पहले हम कह आए हैं कि हिंदी जाति दुनिया की सबसे बड़ी जातियों में से एक है। वह आज हिंदुस्तान के दस राज्यों में फैली हुई है। उसकी जातीय भाषा हिंदी में अड़तालीस बोलियाँ हैं जिनमें भोजपुरी जैसी समृद्ध बोलियाँ भी हैं जिसके बोलने वालों की संख्या 14 करोड़ से ऊपर है। इसमें कबीर जैसे कवि हुए हैं जिनके नाम पर कबीर पंथ बन गया, अनपढ़ होते हुए भी जिन्होंने विश्व कवि रवींद्रनाथ को इतना प्रभावित किया कि उन्हें कबीर के पदों का अँग्रेजी अनुवाद करना पड़ा। कई दशकों से इस भोजपुरी में फिल्में बन रही हैं और सफल हो रही हैं। इसी तरह अवधी और ब्रज जैसी बोलियाँ भी इसी क्षेत्र में हैं जिन्हें बोली कहने में संकोच होता है क्योंकि हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग इन्हीं बोलियों में फला-फूला। तुलसी, सूर और जायसी जैसे कवि इन्हीं बोलियों की विरासत हैं।
तुलसी जिनसे सारा उत्तर भारत आज भी सभ्यता का पाठ पड़ता है। ये वही तुलसी हैं जिन्हें विन्सेंट स्मिथ ने सम्राट अकबर से भी महान कहा है। उनका रामचरितमानस आम जनता को भी उतना ही प्रभावित करता है जितना बड़े-बड़े मनीषियों और बुद्धिजीवियों को। हिंदी में सबसे पहला शोध कार्य 1911 ई. में फ्लोरेंस विश्वविद्यालय से एक विदेशी विद्वान एल.पी. तेस्सीतोरी ने तुलसी के साहित्य पर ही किया था और दूसरा शोध कार्य भी 1918 ई. में लंदन विश्वविद्यालय से जे.एन. कारपेंटर ने तुलसी के दर्शन पर ही किया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जितनी कठिन परिस्थितियों में वारान्निकोव ने रामचरितमानस का अनुवाद रूसी भाषा में किया उतनी कठिन परिस्थितियों में दुनिया की शायद ही किसी पुस्तक का अनुवाद हुआ हो। इन्हीं में राजस्थानी भी है जिसमें चंद बरदाई जैसे कवि हुए जिन्हें रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी का प्रथम महाकवि और उनकी कृति पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना है। ये दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के समेत और राजकवि रहे। इन्हीं में से एक बोली मैथिली भी है जिसमें मैथिल कोकिल के नाम से प्रसिद्ध विद्यापति जैसे कवि हुए जिनके गीत अपने माधुर्य और गेयता में अप्रतिम हैं जो लोक जीवन से लेकर विद्वत समाज तक समान रूप से परिव्याप्त हैं। यद्यपि आज भाषा की राजनीति करने वाले चंद अलगाववादी तत्वों के दबाव में मैथिली को हिंदी से अलग संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया गया है फिर भी हिंदी साहित्य के सभी बड़े विद्वान, आलोचक और भाषा वैज्ञानिक मैथिली को हिंदी का अनिवार्य अंग ही मानते हैं। हिंदुवी के नाम से खड़ी बोली की काव्य परंपरा की नींव पुख्ता करने वाले अमीर खुसरो भी इसी हिंदी जाति के मजबूत स्तंभ हैं।
