भारत में बाहर से आने वाली अनेक जातियों में से प्राचीन आर्यों के बाद आधुनिक युग में सिर्फ अँग्रेज एक ऐसी जाति थी जो उन्नत संस्कृति वाली थी। अँग्रेजों का आना यवनों, हूणों, शकों, तुर्कों, पठानों, मुगलों आदि के आने जैसा नहीं था। इंग्लैंड में औद्योगीकरण हो चुका था। मशीन से उत्पादन शुरू हो चुका था। भारत इस दृष्टि से उनकी तुलना में अभी पिछड़ा था। वह अभी सामंती युग में था। अँग्रेजों का आना पूँजीवादी संस्कृति का आना था। इसीलिए अँग्रेजों के चले जाने के बावजूद उनकी संस्कृति और उनकी भाषा का व्यापक असर हमारे ऊपर है और दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है जबकि कभी हमारे ऊपर शासन करने वाले शक, हूण, तुर्क, पठान और मुगल आज हमारी संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो गए।
अँग्रेजों के आने के पहले, मध्य युग में खासतौर पर दिल्ली और आगरा व्यापार के प्रमुख केंद्र थे। इसका उल्लेख इतिहासकारों ने बार-बार किया है। रामविलास शर्मा ने उल्लेख किया है कि तुर्कों के आक्रमण से पहले ही यहाँ व्यापार और विनिमय के अनेक केंद्र विकसित हो चुके थे। आक्रमणकारी आमतौर पर शहरों को लूटने पर अधिक ध्यान देते थे क्योंकि व्यापार द्वारा यहाँ संपत्ति सिमटकर इकट्ठा हो रही थी। कन्नौज, थानेसर, दिल्ली, मेरठ, आगरा, अयोध्या आदि ऐसे विनिमय केंद्र थे जिन्हें लूटा गया।
बहरहाल, इन शहरों में व्यापार और विनिमय की भाषा के रूप में खड़ी बोली विकसित हो रही थी जिसे तब हिंदी, हिंदवी या हिदुई कहा जाता था। इस समूचे क्षेत्र का पुराना नाम हिंदुस्तान था। 1816 ई. में विलियम केरी ने हिंदी का व्यापक प्रसार देखकर लिखा था कि हिंदी का कोई अपना प्रदेश नहीं है जिसके लिए कहा जा सके कि हिंदी वहाँ की भाषा है। केरी के अनुसार हिंदी उन सभी शहरों में बोली जाती थी जो उसके समय में मुस्लिम शासकों के केंद्र थे या पहले रह चुके थे।
मध्ययुग में जातीयता और भाषा के प्रसार में साधु-संतों की बहुत बड़ी भूमिका रही है। रामविलास शर्मा के अनुसार घुमंतू साधु-संत और फकीर अपनी धार्मिक विचारधारा और दर्शन उत्तर भारत के मैदानों के एक छोर से दूसरे छोर तक फैलाते रहे। उनकी सधुक्कड़ी भाषा में उनका दर्शन उत्तर भारत के एक भाग से दूसरे भाग तक आसानी से फैल गया।
मध्ययुग में हिंदी क्षेत्र की जनपदीय भाषाओं की विविधता और उनके आपसी सामंजस्य का विश्लेषण करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं - "हिंदी प्रदेश की जनपदीय भाषाएँ एक दूसरे को इतना प्रभावित कर रही थी कि किसी भी जनपद में भाषा का विशुद्ध रूप, ऐसा रूप जो पास की बोलियों से प्रभावित न हुआ हो, खोज लेना असंभव है। 'रामचरितमानस' की भाषा शुद्ध अवधी नहीं है। 'सूरसागर' की भाषा शुद्ध ब्रज नहीं है। कही-कही तो भाषा आधुनिक ढाँचे में ढली सी दिखाई पड़ती है। ब्रजभाषा में बहुत सा लोकप्रिय रचा गया। मिथिला से राजस्थान तक लोग उसे समझते थे। तुलसीदास ने अवधी में 'रामचरितमानस' लिखा। यह काव्य भी सभी जनपदों में बहुत लोकप्रिय हुआ। परंतु व्यापार की भाषा न तो ब्रजी थी न अवधी थी वरन खड़ी बोली थी। व्यापारिक संबंधों के विकास के साथ विभिन्न जनपदों में सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी हुआ। इसके फलस्वरूप खड़ी बोली के क्रियापदों का व्यवहार अपने मूल क्षेत्र से बाहर पूर्व और पश्चिम के जनपदों में भी होने लगा।'' (भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग-2, पृ.70)।
