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विमर्श

हिंदी जाति की समस्याएँ

अमरनाथ

अनुक्रम 5. हिंदी जाति का पिछड़ापन : मिथ और यथार्थ पीछे     आगे

हिंदी जाति हमारे देश की सर्वाधिक पिछड़ी हुई जातियों में से एक है। वह दस राज्यों - उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, झारखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल, हरियाणा और दिल्ली में बाँट दी गई है। 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार जहाँ बिहार और उत्तर प्रदेश की साक्षरता क्रमशः 63.42 और 67.55 प्रतिशत है वहाँ केरल और पंजाब का क्रमशः 93.91 और 76.82 प्रतिशत। पूर्वोंत्तर के अधिकांश राज्यों की साक्षरता 80 प्रतिशत से ऊपर है। पंजाब के जहाँ 33.7 प्रतिशत लोग एल पी जी गैस का इस्तेमाल करते हैं वहाँ बिहार और उत्तर प्रदेश के मात्र 3.8 और 11.3 प्रतिशत। आए दिन कभी मुंबई तो कभी असम से हिंदी भाषियों के पीटे या मारे जाने की खबरें आती रहती हैं। हिंदी भाषी हर कही निशाने पर होते हैं। कही उन्हें 'छातू' या 'खोटटा' कहा जाता है कही 'भैया'। कदम-कदम पर अपमानित होते रहना उनकी नियति बन चुकी है।

बिलायती इतिहासकारों और उनके सुर में सुर मिलाने वाले भारतीय इतिहासकारों ने भी हिंदी क्षेत्र को काऊ बेल्ट (गोबर पट्टी) कहा है। मुंबई हो या चेन्नई, कोलकाता हो या नागपुर, चंडीगढ़ हो या लुधियाना हर कही दशा एक जैसी ही है। देश के कई राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दल आए दिन हिंदी भाषियों के लिए अपमानजनक और प्रतिकूल टिप्पणियां करते रहते हैं और हमारे बीच के लोग प्रतिक्रिया में कभी कभार आक्रमणकारियों के लिए प्रतिरोधात्मक टिप्पणियां करके अपने दायित्व की इतिश्री समझ लेते हैं।

हिंदी भाषी लोग सारी दुनिया में जाते रहते हैं तो जाहिर है वे देश विदेश की दूसरी जातियों से तुलना भी करते ही होंगे। इसी देश के तमिल, मलयाली, गुजराती, बंगाली आदि जातियों से तुलना करके देख लीजिए। अहमदाबाद में एक गुजरात विश्वकोष ट्रस्ट है। एक वर्ष पहले गुजरात गया तो रंजना अरगड़े मुझे वहाँ ले गई। उसका भवन देखकर ही मैं दंग रह गया। अपनी आँखों से न देखा होता तो विश्वास न करता। उसकी व्यवस्था, उसका प्रकाशन, उसके कर्मचारी, उसका सभागार, उसका पुस्तकालय सब कुछ अत्यंत व्यवस्थित और सुरुचिपूर्ण। मेरी आँखों के सामने काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के पुस्तकालय कौंध गए। मेरे एक शोध छात्र ने कुछ माह पूर्व नागरी प्रचारिणी सभा पुस्तकालय के भीतर की कुछ तस्वीरें मुझे दिखाई। वह अपने अध्ययन के सिलसिले में वहाँ गया था। पुस्तकों के सेल्फ के सामने कुत्ते सोये हुए थे।

हिंसा का मामला हो या स्त्री पुरुष भेद का, कानून व्यवस्था का मामला हो या लूट और ठगी का, हिंदी पट्टी देशभर में अव्वल है। ट्रेनें यहाँ कभी समय से नहीं चलतीं। इस क्षेत्र में चलने वाली रेलगाड़ियों के डिब्बे से लेकर उनके टायलेट की गंदगी अकल्पनीय होती है जबकि केरल, कर्नाटक से आने वाली गाड़ियाँ उतनी ही साफ सुथरी। विश्वविद्यालय हो या न्याय का मंदिर, यहाँ के कर्मचारियों की खैनी और पान की पीक से रँगे मिलेंगे।

