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विमर्श

हिंदी जाति की समस्याएँ

अमरनाथ

अनुक्रम 12. सांप्रदायिकता, जातिवाद और जातीय चेतना पीछे     आगे

सांप्रदायिक आधार पर बँटे दो समुदायों के बीच झगड़े और मार-काट को सांप्रदायिकता कहते हैं। सांप्रदायिकता हमारे देश की एक गंभीर समस्या बनी हुई है। इसी के कारण देश के तीन टुकड़े हो चके हैं और अलगाव की आग आज भी बदस्तूर जारी है।

प्रसिद्ध इतिहासकार बिपन चंद्र के अनुसार सांप्रदायिकता का आधार यह धारणा है कि भारतीय समाज कई ऐसे संप्रदायों में बँटा हुआ है जिनके न सिर्फ हित अलग हैं बल्कि एक दूसरे के विरोधी भी हैं। अलग-अलग समुदायों और समूहो के हिंदू, मुस्लिम, सिख और इसाई सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बल्कि धर्म से परे मामलों में भी अलग-अलग समूह की तरह आचरण करते हैं क्योंकि उनके धर्म अलग-अलग हैं। इसी विश्वास से सांप्रदायिक विचारधारा का जन्म हुआ और इसी की वजह से धर्मधारी समाज के लोगों के धर्मनिरपेक्ष हितों को भी अलग-अलग बाँटकर देखा जाने लगा। 19वीं सदी के अंत में आरंभ हुई इस विचारधारा के 1936 ई. तक के स्वरूप को उदार सांप्रदायिकता कहा जा सकता है।

ये उदार सांप्रदायिक लोग यह मानते थे कि विभिन्न धर्मों के लोगों के निजी हित हैं और इन्हें संवाद या दबाव से जैसे भी बन पड़े साधना चाहिए। मगर यही लोग यह भी मानते थे कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई सभी धार्मिक समाजों के ज्यादातर धर्मनिरपेक्ष हित साझा हैं और यही साझापन उन्हें एक राष्ट्र बनाता है। इसीलिए उन्हें राजनीतिक आजादी और गरीबी से निपटने की लड़ाई साथ-साथ लड़नी चाहिए। इसीलिए उदार सांप्रदायिकों में हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग और अकाली दल के लोग थे जो साझा मुद्दों पर आपस में बैठकर बात करते थे और झगड़े सुलझाते थे। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को मंच भी बनाते थे और कई बार अँग्रेज सरकार पर मिलकर माँगें पूरी करने के लिए जोर भी डालते थे।

बिपन चंद्र के अनुसार 1937 ई. के बाद सांप्रदायिकता का जो दौर शुरू हुआ वह झूठ, घृणा और हिंसा पर आधारित था और इसीलिए बर्बर था। ये जो अतिवादी सांप्रदायिक लोग थे उन्होंने ऐलान कर दिया कि हिंदू और मुस्लिम समुदायों की भलाई एक दूसरे को नष्ट कर देने में ही है। उन्होंने कहा कि हिंदू-मुस्लिम हित अलग ही नहीं, एक दूसरे के लिए असहनीय भी हैं और दोनों समुदायों में संवाद से भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। यह घृणा, अलगाव और निंदा के दौर की शुरुआत थी। जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग ने अब तर्क दिया कि भारत में दो राष्ट्र बसते हैं - हिंदू और मुस्लिम, और वे एक ही राष्ट्र में नहीं रह सकते। हिंदू महासभा के विनायक दामोदर सावरकर और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के माधव सदाशिव गोलवलकर यह तो मानते थे कि भारत है तो एक ही राष्ट्र मगर उनकी राय में यह एक हिंदू राष्ट्र ही हो सकता है क्योंकि मुसलमान तो विदेशी हैं।

वे सिख, बौद्ध और जैन को हिंदू और इसीलिए उन्हें हिंदू राष्ट्र का स्वाभाविक अंग मानते थे। मुस्लिम सांप्रदायिकों को अपने लिए अलग देश चाहिए था और हिंदू सांप्रदायिक ऐसा भारत चाहत थे जहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकों को दब्बू, दास, दयनीय और कुल मिलाकर दूसरे दर्जे की जिंदगी जीने की अनुमति हो।

