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कविता

पदमावत

मलिक मुहम्मद जायसी

संपादन - रामचंद्र शुक्ल

अनुक्रम बादशाह-चढ़ाई खंड पीछे     आगे

सुनि अस लिखा उठा जरि राजा । जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥

का मोहिं सिंघ देखावसि आई । कहौं तौ सारदूल धारि खाई॥

भलेहिं साह पुहुभीपति भारी । माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥

जो सो चक्कवै ताकहँ राजू । मँदिर एक कहँ आपन साजू॥

अछरी जहाँ इंद्र पै आवै । और न सुनै न देखै पावै॥

कंस राज जीता जौ कोपी । कान्ह न दीन्ह काहु कहँ गोपी॥

को मोहिं तें अस सूर अपारा । चढ़ै सरग, खसि परै पतारा॥

का तोहिं जीउ मरावौं सकत आन के दोस?

जो नहिं बुझै समुद्र-जल सो बुझाइ कित ओस?॥1॥

राजा! अस न होहु रिस-राता । सुनु होइ जूड़, न जरि कहु बाता॥

मैं हौं इहाँ मरै कहँ आवा । बादसाह अस जानि पठावा॥

जो तोहि भार, न औरहि लेना । पूछहि कालि उतर है देना॥

बादसाह कहँ ऐस न बोलू । चढ़ै तौ परै जगत महँ डोलू॥

सूरहि चढ़त न लागहि बारा । तपै आगि जेहि सरग पतारा॥

परबत उड़हिं सूर के फूँके । यह गढ़ छार होइ एक झूँके॥

धाँसै सुमेरु, समुद गा पाटा । पुहुमी डोल, सेस-फन फाटा॥

तासौं कौन लड़ाई? बैठहु चितउर खास।

ऊपर लेहु चँदेरी, का पदमावति एक दासि?॥2॥

जौ पै घरनि जाइ घर केरी । का चितउर, का राज चँदेरी॥

जिउ न लेइ घर कारन कोई । सो घर देह जो जोगी होई॥

हौं रनथँभउर नाह हमीरू । कलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू॥

हौं सो रतनसेन सकबंधाी । राहु बेधिा जीता सैरंधाी॥

हनुवँत सरिस भार जेइ काँधाा । राघव सरिस समुद जो बाँधाा॥

विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका । सिंहलदीप लीन्ह जौ ताका॥

