घर जैसा घर।
माँ लिपट गयी सन्दीप से। कितने दिनों बाद आया बेटा घर। टी.वी. और अखबारों की ख़बरों ने उसे भी कश्मीर पोस्टिंग के ख़तरों से अनभिज्ञ नहीं रहने दिया था।
ख़ुशी से थिरक रही थी माँ, पर जैसे ही नज़र पड़ी सन्दीप की गंजी होती खोपड़ी पर, मायूस हो गयी वह। यह क्या हुआ? चेहरा भी थोड़ा साँवला पड़ गया था। उफ़! फूलों से लदी स्वस्थ और कद्दावर शाख कैसे ढूँढ बनती जा रही है। कहाँ गयी वह हँसी, वे ठहाके। वह चुलबुलापन।
उन्हें लगा जैसे इस बीच सन्दीप एकाएक बहुत बड़ा हो गया है। भीतर हूक उठी बेटे के चेहरे की गम्भीरता देख। लगा, बेटा थोड़ा और दूर चला गया है माँ से। आँखें डबडबा गयीं। पर कहा उन्होंने कुछ नहीं। कुछ भी नहीं।
जतन से बनायी एक-एक चीज़ परोसी उन्होंने सन्दीप को। बूँदी का रायता, लहसुन की चटनी, मलाई-कोफ्ते की सब्ज़ी, मटर की कचौड़ी, गट्टे के पुलाव। भरे बादलों-सा आत्मीयता से भरा-भरा घर। भूल चुके थे सन्दीप ऐसी आत्मीयता, चैन और सुकुन का स्वाद फिर महसूस हुआ, कश्मीर पोस्टिंग ने किस प्रकार छीन ली थी उनसे जीवन की स्वाभाविकता, सुख, शान्ति और सुकून। सच, जीवन यही है। न अकेले चलने का ख़ौफ़, न क्रॉस फायरिंग का डर। न चौबीसों घंटों का चौकन्नापन। न बुलेटप्रूफ जैकेट और कैप का झंझट। एक लयताल में बहता जीवन। नदी की मद्धिम धार-सा। भीतर सब कुछ शान्त। एक हिलोर तक नहीं। मुद्दतों बाद नसीब हुई थी ऐसी मनस्थिति।
दो दिनों तक निरुद्देश्य घूमता-सा रहा, उन गलियों में, रास्तों में, बागों में, बाजारों में जहाँ बचपन के जाने कितने चित्र बिखरे पड़े थे। हर शै और हर शख़्स वैसा ही नज़र आ रहा था। पर अलीपुर, पार्क स्ट्रीट और थियेटर रोड वाले इलाक़े बदल रहे थे। जगह-जगह बनते फ्लाईओवर, चौड़ी होती सड़कें। सफा होती झुग्गी-झोपड़ियाँ। उसे ताज्जुब हुआ, हाथ रिक्शेवाले ज्यों के त्यों थे। कब से सुन रहा था वह कि कोलकाता से हटा दिए जाएँगे हाथ रिक्शेवाले। फिर एक बार गया वह कोलकाता की प्रसिद्ध साइन्स सिटी। इस बीच और विस्तार हो गया था उसका। अँधेरी अंडरग्राउंड गुफ़ा में नौका से सवारी करते हुए बहुत आनन्द आया था उसे... कहीं डायनासोर तो कहीं सभ्यता के आदिम चरण में रहता आदिमानव।
एक शाम अच्छे मूड में देख फिर घेरा माँ ने सन्दीप को। बेटा, अब कुछ अपनी भी सुध ले, कुछ मेरी भी सोच। तेरे पीछे सिद्धार्थ भी बड़ा हो रहा है। उसके भी रिश्ते आ रहे हैं, पर तू हाँ करें तो उसके लिए भी देखना शुरू कर दूँ।
बात को टालते हुए कहा सन्दीप ने - माँ, कौन देगा अपनी लड़की हम फ़ौजियों को। मेरी चिन्ता छोड़ तू सिद्धार्थ की सोच।
माँ के सीने पर जैसे किसी ने मुक्का मार दिया। ऐसा क्यों कहा इसने? कितना नाज़ है उसे अपने इस बेटे पर। माना सिद्धार्थ की मोटी तनख़्वाह और रुतबे के सामने कहीं नहीं टिकता सन्दीप, पर पता नहीं क्यों उसे हमेशा लगता है कि उसका असली अंश सन्दीप है, सिद्धार्थ पर ज़माने और रुतबा का रंग ख़ूब गाढ़ा चढ़ चुका है, जबकि सन्दीप आज भी वैसा ही है, खाँटी -सोना, चौबीस कैरेट सोना। भीतर बाहर एक जैसा
पास ही बैठे शेखर बाबू दिन भर का रोकड़ा मिला रहे थे। सन्दीप की बात सुनी तो लगा मौक़ा हाथ लग गया है, झट से उसे लपकते हुए कहने लगे - जब तू ख़ुद समझता है कि फ़ौज की नौकरीवालों को लड़कियाँ आसानी से नहीं मिलती है तो भी किस सुख से चिपका हुआ है तू फ़ौज से। गिनी-चुनी तनख़्वाह। न ढंग का जीवन। न ढंग की सुख-सुविधा। देख, सिद्धार्थ को, दिन भर उड़ता रहता है, पाँव ही नहीं पड़ते ज़मीन पर। दोनों हाथों लड्डू हैं। सन्दीप ने कहना चाहा - पापा, ईश्वर साफ़ हाथों को देखता है, भरे हुए हाथों को नहीं, पर चुप मार गया। शेखर बाबू कहीं यह न समझ लें कि सिद्धार्थ की बढ़ोत्तरी उसे सुहाती नहीं।
उसे चुप देख शेखर बाबू का हौसला फिर बुलन्द हुआ। कहना जारी रखा, बारह वर्ष हो गए फ़ौज में गये। अठारह साल का गया था, बत्तीस का हो गया, अब तो मन की भी निकल गयी। क्यों नहीं निकल जाता फ़ौज से। आख़िर इतने वर्षों की चाकरी के बाद भी क्या दे रही है फ़ौज - ख़ून, हिंसा, हर पल का तनाव, ख़ौफ़ और दहशत। बोलते-बोलते खाँसी का इतना जबरदस्त दौरा पड़ा उन्हें कि आगे की बात उसी में गुम हो गयी।