आजादी के बाद अतिवादी सांप्रदायिकता का पैरोकार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके सहयोगी संगठन बने। सिखों में यह जगह भिंडरावाला जैसे लोगों और उनके वैचारिक पूर्वजों और वंशजों को दी जा सकती है। जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठन तथा जम्मू और कश्मीर में सक्रिय अनेक अलगाववादी संगठन भी इसी तरह के संगठन हैं।

भारत में सांप्रदायिक दंगे मुख्य रूप से ब्रिटिश साम्राज्यवाद की देन हैं। स्वतंत्रता के लिए आंदोलनरत भारतीय जन उभार को धार्मिक उन्माद में डुबोकर कमजोर करने की अभिलाषा ने सांप्रदायिकता की खेती की।

विभूतिनारायण राय ने अध्ययन करके बताया है कि भारत में अँग्रेजों की प्रभावी उपस्थिति के पूर्व सिर्फ एक हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का पता चलता है जिसे सही अर्थों में सांप्रदायिक दंगे की संज्ञा दी जा सकती है। यह दंगा 1713 ई. में अहमदाबाद में हुआ था। दंगे के एक प्रत्यक्षदर्शी काफी खान के वर्णन के अनुसार एक हिंदू ने अपने मुसलमान पड़ोसी के विरोध के बावजूद दोनों के घरों के सामने मौजूद साझा अहाते में होली जलाने की तैयारी की। विवाद के कारण यह मामला एक मुसलमान अधिकारी के सामने ले जाया गया, जिसने हिंदू के पक्ष में फैसला दे दिया और हिंदू ने होली जला दी। दूसरे दिन मुसलमान ने पैगंबर के सम्मान में अपने घर के सामने एक गाय की कुर्बानी दे दी। इस पर उत्तेजित होकर आसपास के हिंदू इकट्ठे हो गए और उन्होंने वहाँ उपस्थित मुसलमानों पर हमला कर दिया। इस हमले में कुर्बानी देने वाले मुसलमान का चौदह वर्षीय पुत्र मारा गया। इस घटना से अनेक मुसलमान क्रुद्ध हो उठे और इकट्ठा हो गए। शहर में मौजूद अफगान सैनिक भी उनकी मदद के लिए आ गए। अगले तीन-चार दिन तक चलने वाले इस दंगे में काफी संपत्ति का नुकसान हुआ और कई हिंदू तथा मुसलमान मारे गए। दोनों पक्षों के नेताओं नें शांति स्थापित करने के लिए बादशाह से अपील की। इसके बाद भारत में अँग्रेजों की सत्ता स्थापित होने तक एक भी सांप्रदायिक दंगे का विवरण नहीं मिलता।

बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में राष्ट्रवादी लोग विश्वास करते थे कि सामंतवाद और ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष जैसे-जैसे जोर पकड़ेगा वैसे-वैसे सांप्रदायिकता का अपने आप नाश होता जाएगा और एक धर्मनिरपेक्ष दृष्टि पनपेगी। 1947 ई. के बाद नेहरू सहित कई का विश्वास था कि आर्थिक विकास, उद्योगों की तरक्की, शिक्षा का प्रसार, विज्ञान और तकनीकी प्रगति और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अनुभव क्रमश: सांप्रदायिक सोच को कमजोर कर देगा और एक धर्मनिरपेक्ष चेतना का विकास होगा। किंतु यह समस्या आज भी जस की तस है। पता नहीं और कितने टुकड़े होंगे देश के और कितना रक्त बहेगा?

वास्तव में सांप्रदायिकता के विरोध और उसे निर्मूल करने के मामले में सबसे बड़ी गड़बड़ी यह हुई है कि सांप्रदायिकता का सामना कभी विचारधारा और राजनीति के धरातल पर नहीं किया गया। विरोध किया भी गया तो चलते फिरते कामचलाऊ अंदाज में।

1950 के दशक में सांप्रदायिक हिंसा का खतरनाक उभार देखने के बाद जवाहरलाल नेहरू ने 1961 ई. में 'राष्ट्रीय एकता परिषद' का गठन किया। इस संस्था का उद्देश्य सांप्रदायिकता की समस्या को विचारधारा के स्तर पर सुलझाना था। लेकिन इस परिषद ने अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं किया। शासकों ने जान बूझकर इसे कमजोर बनाये रखा और आज भी वही स्थिति बनी हुई है। भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने तो इसकी कोई बैठक तक नहीं बुलायी।

