जाति का निर्माण एक प्रगतिशील प्रक्रिया है इसलिए कि सामंती व्यवस्था के विरोध में वह पूँजीवादी विकास प्रक्रिया से जुड़ी हुई है। जे.वी. स्तालिन (मार्क्सवाद और जातियों का सवाल), ई.जे. हाब्सबाम (नेशन्स एंड नेशनलिज्म सीन्स 1789), पार्थ चटर्जी (द नेशन एंड इट्स फ्रैग्मेंट्स), रामविलास शर्मा (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, दो खंड) तथा बोरिस क्लूयेव (स्वतंत्र भारत: जातीय तथा भाषाई समस्या) आदि ने इस विषय पर गंभीर काम किया है।
पिछले कुछ दशकों से कुछ यूरोपीय और उनके समर्थक भारतीय लेखकों और बुद्धिजीवियों का एक समुदाय उभरा है जो जाति की अवधारणा को ही नकारता है। इनमें बेनेडिक्ट एंडरसन प्रमुख हैं। 1983 ई. में बेनेडिक्ट एंडरसन की पुस्तक कल्पित समुदाय (इमैजिंड कम्युनिटीज) प्रकाशित हुई और रणजीत गुहा द्वारा संपादित सबल्टर्न स्टडीज भी प्रकाशित हुई जिसके सातवें खंड में सुदीप्तो कविराज का लेख है - भारत की काल्पनिक संस्थाएँ। (द इमैजनरी इंस्टीटयूशंस आफ इंडिया)। दोनों रचनाओं में स्थापित किया गया है कि राष्ट्र, राष्ट्रीयता, कौम, कौमियत या जातीयता की कोई वास्तविक सत्ता नहीं होती। अगर यह मान लिया जाएँ तब तो उनके इतिहास, उनके मुक्ति आंदोलन आदि सबको अस्वीकार करना होगा।
रामविलास शर्मा के हिंदी जाति संबंधी समस्त चिंतन के मूल में उनकी यही चिंता है। उनका तर्क है कि - ''परंपरागत पूँजीवादी समाजशास्त्र जातीयताओं के विकास और उसकी विशिष्टता को दबाता ही नहीं उसे विकृत भी करता है। जिससे विजेता और विजित के अंतर को बनाए रखा जा सके। इसका गहरा असर सामाजिक जीवन पर पड़ता है। राजनीतिक दलों की कार्रवाई उससे प्रभावित होती है। जनता का सांस्कृतिक जीवन राजनीति से असंपृक्त नहीं है अतः भारत के वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में जातीय संस्कृति-हिंदी जाति के निर्माण और उसकी पहचान एक राजनैतिक कर्म की पूर्ति करता है। उसक लिए पूँजीवादी समाजशास्त्र की रूढ़ियों से मुक्त होना आवश्यक है।'' (देखिए, हिंदी जाति की अवधारणा शीर्षक रवि श्रीवास्तव का लेख, प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2011, पृ.90)।
डॉ. शर्मा की हिंदी जाति की संकल्पना के अध्ययन के पीछे दो तर्क हैं पहला, भारत में फासीवादी विचारधारा का सामाजिक आधार राष्ट्रवाद नहीं है, बल्कि सांप्रदायिकता है। हिंदू राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता को ओट में रखता है। इसी तरह सांप्रदायिक मुसलमान दुनिया के मुसलमानों की एकता और इस्लाम की रक्षा की ओट में साम्राज्यवाद और उसके समर्थकों से अपने मैत्री भाव को सुरक्षित रखता है। उसका सबसे बड़ा शत्रु साम्राज्यवाद विरोधी मुस्लिम ही है।
दूसरा यह कि रामविलास शर्मा देश में सदियों से जड़ जमा चुके संप्रदायवाद, नस्लवाद, धार्मिक कट्टरता, आक्रामक और घृणित राष्ट्रवाद से उपजी चुनौतियों से टकराना चाहते थे क्योंकि उन्हें पता था कि भारतीय समाज की प्रतिगामी शक्तियाँ वहीं से अपना जीवन रस ग्रहण करती हैं। डॉ. शर्मा का विश्वास है कि हमारे वेद और पुराण अब तक प्रतिक्रियावादी हाथों में सामाजिक उत्पीड़न का विचाराधारात्मक हथियार की तरह बने रहे हैं। भारत में फासीवाद का आधार अंतरराष्ट्रीय वित्त-पूँजी की आपसी प्रतियोगिता नहीं बल्कि संप्रदायवाद है।
इसीलिए डॉ. शर्मा को विश्वास है कि उक्त में से अधिकांश समस्याओं का हल जातीय चेतना के विकास में है क्योंकि जातीय निर्माण की प्रक्रिया ही सामंत विरोधी होती है और एकीकरण को अनिवार्य बनाती है।