संजीदा सन्दीप। ध्यान से देखा पिता को एक बार फिर। पिछले कई वर्षों में पिता पर उम्र का असर साफ़ दिखाई देने लगा था। पिता की पहले वाली कड़क जाने कहाँ बिला गयी थी। बढ़े चश्मे के पॉवर, तेज़ी से सफ़ेद होते बाल, हाथों की फूलती नसों और हाँफते दम के चलते वे किसी ध्वस्त खँडहर की तरह नज़र आ रहे थे। पिता को फिर समझाने की कोशिश की सन्दीप ने - अपने-अपने सोचने का ढंग है पापा। फ़ौज के चलते ही मैं जीवन को उसके पूरे विस्तार और विभिन्न आयामों में देख पाया हूँ। कश्मीर पोस्टिंग के दौरान मैंने जाना कि हिन्दुस्तानी होना क्या होता है तो राँची पोस्टिंग के दौरान मैंने जाना कि एक मैदानी के लिए आदिवासी होना क्या होता है। कि किन हालातों में वे गन उठाते हैं और बनते हैं माओवादी। पापा, मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि पृथ्वी से आप भूख मिटा दीजिए, सबको उनके हिस्से के श्रम का प्रतिफल दे दीजिए, तो न कश्मीर में आतंकवाद पनपेगा और न झाड़खंड, उड़िसा और आन्ध्र प्रदेश में माओवाद। मऊ में मेरा समन्दर एक आदिवासी था लालदेव असुर। मैंने पूछा, उससे तू आर्मी में क्यों आया। उसने कहा कि मैं आर्मी में इसलिए आया कि अपने गाँव के हरेक घर से हरेक युवक को सेना में भरती करवा सकूँ। मैंने पूछा - क्यों? जानते हैं उसने क्या जवाब दिया? उसने कहा, इसलिए कि हम अपनी शक्ति बढ़ा सकें और अपने जल और जंगल वापस पा सकें क्योंकि आज हमारे ही जंगल में हम ही पेड़ की जड़ें चूसकर और पत्तों को उबाल कर खा रहे हैं। हमारा ही घड़ा और हम ही प्यासे। सोचिए पापा, कितनी बड़ी बात कह डाली उसने। सोचिए पापा, कितना अल्युमिनियम और बॉक्साइट उस धरती के नीचे से निकलता है, जिसकी रखवाली वे आदिम काल से कर रहे हैं। पर उनके घरों में हैं मिट्टी के बर्तन। इतना अभाव, इतना हाहाकार है वहाँ।
पापा, आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि किन हालात में वे आगे बढ़ते हैं। मेरा दोस्त स्कूल में छुट्टियों में भी अपने घर नहीं जाता था। इस डर से कि कहीं खुले दरवाज़ों से आकर गाय उसकी किताबें और कॉपियाँ न खा जाए। उसके लिए दाल और सब्ज़ी भी विलासिता थी। अपने गाँव में वह सिर्फ़ साग के उबले पत्तों के साथ भात खाया करता था। मऊ आने से पूर्व तक उसने कोई मन्दिर तक नहीं देखा था। मिठाई तक नहीं चखी थी। दही तक नहीं खाया था। हाँ, चाय ज़रूर छह सात महीने में एकाध बार पी लेता था।
आप सोच सकते हैं पापा कि मऊ आने से पहले न वह साबुन से नहाता था और न टूथ-पेस्ट करता था। और तो और, पापा, लालदेव जब सुन्दरी गाँव में था तो उसके गाँव में बत्ती तक नहीं थी। उसके लिए सूर्यास्त का मतलब था, रात। यहाँ मथुरा में आकर उसने बत्ती देखी। बत्ती देखते ही उसे नींद आने लगती थी। एक बार मैंने शाम पड़ते ही बत्ती जला दी तो वह सोने चला गया। ऐसा था वह। इतने नारकीय जीवन के बावज़ूद भी जब उसकी माँ ने सुना कि वह सेना में भर्ती होने जा रहा है, तो वह रोने लगी। उसकी माँ ने अपने गाँव सुन्दरी के अलावा सिर्फ़ पाकिस्तान और विलायत का नाम सुना था। वह समझी कि उसका बेटा पाकिस्तान चला जाएगा। उसकी माँ ने उसको रोकने के लिए कई जादू-टोने चलाए। ओझा-गुनी को बुलवाकर जादू-टोना करवाया और उसके लिए अपने सारी संचित पूँजी, जो भी थी उसके पास, बर्तन-भांडे और धान वगैरह, सब उसे दे डाले। अतीत में डूबा सन्दीप संजीदा हो कहने लगा - पापा, लालदेव के काका को कोई बिचौलिया भट्टी से ईंट निकालने के काम के लिए भूटान ले गया था गाँव के कई दूसरे आदिवासियों के साथ। उसके काका आने के बाद भी नहीं बता पाए कि वे कितने साल रहे वहाँ और कितना वेतन उन्हें मिलता रहा वहाँ। जो कुछ भी एक मुश्त राशि बिचौलिया दे देता वे ख़ुश होकर ले लेते। राँची पोस्टिंग के दौरान मैंने आदिवासियों की जो अँधेरी दुनिया देखी, बिना आँखों से देखे उस पर विश्वास करना नामुमकिन था। मानव द्वारा मानव के शोषण और जीवन के अन्तहीन संघर्ष को मैंने वहीं समझा। आर्मी में आने से पहले लालदेव जब लकड़ी बेचने के लिए बिशुनपुर या बनाली जाता तो होटल वाला औने-पौने दाम में सारी लकड़ियाँ ले लेता और आते वक़्त उसे चाय पिला देता। वह ख़ुश हो जाता।
उत्साहित हो हो कहने लगा सन्दीप, ''पापा, लालदेव तो हर दिन कहता है कि मेरे मनुष्य होने की शुरुआत ही फ़ौज से हुई।''
''और तुम क्या कहते हो?" व्यंग्य से पिनपिनाए शेखर बाबू।