हिंदू-मुस्लिम एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए गांधी जी के निजी अभियान के अलावा सांप्रदायिक सोच के खिलाफ एक सतत जन अभियान कभी खड़ा नहीं हो सका। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सांप्रदायिक विचारधारा बिना हिंसा के भी पनप सकती है लेकिन सांप्रदायिक हिंसा बगैर सांप्रदायिक विचारधारा के प्रचार के घटित नहीं हो सकती। सांप्रदायिकता को एक विचारधारा के तौर पर देखा जाएँ तो यह साफ हो जाता है कि इसे ताकत से नहीं दबाया जा सकता क्योंकि ताकत से या सरकारी प्रतिबंधों आदि के जरिए कोई विचारधारा नहीं मारी जा सकती।

धर्म और धार्मिक मतभेद सांप्रदायिकता के आधार नहीं हैं और वे इसके लिए जिम्मेदार भी नहीं हैं। जवाहरलाल नेहरू ने 'भारत की खोज' में लिखा है कि सांप्रदायिक झगड़ों का धर्म से कोई संबंध नहीं होता, हालांकि धर्म इन मुद्दों का बहाना बन जाता है। धार्मिक मतभेदों को सांप्रदायिक लोग अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करते हैं और धर्म से राजनीतिक हित साधते हैं। महात्मा गांधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी और डॉ. राजेंद्र प्रसाद मूलत: धार्मिक थे फिर भी पूरे धर्मनिरपेक्ष थे। बीसवीं सदी की शुरुआत के कई क्रांतिकारियों ने धर्म को प्रेरणा के लिए अपनाया लेकिन फिर भी वे सांप्रदायिक नहीं बने। उनके लिए धर्म आतंरिक शक्ति का एक ऐसा स्रोत था जिससे वे उपनिवेशवादी दमन का सामना कर सकते थे और अपनी जान दे सकते थे। धर्म ने इन लोगों को देश की आजादी के लिए जूझने की प्रेरणा दी।

हमारे देश की दूसरी सबसे गंभीर समस्या जातिवाद की है। जन्म के आधार पर विभेद की इस गर्हित अवधारणा के कारण हमारे मुल्क की आधी से अधिक आबादी सदियों से पशुओं से भी बदतर नारकीय जीवन जीती रही है। दुर्भाग्यवश जन्मगत विभेद की यह गर्हित अवधारणा इसी देश कि खासियत है। दुनिया में रंगभेद तो है किंतु जातिभेद इसी एक मुल्क में हैं। यद्यपि सामाजिक भेदभाव की इस गर्हित व्यवस्था के खिलाफ आरंभ से ही आवाज उठती रही है जिनमें महात्मा बुद्ध की आवाज सबसे बुलंद थी किंतु इस व्यवस्था को निर्णायक रूप में बदलने की क्षमता आधुनिक काल में अर्थात उन्नीसवीं सदी के चिंतन में ही दिखाई दी। इसमें पूँजीवाद की खास भूमिका है।

आधुनिक दलित चिंतकों के अनुसार वास्तव में जिसे हम नवजागरण कह सकते हैं उसकी लहर बंगाल से नहीं अपितु महाराष्ट्र से चली। वह लहर थी दलित मुक्ति आंदोलन की, जिसने न सिर्फ भारत का, बल्कि पूरे विश्व का ध्यान आकृष्ट किया था। इस लहर को पैदा करने वाले थे महत्मा ज्योतिबा फुले। महात्मा फुले ने 1873 ई. में 'सत्य शोधक समाज' की स्थापना की थी और इसी वर्ष उनकी क्रांतिकारी पुस्तक 'गुलामगिरी' प्रकाशित हुई थी। इस समय तक रानाडे का 'प्रार्थना समाज' अस्तित्व में आ चुका था। इसके दो साल बाद 1875 ई. में दयानंद सरस्वती ने 'आर्य समाज' की स्थापना की थी। दलित आंदोलन जिन महापुरुषों से शक्ति ग्रहण करता है उनमें ज्योतिबा फुले के अलावा केरल के नारायण गुरु (1854) तमिलनाडु के पेरियार रामास्वामी नायकर (1879-1973), उत्तर भारत के स्वामी अछूतानंद (1879-1933), बंगाल के चाँद गुरु (1850-1930), मध्य प्रदेश के गुरु घासीदास (1756) आदि प्रमुख हैं।

