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विमर्श

हिंदी जाति की समस्याएँ

अमरनाथ

अनुक्रम 8. हिंदी-उर्दू मसला : भाषाई राजनीति का सियासी खेल पीछे     आगे

कहा जाता है कि एक साथ एक जाति सिर्फ एक ही भाषा बोलती है या बोल सकती है किंतु दुनिया में शायद अकेली हमारी हिंदी जाति है जो एक साथ दो भाषाएँ बोलती है-हिंदी और उर्दू। यानी, एक असंभव कार्य करती है। यह असंभव कार्य राजनीति की कुकृपा से संभव हो सका है। बाँटो और राज करो की कुनीति का प्रसाद है यह जो अँग्रेजों से विरासत में हमारे देश के काले अँग्रेजों ने प्राप्त कर लिया है। कहा जाता है कि एक झूठ को यदि सौ बार दुहराया जाएँ तो वह सच बन जाता है। हिंदी और उर्दू अलग-अलग भाषाएँ हैं - यह एक ऐसा झूठ है जिसे सैकड़ों क्या हजारों बार दुहराया गया है और आज यह एक सच की तरह हमारे सामने खड़ा है।

भाषा के बारे में आधिकारिक निर्णय का अधिकार सिर्फ भाषा वैज्ञानिकों को है। मुझे आज तक ऐसा एक भी भाषा वैज्ञानिक नहीं मिला जिसने हिंदी और उर्दू को अलग-अलग भाषा कहा हो। सबने हिंदी और उर्दू को एक ही भाषा खड़ी बोली से विकसित दो अलग-अलग शैलियाँ माना है। उनमें केवल लिपि भेद है। वे दो भाषाएँ हैं ही नहीं। एक दूसरी समस्या भी है। दुर्भाग्य वश हमारे देश के लगभग सभी राजनीतिक दल अघोषित रूप से उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रोजक्ट कर रहे हैं जबकि, भाषा का संबंध मजहब से नहीं होता। यदि हिंदी, हिंदुओं की भाषा होती तो दक्षिण भारत के तमाम हिंदू, हिंदी को संघ की राजभाषा बनाए जाने का विरोध क्यों करते? और यदि उर्दू मुसलमानों की भाषा होती तो बंगलादेश के मुसलमान उर्दू को पाकिस्तान की राजभाषा बनाए जाने के विरोध में शानदार कुर्बानियाँ क्यों देते? हम सभी जानते हैं कि बंगलादेश की उन शानदर कुर्बानियों की याद में संयुक्त राष्ट्र संघ के आह्वान पर सारी दुनिया में 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।

किसी भी भाषा का स्वतंत्र अस्तित्व सिर्फ दो कारणों से होता है - पहला, प्रत्येक भाषा किसी न किसी जाति की होती है और दूसरा, हर भाषा का अपना व्याकरण होता है। उर्दू और हिंदी का न तो व्याकरण अलग है और न तो ये अलग-अलग जातियों की भाषाएँ है। बंगला बंगाली जाति की भाषा है, जर्मन, जर्मन जाति की। गुजराती, गुजराती जाति की भाषा है रूसी, रूसी जाति की। अँग्रेजी, अँग्रेज जाति की भाषा है तमिल, तमिल जाति की। और जैसा कि ऊपर कह आए हैं कि एक जाति एक साथ कभी दो भाषाएँ नहीं बोलती, नहीं बोल सकती। हिंदी-उर्दू की एकरूपता का विश्लेषण करते हुए रामविलास शर्मा विस्तार से लिखते हैं, किसी जाति की भाषा समस्या पर विचार करते हुए हमें सबसे पहले उसके बोलचाल के रूप पर ध्यान देना चहिए। क्या बोल-चाल के रूप में भी हिंदी-उर्दू दो भाषाएँ हैं? इसमें संदेह नहीं कि बहुत कठिन हिंदी और बहुत कठिन उर्दू बोली जा सकती है। लेकिन हम लोग उसे बोलते नहीं हैं।

प्रेमचंद का कहना ठीक था कि बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्रायः एक सी है। उर्दू-हिंदी के सर्वनाम एक हैं - वह, मैं, तू, हम, वे आदि। हिंदी-उर्दू की क्रियाएँ एक ही है - जाना, खाना, सोना, पीना, करना, जीना, लिखना, पढ़ना आदि। आजमाना, गुजरना, लरजना जैसी क्रियाएँ बहुत थोड़ी है। कुल मिलाकर एक दर्जन से ज्यादा नहीं, जो फारसी-अरबी शब्दों के आधार पर बनी हैं। वे हिंदी के लिए मतरूक नहीं हैं। बोलचाल में उनका प्रयोग बराबर होता है। हिंदी-उर्दू के संबंध वाचक शब्द - मैं, पर, से, का आदि वही हैं जो हिंदी के हैं। दोनों का मूल शब्द भण्डार भी एक है। लेकिन यहाँ बहुत दिन फारसी के राजभाषा रहने से हिंदी शब्दों के फारसी या अरबी पर्यायवाची शब्द भी प्रचलित हो गए हैं जैसे देश-मुल्क, आकाश-आस्मान, धरती-जमीन, भाषा-जबान, किसान-काश्तकार, नदी-दरिया, रोगी-बीमार इत्यादि। इन शब्दों का व्यवहार बोल-चाल की हिंदी-उर्दू में किसी भेदभाव के बिना होता है। देश, आकाश, धरती जैसे शब्द उर्दू साहित्यकारों की रचना में मिलेंगे और मुल्क, आसमान, जमीन जैसे शब्द हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं में।

