रात अर्दली खाना लाया तो फिर पूछा उसने, ''क्या मिलिटेंट के साथ कहीं कोई मुठभेड़ हुई है, क्या कोई ऑपरेशन चल रहा है? अर्दली ने गम्भीर हो बताया, सर जी, यहाँ तो चौबीसों घंटे ही यह सब होता रहता है। अगले सप्ताह से अमरनाथ की यात्रा शुरू होने वाली है। इस कारण इस सप्ताह वारदातों की और बाहर से आनेवाले मिलिटेंटों की संख्या बढ़ रही है। हर दिन ख़बर आ रही है। आतंकी कहीं नीचे उतर वारदात करने की तैयारी में हैं तो कहीं सीमा पार से विदेशी आतंकियों के घुसने की ख़बर आ रही है। ये नये सी.ओ. साहब बहुत ज़्यादा कर्मठ हैं, न ख़ुद चैन से बैठते हैं न औरों को बैठने देते हैं। जाने कितने ख़बरिया घुसा रखे हैं, गाँव-गाँव में। आधी से ज़्यादा ख़बरें तो झूठी निकलती हैं, पर इन्हीं ख़बरों में से एकाध ख़बर सच्ची भी निकल आती है, इतनी ज़बरदस्त कि ऑपरेशन लम्बा खिंचता जाता है। नहीं सर जी, एक बार ऑपरेशन चालू हो गया तो फिर कोई भी नहीं निकल सकता। फिर तो मरकर या मारकर ही बाहर निकला जा सकता है। मन में फिर हूक उठी, कहाँ फँस गया भाई। लगा जैसे किसी अज्ञात भय ने गर्दन मरोड़ कर रख दी है उसकी। कहीं ऑपरेशन लम्बा खिंच गया तो? क्या दुबारा देख पाऊँगा भाई को? अकेला बन्द कमरा। ठंडा रेंगता अँधेरा। सांय-सांय करता सन्नाटा। और डरावनी ख़बरें। कश्मीर इतना भयानक हो सकता है, सोचा भी नहीं था उसने।
पल-पल मिलाता रहा वह फोन। कभी लैंड लाइन तो कभी मोबाइल। सब बन्द। ज़रूर कहीं भयानक एनकाउंटर चल रहा है। इसीलिए सारे संचार सूत्रों को बन्द कर दिया गया है। नहीं, अब तो सन्देह भी नहीं रहा। फिर मिलाया फोन उसने कंट्रोल रूम में। जय हो क़िस्मत! मिल गयी लाइन। पता चला मेज़र सन्दीप वापस आ गये हैं। कब आएँगे बूशन कैम्प में? नहीं बता सकते, थोड़ी देर बाद फिर फोन कर लें, पूछकर बता दिया जाएगा। आपको।
फिर मिलाया उसने मोबाइल। मिल गया। बस सुबह आठ बजे तक पहुँच रहा हूँ। अभी आर्मी की जीप नहीं निकल सकती नहीं तो तुरन्त आ जाता।
हे प्रभु... उसके हाथ फिर जुड़े। लगा छाती पर घटी कोई भारी भरकम चट्टान हट गयी है।
बुशन कैम्प लौटा सन्दीप तो आकुल-व्याकुल सिद्धार्थ लिपट गया उससे। भाई, तुमने तो जान ही निकाल दी मेरी। मैं नहीं जानता था। इतना ख़तरा है?
हँस दिया सन्दीप, एक उदास हँसी - ख़तरा कहाँ नहीं है, भाई। कहीं बाहर तो कहीं भीतर। अच्छा पहले यह बता, तूने जाना क्यों स्थगित कर दिया... ओह, सोचा होगा कि भाई मिलेगा या नहीं?
''भाई, कितने कठोर हो गये हो तुम।'' सिद्धार्थ का गला भर आया था।
''क्या करूँ आजकल ख़बरें ही कुछ ऐसी मिल रही हैं कि मेरी मानकिसता बदल रही है। ज़िन्दगी पर, मैं अपनी राय बदलने को बाध्य हूँ।''
''ऐसी कौन-सी ख़बर मिल गयी है तुम्हें?''
''पहले खाते-पीते हैं, फिर बात करेंगे।''
सन्दीप ने इंटरकोम पर ही अपने आने की सूचना दी, अपने अर्दली को और चाय-नाश्ता लाने को कहा।
कहवा की गरम-गरम चुस्कियों के बीच फिर बात छेड़ी सिद्धार्थ ने। सन्दीप ने फिर टालना चाहा पर जो घटना घटी थी पिछले दिनों, वह घाटियों की धुन्ध की तरह छायी हुई थी, उसके दिलो-दिमाग़ पर और उसके कुछ सूत्र सिद्धार्थ से भी जुड़े थे, इसलिए वह चाहता था कि सिद्धार्थ भी जान ले उस घटना को।
सैंडविच को कुतरते हुए कहा उसने, ''तू जानता है मेरे दोस्त अभिषेक को?''
