डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने हिंदी साहित्य का संपादन करते हुए उसकी भूमिका में लिखा है - "यद्यपि हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास गत एक हजार वर्ष से अधिक पुराना नहीं है, परंतु उसकी परंपराएँ अत्यंत प्राचीन हैं। हिंदी भाषा का क्षेत्र वर्तमान राजस्थान से बिहार तथा हिमांचल प्रदेश और पूर्वी पंजाब से मध्य प्रदेश का विस्तृत भू-भाग है। प्रशासनिक आधार पर इसमें पंजाब (पूर्वी भाग), हिमांचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार - आठ अलग-अलग इकाइयाँ हैं, परंतु भाषा की दृष्टि से यह संपूर्ण क्षेत्र एक अविभाज्य इकाई है, जिसकी जनसंख्या लगभग बाईस करोड़ है। भाषा की इस इकाई को यदि 'हिंदी प्रदेश' कहा जाएँ तो अनुचित न होगा। विस्तार और जनसंख्या में ही नहीं, सांस्कृतिक दृष्टि से भी इस हिंदी प्रदेश का विशेष महत्व रहा है। प्राचीन काल के वृहत्तर 'मध्यदेश' का ही यह आधुनिक भाषा क्षेत्र है, जिसे उत्तर भारत और अनेक अंशों में संपूर्ण भारत की संस्कृति का केंद्र कहा जा सकता है। हिंदी भाषा आर्यों की उस भाषा की अन्यतम प्रतिनिधि है जिसमें उसका प्राचीनतम साहित्य और सांस्कृतिक इतिहास उपलब्ध हुआ है।" ( हिंदी साहित्य, प्रथम खंड, प्रस्तावना से)
इसी पुस्तक में भाषा का इतिहास लिखते हुए प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक डॉ. हरदेव बाहरी का कहना है - "हिंदी भाषा का इतिहास वैदिक काल से उपलब्ध होता है। उससे पहले इस आर्यभाषा का स्वरूप क्या था, यह सब कल्पना का विषय बन गया है। आर्य चाहे कही बाहर से भारत में आए हो अथवा यही सप्तसिंधु प्रदेश के मूल निवासी हो, यह निश्चित और निर्विवाद सत्य है कि वर्तमान हिंदी प्रदेश में आने से पहले उनकी भाषा वही थी जिसका साहित्यिक रूप ऋग्वेद में प्राप्त होता है। एक तरह से यह कहना ठीक होगा कि वैदिक भाषा ही प्राचीनतम हिंदी है। इस भाषा के इतिहास का यह दुर्भाग्य है कि युग-युग में इसका नाम परिवर्तित होता रहा है। ईसवी पूर्व की तमिल और आज की तमिल में नाम भेद नहीं किया जाता, भले ही आधुनिक तमिल के पंडित के लिए प्राचीन तमिल वैसी ही कठिन और दुर्बोध हो जैसी हिंदी जानने वाले के लिए संस्कृत।
समूल परिवर्तन हो जाने पर भी अँग्रेजी-अँग्रेजी ही है और जर्मन-जर्मन। काल-भेद से हम उनके विभिन्न रूपों को प्राचीन अँग्रेजी, प्राचीन जर्मन, मध्यकालीन अँग्रेजी, मध्यकालीन जर्मन, आधुनिक अँग्रेजी और आधुनिक जर्मन कह देते हैं, किंतु हिंदी के अति प्राचीन रूप को वैदिक, प्राचीन रूप को संस्कृत, पूर्व मध्यकालीन को पालि, मध्यकालीन को प्राकृत, उत्तर मध्यकालीन को अपभ्रंश एवं आधुनिक रूप को हिंदी कहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस भाषा का साहित्यिक रूप वेद में सुरक्षित है, उसी की उत्तराधिकारिणी हिंदी है। हिंदी भाषा के मूल तत्व वैदिक भाषा में विद्यमान हैं।" (वही, पृष्ठ 135)
