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वैचारिकी

रणभूमि में भाषा

विभूति नारायण राय

अनुक्रम उपमहाद्वीप की भाषा पीछे     आगे

भाषा को लेकर सबसे दिलचस्प बात यह है कि एक तरफ तो इसका इस्तेमाल प्रभु वर्ग अपनी जकड मजबूत करने के लिये करतें हैं तो दूसरी ओर वंचित अपने प्रतिरोध की लडाई भी इसी के माध्यम से लडतें हैं. मनुष्य ने अपने क्रमिक विकास के विभिन्न चरणों में भाषा भी विकसित की है और जिन संस्थाओं में विकास के दौरान हुये परिवर्तन सबसे अधिक परिलक्षित होतें हैं उनमें शायद भाषा सबसे ऊपर होगी. भारतीय सन्दर्भ में देंखे तो एक ढीली ढाली और व्याकरण की जकडबन्दी से काफी हद तक मुक्त सम्पर्क भाषा ने हमें एक राष्ट्र -राज्य बनने में मदद की तो दूसरे तरफ धर्माधारित विभाजन के बीज भी इसी ने बोये.यहां विस्तार में गये बिना भी दो उदाहरणों से इस बात को समझा जा सकता है .आर्य समाज अपने समय के लिहाज से क्रान्तिकारी आंदोलन था. कर्मकाण्डों और जातिप्रथा की जकडबन्दी को काफी हद तक उत्तर पश्चिम के इलाकों में उसने ढीला किया पर भाषा के प्रश्न पर इसका दृष्टिकोण बाद में विभाजनकारी साबित हुआ. हिन्दी , हिन्दू, हिन्दुस्तान के नारे ने पंजाब के हिन्दुओं को जनगणना के दौरान अपनी मातृभाषा हिन्दी लिखवाने के लिये प्रेरित किया . यह एक अजीब विरोधाभास था. घरों में और आपस में हमेशा पंजाबी बोलने वालों नें मातृभाषा के कालम में हिन्दी लिखवाना शुरू किया और इससे हिन्दुओं और सिक्खों की एक दूसरे में रची बसी परम्पराओं में दरार पडनी शुरू हुयी. बाद के खालिस्तानी आंदोलन के पीछे और जो भी कारण रहें हों एक बडा कारण यह दरार भी थी.

भाषा को लेकर भारतीय राष्ट्र राज्य के समक्ष दूसरी बडी चुनौती 1965 में आयी. याद होगा कि संविधान के मुताबिक व्यवस्था की गयी थी कि इसके लागू होने के 15 वर्षों के भीतर संघ के कामकाज की भाषा हिन्दी हो जायेगी. यह एक लम्बी कहानी है कि कैसे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे अहिन्दी भाषी नेता धीरे धीरे हिन्दी विरोधी होते चले गये और ज्यों ज्यों हिन्दी के पूरी तरह से राजभाषा बनने का समय करीब आता गया हिन्दीतर क्षेत्रों खास तौर से दक्षिण और पूरब में हिन्दी के खिलाफ भावनायें सख्त होतीं गयीं. इस स्थिति के लिये काफी हद तक हिन्दी भाषी जिम्मेदार थे. हमारे यहां डा. रघुबीर की पारिभाषिक शब्दावली थी जिसका उपयोग लतीफों में ज्यादा होता था, आकाशवाणी में प्रयोग होने वाली मुश्किल संस्कृतनिष्ठ भाषा थी जिसे समझने के लिये शब्दकोशों की जरूरत पडती थी या फिर बडे होने का दम्भ लिये हिन्दी समाज था जो यह तो चाहता था कि सभी अहिन्दी भाषी हिन्दी पढें पर उसे अंग्रेजी के अलावा कोई दूसरी भाषा नहीं पढनी पडे. त्रिभाषा फार्मूला बना जरूर पर उसमें हिन्दी भाषी क्षेत्रों में कोई जीवित भारतीय भाषा जगह नहीं बना सकी.ज्यादातर जगहों पर संस्कृत तीसरी भाषा के रूप में पढाई जाने लगी. हिन्दी समाज की असहिष्णुता के एक खराब उदाहरण सेठ गोविंद दास थे जिन्होंने मांग की थी कि यदि मद्रासी हिन्दी स्वीकार नहीं करें तो फौज भेजकर वहां हिन्दी लागू की जाय. गनीमत यह हुयी कि उनकी मांग को किसी राजनेता ने गंभीरता से नहीं लिया. यह जरूर हुआ कि इस बयान पर मद्रास में आग लग गयी. केन्द्रीय सरकार के दफ्तर लूट लिये गये और कई पुलिस वाले जिंदा जला दिये गये. इससे यह स्पष्ट हो गया कि अगर हिन्दी को जबर्दस्ती लागू करने की मांग की जायेगी तो देश टूट जायेगा और तब से आज तक कभी भी गंभीरता से हिन्दी को राजभाषा बनाने की कोशिश नहीं हुयी.सिर्फ फर्ज अदायगी के लिये हर साल केन्द्रीय सरकार के दफ्तर राजभाषा पखवारा मनातें हैं, हिन्दी में काम करने की कसमें खातें हैं और फिर भूल जातें हैं.