''हाँ-हाँ, वही जिसने तेरे साथ ही स्कूल फाइनल किया था, क्या हुआ उसे?''
''उसे कुछ नहीं हुआ पर उसके छोटे भाई ने आत्महत्या कर ली।''
''अरे क्यों, वह तो बड़ा ब्रिलिएंट था, आई.आई.टी., कानपुर में था।''
इतने होनहार लड़के से आत्महत्या का सम्बन्ध जोड़ नहीं पा रहा था सिद्धार्थ।
''हाँ तो मैंने कहा था न तुम्हें कि ख़तरा कहाँ नहीं है। कहीं बाहरी तो कहीं भीतरी। अब ....वह तो आर.आर. पोस्टिंग में नहीं था, सबसे सुरक्षित जगह में था, कानपुर के आई.आई.टी. कैम्पस में पर अपना ही उत्पाती मन शत्रु बन बैठा, कर ली ख़ुदकुशी।''
''कुछ तो कारण ज़रूर रहा होगा। कोई प्रेम-व्रेम का चक्कर तो नहीं था।''
''नहीं यार, कारण तो नो डाउट था। क्रीमी लेयर था, सफलता का अभ्यस्त। इस कारण जीवन में पहली बार मिली असफलता के झटके को झेल नहीं पाया।''
रूमाल से मुँह पोंछते हुए बात ज़ारी रखी सन्दीप ने। ''कई बार भाई, मुझे लगता है कि आज के जीवन का जो पैटर्न है, कहीं गहरी गड़बड़ी उसी में है। आज लोग अतिरेक में जीते हैं। जीवन को युद्ध की तरह लेते हैं। पूरा दम लगा देते हैं, सफलता हासिल करने में, कैरियर बनाने में। अब देखो, जीवन में न कोई महापुरुष का आदर्श है, न प्रकृति है, न परिन्दे हैं, न संगीत है न खेलकूद है, न समाज सेवा है। बस ले देकर एक ही खिड़की है, कैरियर की। वह बन्द हुई कि ज़िन्दगी की गर्दन ही मरोड़ दी।''
सिद्धार्थ मरा जा रहा था, यह जानने को कि क्या हुआ था अभिषेक के भाई के साथ। भाई की बात को बीच में ही काटकर झल्लाया वह। ''भाई, अब दर्शन मत बघारो। मुझे बताओ क्यों की अनूप ने ख़ुदकुशी? सन्दीप को लगा, यही अवसर है कि वह समझाए सिद्धार्थ को क्या है जीवन, क्या हैं जीवन के अर्थ और क्यों ज़रूरी है कि इसे हर हालत में स्वीकार किया जाए, इसलिए उसे समझाते हुए कहने लगा वह।
''धैर्य रखो, भाई। मैं दर्शन नहीं बघार रहा, शायद तुमको समझाते-समझाते मैं स्वयं को भी समझा रहा हूँ कि क्यों व्यक्ति जीवन से इतना हताश हो जाए कि टुच्ची सफलता की ख़ातिर जीवन जैसी विराट और दुर्लभ नियामत को ही ख़त्म कर डाले। अब तुम यहीं देखो कि अनूप के अन्दर यदि जीवन की जड़ें गहरी होती तो क्या महज़ परीक्षा की असफलता उसे जीने के प्रति अविश्वास से भर देती? अरे भाई, वह तो अन्तिम वर्ष में था, वह सिर्फ़ एक विषय में अटक गया था। पिछले दो-तीन सिमेस्टर से वह उसी विषय में बराबर अटक रहा था। उसे पूरी उम्मीद थी कि उसे डिग्री मिल ही जाएगी, इसलिए उसने घरवालों को भी कुछ नहीं बताया। बल्कि घरवालों को आमन्त्रित भी कर डाला कन्वोकेशन में आने के लिए। उत्साहित उमंगित घरवाले आये। दिन भर वह उनके साथ रहा। शाम को सबको रेस्तराँ ले गया। उनसे कहा, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, मैं आता हूँ। घंटे-दो घंटे तक जब वह नहीं आया तो घरवाले उसके हॉस्टल भागे। वहाँ जब पहुँचे तो देखा वह झूल रहा था पंखे से। टेबिल पर था एक सुसाइड नोट जिस पर लिखे थे सिर्फ़ चार शब्द, 'आपका अयोग्य पुत्र, माफ़ी।' तो भाई, मेरा तो सिर्फ़ यही कहना है कि जीवन सफलता-असफलता से बहुत ऊपर की चीज़ है। उसे योगी की-सी निस्संगता से स्वीकार करना चाहिए। ख़ुद जब मैं नया-नया आया था आर्मी में तो यहाँ की कठोर दिनचर्या और ज़बरदस्त अनुशासन से घबराकर अकसर भाग जाने की सोचता पर तभी भीतर से एक आवाज़ आती कि मैं एक सैनिक हूँ और सैनिक कभी पीठ नहीं दिखाता, बस यही आवाज़ मुझे सम्बल देती रहती और मैं डटा रहता। उन दिनों मैंने अपनी टेबिल पर अब्राहिम लिंकन की तस्वीर चिपका रखी थी, जिसका इतिहास ही असफलताओं का इतिहास था। सत्त्तरह बार वह चुनाव हारा था, अठाहरवीं बार वह जीता... पर उसने आत्महत्या नहीं की। क्योंकि वह जीवन जीता था, सफलता नहीं।
लयताल में बहते दोनों भाई जमकर जीवन-जगत की, घर-परिवार की भावी योजनाओं की बातों में मशगूल थे कि फिर सुनाई देने लगी उन्हें अर्दली के आत्मालाप की आवाज़ें। दो दिनों तक अर्दली के साथ रहते-रहते सिद्धार्थ थोड़ा-बहुत अभ्यस्त हो गया था - उसके बड़बड़ाने का। लेकिन वह जानना चाहता था कि यह बड़बड़ाना क्या उसके किसी मानसिक रोग की उपज है या यूँ ही उसकी आदत? इसलिए भाई के तैयार होकर निकलने से पहले ही फिर पूछ डाला उसने। भाई, तुम्हारा यह अर्दली क्या नाम है उसका, हाँ मैथ्यू जार्ज, जब देखो, अपने आप ही बड़बड़ाता रहता है, जाने किस-किस को कोसता रहता है, इसे क्यों नहीं समझाते तुम जीवन के अर्थ?
