पदमावति बिनु कंत दुहेली । बिनु जल कवँल सूखि जस बेली॥ गाढ़ी प्रीति सो मोसौं लाए । दिल्ली कंत निचिंत होइ छाए॥ सो दिल्ली अस निबहुरदेसू । कोइ न बहुरा कहै सँदेसू॥ जो गवनै सो तहाँ कर होई । जो आवै किछु जान न सोई॥ अगम पंथ पिय तहाँ सिधाावा । जो रे गयउ सो बहुरि न आवा॥ कुबाँ धाार जल जैस बिछोवा । डोल भरे नैनन्ह धानि रोवा॥ लेजुरि भई नाह बिनु तोहीं । कुवाँ परी, धारि काढ़सि मोहीं॥ नैन डोल भरि ढारै, हिये न आगि बुझाइ। घरी घरी जिउ आवै, घरी घरी जिउ जाइ॥1॥ नीर गँभीर कहाँ हो पीया । तुम्ह बिनु फाटै सरवर हीया॥ गयहु हेराइ, परेहु केहि हाथा? । चलत सरोवर लीन्ह न साथा॥ चरत जो पंखि केलि कै नीरा । नीर घटे कोइ आव न तीरा॥ कवँल सूख, पखुरी बेहरानी । गलि गलि कै मिलि छार हेरानी॥ विरह रेत कंचन तन लावा । चून चून कै खेह मेरावा॥ कनक जो कन कन होइ बेहराई । पिय कहँ? छार समेटै आई॥ बिरह पवन बह छार सरीरू । छारहि आनि मेरावहु नीरू॥ अबहुँ जियाबहु कै मया, बिथुरी छार समेट। नइ काया अवतार नव, होइ तुम्हारे भेंट॥2॥ नैन सीप, मोती भरि ऑंसू । टुटि-टुटि परहिं करहिं तन नासू॥ पदिक पदारथ पदमावति नारी । पिय बिनु भइ कौड़ी बर बारी॥ सँग लेइ गयउ रतन सब जोती । कंचन कया काँच कै पोती॥ बूड़ति हौं दुख दगधा गँभीरा । तुम बिनु कंत! लाव को तीरा?॥ हिये बिरह होइ चढ़ा पहारू । चल जोबन सहि सकै न भारू॥ जल महँ अगिनि सो जान बिछूना । पाहन जरहिं, होहिं सब चूना॥ कौने जतन, कंत! तुम्ह पावौं । आजु आगि हौं जरत बुझावौं॥ कौन खंड हौं हेरौं, कहाँ बँधो हौ नाह। हेरे कतहुँ न पावौं, बसै तु हिरदय माहँ॥3॥ नागमतिहि 'पिय पिय' रट लागी । निसि दिन तपै मच्छ जिमिआगी॥ भँवर, भुजंग कहाँ, हो पिया । हम ठेघा तुम कान न किया॥ भूलि न जाहि कँवल के पाहाँ । बाँधात बिलँब न लागै नाहा॥ कहाँ सो सूर पास हौं जाऊँ । बाँधाा भँवर छोरि कै लाऊँ॥ कहाँ जाउँ को कहै सँदेसा? । जाउँ सो तहँ जोगिन के भेसा॥ फारि पट रहि, पहिरौं कंथा । जौ मोहिं कोउ देखावै पंथा॥ वह पथपलकन्ह जाइ बोहारौं । सीस चरन कै तहाँ सिधाारौं॥ को गुरु अगुवा होइ, सखि! मोहि लावै पथ माँह। तन मन धान बलि बलि करौं, जो रे मिलावै नाह॥4॥ कै कै कारन रोवै बाला । जनु टुटहिं मोतिन्ह कै माला॥ रोवति भई, न साँस सँभारा । नैन जस ओरति धारा॥ जाकर रतन परै पर हाथा । सो अनाथ किमि जीवै नाथा!॥ पाँच रतन ओहि रतनहि लागे । बेगि आउ पिय रतन सभागे!॥ रही न जोति नैन भए खीने । òवन न सुनौं, बैन तुम लीने॥ रसनहिं रस नहिं एकौ भावा । नासिक और बास नहिं आवा॥ तचि तचि तुम्ह बिनु ऍंग मोहिलागे । पाँचौ दगधिा बिरह अबजागे॥ बिरह सो जारि भसम कै, चहै उड़ावा खेह। आइ जो धानि पिय मेरवै, करि सो देइ नइ देह॥5॥ पिय बिनु ब्याकुल बिलपै नागा । बिरहा तपनि साम भए कागा॥ पवन पानि कह सीतल पीऊ? । जेहि देखे पलुहै तन जीऊ॥ कहँ सौ बासमलयगिरि नाहा । जेहि कल परति देत गलबाहाँ॥ पदमावतिठगिनिभईकितसाथा । जेहिं तें रतन परा पर हाथा॥ होइ बसंत आवहु पिय केसरि । देखे फिर फूलै नागेसरि॥ तुम्ह बिनु, नाह! रहै हिय तचा । अब नहिं बिरह गरुड़ सौ बचा॥ अब ऍंधिायार परा, मसि लागी । तुम्ह बिनु कौन बुझावै आगी?॥ नैन, òवन, रस रसना, सबै खीन भए, नाह। कौन सो दिन जेहि भेंटि कै, आइ करै सुख छाँह॥6॥ (1) निबहुर=जहाँ से कोई न लौटे (स्त्रिायाँ निबहुरा कहकर गाली भी देती हैं)। लेजुरि=रस्सी, डोरी (रज्जु का मागधाी रूप)। (2) बह=बहता है, उड़ा-उड़ा फिरता है। छारहि...नीरू=तुम जल होकर धाूल के कणों को मिलाकर फिर शरीर दो। (3) पोती=गुरिया। चल=चंचल, अस्थिर। बिछूना=बिछोह। जल महँ... बिछूना=वियोग को जल में की आग समझो, जिससे पत्थर के टुकड़े पिघलकर चूना हो जाते हैं (चूने के कड़े टुकड़ों पर पानी पड़ते ही वे गरम होकर गल जाते हैं)। (4) आगी=आग में। ठेघा=सहारा या आश्रय लिया। सूर=भौंरे का प्रतिद्वंद्वी सूर्य। बोहारौं=झाड़ँ लगाऊँ। सीस चरन कै=सिर को पैर बनाकर अर्थात् सिर के बल चलकर। (5) कारन=कारुण्य, करुणा, विलाप (अवधाी)। ओरति=ओलती। पाँच रतन=पाँचों इंद्रियाँ। ओहि रतनहि लागे=उस रत्नसेन की ओर लगे हैं। तचि तचि=जल जलकर, तपते से। पाँचौ=पाँचों इंद्रियाँ। (6) नागा=नागमती। गरुड़=गरुड़ जो नाग (यहाँ नागमती) का शत्राु है।