इसके सिवा हल, बैल, खेत, खलिहान, बीज, जुताई, बुआई, कारखाना, मजदूर, काम, छुट्टी आदि हजारों ऐसे शब्द हैं जिनके पर्यायवाची शब्द बोलचाल की भाषा में व्यवहृत नहीं होते, साहित्यिक भाषा में भले होते हो। लखनऊ और हैदराबाद के हिंदू-मुसलमान बोलचाल की भाषा में फारसी शब्दों का व्यवहार ज्यादा करेंगे, वहीं फारसी शब्दों की जगह बिहार और मध्य प्रदेश के मुसलमान हिंदी या संस्कृत शब्दों का प्रयोग करेंगे। यह स्थानीय भेद हुआ। इससे दो भाषाओं का निर्माण नहीं होता। हिंदी-उर्दू का व्याकरण एक, वाक्य रचना एक सी, शब्द भंडार और क्रियाएँ एक सी, इसलिए हिंदी-उर्दू भाषियों की दो कौमें नहीं हैं। उनकी जाति एक है और बोलचाल की भाषा भी एक है। (भाषा और समाज, रामविलास, शर्मा, पृष्ठ-357)

असली कारण लिपि भेद है। लिपि के काम आती है न कि बोलने के। बोलचाल के स्तर पर हिंदी-उर्दू में कोई भेद नहीं है। हिंदी-उर्दू का यह अलगाव हमारे जातीय विकास के लिए घातक है। भारत के हर जातीय प्रदेश की भाषा और लिपि एक हो लेकिन हिंदी प्रदेश की दो लिपियां और दो भाषाएँ हो - यह हिंदी क्षेत्र की जातीय एकता को खंडित करने की साजिश हैं जिसका हमें पूरी दृढ़ता के साथ पर्दाफाश करना होगा। हम यहाँ यह भी कहना चाहते हैं कि हिंदी और उर्दू का साहित्य भी एक ही है और उसका इतिहास भी एक ही है। इस विषय पर आगे हम विस्तार से चर्चा करेंगे। यहाँ हम संक्षेप में हिंदी और उर्दू के स्वरूप और उसके विकास का विवेचन करेंगे।

भारत और ईरान का सांस्कृतिक और व्यापारिक संबंध बहुत पुराना है। हमारी प्रचीन 'स' ध्वनि ईरान की अवेस्ता आदि में 'ह' उच्चरित होती रही है। जैसे सप्त (संस्कृत), हफ्त (अवेस्ता), असुर (संस्कृत), अहुर (अवेस्ता)। इसी कारण संस्कृत के 'सिंधु' और 'सप्तसिंधव:' आदि शब्द अवेस्ता में 'हिंदु' और 'हफ्तहिंदव:' आदि रूप में मिलते हैं।

प्राचीन ईरानी साहित्य में 'हिंदु' शब्द नदी के अर्थ में तो प्रयुक्त हुआ ही है साथ ही सिंधु नदी के पास के प्रदेश के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। बलाघात के कारण कालांतर में 'हिंदु' का अन्त्य 'उ' लुप्त हो गया और इस प्रकार यह शब्द हिंदु से हिंद हो गया। आगे चलकर हिंद शब्द में ईरानी के विशेषणार्थक प्रत्यय 'ईक' जुड़ने से 'हिंदीक' शब्द बना जिसका अर्थ था 'हिंद का'। इसी 'हिंदीक' का विकास (क के लुप्त हो जाने के कारण) हिंदी के रूप में हुआ। इस प्रकार हिंदी का मूल अर्थ है 'हिंद का' या 'भारतीय'। इस अर्थ में हिंदी शब्द का प्रयोग मध्यकालीन फारसी तथा अरबी आदि में अनेक स्थलों पर हुआ है। यद्यपि आज यह शब्द हिंदी भाषा के अर्थ में रूढ़ हो गया है किंतु इसके साथ ही यह शब्द 'हिंद का निवासी' अर्थात 'हिंदी जाति' के अर्थ में भी बराबर प्रयुक्त होता रहा है। डॉ. इकबाल के मशहूर तराने - "हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा' में भी इसी अर्थ में हिंदी शब्द का इस्तेमाल हुआ है। यहाँ 'हिंदी' शब्द 'हिंदी जाति' का अर्थ दे रहा है।