खुलकर हँस पड़ा सन्दीप, एक मुद्दत बाद और तभी लगा उसे कि कितना ज़रूरी है उसके लिए इस प्रकार हँसना। कुछ देरत क वह मैथ्यू जार्ज को निहारता रहा, सहानुभूति के साथ, फिर एक लम्बी साँस खींचकर कहा उसने - ''क्या-क्या सुनोगे भाई, हरेक की ज़िन्दगी यातनाओं की एक लम्बी सुरंग, एक महागाथा है। यह जो जार्ज है न मेरे आने से पहले वह जिस मेज़र के घर में था, उसकी पत्नी उससे न सिर्फ़ सारे घरेलू काम करवाती, वरन अपने अन्तःवस्त्र तक उसे दे देती, जा धोकर ले आ। उसकी ब्रा और पैंटी धोते धोते बेचारा विक्षिप्त हो गया। और तो कुछ कर नहीं सकता था वह, इस कारण उसने मेज़र की पत्नी के लिए बाथरूम में अश्लील बातें लिखनी शुरू कर दी। मेज़र की पत्नी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, इस बेचारे पर अनुशासनात्मक कार्यवाही हो गयी, तब से विक्षिप्त सा हो गया है और जब-तब उसे कोसता रहता है। ध्यान से सुनो उसका बड़बड़ाना, एक नाम बार-बार आएगा कविता, वह उसी मेज़र की पत्नी का नाम है।''
एकाएक सिद्धार्थ ने भावुक होकर पूछा, ''भाई, सच-सच बताओ क्या तुम ख़ुश हो अपनी ज़िन्दगी से, फ़ौज की नौकरी से? पिछले 24 घंटों में मेरी तो नसें यहाँ इतनी फूल गयी हैं कि लगता है अब तड़कीं कि अब फटी? कैसे झेलते हो तुम इतना तनाव? इतनी मारक हैरानियाँ?'' सन्दीप ने पटरी बदलते हुए कहा, ''यार, जब से तू आया है, चारदीवारी में ही क़ैद है, इसलिए फट रही हैं तेरी नसें, चल तुम्हें घुमवाने की व्यवस्था करता हूँ और नहीं तो कम से कम नारायण नाग, डल झील और मुग़लबाग़ तो तुम देख ही लो।''
पांखुरी-पांखुरी खिल गया सिद्धार्थ।
''भाई हो तो ऐसा! वाह! बहुत अच्छा!''