मैं भारतीय संदर्भ को सिर्फ इसलिये याद कर रहा हूं कि इससें हमें पाकिस्तान के भाषा के अनुभव को समझने में मदद मिलेगी. पाकिस्तान की स्थिति भारत से थोडी भिन्न इस अर्थ में थी कि उर्दू , जिसे पाकिस्तानियत का पर्याय मनवाने की कोशिश की गयी, पाकिस्तान के किसी भी इलाके की जुबान नहीं थी. पाकिस्तान की पांच उपराष्ट्रीयताओं की अपनी अपनी जुबानें थीं. मोटे तौर पर कह सकतें हैं कि पूर्वी पाकिस्तान की भाषा बांग्ला, पंजाब की पंजाबी , सिन्ध की सिन्धी, बलोचिस्तान की बलूची और फ्रन्टियर की भाषा पश्तो थी. सरायकी और दरी जैसी भाषायें भी थीं जो किसी बडी भाषिक राष्ट्रीयता के तले अपनी अलग पहचान बनाने के लिये छटपटाती रहतीं थीं. इन सबके बीच राजभाषा बनी उर्दू जो पाकिस्तान के किसी भी खित्ते में नहीं बोली जाती थी .उर्दू उन शरणार्थियों की भाषा थी जो उत्तरी भारत के विभिन्न हिस्सों से उजडक़र पाकिस्तान पहुंचे थे और मोहाजिर कहलाते थे.

उर्दू को राजभाषा क्यों बनाया गया? कारण बडा स्पष्ट है. उस समय तक उर्दू भारतीय इस्लामी पहचान के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी. बावजूद इसके कि बडी संख्या में गैर मुस्लिमों , खास तौर से हिन्दुओं ने उर्दू के विकास और उसके फलने फूलने में योगदान किया था, यह माना जाने लगा था कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है और यह स्वाभाविक ही था कि मुसलमानों के लिये बनने वाले अलग राष्ट्र की राजभाषा उर्दू हो.यह कुछ कुछ हिन्दी वाली स्थिति थी जो उस समय तक हिन्दू पहचान बन चुकी थी. देश का विभाजन धर्माधारित द्विराष्ट्र सिध्दान्त पर हुआ था और बावजूद इसके कि धर्म पर आधारित राष्ट्र की परिकल्पना निहायत ही अवास्तविक और हास्यास्पद थी, बहुत बडी संख्या में लोगों ने उस पर यकीन किया और बंटने के बाद कम से कम एक राष्ट्र इस बुनियाद पर बना.द्विराष्ट्र सिध्दांत 25 वर्ष बाद बांग्ला देश बनने के बाद खोखला साबित नहीं हुआ बल्कि 1947 में ही भारत के हिन्दू राष्ट्र न बनकर एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बनने से उसकी वैधता और तार्किकता पर प्रश्नचिन्ह लग गया था. धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र अपने सामने आने वाली चुनौतियों का अलग अलग तरीकों से हल ढूंढतें हैं.यही फर्क इन दोनों नवजात राष्ट्रों द्वारा भाषा के सवाल को हल करने के तौर तरीकों में दिखता है.