शेखर बाबू के व्यंग्य को नज़रअन्दाज करते हुए अपनी रौ में बहते सन्दीप कहने लगा, ''पापा, फ़ौज में नहीं जाता तो मैं भी शायद ही समझ पाता मनुष्य और ज़िन्दगी को। जीवन और संघर्ष की रिश्तेदारी को। मेरी सामाजिक चेतना का बपतिस्मा वहीं हुआ, पापा। लालदेव के जरिये पहली बार मैंने झाँका आदिवासी की दुनिया में। हमारी मैदानी सभ्यता से कितनी अलग कठोर और संघर्षपूर्ण है उनकी पहाड़ी सभ्यता, जहाँ एक घड़े मीठे पानी के लिए उसकी माँ को हर दिन नीचे उतरकर पाँच-छह कोस पैदल चलना पड़ता है। पापा, लालदेव से मिलकर मैंने क़सम खायी कि मैं आइन्दा से जल की एक बूँद भी नष्ट नहीं करूँगा। पहले नहाने से पहले मैं नल को खुला छोड़, बाल्टी लगा कर चला जाता था। जाने कितना पानी बह जाता था। फिर काम सलटा कर मैं आता, नल बन्द करता और फिर नहाता। पहाड़ों पर मैंने देखा, वहाँ बिना ज़रूरत लोग हाथ भी नहीं धोते हैं कि पानी बर्बाद होगा। पापा, हम लोग सोचते हैं कि वे असभ्य हें, जाहिल हैं, गँवार हैं, सभ्यता से कोसों दूर हैं। पर सचाई ये है पापा कि वहीं रहकर हमने जाना कि गाँव कमाता और शहर खाता है कि हम उनके कितने ऋणी हैं। मैं नहीं जानता था कि देश के स्वाधीनता संग्राम की लौ भी सबसे पहले उन्हीं इलाकों में जली थी। एक दिन लालदेव कपड़े सुखाते हुए एक गाना गा रहा था,
'हो हरि गाँधी बाबा, हरे गुलितेम रू लेना।
सिन्धु कान्धु , बुद्धु जतरा, बिरसा भगवान, शहीद लेना गाँधी बाबा।
हरे गुलितेम रू लेना गाँधी बाबा।
इतने मीठे स्वर में और इतनी तड़प के साथ गा रहा था वह कि मैं अपने काम में मन नहीं लगा सका। अपनी पूरी चेतना के साथ मैं सुनने लगा उसके गाने को। मन्त्रमुग्ध हो मैंने पूछा, इस गाने का मतलब क्या है? इसका मतलब सुन मैं चौंक गया। इस गाने का मतलब था कि जंगलों में रहनेवाला एक आदिवासी गांधी बाबा से अनुरोध कर रहा है कि आपकी शहादत के पूर्व भी इस इलाक़े में कई शूरवीर, सिन्धु कान्हू, बुद्धू, जतरा और बिरसा मुंडा आदि शहीद हो चुके हैं, तो हे गाँधी बाबा, उनकी शहादत को भी याद कर तुम कभी रो लेना। पापा, इस गीत की कड़ी ने जैसे मेरी चेतना को जगा दिया और फिर मैं डूब गया यहाँ के इतिहास में और पहली बार मैंने जाना कि इतिहास भी कितना अन्याय करता है कि गांधी की शहादत के पूर्व भी इस देश में सिन्धु, कांहा जतरा और बिरसा जैसे आकाशदीप जन्म ले चुके हैं जिनके साथ इतिहास ने न्याय नहीं किया। पापा, फिर तो अलीबाबा के दबे खजाने की तरह मैं लग गया उस खँडहर में दबे जनजातियों के इतिहास और उनकी सांस्कृतिक विरासत को जानने में। ताज्जुब पापा, मैंने जाना कि सभ्यता की विकास यात्रा के शुरुआती बिन्दु ये ही इलाक़े थे जो आज सबसे अधिक अँधेरे में हैं। कैसे हुआ यह कायाकल्प? कैसे बही उलटी-गंगा? जहाँ सबसे अधिक जगमगाहट होनी चाहिए थी, वहीं इतना सघन अँधेरा?
सन्दीप की बातों ने फिर विचलित कर दिया शेखर बाबू को। जब-जब वे उससे लम्बा और सार्थक संवाद करते, उन्हें लगता उसके व्यक्तित्व की नयी परत खुल रही है। अपने इस पुत्र को आज तक समझ नहीं पाये थे वे। माना आदिवासियों के साथ अन्याय हुआ, माना एक उच्च और समृद्ध विरासत एवं संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं वे। पर इससे उन्हें क्या? सन्दीप को क्या? दुनिया में हर कहीं अँधेरा बिखरा हुआ है। कहाँ-कहाँ दीप जलाएगा वह? जला भी पाएगा? तीस का हो गया, सिर पर टाँक निकल आयी है, शादी का बाज़ार दिन पर दिन गिर रहा है, पर इसकी कोई चिन्ता नहीं इसे, यह भी नहीं सोचता कि इसके पीछे सिद्धार्थ भी अटका हुआ है। इस उम्र में उनके दोनों लड़के स्कूल जाने लगे थे। क्या करें? कैसे घेरे इसको? देखते-देखते छुट्टियाँ निकल जाएगी और कोई सार्थक संवाद तक नहीं बन पाएगा।
रात।
खाने की टेबल सबसे सही जगह होती है, आत्मीय संवाद के लिए। विवादास्पद संवाद के लिए भी। उस चमकीली शाम भी माहौल ख़ुशनुमा था। अगरबत्ती की सुगन्ध-सा गमकता हुआ। सच्चा सुख परिवार से... कुछ ऐसा ही सोच रहा था सन्दीप कि पूरी तैयारी के साथ घेरा शेखर बाबू ने सन्दीप को।
''जयपुर वालों का कई बार फोन आ चुका है, कब चलना है?''
सन्दीप भौंचक्क। पापा को भी बैठे ठाले जाने किन-किन की याद आने लगती है। वह बौखलाया।
''कौन जयपुर वाले?''