हिंदी के बुद्धिजीवियों का जातीय अवधारणा से परिचय उन्नीसवीं सदी से ही दिखाई देने लगता है। भारत के अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह 'जफर' का एक मशहूर शेर है -
हिंदियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
बहरहाल, 1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम, जो मुख्यतः हिंदी क्षेत्र में लड़ा गया था अपनी जातीय एकजुटता का परिचय दे दिया था और अँग्रेजों ने इसे भलीभाँति समझ भी लिया था। इस ऐतिहासिक परिघटना से अँग्रेजों ने भरपूर सबक ली थी और उसके अनुसार अपनी नीतियां बनाई थी। बाबू कार्तिक प्रसाद खत्री का 'महाराष्ट्रीय जाति का अभ्युदय' शीर्षक लेख 'सरस्वती' के जनवरी 1902 के अंक में छपा था। उस समय उसके संपादक थे बाबू श्यामसुंदर दास। रामविलास शर्मा के अनुसार हिंदी जाति की एकता का अनुभव करने वाले सबसे पहले भारतीय एक बंगाली सज्जन श्री श्यामाचरण गांगुली थे। नवंबर 1911 के 'माडर्न रिव्यू' में उन्होंने लिखा था, 'यदि विच्छिन होकर विभिन्न प्रशासकीय विभागों के अंतर्गत रहना बंगालियों के लिए बुरा है तो इसी तरह हिंदुस्तानियों, मराठों और उड़िया लोगों के लिए विच्छिन्न होकर विभिन्न प्रशासकीय विभागों के अंतर्गत रहना बुरा होगा।' (भाषा और समाज, पृ. 287 पर उद्धृत)। किंतु श्यामाचरण गांगुली के पहले 1905 में गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से निकलने वाले पत्र 'इंडियन ओपिनियन' में 'हिंदी' शब्द का इस्तेमाल हिंदुस्तानी जाति के लिए किया है। 'इंडियन ओपिनियन' के 6 अगस्त 1905 के अंक में 'नाताल में हिंदी गिरमिटिये' शीर्षक लेख प्रकाशित है। इसी तरह 29 जुलाई 1905 के अंक में 'हिंदी दवाखाना' शीर्षक विज्ञापन भी देखा जा सकता है। भारतेंदु ने 1879 में अपने पत्र 'कवि वचन सुधा' में 'जातीय संगीत' नामक निबंध लिखा और उसमें प्रदेशगत जाति के संगीत की चर्चा की और उसके विकास पर बल दिया है। वे जिन गीतों का नाम लेते हैं उनसे हिंदी प्रदेश का सीधा सांस्कृतिक संबंध है। जैसे कजरी, ठुमरी, होली, चैती, बिरहा आदि।
वे लिखते हैं, - "सब देश की भाषाओं में इसी अनुसार हो अर्थात पंजाब में पंजाबी, बुदेलखंड में बुंदेली, बिहार में बिहारी, ऐसे जिन देशों में जिन भाषा का साधारण प्रचार हो उसी भाषा में ये गीत बनें।" यहाँ भारतेंदु द्वारा 'देश' शब्द का प्रयोग खासतौर पर उल्लेखनीय है जिसका सीधा तात्पर्य जनपदीय क्षेत्र, जनपदीय संस्कृति और जनपदीय भाषा से है। जाहिर है जाति की स्पष्ट अवधारणा भारतेंदु को है।
फिलहाल, हिंदी जाति के एकीकरण के प्रश्न को विधिवत चर्चा में लाने वाले डॉ. धीरेंद्र वर्मा हैं जिन्होंने सन 1930 में 'हिंदी राष्ट्र या सूबा हिंदुस्तान' नामक पुस्तक लिखी थी जिसके चार लेख 1922 में ही जबलपुर से निकलने वाली 'श्री शारदा पत्रिका' में छप चुके थे। राष्ट्र के प्रमुख लक्षण के रूप में भाषा को चिह्नित करते हुए धीरेंद्र वर्मा ने लिखा था कि साधारणतया हम कह सकते हैं कि राष्ट्र की एक मुख्य तथा प्रत्यक्ष पहचान भाषा की एकता है, अतः भारत के जितने भूमिभाग में हमारी भाषा अर्थात हिंदी या हिंदुस्तानी मातृभाषा की तरह बोली और समझी जाती है वह हमारा राष्ट्र है। (देखिए, भाषा और समाज, रामविलास शर्मा, पृ. 279)
'हिंदी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा' नामक मशहूर तराने में डॉ. इकबाल ने हिंदी शब्द से इसी हिंदी जाति की ओर संकेत किया है।