मगर इसका दूसरा पहलू यह है कि दुनिया के कोने-कोने में अनेक देशों को हिंदी भाषियों ने अपने खून और पसीनों से सींचा। दक्षिण अफ्रीका, ट्रीनीडाड, फिजी, मारिशस, गुयाना जैसे छोटे - बड़े अनेक देशों में अँग्रेजों द्वारा हिंदी भाषी हमारे पूर्वज श्रमिक के रूप में, कहीं-कहीं गिरमिटिहा (एग्रीमेंट के तहत) मजदूरों के रूप में ले जाएँ गए न चाहते हुए भी वहाँ भूखे प्यासे रहकर जी तोड़ मेहनत किया और अपने खून पसीने से इन देशों की धरती को सींचा। आज हमारे ही वंश परंपरा के लोग उन देशों को विकास की ओर ले जा रहे हैं।

मैं बंगाल में विगत डेढ़ दशक से भी अधिक समय से रह रहा हूँ और यहाँ के विकास की गति को देख रहा हूँ। यहाँ की पूरी अर्थव्यवस्था हिंदी भाषी सँभाले हुए हैं। कोलकाता का बड़ा बाजार, जो आस-पास के कई राज्यों की प्रमुख मंडी है - में रात-दिन खटने वाले आधे से अधिक हिंदी भाषी हैं। मुटिया, ठेले वाले, रिक्शे वाले, खोमचे वाले, वैन चलाने वाले सभी हिंदी भाषी हैं। यहाँ टैक्सी चलाने वालों से लेकर हिसाब-किताब करने वालों तक अधिकांश हिंदी भाषी हैं जिन्हें यहाँ के लोग बिहारी या हिंदुस्तानी कहते हैं। चाहे किसी प्रांत के हो हिंदी बोलते हैं तो इनकी नजर में बिहारी हैं।

हाथ रिक्शे को नए लाइसेंस नहीं दिए जा रहे हैं किंतु हावड़ा ब्रिज से कोलकाता नगर में प्रवेश कीजिए और सियालदह स्टेशन तक चले जाइए, बीच में मनुष्य का बोझ हो या सामान का हाथ रिक्शे पर लेकर पतली सँकरी भीड़ भरी गलियों में घोड़े की तरह दौड़ते हुए हाथ रिक्शा थामे अधेड़ और नौजवान हर तरह के लोग मिल जाएँगे। ये यहाँ इक्कीसवीं सदी में दसवी-बारहवीं सदी का जीवन जीते हैं। लाखों की संख्या में फुटपाथों पर सोते हैं या खोलियों में रात बिताते हैं। हाथ रिक्शा में घोड़े बनकर जूते इन मनुष्यों में से अनेक के पास प्लास्टिक के जूते-चप्पल तक नसीब नहीं हैं। देश के सर्वाधिक व्यस्त हावड़ा रेलवे स्टेशन पर लगभग नब्बे प्रतिशत कुली हिंदी भाषी हैं। बड़ा बाजार में दिनभर खटने वालों में से कम ही ऐसे खुशनसीब होते हैं जिनको रात में सोने के लिए कही छोटी सी छत नसीब हो। छोटे-छोटे कमरे में जहाँ दिन भर काम होते हैं वहीं रात में जगह बनाकर भोजन पका लिया जाता है और रात में रेल के स्लीपर डिब्बे की तरह एक पर एक बेड दीवार के सहारे लगा दिए जाते हैं। इस तरह इनकी जिंदगी का अधिकांश हिस्सा ट्रेनों के सफर जैसा बीत जाता है। कोलकाता के रईसों के आलीशान घरों, दुकानों, आफिसों और बड़े-बड़े गोदामों तक की रखवाली ये हिंदुस्तानी पूरी निष्ठा से करते हैं किंतु बंगला में बनने वाली फिल्मों और धारावाहिकों में चोर उचक्के हिंदी ही बोलते दिखाई देते हैं, अमूमन ये असभ्य और गँवार चित्रित किए जाते हैं ऐसा क्यों न हो? यही बंगाल के समाज का यथार्थ जो है।