ऊपर जिन चंद महाकवियों का नाम हमने लिया है वे अपने-अपने क्षेत्र की सांस्कृतिक परंपरा का प्रतिनिधित्व करते हैं, परंतु इसके बावजूद इनका साहित्य एक-दूसरे के क्षेत्र में पूरी निष्ठा के साथ पढ़ा और समझा जाता है। राजस्थान से लेकर झारखंड और उधर हिमांचल प्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ तक फैले व्यापक क्षेत्र में विविधता और बहुकेंद्रियता तो होगी ही जब कि यह सारा क्षेत्र अलग-अलग राज्यों में बँटा हुआ है। लोक साहित्य, लोकगीत, लोक गाथा, लोक नृत्य आदि की विविधता इस क्षेत्र का यथार्थ है किंतु इनके बीच के सतत प्रवाहित रस की एक सामान्य भावधारा स्रोतस्विनी की तरह बहती दिखाई देगी। नौटंकी, रामलीला, रासलीला भांड़, ख्याल, स्वाँग , कीर्तनिया, बिदेसिया, जाट-जटिन, माच, नाचा, गम्मत, फड़, राई गवरी, नकल आदि हिंदी के जातीय लोकनृत्य हैं। इसी तरह कहंरवा, बिरहा, लोरिकायन, सोरठी बृजाभार, बाला लखंदर, आल्हा, फाग, माढ़, चंदैनी, पंडवानी, पंथी, सुवा, करमा, ददरिया, पवाड़ा, जागर आदि हिंदी क्षेत्र की प्रचलित लोक गाथाएँ हैं।
डॉ. आशीष त्रिपाठी ने बड़े श्रम से शोध करके यह बताया है कि हिंदी की आदि कालीन और भक्ति कालीन कविता के उल्लेखों को साक्ष्यों के रूप में स्वीकार करें तो यह मानना होगा कि हिंदी भाषा का प्रारंभिक रंगमंच स्वाँग था। (कबीर, जायसी और तुलसी जैसे कवियों के यहाँ यह शब्द उपयोग में आया है। (होय जहाँ कही सवांग तमासा तनिक न नींद सताया रे - कबीर।) तुलसीदास, जिन्हें रामलीला का प्रवर्तक माना जाता है, के यहाँ स्वाँग और ख्याल शब्दों का नाटक के अर्थों में इस्तेमाल है। (हिलमिल करत सवांग सभा रसकेलि हो - तुलसी-रामलला नहछू, चढ़े खरनि विदूषक स्वाँग साजि-गीतावली। ठौर-ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि करो। विनय-पत्रिका) संभवत: सभी तरह की नाट्य शैलियों के पर्याय के रूप में यह शब्द प्रचलित था जैसे आजकल नाटक और रंगमंच शब्दों का हम प्रयोग करते हैं। डॉ. आशीष त्रिपाठी संभावना व्यक्त करते हैं कि इस लोकमंच के समय में हिंदी क्षेत्र अनवरत हो रहे युद्धों के साथ ही अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों का केंद्र था। इस कारण यहाँ हलचल और विस्थापन भी उसी मात्रा में था। इन परिवर्तनों, हलचलों और विस्थापनों के कारण स्वाँग लगभग समूचे उत्तर भारत में फैल गया और इसने अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नाम भी धारण कर लिए। हिंदी लोक नाटकों के विख्यात अध्येता डॉ. दशरथ ओझा के अनुसार नौटंकी आदि वास्तव में स्वाँग के ही रूप हैं। (हिंदी नाटक : उद्भव और विकास, पृष्ठ-52)
निश्चय ही ख्याल, नौटंकी, विदेसिया, माच आदि के पीछे कही न कही वही स्वाँग की परंपरा है। श्याम परमार के अनुसार नौटंकी, स्वाँग और भगत तीनों एक ही वस्तु है। कही स्वाँग के नाम से नौटंकी विख्यात है तो कही भगत के नाम से। (लोकधर्मी नाट्य परंपरा, डॉ. श्याम परमार, पृष्ठ-50)
राम की आधार कथा ने भक्ति आंदोलन के प्रभाव से अपना एक विशिष्ट लीला रूप धारण किया। यद्यपि रामलीला को धार्मिक रंगमंच का रूप माना जाता है पर इसमें भक्ति और धर्म पर अतिरिक्त बल आम तौर पर नहीं दिया जाता। लीला का दूसरा नाट्य रूप रास लीला संगीत नृत्य पर आधारित है। जहाँ रामलीला में अभिनय का रूप सहज है वहाँ रासलीला का नृत्यात्मक। रासलीला को रामलीला से प्राचीन माना जाता है। राजस्थानी गाथाओं-नाटकों के मिले-जुले लोक रूप रास, रासो या रासक से इस नाट्य रूप का विकास माना जाता है। डॉ. दशरथ ओझा के शब्दों में - "रास के दो मुख्य तत्व हैं एक नृत्य और दूसरा रूप कत्व। इन दोनों की शैली और परंपरा संस्कृत की नाट्य शैली से सर्वथा भिन्न है। इससे यह अनुमान प्रमाणित होता है कि रास हिंदी नाटकों की स्वतंत्र शैली है जिसके प्रभाव से ही आगे चलकर गीतिनाट्य की सृष्टि हुई।" (हिंदी नाटक : उद्भव और विकास, पृष्ठ-74)