सिद्धार्थ को भेजने की व्यवस्था कर अपनी यूनिट में पहुँचे मेज़र सन्दीप तो वहाँ की हवा ही बदली हुई थी। वह उत्तेजना, ख़ुशी, विजय और रोमांच से भरपूर एक शाम थी जिसे इतना स्मरणीय बनाया था अल्फा कम्पनी के कम्पनी कमांडर मेज़र भूपेश सिंह ने। हर यूनिट से आ रहे थे बधाई के सन्देश। राष्ट्रीय राइफल्स में यह अपनी तरह की इकलौती पहली घटना थी, जिसमें बिना किसी ऑपरेशन या मुठभेड़ या बन्दूक चलाए ही दुश्मन को ढेर कर दिया गया था और इस सुखद घटना को अंजाम दिया था मेज़र भूपेश सिंह ने अपनी अद्भुत सूझबूझ से।
क़िस्सा कोताह यूँ था।
इनसानी रिश्तों की आन्तरिक ताक़त और कमज़ोरी में विश्वास करने वाले मेज़र भूपेश सिंह अकसर एक आतंकी हसन राकी को मोबाइल पर फोन कर उससे संवाद किया करते थे। कई बार यूँ ही टाइम पास मार्का गप्प, बातचीत। दोनों जानते थे कि दोनों दोनों के ख़ून के प्यासे हैं, फिर भी ख़ाली समय में गपियाने से किसी को भी परहेज नहीं था।
दोनों दो अलग-अलग दुनियाओं के वाशिन्दे इसलिए दोनों से सावधान रहते हुए सतर्कतापूर्वक बातें करते रहते। यद्यपि बीच-बीच में हसन राकी का दिमाग़ उसे ख़बरदार, होशियार करता रहता पर वह सोचता कि हरामी हिन्दुस्तानी फ़ौजी क्या बिगाड़ लेगा मेरा। कौन जाने मैं ही उसका कुछ नुकसान कर पाऊँ। भूपेश सिंह सोचते, क्या हर्ज़ है बात करने में। कौन जाने इसी प्रकार बतियाते-बतियाते एक दिन वे उससे आत्मसमर्पण करवा लें और नहीं तो कम से कम उसे मानसिक रूप से तो तोड़ने का मौक़ा खोजते ही रहेंगे।
फिर इतने दिनों तक राष्ट्रीय राइफल्स में रहते-रहते मेज़र भूपेश सिंह मिलिटेंट की भीतरी दुनिया, उनकी केमिस्ट्री और उनके मनोविज्ञान को भी बहुत कुछ समझ गये थे। वे समझ गये थे कि कोई भी मिलिटेंट अपने साथी मिलिटेंट पर कभी भी सौ फ़ीसदी विश्वास नहीं करता। कब कौन बदल जाए? किस दबाव में आ जाए? सब कुछ एक अन्दाज़, कुहासा और धुन्ध में ही चलता रहता है, क्योंकि आर्मी की तरफ़ से आत्मसमर्पण ख़बरिया बनाने एवं मिलिटेंट के रूप में आम कश्मीरी को मिलिटेंट के गढ़ में खुफ़ियागिरी के लिए घुसाने की सारी कवायद भी साथ-साथ चलती रहती है।
बहरहाल, मेज़र भूपेश सिंह ने एक शाम यूँ ही टाइम पास फोन किया हसन राकी को। जनाब बाथरूम में थे। जैसे ही बजा मोबाइल, उसके मिलिटेंट दोस्त अहमद रशीद ने मोबाइल उठाया... जैसे ही नाम चमका, वह चौंक गया... हिन्दुस्तानी आर्मी के यहाँ से फोन! आदिम जिज्ञासा। दुश्मनों के यहाँ से फोन! उसने झट से लपक लिया... हैलो!
रेज़र शार्प बुद्धि वाले मेज़र भूपेश सिंह। जैसे ही हैलो गया कान में, समझ गये, आवाज़ बदली हुई है। आनन -फानन में बड़ी स्वाभाविकता से कहा, ''यार, कब मरवा रहे हो उसे?''
कान खड़े हो गये अहमद रशीद के। भक से जल उठी दिमाग़ की बती। दोस्त के पास फोन, वह भी आर्मी अफ़सर का और कह रहा है, यार कब मरवा रहे हो उसे। निश्चय ही हसन राकी मिल गया है आर्मी वालों से और उसे ही मरवाने की योजना बना रहा है। और इसीलिए बुलाया गया है उसे इतने आग्रह और मनुहार से।
आहत और आशंकित दोस्त ने पिस्तौल की नोक बाथरूम के दरवाज़े की ओर कर दी और जैसे ही बाहर निकला हसन राकी - ब्लडी बास्टर्ड। धाँय। धाँय।
हसन राकी छटपटाया। आँखों में अविश्वास, और आश्चर्य। आर्मी ने नहीं, अपने ही दोस्त ने मार डाला उसे। वह छटपटाया। फड़फड़ाया और मर गया।
हींग लगी न फटकरी और एक आतंकी ढेर। मेज़र भूपेश के साथ पूरी यूनिट बल्ले-बल्ले कर रही थी। बस एक मेज़र सन्दीप ही थे जो पूरी तरह इस ख़ुशी और उल्लास में डूब नहीं पा रहे थे, बस ऊपर ही ऊपर तैर रहे थे। यद्यपि कम्पनी कमांडर मेज़र भूपेश के लिए उन्हें ख़ुशी ज़रूर थी, पर जाने क्यों इस घटना के बाद से ही एक गहरी उदासी पीछा करती रही उनका। रह-रह कर विचारों की झील में कंकड़ फेंक वृत्त पैदा करती रही - कितना सस्ता जीवन! क्षणों की धारा पर उछलता, मात्र संयोगों पर जीता जीवन। यह तो मात्र संयोग ही था कि फोन हसन राकी नहीं उठा पाया। कई बार उनके और उनके साथियों के साथ यह हुआ कि वे मरते-मरते बचे, पर कब तक साथ देगा यह संयोग। यूनिट में शैम्पेन खुल रहे हैं, जश्न मन रहा है और मेज़र सन्दीप हैं कि ख़ुद से ही पूछ रहे हैं - माना यह घटना मेज़र भूपेश के प्रजेंस ऑफ माइंड की अद्भुत मिसाल है पर क्या यह छीजते मानवीय विश्वास और टूटते भरोसे की त्रासदी नहीं? विश्वास तोड़ने की एक हल्की-सी चेष्टा और सीधी मौत!