इस तरह आज 'जाति' शब्द हम जिस अर्थ में प्रयुक्त कर रहे हैं वह 18वीं सदी से अधिक पुराना नहीं है, किंतु जाति के निर्माण की प्रक्रिया सदियों पुरानी है। प्राचीन गणों से लघु जातियों और फिर महाजातियों का निर्माण सामूहिक उत्पादन, श्रम-विभाजन और पूँजीवादी संबंध से अनिवार्यतः जुड़ा हुआ है। भारत में जातियों के निर्माण और विकास-प्रक्रिया का विवेचन करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं - "जिन तत्वों से जन का निर्माण होता है उन्हीं से सामंतयुगीन लघुजाति का और पूँजीवादी महाजाति का निर्माण होता है। किंतु इन तत्वों के गुण और परिणाम में अंतर होता है इसीलिए जन, लघु जाति और महाजाति में भी गुणात्मक अंतर है। जन के आर्थिक जीवन का आधार सामूहिक या कुलगत उत्पादन और संपत्ति है। लघुजाति का आर्थिक जीवन नए श्रम विभाजन के आधार पर बनता है जिसका स्पष्ट चिह्न है वर्ण व्यवस्था। महाजाति का आर्थिक जीवन, वितरण और उत्पादन के नये पूँजीवादी संबंधों पर निर्भर होता है और उसमें वर्ण व्यवस्था विश्रृंखलित होकर नए वर्गों को स्थान देती है।" (भाषा और समाज, पृ. 244)
जैसा कि हम जानते हैं मनुष्य पहले जंगलों में रहता था। कबीलाई जिंदगी जीता था। निजी संपति नहीं थी। इस अवस्था को मार्क्सवादियों ने आदिम साम्यवाद कहा है। सभ्यता के विकास क्रम में धीरे-धीरे निजी संपति पैदा हुई। उनकी सुरक्षा के लिए राज्य सत्ता की उत्पति हुई। दास बने और उनका व्यापार हुआ। संपति का वैध उत्तराधिकारी पैदा करने के लिए विवाह संस्था बनी। यह दौर लघु जातियों का है। रामविलास शर्मा के अनुसार इस दौर में आर्थिक जीवन नये श्रम विभाजन के आधार पर बनता दिखाई देता है जिसे वर्ण व्यवस्था कहते हैं। वर्ण व्यवस्था जैसा श्रम विभाजन एक वैश्विक परिघटना है सिर्फ हमारे देश की नहीं। यहाँ चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिए, वैश्य और शूद्र के काम बाँट दिए गए हैं और स्वाभाविक रूप से उसी के अनुसार उनकी हैसियत तय हो गई है। आरंभ में वर्ण व्यवस्था का आधार गुण और कर्म बताया भी गया है। गीता में कृष्ण कहते हैं, 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः।' किंतु कालांतर में यही वर्ण व्यवस्था जन्मना निर्धारित हुई और जाति व्यवस्था का आधार बनी। इसने भयंकर आर्थिक और सामाजिक असमानता पैदा किया और हमारे समाज को हजारों वर्ष पीछे ढकेल दिया।
लघु जातियों का यह दौर छोटे-छोटे जनपदों और उनकी जनपदीय भाषाओं के विकास का दौर है। बुद्ध के समय भारत के सोलह महाजनपदों की चर्चा इतिहासकारों ने बार-बार की है। काशी, कोशल, शूरसेन, मगध, अंग, कुरू, वत्स, अवन्ति, पाचांल, मत्स्य, मल्ल, विदेह, लिच्छवि, वज्जि, रामग्राम, कुसीनारा आदि इस युग के महत्वपूर्ण जनपद थे। इनमें अनेक गणराज्य थे। यह हमारे देश के लिए अत्यंत गौरव का विषय है कि ईसा के लगभग पाँच सौ साल पहले हमारे देश में गणतंत्र मौजूद थे। इस तरह के गणतंत्र या तो यूनान में थे या भारत में। यही कारण है कि उस युग में हमारे यहाँ गौतम बुद्ध जैसे दार्शनिक पैदा हुए और दूसरी ओर यूनान में अरस्तू और प्लेटो जैसे दार्शनिक। ये सब उस समय के जनतंत्रों की देन है जहाँ स्वतंत्र विचार पनपने के अवसर मिलते हैं।