1948 में जिन्ना ढाका गये. ढाका विश्वविद्यालय के छात्रों के सामने दिया गया उनका भाषण धर्माधारित राज्य की असहिष्णुता का सबसे बडा उदाहरण है.यह एक सर्वविदित तथ्य है कि पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों का अपने भाषा को लेकर आग्रह दूसरी सभी भाषिक राष्ट्रीयताओं -पंजाबी, सिंधी, बलूच या पश्तो- से अधिक था.इससे भी बडी बात यह थी कि बंगाली भाषा पाकिस्तान के किसी भी दूसरी भाषा को बोलने वालों से न सिर्फ अधिक थे बल्कि पाकिस्तान की आधी आबादी से भी कुछ अधिक थे. भाषा उनके लिये सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं थी बल्कि इससे भी अधिक एक बहुराष्ट्रीयताओं वाले समाज में अलग और विशिष्ट पहचान थी.इनके अलावा एक नवसृजित राष्ट्र में राजनैतिक स्पेस और तेजी से बढ रही सरकारी नौकरियां भी भाषा के माध्यम से ही हासिल की जा सकतीं थीं.इस पृष्ठभूमि में ढाका में लडक़ों के सामने जिन्ना की यह दम्भोक्ति कि पाकिस्तान में अब उर्दू ही संपर्क भाषा होगी और उच्च शिक्षा भी उसी माध्यम से दी जायेगी , पाकिस्तानी राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को सबसे बडी चोट पहुंचाने वाली साबित हुयी.जिन्ना की यात्रा के दौरान ही ढाका विश्वविद्यालय के छात्र सडक़ों पर निकल आये और उनके विरोध को कुचलने के लिये पुलिस को गोली चलानी पडी .अाज भी ढाका में विश्वविद्यालय के निकट उन मारे गये छात्रों का स्मारक धर्म पर आधारित दो राष्ट्रों के सिध्दान्त को मुंह चिढाता हुआ खडा है.

भारतीय राष्ट्र राज्य ने भी अगर भाषा की समस्या का इसी तरह समाधान निकालने की कोशिश की होती तो क्या हश्र होता? मुझे पूरा यकीन है कि अगर सेठ गोविन्द दास की सलाह मानकर मद्रास में हिन्दी लागू करने के लिये सेना भेजी गयी होती तो उसी दिन से देश टूटने की शुरूआता हो जाती. अपने बहुत सारे विचलन के बावजूद धर्म निरपेक्षता और अपनी बहुत सारी कमियों के साथ लोकतंत्र नें हमें वह सहिष्णुता दी है जिससे अपने विपक्षी की बात भी सुनने का धैर्य उत्पन्न होता है. भाषा से मिलता जुलता एक मुद्दा गोहत्या का भी है. सभी को पता है कि देश के बडे हिस्से में गोहत्या प्रतिबन्धित नहीं है .खास तौर से उत्तर पूर्व में गोमांस भोजन का अनिवार्य हिस्सा है. हिन्दुत्ववादियों नें 6 वर्षों तक केन्द्र में सरकार चलाई और चाहते हुये भी यह सरकार गोहत्या पर प्रतिबंध नहीं लगा सकी. एक बहुल समाज सिर्फ लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों द्वारा ही एक रह सकता है.