आर्मी के लिए यह भले ही उपलब्धि हो पर मानव सभ्यता के लिए क्या यह हादसा नहीं? दोस्त को कपट से दोस्त के हाथों मरवा डालना। पर पूरी यूनिट तो उस प्रकार नहीं सोचती जिस प्रकार वे सोच रहे हैं। पर पूरी यूनिट तो ग़लत हो नहीं सकती तो क्या वे ही ग़लत हैं अपने सोच में? या वे ही नहीं सोख पा रहे हैं आर्मी के सत्य को? आर्मी को।
विचारों की झील में गहरे उतर जाते हैं सन्दीप। मन की उदासी उतरती शाम की उदासी के साथ मिलकर और घनीभूत हो जाती है। जाने क्यों उन्हें लगने लगा है आजकल कि हिंसा की इस बाढ़ में वे शव की तरह बह जाएँगे। वे ही नहीं, पूरी मानवता। क्या इसीलिए कश्मीर की नदियाँ नहीं सूख रही? धूप नहीं पड़ रही काली?
जब जब होती है कोई वारदात, कई प्रश्न कीड़े की तरह रेंगने लगते हैं, उनकी देह के पोर -पोर में। विडम्बना यह कि किसी से खुलकर कुछ कह भी नहीं सकते। अपने वरिष्ठ अफ़सर के समक्ष तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि यहाँ सिर्फ़ ऑर्डर चलता है, बहस के लिए कोई गुंजाइश नहीं। हाँ, अपने इकलौते और आत्मीय मित्र मेज़र राठौर जब-तब सँभाल लेते हैं उन्हें। सुन लेते हैं उनकी। समझने की चेष्टा भी करते हैं उनके विचारों को। आज भी मेज़र राठौर ने ही झेला उनको। देख, तेरे साथ दिक़्क़त यह है कि तू सोचता बहुत है, और यहाँ आर्मी में बहुत अधिक सोचना न सिर्फ़ शिष्टाचार वरन अनुशासन के भी ख़िलाफ़ है।
हाँ, सोचा, इसीलिए तो आर्मी में चला आया, वरन पिता का व्यापार ही क्या कम था मेरे लिए उसने फिर सोचा पर प्रत्यक्षतः यही कहा, ''हाँ मैं विचारों और मूल्यों को अहमियत देता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि सभ्यता की इस सुदीर्घ यात्रा में इनसान ने जो सबसे बेशक़ीमती इकट्ठा किया है वे विचार और मूल्य ही हैं।
''तो फिर यह जान ले मेरे हीरो कि तेरे जैसे लोग जो बेहतर भारत और उच्चतर सभ्यता की स्थापना के लिए यहाँ घुसे हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। हमें यहाँ इसके लिए भेजा भी नहीं गया है। दूसरों का बोझ हम क्यों उठाएँ? सीधी-सी बात है, हमें यहाँ भेजा गया है मिलिटेंट का सफ़ाया करने के लिए और उसे हमें पूरी ईमानदारी से करना है। कैसे करना है, कपट से या धोखे से, नैतिकता से या अनैतिकता से, धर्म से या अधर्म से, यह सोचना हमारा काम नहीं है। हम कर भी क्या सकते हैं। हम तो सामूहिक भविष्य और नियति से बँधे हुए हैं। पूरे सिस्टम के नट और बोल्ट। आर्मी में सिस्टम महत्त्वपूर्ण है, व्यक्ति नहीं। बस सिस्टम चलता रहे।''
''तो इस जमीर नाम की चिड़िया का क्या करूँ मैं, जो हर वारदात के बाद अपनी नुकीली चोंच से लहूलुहान कर डालती है मुझे।''
दुखी होते हुए पूछा सन्दीप ने।
''देख मेरे भाई, तेरी यह पहली पोस्टिंग है न, इस कारण ज़मीर नाम का लबादा तेरे गुदगुदे शरीर से लटका है अभी तक। साल-डेढ़ साल बाद देखना, ये सब घटनाएँ तेरी ज़िन्दगी की रूटीन बन जाएँगी और तू इनका अभ्यस्त बन जाएगा। एक घटना बताता हूँ... मेरी पिछली पोस्टिंग सीमा के पास की चौकी पर थी। रात के अँधेरे में मैंने कोई आवाज़ सुनी, लगा सीमा पार से कोई घुस रहा है। हमने तीन बार वार्निंग दी। कहा, रुको। वह डर के मारे रुका नहीं। घुप्प अँधेरा। आतंकी समझ हमने उसे गोली मार दी। सुबह देखा, जिसे आतंकी समझ हमने मार डाला था, वह एक चोर था, ग़रीब चोर। उसकी गठरी में तीन-चार किलो चावल था जो उसकी