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विमर्श

हिंदी जाति की समस्याएँ

अमरनाथ

अनुक्रम

अनुक्रम 1. भूमिका     आगे

'अपनी भाषा' (कोलकाता) नामक संस्था का गठन सन 2000 में हुआ था। उस समय हमारा मुख्य उद्देश्य था हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच समानता के सूत्र तलाशना, उनके बीच सेतु कायम करना और उन्हें अँग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ, एकजुट करना। इस बीच हमने देखा कि हिंदी की एक बोली मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग यदा-कदा उठती रही। हमने अपनी बैठकों में इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार किया। इस विषय पर गोष्ठियाँ की। हमारी संस्था में मैथिली भाषी, राजस्थानी भाषी, भोजपुरी भाषी, अवधी भाषी सभी तरह के सक्रिय सदस्य हैं। बहुत विचार-विमर्श के बाद हमारा निष्कर्ष था कि हिंदी की बोलियों द्वारा उठाई जाने वाली माँग हिंदी की शक्ति को खंडित करने वाली है। हमने अपने मंच से ऐसी माँगों का विरोध किया और इसे आत्मघाती करार दिया। कुछ दिन बाद सन 2005 में अचानक अखबार में एक छोटी सी खबर पढ़ने को मिली कि मैथिली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया है।

अखबार में इस खबर के लिए इतनी कम जगह दी गई थी कि आम पाठकों की निगाह भी उस पर नहीं पड़ी होगी। किंतु हमारी संस्था के सदस्यों के लिए यह घटना बेचैन कर देने वाली थी। इसके बाद तो भोजपुरी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी आदि को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग तेज हो गई। मैथिली को जगह मिलने के बाद इस तरह की माँग का उठना स्वाभाविक भी है क्योंकि एक-डेढ़ करोड़ मैथिली भाषियों की तुलना में भोजपुरी, राजस्थानी और छत्तीसगढ़ी बोलने वालों की संख्या कई गुना अधिक है। फिर अवधी और ब्रजी ने कौन सा अपराध किया है जबकि उनके पास 'रामचरितमानस', पद्मावत' और 'सूरसागर' जैसे ग्रंथ हैं। ब्रजी में तो हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग अर्थात भक्ति काल और रीति काल का अधिकांश साहित्य है।

मैं 1994 ई. में पहली बार बंगाल आया - अध्यापक के रूप में। यहाँ उत्तर बंगाल में उस समय भी अलग होने के लिए आंदोलन चल रहा था। उस समय आंदोलन का नेतृत्व सुभाष घीसिंग कर रहे थे। आज बंगाल की राजनीति में बड़ा परिवर्तन हो चुका है। 34 साल पुरानी वाम मोर्चे की सत्ता खत्म हो चुकी है और आज ममता बनर्जी यहाँ की मुख्यमंत्री हैं। उत्तर बंगाल के अलगाववादी आंदोलन का नेतृत्व भी अब सुभाष घीसिंग के हाथ से निकलकर विमल गुरुंग के हाथ में आ गया है। दार्जिलिंग ही नहीं, पूरा पहाड़ आए दिन बंद होता रहता है, उत्तर बंगाल की भाषा नेपाली है, उसकी जाति अलग है, संस्कृति अलग है, भौगोलिक क्षेत्र अलग है किंतु आज भी बंगाल का बँटवारा नहीं हो

सका। यद्यपि यह आंदोलन लगभग दो दशक से चल रहा है और दूसरी ओर पिछले दशक में हिंदी भाषी राज्यों के कई टुकड़े किए गए। उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश तीनों प्रांत बँटे किंतु कही से प्रतिरोध की कोई आवाज नहीं सुनाई दी। हाँ, जब बिहार दो टुकड़ों में बँटा और झारखंड बना तो उसके कुछ ही दिन बाद किसी काम से मुझे जमशेदपुर जाना पड़ा। जमशेदपुर यानी झारखंड में। वहाँ मुझे एक गीत सुनने को मिला, 'रबड़ी मलाई खइलू कइलू तन बुलंद, अब खइह सकरकंद, अलगा भइल झारखंड।'