महात्मा ज्योतिबा फुले के नवजागरण के उपरांत महाराष्ट्र में जो दलित चेतना उभरी उसका राजनैतिक प्रभाव हमें 1923 ई. में देखने को मिलता है जब बंबई की विधान परिषद ने यह प्रस्ताव पारित किया कि दलित वर्ग के लोगों को भी सभी सार्वजनिक सुविधाओं और संस्थाओं के उपयोग का समान अधिकार होगा। महाड़ में अछूतों का पानी के लिए सत्याग्रह इसी अधिकार को प्राप्त करने के लिए था। इसने तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृष्य में राजनीति के तीसरे ध्रुव दलित राजनीति को जन्म दिया और दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाई। 1927 ई. में ब्रिटिश सरकर ने भारत की संवैधानिक समस्या को सुलझाने के लिए साइमन कमीशन नियुक्त किया। कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा आदि सबने इस कमीशन का विरोध किया और जहाँ भी कमीशन गया - साइमन गो बैक के नारे लगाए गए किंतु डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में दलितों ने कमीशन का समर्थन किया और माँग की, कि हिंदुओं से अलग उन्हें भी एक विशिष्ट अल्पसंख्यक वर्ग माना जाएँ और उनके लिए मुसलमानों की तरह का प्रतिनिधित्व दिया जाएँ।

इतना ही नहीं, भारत के भावी संविधान की रूप रेखा तय करने के लिए जब लंदन में गोलमेज काँफ्रेंस की घोषणा हुई तो इसमें दलितों के प्रतिनिधि के रूप में डॉ. अंबेडकर और आर. श्रीनिवास को आमंत्रित किया गया था। इस काँफ्रेंस में अंबेडकर ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की माँग की थी और ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने इसे स्वीकार कर लिया था। कांग्रेस और हिंदू महासभा ने इसका विरोध किया। गांधी जी उस समय पूना के जेल में थे। उन्होंने जेल में ही दलितों के पृथक अधिकारों के खिलाफ आमरण अनशन शुरू कर दिया। अंतत: तमाम दबावों के बाद समझौता हुआ जिसे डॉ.अंबेडकर और गांधी जी ने अंतिम रूप दिया। यह समझौता 1932 ई. में हुआ जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। इसके बाद ही दलित राजनीति के गांधीवादी माडल का उदय हुआ। गांधी जी ने दलितों को हरिजन नाम दिया। आज का दलित विमर्श इसे अस्वीकार करता है।

आज के दलित चिंतक मानते हैं कि महात्मा गांधी की हरिजन राजनीति ने एक रेडिकल दलित आंदोलन को रोका। उसने अंबेडकर विरोधी चेतना का विकास किया। इस तरह आज के दलित चिंतकों का गांधी जी के दृष्टिकोण से मौलिक भेद है।

आजादी के बाद दलित राजनीति के लिए 1960 ई. का दशक अधिक महत्वपूर्ण है। इस दशक में भारतीय रिपब्लिकन पार्टी ने महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर भारत में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदायों में अपना क्रांतिकारी जनाधार बनाया। एक वैकल्पिक दलित राजनीति का उदय हुआ।

हिंदी क्षेत्र में अस्सी का दशक दलित राजनीति के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। 1980 ई. में कांसीराम बामसेफ (बैकवर्ड एंड माइनारिटीज शेड्यूल्ड कास्ट इम्प्लाइज फेडरेशन) के माध्यम से भारतीय समाज में एक नया दलित विमर्श लेकर आए। रिपब्लिकन पार्टी के पतन के बाद कांसीराम ने, जो स्वयं भी उसी पार्टी में काम करते थे, नए सिरे से दलित समाज को लामबंद करना शुरू किया। बामसेफ के तहत ही उन्होंने हिंदी में 'बहुजन संगठक' (साप्ताहिक) और अँग्रेजी में 'आप्रेस्ड इंडिया' (मासिक) पत्रों का प्रकाशन किया। यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसने बड़े पैमाने पर देश भर के दो लाख कर्मचारियों को बामसेफ का सदस्य बनाया। इसमें डॉक्टर, इंजीनियर, अधिकारी आदि सभी तबके के लोग थे। कांसीराम ने दलितों को बहुजन कहा और व्यवस्था से लाभांवित होने वाले लोगों को मनुवादी नाम दिया। ये दोनों नाम भारतीय समाज और राजनीति के लिए बेहद विचारोत्तेजक थे और शीघ्र ही ये दोनों नाम प्रसिद्ध हो गए।