भाषा के अर्थ में 'हिंदी' शब्द का प्रयोग फारस और अरब से ही प्रारंभ होता है। छठीं सदी ई. के कुछ पूर्व से ही ईरान में 'जबान-ए-हिंदी' का प्रयोग भारतीय भाषाओं के लिए होता रहा है। उदाहरणार्थ ईरान के प्रसिद्ध बादशाह नौसेरवाँ (531-579 ई.) ने 'पंचतंत्र' का अनुवाद कराया जिसकी भूमिका में लिखा गया है कि यह अनुवाद 'जबान-ए-हिंदी' से किया गया है। यहाँ स्पष्ट ही 'जबान-ए- हिंदी' का प्रयोग भारतीय भाषा या संस्कृत के लिए हुआ है। इसी तरह महाभारत के कुछ भागों का अनुवाद पहलवी भाषा में किया गया है और वहाँ भी लिखा गया है कि इसकी मूल भाषा 'जबान-ए-हिंदी' है।

सन 1424 में सरफुद्दीन यज्दी ने तैमूर और उसके परिवार के संबंध में 'ज़फरनामा' नामक ग्रंथ लिखा। इसमें एक स्थान पर आता है कि 'राव' हिंदी शब्द है। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार विदेशों में हिंदी भाषा के लिए हिंदी शब्द का संभवतः यह प्रथम प्रयोग है।

भारत वर्ष में भी भाषा के अर्थ में हिंदी शब्द के प्रयोग का प्रारंभ मुसलमानों द्वारा ही किया गया। भारतीय परंपरा में प्रचलित भाषा के लिए प्रचीन काल से ही 'भाखा' या 'भाषा' शब्द का प्रयोग होता आया है। उदाहरणार्थ "संस्कृत कविता कूप जल भाषा बहता नीर' ( कबीर), 'आदि अंत जसि कथ्या अहै, लिखि भाषा चौपाई कहै' ( जायसी), 'भाषा भनिति मोर मति थोरी" ( तुलसी), 'भाषानिबद्ध मति मंजुल मातनोति' (तुलसी), 'भाषा बोल न जानहीं जाके कुल के दास' (केशव दास) आदि कथन उल्लेखनीय है। संस्कृत आदि के ग्रंथों की हिंदी टीकाओं में 'भाषा टीका' रूप में यह शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। 19 फरवरी 1802 को फोर्ट विलियम कालेज द्वारा 'भाषा मुंसी' की माँग की स्वीकृति तथा लल्लू लाल को उक्त कालेज के कागजों में 'भाषा मुंसी' कहे जाने से पता चलता है कि 'हिंदी' के लिए 'भाषा' शब्द का प्रयोग आधुनिक काल तक चलता रहा है।

बारहवीं सदी में जब मुसलमान यहाँ आए तो वे यहाँ की भाषा को 'जबान-ए-हिंदी' कहने लगे। उनका विशेष संबंध मध्यदेश से था। अत: धीरे-धीरे इसकी मध्यदेशीय बोली के लिए उन्होंने 'जबान-ए-हिंदी' या 'हिंदी जबान' या 'हिंदी' नाम का इस्तेमाल किया।

भाषा के अर्थ में 'हिंदुई' या 'हिंदुवी' शब्द का प्रयोग अमीर खुसरो (1255 ई.-1325ई.) ने कई स्थलों पर किया है। उन्होंने लिखा है - "तुर्क हिंदुस्तानियम मन हिंदुवी गोयम जवाब।" अर्थात 'मैं हिंदुस्तानी तुर्क हूँ, हिंदुवी में जवाब देता हूँ।' हिंदुवी की तुलना में निश्चित रूप से हिंदी शब्द नया है। जायसी ने भी लिखा है,

"तुरकी अरबी हिंदुवी भाषा जेती आहि।
जामे मारग प्रेम का सबै सराहे ताहि।"

हिंदी शब्द का प्रारंभिक प्रयोग जब भी और जिसके द्वारा भी हुआ हो पर इसके अविच्छिन्न प्रयोग की प्राचीन परंपरा 'दक्खिनी हिंदी' के कवियों-गद्यकारों में ही मिलती है। उदाहरणार्थ शाही मीराजी (1475) 'यों देखत हिंदी बोल', शाह बुर्हानुद्दीन (1582) 'ऐब न राखें हिंदी बोल', मुल्ला वजही (1635) 'हिंदोस्तां में हिंदी जबान सों', जुनूनी(1690) 'मैं इसको दर हिंदी जबां इस वास्ते कहने लगा।,' आदि कथन उल्लेखनीय हैं।