इस गीत ने मुझे विचलित कर दिया। बिहार का बँटना घर बँटने जैसा था। बड़े परिवार का बँटना कभी-कभी स्वस्थ विकास के लिए जरूरी होता है, किंतु बँटने का दर्द तो होता ही है। परिवार के जिम्मेदार सदस्य को ऐसा तो लगता ही है कि काश कुछ दिन और साथ रह पाते। किंतु बँटने के बाद इस तरह के गीत? इस गीत में यह भाव छिपा है कि झारखंड बनने के बाद बिहार के पास बचा ही क्या है? खनिज की सारी खानें तो झारखंड में पड़ गई। कुछ खेती की भूमि जिसे गंगा, गंडक और कोसी जब-तब निगलती रहती है, इसके अलावा बिहार के पास है क्या? किंतु आज लगभग दस साल बाद हम कह सकते हैं, कि विकास सुशासन से होता है - छोटे राज्य होने से नहीं। बिहार आज तेजी से विकास के डग भर रहा है और झारखंड में मधु कोड़ा जैसे भ्रष्ट पैदा हो रहे हैं और वह पिछड़ता चला जा रहा है। मुझे बंगालियों की जातीय चेतना और हिंदी भाषियों की जातीय चेतना में जमीन - आसमान का अंतर दिखाई दिया। कोई भी सुसंस्कृति जाति अपने ही समुदाय के बँट जाने पर उसके प्रति ऐसा दुर्भाव नहीं रख सकती। दो भाई, अलग होते ही एक-दूसरे के दुश्मन बन गए तो वे बर्बर और असभ्य ही कहे जाएँगे, सभ्य और सुसंस्कृत नहीं।

वर्ष 2006 के नवंबर महीने में 'अपनी भाषा' की ओर से भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता के सभागार में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुई थी जिसमें नामवर सिंह, महाश्वेता देवी, कृष्ण बिहारी मिश्र, पवित्र सरकार, प्रतिभा अग्रवाल, रविभूषण, उदयनारायण सिंह आदि ने अपने विचार रखे थे। इस संगोष्ठी को संबोधित करते हुए प्रतिष्ठित भाषा वैज्ञानिक उदयनारायण सिंह ने आरंभ में ही कहा, 'मैं या तो अँग्रेजी में बोलता हूँ या मैथिली में। किंतु आज मैं हिंदी में बोलूँगा। गलतियों के लिए आप माफ करेंगे।' इसके बाद उन्होंने हिंदी में अपना सुंदर भाषण उसी तरह दिया जैसे कोई भी हिंदी का विद्वान देता है। पाठकों की सुविधा के लिए मैं याद दिला दूँ कि प्रो. उदयनारायण सिंह मूलतः मिथिलांचल के हैं।

मैं चिंता में पड़ गया कि क्या हिंदी से अलग होकर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के बाद मैथिली का रवैया इस सीमा तक बदल जाएगा? उदयनारायण सिंह के विचार से अब मैथिली, हिंदी से अलग वैसे ही एक स्वतंत्र भाषा है जैसे बंगला, उड़िया, असमिया, तमिल या तेलगु। उनकी निगाह में अब विद्यापति हिंदी के कवि नहीं रहे। वे सिर्फ मैथिली के कवि हैं।

फरवरी 2009 में छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी में शामिल होने का अवसर मिला था। 'हिंदी और आंचलिक बोलियों के बीच अंतर्संवाद' विषय पर आयोजित दो दिवसीय यह संगोष्ठी कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर, मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल और छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न हुई थी। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के सर्किट हाउस में आयोजित इस सेमिनार में कई बड़ी हस्तियों ने हिस्सा लिया था और इसका उद्घाटन किया था। छत्तीसगढ़ विधान सभा के अध्यक्ष श्री धर्मपाल कौशिक ने। मुख्य अतिथि धर्मपाल कौशिक जब अपना उद्घाटन वक्तव्य हिंदी में रख रहे थे तो श्रोताओं में से कुछ लोगों ने उनका यह कहकर विरोध किया कि यह तो राजभाषा के प्रति दगाबाजी है। दरअसल मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ राज्य बना तो कुछ दिनों बाद अर्थात 28 नवंबर 2007 को छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार ने छत्तीसगढ़ी को वहाँ की राजभाषा बना दिया। वहाँ की विधान सभा ने इस आशय का एक प्रस्ताव पारित करके केंद्र को भी भेज दिया कि छत्तीसगढ़ी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाएँ। जाहिर है, राजभाषा छत्तीसगढ़ी के विकास के लिए राजभाषा आयोग भी बना और उसके विकास के लिए बजट भी रखा गया। अब छत्तीसगढ़ी में लिखने वाले लोगों की चाँदी थी। उनके लिए भाँति-भाँति के पुरस्कार घोषित किए जाने लगे। छत्तीगढ़ी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं को आर्थिक सहयोग मिलने लगा। जिन लोगों ने उद्घाटन भाषण हिंदी में दिए जाने का विरोध किया था उनके मुँह से मैंने यह भी सुना कि यदि राजभाषा छत्तीसगढ़ी को प्रतिष्ठित करना है तो हिंदी का विरोध तो करना ही पड़ेगा। अपने ही लोगों द्वारा राजभाषा हिंदी का खुलकर विरोध करने की इस घटना ने मुझे विचलित कर दिया था। मैं इस समस्या की तह तक जाने की कोशिश में लग गया।