भाषाओं की क्षेत्रीय परिधि को अतिक्रमित करके दूर-दूर तक भक्ति की स्रोतस्विनी को प्रवाहित करने वाला यह भक्ति आंदोलन मूलतः लोक का आंदोलन था। सूर की गोपिकाओं के शब्दों में यह राज मार्ग था। 'काहे को रोकत मारग सूधो/सुनहु मधुप निरगुन कंटक ते राजपंथ क्यों रुंधो।' इस पंथ पर राजा रंक, ऊँच-नीच सबको चलने का अधिकार था। जुलाहे कबीर भी चले, राज परिवार की मीरा भी। मुसलमान रसखान भी चले और आचार्य वल्लभाचार्य भी। शुक्ल जी के शब्दों में हिंदू मुसलमान दोनों के लिए एक सामान्य भक्ति मार्ग का विकास भी होने लगा। भक्ति के रूप में इस अंतरजातीय संस्कृति के प्रसार के साथ हिंदी का भी प्रसार हुआ। 'हिंदी को मराठी संतों की देन' नामक अपनी पुस्तक के अंत में डॉ. विनयमोहन शर्मा ने एकनाथ, तुकाराम, नामदेव आदि संतो के पद संकलित किए हैं। रामविलास शर्मा इस तथ्य की ओर खासतौर पर लक्ष्य करते हैं कि नामदेव और कबीर के पद 'गुरुग्रंथ साहब' में भी दिए गए हैं। इस तरह हिंदी का यह प्रसार पंजाब और महाराष्ट्र से लेकर केरल तक पहुँचा। केरल में हिंदी भाषा को जिन अनेक नामों से जाना जाता था उसमें एक 'गोसांयि भाषा' भी था। 'गोसांयि भाषा' उत्तरी भारत के संतों अथवा तीर्थयात्रियों द्वारा प्रयुक्त हिंदी की बोलियों के लिए व्यवहृत शब्द था। तात्पर्य यह कि हिंदी को जातीय भाषा के रूप में विकसित होने में साधु-संतों की बहुत बड़ी भूमिका रही है।
रामविलास शर्मा हिंदी के जातीय विकास को तेरहवीं-चौदहवीं सदी के खुसरो की 'खालिस खड़ी बोली' की रचनाओं से जोड़ते हैं। जिस तरह भारत में अँग्रेजी राज की स्थापना के पहले ही विभिन्न प्रदेशों में तमिल, मराठी, बंगला आदि भाषाएँ बोलने वाली जातियों का गठन हो चुका था, उसी तरह, हिंदी जाति का गठन भी अँग्रेजी राज की स्थापना के पहले ही हो चुका था। तेरहवीं-चौदहवीं सदी में ही ब्रज और खड़ी बोली के जनपदों में सामान्य आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों का इतना प्रसार हो गया था कि एक जनपद का कवि दूसरे जनपद के कवि की भाषा में कविता करता था। बुंदेलखंड के केशवदास ब्रज में कविता करते थे। दिल्ली के खुसरो और काशी के कबीर दोनों एक ही जातीय प्रक्रिया के ओर-छोर थे। इतना ही नहीं, सुकुमार सेन ने अपने बंगला साहित्य का इतिहास में 'ब्रजबुलि' शब्द की व्याख्या करते हुए बताया है कि 'ब्रजबुलि' का अर्थ है ब्रज की बोली। इसका व्यवहार केवल ब्रज के कवि न करते थे। इसका आधार अवहट्ठ काव्य परंपरा है जो उमापति और विद्यापति जैसे प्रारंभिक दौर के मैथिली कवियों की परिपाटी से पुष्ट हुई है। (देखिए, हिस्ट्री आफ बंगाली लिटरेचर, पृ.115) यहाँ यह भी उल्लेखनीय है ज्यादातर कृष्ण भक्ति परंपरा के कवियों ने ब्रजबुली को कविता का माध्यम बनाया। इसके पीछे यह धार्मिक भाव भी काम कर रहा था कि ब्रजी, कृष्ण के लीला क्षेत्र की भाषा थी।