आमतौर पर बंगाली समाज भद्र समाज माना जाता है। किंतु मेरे अनुभव इतने कड़वे हैं कि उन्हें बयान करना भी आसान नहीं है। जब मैं बंगाल में पहली बार आया और बंगला बोलना नहीं जानता था तो कदम-कदम पर मुझे अपमानित होना पड़ता था। यह पता चलते ही कि मैं एक हिंदी भाषी हूँ मुझे छोटी-छोटी बातों पर अपमानित होना पड़ता था। मसलन, बस में बैठने पर और अपने एक मित्र के लिए जगह सुरक्षित रखने पर जो बस से नीचे सिर्फ पाँच मिनट के लिए पानी का बोतल लेने उतरे थे दूसरे नए चढ़ने वाले यात्री ने कहा, 'क्या यहाँ तुम्हारा आदमी बिहार से बैठने आएगा।' अथवा ट्रेन में यात्रा के दौरान हिंदी में बातें करते हुए देखकर एक बंगाली यात्री द्वारा धमकी भरे शब्दों में कहना, 'बंगाल में रहना है तो बंगला बोलो या अपने देश (यानी अपने मूल स्थान) चले जाओ।' कुछ दिन बाद जब मैंने बंगला सीख ली और लोगों से बंगला में ही बातें करने में सहज हो गया तब से अपमानित होने के अवसर कम होने लगे।

मेरे एक बंगाली मित्र हैं नीतीश विश्वास। लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। कलकत्ता विश्वविद्यालय में संयुक्त कुलसचिव के पद पर कार्यरत हैं। सहमर्मी नाम की एक संस्था के महासचिव भी हैं। सहकर्मी से तात्पर्य है बंगाल के बाहर रहने वाले बंगालियों के दुख-सुख का पता लगाना, उसमें शरीक होना और उनकी मदद करना। गोरखपुर का निवासी समझकर उन्होंने मुझसे उस घटना के बारे में विस्तार से जानना चाहा जिसके अनुसार गोरखपुर स्थित बाबा राघवदास मेडिकल कालेज में कई बंगाली डाक्टर जातीय हिंसा के शिकार हुए हैं। उन पर अत्याचार होते रहते हैं और कई डाक्टर मार डाले गए हैं मैंने इस विषय में जब अपनी अनभिज्ञता प्रकट की तो उन्होंने इस जानकारी के अभाव को मेरी कमजोरी बताया। बाद में गोरखपुर जाकर मैंने इस खबर के बारे में पता लगाया तो पूरी की पूरी कहानी झूठी और मनगढ़त निकली। गोरखपुर में ऐसी कोई घटना कभी हुई ही नहीं।

वैसे भी जातीय असहिष्णुता की घटनाएँ हिंदी पट्टी में कही सुनने को नहीं मिलती।

बंगाल के हिंदी जगत में बड़े से बड़े आयोजनों की भी बंगला और अँग्रेजी अखबार नोटिस तक नहीं लेते। बडे़ से बड़े रचनाकारों के जीवन में घटने वाली बड़ी से बड़ी घटनाएँ भी अँग्रेजी और बंगला अखबारों के लिए खबर नहीं बन पाती। इस दृष्टि से बंगाल के हिंदी वालों की अपनी अलग ही दुनिया है जिससे यहाँ के बंगाली समाज का कुछ खास लेना-देना नहीं है।

बंगाल के साहित्यकारों की नाक हमें शा ऊँची रहनी चाहिए। उनकी नजर में, हिंदी में है ही क्या? बंगाल के सामने हिंदी की हैसियत ही क्या है? हकीकत तो यह है कि प्रेमचंद और राहुल सांकृत्यायन जैसे गिने-चुने साहित्यकारों की चंद कृतियों के अलावा बंगला में हिंदी का अनूदित साहित्य बहुत ही कम है। प्रेमचंद के साहित्य का अनुवाद तो इसलिए हो सका कि वे वैचारिक रूप से घोषित वामपंथी साबित किए जा चुके हैं और विगत चौंतीस वर्ष तक बंगाल में वामपंथ का शासन रहा है। अपनी विचारधारा के साहित्यकार को महत्व देना और उसके साहित्य का प्रचार-प्रसार करना वामफ्रंट का कर्तव्य और उत्तरदायित्व दोनों है। इससे प्रेमचंद का नहीं, बल्कि वामफ्रंट की ताकत में इजाफा होगा। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के जीवन का अंतिम बड़ा हिस्सा पश्चिम बंगाल में बीता। उनके बेटे जेता सांकृत्यायन उत्तरबंग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। राहुल सांकृत्यायन भी वामपंथी विचारों के थे। इन्हीं सब कारणों से प्रेमचंद और राहुल की बहुतेरी कृतियाँ बंगला में मिल जाएगी। इनके अलावा बंगला में हिंदी साहित्य का बहुत कम मिलेगा। यहाँ मामला पूरा का पूरा एकतरफा है - बंगला से हिंदी। बंगला का जो भी महत्वपूर्ण है वह हिंदी में सुलभ है। महाश्वेता देवी की नई से नई कृति भी बंगला में आने के साथ-साथ हिंदी में भी आ जाती है और यह सब कुछ हिंदी वालों के प्रयास से होता है। बंगालियों की इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई देती।