जौ अस लिखा भयउँ नहिं ओछा । जियत सिंघ कै गह को मोछा॥

दरब लेइ तौ मानौं, सेव करौं गहि पाउ।

चाहै जौ सो पदमावति, सिंहलदीपहि जाउ॥3॥

बोलु न राजा! आपु जनाई । लीन्ह देवगिरि और छिताई॥

सातौ दीप राज सिर नावहिं । औ सँग चली पदमावति आवहि॥

जेहि कै सेव करै संसारा । सिंहलदीप लेत कित बारा?॥

जिनि जानसि यह गढ़ तोहि पाहीं । ताकर सबै तोर किछु नाहीं॥

जेहि दिन आइ गढ़ी कहँ छेकिहि । सरवस लेइ हाथ को टेकिहि॥

सीस न छाँड़ै खेह के लागे । 1 सो सिर छार होइ पुनि आगे॥

सेवा करु जौ जियन तोहि भाई । नाहिं त फेरि माँख होइ जाई॥

जाकर जीवन दीन्ह तेहि, अगमन सीस जोहारि।

ते करनी सब जानै, काह पुरुष का नारि॥4॥

तुरुक! जाइ कहु मरै न धााई । होइहि इसकंदर कै नाई॥

सुनि अमृत कदलीबन धाावा । हाथ न चढ़ा रहा पछितावा॥

औ तेहि दीप पतँग होइ परा । अगिनि पहार पाँव देइ जरा॥

धारती लोह सरग भा ताँबा । जीउ दीन्ह पहुँचत कर लाँबा॥

यह चितउरगढ़ सोइ पहारू । सूर उठै तब होइ ऍंगारू॥

जौ पै इसकंदर सरि कीन्ही । समुद लेहु धाँसि जस वै लीन्ही॥

जो छरि आनै जाइ छिताई । तेहि छर औ डर होइ मिताई॥

महूँ समुझि अस अगमन, सजि राखा गढ़ साजु।

काल्हि होहि जेहि आवन, सो चलि आवै आजु॥5॥

सरजा पलटि साह पहँ आवा । देव न मानै बहुत मनावा॥

आगि जो जरै आगि पै सूझा । जरत रहै न बुझाए बूझा॥

ऐसे माथ न नावै देवा । चढ़ै सुलेमाँ मानै सेवा॥

सुनि कै अस राता सुलतानू । जैसे तपै जेठ कर भानू॥

सहसौ करा रोष अस भरा । जेहि दिसि देखै तेइ दिसि जरा॥

हिंदू देव काह बर खाँचा ? सरगहु अब न सूर सौं बाँचा॥

एहि जग आगि जो भरि मुख लीन्हा । सो सँग आगि दुहूँ जगकीन्हा॥

रनथँभउर जस जरि बुझा, चितउर परै सो आगि॥

फेरि बुझाए ना बुझै, एक दिवस जौ लागि॥6॥

लिखा पत्रा चारिहु दिसि धााए । जावत उमरा बेगि बोलाए॥

दुंद घाव भा इंद्र सकाना । डोला मेरु सेस अकुलाना॥

धारती डोलि कमठ खरभरा । मथन अरंभ समुद महँ परा॥

साह बजाइ चढ़ाजग जाना । तीस कोस भा पहिल पयाना॥

वितउर सौंह बारिगह तानी । जहँ लगि सुना कूच सुलतानी॥

उठि सरवान गगन लगि छाए । जानहु राते मेघ देखाए॥

जो जहँ तहँ सूता अस जागा । आइ जोहार कटक सब लागा॥

हस्ति घोड़ औ दर पुरुष जावत बेसरा ऊँट।

जहँ तहँ लीन्ह पलानै कटक सरह अस छूट॥7॥

चले पंथ बेसर1 सुलतानी । तीख तुरंग बाँक कनकानी॥

कारे, कुमइत, लील, सुपेते । खिंग, कुरंग, बीज, दुर केते॥

अबलक, अरबी, लखी सिराजी । चौघर चाल, सँमद भल, ताजी॥

किरमिज, नुकरा, जरदे, भले । रूपकरान, बोलसर, चले॥

पँचकल्यान, सँजाब, बखाने । महि सायर सब चुनि चुनि आने॥

मुशकी औ हिरमिजी, एराकी । तुरकी कहे भोथार बुलाकी॥

बिखरि चले जो पाँतिहि पाँती । बरन बरन औ भाँतिहि भाँती॥

सिर औ पूँछ उठाए, चहुँ दिसि साँस ओनाहिं।

रोष भरे जस बाउर, पवन तुरास उड़ाहिं॥8॥

लोहसार हस्ती पहिराए । मेघ साम जनु गरजत आए॥