भाषा का धर्म से भी गहरा संबंध रहा है। कुछ भाषाएँ तो अपने धार्मिक कारणों से ही दूर-दूर तक फैलीं और उनकी जड़े दृढ़ हुई। पालि का बौद्ध धर्म से, अपभ्रंश का जैन धर्म से, अरबी का इस्लाम से और संस्कृत का हिंदू धर्म से इसी तरह के रिश्ते हैं। ये भाषाएँ इसीलिए धर्म से जुड़ीं क्योंकि इनके मूल धर्म ग्रंथ इन्हीं भाषाओं में हैं। किंतु धर्म से उक्त भाषाओं का गहरा संबंध होने का यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक संबंधों के कारण जातीय भाषा के रूप में उपर्युक्त भाषाओं के विकसित होने में किसी तरह का लाभ हुआ है।
वस्तुतः जातीय भाषा के विकास में तीन महत्वपूर्ण कारण होते हैं - 1. राजनीतिक संरक्षण, 2. व्यापारिक संबंध और 3. सांस्कृतिक संबंध। हिंदी को कमोबेश उक्त तीनों सुविधाओं का लाभ मिला। हिंदी क्षेत्र के अनेक राजा सदियों से अपने राज काज में हिंदी का व्यवहार कर रहे थे। जहाँगीर, शाहजहाँ, अकबर और औरंगजेब से लेकर पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह तक के यहाँ शासन के काम-काज में हिंदी के प्रयोग के प्रमाण मिलते हैं। चंद्रबली पांडे ने इस विषय पर महत्वपूर्ण शोध कार्य किया है। 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के 1898 ई. के अंक में गार्सां द तासी ने लिखा है - "वाकअः यह है कि मुसलमान बादशाह हमेशा एक हिंदी सिकरेटरी जो हिंदी नवीस कहलाता था और एक फारसी सिकरेटरी जिसको वह फारसी नवीस कहते थे, रखा करते थे ताकि उनके एहकाम इन दोनों जबानों में लिखे जाएँ।" (उद्धृत, कचहरी की भाषा और लिपि, चंद्रबली पांडे, बि.सं.1996, पृ.15) शासकों द्वारा किए जाने वाले ये छिटपुट प्रयोग जातीय भाषा के रूप में हिंदी के विकास में बड़े मददगार साबित हुए। अँग्रेजों ने भी इस परंपरा को यथासंभव जारी रखा।
हिंदी क्षेत्र के साथ पूरे भारत के व्यापक व्यापारिक संबंध थे। इसके पर्याप्त सबूत मौजूद हैं। रामचरितमानस जैसा महत्वपूर्ण ग्रंथ हिंदी की एक बोली अवधी में रचा गया। उत्तर भारत की सांस्कृतिक व्यवस्था सुदृढ़ करने में इस अकेले ग्रंथ की अद्वितीय भूमिका है। अवधी जैसी एक बोली में रचे जाने के बावजूद इसे आज धार्मिक ग्रंथ होने का गौरव हासिल है। इतना ही नहीं, समूचा भक्ति साहित्य हिंदी की ही बोलियों ब्रजी और अवधी में रचा गया। खड़ी बोली, जिसे बाद में राजभाषा बनने का गौरव हासिल हुआ, दिल्ली और मेरठ के आस-पास बोली जाने वाली कौरवी का ही परिनिष्ठित रूप है।
दिल्ली सदियों से देश की राजधानी रही है और आजाद भारत की भी राजधानी है। रामविलास जी के शब्दों - "ध्यान देने की बात है कि संसार के दो सबसे बड़े व्यापारिक केंद्र दिल्ली और आगरा हिंदी प्रदेश में थे। विश्व संस्कृति में हिंदी प्रदेश के अवदान के लिए तुलसीदास, ताजमहल और तानसेन-ये तीन नाम लेना ही काफी है।" तुलसीदास के बारे में विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है - "भारत में वह अपने युग के सबसे बड़े पुरुष थे। वह अकबर से भी बड़े थे क्योंकि उन्होंने स्त्रियों और पुरुषों के मन और हदय को जीत लिया था और यह विजय बादशाह की किसी भी विजय और युद्ध में प्राप्त