इतना ही नहीं, 19वीं सदी के मध्य तक तथाकथित उर्दू के लेखकों में प्राय इसका प्रयोग उर्दू या रेख्तां के समानार्थी के रूप में चल रहा था। हातिम (18वीं सदी का उत्तरार्ध), नासिख, (1757-1838), सौदा (1713-1780), मीर (1725-1810) आदि ने अनेक बार अपने शेरों को 'हिंदी शेर' कहा है। मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने खतों में उर्दू, हिंदी तथा रेख्तां को कई स्थलों पर समानार्थी शब्दों के रूप में प्रयुक्त किया है। मीर तकी मीर अपनी भाषा को हिंदी कहते थे। उनका एक मशहूर शेर है,

"क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सरूरे कल्ब
आया नहीं है लफ्ज ये हिंदी जबाँ के बीच।"

फोर्ट विलियम कालेज के हिंदुस्तानी विभाग के पहले प्रोफेसर जान गिल क्राइस्ट हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी के बीच केवल शैली भेद मानते थे। उनकी एक व्याकरण की पुस्तक प्रकाशित है जिसका नाम है - "कवानीन सर्फ़ व नह्व हिंदी।" पुस्तक में अँग्रेजी में लिखा है - "रूल्स आफ हिंदी ग्रामर।" इसकी भाषा आज की कठिन उर्दू है।

1812 में फोर्ट विलियम कालेज के वार्षिक विवरण में कैप्टन टेलर लिखते हैं - "मैं केवल हिंदुस्तानी या रेख्ता का जिक्र कर रहा हूँ, जो फारसी लिपि में लिखी जाती है... मैं हिंदी का जिक्र नहीं कर रहा जिसकी अपनी लिपि है। ...जिसमें अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग नहीं होता और मुसलमानी आक्रमण से पहले जो भारत वर्ष के समस्त उत्तर-पश्चिम प्रांत की भाषा थी।" (इंपीरियल रिकार्ड्स, वाल्यूम-4, पृष्ठ-276-277)

1824 ई. में उक्त कालेज के हिंदी प्रोफेसर विलियम प्राइस ने स्पष्ट शब्दों में हिंदी के लगभग सभी शब्दों के संस्कृत में होने की बात कही तथा हिंदुस्तानी के शब्दों के अरबी-फारसी के होने की। 1825 ई. में कालेज के वार्षिक अधिवेशन के भाषण में लार्ड हेमहर्स्ट ने हिंदी भाषा को हिंदुओं से संबद्ध कहा तथा उर्दू को उनके लिए उतनी ही विदेशी कहा जितनी अँग्रेजी।

अब हम उर्दू की चर्चा करेंगे। उर्दू मूलत: तुर्की भाषा का शब्द है। इसका मूल अर्थ है 'शाही शिविर' या 'खेमा'। आक्रमणकारी मुसलमान फौजी पड़ावों में रहते थे तथा वहाँ उनका जरूरी चीजों के लिए बाजार भी होता था। सेना के बाजार के अर्थ में ही भारत के कई शहरों में 'उर्दू बाजार' नाम मिलता है।

मुगल बादशाहो के फौजी पड़ावों के लिए भी 'उर्दू' शब्द चलता था। इन बादशाहो के सिक्के कभी-कभी पड़ावों में भी ढालने पड़ते थे। इसीलिए सिक्कों पर टकसाल का नाम प्राय: 'उर्दू' लिखा मिलता है। बाबर के कुछ सिक्कों पर 'उर्दू' लिखा है। अकबर के भी कुछ सिक्कों पर 'उर्दू-ए-जफर करीन' अर्थात 'विजयी शाही पड़ाव' लिखा है। जहाँगीर ने कभी दक्षिण जाते समय रास्ते में अपने शाही पड़ाव में सिक्के ढलवाए थे। उसके एक सिक्के पर लिखा है 'उर्दू-दर-राहे-दक्कन' अर्थात 'दक्षिण की राह में का पड़ाव'।

शाहजहाँ ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली बदल ली और अपने नाम पर शाहजहाँबाद आबाद किया। यहाँ उसने लाल किला बनवाया। यह भी एक तरह से उसका शाही फौजी पड़ाव अर्थात उर्दू था। स्थाई, बड़ा तथा सुंदर होने को कारण इसका नाम मात्र उर्दू न होकर 'उर्दू-ए-मुअल्ला' हो गया। 'मुअल्ला' अरबी भाषा का शब्द है और इसका अर्थ है 'श्रेष्ठ'। अर्थात यह श्रेष्ठ शाही पड़ाव था।

इस शाही पड़ाव की भाषा कदाचित एक निश्चित रूप ले चुकी थी। अत: इस भाषा को 'जबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला' अर्थात श्रेष्ठ शाही पड़ाव की भाषा कहा गया। भाषा के नाम के लिए 'जबान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला' शब्द बड़ा था, इसीलिए धीरे-धीरे प्रयोग में आने पर यह छोटा होने लगा। पहले मुअल्ला शब्द हटा और यह 'जबान-ए-उर्दू' कही जाने लगी। बाद में जबान भी हट गया और केवल 'उर्दू' रह गई।