जातियों के गठन में राजनैतिक परिस्थितियों के अलावा धार्मिक और व्यापारिक कारण प्रमुख है। व्यापार और विनिमय के बगैर जातियाँ आकार नहीं ले पाती। प्राचीन जनो के संगठन का मुख्य आधार रक्त संबंध था जबकि सामंतयुगीन लघुजातियों के संगठन का आधार रक्त संबंध के अलावा व्यापार विनिमय के कारण विकसित नये भाषायी रिश्ते, सांस्कृतिक और धार्मिक आचार-विचार तथा भौगोलिक क्षेत्र भी है। रामविलास शर्मा लिखते हैं, - ''जिन तत्वों से जन का निर्माण होता है, उन्हीं से सामंतयुगीन लघुजाति का और पूँजीवादी महाजाति का निर्माण होता है, किंतु इन तत्वों के गुण और परिणाम में अंतर होता है। इसीलिए जन, लघु जाति और महाजाति में भी गुणात्मक अंतर है। जन के आर्थिक जीवन का आधार सामूहिक या कुलगत उत्पादन और संपत्ति है। लघुजाति का आर्थिक जीवन नये श्रम विभाजन के आधार पर बनता है जिसका स्पष्ट चिह्न वर्ण व्यवस्था है।'' (भाषा और समाज, पृ.248) व्यापार और जातियों के निर्माण के अंतरसंबंधों का विश्लेषण करते हुए डॉ. शर्मा लिखते हैं - ''व्यापारिक पूँजीवाद सदा सामंती खोल के भीतर विकसित होता है, इसलिए पुराने संपत्तिशाली वर्गों के वैभव विलास की सामग्री जुटाना होता है तब तक उसका दायरा सीमित रहता है। जब वह सामान्य जनों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए सामग्री जुटाता है तब उसका दायरा और बड़ा होता है, तभी नए आर्थिक संबंधों का निर्माण होता है। केवल नगरों में नहीं, नगरों और गाँवों के बीच विनिमय का विकास होता है। नगर जिन आर्थिक संबंधों का प्रसार करते हैं, उनकी लपेट में गाँव भी आ जाते हैं। इस तरह सामाजिक गठन के नए रूप का जन्म होता है। इसे हम जाति कहते हैं। जाति हमें शा सामंती व्यवस्था के जनों (गणों) से मिलकर बनती है। अनेक जनपदों के मेल से जातीय प्रदेश का निर्माण होता है। गणों से जन, जनों से जाति, मनुष्य अपने विकास क्रम में निरंतर छोटी से बड़ी, फिर और बड़ी इकाइयों में संगठित होता जाता है।" (हिंदी जाति का साहित्य, पृ. 15) इस प्रक्रिया का विस्तृत विश्लेषण करते हुए डॉ. शर्मा ने लिखा है, "महाजाति का आर्थिक जीवन, वितरण और उत्पादन के नए पूँजीवादी संबंधों पर निर्भर होता है और उसमें वर्ण व्यवस्था विश्रृंखल होकर नये वर्गों को स्थान देती है। जन से महाजाति तक के परिवर्तन की धुरी आर्थिक जीवन है। इसी से जन संगठित होकर संघ बनाते हैं, विभिन्न जनपद सिमटकर लघुजाति का विस्तृत प्रदेश बनाते हैं। भिन्न बोलियाँ बोलने वाले एक दूसरे के निकट आते हैं। बोलियों के बीच व्यापक व्यवहार के लिए भाषाओं का अभ्युदय होता है।" (भाषा और समाज, पृ. 248) अन्यत्र वे लिखते हैं - "जातियों का विकास व्यापार की प्रगति के बिना असंभव है। व्यापार का प्रसार, उसके साथ जातीयता का विकास, इन्हीं दो चीजों से यह हुआ कि तुर्क अपना तुर्कपन खोकर यहाँ की जातियों में घुलमिल गए। राजसत्ता हाथ में होने पर भी भारत में कही भी तुर्की भाषा बोलने वाले न रह गए। इसका कारण यही जातीयता का विकास है।" (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग-2, पृ. 24) वस्तुतः राजसत्ता बदलने पर भी संस्कृति पर गहरा प्रभाव तभी पड़ता है जब सत्ताधारी वर्ग सांस्कृतिक दृष्टि से भी उन्नत हो। हीन संस्कृति वाले सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं पर संस्कृति पर नहीं। हाँ, संस्कृति को कुछ दिन के लिए क्षतिग्रस्त जरूर कर सकते हैं जैसे अफगानिस्तान में कुछ दिन तक तालिबान करता रहा। वहाँ बामियान की बुद्ध मूर्तियाँ डाइनामाइड से उड़ा दी गई क्योंकि इस्लाम में मूर्ति पूजा वर्जित है। इनमें विश्व की सबसे बड़ी बुद्ध प्रतिमा भी थी। जाहिर है जातीय चेतना से संपन्न कोई भी सुसंस्कृत जाति इन मूर्तियों को सजाकर रखती और उन पर गर्व करती।