उसकी सभी सम्मिलित विजयों से कही अधिक स्थायी और महत्वपूर्ण थी।" (विन्सेंट स्मिथ, अकबर द ग्रेट मुगल, पृष्ठ 302) फिलहाल, स्मिथ ने यूरोप के इतिहास का अध्ययन करने वालों को यह भी याद दिलाया कि 16वीं सदी के अंतिम चरण में अकबर का साम्राज्य संसार का सबसे शक्तिशाली साम्राज्य था और इस साम्राज्य का शासक संसार का सबसे धनी सम्राट भी था। हिंदुस्तान के बंगाल और गुजरात तो उसमें शामिल थे ही, उत्तर में काबुल तक यह साम्राज्य फैला हुआ था।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस साम्राज्य का मुख्य आधार हिंदी प्रदेश था जिसे हिंदुस्तान कहते थे। यह सच है कि मुगल काल में हिंदी प्रदेश की राजभाषा फारसी थी और अभिजात वर्ग राजनैतिक व सांस्कृतिक कार्यों के लिए फारसी का व्यवहार करता था परंतु इस पूरे क्षेत्र में हिंदी को भी विकसित होने का पूरा अवसर मिला। हिंदी साहित्य का यह स्वर्ण युग कहा जाता है। साहित्य ही नहीं, इस काल में चित्रकला, संगीतकला, वास्तु और स्थापत्य आदि का भी भरपूर विकास हिंदी क्षेत्र में हुआ। इस समस्त कला, साहित्य और संगीत का चरित्र सामंत विरोधी है और सेकुलर है। स्वयं स्मिथ ने फतेहपुर सीकरी के स्थापत्य कला का जिक्र करते हुए लिखा है - "यह आश्चर्य की बात है कि सर्वाधिक उत्साही मुसलमान संत (शेख सलीम चिश्ती) के मकबरे के स्थापत्य में हिंदू लक्षण असंदिग्ध हैं। सारी इमारत से हिंदू भावना पैदा होती है। कोई भी स्तंभों और आच्छादित द्वार के स्थूणों (Struts of porch) के हिंदू उदभव के बारे में संदेह नहीं कर सकता।" (विंसेन्ट स्मिथ, अकबर द ग्रेट मुगल, पृष्ठ- 321) रामविलास शर्मा के अनुसार यह वर्णन बहुत शिक्षाप्रद है। यहाँ हिंदू और मुसलमान स्थापत्य की धारणा खंडित हो जाती है। एक मुसलमान संत का समाधि भवन बनाया जा रहा था। यहाँ जातीय परंपरा के अनुसार कलाकारों ने उसका स्वरूप निर्धारित किया और उसे अकबर ने स्वीकार किया। विशेषज्ञों ने जिसे हिंदू और मुसलमान तत्वों से मिश्रित भारत की राष्ट्रीय स्थापत्य शैली कहा है वह वास्तव में हिंदी प्रदेश की जातीय शैली है जो अंशतः ईरानी स्थापत्य से प्रभावित हुई है। (देखिए, भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, भाग-2, पृ. 218)
उल्लेखनीय है कि स्मिथ ने हिंदुस्तानी स्थापत्य को बार-बार हिंदू स्थापत्य कहकर संबोधित किया है। रामविलास शर्मा की इस पर प्रतिक्रिया है कि हिंदू तमिलनाडु में भी रहते थे किंतु उनका स्थापत्य हिंदी प्रदेश के स्थापत्य से भिन्न कोटि का है। इसी तरह बार-बार जिस स्थापत्य को स्मिथ ने मुसलमान स्थापत्य कहा है वह वास्तव में ईरानी स्थापत्य है। मुसलमान तो अरब और तुर्किस्तान में भी रहते थे लेकिन वहाँ के स्थापत्य इससे भिन्न थे। रामविलास शर्मा बिलकुल ठीक कहते हैं कि जातीय प्रदेश, जातीय भाषा, जातीय संस्कृति की धारणाएँ स्पष्ट नहीं होती तब इतिहासकार मजहब और नस्ल की बातें करते हैं। स्मिथ की समझ भी इससे भिन्न न थी। उसने अकबर को कितना हिंदू था, कितना मुसलमान था, इस पर चर्चा बार-बार की है किंतु वह कितना ईरानी था, कितना हिंदुस्तानी या पठान, तुर्क या अबर था - इसकी चर्चा नहीं की?