जाहिर है डॉ. हरदेव बाहरी हिंदी भाषा को वैदिक संस्कृत की उत्तराधिकारिणी मानते हैं। इसीलिए मैं भी वेदों और उपनिषदों सहित रामायण, महाभारत आदि हिंदी प्रदेश में रचित संस्कृत के असंख्य महान ग्रंथों को हिंदी जाति की विरासत मानता हूँ। मैं मानता हूँ कि वैदिक और लौकिक संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश की रचनाएँ हिंदी जाति की रचनाएँ नहीं हैं। मगर है वह हिंदी जाति की ही विरासत। उससे हमारा भारत गौरांवित है, दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा है। वह हमारे समृद्ध भारतीय साहित्य का हिस्सा है।
हम उसे हिंदी जाति का साहित्य इसलिए भी नहीं कह रहे हैं क्योंकि उस समय हिंदी जाति गठित नहीं हुई थी। पूरा क्षेत्र विभिन्न जनपदों में बँटा हुआ था जिसका जिक्र पहले किया जा चुका है। हिंदी भाषा में रचा गया साहित्य ही वस्तुत: हिंदी जाति का साहित्य है।
इस संबंध में जितने भी हिंदी साहित्य के इतिहास लिखे गए है उनमें सबसे पहले हमारा ध्यान आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास पर जाता है क्योंकि वह पहला विचार श्रृंखला बद्ध इतिहास है, जिसके पास एक इतिहास दृष्टि है और एक सुसंगत काल विभाजन है। साहित्य के पाठकों में भी सबसे ज्यादा प्रचलित यही शुक्ल जी का इतिहास है।
मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि अपने इतिहास के प्रथम संस्करण की भूमिका लिखते समय शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास के रूप में ख्यात गार्सां द तासी के इतिहास 'इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐंदुई ऐंदुस्तानी' का जिक्र तक नहीं किया है। वे शुरू करते हैं शिवसिंह सेंगर से। उन्होंने लिखा है - "हिंदी कवियों का एक वृत्त संग्रह ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने सन 1883 ई. में प्रस्तुत किया था। उसके पीछे सन 1889 में डॉक्टर (अब सर) ग्रियर्सन ने 'माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर आव नार्दर्न हिंदुस्तान' के नाम से एक वैसा ही बड़ा कविवृत्त संग्रह निकाला।" (हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रथम संस्करण का वक्तव्य)
गार्सां द तासी के इतिहास का पहला भाग 1839 ई. में छप चुका था और दूसरा भाग 1847 ई. में। उल्लेखनीय है कि तासी का इतिहास हिंदुवी और हिंदुस्तानी का इतिहास है। इसमें उर्दू-हिंदी दोनों के कवियों का उल्लेख है। यद्यपि उस समय तक फोर्ट विलियम कालेज के मंच से जॉन बोर्थविक गिल क्राइस्ट के निर्देशन में विलियम प्राइस, कैप्टन टेलर आदि के द्वारा हिंदी-उर्दू का विभाजन किया जा चुका था और इन्हें मजहब से जोड़ा जा चुका था। इसके बावजूद तासी का दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक और वैज्ञानिक था। उसकी दृष्टि में यह एक ही भाषा का साहित्य था और इसीलिए एक ही जाति का साहित्य था।
शुक्ल जी ने जिस ग्रियर्सन का जिक्र आदर के साथ किया है उसने अपने इतिहास (प्रकाशित, प्रथम संस्करण 1888 ई.) की भूमिका में लिखा है - "मैं न तो अरबी-फारसी के भारतीय लेखकों का उल्लेख कर रहा हूँ और न ही विदेश से लाई गई साहित्यिक उर्दू के लेखकों का ही - मैंने इन अंतिम को, उर्दू वालों को, अपने इस विचार से जानबूझकर बहिष्कृत कर दिया है क्योंकि इन पर पहले ही गार्सां द तासी ने पूर्ण रूप से विचार कर लिया है।"
