यह सच है कि आज हमारी हिंदी जाति देश की सबसे पिछड़ी हुई जातियों में से एक है किंतु क्या पहले भी यह जाति ऐसी ही पिछड़ी रही है। ऐसा नहीं है। हमारी हिंदी जाति की सांस्कृतिक विरासत इतनी समृद्ध है कि यदि अपने देश की सांस्कृतिक विरासत से हिंदी जाति का हिस्सा घटा दिया जाएँ तो हमारे देश के पास गर्व करने लायक बहुत कम बचेगा। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। वह सोने की चिड़िया यही हिंदी क्षेत्र था जिसे पहले आर्यावर्त कहा जाता था। अकूत धन-धान्य से भरे इस क्षेत्र के आकर्षण में दुनिया भर की लुटेरी जातियाँ यहाँ आती रही, आक्रमण करती रहीं, लूटती रहीं और ज्यादातर यही की संस्कृति में सदा-सदा के लिए विलीन हो गई। यही वह क्षेत्र है जहाँ वेद जैसे दुनिया के प्रचीनतम ग्रंथ रचे गए। इन वेदों के अनेक सूक्त और मंत्र आत्रेयी अपाला और काक्षीवती घोषा आदि स्त्रियों द्वारा रचे गए हैं। ये वेद सरस्वती नदी के किनारे की विकसित सभ्यता द्वारा रचे गए। रामविलास शर्मा के अनुसार सरस्वती का मार्ग कुरुक्षेत्र से पूर्वी पंजाब और राजस्थान की सीमाओं को छूता हुआ, सिंधु प्रदेश की पूर्वी सीमा निर्धारित करता हुआ समुद्र तक पहुँचता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद तक यह नदी जल से भरी हुई चित्रित की गई है। 1700 ई.पू. के आस-पास यह जलविहीन हो गई।
गंगा, यमुना, सरयू, चंबल (चर्मण्वती) राप्ती (अचिरावती) नारायणी (बड़ी गंडक), गोमती, मेंदाकिनी आदि नदियाँ आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं, यद्यपि हमारे तथाकथित सभ्य समाज ने इन्हें गंदा करने और इनके अस्तित्व को मिटाने के प्रयास में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा है।
हड़प्पा जैसी विकसित सभ्यता हमारी इसी हिंदी जाति की विरासत है। यह ईसा के हजारों वर्ष पहले विकसित नगर सभ्यता का अप्रतिम उदाहरण है।
इसी हिंदी क्षेत्र में दुनिया के प्रचीनतम गणतंत्र विकसित हुए थे। सोलह महाजनपदों में अधिकांश गणतंत्र थे। आज से ढाई हजार साल पहले इस तरह के गणतंत्र या तो भारत में मौजूद थे या यूनान में। इन्हीं गणतंत्रों की देन है कि जहाँ एथेंस में सुकरात, प्लेटो और अरस्तू पैदा हुए तो दूसरी ओर भारत में महात्मा बुद्ध। बुद्ध का जन्म लुम्बिनी में हुआ, बोधगया में ज्ञान प्राप्त हुआ, सारनाथ में पहली बार जनता को संबोधित किया और कुशीनगर में महापरिनिर्वाण प्राप्त किया। मैं अनुमान करता हूँ कि यह संपूर्ण इलाका लगभग छ सौ किलोमीटर की परिधि के भीतर ही होगा। इसके बाहर बुद्ध कही नहीं गए।
किंतु आज चीन जैसा देश मुख्यत: बौद्ध है, तिब्बत बौद्ध है, लंका बौद्ध है, म्यामार, थाईलैंड, सिंगापुर आदि का प्रमुख धर्म बौद्ध है। याद कीजिए, उस जमाने में कम्प्यूटर नहीं था, इंटरनेट की सुविधा नहीं थी, आने-जाने के लिए मोटर और हवाई जहाज जैसे परिवहन के साधन नहीं थे। बौद्ध-धर्म का इतना विस्तार यदि हकीकत न होता तो क्या हम विश्वास कर पाते। सिख-धर्म के महान गुरु गोविन्द सिंह की जन्म स्थली ऐतिहासिक नगरी पाटलिपुत्र हिंदी जातीय क्षेत्र में ही अवस्थित है।