मेघहि चाहि अधिाकवै कारे । भयउ असूझ देखि ऍंधिायारे॥

जसि भादौं निसि आवै दीठी । सरग जाइ हिरकी तिन्ह पीठी॥

सवा लाख हस्ती जब चाला । परबत सहित सबै जग हाला॥

चले गयंद माति मद आवहिं । भागहिं हस्ती गंधा जौ पावहिं॥

ऊपर जाइ गगन सिर धाँसा । औ धारती तर कहँ धासमसा॥

भा भुइँचाल चलत जग जानी । जहँ पग धारहिं उठै तहँ पानी॥

चलत हस्ति जग काँपा, चाँपा सेस पतार।

कमठ जो धारती लेइ रहा, बैठि गयउ गजमार॥9॥

चले जो उमरा मीर बखाने । का बरनौं जस उन्ह कर बाने॥

खुरासान औ चला हरेऊ । गौर बँगाला रहा न केऊ॥

रहा न रूम शाम सुलतानू । कासमीर ठट्टा मुलतानू॥

जावत बड़बड़ तुरुक कै जाती । माँडौवाले औ गुजराती॥

पटना, उड़िसा के सब चले । लेह गज हस्ति जहाँ लगि भले॥

कवँरु कामतना औ पिड़वाए । देवगिरि लेइ उदयगिरि आए॥

चला परवती लेइ कुमाऊँ । खसिया मगर जहाँ लगि नाऊँ॥

उदय अस्त लहि देस जो, को जानै तिन्ह नाँव?।

सातौ दीप नवौ खंड, जुरे आह इक ठाँव॥10॥

धानि सुलतान जेहिक संसारा । उहै कटक अस जोरै पारा॥

सबै तुरुक सिरताज बखाने । तबल बाज औ बाँधो बाने॥

लाखन मार बहादुर जंगी । जँबुर, कमानैं तीर खदंगी1॥

जीभा खोलि राग सौं मढ़े । लेजिम घालि एकाकिन्ह चढ़े॥

चमकहिं पाखर सार सँवारी । दरपन चाहि अधिाक उजियारी॥

बरन बरन औ पाँतिहि पाँती । चली सो सेना भाँतिहि भाँती॥

बेहर बेहर सब कै बोली । बिधिा यह खानि कहाँ दहुँ खोली?॥

सात सात जोजन कर, एक दिन होइ पयान।

अगिलहि जहाँ पयान होइ पछिलहि तहाँ मिलान॥11॥

डोले गढ़ गढ़पति सब काँपे । जीउ न पेट हाथ हिय चाँपे॥

काँपा रनथँभउर गढ़ डोला । नरवर गयउ झुराइ न बोला॥

जूनागढ़ औ चंपानेरी । काँपा माड़ौ लेइ चँदेरी॥

गढ़ गुवालियर परी मथानी । औ ऍंधिायार मथा भा पानी॥

कालिंजर मह परा भगाना । भागेउ जयगढ़ रहा न थाना॥

काँपा बाँधाव नरवर राना । डर रोहतास बिजयगिरि माना॥

काँप उदयगिरि देवगिरि डरा । तब सो छपाइ आपु कहँ धारा॥

जावत गढ़ औ गढ़पति, सब काँपे जस पात।

का कहुँ बोलि सौहँ भा, बादशाह कर छात?॥12॥

चितउरगढ़ औ कुंभलनेरै । साजे दूनौ जैस सुमेरै॥

दूतन्ह आइ कहा जहँ राजा । चढ़ा तुरुक आवै दर साजा॥

सुनि राजा दौराई पाती । हिंदू नावँ जहाँ लगि जाती॥

चितउर हिंदुन कर अस्थाना । सत्राु तुरुक हठि कीन्ह पयाना॥

आव समुद्र रहै नहिं बाँधाा ! मैं होइ मेड़ भार सिर काँधाा॥

पुरवहु साथ तुम्हारि बड़ाई । नाहिं त सत को पार छँड़ाई?॥

जौ लहि मेड़ रहै सुख साखा । टूटे बारि जाइ नहिं राखा॥

सती जौ जिउ महँ सत धारै, जरै न छाँड़ै साथ।

जहँ बीरा तहँ चून है, पान सोपारी काथ॥13॥

करत जो रायसाह कै सेवा । तिन्ह कहँ आइ सुनाव परेवा॥

सब होइ एकमते जो सिधाारे । बादसाह कहँ आइ जोहारे॥

है चितउर हिंदुन्ह कै माता । गाढ़ परे तजि जाइ न नाता॥

रतनसेन तहँ जौहर साजा । हिंदुन्ह माँझ आहि बड़ राजा॥

हिंदुन्ह केर पतँग कै लेखा । दौरि परहिं अगिनी जहँ देखा॥