मैथिली को आठवीं अनुसूची में शामिल होने के बाद सबसे जोरदार माँग भोजपुरी और राजस्थानी की ओर से हो रही है। अली अनवर अंसारी, संजय निरूपम, योगी आदित्यनाथ, प्रभुनाथ सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह आदि ने कई बार संसद में यह माँग उठाई है। भोजपुरी फिल्मों में अभिनय करने वाले रवि किशन ने भी समय-समय पर यह माँग उठाई है। तीन-चार वर्ष पहले जब मैं गोरखपुर गया था तो समय निकालकर सांसद योगी आदित्यनाथ से मिला। वे लोकसभा में कई बार भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग कर चुके हैं। मैं उनसे मिलकर उनकी इस माँग के परिणाम की ओर ध्यान दिलाना चाहता था और प्रकारांतर से उन्हें सचेत करना चाहता था। योगी आदित्यनाथ मिले भी। समय भी दिया किंतु खेद है, उन्होंने हिंदी का ठीक से विकास न कर पाने के लिए हिंदी के प्रोफेसरों को लताड़ा और जाते-जाते यह भी कहा कि वे भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में इसलिए लाना चाहते हैं ताकि वे उसे उत्तर प्रदेश की दूसरी राजभाषा बना सकें। संकेत स्पष्ट था। उत्तर प्रदेश में दूसरी राजभाषा उर्दू है। उनकी योजना उर्दू की जगह भोजपुरी को लाने की होगी। मैंने यह कहते हुए अपनी राह ली कि यदि वे खुद इस देश के प्रधानमंत्री बन जाएँ तो भी उर्दू को उसकी जगह से नहीं हटा सकेंगे क्योंकि उन जैसे राजनेताओं ने उसे मजहब से जोड़ दिया है। हाँ, भोजपुरी को हिंदी से अलग करके हिंदी की सबसे मजबूत टाँग जरूर तोड़ देंगे।

भागलपुर विश्वविद्यालय में अंगिका में भी एम.ए. की पढ़ाई होती है। मैंने वहाँ के एक शिक्षक से पूछा कि अंगिका में एम.ए. करने वालों का भविष्य क्या है? उन्होंने बताया कि उन्हें सिर्फ डिग्री से मतलब होता है विषय से नहीं। एम.ए. की डिग्री मिल जाने से एल.टी. ग्रेड के शिक्षक को पी.जी. (प्रवक्ता) का वेतनमान मिलने लगता है। वैसे नियमित कक्षाएँ कम ही चलती हैं। जिन्हें डिग्री की लालसा होती है वे ही प्रवेश लेते हैं और अमूमन सिर्फ परीक्षा देने आते हैं। जिस शिक्षक से मैंने प्रश्न किया था उनका भी एक उपन्यास पाठ्यक्रम में लगा है जिसे इसी उद्देश्य से उन्होंने अंगिका में लिखा है मगर हैं वे हिंदी के प्रोफेसर। वे रोटी तो हिंदी की खाते हैं किंतु अंगिका को संवैधानिक दर्जा दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं जिसके पीछे उनका यही स्वार्थ है। अंगिका के लोग अपने पड़ोसी मैथिली वालों पर आरोप लगाते हैं कि उन लोगों ने जिस साहित्य को अपना बनाकर पेश किया है और संवैधानिक दर्जा हासिल किया है उसका बहुत सा हिस्सा वस्तुतः अंगिका का है। इस तरह पड़ोस की मैथिली ने उनके साथ धोखा किया है। यानी, बोलियों के आपसी अंतर्विरोध। अस्मिताओं की वकालत करने वालों के पास इसके क्या जवाब हैं?

हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सन 2005 में एक ज्ञान आयोग का गठन किया है जिसके अध्यक्ष सैम पित्रोदा हैं। सुना है कि वे वही महाशय हैं जिन्होंने मुंबई के एक सेमिनार में किसी वैज्ञानिक द्वारा हिंदी में अपना शोध पत्र पढ़ने पर सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगी थी क्योंकि वे उस सेमिनार की अध्यक्षता कर रहे थे। इस ज्ञान आयोग के अन्य सदस्य हैं - डॉ. अशोक गांगुली, डॉ. पी. बलराम, डॉ. जयती घोष, डॉ. दीपक नैयर, डॉ. नंदन नीलकनी, डॉ. सुजाता रामदोराई और डॉ. अमिताभ कुट्टू। जाहिर है ये सभी अपने-अपने क्षेत्रों के विशेषज्ञ हैं और हैं सत्ता में बैठे उन चंद अरबपतियों के बौद्धिक प्रतिनिधि, जिनसे विकास और आजादी परिभाषित होती है। इनमें से कोई ऐसा नहीं है जिन्हें हमारे देश की सांस्कृतिक परंपरा से कोई लगाव हो अथवा उस व्यक्ति के बारे में ही कोई समझ हो जिसके नेतृत्व में भारत को आजादी मिली और जिसने भारत के विकास का एक दूसरा ही माडल कल्पित कर रखा था। ये उस सभ्यता के नुमाइंदे हैं जिसे राष्ट्रपिता ने अपने हिंदी स्वराज में शैतानी सभ्यता कहा है।

अपनी सिफारिशों में आयोग का मानना है कि अँग्रेजी भाषा की समझ और उस पर मजबूत पकड़ उच्च शिक्षा, रोजगार की संभावनाओं और सामाजिक अवसरों की सुलभता तय करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है। इसलिए आयोग ने सुझाव दिया है कि 'अब समय आ गया है कि देश के आम लोगों को स्कूलों में भाषा के रूप में अँग्रेजी पढ़ाएँ और अगर इस मामले में तुरंत कार्यवाही शुरू कर दी जाएँ तो एक समाहित समाज की रचना करने और भारत को ज्ञानवान समाज बनाने में मदद मिलेगी।' (राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का प्रतिवेदन, पृ.28)। इनका उद्देश्य देश के 99 प्रतिशत आबादी को अँग्रेजी में पारंगत करना है। दरअसल, यह अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) के द्वारा दिए गए ऋण की अघोषित शर्त है। यह 'एजूकेशन फार आल' नहीं, अपितु 'इंग्लिश फार आल' का साम्राज्यवादी एजेंडा है।

आयोग के सुझाव के बाद देश के सभी राज्यों में पहली कक्षा से अँग्रेजी की शिक्षा शुरू हो गई है। पूर्वोत्तर के अलावा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने तो खुद अँग्रेजी माध्यम के सरकारी विद्यालय खोलने शुरू कर दिए हैं। इस समय केंद्र और राज्य सरकारों में यह आम सहमति बनती दिखाई दे रही है कि भारतीय भाषाओं में अध्ययन करने के कारण बच्चे पिछड़ते जा रहे हैं जबकि पिछड़ेपन के मूल कारण कही और हैं।

अर्जुन सेनगुप्त आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश के 87 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में ही सरकारी स्कूल हैं और इनमें से एक लाख सरकारी स्कूलों में सिर्फ एक कमरे हैं। औसत 42 छात्रों पर एक शिक्षक हैं। 80 हजार स्कूलों में ब्लैक बोर्ड तक नहीं है। 10 प्रतिशत के पास पीने का पानी तक नहीं है। यह ऐसा गरीब देश है जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा अमीर पैदा होने लगे हैं।

