के सफेद डेले और काली पुतलियाँ। लाल=लालसा।

(9) कीरू=तोता। सोहिल तारा=सुहेल तारा जो चंद्रमा के पास रहता है। बिगसि फूल...चढ़ा=फूल जो खिलते हैं मानों उसी पर निछावर होने के लिए।

(10) काढ़े अधार...चीरा=जैसे कुश का चीरा लगा हो ऐसे पतले ओठ हैं। जौ खाँड़ै बीरा जब=बीड़ा चबाती है। जनु परभात...देख=मानों विकसित कमलमुख पर सूर्य की लाल किरणें पड़ी हों।

(11) ताके=दिखाई पड़े। मकोई=जंगली मकोय जो काली होती है। कित वै दसन...भीने=कहाँ से मैंने उन रंगभीने दाँतों को देखा।

(12) कोंप=कोंपल, नया कल्ला। साँती=शांति। माती=मात कर। बिरवा=पेड़। सूख=सूखा हुआ। पलुह=पनपता है, हरा होता है। बीन बिस्वासा=बीन समझकर।

(13) कुंदन सीपी=कुंदन की सीप (ताल के सीपों का आधाा संपुट)। अंबर=वस्त्रा। खूँट=कोना, ओर। खूँटी=खूँट नाम का गहना। कचपचिया=कृत्तिाका नक्षत्रा।

(14) पुहुप पंक=फूल का कीचड़ या पराग। कै करा=के रूप, के समान। बाएँ दिस्टि...होई=किसी की दृष्टि बाईं ओर न जाय क्योंकि वहाँ तिल है। गा गाड़ी=गड़ गया। दुइ पहार=अर्थात् कुच।

(15) कुंदै=खराद पर। कुँदेरै=कुँदेरे ने। करा=कला, शोभा। घिरिनि परेवा=गिरहबाज कबूतर। तमचूर=मुर्गा। तेइ सोइ ठाउँ...देखा=जो उसे देखता है वह उसी जगह ठक रह जाता है। जाति हिय चली=हृदय में बस जाती है। नागिनि=अर्थात् केश। कमंठ=कछुए के समान पीठ या खोपड़ी।

(16) डाँड़ी कँवल लाई=कमलनाल उलटकर रखा हो। करपल्लव=उँगली। साखि=साक्षी। कंकन हाथ...साखि=हाथ कंगन को आरसी क्या?

(17) कचोरा=कटोरा। पाट=सिंहासन। साम छत्रा=अर्थात् कुच का श्याम अग्रभाग। लटु=लट्टई। फूरी=फूली। साम=शाम (सीरिया) का मुल्क जो अरब के उत्तार है। घर=खाना, कोठा। गोटा=गोटी। पगार=प्राकार या परकोटे पर।(18) देख=देखा। खेले=चले गए। ब्रह्ममंडल=स्वर्ग।

(19) बेकरारा=बेचैन। डासहिं=बिछाती हैं। सौंर=चादर। फाँस=कड़ा तंतु। मकरि क तार=मकड़ी के जाले सा महीन। छिरि जाइ=छिल जाता है। पालँग पावँ‑‑‑पाटा=पैर या तो पलँग पर रहते हैं या सिंहासन पर। नेत=रेशमी कपड़े की चादर (सं. नेत्रा)।

(20) माहिं=भीतर (हृदय के)। जो जो मंदिर...देखी=अपने घर की जिन-जिन स्त्रिायों को पद्मावती समझ रखा था वे पद्मावती (कँवल) का वृत्ताांत सुनने पर कुमुदिनी के समान लगने लगीं। चूरू कै=तोड़कर। मलिन=हतोत्साह।

(21) पदारथ=बहुत उत्ताम बोल। परस पखाना=पारस पत्थर। सादूर=शार्दूल, सिंह। लागना=लगनेवाला, शिकार करनेवाला। गरजना=गरजनेवाला। रोझ=नीलगाय। सचान=बाज। सायर=समुद्र।

(22) जेंवा=दक्षिणा में। ताजन नाग=नाग का कोड़ा। करा=कला से, चतुराई से।



>>पीछे>> >>आगे>>