कृपा करहु चित बाँधाहु धाीरा । नातरु हमहिं देहु हँसि बीरा॥

पुनि हम जाइ मरहिं ओहि ठाऊँ । मेटि न जाइ लाज सौं नाऊँ॥

दीन्ह साह हँसि बीरा, और तीन दिन बीचु।

तिन्ह सीतल को राखै, जिनहिं अगिनि महँ मीचु?॥14॥

रतनसेन चितउर महँ साजा । आइ बजाइ बैठ सब राजा॥

तोवँर, बैस,पवाँर, सो आए । औ गहलौत आइ सिर नाए॥

पत्ताी औ पँचवान बघेले । अगरपार, चौहान चँदेले॥

गहरवार, परिहार जो कुरे । औ कलहंस जो ठाकुर जुरे॥

आगे ठाढ़ बजावहिं ढाढ़ी । पाछे धाुजा मरन कै काढ़ी॥

बाजहिं सिंगी संख औ तूरा । चंदन खेवरे भरे सेंदूरा॥

सजि संग्राम बाँधा सब साका । छाँड़ा जियन, मरन सब ताका॥

गगन धारति जेइ टेका, तेहि का गरू पहार।

जौ लहि जिउ काया महँ, परै सो ऍंगवै भार॥15॥

गढ़ तस सजा जौ चाहै कोई । बरिस बीस लगि खाँग न होई॥

बाँके चाहि बाँक गढ़ कीन्हा । औ सब कोट चित्रा कै लीन्हा॥

खंड खंड चौखंड सँवारा । धारी बिषम गोलन्ह कै मारा॥

ठाँवहिं ठावँ लीन्ह तिन्ह बाँटी । रहा न बीचु जो सँचरै चाँटी॥

बैठे धाानुक कँगुरन कँगूरा । भूमि न ऑंटी ऍंगुरन ऍंगुरा॥

औ बाँधो गढ़ गज मतवारे । फाटै भूमि होहिं जौ ठारे॥

बिच बिच बुर्ज बने चहुँ फेरी । बाजहिं तबल ढोल औ भेरी॥

भा गढ़ राज सुमेरु जस, सरग छुवै पै चाह।

समुद न लेखे लावै, गंग सहसमुख काह?॥16॥

बादशाह हठि कीन्ह पयाना । इंद्र भँडार डोल भय माना॥

नबे लाख असवार जो चढ़ा । जो देखा सो लोहे मढ़ा॥

बीस सहस घहराहिं निसाना । गलगंजहिं भेरी असमाना॥

बैरख ढाल गगन गा छाई । चला कटक धारती न समाई॥

सहस पाँति गज मत्ता चलावा । धाँसत अकास धाँसत भुइँ आवा॥

बिरिछ उचारि पेड़ि सौं लेहीं । मस्तक झारि डारि मुख देहीं॥

चढ़हिं पहार हिये भय लागू । बनख्रड खोह न देखहिं आगू॥

कोइ काहू न सँभारै, होत आव तस चाँप।

धारति आपु कहँ काँपै, सरग आपु कहँ काँप॥17॥

चलीं कमानैं जिन्ह मुख गोला । आवहिं चली, धारति सब डोला॥

लागै चक्र बज्र के गढ़े । चमकहिं रथ सोने सब मढ़े॥

तिन्ह पर विषम कमानैं धारीं । साँचे अष्टधाातु कै ढरीं॥

सौ सौ मन वै पीयहिं दारू । लागहिं जहाँ सो टूट पहारू॥

माती रहहिं रथन्ह पर परी । सत्राुन्ह महँ ते होहिं उठि खरी॥

जौ लागै संसार न डोलहिं । होइ भुइँकंप जीभ जौ खोलहिं॥

सहस सहस हस्तिन्ह कै पाँती । खींचहिं रथ, डोलहिं नहिं माती॥

नदी नार सब पाटहिं, जहाँ धारहिं वै पाव।

ऊँच खाल बन बीहड़, होत बराबर आव॥18॥

कहौं सिंगार जैसि वै नारी । दारू पियहिं जैसि मतवारी॥

उठै आगि जौछाँड़हिं साँसा । धाुऑं जौ लागै जाइ अकासा॥

सेंदुर आगि सीस उपराहीं । पहिया तरिवन चमकत जाहीं॥

कुच गोला दुइ हिरदय लाए । चंचल धाुजा रहहिं छिटकाए॥

रसना लूक रहहिंमुख खोले । लंका जरै सो उनके बोले॥

अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधो । खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधो॥