पाटलिपुत्र, काशी, मथुरा और उज्जयनी, ये भारत के ऐसे प्रचीन नगर हैं जिनका अस्तित्व आज भी बरकरार है। ये संस्कृति और व्यापार के भी पुराने केंद्र रहे हैं। इन नगरों के इतिहास से हमारा देश गौरांवित होता है। बाद के दिनों में मगध, प्रयाग, आगरा, दिल्ली आदि नगर भी व्यापार और संस्कृति के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हुए। गुप्त, मौर्य और मुगल साम्राज्य का केंद्र यही हिंदी प्रदेश था। समुद्रगुप्त के शासन का विस्तार आज के अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। सम्राट अशोक का मगध हिंदी क्षेत्र में स्थित है। अकबर जैसा महान शासक हिंदी प्रदेश की देन है। उसका लंबा शासन काल हमारे देश के इतिहास में स्वर्णयुग के रूप में स्मरण किया जाता है। वह शासन काल धार्मिक सहिष्णुता का मिशाल तो है ही, हर तरह की प्रगति की भी मिशाल के रूप में याद किया जाता है। हिंदी साहित्य में भक्ति आंदोलन मुगल काल की ही देन है जहाँ तुलसी, सूर, कबीर और जायसी जैसे कवि और संतों ने जन्म लिया। रामविलास शर्मा ने लिखा है कि दुनिया की किसी जाति की सांस्कृतिक विरासत से तुलना करनी हो तो हिंदी जाति से सिर्फ तीन नाम ले लेने ही काफी हैं- तानसेन, ताजमहल और तुलसीदास।
तुलसी नें समस्त उत्तर भारत को जिस तरह से प्रभावित किया है उसका उदाहरण अन्यत्र कहाँ मिलेगा? 'अकबर द ग्रेट मुगल' का लेखक विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर महान था क्यों कि उसका साम्राज्य दुनिया का सबसे विशाल साम्राज्य था और वह दुनिया का सबसे धनी सम्राट भी था किंतु तुलसीदास उससे भी महान थे क्योंकि जहाँ अकबर ने लोगों के ऊपर शासन किया वहाँ तुलसी ने लोगों के दिलों पर शासन किया। सारे उत्तर भारत की संस्कृति को तुलसी ने जितना प्रभावित किया है उतना किसी और कवि ने नहीं। अवधी जैसी एक लोक भाषा या बोली में लिखा जाने वाला ग्रंथ 'रामचरितमानस' धर्मग्रंथ बन गया हो, श्रद्धा से पूजा जाने लगा हो और साथ ही विद्वानों में उसी तरह बौद्धिक विमर्श का आधार बना हुआ हो - ऐसा उदाहरण दुनिया में कोई दूसरा नहीं दिखाई देता।
पाणिनि जैसा व्याकरण इसी हिंदी जाति की देन है। ईसा के पाँच सौ साल पहले लिखा जाने बाला 'अष्टाध्यायी' जैसे ग्रंथ का आज भी कोई जवाब नहीं है। ब्लूमफील्ड, सास्यूर और आज के नॉम चॉम्सकी जैसे भाषा वैज्ञानिक बड़े ही आदर के साथ पाणिनि का स्मरण करते हैं। आज से ढाई हजार साल पहले इतना पुष्ट, परिपूर्ण और वैज्ञानिक व्याकरण दुनिया में अन्यत्र दुर्लभ है।
यह आज का पिछड़ा हुआ हिंदी क्षेत्र ही है जहाँ शरीर विज्ञान के क्षेत्र में चरक और उनके भी पूर्ववर्ती आचार्य अग्निवेश, आत्रेय और पुनर्वसु आदि का जन्म हुआ। इसी हिंदी क्षेत्र में विश्व के प्राचीनतम शल्य चिकित्सक शूश्रुत का आविर्भाव हुआ। आर्यभट्ट हुए जिन्होंने शून्य की खोज करके गणित के क्षेत्र में क्रांति कर दी। महर्षि पतंजलि इसी भूमि की उपज हैं जिनका योग दर्शन विश्व में अन्यतम है और आज बाबा रामदेव उसे नई गति दे रहे हैं। भारत के ही नहीं, विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में से दो, तक्षसिला और नालंदा विश्वविद्यालय इसी हिंदी क्षेत्र की उपलब्धियां हैं जहाँ चाणक्य जैसे शिक्षक, शिक्षण कार्य करते रहे। नालंदा विशवविद्यालय में दुनिया के कोने-कोने से विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे।
यह हिंदी क्षेत्र ही है जहाँ राम ने अवतार लिया, कृष्ण ने अपनी लीलाएँ कीं। राम और कृष्ण को अपना आराध्य बनाने वाले हिंदू सारी दुनिया में फैले हुए हैं। ये वही राम हैं जिनकी जीवन गाथा पर केंद्रित रामायण भारत की प्राय सभी महत्वपूर्ण भाषाओं में मिल जायेगी। ये वही राम हैं जिन्हें मर्यादापुरुषोत्तम कहा जाता है। दूसरी ओर गोपिकाओं के साथ रास रचाने वाले योगिराज कृष्ण की लीला भूमि भी यही हिंदी क्षेत्र है। जैन-धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर की जन्मभूमि और कर्म भूमि भी यह हिंदी क्षेत्र ही है।
जब मैं हिंदी जाति की उपलब्धियां गिना रहा हूँ तो बार-बार मुझे रामायण और महाभारत जैसे विशाल उपजीव्य काव्यों की याद आती है। रामायण आदिकाव्य है और वाल्मीकि आदि कवि। रामायण ही वह मूल ग्रंथ है जिसको आधार बनाकर भारत की प्राय: सभी महत्वपूर्ण भाषाओं में रामायणें लिखी गई और महाभारत के बारे में तो कहा गया है,