1981 ई. में कांसीराम ने डी.एस.-4 (दलित समाज शोषित संघर्ष समिति) की स्थापना की। यह आंदोलन का वह प्लेटफार्म था जिसने आगे चलकर राजनैतिक संघर्ष का रूप धारण किया। 1984 ई. में कांसीराम ने 'बहुजन समाज पार्टी' की स्थापना की जिसके क्रोड़ से मायावती जैसी नेता का जन्म हुआ।

आज समतामूलक समाज की स्थापना का आंदोलन एक सामाजिक आंदोलन नहीं रह गया है। समूचे हिंदी क्षेत्र में जातिवाद को आज राजनीति ने गोद ले लिया है। दलित चिंतकों में एक ऐसा वर्ग पैदा हुआ है जो स्वानुभूति के साहित्य को ही दलित साहित्य कहता है और इस तरह प्रेमचंद जैसे लेखकों की कृतियों को भी सार्वजनिक रूप से जलाकर अपना विरोध प्रकट करने में संकोच नहीं करता। यह वर्ग मानता है कि दलित साहित्य उसे ही माना जाएगा जिसे दलित के घर जन्म लेने वाले लेखकों ने लिखा हो क्योंकि दलित जीवन का अनुभव उन्हें ही होता है। प्रेमचंद जैसे लेखकों के साहित्य को वे लोग सहानुभूति का साहित्य कहकर नकार देते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि महात्मा गांधी और प्रेमचंद जैसे लोगों ने खुद को डिक्लास किया और आजीवन भर उनके हकों के लिए संघर्ष करते रहे।

सच्चाई तो यह है कि सिर्फ दलित के घर जन्म लेने से अर्जित अपने अनुभव मात्र से ही कोई व्यक्ति महान लेखक नहीं बन सकता अपितु उसमें अपने अनुभवों को चित्रित करने के लिए कलम की ताकत, शब्द सामर्थ्य और कल्पनाशीलता भी होनी चाहिए। इतना ही नहीं एक रचनाकार अपनी कृतियों में जिन पात्रों का चित्रण करता है सबसे पहले उन चरित्रों में अपने व्यक्तित्व का रूपांतरण करता है। इसे आचार्यों ने 'परकाया प्रवेश' कहा है।

यथार्थ चरित्र अंकित करने के लिए 'परकाया प्रवेश' अनिवार्य है। सवाल यह है कि क्या दलित साहित्यकारों की कृतियों में सिर्फ दलित चरित्र ही होते हैं? वहाँ सवर्ण चरित्र नहीं होते? सवर्णो का चरित्रांकन किए बगैर सामाजिक असमानता का चित्रांकन कैसे किया जा सकता है? इसका तो अर्थ हुआ कि दलित लेखकों की कृतियों में चित्रित सवर्ण चरित्र भी यथार्थ रूप में चित्रित नहीं किए जा सकते क्योंकि दलितों को सवर्णों के जीवन का कोई अनुभव नहीं होता उसी तरह जैसे सवर्णों को दलितों की जिंदगी का कोई अनुभव नहीं होता।

वस्तुत: हर महान लेखक को, चाहे वह किसी समुदाय का क्यों न हो रचना करते समय अपने पात्रों के व्यक्तित्व में अपने को विलीन कर देना होता है, नाटकों में अभिनय करने वाले अभिनेता की तरह। तभी चरित्रों का यथार्थ अंकन हो पाता है। दलित रचनाकारों द्वारा रचित कृतियों में भी सवर्ण चरित्र होते हैं। इसी तरह सवर्ण रचनाकारों की कृतियों में दलित चरित्र। कहना न होगा, स्वानुभूति और सहानुभूति के आधार पर किसी कृति की श्रेष्ठता प्रमाणित नहीं होती बल्कि रचना की उत्कृष्णता का आधार उसका विषय, शिल्प और रचनात्मक सौंदर्य होता है।