उर्दू के साथ फारसी लिपि के जुड़ने का ऐतिहासिक कारण है। दरअसल किसी भी व्यक्ति के लिए दूसरे भाषा भाषियों के संपर्क में आने पर उनकी भाषा सीखना तो आसान होता है किंतु उसकी तुलना में लिपि सीखना कठिन होता है। भारत में आने वाली तुर्क, पठान, मुगल आदि विभिन्न जातियों की भाषाएँ यद्यपि अलग-अलग तुर्की, पश्तो आदि थी किंतु उनके शासन की भाषा फारसी थी। शासन से जुड़े हुए लोग फारसी के जानकार होते थे। दिल्ली के बाजार के संपर्क में जब वे लोग आए तो उनके लिए संवाद की विवशता के चलते दिल्ली की भाषा समझना तो मजबूरी थी किंतु लिपि समझना कठिन। उन लोगों ने दिल्ली की हिंदुवी को फारसी लिपि में लिखना आरंभ किया। यह उनकी मजबूरी थी। इस तरह वे देवनागरी सीखने की समस्या से बच जाते थे और हिंदुवी सीख कर हिंदुस्तान की जनता से संवाद भी स्थापित कर लेते थे। उनकी अपनी भाषा फारसी होने के कारण उनकी हिंदी में अरबी-फारसी के शब्द भरे रहते थे। इस तरह हिंदुवी के लिए फारसी लिपि प्रचलन में आयी जिसे बाद में हिंदुस्तानी या उर्दू कहा गया। फारसी का शासन की भाषा होने के कारण उसकी लिपि का व्यापक प्रसार होना स्वाभाविक था।

बहरहाल, उर्दू शब्द बहुत पुराना है किंतु भाषा के अर्थ में इसका व्यापक प्रयोग उन्नीसवीं सदी के आरंभ में ही व्यवहार में आ सका। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, 19वीं सदी के प्रथम 25 वर्षों में एक ओर हिंदी-देवनागरी-संस्कृत-हिंदू शब्दों को जोड़ दिया गया तो दूसरी ओर हिंदुस्तानी-रेख्तां या उर्दू-फारसी लिपि-अरबी फारसी शब्द मुसलमान को। संभवत शासन के ही इशारे पर 1862 ई. में हिंदी-उर्दू का प्रश्न शिक्षा के संयोजकों के समक्ष आया और इस प्रकार हिंदी-उर्दू का वर्तमान रूप तय हो गया।

शम्सुर्रहमान फारुकी ने इस पूरे प्रसंग को एक घटना के हवाले से इस तरह व्यक्त किया है - "आधुनिक हिंदुस्तानी इतिहासकारों में डॉ. ताराचंद ने उर्दू-हिंदी मामले के पीछे छिपी हुई राजनीति का खुल्लमखुल्ला जिक्र किया है। 1939 में आल इंडिया रेडियो, देहली ने 'हिंदुस्तानी क्या है' शीर्षक से कुछ व्याख्यान आयोजित किए। व्याख्याता थे डॉ. ताराचंद, मौलवी अब्दुल हक, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. जाकिर हुसेन, पंडित दत्रात्रेय कैफी और आसिफ अली। वह समय और वह विषय, दोनों ही आवेश और भावनाओं से भरे हुए थे। उर्दू का मामला पंडित कैफी और मौलवी अब्दुल हक सबसे ज्यादा शक्ति और तर्क के साथ पेश किया। डॉ. ताराचंद ने मामले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और विश्लेषण औरों की तुलना में अधिक विस्तार और सफाई से बयान किया। ये व्याख्यान उपर्युक्त छ व्यक्तियों ने उपर्युक्त लिखित क्रम से 20 फरवरी 1939 से 25 फरवरी 1939 तक आल इंडिया रेडियो दिल्ली से पेश किए।

इसके कुछ समय बाद इन्हें मक्तबाए जामिया ने आल इंडिया रेडियो की अनुमति से 'हिंदुस्तानी' शीर्षक से किताब के रूप में छापी। ताराचंद ने कहा - "हिंदुओं के लिए लल्लूलाल जी, सदल मिश्र, बेनी नारायण को (फोर्ट विलियम कालेज की आलाकमान से) हुक्म मिला कि गद्य की किताबें तैयार करें। उन्हें और भी अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा। अदब या साहित्य की भाषा तो ब्रज थी लेकिन इसमें गद्य नाम ही के लिए था। क्या करते उन्होंने रास्ता ये निकाला कि मीर अम्मन, अफसोस वगैरा की भाषा को अपनाया। पर इसमें फारसी-अरबी के शब्द छाँट दिए और संस्कृत और हिंदी (ब्रज और दूसरी बोलियों के) शब्द रख दिए... इस तरह दस साल से भी कम मुद्दत में दो नयी भाषाएँ अपने असली पालने से सैकड़ों कोस की दूरी पर विदेशियों के इशारे पर बन-सँवर, रंगमंच पर आ खड़ी हुईं। दोनों की सूरत-मूरत एक थी, क्योंकि दोनों एक ही माँ की बेटियाँ थी। फिर दोनों के सिंगार, कपड़े और जेवर में कुछ फर्क न था। पर दोने के मुख एक-दूसरे से फिरे हुए थे। इस जरा सी बेरुखी ने देश को दुविधा में डाल दिया और उस दिन से आज तक हम अलग-अलग दुराहो पर भटक रहे हैं।" ( उर्दू का आरंभिक युग, शम्सुर्रहमान फारुकी, पृष्ठ-42)