राजस्थान की इस रासक परंपरा ने भक्ति आंदोलन के समय विशेष रूप से कृष्ण भक्तों को अपनी ओर आकर्षित किया। वल्लभाचार्य, हरिदास, हितहरिवंस, नारायण भट्ट आदि ने रासक की संगीत-नृत्य-नाट्य परंपरा को कृष्ण के अवतारी कृत्यों के अनुकूल पाया। इस तरह सोलहवीं शताब्दी में रासलीला का प्रारंभ हुआ। नंददास, परमानंद दास, चतुर्भुज दास, ध्रुव दास, वृंदावन दास, नागरी दास, दामोदर स्वामी, व्रजवासी दास आदि ने लीला के अनुरूप रचनाएँ की। कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
डॉ. आशीष त्रिपाठी के शब्दों में - "तुलसी के रामचरितमानस एवं रामलीला के पूर्व यद्यपि रामकथा की परंपरा प्रभावी रूप से मौजूद थी परंतु भक्ति आंदोलन का आधार पाकर उसने लोकप्रियता के प्रतिमान गढ़े। रामलीला के पहले रामकथा का मंचन होना स्वीकार किया गया है। अभिनेताओं, गायकों के लिए जिस तरह बाल्मीकि के कथा गायकों लव-कुश जैसा नाम कुशीलव प्रयुक्त होता रहा है - उससे यह अनुमान और भी दृढ़ होता है। स्वाँग, रास, लीला के तत्वों के परस्पर मेल-जोल और रामचरितमानस की कथा और पाठ का आधार लेकर तुलसीदास ने रामनगर (बनारस) की रामलीला का विशिष्ट रूप रचा। रामलीला, रासलीला की तुलना में ज्यादा नाटकीय है - क्योंकि यहाँ नृत्य और संगीत के साथ ही अभिनय पर बल दिया जाता है। ...रामलीला में सामान्यतः 7 से 15 दिनों तक राम की लीलाएँ खेली जाती हैं। पर इनमें कुछ घटनाओं को ही विस्तार से दिखाया जाता है। ताड़का बध, सीता स्वयंवर, सीता हरण, तथा राम-रावण युद्ध में नाटकीयता उभर कर आती है। रामलीला पर आधारित आलेख यद्यपि उस मात्रा में नहीं मिलते जिस मात्रा में रासलीला के परंतु रामलीला धीरे-धीरे समूचे उत्तर भारत में फैल गई। गाँव-गाँव में इसकी अव्यावसायिक मंडलियां बनी। स्थान परिवर्तन के साथ ही इसके रूप में भेद आता गया। पारसी रंगमंच के उदय से इसमें सजावटी तत्वों का समावेश हुआ। चित्रित पर्दे, चमत्कारिक दृष्यविधान, जादू भरे दृष्यों ने इसके मूल रूप को काफी परिवर्तित किया। ...रामलीला और रासलीला की तरह ही भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित शैली कीर्तनिया नाट है। जहाँ रासलीला प्रमुखतः ब्रजक्षेत्र में, रामलीला संपूर्ण उत्तर भारत में खेली गई वहीं कीर्तनिया विशेष रूप से मिथिला और नेपाल में प्रचलित हुआ। ...रामलीला और रासलीला पर स्वाँग का प्रभाव नगण्य मान लिया जाएँ पर यह स्पष्ट है कि हिंदी क्षेत्र की अन्य शैलियाँ नौटंकी, विदेसिया, ख्याल, माच आदि इसी की कोख से जन्मी।" ( मड़ई-2004, पृष्ठ-197)