खेद है कि ग्रियर्सन की यह निराधार भेद दृष्टि शुक्ल जी सहित परवर्ती सभी इतिहास लेखकों ने यथावत स्वीकार कर ली।
हिंदी जाति के साहित्य की कोई भी अवधारणा क्या मीर, सौदा, गालिब, जॉक, जफर, आतिश, फैज और इकबाल को छोड़कर बन सकती है? 'मैं हिंदुस्तानी तुर्क हूँ और हिंदुवी में जवाब देता हूँ। का उद्घोष करने वाले अमीर खुसरो क्या हिंदी जाति के साहित्यकार नहीं हैं? होली, दीवाली, महादेव जी के व्याह और कन्हैया जी के जन्म पर कविताएँ लिखने वाले नजीर अकबराबादी क्या हिंदी के जातीय कवि नहीं हैं? फिराक गोरखपुरी, जोश मलीहाबादी, फैज अहमद फैज, अली सरदार जाफरी, साहिर लुधियानवी, अहसान दानिश, कैफी आजमी, निदा फाजली और जावेद अख्तर जैसे प्रगतिशील और हिंदी जाति की सामासिक संस्कृति को पुख्ता करने में अपनी समूची जिंदगी समर्पित कर देने वाले साहित्यकारों को हिंदी के जातीय साहित्यकारों के भीतर जगह न देने वाले बुद्धिजीवियों की बुद्धि पर तरस आती है। 'हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा।' का तराना छेड़ने वाले डॉ. इकबाल की जगह यदि हिंदी के जातीय साहित्य में नहीं है तो कहाँ है? हिंदी के ऐसे लेखकों के लिए मैं अकबर इलाहाबादी का शेर उधार लेकर समर्पित करना चाहूँगा -
"रकबा तुम्हारे गाँव का मीलों हुआ तो क्या,
रकबा तुम्हारे दिल का तो दो इंच भी नहीं।"
वस्तुतः हिंदी साहित्य के इतिहास में जिसे हम अब तक रीतिकाल कहते आए हैं वह रीतिकालीन ब्रज भाषा का साहित्य हमारे जातीय साहित्य की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं है, क्योंकि यह साहित्य तत्कालीन बहुसंख्यक जनता की चित्तवृत्तियों को प्रतिबिंबित नहीं करता। अपवादों को छोड़ दें तो दो सौ वर्षों से भी अधिक समय तक के इस कालखंड के सभी हिंदी कवि दरबारी रहे और अपने पतनशील आश्रयदाता सामंतों की विकृत रुचियों को तुष्ट करने के लिए श्रृंगारिक कविता या नायिका भेद लिखते रहे। इस कालखंड की बहुसंख्यक जनता की चेतना वस्तुतः उस कविता में व्यक्त हुई है जिसे हमने उर्दू कविता के नाम पर अपने जातीय साहित्य की परिधि से बाहर कर दिया है। हम यदि तथाकथित उर्दू साहित्य को भी हिंदी के जातीय साहित्य के भीतर सम्मिलित करने का नेक और जाएँज निर्णय लेते हैं तो हमें रीति काल की अब तक की समूची अवधारणा बदलनी होगी। इसी कालखंड के ब्रज भाषा के कवि जब - "काजर के कोरवारे भारे अनियारे नैन" के तीरों से बिद्ध हो रहे थे तो 'सौदा' (1706-1781) और 'मीर' (1725-1810) जहानाबाद (दिल्ली) की बर्बादी (नादिरशाह के लूटने से) का कारुणिक चित्र खींच रहे थे और घुट-घुट कर रो रहे थे -
"गुलों के साथ जहाँ बुलबुलें करी थी किलोल,
जहानाबाद तो कब इस सितम के काबिल था।
मगर कभी किसी आशिक का यह नगर दिल था,
कि यों मिटा दिया गोया कि नक्शे बातिल था।"
(मिर्जा मुहम्मद रफी 'सौदा')
"दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिखाब,
रहते थे मुंतसिब ही जहाँ रोज यार के,
उसको फलक ने लूट के वीरान कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दराज के।"
(मीर तकी 'मीर')
महाकवि मिर्ज़ा ग़ालिब (1796-1869) दुख के भीतर से जीने की राह खोज रह थे -
"रंज से खूँगर हुआ इंशाँ तो मिट जाता है रंज,
मुश्किलें मुझपर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं।"
आतिश मजहबी कट्टरता के खिलाफ जंग लड़ रहे थे और दिलों को जोड़ने की बात कर रहे थे -
"बुतखाना खोद डालिए मस्जिद को ढाइए,
दिल को न तोड़िए ये खुदा का मुकाम है।"
(ख्वाजा हैदर अली 'आतिश')
इसी कालखंड में अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह 'जफर' (1735-1830) थे जो एक ओर अँग्रेजों को ललकार रहे थे तो दूसरी ओर जनता को आगाह भी कर रहे थे -
"हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
और
"दुनिया है यह रैन बसेरा बीत गई रही थोड़ी सी,
उनसे कह दो सो ना जावें नींद में जो कि निंदासे हैं।"
इसी जमाने में जन साधारण के असाधारण कवि नजीर 'अकबराबादी' (1735-1830) सही अर्थों में हिंदी जाति की सामासिक संस्कृति की नींव पुख्ता कर रहे थे और जमाने का यथार्थ रच रहे थे। नजीर ने सिर्फ होली पर 26 कविताएँ रची हैं। कन्हैया जी की लीलाओं का उन्होंने इन शब्दों में चित्रण किया है -
"तारीफ करूँ अब मैं क्या-क्या उस मुरली अधर बजैया की,
नित सेवा कुँज फिरैया की और बन-बन गऊ चरैय्या की।
गोपाल बिहारी बनवारी दुखहरन नेह करैया की,
गिरधारी सुंदर स्यामबरन और हलधर जू के भैया की,
यह लीला है उस उस नंद ललन मनमोहन जसुमति छैया की
रख ध्यान सुनौ दंडौत करौ जै बोलो किशन कन्हैया की।"
उनकी एक मशहूर कविता की कुछ पंक्तियाँ हैं -
"क्या थाल कटोरी चाँदी की, क्या पीतल की डिबिया ढंकनी
क्या बर्तन सोने चाँदी के क्या मिट्टी की हंड़िया चपनी,
सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा।"
फिराक गोरखपुरी ने उनके विषय में बिलकुल ठीक कहा है कि - "नजीर अकबराबादी उर्दू के ऐसे निराले कवि हैं जो वास्तव में अपने समय से बहुत पहले पैदा हो गए या यूँ कह लीजिए कि उन्होंने इस ढंग से कविता लिखी कि जिसका मूल्यांकन डेढ़- दो सौ वर्षों बाद ही किया जा सकता था।" (उर्दू भाषा और साहित्य, द्वितीय संस्करण 1779, पृष्ठ 46)
प्रो. एहतेशाम हुसेन के शब्दों में - "नजीर से पूर्व अधिकतर कवि साधारण विषयों पर लिखने और जनता के जीवन का चित्रण करने में संकोच करते थे, परंतु नजीर ने उच्च वर्ग के विचारों में एक ऐसा चोर दरवाजा बना दिया, जिसमें से होकर जनता का जुलूस साहित्य भवन में घुस आया। कविता की इस महान परंपरा के साथ नजीर अकबराबादी का नाम सदैव जीवित रहेगा। वास्तव में तो यह वही परंपरा थी, जिसे अमीर खुसरो ने जन्म दिया था, परंतु बीच में जीवन से उसका वह पहला सा घनिष्ठ संबंध नहीं रह गया था। नजीर ने उसे प्रबल, व्यापक और लोकप्रिय बनाया। अमीर खुसरो के पश्चात भक्त कवियों ने, गोलकुण्डा के कुली कुतुबशाह ने, दिल्ली के फाइज ने उसे विनाश से बचाया था, नजीर ने उसे आकाश तक ऊँचा उठा दिया।" (उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, संस्करण 2002, पृष्ठ-98)