फारुकी साहब ने अपनी उक्त पुस्तक के आरंभ में ही लिखा है - "हिंदी/उर्दू साहित्य के इतिहास के नाम से आज तक जो धारणाएँ हमारे देश में प्रचलित हैं, उनका बड़ा हिस्सा केवल नामकरण के संयोग पर आधारित है। हम लोग इस बात को अक्सर भूल जाते हैं कि जिस भाषा को आज हम उर्दू कहते हैं, पुराने जमाने में उसी भाषा को 'हिंदुवी' 'हिंदी' 'देहलवी' 'गूजरी' 'दकनी' और फिर 'रेख़्ता' कहा गया है। और ये नाम लगभग उसी क्रम में प्रयोग में आए, जिस क्रम में मैंने इन्हें दर्ज किया है। यह जरूर है कि इस भाषा का जो रूप दकन (दक्षिण) में बोला और लिखा जाता था, उसे सत्रहवीं शताब्दी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के लगभग मध्य तक 'दकनी' ही कहते थे। और उत्तर भारत में एक बड़े समय तक 'रेख़्ता' और 'हिंदी' दोनों ही इस भाषा के नाम की हैसियत से साथ-साथ इस्तेमाल होते रहे।" ( उर्दू का आरंभिक युग शम्सुर्रहमान फारुकी, पृष्ठ-11)

फिलहाल, डॉ. ताराचंद, ग्राहम वेली, एहतेशाम हुसेन आदि अधिकांश विद्वानों ने मुसहफी के निम्नलिखित शेर को उद्धृत किया है और बताया है कि भाषा के अर्थ में 'उर्दू' शब्द का यही पहला प्रयोग है। मुसहफी का वह शेर निम्नलिखित है -

"खुदा रख्खे जबां हमने सुनी है मीर ओ मिर्जा की
कहें किस मुँह से हम ऐ मुसहफी उर्दू हमारी है।"

मुसहफी की मृत्यु 1824 ई. में हुई थी, इसलिए अनुमान किया जा सकता है कि 1800 के आस-पास यह शेर लिखा गया होगा। शम्सुर्हमान फारुकी लिखते हैं - "ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ मिर्जा से मुराद मिर्जा मुहम्मद रफी सौदा हैं। सौदा का निधन जून 1781 में हुआ। इसलिए अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शेर जून 1781 से पहले का होगा। लेकिन कितना पहले का, यह बात साफ नहीं होती।" फिर उन्होंने बड़ी छान-बीन के बाद निष्कर्ष निकाला है कि - "इसलिए यह शेर 1771 और 1773 के बीच का हो सकता है।"

वैसे यह भी ध्यान रखने की बात है कि मुसहफी के पहले दीवान (संकलन काल लगभग 1785 ई.) में यह शेर भी संकलित है-

"मुसहफी फारसी को ताक पे रख,
अब है अशआर-ए-हिंदुवी का रिवाज।"

बहरहाल, आधुनिक परिनिष्ठित हिंदी की तरह उर्दू भी मूलतः दिल्ली के आसपास की खड़ी बोली पर आधारित है, जिसमें कुछ रूप पूर्वी पंजाबी, बांगरू तथा ब्रजी के भी हैं। इस प्रकार व्याकरणिक दृष्टि से हिंदी-उर्दू कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः एक ही है। अंतर केवल शब्दावली का है। उर्दू को हिंदी का अरबी-फारसी शब्दावली से युक्त शैली कहना ही अधिक समीचीन है। दोनों का व्याकरण पूर्णतया एक होने और भौगोलिक क्षेत्र एक होने के कारण इन्हें अलग भाषाएँ मानना न तो व्यावहारिक है और न वैज्ञानिक।