''अरे वे ही बसन्त बाबू। उन्हीं की लड़की है, नीलिमा। सुन्दर है। बी.ए. तक पढ़ी हुई है। सब बातें हो गयी हैं, बस तुम एक बार मिल लो उससे। यह रही तस्वीर उसकी।''
तस्वीर शब्द में ही जाने क्या आकर्षण छिपा था कि शादी के विरुद्ध होते हुए भी तस्वीर देखने से स्वयं को रोक नहीं सका सन्दीप।
टेढ़ी कानी आँखों से देखी तस्वीर तो लगा जयपुर की किसी गौरी को नहीं, वरन किसी सिने तारिका या किसी कास्मेटिक की मॉडल को देख रहा है। ताजा खिला सूरजमुखी-सा चेहरा, धुले रेशम-से बाल, चॉकलेटी होंठ। ऊपर टॉप। चेहरे का पूरा क्लोज़अप बेहद आकर्षक। खयालों में घूम गया, कैप्टन अनुज। ऑपरेशन शौर्य में जाने से पहले जिसने अपनी मँगनी की अँगूठी कर्नल सक्सेना के पास रखवा दी थी - मैं नहीं चाहता कि इस पाक अँगूठी पर ख़ून के धब्बे पड़े। अँगूठी धरी रह गयी, पर वह नहीं लौटा। बाट जोहती रह गयी, मँगेतर। क्या वह भी ऐसी ही कोई अँगूठी छोड़कर चला जाए उस पार। नहीं, जहाँ हर दिन, हर पल मौत से भिड़न्त हो, जहाँ बचा रह जाना महज़ एक संयोग हो, वहाँ शादी के लिए सोचना भी बेमानी है।
''कैसी लगी तस्वीर? माँ ने देखा, बेटा बड़े गौर से तस्वीर देख रहा है तो हुलस-हुलस कर पूछने लगी।''
सन्दीप ने तस्वीर को आहिस्ता से परे सरकाया और माँ को देखने लगा, ग़ौर से। कितनी बदल गयी थी माँ इन दिनों! आधे से अधिक बाल सफ़ेद हो गये थे। सामने के दो-दो दाँत गिर गये थे, जिन्हें माँ ने अभी तक बँधवाया भी नहीं था। क्या खाने में तकलीफ़ नहीं होती होगी माँ को? हाँ, नहीं बदली थी तो माँ के चौड़े ललाट पर दमकती लाल बिन्दी। आज भी उतनी ही सुर्ख, उतनी ही बड़ी। भीतर फिर ग्लानि की लहर उठी - दो-दो बेटे अफ़सर, पर किसी को इतनी भी फ़िक्र नहीं कि माँ के आगे के दाँत बँधवा दे। लाड़ से पगी आवाज़ में कहा उसने, चलो माँ, आज जाकर पहले तुम्हारे दाँत बँधवा लेते हैं। बेटे की शादी में ऐसे मुँह से कैसे जाओगी? माँ निहाल। बनावटी रोष से बोली, ''बात मत टालो, हाँ तो बोल दूँ उनको कि हम आ रहे हैं।''
''क्या?'' माँ के अति उत्साह ने गम्भीर कर दिया सन्दीप को। धीमे से कहा उसने, ''देखो माँ, तुम्हारी अधीरता-व्याकुलता समझ सकता हूँ मैं, पर तू भी मुझे समझने की कोशिश कर। अभी मैं ख़ुद अपनी ज़िन्दगी से बाहर हूँ, ऐसे में किसी को अपनी ज़िन्दगी में शामिल करने की सोच भी कैसे सकता हूँ। कश्मीर पोस्टिंग तक शादी का सवाल ही नहीं उठता।''
''बेटा, साल भर निकल गया, देखते-देखते डेढ़ साल और निकल जाएगा, फिर तो अगले छह वर्षों तक पीस पोस्टिंग ही होनी है, बस सगाई करके रख लेते हैं, तू नहीं चाहता तो शादी डेढ़ साल बाद कर ली जाएगी। वसन्तू बाबू तो यही चाहते हैं कि बात पक्की कर ली जाए। फिर यह तो सोच कि तेरे पीछे सिद्धार्थ भी अटक रहा है।''
सन्दीप को फिर मौक़ा मिल गया। माँ को समझाते हुए बोला, ''माँ, मेरी मानो तो तुम पहले सिद्धार्थ की कर दो। मैं बाद में इत्मीनान से कर लूँगा।''
यद्यपि सन्दीप ने अपनी बातें, अपना तर्क बड़े साधारण और सामान्य ढंग से ही रखा था, पर इसमें इतना ज़बरदस्त और इतना नकारात्मक भाव छिपा था कि माँ को लगा जैसे घर की छत आकर उस पर गिर गयी है। कैसा है यह लड़का! समझता क्यों नहीं कि यह आर्मी नहीं कि उम्र बढ़ने के साथ प्रमोशन और रुतबा बढ़ता जाए। यह शादी का बाज़ार है जहाँ एक उम्र के बाद हर आनेवाले दिन घटता जाता है बाज़ार भाव। कैसे समझाये बेटे को। कल जब नहाकर निकला था बेटा तो पीछे निकली गंज को देख कलेजा मुँह को आ गया था उसका। कहीं झड़ते बाल लूट न ले मज़ा ज़िन्दगी का। उसे तो यह भी आशंका कि कहीं बसन्त बाबू की बेटी मना न कर दे उसे। एक तो फ़ौजी फिर थोड़ी बढ़ी उम्र और उस पर तेज़ी से झड़ते बाल। हे भगवान, जाने क्या-क्या देखना लिखा है उसके भाग्य में। उसकी उम्र की कभी की दादी बन चुकी हैं और उसका घोंसला अभी तक ख़ाली है। अपनी जेठानी की बहू से सुन रखा था उसने कि पच्चीस-छब्बीस की उम्र के बाद डिलीवरी में बड़ी समस्याएँ आती हैं। पहली डिलीवरी छब्बीस-सत्ताईस तक अवश्य हो जानी चाहिए। पर कैसे समझाए वह बेटे को कि वह सिर्फ़ शादी को लेकर ही चिन्तित नहीं है। शादी तो महज़ एक दरवाज़ा है, आगे के संसार में प्रवेश करने के लिए।
माँ की आँखों में फिर अँधेरा उग आया। कैसे पार पाए इस समस्या से। सन्दीप के भीतर भी कील ठुकने लगी, कैसे समझाए माँ को।
सब अपने-अपने द्वीप में तैरने लगे। पागल जिप्सी की तरह भटकता मन फिर अतीत में डूबने लगा।
आसमान में तैरते बादलों की तरह जाने किससे सुनी एक घटना सन्दीप के दिमाग़ में तैरने लगी। आज भी याद है वह आवेग, वह थरथराहट, वह कंपन, वे उच्छ्वास, वह दुख जो उसने उस घटना को सुनते वक़्त महसूस किया था और तब एक बार फिर उसने जाना कि तमाम उपलब्धियों और प्रगतियों के बावजूद अन्ततः मनुष्य क्या है और कितना कठिन है, मनुष्य बने रहना।
घटना इस प्रकार थी।
दो पक्के दोस्त थे। बचपन के साथी। दोनों की दोस्ती उतनी ही वास्तविक थी जितनी समुद्र की हवाएँ और लहरों के थपेड़े। दोनों ही एक ही गाँव के। एक फ़ौजी बना तो दूसरा भी उसी के नक्शे क़दम पर। पहले दोस्त लांसनायक राजेन्द्र नेगी की एकाएक शादी तय हो गयी। जब-जब वह मिलता अपने दोस्त सुमन केसरी से, अपने वैवाहिक जीवन के अनुभवों को उसे चटकारे ले लेकर सुनाता। पहले स्पर्श के अनुभव, सुहाग सेज के तूफ़ानी अनुभव। स्त्री-संसर्ग का अद्भुत सुख। राजेन्द्र चाहता था कि सुमन भी फटाफट शादी कर ले जिससे उनकी दोस्ती का रंग उनकी पत्नियों तक फैल जाए। उसने सुमन के लिए इधर-उधर कई जगह रिश्तों की बात भी चलाई कि तभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का युद्ध छिड़ गया। दोनों को एकाएक राजस्थान बोर्डर पर जाने का ऑर्डर मिला। पोस्टिंग पर जाने के ठीक एक दिन पहले सुमन ने अपने दिल का गूढ़ रहस्य अपने परम मित्र राजेन्द्र के सामने खोला। ''दोस्त, मैं नहीं जानता कि इस युद्ध से मैं जीवित लौट पाऊँगा या नहीं, पर जाने से पूर्व अपना एक राज मैं तुम्हें बता देना चाहता हूँ और वह राज यह है कि मेरे भीतर लपटें उठ रही हैं। बेहद जतन और तीव्रता से पाली इच्छा के एक टुकड़े को पूरा कर लेना चाहता हूँ मैं। मैं एक बार ज़िन्दगी के उस विरल, अद्भुत और परम शक्तिशाली अनुभव से गुज़र जाना चाहता हूँ, जिसका शब्दिक आस्वादन हर दिन कराते रहे हो तुम मुझे। दोस्त, तुम्हीं ने मुझे कहा था कि युवा स्त्री की देह देह नहीं, बिजली होती है, बारूद से भरी बोरी होती है, छूओ तो करंट मारती है। तो मेरे परम मित्र, देश के लिए शहीद होने के पूर्व मैं अपनी इस आख़िरी इच्छा का क्या करूँ, तुम्हीं बताओ! कहाँ जाऊँ? कहाँ डुबोऊँ। कामना की इस ज्वाला को। नारी संसर्ग की इस चाह को?''