पाकिस्तान की बुनियाद ही धर्म पर पडी.क़िसी भी दूसरे धार्मिक राज्य की तरह उसका भी विकास असहिष्णुता और लोकतंत्र निषेध रास्ते पर हुआ.यह राज्य किसी तरह की मुखालिफत स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं था. भाषा को लेकर भी उसने यही दृष्टिकोण अपनाया. यह बात अलग है कि भाषिक राष्ट्रीयताओं को न स्वीकारने से पाकिस्तान एक बार टूट चुका है और भाषिक कट्टरता उसे बार बार फिर टूटने के कगार पर ले आती है.

आधुनिक भारतीय समाज और पाकिस्तानी समाज का भाषा के प्रश्न से जुडे एक मुद्दे पर एक जैसा ही दृष्टिकोण है. दोनों समाज अंग्रेजी को लेकर आक्रांत है .बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में प्रभुवर्गों की भाषा बनी अंग्रेजी इस समय दोनों समाजों के मध्यवर्ग की सबसे बडी ललक है.अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार खोलने की खिडक़ी मात्र नहीं है.यह दोनो देशों के अन्दर नौकरियां हासिल करने का माध्यम तो है ही, इसे बोलने और समझने वाले एक खास तरह की सामाजिक प्रतिष्ठा भी हासिल कर लेतें हैं.जैसे जैसे उदारीकरण और खुलेपन का विस्तार हो रहा है अंग्रेजी की जरूरत भी बढती जा रही है.

मैं एक छात्र के रूप में 1967 के दौर में चले भाषा आंदोलन में भागीदार रहा हूं. इस आंदोलन नें हिन्दी भाषी क्षेत्रों में अंग्रेजी का वर्चस्व लगभग समाप्त कर दिया था.अंग्रेजी की अनिवार्य पढाई समाप्त हो गयी थी, अंग्रेजी माध्यम की जगह हिन्दी में उच्च शिक्षा मिलने लगी थी और सरकारी कामकाज की भाषा हिन्दी बन गयी थी. पर इस आंदोलन की एक बात मुझे हमेशा दिलचस्प लगती है . यदि आप इस आंदोलन से जुडे युवा नेताओं की फेहरिश्त लेकर बैठें तो पायेंगे कि उनमें से आज बहुत से राजनीति के शीर्ष पर हैं. अलग अलग प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और राज्यों तथा केन्द्र के मंत्रियों में बहुत से हैं जो उसी आंदोलन की उपज हैं.इन सबकी खास बात यह है इन सबने अपने बच्चों को अंग्रजी स्कूलों में भेजा. राजनीति के भाग्य विधाता बननें के बाद इन्होंने दोहरी शिक्षा प्रणाली को बरकरार रखा.नतीजा यह हुआ कि जो समर्थ हैं वे सभी अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने लगे हैं और हिन्दी माध्यम स्कूलों में वही लोग अपने बच्चों को भेजतें हैं जिनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है.पिछले कुछ वर्षो में सारे सरकारी स्कूल नष्ट हो गये हैं और गांवों -कस्बों-शहरों में पब्लिक स्कूलों के माध्यम से अंग्रेजी स्कूलों की बाढ अा गयी है.

अपनी हाल की पाकिस्तान यात्रा के दौरान मैंने इस बात की जानकारी हासिल करने की कोशिश की कि वहां इस मसले पर क्या हुआ है ? मुझे यह देखकर बडा मजा आया कि पाकिस्तानी प्रभुवर्गों ने भी अपने भारतीय समकक्षों की तरह ही आचरण किया है. जिन्होंने उर्दू को पाकिस्तानियत और इस्लामियत का पर्याय बताया उन सभी के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में पढतें हैं.इनमें राजनैतिक नेता और फौजी हुक्मरान तो हैं ही इस्लाम के अलमबरदार कट्टरपंथी मुल्ला भी हैं जो गरीब पाकिस्तानियों के बच्चों को मदरसों में भिजवातें हैं और अपने बच्चों को शैतान की जुबान अंग्रेजी में तालीम दिलवातें हैं और अगर कहीं मौका मिल जाये तो शैतान के निवास स्थान अमेरिका या ब्रिटेन में पढने भेज देतें हैं.


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