थी पर लदी थी और जिसे वह सीमा पार ले जाकर ज़्यादा पैसों में बेचनेवाला था। मारे डर के वह कुछ नहीं बोला और हमारी बन्दूक बोल उठी। ऐसे ही एक बार हमने एक बच्चे को पकड़ा। ग़नीमत थी कि दिन का समय था - यदि रात का समय होता तो उसकी जान भी जा सकती थी। उस बच्चे के पास से निकला एक करोड़ का चरस, पर उसे पता नहीं था। उसे तो सिर्फ़ मिलने थे 100 रुपये, इस पार से उस पार जाने के। तो बाबू, सच कहूँ उस दिन उस ग़रीब चोर की लाश देख मैं भी रो दिया था। मन किया, भाग खड़ा होऊँ यहाँ से। पर भाग कर भी जाऊँ कहाँ। भगोड़ा घोषित कर दिया जाऊँगा और मान लो, मैं गोली नहीं चलाता और कोई आतंकी घुस आता तो फिर क्या वह हमें छोड़ता? तो मेरे दोस्त, यहाँ हम अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, व्यक्तित्व की नहीं और एक बात यद रखो, दुनिया भागने से नहीं, बदलती, बदलती है इसका सामना करने से।''
भीगे -भीगे शब्दों में जवाब देते हैं मेज़र सन्दीप मैं क्या करूँ, मैं अपने को यहाँ हर पल मिसफिट पाता हूँ। छोड़ना चाहूँ तो इसकी इजाज़त नहीं और रहना चाहूँ तो जिस पाशविकता की मुझसे उम्मीद की जाती हे, वह मुझमें है ही नहीं। जिस मानसिक पवित्रता और मिशन के साथ मैं यहाँ आया था, उसकी यहाँ कोई क़द्र ही नहीं, कद्र तो दूर की बात उसे कोई समझने तक को तैयार नहीं। और तो और मेरी छटपटाहट तक को खुलकर बोलने का मौक़ा नहीं। हर सीनियर अफ़सर पेपरवेट की तरह मेरी छटपटाहट के पन्ने को परिधि में बाँधने को तैनात है। दम घुटता है मेरा यहाँ।
सन्दीप का दुख भीतर से हिला देता है मेज़र राठौर को। पैर अनायास अतीत के तहख़ाने की ओर चल पड़ते हैं। सच क्या आज वे भी वह रह गये हैं जो फ़ौज ज्वाइन करने के पूर्व थे? भरे-भरे बादलों-सा भारी हो जाता है मन। बरसने को आकुल-व्याकुल। घूम जाती है आँखें पीछे...। मुलायम-मुलायम शब्दों में समझाते हैं सन्दीप को - देखो, तुम्हारे जैसे जाने कितने जवान और अफ़सर हैं फ़ौज में, जिन्होंने उतनी ही पवित्रता और संकल्प के साथ फ़ौज में दाख़िला लिया था और जो अन्तिम साँस तक बहादुरी के साथ, ख़ून के अन्तिम कतरे तक वीरता के साथ अपना काम करते रहे, पर आज देश में कोई उनका नामलेवा तक नहीं। वाक़या 18 नवम्बर 1962 का। उस दिन तापमान शून्य और माइनस पन्द्रह डिग्री के बीच घूम रहा था। मेज़र शैतान सिंह और उनकी तेरहवीं कुमाऊँ पलटन त्रिशूल पहाड़ियों की ओट में सत्त्तरह हज़ार आठ सौ फीट ऊँचे रज्टांगला दर्रे पर डटी हुई थी। ठंडी बर्फ़ीली हवाएँ चाबुक-सी बदन पर पड़ रही थीं और उस सुबह चार बजकर पैंतीस मिनट पर चीनी आक्रमण। तब हमारी जैकेटें भी आज की तरह कोल्डप्रूफ नहीं होती थी, बस कामचलाऊ होती थीं। और ठंड ऐसी मारक कि हाथ बाहर रह जाए तो सुन्न हो जाए। लेकिन जाँबाजी देखो हमारे जवानों कि आख़िरी साँस और आख़िरी गोली तक सब लड़ते रहे, कोई भी लौट कर नहीं आया। एक शहीद जवान के हाथ में हथगोला फँसा था, कइयों के हाथ ट्रिगर पर थे। यानी सब लड़ते-लड़ते शहीद हुए। पर एक भी फ़ौजी को हमने पहाड़ी पर कब्जा नहीं करने दिया।