'धर्मे चार्थे च कामें च मोक्षे च भरतर्षभ।
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित।'
इस विशाल महाकाव्य से कथाएँ लेकर अनेक प्रबंध और खंड काव्य लिखे गए हैं- भारत की प्रायः सभी भाषाओं में। 'गीता' इसी का एक हिस्सा है जिसने अनेक महापुरुषों के जीवन की दिशा बदल दी। ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक ग्रंथ, उपनिषद्, पुराण, स्मृतियां आदि की संख्या सैकड़ों में है। इसी भू-भाग में महकवि कालिदास ने अपनी कालजयी रचनाएँ रचीं। भास, भवभूति भारवि, माघ और विशाखदत्त ने अपने नाटक और महाकाव्य रचे। यही वह भूमि है जहाँ ईसा के भी पूर्व आचार्य भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र जैसे अप्रतिम काव्यशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की। भोजराज जैसे आचार्य राजा की कर्मभूमि यही प्रदेश है। यही आचार्य कुन्तक, राजशेखर, विश्वनाथ और पंडितराज जगन्नाथ ने अपने आचार्यत्व के यश से हमें आलोकित किया।
इस क्षेत्र की सस्य श्यामला भूमि में जो उर्वरा शक्ति है वह अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ जाड़ा, गर्मी और बरसात - तीनों ऋतुओं का ऐसा संतुलित समन्वय होता है जो और कही देखनें को नहीं मिलता। इसीलिए जीवन यापन के लिए अपेक्षित प्राय: सभी अनाज और शाक-सब्जियाँ यहाँ पैदा होती हैं। यहाँ नदियाँ है, जंगल हैं, खनिज हैं, रंग बिरंगे और असंख्य प्रजातियों के पशु पक्षी है। ऐसा बहुरंगी और वैविध्यपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों से भरा पूरा है यह आर्यावर्त, लेकिन आज यह देश के सर्वाधिक पिछड़े राज्यों में गिना जाता है। दुनिया भर में अपने पौरुष की धाक जमाने वाले यहाँ के लोग अपने ही देश के दूसरे हिस्सों में आए दिन पीटे जा रहे है।
इतिहास गवाह है यहाँ के लोगों ने कभी किसी मुल्क पर हमला नहीं किया, सिर्फ दूसरों के आक्रमण सहते रहे। शक, यवन, हूण, मंगोल, तुर्क, मुगल, पठान आदि जितनी भी जातियाँ बाहर से यहाँ आयीं, यही की होकर रह गई। यहाँ की शस्य-शयामला भूमि ने सबको इतना आकर्षित किया कि वे इस धरती को छोड़ कर कही और न जा सके। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि सबसे पहले यहाँ आर्य आए मध्य एशिया से। वे कम से कम दो बार आए। यहाँ की मूल जातियों के साथ युद्ध हुआ। आर्य़ विकसित संस्कृति वाले रहे होंगे। युद्ध में वे विजयी हुए। यहाँ की मूल जातियाँ जंगलों में सिमटकर रह गईं और कुछ आर्यों की दासता करती हुई उसी समुदाय में घुल-मिल गई। कहा जाता है कि पुराणों आदि में जगह-जगह वर्णित देवासुर संग्राम यही आर्यों और यहाँ के मूल निवासियों के बीच का ही संग्राम है। असुरों के राजा रावण से आर्यों के राजा राम का जो युद्ध हुआ था उसमें बानर भालू जैसी जंगली जातियों ने राम का भरपूर साथ दिया था। वैसे, आर्यों का बाहर से आने का सिद्धांत अब विवादास्पद हो चुका है।
फिलहाल, इस व्यापक भू-भाग को आर्यावर्त कहते हैं। इस पूरे भू-भाग में कुछ अपवादों को छोड़कर प्राय एक ही परिवार की भाषाएँ बोली जाती हैं। इन सभी भाषाओं ने संस्कृत से इतने शब्द लिए हैं, इतने संस्कार लिए हैं कि यहाँ के जन-मानस में यह आम (मगर भ्रांत) धारणा प्रचलित है कि संस्कृत यहाँ की सभी भाषाओं की जननी है। आर्यों की भाषा संस्कृत, जिसे देववाणी कहा जाता है में जो समृद्ध साहित्य है उसका मुकाबला दुनिया की कोई भी प्राचीन भाषा नहीं कर सकती। आर्यावर्त के हृदय स्थल में हिंदी जाति बसती है।