जहाँ संसाधनों की इतनी कमी हो वहाँ बच्चों के ज्ञान का स्तर क्या होगा? इसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। किंतु ये विद्यालय क्षेत्रीय भाषाओं के हैं इसलिए ठीकरा क्षेत्रीय भाषाओं पर फोड़ा जा रहा है। जहाँ बुनियादी शिक्षा में क्षेत्रीय भाषाओं की सिमटती हुई जगह, इन भाषाओं में संचित असीमित ज्ञान के सूखते स्रोत और समाज के क्षीण होते उनके रिश्ते पर पुनर्विचार होने चाहिए, वहाँ आयोग ने सिफारिश की है कि अँग्रेजी भाषी शिक्षकों की भारी आवश्यकता को पूरी करने के लिए अँग्रेजी भाषा में दक्ष और संवाद कौशल में प्रवीण अध्यापकों को प्रशिक्षण देकर भर्ती किया जाएँ। काश! ऐसा प्रयास भारतीय भाषाओं में पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए किया जाता।

बच्चों की शिक्षा का माध्यम क्या हो यह कोई नया सवाल नहीं है। आजादी के पहले से ही इस मुद्दे पर बहसें होती रही हैं। महात्मा गांधी ने तो ऐलान ही कर दिया था कि 'यदि मैं डिक्टेटर होता तो आज से ही मातृभाषाओं में शिक्षा अनिवार्य कर देता। मैं पाठ्यपुस्तकों की प्रतीक्षा नहीं करता क्योंकि पुस्तकें तो माध्यम भाषा लागू होने के साथ-साथ खुद-ब-खुद बाजार में आ जाएगी।' विश्वविख्यात शिक्षाविद गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी विश्वभारती में शिक्षा का माध्यम बंगाल की भाषा बंगला को बनाया था। 17 फरवरी 1937 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह की उन्होंने अध्यक्षता की थी और उसे बंगला में संबोधित किया था जबकि उस समय ऐसी कल्पना कर पाना भी लोगों के लिए आसान नहीं था। उन्होंने लिखा है, 'हमारी शिक्षा प्रणाली भी कल के द्वारा चलती है। जिस भाषा में हमें शिक्षा दी जाती है उसका ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारा बहुत सा अमूल्य समय लग जाता है। और इतने समय तक हम उसके द्वार पर खड़े होकर हथौड़ा पीटने तथा ताला खोलने का अभ्यास करते-करते मर मिटते हैं। हमारा मन तेरह-चैदह वर्ष की आयु से ही ज्ञान का प्रकाश तथा भाव का रस प्राप्त करने के लिए खुलने और फैलने लगता है। उसी समय यदि उसके ऊपर किसी पराई भाषा के व्याकरण तथा शब्दकोश रटने के रूप में पत्थरों की वर्षा आरंभ कर दी जाएँ तो बतलाइए कि वह सुदृढ़ और शक्तिशाली किस प्रकार हो सकता है?' (शिक्षा, पृ.41)

अपना संविधान लागू होने के बाद इस मुद्दे पर राधाकृष्णन आयोग (1948-49), मुदालियार आयोग (1952-53), कोठारी आयोग (1964-66) आदि अनेक आयोग गठित हुए और उनके सुझाव भी आए। पश्चिम बंगाल की वामफ्रंट की सरकार ने भी रंजू गोपाल मुखर्जी आयोग और पवित्र सरकार आयोग गठित किए और उनकी रिपोर्टें प्राप्त की। प्राथमिक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए - इस मुद्दे पर सभी एकमत हैं। मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अपनी मातृभाषा में बच्चा खेल-खेल में सीखता है और बड़ी तेजी से सीखता है। उसकी कल्पनाशीलता का खुलकर विकास मातृभाषाओं में ही हो सकता है।