खेद है कि आज राजनीति ने दलितों और सवर्णों के बीच ऐसी गहरी खाई खींच दी है कि हम किसी भी समस्या का हल मिल बैठकर करने में विश्वास ही नहीं करते। हिंदी क्षेत्रों में जातिगत वैमनस्य सबके दिल में इस गहराई तक बैठा हुआ है कि हर व्यक्ति चाहे वह किसी जाति का हो वह अपने सीमित कुनबे में सिमटता जा रहा है। आए दिन तरह-तरह के जातियों-उपजातियों के सम्मेलन हिंदी समाज को खंड-खंड कर रहे हैं।

आखिर बंगाल में यह जातिवाद क्यों नहीं है? यहाँ चुनाव के समय टिकट देते वक्त जातिगत समीकरण की ओर लोगों का ध्यान क्यों नहीं जाता? यहाँ शादियों में जातियाँ क्यों बाधक नहीं बनतीँ? क्यों अंतर्जातीय विवाह यहाँ सामान्य बात है? क्यों ज्यादातर यहाँ प्रेम विवाह ही होते हैं और लोग उसे पूरी निष्ठा से अंगीकार करते हैं? इसका कारण है। बंगाल में नवजागरण हुआ था। जाति-पाँति, छूआ-छूत, ऊँच-नीच आदि अवधारणाओं के विरुद्ध यहाँ नवजागरण के दौरान सवर्णों ने ही संघर्ष किया था। बंगला नवजागरण के लगभग सारे मनीषी सवर्ण थे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर आदि सभी तो सवर्ण ही थे। इन मनीषियों ने बंगाल को सांस्कृतिक दृष्टि से इतना समुन्नत बना दिया कि यहाँ कोई मायावती या मुलायम सिंह यदि जाति के आधार पर चुनाव में अपने प्रत्याशियों के लिए वोट माँगने तो उनकी जमानत जप्त हो जाएगी जबकि हिंदी क्षेत्रों में पूरी गणित जाति की होती है।

 

जातिवाद और सांप्रदायिकता

इन दोनों समस्यायों से निजात पाने का आज सबसे कारगर उपाय जातीय चेतना का विकास है। जातीय चेतना जितनी ही विकसित होगी उक्त दोनों समस्याएँ उसी परिमाण में कमजोर होगी। इतिहास गवाह है कि बंगाल का विभाजन अँग्रेजों ने धर्म के आधार पर किया था। पूरे बंगाल ने उसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर सड़कों पर उतर आए और विरोध में लंबी-लंबी जुलूसों का नेतृत्व किया। व्यापक जन प्रतिरोध के कारण अँग्रेजों को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा। वह नवजागरण का दौर था। बंगाल की जातीय चेतना की मजबूती का यह सबसे बड़ा प्रमाण है। 1905 ई. में अँग्रेज असफल हो गए। किंतु उन्हीं अँग्रेजों को 1947 ई. में सफलता मिल गई। पंजाब का उत्तरी इलाका भी धर्म के आधार पर अलग हुआ। अँग्रेजों ने सुझाया कि मुसलमान पिछड़े हैं जिसके कारण हिंदू हैं। विभाजन से जितनी छति मुसलमानों को हुई उतनी हिंदुओं को नहीं। पाकिस्तान में ठीक ढंग से जनतंत्र का विकास होने ही नहीं पाया। वहाँ बराबर फौजी तानाशाही कायम रही।

डॉ. रामविलास शर्मा ने जातीयता की समस्या को बराबर राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से जोड़कर देखा है। उन्होंने लिखा है कि राष्ट्रीयताओं का विभाजन न हिंदुस्तान को रास आया न पाकिस्तान को। पंजाब के विभाजन से जो शांति कायम हुई उसके नतीजे में खालिस्तान की माँग सामने आयी। जातीयताओं के विभाजन के परिणाम स्वरूप बंगलादेश पाकिस्तान से अलग हुआ। पश्चिमी पाकिस्तान में 'जिये सिंध आंदोलन' ने सिंधी मुसलमानों और पठानों के बीच जातीय दंगे करवाएँ। भारत में कश्मीर और पंजाब के आतंकवादियों को अमेरिका से प्राप्त हथियार और धन देकर संगठित हिंसा को प्रोत्साहित करना स्वयं पाक को भी महँगा पड़ा।