हमारे एक सौ चौदह जाँबाज सैनिक शहीद हुए पर दुश्मनों के एक हज़ार शव मिले। पर किस पाठ्य पुस्तक में है हमारे इन जांबाज वीरों की कहानियाँ? देश ने शैतान सिंह को श्रद्धांजलि तक नहीं दी, जिसने त्रिशूल में जान दे दी पर देश का झंडा नहीं झुकने दिया। एक समय था जब मैं भी तुम्हारी तरह बहुत सोचता था, पर आज नहीं सोचता। क्यों सोचूँ। एक ज़माना था जब देश के लिए लड़ना और मरना सबसे अधिक आदरणीय माना जाता था। आज आलम यह है कि देश के लिए सैनिक भले ही अपनी जान तक दाँव पर लगा दे कर वेतन वृद्धि के लिए उन्हें भी आन्दोलन करना पड़ता है। वेतन आयोग तक कई बार सबको देता है पर सैनिकों को सूखा ही छोड़ देता है। इसीलिए तुम देखो अब नेशनल डिफेंस अकादेमी तक में सीटें ख़ाली ही पड़ी रहती है जबकि हमारे समय में एनडीए में चांस पाना बहुत मुश्किल था।
मेज़र राठौर कभी अपने प्रवाह में बहते तो कभी सन्दीप को बहाते चले जा रहे थे। बहुत इच्छा हुई सन्दीप की कि वह पूछे उनसे, कौन लगते ये मेज़र शैतान सिंह उनके? पिता? बड़े भाई? उसने सुन रखा था कि मेज़र राठौर का परिवार कई पीढ़ियों से अपने एक पुत्र को सेवा में भर्ती करवाता आ रहा था। पर मेज़र राठौर के आवेग को देख उसकी इच्छा नहीं हुई इस प्रवाह में व्यवधान पहुँचाने की।
अगली सुबह।
सिद्धार्थ को दिल्ली के लिए विमान पकड़ना था। सुबह दस बजे थे। सन्दीप ने प्राइवेट गाड़ी मँगवा ली थी, पर चलाचली की बेला में जाने क्या मन में आया कि वह भी साथ हो लिया। कौन जाने फिर कब मिलना हो, हो भी या न हो। जाने कैसे-कैसे भाव आने लगे मन में। पिछले तीन दिनों में ही जाने कितनी बार खोया और पाया था उसने भाई को।
गर्दन को झटका दिया उसने। तीन दिन के लिए यहाँ आकर सिद्धार्थ ने भाई के शान्त ठहरे पानी में मोह ममता के जाने कितने कंकड़ फेंक दिये थे। उसकी आँखें भर आयीं - कितना दुख देती है ज़िन्दगी।
गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने सिद्धार्थ की तरफ़ इशारा कर जिज्ञासा की मिसाइल फेंकी - ये कौन हैं मेज़र अजहर साहब?
सन्दीप ने फुर्ती से जवाब दिया - ये हमारे मकान मालिक हैं। अजमेर शरीफ़ में हम इन्हीं के वालिद के घर में किराये पर रहते हैं।
चिहुँक गया सिद्धार्थ - बेवजह ऐसे माहौल में फिर ख़तरा मोल लिया। अकेला भाई, बिना अंग रक्षकों के और वह भी प्राइवेट गाड़ी में। लेकिन चाहकर भी वह कुछ बोल नहीं पाया भाई को, कहीं ड्राइवर को सन्देह नहीं हो जाए। कहीं उसकी बोली से ड्राइवर को मेज़र सन्दीप के हिन्दू होने का शक न हो जाए। रास्ते भर सन्दीप ही बतियाता रहा। सिद्धार्थ गाड़ी की खिड़की से चीड़ और देवदारु को देखता रहा और भाई की बातों का हूँ हाँ में जवाब देता रहा।
श्रीनगर एयरपोर्ट पर आम हवाई अड्डे की तुलना में डबल चेकिंग होती है। पहली चेकिंग हवाई अड्डे में घुसने के भी पहले होती है। पहली चेकिंग के बाद ही तेज़ बारिश होने लगी थी। इस कारण सिद्धार्थ ने दूसरी चेकिंग के पहले ही भाई को ज़बरदस्ती लौटा दिया।
घुमावदार सड़कें। संवेदनशील इलाके। सन्नाटे और बारिश। निस्तब्ध सड़कें। कहीं फँस न जाएँ। आशंकित सन्दीप कभी देवदार के नीचे पड़े ढेरों पीले पत्तों को देखते तो कभी पहाड़ और बारिश से दिल बहलाने की कोशिश करते। कभी ख़ुद को आश्वस्त करते, सुबह का समय है कोई चिन्ता नहीं, तो कभी भाई के खयालों से खेलते, आगे बढ़ रहे थे कि एकाएक उनकी नज़र पड़ी - घने पेड़ के नीचे, काले बुर्के में लिपटी, तरबतर ठिठुरती एक काया। गाड़ी के पास आते ही, काले बुर्के ने लिफ्ट माँगी। ड्राइवर थोड़ा आगे बढ़ गया था, सन्दीप ने गाड़ी पीछे करने को कहा और काले बुर्केवाली को गाड़ी में बैठने दिया। युवती बुरी तरह काँप रही थी। उन्होंने ड्राइवर से हीटर जलाने को कहा। मन ही मन आश्वस्त हुए मेज़र सन्दीप, गाड़ी में बुर्केवाली की उपस्थिति। कम-से-कम संवेदनशील इलाक़ों में तो उन्हें बचा ही ले जाएगी।