इन सबके बावजूद अँग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों की एक ऐसी दुनिया फल-फूल रही है जिसमें 2 से 3 प्रतिशत बच्चे ही पढ़ते हैं किंतु अकूत धन लगा हुआ है। महानगरों में पाँच सितारा संस्कृति वाले ऐसे स्कूल बड़ी संख्या में हैं जहाँ एडमीशन के लिए लाखों डोनेशन देना पड़ता है। जहाँ एडमीशन तो बच्चे का होता है किंतु इंटरव्यू माँ-बाप का लिया जाता है। इस दृष्टि से निम्न मध्यवर्ग की दशा सबसे खराब है। उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा बच्चों की पढ़ाई की भेंट चढ़ जाता है। वे आखिर करें क्या? इस देश में वे अँग्रेजी का रुतबा देख रहे हैं। इस देश की किसी भी भाषा में पारंगत होने पर आपको कोई भी नौकरी नहीं मिल सकती मगर सिर्फ एक विदेशी भाषा अँग्रेजी जानते हो तो आपको बड़ी से बड़ी नौकरी ससम्मान मिल सकती है। इस देश के शासक वर्ग ने सारे नियम कानून ऐसे बना रखे हैं कि अँग्रेजी के बगैर न तो आपको रोजी-रोटी मिलेगी और न सम्मान के साथ जीवन।

अँग्रेजी एक विदेशी भाषा है। इसकी जड़े उस मुल्क में है जिसने हमें सैकड़ों वर्ष तक गुलाम बनाए रखा। सिर्फ हमारे ही मुल्क को नहीं, अन्य और भी कई मुल्कों को। भाषा, संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा होती है। समाज की जैसी संस्कृति होती है भाषा का चरित्र भी उसी तरह का बन जाता है। दुनिया भर को लूटने की संस्कृति को जिस जाति ने ईजाद किया उनकी भाषा में स्नेह और शीतलता, करुणा और त्याग, संगीत और लालित्य तलाशना बालू से तेल निकालने जैसा है। अँग्रेजी वर्चस्व की भाषा है, विभेद की भाषा है और अहंकार की भाषा है। जब हमारे देश का कोई बच्चा आरंभ से ही इस भाषा के माध्यम से शिक्षा लेने लगता है तो वह धीरे-धीरे अपनी जमीन से कटता जाता है। भारतीय संस्कृति में वह रच-बस नहीं पाता अपितु पराई भाषा के माध्यम से उनके विषय में सिर्फ जानकारी हासिल करने की कोशिश करता है। ऐसी दशा में भला अपनी संस्कृति, अपने साहित्य और अपने समाज के प्रति उसके भीतर कितना लगाव रहेगा हमें कहने में संकोच नहीं कि आज का दौर हमारी हस्ती के मिटने का दौर है।

आज प्रति वर्ष हजारों की संख्या में इंजीनियर, वैज्ञानिक और डॉक्टर यहाँ से पढ़ाई पूरी करके विदेश चले जाते हैं। एक डॉक्टर, वैज्ञानिक या इंजीनियर तैयार करने में हमारे देश का जो धन खर्च होता है वह इस देश की जनता का है जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टैक्सों के माध्यम से सरकार के खजाने में जाता है और वहाँ से शोध संस्थानों और मेडिकल कालेजों को धन मुहैया कराया जाता है। इस देश में तो एक भिखारी को भी टैक्स देना पड़ता है। ऐसी दशा में जब एक वैज्ञानिक, डॉक्टर या इंजीनियर डिग्री लेकर निकलता है तो उसका सबसे पहला दायित्व अपने देश की जनता की सेवा का बनता है। किंतु वह तो जितना जल्दी हो सके विदेश उड़ जाना चाहता है। मानो हमने अपना लक्ष्य अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं का निर्यात करना बना लिया है तथा विदेशियों की सेवा करने के लिए इंजीनियर, वैज्ञानिक और डॉक्टर पैदा करने का ठेका ले रखा है।

आज हमारा पहला काम राष्ट्रीय जीवन से अँग्रेजी का वर्चस्व खत्म करने का होना चाहिए क्योंकि इसी में छोटे से वर्ग की ताकत निहित है जो हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और लक्ष्यों का विकृत करता रहता है। अभी 2011 में हुई जनगणना रिपोर्ट के अनुसार 63.8 प्रतिशत के साथ साक्षरता में बिहार सबसे निचले पायदान पर है और इसी के आस-पास हिंदी भाषी अन्य राज्य भी हैं जबकि दूसरी ओर धन का बहुत बड़ा हिस्सा अँग्रेजी में उच्च और व्यावसायिक शिक्षा के लिए खर्च कर दिया जाता है। इससे केवल एक छोटे से प्रभु वर्ग की ही अंतरराष्ट्रीय प्रगति हुई है। इसने राष्ट्रीय एकता को भारी नुकसान पहुँचाया है। इसके कारण महानगरीय और ग्रामीण भारत में अंतराल तेजी से बढ़ा है।