रामविलास शर्मा ने गोविंद सखाराम सरदेसाई की एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'मराठों का नवीन इतिहास' का अत्यंत आदर के साथ उल्लेख किया है और कहा है कि मराठा जाति के गठन और उसके विकास को तर्कसंगत और वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित करने वाली इस पुस्तक में मराठा जाति के गठन में शिवाजी की भूमिका का विस्तार से उल्लेख है और लिखा गया है कि उन्होंने एक हीन जाति को निकृष्टतम दशा से उठाकर साम्राज्य के पद तक पहुँचा दिया। सरदेसाई के विचारों का उल्लेख करते हुए रामविलास शर्मा ने मराठा जाति के गठन में भाषा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि ज्ञानेश्वर के समय से संतों और कवियों की अविच्छिन्न परंपरा शीघ्रता से प्रकट होने लगी। इन्होंने महान मराठा वीर शिवाजी के आगमन तक मराठी भाषा की साहित्यिक राशि और वैभव को समृद्ध कर दिया। जाति का इस प्रकार उसके देश और उसकी भाषा से अभेद्य संबंध होता है।
वस्तुतः जाति के गठन में भाषा की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है, क्योंकि भाषा का अस्तित्व जाति के गठन के पहले से होता है और भाषा ही व्यापार, संचार, शासन-तंत्र, साहित्य और संस्कृति का माध्यम होती है। सरदेसाई ने अपनी पुस्तक में शिवाजी की जातीय समझ पर टिप्पणी करते हुए कहा है - "फारसी उस समय दासता का स्पष्ट चिह्न थी। अतः इस कार्य के लिए उन्होंने मराठी को चुना।' (मराठों का नवीन इतिहास, पृ. 335) संस्कृत और फारसी की जगह मराठी का व्यवहार जातीय बाजार के निर्माण और जातीय राजसत्ता के लिए आवश्यक था।
उल्लेखनीय है कि हिंदी जाति को मध्ययुग में एक भी इस तरह का शासक न मिला जिसने जातीय गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। तुर्क, मुगल, अफगान आदि अलग-अलग जातियों ने हिंदी क्षेत्रों पर शासन किया मगर उन सबकी सांस्कृतिक और राजनैतिक भाषा फारसी ही थी जो हिंदी क्षेत्र पर बलात थोपी गई। यही कारण है कि हिंदी क्षेत्र में साहित्य और संस्कृति की भाषा ब्रजी, अवधी, मैथिली आदि रही परंतु शासन की भाषा फारसी ही बनी रही। हिंदी जाति के गठन में विलंब और बाधा का यह एक महत्वपूर्ण कारण था। यदि शिवाजी की तरह हिंदी क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण शासक, शासन की बागडोर संभालता तो निश्चित रूप से हिंदी क्षेत्र की ही किसी जनपदीय भाषा को शासन की भाषा बनाता और तब हिंदी क्षेत्र का जातीय गठन भी तीव्र गति से हुआ होता। राजनीतिक संरक्षण न मिलने के कारण हिंदी की जनपदीय भाषाओं का परस्पर संपर्क स्वाभाविक रूप से जितना हो सकता था, हुआ और जातीय गठन में अनेक जनपदीय भाषाओं की कमोबेश भूमिका भी रही।
आज राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित खड़ी बोली अपने स्वाभाविक रूप में विकसित खड़ी बोली नहीं है, अपितु राजनीतिक दाँव-पेंच के चलते खड़ी बोली का कृत्रिम रूप गढ़ लिया गया है। सहज स्वाभाविक भाषा तो हिंदुस्तानी थी जिसे आज भी हिंदुस्तान की बहुसंख्यक आम जनता दैनिक जीवन के व्यवहार में अपनाए हुए है। फिल्मों की भाषा यही हिंदुस्तानी है और देश की राजभाषा के पद की वास्तविक हकदार भी वही है।
एक कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ भाषा को राजभाषा के पद पर थोप देने का जो दुष्परिणाम हो सकता था, वही हुआ। आजादी के पैंसठ साल बाद भी हिंदुस्तान की आम जनता के लिए वह बेजान और अनजान भाषा बनी हुई है, हिंदी पट्टी द्वारा उपेक्षित है और देश के दूसरे भाषायी क्षेत्रों का विरोध झेल रही है।
मध्यकाल की साहित्यिक भाषा के रूप में प्रतिष्ठित और दूर-दूर तक प्रचलित ब्रजभाषा को दबाती हुई खड़ी बोली, हिंदी क्षेत्र की जातीय भाषा के रूप में कैसे विकसित हो गई, इसका मुख्य कारण यही है कि वह शासन के केंद्र की भाषा थी और इसीलिए व्यापार की भाषा बनने का भी उसे कुछ न कुछ अवसर जरूर मिला।