बीर सिंगार दोउ एक ठाँऊँ । सत्राुसाल गढ़भंजन नाऊँ॥

तिलक पलीता माथे, दसन बज्र के बान।

जेहि हेरहिं तेहि मारहिं, चुरकुस करहिं निदान॥19॥

जेहि जेहि पंथ चली वै आवहिं । तहँ तहँ जरै, आगि जनु लावहिं॥

जरहिं जो परबत लागि अकासा । बनख्रड धिाकहिं परास के पासा॥

गैंड गयंद जरे भए कारे । औ बन मिरिग रोझ झवँकारे॥

कोइल, नाग काग औ भँवरा । और जो जरे तिनहिं को सँवरा॥

जरा समुद्र पानी भा खारा । जमुना साम भई तेहि झारा॥

धाुऑं जाम, ऍंतरिख भए मेघा । गगन साम भा धाुऑं जो ठेघा॥

सूरुज जरा चाँद औ राहू । धारती जरी, लंक भा दाहू॥

धारती सरग एक भा, तबहुँ न आगि बुझाइ।

उठे बज्र जरि डुँगवै, धाूम रहा जग छाइ॥20॥

आवै डोलत सरग पतारा । काँपै धारति न ऍंगवै भारा॥

टूटहिं परबत मेरु पहारा । होइ चकचून उड़हिं तेहि झारा॥

सत ख्रड धारती भइ षटखंडा । ऊपर अष्ट भए बरम्हंडा॥

इंद्र आइ तिन्ह खंडन छावा । चढ़ि सब कटक घोड़ दौरावा॥

जेहि पथ चल ऐरावत हाथी । अबहुँ सो डगर गगन महँ आथी॥

औ जहँ जामि रही वह धूरी । अबहुँ बसै सो हरिचँद पूरी॥

गगन छपान खेह तस छाई । सूरुज छपा, रैनि होइ आई॥

गयउ सिकंदर कजरिबन, तस होइगा ऍंधिायार।

हाथ पसारे न सूझै, बरै लाग मसियार॥21॥

दिनहिं रात अस परी अचाका । भा रबि अस्त, चंद्र रथ हाँका॥

मंदिर जगत दीप परगसे । पंथी चलत बसेरै बसे॥

दिन के पंखि चरत उड़ि भागे । निसि के निसरि चरै सब लागे॥

कँवल सँकेता,कुमुदिनि फूली । चकवा बिछुरा, चकई भूली॥

चला कटक दल ऐस अपूरी । अगिलहि पानी, पछिलहि धाूरी॥

महि उजरी सायर सब सूखा । बनख्रड रहेउ न एकौ रूखा॥

गिरि पहार सब मिलिगे माटी । हस्ति हेराहिं तहाँ होइ चाँटी॥

जिन्ह घर खेह हेराने, हेरत फिरत सो खेह।

अब तो दिस्टि तब आवै, अंजन नैन उरेह॥22॥

एहि विधिा होत पयान सो आवा । आइ साह चितउर नियरावा॥

राजा राव देख सब चढ़ा । आव कटक सब लोहे मढ़ा॥

चहुँ दिसि दिस्टि परा गजजूहा । साम घटा मेघन्ह अस रूहा॥

अधा ऊरधा किछु सूझ न आना । सरगलोक घुम्मरहिं निसाना॥

चढ़ि धाौराहर देखहिं रानी । धानि तुइँ अस जाकर सुलतानी॥

की धानि रतनसेन तुइँ राजा । जा कहँ तुरुक कटक अस साजा॥

बैरख ढाल केरि परछाहीं । रैनि होति आवै दिन माहीं॥

अंधाकूप भा आवै, उड़त आव तस छार।

ताल तलावा पोखर, धाूरि भरी जेवनार॥23॥

राजै कहा करहु जो करना । भयउ असूझ, सूझ अब मरना॥

जहँ लगि राज साज सब होऊ । ततखन भयउ सँजोउ सँजोऊ॥

बाजै तबल अकूत जुझाऊ । चढ़े कोपि सब राजा राऊ॥

करहिं तुखार पवन सौं रीसा । कंधा ऊँच, असवार न दीसा॥

का बरनौं असऊँच तुखारा । दुइ पौरी पहुँचै असवारा॥

बाँधो मोरछाँह सिर सारहिं । भाँजहिं पूछ चँवर जनु ढारहिं॥

सजे सनाहा, पहुँची, टोपा । लोहसार पहिरे सब ओपा॥

तैसे चँवर बनाए, औ घाले गलझंप।

बँधो सेत गजगाह तहँ, जो देखै सो कंप॥24॥

राज तुरंगम बरनौं काहा? । आने छोरि इंद्ररथ बाहा॥

ऐस तुरंगम परहिं न दीठी । धानि असवार रहहिं तिन्ह पीठी!॥