हिंदी-उर्दू के वे लेखक, जिन्हें दोनों भाषाओं का इल्म है, जो दोनों में लिखते रहे हैं, जिन्हें दोनों भाषाओं के साहित्य की जानकारी है उन्होंने इस विषय पर अपने दो टूक राय देने में कभी भी संकोच नहीं किया है। 8 सितंबर 1873 की 'कविवचन सुधा' में भारतेंदु 'हिंदी और उर्दू' शीर्षक से लिखते हैं - "हिंदी और उर्दू में अंतर क्या है? हम बिना संकोच के कह सकते हैं कि भाषाओं में कुछ अंतर नहीं है क्योंकि व्याकरण की विभक्तियाँ और नियम दोनों के एक हैं पर इतना ही अंतर है कि हिंदी में जिसके लिए हिंदी शब्द नहीं मिलता वहाँ संस्कृत के शब्द काम में आते हैं और उर्दू में सहज हिंदी शब्द होने पर भी जहाँ शब्द नहीं मिलते वहाँ तो अवश्य ही अरबी और फारसी के शब्द लिखे जाते हैं, यही दोनों में अंतर है।" ( कविवचन सुधा, 8 सितंबर 1873 ई.)

उल्लेखनीय है कि भारतेंदु उर्दू में 'रसा' नाम से गजलें भी लिखते थे। एक दूसरे हिंदी-उर्दू के मशहूर लेखक बालमुकुन्द गुप्त ने लिखा है - "इस समय हिंदी के दो रूप हैं एक उर्दू और दूसरा हिंदी। दोनों में केवल शब्दों का ही नहीं, लिपि भेद बड़ा भारी पड़ा हुआ है। यदि यह भेद न होता तो दोनों रूप मिलकर एक हो जाते। यदि आदि से फारसी लिपि के स्थान में देवनागरी लिपि रहती तो यह भेद ही न होता। अब भी लिपि एक होने से भेद मिट सकता है। पर जल्द ऐसा होने की आशा कम है। अभी दोनों रूप कुछ काल तक अलग-अलग अपनी-अपनी चमक-दमक दिखाने की चेष्टा करेंगे। आगे समय जो करावैगा वही होगा।" ( बालमुकुंद निबंधावली, पृष्ठ-110)

मुंशी प्रेमचंद के विचार हैं - "उर्दू वह हिंदुस्तानी जबान है जिसमें फारसी-अरबी के लफ्ज ज्यादा हो उसी तरह हिंदी वह हिंदुस्तानी है, जिसमें संस्कृत के शब्द ज्यादा हो। लेकिन जिस तरह अँग्रेजी में चाहे लैटिन या ग्रीक शब्द अधिक हो या एंग्लोसेक्सन, दोनों ही अँग्रेजी हैं, उसी भाँति हिंदुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों के मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती।" (मुशी प्रेमचंद, साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ-124) और उर्दू के मशहूर शायर तथा हिंदी के सुविख्यात कथाकार राही मासूम रजा का तो कहना है - "मैं शायद उर्दू का अकेला शायर हूँ जिसने यह कहने की हिम्मत की है कि उर्दू और हिंदी दो अलग-अलग भाषाएँ नहीं हैं। मैंने यह चेतना बहुत महँगे दामों में खरीदी है और लोग कहते हैं कि मैं बिक गया हूँ।" (राही मासूम रजा, लगता है बेकार गए हम, पृष्ठ-72) और हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने तो यही सोचकर आजाद भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदुस्तानी का प्रस्ताव किया था। यह देश का दुर्भाग्य है कि उनके प्रस्ताव पर अमल नहीं हो सका।

हमारे देश में दसवीं-ग्यारहवीं सदी में ही तुर्क, पठान, मुगल आदि जातियाँ आ चुकी थी। स्वाभाविक रूप से ये जातियाँ अलग-अलग भाषाएँ बोलती थी किंतु इनमें समानता यह थी कि ये सभी इस्लाम को मानने वाली थी और शासन के लिए ये फारसी का इस्तेमाल करती थी। इसीलिए भारत में इन सभी जातियों ने शासन के लिये एक मात्र फारसी का इस्तेमाल किया। पूरे छः सौ वर्ष तक हमारे देश में फारसी शासन की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित रही। बाद में अँग्रेजी और देशी भाषाओं को भी थोड़ा-बहुत मौका मिला।

हिंदुओं और मुसलमानों का इतने लम्बे दिनों तक साथ रहने के बावजूद अँग्रेजों के आने से पहले इतिहास में सांप्रदायिक दंगों का कोई जिक्र नहीं मिलता। अनेक शासकों ने गैर मुसलमानों पर जजिया कर जरूर लगाया। औरंगजेब जैसे कट्टर शासकों ने गैर मुस्लिमों पर अत्याचार भी किए। अनेक मंदिर तोड़ डाले गए। किंतु हिंदू और मुस्लिम जनता आमने-सामने आ गई हो - ऐसा उदाहरण इतिहास में नहीं मिलता। दोनों मजहब के लोग सदियों से साथ-साथ मिलजुल कर रहते आए थे और साथ रहने के अभ्यस्त थे किंतु अँग्रेजों ने बाँटों और राज करो की नीति अपना कर ही इस देश में शासन करना आरंभ किया और उसी से उन्हें सफलता मिली। अँग्रेजों ने अपनी इस नीति को अंत तक जारी रखी। उनके द्वारा उठाए गए हर कदम का विश्लेषण करने पर उनकी यह नीति उसमें छिपी मिलेगी।