वस्तुतः मुगल शासन केंद्रबद्ध शासन था। इस शासन के मुख्य केंद्र दिल्ली और आगरा थे। ये हिंदी भाषी प्रदेश के व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र थे। केंद्रित राज व्यवस्था होने के कारण समस्त हिंदी भाषी क्षेत्र और उसके बाहर भी एक ही मुद्रा व्यवस्था का चलन हुआ। शासन की देख-रेख में बाजार में नापतौल, क्रय-विक्रय, भाव आदि के नियमन व यातायात की सुविधा आदि के कारण व्यापार में अभूतपूर्व उन्नति हुई। इस प्रकार हिंदी जाति के निर्माण में प्रकारांतर से मुगल राज्य की स्थायी और सुदृढ़ सत्ता की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। यही स्वाभाविक भी है। चीन में पीकिंग राजसत्ता का केंद्र रहा है। वह चीन का प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र भी रहा है। जातीय भाषा के रूप में पीकिंग की चीनी का प्रसार हुआ। खड़ी बोली दिल्ली मेरठ के आसपास बोली जाने वाली कौरवी से ही विकसित हुई। तुर्कों, पठानों तथा मुगलों ने भले ही शासन की भाषा के रूप में फारसी अपना लिया हो मगर दिल्ली के आस-पास की जनता खड़ी बोली का ही इस्तेमाल करती थी या कर सकती थी।
शासन से जुडे़ हुए फारसी जानने वाले विशिष्ट जनों की विवशता थी कि बाजार अथवा जनसंपर्क के लिए दिल्ली की बोली को ही अरबी फारसी के शब्दों के साथ स्वीकार करें। उन्होंने ऐसा ही किया और उसे 'हिंदवी' या 'हिदुई' कहा। दक्षिण में फैलकर वही दक्खिनी या दकनी हुई। बाद में उसे हिंदुस्तानी भी कहा गया। 18वीं सदी के आरंभिक दशकों में कुछ लोगों ने इसे ही उर्दू नाम दिया जिसे अँग्रेजों का भरपूर समर्थन मिला। 'केरलीयों की हिंदी की देन' नामक पुस्तक में प्रो.जी. गोपीनाथन लिखते हैं - "17वीं और 18वीं शताब्दियों में राजकीय शासन में हिंदी (हिंदुस्तानी) को केरल में बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। उस समय राजकीय पत्र व्यवहार आदि के लिए हिंदुस्तानी का प्रयोग होता था। इस प्रकार के कुछ पत्र केरल राज्य अभिलेखागार एरणाकुलम में अब भी सुरक्षित हैं। मुस्लिम शासकों के राज्यों में केरल के गुप्तचर अक्सर घूमा करते थे। उनको हिंदुस्तानी की अच्छी जानकारी आवश्यक थी। केरल की प्रत्येक देशी रियासत में हिंदुस्तानी मुंशी की नियुक्ति होती थी और हिंदुस्तानी की शिक्षा की अच्छी व्यवस्था थी। सेना, मालगुजारी तथा प्रशासन के अन्य क्षेत्रों में केरल के राजाओं ने मुगल शासकों और दक्षिण के मुस्लिम शासकों का अनुकरण किया। इस कारण से फारसी और हिंदुस्तानी को प्रशासन में समान रूप से स्थान मिला।" (केरलीयों की हिंदी को देन, पृ. 19)
गोपीनाथन आगे लिखते हैं - "मध्ययुग से लेकर उत्तर दक्षिण के बीच व्यापार का मुख्य माध्यम हिंदी ही थी। केरल के सुगंधित द्रव्यों, मसालों और कला शिल्पों के लिए प्रसिद्ध होने के कारण हिंदी भाषी व्यापारियों का आगमन भी केरल में निरंतर होता था। इसके लिए केरलीयों को हिंदी के अध्ययन की आवश्यकता पड़ती थी। ...दक्खिनी हिंदी का प्राचीन विस्तृत साहित्य दक्षिण के मुस्लिम राज्यों में लिखा गया। बीजापुर के आदिलशाही और गोलकुंडा के कुतुबशाही सुल्तान न केवल कवि रक्षक थे, बहुधा स्वयं दक्खिनी के अच्छे कवि थे। यह परंपरा समूचे दक्षिण में व्याप्त हो गई थी।" (उपर्युक्त, पृ. 20) जाहिर है, दक्षिण में यह हिंदी, दिल्ली से ही गई थी क्योंकि दिल्ली ही शासन का और इसीलिए व्यापार का भी मुख्य केंद्र था। आर्थिक राजनीतिक कारणों से हिंदी का जो प्रचार हुआ उसके फलस्वरूप केरल में हिंदी सीखने के लिए कोश, व्याकरण ग्रंथ लिखे गए। एक कोश के बारे में गोपीनाथन लिखते हैं - "इनमें प्रयुक्त अधिकांश शब्द राजकीय शासन, सेना, युद्ध तथा व्यावहारिक जीवन की वस्तुओं से संबंधित है। साहित्य के शब्द इसमें नहीं के बराबर हैं। यह तथ्य कोश के उद्देश्य को अधिक स्पष्ट बनाता है।" (उपर्युक्त, पृ. 39)