बहरहाल, हमारा अँग्रेजी से विरोध नहीं है। एक कामकाजी भाषा के रूप में अँग्रेजी ने जो मुकाम हासिल कर लिया है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। किंतु अभिजात्यवर्गीय वर्चस्व के औजार के रूप में हमें अँग्रेजी का विरोध करना ही चाहिए। राधाकृष्णन आयोग और कोठारी आयोग ने बहुत पहले ही सुझाव दिया था कि विश्वविद्यालयों की शिक्षा का माध्यम भी भारतीय भाषाएँ ही होनी चाहिए। इससे अँग्रेजी जानने वाले प्रभु वर्ग और भारतीय भाषाएँ जानने वालों के बीच की दूरी कम होगी। वैसे भी हमारा संविधान उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय की भाषा के रूप में एकमात्र अँग्रेजी को ही वैध मानता है, विश्वविद्यालयों में माध्यम भाषा अँग्रेजी है ही। इन्हीं कारणों से अँग्रेजी इस देश के एलीट वर्ग के संवाद की तथा आम लोगों के लिए एक रहस्य की भाषा बनी हुई है। अगर भारतीय भाषाएँ उच्च शिक्षा और कानून की भाषा नहीं बनेगी तो वे ज्ञान की भाषा कैसे बन सकेगी? यह ऐसा आजाद मुल्क है जहाँ नागरिकों को अपनी भाषा में न्याय पाने तक का भी अधिकार नहीं है।

वस्तुतः माध्यम भाषा के रूप में अँग्रेजी का पूरी तरह खात्मा होना चाहिए तभी देश के गली-कूचों में फैली प्रतिभाओं को फलने-फूलने का अवसर मिलेगा और वे मुख्य धारा में आ सकेगी। इतना ही नहीं, अँग्रेजी सीखने में हमारी युवा पीढ़ी का जो अकूत श्रम और समय बर्बाद होता है वह बचेगा और उसका रचनात्मक इस्तेमाल होगा।

अभी हाल में हुए अन्ना हजारे के आंदोलन ने प्रमाणित कर दिया है कि इस देश की सही अर्थों में कोई राष्ट्रभाषा है तो वह हिंदी ही है। पंजाब से लेकर गुजरात और महाराष्ट्र से लेकर बंगाल तक मुल्क के कोने-कोने में फैल जाने वाला यह आंदोलन हिंदी के माध्यम से लड़ा गया। नरेंद्र मोदी हो या विलासराव देशमुख, गोपीनाथ मुंडे हो या मनमोहन सिंह, लालकृष्ण आडवानी हो या वैंकेया नायडू, नितिन गडकरी हो या सीताराम येचुरी किसी की भाषा क्या किसी भी हिंदी भाषी की हिंदी से कमजोर है? लेकिन ये राजनेता सिर्फ जनता से हिंदी में मुखतिब होते हैं मगर शासन अँग्रेजी में करते हैं।

वैसे तो बिल गेट्स भी कहते हैं कि हिंदी कंप्यूटर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त भाषा है। यह एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमें जो कहा जाता है वही लिखा जाता है। इसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि है जिसकी मिसाल दुनिया में और कोई नहीं। फिर भी यह बाजार की भाषा नहीं बन पा रही है, ज्ञान की भाषा नहीं बन पा रही है। आखिर इसके क्या कारण हैं? इसके लिए हम क्यों अँग्रेजी के पीछे बार-बार दौड़ते हैं? हमारे सामने चीन, जापान, रूस, फ्रांस, जर्मनी आदि विकसित देश आदर्श के रूप में क्यों नहीं दिखाई देते? एक छोटे से देश इजराइल में 16 नोबेल पुरस्कार प्राप्त लोग हैं। 2008 में भौतिक शास्त्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले जापानी वैज्ञानिक को अँग्रेजी नहीं आती। चीनी और जापानी भाषाएँ दुनिया की सबसे कठिन भाषाओं में से हैं।