जैसे बिजली गिर गयी हो दोस्त पर। काटो तो ख़ून नहीं। अनजाने ही कैसी भयानक भूल कर बैठा वह। आजतक अपना सबकुछ उसने अपने दोस्त के साथ शेयर किया था, पर क्या पत्नी भी? उफ़! पाकिस्तान के साथ युद्ध से भी भयंकर है यह युद्ध अपने आप से। क्या करे वह? कैसे करे युद्ध में जाने के पूर्व अपने दोस्त की इस आख़िरी इच्छा की पूर्ति? क्या कर दे पत्नी उसके हवाले? शायद विधाता भी मुँह छिपा रहे होंगे इन सवालों के जवाब देते हुए। क्या दुनिया का कोई मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर जवाब दे सकता है कि वह मौत के मुँह में जानेवाले अपने दोस्त की यह तीव्र इच्छा कैसे पूरी करे? जवाब दें वे इस सवाल का? और यदि वे जवाब नहीं दे सकते तो क्यों उठाते हैं सवाल नैतिकता और अनैतिकता के?
पहली बार दिमाग़ में एक प्रश्न कीड़े की तरह कुलबुलाया था सन्दीप के भीतर - जीवन बड़ा या नैतिकता? अस्तित्व बड़ा कि व्यक्तित्व? और सन्दीप को लग रहा है कि आज तक भी वह इन्हीं प्रश्नों से जूझ रहा है।
एक गहरी उच्छवास उसके भीतर से निकली - ओह गॉड! ओह लाइफ़! और आँखे मूँद अपने ही भीतर के समुद्र में जाने कब तक तैरता रहा था वह।
माँ ने फिर कुरेदा, ''देखो बेटा, इस लड़की को मत ठुकराओ।" फिर जैसे हृदय की सारी वेदना उँड़ेलते हुए कहा उससे - "अब बड़ी लड़कियाँ मिलनी भी बन्द हो गयी हैं। चौबीस-पचीस तक आते-आते सब ठिकाने लग जाती हैं।''
''उफ़! अब बस भी करो। झल्ला गया वह माँ पर, इतने ज़ोर से भरपूर हाथ से मारा उसने खाने की टेबिल पर कि माँ सहम गयी। माँ के शब्द खंजर की तरह गड़ते रहे देर रात तक। बाद में बहुत रात तक ख़ुद से ही पूछता रहा था वह कि वह झल्लाया किस पर था, माँ पर कि ख़ुद पर कि ख़ुद की इस अनिश्चित जीवन शैली पर।''
उसे लगा कि कश्मीर पोस्टिंग बड़ी सूक्ष्मता से मार रही है उसे, उसके व्यक्तित्व को, उसके स्वभाव को।
रात !
एक बेचैनी भरी रात रही। सारी रात अँधेरा, बिस्तर और चादर की सिलवटों में दुबक रहा वह। सारी रात विचित्र-विचित्र स्वप्न पीछा करते रहे उसका।
उसने देखा, उसके सारे बाल झड़ गये हैं। वह गंजा हो गया है। एकदम खल्वाट उजड़ा चमन। उसने देखा कि परिवार के साथ जब लड़की देखने के लिए गया वह तो उसे देखते ही सब हँस पड़े, पीछे से सुना उसने, कोई कह रहा था, क्या लड़का दूजवर है?
ओह! नो! घबराहट में नींद में ही उसने अपनी खोपड़ी पर हाथ फेरा। कैसा सपना! यह पहली बार हुआ कि इस बार घर आकर भी नींद उस पर उतनी मेहरबान नहीं रही। आधी रात में ही उठकर उसने खोपड़ी के पीछेवाले हिस्से पर दर्पण लगाकर देखा, ड्रेसिंग टेबिल के दर्पण ने भी मुँह चिढ़ाया। खोपड़ी के पीछेवाला खल्वाट साफ़ चमक रहा था। गोल-गोल वर्तुलाकर हिस्सा, क़रीब दो इंच रेडियस का। सच ही चिन्ता करती है उसकी माँ। इसीलिए विवाह उसी उम्र में कर दिया जाता है, जब शारीरिक सौन्दर्य पराकाष्ठा पर हो। लेकिन यदि उसके बाल झड़ रहे हैं तो इसमें उसका क्या दोष। आर्मी के डॉक्टर डॉ. विक्रमकुटी ने उससे साफ़ कहा था - क्या बताएँ आज के युवा जीवन से ज़्यादा जीवन स्टाइल को अहमियत देते हैं। इसलिए जीवन के तनाव और तेज़ गति की आधुनिक जीवन शैली के चलते युवा युवावस्था में ही न सिर्फ़ गंजेपन वरन नपुंसकता के भी शिकार हो रहे हैं।
सुबह ही सुबह चौड़ी मुस्कान के साथ शेखर बाबू हाज़िर हुए उसके कमरे में।
''उठो, एयरपोर्ट चलना है।''
''एयरपोर्ट! पर अभी! क्यों? आँखें मलते-मलते झल्लाया सन्दीप।
चेहरे पर जैसे अबीर पुत गया। वे चहके - सिद्धार्थ आ रहा है।
''सिद्धार्थ! यूँ अचानक!''