जाहिर है साहित्य की दुनिया से अलग जीवन की आवश्यकताओं के अनुसार समाज के अन्य क्षेत्रों में हिंदी का प्रसार हुआ। किसी भी भाषा को इसी तरह जब तक जीवन के विविध व्यावहारिक क्षेत्रों से नहीं जोड़ा जाएगा, उसका सर्वांगीण विकास नहीं होगा।
मध्य युग में तुर्कों, पठानों और मुगलों ने फारसी को राजकाज की भाषा बनाया था यद्यपि इनमें से किसी की भी मातृभाषा फारसी नहीं थी, उसी तरह जैसे इसके पूर्व लंबे काल तक संस्कृत राजकाज, शिक्षित समाज और परिनिष्ठित साहित्य की भाषा थी, जबकि आम जनता की भाषा संस्कृत नहीं थी। इसके बावजूद इन दोनों में एक महत्वपूर्ण फर्क है, वह यह है कि संस्कृत इसी देश में जन्मी और पुष्पित पल्लवित होने वाली भाषा है जबकि फारसी पूरी तरह बाहर से आयातित भाषा है। भारत के लोग फारसी से अपरिचित थे। ऐसी दशा में तुर्कों, पठानों और मुगलों ने शासन, व्यापार और व्यवहार के लिए दिल्ली की भाषा को भी अपनाया। इसीलिए दक्षिण में फारसी भी गई और हिंदी भी गई - दक्खिनी नाम से।
फिलहाल, सिर्फ राजनीति संरक्षण से ही कोई भाषा जातीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। फारसी को लगभग छह सौ वर्ष तक राजनीतिक संरक्षण हासिल रहा परंतु आज वह हमारे देश में चंद विशिष्ट जनों के साहित्य और संस्कृति की भाषा बनकर रह गई है। हिंदी को भी थोड़ा बहुत राजनीतिक संरक्षण जरूर हासिल हुआ किंतु उसे दूर-दूर तक फैलाने का काम किया असंख्य संतों, भक्तों, फकीरों और कवियों ने जिन्होने देश के कोने-कोने में भ्रमण कर संस्कृति का अंतरजातीय विस्तार किया। उससे हिंदी को जातीय भाषा के रूप में विकसित होने की जमीन तैयार हो गई। भक्ति के रूप में जिस अंतरजातीय संस्कृति का प्रसार हो रहा था वह हिंदी प्रदेश और महाराष्ट्र तक सीमित नहीं थी। वह उत्तर और दक्षिण भारत को आपस में जोड़ने वाली थी और यह प्रक्रिया काफी समय से चली आ रही थी।
मुगल काल में हिंदी जाति तेजी से गठित हो रही थी। उसका सेकुलर चरित्र आकार ले रहा था। इसी काल में सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी 'पद्मावत' लिख रहे थे जिसमें बादशाह अलाउद्दीन खिलजी को खलनायक के रूप में चित्रित कर रहे थे और रतनसेन को नायक के रूप में। पद्मावती में खुदा का प्रतिबिंब देख रहे थे। रसखान और रहीम कृष्ण चरित्र का गान कर रहे थे। मानसिंह, बीरबल, टोडरमल जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व अकबर के सर्वाधिक विश्वसनीय सहयोगी के रूप में ख्यात थे। खेद है कि हिंदी जाति का यह सेकुलर चरित्र आगे अबाध गति से विकसित न हो सका। बीच-बीच में बाधाएँ आती रहीं। औंरंगजेब भी उसी परंपरा में आने वाला बादशाह था। जिसने हिंदी जाति के इस सेकुलर चरित्र को विकसित होने में बाधाएँ डाली। इनसे देश और समाज का बहुत नुकसान हुआ।
1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम एक सुगठित हिंदी जाति का पहला उपयुक्त उदाहरण है। इसे अँग्रेजों ने सिपाहियों का विद्रोह कहा था किंतु निस्संदेह यह आजादी की पहली लड़ाई थी जिसे सिपाहियों और किसानों ने लड़ा था। इस लड़ाई की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि इसे हिंदू और मुसलमान दोनों साथ मिलकर लड़े थे और दिल्ली की गददी पर अंतिम बादशाह बहादुरशाह जफर को बैठाने में किसी तरह का कोई विवाद नहीं हुआ था। यद्यपि बादशाह बूढ़ा हो चुका था और गद्दी संभालने में उसकी कोई रुचि नहीं थी, फिर भी सर्वसम्मति से उसे गद्दी पर बैठाया गया। कार्ल मार्क्स ने इस आंदोलन पर बिलकुल सही टिप्पणी करते हुए इसे 'नेशनल रिवाल्यूशन आफ हिंदूज एंड मुस्लिम्स' कहा था। हिंदी जाति की कौमी एकता का यह पहला सटीक उदाहरण है जिसे बाद में बुरी तरह कुचल दिया गया। किंतु कोई भी आंदोलन कभी व्यर्थ नहीं जाता। देश को आजादी दिलाने में, आगे की अपनी रणनीति बनाने में इस आंदोलन से हमें जो सबक मिली उसका जिक्र हम आगे करेंगे।