जाति बालका समुद थहाए । सेत पूँछ जनु चँवर बनाए॥

बरन बरन पाखर अतिलोने । जानहुँ चित्रा सँवारे सोने॥

मानिक जड़े सीस औ काँधो । चँवर लाग चौरासी बाँधो॥

लागे रतन पदारथ हीरा । बाहन दीन्ह, दीन्ह तिन्ह बीरा॥

चढ़हिं कुँवर मन करहिं उछाहू । आगे घाल गनहिं नहिं काहू॥

सेंदुर सीस चढ़ाए, चंदन खेवरे देह।

सो तन कहा लुकाइय, अंत होइ जो खेह॥25॥

गज मैमँत बिखरे रजबारा । दीसहिं जनहुँ मेघ अति कारा॥

सेत गयंद पीत औ राते । हरे साम घूमहिं मद माते॥

चमकहिं दरपन लोहे सारी । जनु परबत पर परी ऍंबारी॥

सिरी मेलि पहिराई सूँड़ैं । देखत कटक पायँ तर रूँदैं॥

सोना मेलि कै दंत सँवारे । गिरिवर टरहिं सो उन्हके टारे॥

परबत उलटिभूमि महँ मारहिं । परै जो भीर पत्रा अस झारहिं॥

अस गयंद साजे सिंघली । मोटी कुरुम पीठि कलमली॥

ऊपर कनक मँजूसा, लाग चँवर औ ढार।

भलपति बैठे भाल लेइ, औ बैठे धानुकार॥26॥

असुदल गजदल दूनौ साजे । औ घन तबल जुझाऊ बाजे॥

माथे मुकुट छत्रा सिर साजा । चढ़ा बजाइ इंद्र अस राजा॥

आगे रथ सेना सब ठाढ़ी । पाछे धाुजा मरन कै काढ़ी॥

चढ़ा बजाइ चढ़ा जस इंदू । देवलोक गोहने भए हिंदू॥

जानहु चाँद नखत लेइ चढ़ा । सूर कै कटक रैनि मसि मढ़ा॥

जौ लगि सूर जाइ देखरावा । निकसि चाँद घर बाहर आवा॥

गगन नखत जस गने न जाहीं । निकसि आए तस धारती माहीं॥

देखि अनी राजा कै, जग होइ गयउ असूझ।

दहुँ कस होवै चाहै, चाँद सूर के जूझ॥27॥

(1) दैउ=(दैव)। आकाश में। मँदिर एक कहँ...साजू=घर बचाने भर को मेरे पास भी सामान है। पै=ही। कोपी=कोप करके। सकत=भरसक। दोस=दोष।

(2) राता=लाल। जो तोहि भार...लेना=तेरी जवाबदेही तेरे ऊपर है। डोलू=हलचल। बारा=देर। जेहि=जिसकी।

(3) घरनि=गृहिणी, स्त्राी। जिउ न लेइ=चाहे जी ही न ले ले। हमीरू=रणथंभौर गढ़ का राजा हम्मीर। सकबंधाी=साका चलानेवाला। सैरंधाी=सैरंधा्री, द्रौपदी। राहु=रोहू मछली। जाउ=जावै।

(4) आपु जनाई=अपने को बहुत बड़ा प्रकट करके। छिताई=कोई स्त्राी (?)। सीस न छाँड़ै लागे=धाूल पड़ जाने से सिर न कटा; छोटी सी बात के लिए प्राण न दे। माख=क्रोधा, नाराजगी।

(5) कै नाई=की सी दशा। धारती लोह...ताँबा=उस आग के पहाड़ की धारती लोहे के समान दृढ़ है और उसकी ऑंच से आकाश ताम्रवर्ण हो जाता है। जो पै इसकंदर कीन्ही=जो तुमने सिकंदर की बराबरी की है तो। छर औ डर=छल और भय दिखाने से।

1. पाठांतर-'खीस के लागे'। खीस=खिसियाहट, रिस।

(6) देव=(क) राजा, (ख) राक्षस। सुलेमाँ=यहूदियों का बादशाह सुलेमान जिसने देवों और परियों को जीतकर वश में कर लिया था। बर खाँवा=क्या हठ दिखाता है। रनथँभउर=रणथंभौर का प्रसिध्द वीर हम्मीर अलाउद्दीन से लड़कर मारा गया था।

(7) दुंद घाव=डंके पर चोट। सकाना=डरा। अरंभ=शोर। बारिगह=बारगाह, दरबार (?)। बारिगह तानी=दरबार बढ़ा (?)। सरवान=झंडा या तंबू (?)। सूता=सोया हुआ। दर=दल, सेना। बेसरा=खच्चर। पलानै लीन्ह=घोड़े कसे। सरह=शलभ, टिव्ी।