''न,हीं अचानक नहीं। चार सप्ताह के लिए उसकी फॉरेन पोस्टिंग हुई है जापान में। इसलिए वह कोलकाता होकर जाएगा। पाँच-छह घंटे घर पर ठहरेगा और वापस रात की फ्लाईट से उड़नछू।''
गदगद हो बताने लगे शेखर बाबू। फिर एक मौक़ा लगा था हाथ में, सन्दीप को फ़ौज से विरक्त करने का इसलिए फिर छोड़ी एक हलकी-सी मिसाइल। देखो, इन तीन-चार सालों में ही कितनी तरक्की कर ली है सिद्धार्थ ने।
''हाँ, पापा, इतनी तरक्की तो कर ही ली है आपके लाड़ले ने कि कम्पनी राज की वापसी को पुख्ता करने में भरसक योगदान दे रहा है।''
शेखर बाबू समझ नहीं पाए सन्दीप के व्यंग्य को। व्यस्तता दिखाते हुए फिर ठेला उन्होंने सन्दीप को। अब लटर-लटर मत करो। जाओ, जल्दी से तैयार हो जाओ।
आते-आते सिद्धार्थ का कार्यक्रम थोड़ा बदल गया था। उसका जापान जाना सप्ताह भर के लिए स्थगित हो गया था। और इस बीच उसे इंडिया लीवर की प्रतिद्वन्द्वी कम्पनी रॉकेट एंड गेम्बर ने किसी कोर्ट केस में फँसा दिया था। उसी केस के सिलसिले में उसे कोलकाता आना पड़ा था।
''मामला क्या है? सन्दीप ने हैरान होकर पूछा।''
सिद्धार्थ हँस पड़ा। एक मक्कार हँसी - मामला यह है कि हमने एक विज्ञापन दिया था टीवी पर। नियम के अनुसार आप दूसरों के प्रोडक्ट को अपने प्रोडक्ट के साथ नहीं दिखा सकते हैं। वह शनिवार की शाम थी। टीवी पर हमारे रिम साबुन का नया विज्ञापन आया। हमारे विज्ञापन से पहले टाइप साबुन का विज्ञापन था जिसमें एक स्त्री कह रही है, 'टाइप से धोइए, इसमें सुगन्ध भी है और सफ़ेदी भी। हमने दिखाया कि एक स्त्री के पास टाइप का पैकेट है लेकिन उसका कपड़ा गन्दा है। तभी दूसरी स्त्री आती है और कहती है रिम से धोइए - इसमें न सुगन्ध है, न नरमी है सिर्फ़ सफ़ेदी और इसके तुरन्त बाद रिम से धुला झकझक कपड़ा पर्दे पर लहराता है। अपने विज्ञापन द्वारा हम टाइप साबुन को, जो रॉकेट एंड गेम्बर का साबुन है, नीचा दिखा रहे थे। शनिवार को हमारा नया विज्ञापन निकला। शनिवार बन्द था और सोमवार को होली का त्योहार था। तीन दिनों तक हमने करोड़ों की बिक्री की। मंगलवार को आर एंड जी ने हम पर केस ठोंक दिया जिसकी पूरी सम्भावना थी ही। कल कोर्ट जाकर हम माफ़ी माँग लेंगे लेकिन मुनाफ़ा तो हमने पीट ही लिया।
हँस पड़ा सिद्धार्थ। एक सफल हँसी। कॉपोरेट जगत में आगे बढ़ने के लिए सिर्फ़ प्रतिभा और हुनर ही नहीं, साम, दाम, दंड, भेद, छल-कपट सभी आजमाना पड़ता है। अब सिर्फ़ यह ही ज़रूरी नहीं कि हम मेहनत और प्रतिभा से आगे बढ़ते रहें। अब यह भी ज़रूरी है कि हम ज़रूरत पड़ने पर रेड़ भी मारते रहे जिससे कोई हमसे आगे नहीं बढ़ सके।
- तभी तो तुम्हारे इंडिया लीवर के एशियन हेड के सी.ओ. से जब इंटरव्यू में पूछा गया कि इतनी दौलत, इतनी शोहरत और कामयाबी के बाद भी वह क्या चीज़ है जो आपकी नींद उड़ा देती है तो जानते हो उस बन्दे ने क्या जवाब दिया? उसने जवाब दिया कि आज भी जब मैं किसी दूसरी कम्पनी के प्रोडेक्ट को देखता हूँ तो मेरी नींद उड़ जाती है। तो बच्चू, तुम कॉरपोरेट वाले सह अस्तित्व में नहीं सिर्फ़ अपनी ही सत्ता और अपने ही वर्चस्व में विश्वास करते हो। और इसके लिए आज तुम लोगों ने सारे विश्वास और मूल्य उलटा दिये हैं। लेकिन यही प्रवृत्ति दुनिया का सुख-चैन छीनकर उसे एक कुरुक्षेत्र में बदल देगी क्योंकि सभी क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ने में नहीं, वरन एक दूसरे को पछाड़कर गिराकर लहूलुहान कर सबसे आगे पहुँचने की अमानवीय दौड़ में शामिल हो जाएँगे। काश! ज़िन्दगी को हम प्रेम और मनुष्यता के साथ बरतते तो दुनिया उतनी बुरी नहीं होती!
शेखर बाबू को रास नहीं आ रही थी यह बहस। वे सबकुछ सह सकते थे, पर सिद्धार्थ की क़ामयाबी पर कोई उँगली उठाए यह उन्हें नागवार गुज़रता। उन्हें लगता सन्दीप नहीं, सिद्धार्थ ही उनका असली अंश है, जो ज़िन्दगी को आगे बढ़ने को और सबसे बढ़कर पैसे के महत्त्व को समझता है। इसलिए दोनों की गरम होती बहस पर ठंडे पानी के छींटे डालते हुए कहने लगे वे, ''नाश्ता लग गया है, चाय ठंडी होकर शरबत हो गयी है और तुम दोनों को बहस से ही फ़ुर्सत नहीं है। चलो, डाइनिंग टेबल पर।''
डाइनिंग टेबल पर फिर प्रसंग छिड़ा शादी का। अब जिस घर में दो-दो शादी की उम्र के युवा लड़के हों, वहाँ उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण और प्रिय विषय हो भी क्या सकता है? माँ ने फिर ढेर सारी तस्वीरें बिछा दीं दोनों के आगे, किसी का क्लोजअप तो कोई फुल लेंथ में। प्रायः हर कन्या की दो-दो तस्वीरें, किसी-किसी की तीन-तीन भी भिन्न-भिन्न भंगिमाओं में। सिद्धार्थ ने मज़ाक में सारी तस्वीरें सन्दीप के आगे सरका दीं, ''भइया फर्स्ट।''
जाने क्या कुलबुलाया भीतर कि शेखर बाबू फिर बादलों से फट पड़े - ये तस्वीरें सिद्धार्थ के सम्बन्ध के लिए आयी हैं, सन्दीप के लिए नहीं। भई, मैं क्या करूँ, मैंने तो कई जगह कहा भी कि पहले बड़े बेटे की लेकिन साफ़ कह दिया लड़कीवालों ने कि हम फ़ौजी को नहीं दे सकते लड़की।
सन्दीप का चेहरा कातर-कातर हुआ जैसे बात नहीं बात का घूँसा पड़ा हो। पर सिद्धार्थ पर तो जैसे घर की छत ही गिर पड़ी थी। छटपटाता रहा वह कुछ पल। बोलना चाहा तो जैसे गूँगा हो गया हो, सारे शब्द फ्रीज़ हो गये हों।
सन्त जैसे भाई का यह अपमान!