जैसाकि पहले कहा जा चुका है कि किसी जाति को जोड़ने का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है भाषा। हम यह भी पहले बता चुके हैं कि फोर्ट विलियम कालेज के हिंदुस्तानी (हिंदी नहीं) विभाग के पहले अध्यक्ष जॉन बोर्थविक गिलक्राइस्ट ने सबसे पहले भाषा को मजहब से जोड़ा, एक ही भाषा की तीन शैलियाँ-हिंदुवी, उर्दू और हिंदुस्तानी घोषित की, उनमें भेद किया और उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों से जोड़कर उनके बीच सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की जमीन तैयार की। वे हिंदुवी शैली को सिर्फ हिंदुओं में प्रचलित मानते थे और इसे गँवारू कहते थे। हिंदुस्तानी ही उनकी निगाह में दि ग्रैंड पापुलर स्पीच आफ हिंदोस्तान थी। इस नाम को प्रचलित करने का श्रेय उन्हीं को है। वे मानते थे कि हिंदोस्तानी का थोड़ा सा ही अध्ययन करके यह समझा जा सकता है कि इसका आधार पुरानी हिंदुवी या ब्रज भाषा है जिसमें अरबी-फारसी शब्दों का सम्मिश्रण होते जाने की वजह से एक नई भाषा हिंदुस्तानी तैयार हुई।

इसी तरह सर जार्ज ग्रियर्सन ने अपने लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया में आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का वर्गीकरण करते हुए तीन तरह की हिंदी का जिक्र किया है - पूर्वी हिंदी, पश्चिमी हिंदी और बिहारी। इन भाषाओं में भेद दृष्ठि का विवेचन करते समय ग्रियर्सन महोदय की दृष्टि काफी उदार है। ग्रियर्सन की उक्त भेद दृष्टि का ही असर है कि बाद में प्रख्यात भारतीय भाषा वैज्ञानिक डॉ. सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ने भी हिंदी को इसी तरह उपभाषाओं में बाँटकर देखा और आज भी हम अपने विद्यार्थियों को इसी तरह का अवैज्ञानिक वर्गीकरण पढ़ा रहे हैं, जबकि आज जरूरी है हम अपनी नयी पीढ़ी को यह जोर देकर बताएँ कि हिंदी एक है और बाकी उसकी बोलियाँ है। बीच में कोई उपभाषा जैसी वस्तु नहीं होती। यह उपभाषा की अवधारणा हमें भ्रमित करती है और हमारे जातीय गठन में बाधा डालती है।

अँग्रेजों की वह भेद दृष्टि आजादी के बाद भी यथावत जारी है। यह एक सच्चाई है कि 1947 में सत्ता का केवल हस्तांतरण हुआ था। व्यवस्था में कोई भी बुनियादी परिवर्तन नहीं हुआ था। सत्ता गोरी चमड़ी बाले अँग्रेजों के हाथ से काली चमड़ी वाले अँग्रेजों के हाथ आ गई थी। जाहिर है, सत्ताधारी वर्ग की ज्यादातर नीतिय़ां वही थी। बाँटो और राज करो की नीति बदस्तूर जारी रही। भाषा के मामले में भी मैकाले की नीति ही जारी रही। बल्कि अँग्रेजी का प्रभुत्व और भी बढ़ता गया। दूसरी ओर अघोषित रूप से उर्दू को मुसलमानों से जोड़कर देखने की प्रवृति विकसित हुई। संविधान की आठवीं अनुसूची में उर्दू को भी शामिल कर लिया गया। यद्यपि भाषा वैज्ञानिक कहते रह कि उर्दू-हिंदी एक ही भाषा की दो शैलियाँ मात्र हैं। वे अलग-अलग भाषाएँ नहीं है। किंतु सत्ताधारी वर्ग की रुचि तो अलगाव के तत्व ढूँढ़ने की होती है, समानता के सूत्र ढूँढ़ना उनका मकसद नहीं होता।

हिंदी प्रदेश की कई राज्य सरकारों ने आजादी के तुरंत बाद से मुसलमानों को खुश करने और वोट पाने की लालसा में उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाना शुर कर दिया और आज हिंदी प्रदेश की अधिकांश राज्य सरकारों ने उर्दू को दूसरी राज भाषा घोषित कर रखा है। बल्कि कई अहिंदी भाषी राज्यों की राज्य सरकारों ने भी अपने-अपने राज्यों की राज भाषा उर्दू को घोषित कर रखा है। कई राज्यों में हिंदी अकादमियाँ भले मरणासन्न हो, उर्दू अकादमियाँ खूब फल-फूल रही हैं।


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