(8) कनकानी=एक प्रकार के घोड़े जो गदहे से कुछ ही बड़े और बड़े कदमबाज होते हैं। कुमइत=कुम्मैत। खिंग=सफेद घोड़ा जिसके मुँह पर का पट्टा और चारों सुम गुलाबीपन लिये हों। कुरंग=कुलंग। लखी=लाखी। सिराजी=शीराज के। चौधार=सरपट या पोइयाँ चाल। किरमिज=किरमिजी रंग के। तुरास=बेग।

1. पाठांतर='पैगह'।

(9) लोहसार=फौलाद। ऍंधिायारे=काले। हिरकी=लगी, सटी। तिन्ह=उनकी। हस्ती=दिग्गज। तर कहँ=नीचे को। उठै तहँ पागी=गङ्ढा हो जाता है और नीचे से पानी निकल पड़ता है।

(10) बाने=वेश, सजावट। हरेऊ=हरेव, 'हरउअती' (सं. सरस्वती, प्राचीन पारसी=हरह्नैती) या अरगंदाब नदी के आसपास का प्रदेश जो हिंदूकुश के दक्षिण-पश्चिम पड़ता है। गौर=गौड़, बंग देश की राजधाानी। शाम=अरब के उत्तार शाम का मुल्क। कामता, पिंडवा=कोई प्रदेश। मगर=अराकान जहाँ मग नाम की जाति रहती है।

1. पाठांतर='तुफंगी'।

(11) जँबूर=जंबूर, एक प्रकार की तोप जो ऊँटों पर चलती थी। कमान=तोप। खदंगी=खदंग, बाण। जीभा=जीभ। लेजिम=एक प्रकार की कमान जिसमें डोरी के स्थान पर लोहे का सीकड़ लगा रहता है और जिससे एक प्रकार की कसरत करते हैं। एराकिन्ह=एराक देश के घोड़ों पर। पाखर=लड़ाई की झूल। सार=लोहा। बेहर-बेहर=अलग-अलग।

(12) माँड़ी लेइ=माँड़ौगढ़ से लेकर। मथानी परी=हलचल मचा। ऍंधिायार=ऍंधिायार और खटोला, दक्षिण के दो स्थान। पात=पत्ताा। बोलि=चढ़ाई बोलकर। छात=छत्रा।

(13) जैस सुमेरै=जैसे सुमेरु ही हैं। दर=दल। पाती=पत्राी, चिट्ठी। मेड़=बाँधा। काँधाा=ऊपर लिया। नाहिं त सत...छँड़ाई=नहीं तो हमारा सत्य (प्रतिज्ञा) कौन छुड़ा सकता है अर्थात् मैं अकेले ही अड़ा रहूँगा। टूटे=बाँधा टूटने पर। बारि=बारी, बगीचा।

(14) राय=राजा। परेवा=चिड़िया, यहाँ दूत। जौहर=लड़ाई के समय की चिता जो गढ़ में उस समय तैयार की जाती थी जब राजपूत बड़े भारी शत्राु से लड़ने निकलते थे और जिसमें हार का समाचार पाते ही सब स्त्रिायाँ कूद पड़ती थीं। पतँग कै लेखा=पतंगों का सा हाल है। बीरा देहु=बिदा करो कि हम वहाँ जाकर राजा की ओर से लड़ें।

(15) कुरे=कुल। ढाढ़ी=बाजा बजानेवाली एक जाति। खेबे=खौर लगाए हुए। ऍंगवै=ऊपर लेता है, सहता है।

(16) तस=ऐसा। खाँग=सामान की कमी। बाँके चाहि बाँक=विकट से विकट। मारा=माला, समूह बीचु=अंतर, खाली जगह। सँचरै=चले। चाँटी=चींटी। ठारे=ठाढ़े, खड़े। सहसमुख=सहò धाारावाली।

(17) इंद्रभँडार=इंद्रलोक। बैरख=बैरक, झंडे। पेड़ि=पेड़ी, तना। आगु=आगे। चाँप=रेलपेल, धाक्का।

(18) कमानैं=तोपें। चक्र=पहिए। दारू=(क) बारूद, (ख) शराब। माती=मतवाली ('दारू' शब्द का प्रयोग कर चुके हैं इसलिए)। बराबर=समतल।