और वह भी उसके चलते। वह कसमसाया।
पर बहुत देर तक जब कोई भी शब्द सामने नहीं आया जिसे वह फेंक पाता परिवार के मुँह पर और बचा पाता भाई को तो झल्ला कर टेबिल पर ज़ोर-ज़ोर से मुक्के मारते चिल्ला पड़ा -बन्द करो शादी की यह बकवास। जबसे घुसा हूँ घर में, शादी, तस्वीर और लड़कियों के अलावा कोई बात ही नहीं। नहीं करनी मुझे शादी-वादी। और बिना चाय-नाश्ते के ही उठ गया वह।
''चलो थोड़ी देर के लिए देशबन्धु पार्क घूम आते हैं।''
सन्दीप ने सिद्धार्थ के बिगड़े मूड को सँवारना चाहा।
''चलो।''
देशबन्धु पार्क वह जगह थी जहाँ दोनों ने जाने कितीन शामें साथ-साथ गुज़ारी थीं। देशबन्धु चित्तरंजन दास के नाम पर बना यह पार्क दोनों को इसलिए भी प्रिय था कि मध्य कोलकाता का यह सर्वाधिक गुंजायमान पार्क था। यहाँ चिड़ियाँ सबसे अधिक बोलती थीं।
दोनों साथ-साथ चलते रहे, पर सन्दीप को लगा, सिद्धार्थ अभी भी गुमसुम है।
लड़ियाते स्वर में पूछा सन्दीप ने, क्या बात है, घर से मुक्ति पाने के लिए तू यहाँ आया पर लगता है, घर अभी भी तेरे साथ ही चल रहा है।
बात बहुत हद तक सही थी। पर सिद्धार्थ के दिमाग़ में घर के साथ-साथ कम्पनी भी घूम रही थी। कल ही उसने सर्वे में पाया था कि उन्हीं का एक प्रोडक्ट 'अक्स' उनके दूसरे प्रोडक्ट 'अक्स सैंडल' को खा रहा है। यानी जो उपभोक्ता पहले अक्स व्यवहार करते थे वे अब नये विज्ञापन से प्रभावित होकर अक्स की जगह अक्स सैंडल का व्यवहार कर रहे हैं। कम्पनी के लिए यह कैनिबेलाइजेशन सुखद स्थिति नहीं थी क्योंकि इससे नया सेल नहीं बढ़ रहा था। सिद्धार्थ ने भाई को इस नये सर्वे की जानकारी से अवगत कराया। सन्दीप ने ध्यान से सुनी उसकी समस्या और मन ही मन पसीज गया। इतना होनहार भाई! पर चिन्ता और सरोकार कैसे टुच्चे? वह मरा जा रहा है इस चिन्ता को लेकर कि कम्पनी का एक प्रोडक्ट दूसरे प्रोडक्ट को खा रहा है, पर क्या उसे एहसास है कि इसी देश के कई भागों में आदमी आदमी को खा रहा है। क्या कभी सोचता है वह उन आदमखोरों के बारे में?
वाह! क्या सोच! कितनी... चिन्ता! हठात उसके मुँह से फिर निकल गया।
''क्या कहा?''
''नहीं, कुछ नहीं।'' पर सिद्धार्थ ने सुन लिया था। उसका मन थोड़ा खिला हुआ और घूमने की औपचारिकता भर पूरी कर वह वापस घर लौट आया।
घर में सन्दीप ने इस बार स्वयं को बेगाना सा महसूस किया। उष्ण आत्मीयता से गमकते घर को जाने क्या हो गया था। शेखर बाबू बात-बात पर अपना आपा खो बैठते। सन्दीप की गिनी-चुनी तनख़्वाह, जीवन के ख़तरे, झड़ते बालों और चेहरे की उदासी ने उनके दिमाग़ी सन्तुलन को गड़बड़ा दिया था। जब-तब उसके 'फ़ौजी' को कुतरते रहते। सांसारिक दौड़ में पिछड़ी माँ जब-तब आँसू बहाती रहती। व्यस्तता का मारा सिद्धार्थ चाहकर भी भाई का साथ नहीं निभा पाया। बीस दिन की छुट्टियों में बूँद-बूँद उदासी झड़ती रही। बोरियत जमा होती रही। और एक चमकती सुबह सन्दीप वापस बूशन कैम्प में।
हैरान सन्दीप। इस बीच उसका कमांडिंग अफ़सर बदल गया था। नये कमांडिंग अफ़सर थे कर्नल आर्य। जिसे सूँघा सन्दीप ने और सूँघते ही उसका जायका बिगड़ गया था। उनके शरीर से किसी हिंसक बनैले पशु की गन्ध आ रही थी।
इस बीच श्रीनगर और आसपास के संवेदनरशील इलाक़ों में आतंकवादी गतिविधियाँ और वारदातें एकाएक बढ़ गयी थीं। इस कारण नया सी.ओ. ज़रूरत से ज़्यादा चाक-चौबन्द था। हर वक़्त एक टाँग पर खड़ा रहता और अपने अधीनस्थ स्टॉफ को भी रखता।
एक चमाचम दोपहर कर्नल आर्य ने एकाएक बुलाया सन्दीप को। सन्दीप ने देखा कर्नल का चेहरा उस दिन बदला हुआ था। उन्होंने अपनी आँखों पर बड़ा-सा काला चश्मा पहना हुआ था। सन्दीप ने सोचा शायद कर्नल साहब को आँखों का इन्फेक्शन हुआ होगा... वे पूछने ही वाले थे कि कर्नल ने एक काला चश्मा सन्दीप की ओर बढ़ाया, ''लो, इसे पहन लो।''
''पर क्यों? मेरी आँखें स्वस्थ हैं।''
''जिससे कि तुम उस ज़िन्दगी के बारे में नहीं सोचो जो तुम जी रहे हो। क्योंकि तुम भटकते-भटकते संवेदनाओं के जिन इलाक़ों में घुस जाते हो, फिर चाहकर भी नहीं निकल पाते हो, इस चश्मे के बाद ऐसी भटकनों का ख़तरा ख़त्म हो जाएगा। क्योंकि इस चश्मे को पहनने के बाद आपकी संवेदनाएँ और आपकी आत्मा सुन्न हो जाएगी। आप तो जानते ही हैं कि कई बार आतंकी हत्या के पूर्व लोगों के चेहरे पर काला कपड़ा डाल देते हैं, इसलिए नहीं कि वे अपनी पहचान छिपाना चाहते हैं वरन इसलिए कि वे उस इनसान से स्वयं को भावनात्मक रूप से अलग कर लेते हैं।''