वस्तुत: हिंदी जाति की संकल्पना बहुलतावादी भारतीय समाज के विभिन्न समुदायों को अपनी पहचान की शब्दावली देकर अलग-थलग करने के प्रतिरोध में खड़ी होती है। यह अलगाव संप्रदायवादियों तथा जाति विरादरी के समर्थकों को जनता को विभाजित रखने का सबसे मुफीद अवसर सुलभ कराता है।

धर्म को लेकर जनता को समाजविमुख बनाना आज संप्रदायवाद और साम्राज्यवाद का प्रमुख लक्ष्य है। आज भी हमारे देश की पिछड़ी जातियों में जो पिछड़े हुए सामंती अवशेष हैं, संस्कार हैं, धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरता है उनकी रक्षा करते हैं और उन्हें उभारते हैं। आज का साम्राज्यवाद और बुनियादपरस्त ताकतें अपनी रक्षा के लिए सबसे घृणित और निम्न स्तर के धार्मिक अंधविश्वासों को उभार रही हैं। इससे सबसे ज्यादा क्षति जातीय चेतना की होती है।

रामविलास शर्मा ने विदेशी पूँजी और अँग्रेजी भाषा के रिश्ते का बार-बार जिक्र किया हैं। उनका मत है कि हिंदी जाति की एकता से अँग्रेजी का भविष्य जुड़ा हुआ है। यदि हिंदी प्रदेश एक हो, यहाँ के निवासियों में जातीय चेतना हो तो इसका प्रभाव पूरे देश की राजनीति पर पड़ेगा। अमेरिकी और ब्रिटिश पूँजीपति कभी नहीं चाहेंगे कि यहाँ अँग्रेजी के बदले हिंदी आदि देशी भाषाओं का चलन हो। यह उनके और उनके प्रतिभावान देशी उत्तराधिकारियों के हित में है कि हिंदी प्रदेश विभाजित रहे, उसमें जातीय चेतना का विकास न हो और उनका कारोबार आराम से चलता रहे। इससे उनके दो हित सधते हैं, एक तो भारत सांस्कृतिक रूप से इन इजारेदार पूँजीवादी देशों के साथ नत्थी रहता है, दूसरे अँग्रेजी किताबों की बिक्री के लिए बहुत-बड़ा बाजार उनके हाथ में रहता है।

डॉ. रामविलास शर्मा का कहना है कि जातियों को विभाजित रखना साम्राज्यवादी कूटनीति का हिस्सा है। उनकी इस कूटनीति ने उनके अपने देश के लोगों को भी नहीं बक्शा है। भारत की तरह ब्रिटेन भी बहुराष्ट्रीय देश है। वहाँ की इंग्लिश जाति ने स्कॉट एवं वेल्स दो स्वतंत्र जातियों को गुलाम बनाकर रखने के लिए सैकड़ो वर्ष तक युद्ध किया। उनकी भाषा और संस्कृति का दमन कर ग्रेट ब्रिटेन की स्थापना की। इसी तरह दासों और गुलामों का व्यापार करने वाला संयुक्त राज्य अमेरिका के अमरीकियों ने पहले वहाँ के मूल निवासी 'रेड इंडियन्स' को मारा। फिर उनकी जमीन जाएँदाद छीनकर उन्हें जंगलों में खदेड़ दिया।

रामविलास शर्मा ने अनेक स्थलों पर जातीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा और साहित्य के प्रति साम्राज्यवाजदियों के दमन का जिक्र किया है और उसके समानांतर जातीयताओं के महत्व को समझाया है।

तात्पर्य यह कि हिंदी जाति को यदि जाति-पाँति के नर्क और सांप्रदायिकता की आग से बचाना है तो उसमें जातीय चेतना विकसित करनी होगी। इस मुहिम में साम्राज्यवादी तो बाधक हैं ही उससे बढ़कर बाधक हैं अपने ही देश के 'काले अँग्रेज' जो हमारे आसपास हैं, अमूमन शराफत का चोला धारण किए हुए। उन्हें पहचानने की दृष्टि हमें विकसित करनी होगी।


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