कोलकाता जैसे महानगर की आधी से अधिक आबादी हिंदी भाषियों की है। आसपास के शहरों में भी हिंदी भाषियों की बहुत बड़ी संख्या है किंतु चाहे वामफ्रंट हो या तृणमूल कांग्रेस दोनों ने चुनाव के वक्त हिंदी भाषियों को टिकट देने में कोताही बरती है। आज तृणमूल कांग्रेस के मंत्री मंडल में एक भी मंत्री हिंदी भाषी नहीं है। हिंदी भाषियों से सिर्फ नारे लगवाए जाते हैं उनसे काम लिया जाता है उन्हें चुनाव लड़ने के लिए टिकट नहीं दिए जाते। ऐसे भाग्यशालियों की संख्या गिनी चुनी है जिन्हें बंगाल के राजनीतिक दलों ने टिकट दिया हो।

मैं बंगाल में रहता हूँ इसलिए बंगाल का कुछ अनुभव आपसे बाँटा। जिन अनुभवों की मैंने चर्चा की है उन सबके बावजूद मैं बंगाल में बड़े सुकून और सम्मान से रहता हूँ। महाराष्ट्र में राज ठाकरे और उनके सैनिकों द्वारा हिंदी भाषियों पर आमतौर पर किए जाने वाले हिंसात्मक हमलों की खबरें तथा असम के उग्रवादी संगठनों द्वारा निरीह और मेंहनतकश हिंदी भाषियों की हत्याओं और लूटपाट की घटनाएँ देखकर मन विचलित हो जाता है। पूर्वोंत्तर के अधिकांश प्रांतों में कमोबेश एक जैसी दशा है। हाँ, कही-कही स्थिति बहुत ही खराब है। मणिपुर में एक दशक से अधिक हो गए - हिंदी फिल्में नहीं दिखाई जाती, उन पर वहाँ के स्थानीय संगठनों ने प्रतिबंध लगा रखा है। हिंदी भाषियों से लेबी वसूली जाती है। आनाकानी करने पर उन्हें गोली मार देने तक की घटनाएँ सुनने में आती हैं। मणिपुर विश्वविद्यालय में मेरे एक मित्र को वहाँ के स्थानीय लोगों ने इतना प्रताड़ित किया कि उन्हें बीच में ही अपनी नौकरी छोड़कर भाग आना पड़ा जबकि वहाँ रहते हुए उन्होंने मणिपुरी भाषा और साहित्य पर गंभीर अध्ययन किया और हिंदी तथा मणिपुरी के बीच सेतु निर्मित करने का अतुलनीय कार्य किया था। मिजोरम, मेंघालय और नागालैंड जैसे प्रांतों ने अपनी राजभाषा अँग्रेजी बना लिया है इसलिए वहाँ हिंदी के प्रचार-प्रसार की जरूरत अब और भी कम है।

तात्पर्य यह कि हिंदी जाति का पिछड़ापन एक यथार्थ है। वह रोजी-रोटी के लिए अपने ही देश में चारों ओर चक्कर लगाती है, फिर दुत्कारी जाती है, मारी-पीटी जाती है और खदेड़ी जाती है।

क्या हमेशा से हिंदी जाति की ऐसी ही दुर्दशा होती रही है?


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