तेरे रू-ए-रौशन को शम्स[1] ही कहा जाये
रात की तरह गेसू गर न गिर्द हों छाये
जब उलझ गयीं ज़ुल्फ़ें आपकी ख़यालों से
तब तब अपनी नज़्मों के ज़ुल्फ़ हमने सुलझाये
तोड़ दो मनादिर[2] को तोड़ दो मसाजिद[3] को
ताकि लामकाँ[4] अपने हर मकाँ में रह पाये
मेरे शेर ऐसे हैं जिस तरह कोई बच्चा
कहना और कुछ चाहे और कुछ ही कह जाये
मेरे शेर जिसके हैं वो भी जाने महफ़िल काश
साथ साथ मह्फ़िल के मेरे शेर सुन पाये