उल्लेखनीय यह है कि लोकरंग की इस परंपरा को हिंदू और मुसलमान दोनों ने मिलकर समृद्ध किया है। स्वाँग परंपरा को नया आयाम देने वाले इंदरमन अखाड़े के पं. नत्थाराम शर्मा गौड़ के दल में मुल्लाराय के साथ-साथ बंदी खलीफा और मैकू उस्ताद भी थे। पं. नत्थाराम शर्मा ने विविध विषयों पर लगभग एक सौ स्वाँगों की रचनी की है। वे श्रेष्ठ स्वाँग कार के साथ-साथ श्रेठ निर्देशक, प्रबंधक, संगीतज्ञ और अभिनेता थे। इसी तरह श्रीकृष्ण पहलवान की नौटंकी कंपनी की चार शाखाएँ एक ही समय देश के विभिन्न भागों का दौरा करती थी। प्रत्येक शाखा ऐसे साधनों से लैस रहती थी कि एक साथ बैठकर लगभग पंद्रह हजार लोग प्रदर्शन देख सकते थे। इनके सहयोगियों में त्रिमोहन लाल, भोला बाबू, मिश्रीलाल, पन्ना लाल और नैयर साहब के साथ यासीन मियाँ भी थे।
उन्नीसवीं सदी में ही स्वाँग और नौटंकी की तरह ख्याल और माच नामक शैलियों का वर्तमान राजस्थान और मध्य प्रदेश में उदय हुआ। प्रसिद्ध नाटककार हमीदुल्ला ने 18वीं सदी से इसका प्रारंभ माना है। (राजस्थान की सांस्कृतिक परंपरा- हमीदुल्ला, संपादक-जयसिंह नीरज, पृष्ठ-150) डॉ. श्याम परमार के अनुसार ख्याल मिश्रित ढंग की रचना है तो भी उसके पृष्ठ में रास, यात्रा और भवाई का प्रभाव निस्संदेह रहा होगा। (लोक नाट्य परंपरा - डॉ. श्याम परमार, पृष्ठ-34) ख्याल के कई घराने विकसित हुए। जैसे कुचामनी ख्याल, शेखावटी ख्याल, जयपुरी ख्याल, तुर्राकलंगी ख्याल, किशनगढ़ी ख्याल आदि। इनके साथ ही नौटंकी खयाल, माच ख्याल तथा हाथरसी ख्याल भी ख्याल के भेद माने जाते हैं। तुर्राकलंगी ख्याल को मेवाड़ के शाहअली और तुकनगीर नाम के दो संत पीरों ने लगभग चार सौ वर्ष पूर्व रचा और यह नाम दिया। तुर्रा को महादेव और कलंगी को पार्वती का प्रतीक मानकर इस ख्याल को शिव शक्ति के विचारों का वाहक बनाया गया। तुकनगीर तुर्रा के पक्षकार थे तथा शाहअली कलंगी के।
उन्नीसवीं सदी में ख्याल की परंपरा से ही माच का उदय हुआ। माच के प्रथम गुरू बालमुकुन्द ने 1844 ईं. में मालवा उज्जैन के जयसिंहपुरा में पहला खेल प्रस्तुत किया। शाब्दिक अर्थ में माच, मेच शब्द का तद्भव रूप ही नहीं, बल्कि एक रूढ़ शब्द है। माच यानी मेच बनाकर खेले जाने वाले खेल अर्थात नाट्य प्रस्तुतियाँ। इसकी पहचान आज भी मालवा के विशिष्ट नाट्य रूप के रूप में है।
हिंदी क्षेत्र की लोक रंग परंपरा में बीसवीं सदी विदेसिया, गम्मत और नाचा के विकास की सदी है। छत्तीसगढ़ का प्रतिनिधि लोकनाट्य नाचा है। हबीब तनवीर के आधुनिक रंग प्रयोगों ने प्रेक्षकों, चिंतकों का ध्यान इस रूप की ओर आकर्षित किया। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुर क्षेत्र की विदेशिया शैली का प्रादुर्भाव भिखारी ठाकुर से जुड़ा है। लोकनाट्यों पर व्यक्ति विशेष का इतना गहरा प्रभाव बहुत कम दिखाई देता है। कमाने के लिए परदेश जाने से होने वाले अलगाव, बाल विवाह, अनमेल विवाह, विधवा बहिष्कार, अंधविश्वास, बहु विवाह, स्त्री तिरस्कार आदि को उन्होंने अपना विषय बनाया। उनके नाटकों को मिलने वाली अपार लोकप्रियता अन्यत्र बहुत कम दिखाई देती है।
हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ की पंडवानी को मिलने वाली लोकप्रियता भी उल्लेखनीय है। सावली मित्र और तीजनबाई ने इसे लोकप्रियता की पराकाष्ठा तक पहुँचा दिया। पंडवानी में पाण्डवों या महाभारत की किसी कथा को एक ही कलाकार अपने गान, गतियों और मुद्राओं द्वारा प्रस्तुत करता है। मेवात क्षेत्र में प्रचलित पण्डून कौ कड़ा अर्थात पांडवों की कथा विशेष प्रचलित है। इस लोक कथा के रचनाकार जनकवि सादुल्ला और नबी खाँ को माना जाता है। कवि सादुल्ला भरतपुर महाराजा सूरजमल के समकालीन ते। मेंवाती के इस लोक महाभारत का मेंवात क्षेत्र के जनजीवन पर गहरा प्रभाव है। इसी तरह राजस्थान की फड़, गवरी आदि लोकरंग की परंपराएँ भी हैं। समूचे हिंदी प्रदेश में प्रचलित बहुरुपिया और भाड़ की लोक रंग विधाएँ भी प्रचलन में थी जो आज लगभग समाप्त प्राय है।
समूचे हिंदी प्रदेश में प्रचलित इन लोकरंग परंपराओं की तीन सबसे महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं पहली यह कि इनके आधार विषय या तो रामकथा है या महाभारत की कथा। दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता है कि लोकरंग की इन सारी विधाओं में हिंदू और मुसलमान दोनों समुदाय के लोगों ने समान रूप से योगदान दिया है और तीसरी विशेषता यह है कि शैली और शिल्प की दृष्टि से इनमें अद्भुत समानता है। स्वाँग का असर लगभग सभी रंगविधाओं पर देखा जा सकता है। हाँ, क्षेत्र की व्यापकता के कारण लोकरंग की परंपरा में वैविध्य स्वाभाविक है किंतु उनमें विषय, समुदाय और शिल्प तीनों ही क्षेत्रों में एकरूपता इन्हे एक ही संस्कृति का हिस्सा प्रमाणित करती हैं इसलिए यह एक ही जाति की विरासत है।
यही कारण है कि जो लोग उर्दू के लोक साहित्य को ढूँढ़ने निकलते हैं उन्हें आम तौर पर निराशा ही हाथ लगती है। डॉ. ताहिरा परवीन ने उर्दू लोक साहित्य के अंतर्गत लोरियां, कजली और बारहमासे को गिनाते हुए नजीर अकबराबादी की कविताओं का जिक्र किया है और लिखा है - "गर्ज कि नजीर अकबराबादी के जरिये उर्दू की अवामी शायरी की प्रथा परवान चढ़ी वहीं पर यह भी हुआ कि दबे पांव उर्दू शायरी में लोक साहित्य और लोक तत्व भी दाखिल हुए।"
फिलहाल, उन्होंने अंत में सही निष्कर्ष निकाला है कि - "चूँकि उर्दू शायरी का एक खास मिजाज और मेयार (स्तर) रहा है, इसलिए ऐसे में उर्दू में लोक साहित्य को तलाश करने की और उसके व्याख्यात्मक अध्ययन करने की फिक्र नहीं की गई।" ( मड़ई-2003, पृष्ठ-171 )।
हम यह बार-बार कहते आ रहे हैं कि एक जाति विशेष की पहचान के लिए उस क्षेत्र में एक सामान्य भाषा का प्रचलित होना सबसे प्रधान आधार है। आज दस राज्यों में फैले इस समूचे हिंदी क्षेत्र में औपचारिक भाषा के रूप में हिंदी का ही व्यवहार होता है। मैं समझ रहा हूँ कि यहाँ फिर उर्दू का मुद्दा उठाया जाएगा और उस पर मुझे कहना पड़ेगा कि जातीय भाषा कठिन हिंदी या कठिन उर्दू नहीं होती। जातीय भाषा आम जनता तय करती है, आम जनता की होती है और इसीलिए वह सहज और लोक में प्रचलित होती है। आज के साहित्यकारों द्वारा लिखी जाने वाली अथवा सरकारी कार्यालयों में प्रचलित हिंदी या उर्दू जातीय भाषा नहीं है। मैं इस संदर्भ में रामविलास शर्मा द्वारा हिंदी साहित्य की भूमिका में उद्धृत प्रसिद्ध भाषाशास्त्री और 'ए न्यू हिंदुस्तानी-इंग्लिश डिक्शनरी विद इलस्ट्रेशन्स फ्रॉम हिंदुस्तानी लिटरेचर एंड फोकलोर' के लेखक फैलन साहब का एक वक्तव्य उद्धृत करना चाहता हूँ। रामविलास शर्मा ने उन्हें उद्धृत करने के पहले उनके बारे में