उर्दू के नाम पर हिंदी वालों के लिए अछूत करार दे दिया गया यह साहित्य वस्तुत: हिंदी के जातीय साहित्य का अभिन्न हिस्सा है।
यह दिलचस्प है कि उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक भी उर्दू साहित्य की शुरुआत अमीर खुसरो से मानते हैं और हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक भी। आरंभिक उर्दू गद्य की पुस्तकों - बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, रानी केतकी और कुँवर उदयभान की कहानी आदि कृतियों से लेकर मुंशी प्रेमचंद, कृष्ण चंदर, सहादत हसन मंटो, राही मासूम रजा, राजेंद्र सिंह बेदी, इस्मत चुगताई आदि रचनाकार हिंदी और उर्दू में समान रूप से पढ़े-पढ़ाये जाते हैं। फिल्मों से जुड़े गीतकार जैसे - कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, जोश मलीहाबादी, निदा फाजली, जावेद अख्तर आदि हिंदी कवियों- गीतकारों की तुलना में जनता में अधिक लोकप्रिय हैं यद्यपि इनके लिए हिंदी साहित्य के इतिहास में जगह नहीं है।
हमने साहित्य और कला की यह कैसी दुनिया बनाई है जहाँ तुलसी को पढ़ने वाला गालिब को नहीं पढ़ सकता और इकबाल को पढ़ने वाला निराला के बारे में नहीं जानता। विश्वविद्यालयों में हमने हिंदी और उर्दू के नाम पर जो अलग-अलग विभाग बनाए हैं, ऐसा लगता है कि उनका मुख्य काम अपने जातीय साहित्य का बँटवारा करना है। हम हिंदी साहित्य के अंतर्गत चंद बरदाई को पढ़ते हैं जो राजस्थानी के हैं, विद्यापति को पढ़ते हैं जो मैथिली के हैं, तुलसी और जायसी को पढ़ते हैं जो अवधी के हैं, कबीर को पढ़ते हैं जो भोजपुरी के हैं और ये सब हमें कठिन नहीं लगते लेकिन मिर्ज़ा ग़ालिब और मीर तकी 'मीर' हमें कठिन लगते हैं और उन्हें हिंदी वाले नहीं पढ़ते जो खड़ी बोली के हैं और जिन्होंने खुद अपनी जबान को 'हिंदी' कहा है।
उर्दू के रचनाकारों का जो साहित्य देवनागरी में उपलब्ध है उसमें सिर्फ अरबी-फारसी के कुछ कठिन शब्द होते हैं और आम तौर पर उनके हिंदी अर्थ दिए होते हैं। मात्र इतने से ही उनकी कविताएँ आसानी से समझ में आ जाती हैं। मुझे बराबर लगता है कि गालिब, इकबाल, फैज और फिराक की तुलना में कबीर, जायसी, केशव और घनानंद अधिक कठिन हैं। अगर हिंदी-उर्दू एक ही भाषा की दो शैलियाँ हैं और दोनों शैलियों में रची गई रचनाएँ एक ही क्षेत्र की साहित्यिक उपलब्धियाँ हैं तो हमारे साहित्य के विद्यार्थियों को अपनी दोनों ही परंपराओं से समान रूप से परिचय का अवसर मिलना चाहिए। उर्दू का सारा श्रेष्ठ साहित्य दिल्ली, आगरा और लखनऊ में रचा गया। हिंदी का क्षेत्र भी यही है। जो लोग इस साहित्य को हिंदी जाति का साहित्य मानने के पक्ष में नहीं हैं वे बताए कि यह किस जाति का साहित्य है? क्या उर्दू नाम की भी कोई जाति बसती है? यदि ऐसा है तो उसका भौगोलिक क्षेत्र कौन सा है? क्या एक ही क्षेत्र में एक साथ दो जातियाँ बसती हैं? क्या दुनिया में कही ऐसा भी संभव है?