(19) कहौं सिंगार...मतवारी=इन पद्यों में तोपों को स्त्राी के रूपक में दिखाया है। तरिवन=ताटंक नाम का कान का गहना। टूटहिं काँधो=हाथियों के कंधो टूट जाते हैं। बीर सिंगार=वीररस और शृंगाररस। बान=गोले। हेरहिं=ताकती हैं। चुरकुस=चकनाचूर।

(20) धिाकहिं=तपते हैं। पारस के बनखंड=पलास के लाल फूल जो दिखाई देते हैं वे मानो वन के तपेहुए अंश हैं। गैंड=गैंडा। रोझ=नीलगाय। झ्रवकारे=झाँवरे। ठेघा=ठहरा, रुका। डुँगवै=डूँगर, पहाड़।उठेबज्रजरि...छाइ=इस वज्र से (जैसे कि इंद्र के वज्र से) पहाड़ जल उठे।

(21) चकचून=चकनाचूर।सतख्रड...षटखंडा=पृथ्वी पर की इतनी धाूल ऊपर उड़कर जा जमी कि पृथ्वीके सात खंड या स्तरके स्थान पर छह ही खंड रह गए और ऊपर के लोकों के सात स्थान पर आठखंड हो गए। जेहि पथ...आथी=ऊपर जो लोक बन गए उनपर इंद्र ऐरावत हाथी लेकर चले जिसके चलने का मार्ग ही आकाशगंगा है। आथी=है। हरिचँद पूरी=वह लोक जिसमें हरिश्चंद्र गए। मसियार=मशाल।

(22) अचाका=अचानक, एकाएक। सँकेता=संकुचित हुआ। अपूरी=भरा हुआ। अगिलहि पानी...धाूरी=अगली सेना को तो पानी मिलता है पर पिछली को धाूल ही मिलती है। उजरी=उजड़ी। जिन्ह घर खेह...खेह=जिनके घर धाूल में खो गए हैं अर्थात् संसार के माया-मोह में जिन्हें परलोक नहीं दिखाई पड़ता है। उरेह=लगाए।

(23) रूहा=चढ़ा। सुलतानी=बादशाहत। की धानि...राजा=या तो राजा या तू धान्य है। बैरख=झंडा। परछाहीं=परछाईं से। जेवनार=लोगों की रसोई में।

(24) सँजोऊ=तैयारी। अकूत=एकाएक, सहसा अथवा बहुत से। जुझाऊ=युध्द के। तुखार=घोड़ा। रीसार्=ईष्या, बराबरी। पौरी=सीढ़ी के डंडे। मोरछाँह=मोरछल। सनाहा=बकतर। पहुँची=बचाने का आवरण। ओपा=चमकते हैं। गलझंप=गले की झूल (लोहे की)। गजगाह=हाथी की झूल।

(25) इंद्ररथ बाहा=इंद्र का रथ खींचनेवाले। बालका=टाँगन घोड़े। पाखर=झूल। चौरासी=घुँघुरुओं का गुच्छा। बाहन दीन्ह...बीरा=जिनको सवारी के लिए वे घोड़े दिए उन्हें लड़ाई का बीड़ा भी दिया। घाल गनहिं नहिं=कुछ नहीं समझते। सेंदुर=यहाँ रोली समझना चाहिए। खेवरे=खौरे, खौर लगाए हुए।

(26) रजबारा=राजद्वार। दरपन=चार आईन:, बकतर। लोहे सारी=लोहे की बनी। ऍंबारी=मंडपदार हौदा। सिरी=माथे का गहना। रूँदैं=रौंदते हैं। कलमली=खलबलाई। मँजूसा=हौदा। ढार=ढाल। भलपति=भाला चलानेवाले। धानुकार=धानुष चलानेवाले।

(27) असुदल=अश्वदल। देवलोक...इंद्र=जैसे इंद्र के साथ देवता चलते हैं वैसे ही राजा रत्नसेन के साथ हिंदू लोग चले। सूर क कटक=बादशाह की फौज। रैनि मसि=रात की ऍंधोरी। चाँद=राजा रत्नसेन। नखत=राजा की सेना। अनी=सेना। होवै चाहै=हुआ चाहता है।


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