लिखा है कि, उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब हिंदी-उर्दू का अलगाव बढ़ रहा था, उस समय फैलन ने गाँवों में जाकर, शहरों के बाजारों में घूमकर जनता की बोली बानी का अध्ययन किया था। लॉक और वर्ड्सवर्थ की परंपरा से प्रभावित इस विद्वान ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में अपना कोश बनाया था। उसके छपने से पहले उसकी विज्ञप्ति में उन्होंने कहा था - "भाषा की संपदा उसके बोलचाल वाले रूप में है। यह रूप कितना समृद्ध और भाव विचार प्रकट करने में कितना समर्थ है, इसे वे लोग ही जानते होंगे जो पूरब की दुनिया के संवेदनशील और कल्पनाप्रिय निवासियों के दैनिक व्यवहार की भाषा के विभिन्न रूपों को पहचानते होंगे। भाषा को उसकी पूर्णता में प्रस्तुत करना है तो उसके श्रेष्ठ भाग को छोड़ा नहीं जा सकता। जनता की सजीव बोली बानी हमारे कोशों में प्राय: है ही नहीं। उसके बदले अरबी, फारसी और संस्कृत के शब्द उनमें भर दिए जाते हैं जो न लिखने में काम आते हैं न बोलने में, या बहुत ही कम काम आते हैं। उन भाषाओं के कोशों से अजनबी शब्दों को छाँटना और देशी भाषा की शब्द सूची पर उन्हें चिपकाना, जिसके वे अंग नहीं हैं, किताबी मौलवियों और पंडितों के मनोरंजन का खासा काम है।
यही वे तानाशाह हैं जिन्होंने जनता की मातृभाषा को देश निकाले की सजा दी है और उसकी जगह ऐसी नकली भाषा गढ़ी है जिससे आम जनता और शासक वर्ग एक दूसरे से अलग हो गए हैं। किताबों, कानूनी कार्यवाई और सरकारी व्यवहार से बोलचाल की भाषा को अलग रखने में इन्होंने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है। जिसे वे पूरी तरह खदेड़कर आँखों से ओझल नहीं कर पाए, उसे उन्होंने तोड़ मरोड़कर कुचल डाला है। एक जानदार भाषा, जिसमें बड़ी रवानी थी, उनके हाथों बेदम हो गई है। उसमें जो आग थी, जो प्राण थे, उसके बदले बेजान शब्द बिठा दिए गए हैं। अजीब अरबी आवाजें जो प्राय: जनता के लिए बेमानी हैं, संस्कृत के ठंढे निर्जीव ढेले, जो बोलते नहीं, मन को मोहते नहीं। उन्हें अपनी मातृभाषा पर शर्म आती है। वे दिखाते हैं कि मातृभाषा जैसी घटिया चीज से उन्हें वास्ता नहीं है। शाही काम से अब वे जिन महलों और दरबारों में दाखिल हो गए हैं, उनमें बचपन की कमजोरियों को घुसने नहीं देते। पर वे घर में एक बोली बोलते हैं, बाहर निकलकर दूसरी। घर के एकांत में जब दिल के फफोले फोड़ते हैं, तब भी अपनी जानदार देशी बोली ही बोलते हैं। जब नए लोगों के बीच आते हैं और जिंदगी की घिसी पिटी बातें दोहराते हैं या वे भाव प्रकट करते हैं जो उनके हृदय में नहीं हैं, तब खूब चमकीले, भड़कीले, विदेशी शब्दों से खुद को ढंक लेते हैं।
इससे उनकी शोभा बढ़ती है और उनके विचारों पर परदा भी पड़ जाता है। वे अपने मुख से उन पोथी पंडितों की प्रशंसा में जमीन आसमान के कुलाबे मिलाते नहीं अघाते जो विचित्र अरबी रूप विकारों का जाल बुनने में या फारसी पदों की धाराप्रवाह समास रचना में अथवा संस्कृत की गंभीर घोष वाली रहस्यमयी पदावली प्रस्तुत करनें में कुशल हैं।"