उर्दू का अलग साहित्य मानने के पीछे यदि यह तर्क है कि उसकी लिपि उर्दू है देवनागरी नहीं तो यह तर्क बिलकुल बेबुनियाद है। आज हम अपनी हिंदी को रोमन तक में लिखते हैं। आज की नयी पीढ़ी हिंदी का एसएमएस रोमन में भेजने की अभ्यस्त हो चुकी है जबकि यह रोमन लिपि हिंदी भाषा के लिए अत्यंत अवैज्ञानिक है। लिपि बदलने से भाषा नहीं बदल जाती। इतना ही नहीं, लिपि लिखने के काम आती है न कि बोलने के। हमारे देश में आज भी एक तिहाई से ज्यादा लोग ऐसे हैं जो लिखना-पढ़ना नहीं जानते। उनके बारे में हम कैसे तय करेंगे? हम उर्दू के सारे साहित्यकारों को उर्दू लिपि में भी पढ़ सकते हैं और देवनागरी में भी। जो उर्दू नहीं जानते वे देवनागरी में पढ़ेंगे। इसमें क्या बुराई है? एक भाषा दो लिपियों में पढ़ी जाएँ तो इसमें हर्ज क्या है? कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत भाषा बंगला लिपि में पढ़ायी जाती है और मैं देखता हूँ कि उससे कोई असुविधा नहीं पैदा होती।
आज तो देखने में यह आता है कि उर्दू के सभी बड़े साहित्यकार उर्दू के साथ-साथ देवनागरी में भी छप जाते हैं। निदा फाजली, कैफी आजमी और जावेद अख्तर का श्रेष्ठ साहित्य पूरा का पूरा देवनागरी में भी उपलब्ध है। हिंदी फिल्मों में इनके गीत हम गाते नहीं अघाते और दूसरी ओर इन्हें हिंदी का नहीं मानते। यह दोहरा मापदंड क्यों?
अंतत: निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि भले ही हमारे नेताओं ने उर्दू और हिंदी दोनों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करके अलग-अलग भाषा का दर्जा दे दिया है, वोट के लिए उर्दू को अघोषित रूप से इस्लाम से जोड़ दिया है, किंतु अभी तक किसी भाषा वैज्ञानिक ने हिंदी और उर्दू को अलग-अलग भाषा नहीं माना है। भाषा वैज्ञानिकों की राय ही हमारे लिए सर्वोपरि है, इसलिए हम कह सकते हैं कि हिंदी और उर्दू एक ही जाति की एक ही भाषा की दो शैलियाँ है और इसीलिए दोनों शैलियों में रचा गया हमारा साहित्य इस देश की सबसे बड़ी जाति - हिंदी जाति का साहित्य है।
यह सही है कि किसी जाति की पहचान उसकी भाषा के माध्यम से प्रकट होती है और उसकी भाषा में लिखा गया साहित्य ही उस जाति का साहित्य होता है परंतु किसी भाषा में किसी विशेष कालखंड में लिखा गया उसका संपूर्ण साहित्य जातीय साहित्य में शामिल नहीं किया जा सकता। एक वर्ग विभाजित समाज में जहाँ रहन-सहन के अनेक स्तर होते हैं उसमें साहित्य की परंपरा भी अनेक होती है। मोटे तौर पर दो परंपराए तो होती ही हैं - एक सत्ताधारी शोषक वर्ग की और दूसरी शोषित वर्ग की। इसमें जो परंपरा व्यापक जनहित और सांस्कृतिक विकास में सहायक होती है उसे जातीय परंपरा कहते है।
उदाहरणार्थ हिंदी का नवजागरणकालीन साहित्य हमारी जातीय परंपरा का साहित्य है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं - सामंतवाद और साम्राज्यवाद विरोधी चेतना, रूढ़िवाद का विरोध, इतिहास और परंपरा का नया मूल्यांकन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, खड़ी बोली हिंदी का जातीय भाषा के रूप में प्रसार, वैज्ञानिक चेतना और बुद्धिवादी दृष्टिकोण का विकास आदि।
इसी तरह मध्यकालीन भक्ति साहित्य भी हमारे जातीय साहित्य का उत्कृष्ट उदाहरण है।