इस आंदोलन से अँग्रेजों ने भी सबक ली और हिंदी जाति के बारे में अपनी अवधारणाएँ बदलीं और उसी के अनुसार अपनी भावी रणनीतियां भी तय की। इस आंदोलन से बौखलाए अँग्रेजों ने हिंदी क्षेत्र को हर तरह से तोड़ने का काम किया, उसके महत्व को कम करके आँका, काऊबेल्ट कहकर उसकी उपेक्षा की। अब भी हिंदी क्षेत्र कुटिल प्रकृति के राजनीतिज्ञों के कुचक्रों से उबर नहीं सका है।
रामविलास शर्मा ने ऐतिहासिक परिघटनाओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है - "औरंगजेब ने अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ के साम्राज्य का विस्तार किया, पर यह विशाल साम्राज्य को टिकाऊ बनाने की कोशिश बेकार हो रही थी। सत्रहवीं सदी में औरंगजेब के साम्राज्य का विघटन बीसवीं सदी के पाकिस्तानी और भारतीय संप्रदायवादियों के लिए बहुत शिक्षाप्रद है। औरंगजेब मजहब के आधार पर साम्राज्य के सारे साधन होते हुए भी उसे टिकाऊ न बना सका। पाकिस्तान में मजहब के आधार पर राज्य टिकाऊ नहीं बना। इसका बहुत बड़ा प्रमाण बंगलादेश का अलग हो जाना है। भारत में हिंदू धर्म के आधार पर राष्ट्र को पुनर्गठित करने का प्रयत्न किया गया तो वह भी इसी तरह विघटित होगा। भारत में अनेक धर्म मानने वाले रहते हैं, यह बात सब लोग जानते हैं। जिस बात की अनदेखी करते हैं वह यह है कि एक ही धर्म मानने वालों में कई प्रादेशिक जातियाँ होती हैं। ये जातियाँ आज के भारत और पाकिस्तान में हैं और वे सत्रहवीं सदी के हिंदुस्तान में भी थी। भारतीय इतिहास का विश्लेषण हिंदू और मुसलमान संप्रदायों के आधार पर नहीं हो सकता। किसी भी देश के इतिहास के विश्लेषण के लिए वर्ग और जाति की धारणाएँ आवश्यक होती हैं। जहाँ भी व्यक्तिगत संपत्ति का चलन होगा, विनिमय और व्यापार का विकास होगा, वहाँ वर्ग होंगे। इन वर्गों के अंतर्विरोध होंगे, साथ ही वे वर्ग किसी प्रदेश में एक ही जाति के अंतर्गत भी होगे।' (हिंदी जाति का साहित्य, पृ.8) इसीलिए रामविलास शर्मा कहते हैं कि हिंदी साहित्य न तो किसी संप्रदाय का साहित्य है, न किसी वर्ण का। वह हिंदी जाति का साहित्य है।
जो लोग हिंदी को अँग्रेजी की तरह एक साम्राज्यवादी भाषा मानते हैं और इस तरह अँग्रेजी के पक्ष में तर्क ढूँढ़ लेते हैं ऐसे लोगों को चाहिए कि वे सबसे पहले भारतीय समाज का वस्तुगत विश्लेषण करना सीखें। खासतौर पर इस इक्कीसवीं सदी में, जहाँ वास्तविक अंतर्विरोध साम्राज्यवाद के साथ है, संसद के कानून मल्टीनेशनल्स के संरक्षक अमेरिका के इशारे पर बन रहे हैं। निजीकरण एक अनिवार्य परिघटना के रूप में स्वीकृत हो चुका है। ग्लोबलाइजेशन के नाम पर अमेरिकी साम्राज्यवाद की संस्कृति के गिरफ्त में हमारा पूरा समाज आ चुका है। देश एक बाजार बन चुका है और हम एक उपभोक्ता। ऐसी परिस्थिति में हिंदी को साम्राज्यवादी चरित्र की भाषा बताना अपनी समझ की सीमा परिचय देना है। वस्तुतः जब तक हिंदी जाति साम्राज्यवादी नहीं होगी, तब तक हिंदी जाति की जातीय भाषा हिंदी का भी चरित्र साम्राज्यवादी नहीं होगा। वैसे भी हिंदी भारत की भाषा है। संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज है। वह भला साम्राज्यवादी कैसे हो सकती है?
सच तो यह है कि आज राजभाषा के रूप में संवैधानिक स्वीकृति मिलने के बावजूद, व्यवहार में हिंदी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदुस्तान की बहुसंख्यक शोषित जनता की भावनाओं को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर है।