फैलन को उद्धृत करने के बाद रामविलास शर्मा टिप्पड़ी करते हैं - "कुछ लोग हिंदी-उर्दू के अलगाव को शाश्वत सत्य मानते हैं। उस पर बहुत जोर देते हैं। जनता की बोलचाल में जो एकता है, उसकी संस्कृति में जो साहित्य रम गया है, उस पर वे ध्यान नहीं देते। एक परंपरा जोड़ने वाली है और एक परंपरा तोड़ने वाली है। दोनों यथार्थ है। देखना यह चाहिए कि इनमें कौन सी परंपरा जीवंत है, कौन आगे विजयी होने वाली है, इस परंपरा के साथ कौन-कौन से सामाजिक तत्व जुड़े हुए हैं। जो अलगाव की परंपरा है, उसके साथ सामंती और साम्राज्यवादी तत्व जुड़े हुए हैं। वे नहीं चाहते कि जनता एक हो और मिलकर अपनी संस्कृति का विकास करे। लेकिन जो उत्पादक हैं, खेतों और कारखानों में काम करते हैं, वे एक भाषा के बिना अपना काम नहीं चला सकते। भाषा और संस्कृति की बुनियाद वे लोग हैं।
आज साम्राज्यवाद, पूँजीवाद, सामंती अवशेष बहुत ताकतवर मालूम होते हैं लेकिन दिन पर दिन वे भीतर से टूट रहे हैं और जनता की शक्ति बराबर बढ़ रही है। जो इस जन शक्ति का भरोसा करेगा, वह हिंदी के विकास में योगदान करेगा। जो समझेगा कि जनता तो निकम्मी है, वह कभी विजयी नहीं हो सकती, पूँजीवाद स्थायी है, वह हिंदी के विकास में रोड़े अटकाएगा। फैलन मार्क्सवादी नहीं थे किंतु वह इंग्लैंड की प्रगतिशील भौतिकवादी दार्शनिक परंपरा से प्रभावित थे। जो उनके अन्य देशवासी नहीं देख सके, कोशकार जिस सत्य को आँखों से ओझल कर रह थे, उसे उन्होंने देखा था। अब से सवा सौ साल पहले उन्होंने जो बातें कही थी, वे जितनी सच उस समय थी, उतनी ही सच आज भी हैं।" ( हिंदी साहित्य की भूमिका, पृष्ठ-365)
उल्लेखनीय है कि हिंदी भाषी दस राज्यों के लिए आम तौर पर हिंदी प्रदेश, हिंदी इलाका, हिंदी क्षेत्र, हिंदी पट्टी आदि कहा जाता है। अँग्रेज और हमारे देश के काले अँग्रेज इसे काऊबेल्ट या गोबरपट्टी कहते हैं। यानी, इस समूचे क्षेत्र को एक इकाई के रूप में देखने की प्रवृत्ति हमारे देश में मौजूद है। हाँ यह चेतना सुदृढ़ नहीं है और खास तौर पर हिंदी क्षेत्रों में। यहाँ के लोग मुझे हिंदुस्तानी कहते हैं। जब मैं पहली बार बंगाल में आया तो मैं यह सुनकर बहुत असहज महसूस करता था। मैं सोचता था कि ये मुझे हिंदुस्तानी कहते हैं तो ये खुद क्या पाकिस्तानी हैं? असल में हमारे यहाँ हिंदुस्तानी से तात्पर्य भारतीय से लिया जाता है सिर्फ हिंदी भाषी या हिंदी जाति से नहीं। किंतु, कुछ वर्ष यहाँ रहने के बाद ही मेरी समझ में आ गया कि ये लोग ठीक कहते हैं। ये हमें हिंदुस्तानी इसलिए कहते हैं क्योंकि ये बंगाली हैं। भारतीय तो हैं ही। भारतीय होने के साथ-साथ बंगाली भी हैं। और हम, हमारे यहाँ हिंदी या हिंदुस्तानी की कोई चेतना ही नहीं विकसित हो पायी। इसलिए हम अपने को सिर्फ भारतीय समझते हैं। हिंदुस्तानी माने भारतीय।
हमारे देश की हर भाषा के पास बोलियाँ हैं किंतु हम आम तौर पर देखते हैं कि चेतना संपन्न दूसरी जातियों में उनकी बोलियों को आधार बनाकर संगठन नहीं बने हैं। यह प्रवृत्ति हिंदी पट्टी में ही मिलेगी। यहाँ भोजपुरी परिषद, मैथिली विकास परिषद, मारवाड़ी विकास परिषद, राजस्थानी प्रचारिणी सभा, अवधी विकास परिषद, ब्रज साहित्य मंडल, बुंदेली सभा, अंगिका परिषद जैसे दर्जनों संगठन हैं जिनके गठन का आधार उनकी क्षेत्रीय पहचान हैं।