क़रीब पाँच-छह किलामीटर आगे बढ़े होंगे वे कि बुर्के वाली ने गाड़ी रोकने का अनुरोध किया। ठिठुरती सँकुचाती वह उतर गयी। गाड़ी फिर बढ़ने लगी और अभी मुश्किल से एक किलोमीटर भी आगे नहीं बढ़े होंगे वे कि बी.एस.एफ. के जवानों ने उनकी गाड़ी रोक दी और कड़काते हुए गोली दागी - कहाँ है, तुम्हारा साथी पैसेंजर।
- कैसा साथी? कैसा पैसेंजर? अकबका गये सन्दीप।
- वही बुर्केवाली जो आपके साथ गाड़ी में थी।
भिंचे हुए जबड़े से कहाँ अफसर ने।
- अरे, वो साथी पैसेंजर नहीं थी, रास्ते में खड़ी कोई बेबस महिला थी, ठिठुर रही थी। बारिश से बचने के लिए उसने मुझसे लिफ्ट माँगी, मैंने दे दी।
अविश्वास से सन्दीप की ओर ताक़ते हुए बी.एस.एफ. वालों ने कहा
- आपको हमारे साथ हेड़ क्वार्टर चलना होगा। जिस महिला को आपने लिफ्ट दी, जानते हैं वह कौन थी? वह हरामजादी जे.के.एल.एफ. की एरिया कमांडर, खूँखार, मिलिटेंट नताशा थी।
- क्या? भरोसा एक बार फिर रेत की तरह बिखर गया।
जहे किस्मत। सन्दीप ने अपना आइडेंटिटी कार्ड दिखलाया तो बी.एस.एफ. का अफ़सर भी चौंक गया। खुदा का शुक्र है, साहब अच्छे का मुँह देखकर घर से निकले थे, यदि उस शैतानी की औलाद को पता चल जाता कि साथ में भारतीय फ़ौज का मेज़र बैठा है तो क्या छोड़ देती वह आपको?
उफ़। ज़िन्दगी भी क्या-क्या रंग दिखाती है। यह संयोग ही था कि युवती की उपस्थिति में ड्राइवर ने एक बार भी उसे मेज़र साहब कहकर नहीं पुकारा था, नहीं तो वे भी कल के अख़बारों के लिए एक ख़बर बन जाते। उन्होंने जीभ काटी, फिर भाई को याद किया जो यहाँ से जाने के बाद भी थोड़ा-थोड़ा उनके साथ लौट आया था कि आइन्दा सुरक्षा नियमों को तोड़ इस प्रकार आम आदमियों की तरह वे बाहर नहीं निकलेंगे।
बूशन कैम्प लौटे तो फिर सुखद समाचार मिला उन्हें, आज क़िस्मत सचमुच मेहरबान थी उन पर। पहले मरते-मरते बचे और अब पूरे पचीस दिनों के लिए घर जाने की छुट्टी। आनन -फानन में सन्दीप ने कई पैकेट अखरोट के खरीदे, माँ के लिए कीमती कश्मीरी शॉल खरीदा। दोस्तों के लिए चेरी के पैकेट्स लिए।
स्मृतियों के सहारे स्पन्दित होती यात्रा।
घर पहुँचने के पहले ही घर पहुँच गया सन्दीप।
कश्मीर पोस्टिंग के बाद पहली बार आ रहा है घर। उफ़! कितने मायूस थे शेखर बाबू जब पता चला कि बेटे की पोस्टिंग भारत के सबसे ख़तरनाक और संवेदनशील इलाक़े श्रीनगर के पास कहीं हुई है। गनीमत थी कि उन्हें नहीं पता था कि बेटे की राष्ट्रीय राइफल्स में पोस्टिंग हुई है, कि यहाँ हर फ़ौजी को गन उठाकर सिर पर कफ़न बाँधकर ऑपरेशन में हिस्सा लेना ही पड़ता है। सन्दीप ने जब उन्हें समझाया, मैं तो इंजीनियर हूँ, मुझे क्या ख़तरा... फिर चारों तरफ़ सिक्योरिटी। मैं वहाँ ज़्यादा सुरक्षित हूँ। भोला मन तब कहीं जाकर थोड़ा-बहुत आश्वस्त हो पाया था। पर कहीं सिद्धार्थ ने इस बीच कच्चा चिट्ठा न खोल दिया हो, आशंका ने फिर फन उठाया। पर क्या सिद्धार्थ करेगा ऐसी बेवकूफ़ी? काश, उन्होंने संकेत दे दिया होता सिद्धार्थ को। पर इतनी परेशानियों, मारक हैरानियों और व्यस्तताओं के बीच बीते थे वे दिन कि याद ही कहाँ रहा था उन्हें। उफ़! क्या करे वे भी! अकेली जान, कहाँ-कहाँ साधे सन्तुलन। किस-किस को सँभाले! बहरहाल स्मृतियों, ख़्यालों और खवाबों की लहरों पर डूबते उतराते पूरा हुआ सफ़र।