कहते हैं कि चीनी भाषा में दो हजार के लगभग अल्फावेट हैं। चीन आज जिस ऊँचाई पर पहुँचा है वह अपनी चीनी भाषा के माध्यम से पहुँचा है। हमारे यहाँ आमतौर पर कहा जाता है कि इंजीनियरी और मेडिकल की पढ़ाई भारतीय भाषाओं में नहीं हो सकती। किंतु अगर चीनी भाषा में विज्ञान, मेडिकल और इंजीनियरी की पढ़ाई हो सकती है तो दुनिया की किसी भी भाषा में हो सकती है। कौन नहीं जानता कि अपनी भाषा में सीखना सबसे आसान होता है। वास्तव में व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएँ सीख ले वह सोचता अपनी भाषा में है। हमारे छात्रों को अँग्रेजी में पढ़ना पड़ता है, उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए ट्रांस्लेट करना पड़ता है और फिर लिखने के लिए अँग्रेजी में ट्रांसलेट करना पड़ता है। इस तरह से उसके जीवन का बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में ही चला जाता है। अमेरिका और इंग्लैंड के बच्चों को तो ऐसा कुछ भी नहीं करना पड़ता। उन्हें उनकी मातृभाषा में सब कुछ सुलभ है। सुना है कि गत वर्ष अँग्रेजों ने एक कानून बनाया है कि इंग्लैंड में रहने के इच्छुक लोगों को अँग्रेजी भाषा के ज्ञान की एक परीक्षा पास करनी होगी।

चीनी भाषा के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा हिंदी है। भारत की आधी आबादी हिंदी बोलती है। वह इस देश के दस राज्यों में फैली हुई है। उसे महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर, काका कालेलकर और लाला लाजपत राय जैसे महापुरुषों का समर्थन हासिल है। फिर भी वह अपने ही मुल्क में निरीह और बेचारी है। आखिर इसके क्या कारण हैं? यह सवाल मुझे बार-बार उद्वेलित करता रहता है। हिंदी जाति दुनिया की सबसे बड़ी जातियों में से एक है। उसकी सांस्कृतिक परंपरा अत्यंत समृद्ध है, किंतु उसे न तो अपनी विरासत का एहसास है और न उस पर गर्व। उसे आए दिन सांप्रदायिकता की ज्वाला झुलसाती रहती है। अशिक्षा और पिछड़ापन उसकी पहचान है। वह देश-विदेश में रोटी के लिए अपना श्रम बेचती है और उसे हर जगह उपेक्षा ही मिलती है। दर-दर की ठोकरें खाना और अपमानित होना उसकी नियति बन चुकी है। आखिर ऐसा क्यों? और इसका समाधान क्या है? इन्हीं सवालों ने मुझे यह पुस्तिका लिखने के लिए बाध्य किया।

यह वर्ष हिंदी जाति के सच्चे प्रतिनिधि डॉ. रामविलास शर्मा का जन्मशती वर्ष है। डॉ. शर्मा की चिंताओं में यह विषय शामिल था। प्रो. रविभूषण ने 'साम्य' (अंबिकाकापुर) के लिए एक पुस्तिका लिखने का आग्रह किया, सो लिखने लगा। पुस्तिका जब पूरी हुई तो उसका कलेवर कुछ बढ़ गया, लगा कि यह एक स्वतंत्र पुस्तक के रूप में आनी चाहिए। 'साम्य' के संपादक विजय गुप्त की भी यही राय हुई।

मैं लगातार प्रोत्साहित करने वाले आदरणीय बंधु प्रो. रवि भूषण, विजय गुप्त तथा अपनी भाषा के साथियों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिनसे समय-समय पर इस विषय पर विमर्श करता रहा। फिलहाल प्रस्तुत पुस्तिका हिंदी जाति के सबसे गंभीर चिंतक डॉ. शर्मा की अवधारणा को आम जनता तक पहुँचाने की दिशा में एक छोटा सा प्रयास है। यदि यह छोटी सी पुस्तिका इन सवालों पर पाठकों का ध्यान कुछ भी आकर्षित कर सकी तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।

डॉ. अमरनाथ
प्रोफेसर, हिंदी विभाग
कलकत्ता विश्वविद्यालय


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