''नहीं, मैं इसे नहीं पहनूँगा क्योंकि मैं कहीं नहीं भटकता। मैं तो सिर्फ़ एक सत्य - स्वाभाविक मानवीय और सुन्दर जीवन की तलाश में रहता हूँ।''
चश्मे के लेंस के पीछे से कर्नल आर्य ने उसकी आँखों में झाँका। सन्दीप की पीठ में कम्पन हुआ। तल्ख़ शब्दों में फिर जवाब दिया कर्नल ने, ''सुन्दर, सत्य और मानवीय? मेरे जांबाज फ़ौजी, सत्ता को इन्हीं शब्दों से सबसे अधिक ख़तरा है। और हम सत्ता के हाथों की कठपुतली हैं। इसीलिए हमें आदेश मिला है इन चश्मों को पहनने का। हाँ, इससे सबसे ज़्यादा फ़ायदा तुम्हारे जैसे फ़ौजियों को ही होगा जो हमेशा पश्चात्ताप और ग्लानि की टोकरी सिर पर लादे रहते हैं। नहीं, मेरे हीरो, इसमें अटपटा लगने का कुछ भी नहीं है। तुम्हारी तो राँची पोस्टिंग हो चुकी है। तुमने आदिवासी जीवन को क़रीब से भी देखा है। तब तो तुम ख़ूब जानते होगे कि कुछ आदिम जनजातियाँ यह मानती हैं कि आत्मा शरीर से बाहर रखी जा सकती है। इसलिए उनके वीर जब युद्धभूमि पर जाते हैं तो अपनी आत्मा को अपने घर में सुरक्षित रख कर जाते हैं। अब यह तो हरेक के लिए सम्भव नहीं, इसलिए ये चश्मे ईजाद किये गये हैं। इनको पहनते ही आपकी आत्मा, आपका अन्तःकरण आपके शरीर से कूच कर जाएगा और चश्मा उतारते ही आपको आपकी आत्मा वापस मिल जाएगी।
''लेकिन अकस्मात इन चश्मों की ज़रूरत क्यों आ पड़ी?''
''क्योंकि अगले तीन महीने मैं तुम्हें ऐसे ऐसे ऑपरेशन पर भेजूँगा जहाँ बिना यह चश्मा पहने तुम ऑपरेशन को सफल कर ही नहीं पाओगे। इस चश्मे का काला जादू यह है कि इसको पहनते ही तुम एक प्रकार के हाड़-मांस के रोबोट बन जाओेगे। देखो, आज के ज़माने में जिसने ये चश्मा पहना, वही सफल हो पाया। सारे नेता, मन्त्री, कॉपरपोरेट और बिजनेस टाइकून पहनते हैं यही चश्मा।''
निर्णायक और दृढ़ स्वर में कहा सन्दीप ने, ''सर, मैं किसी भी ऐसी हिंसा के पक्ष में नहीं हूँ जो अन्तिम रूप से बचे हमारे मानवीय बोध को ही निगल ले।'' उसे असहज देख उसके कन्धे थपाए कर्नल ने और भावदार शब्दों में फिर समझाया उसे। आख़िरी बार। ''देखो, मैं नहीं चाहता कि तुम पर किसी भी प्रकार की अनुशासनात्मक कार्यवाही हो। फिर कहता हूँ बहस मत करो। धारा के विरुद्ध मत तैरो। हमारा सिर्फ़ एक ही धर्म है, आदेश का पालन करना, उसके औचित्य पर सोचना नहीं। हम कर ही क्या सकते हैं। जो कर सकती है वह सरकार है। पर सरकार को भरोसा ताक़त पर है और ताक़त को बन्दूक़ पर। इनसान किसी का भी कन्सर्न नहीं। इसलिए व्यक्ति मन और व्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए यहाँ फ़ौज में कोई स्पेस नहीं है।
खिन्न सन्दीप लौट आया अपने कैम्प में। अपने क्रोध, आक्रोश, हताशा और अवसाद को ठिकाने लगाने के लिए जाने कब तक दीवारों पर मुक्के मारता रहा, तकियों को पीटता रहा, कॉटेज के बाहर लगे गमलों पर भी लात चलायी, पर आक्रोश था कि थमने का नाम नहीं। शायद ऐसी ही चरम असहायता में लोग करते होंगे ख़ुदकुशी, उसने सोचा। पर मैं सामना करूँगा परिस्थितियों का। उसने स्वयं को मजबूत करने की चेष्टा की।
रात उसने खाना भी नहीं खाया और बहुत दिनों बाद भीतर के जमा सारे दुख, अवसाद, मजबूरियों और हताशाओं को काग़ज़ पर फैला दिया। पहली चिट्ठी लिखी अपने परम प्रिय भाई सिद्धार्थ को -
प्रिय सिद्धार्थ,
सरकारी आदेश है कि मैं अपनी आत्मा को शरीर से अलग कर दूँ, क्योंकि मैं भावुक हूँ, सोचता बहुत हूँ। तुम तो जानते ही हो कि किस प्रकार मैं पविार से विद्रोह कर फ़ौज में आया... क्या इसीलिए कि मैं अपने मनुष्य होने की पहचान, सोच और एहसास से भी वंचित कर दिया जाऊँ?
मैं यह सोच कर काँप जाता हूँ कि आनेवाले समय में फ़ौज जाने क्या-क्या अमानवीय कार्य मुझसे करवाएगी? आनेवाला समय बहुत भारी पड़ने वाला है मुझ पर शायद इसीलिए अब मेरी संवेदनाओं को अफीम खिलाकर सुला दिया जाएगा और मेरी रूहानी ज़िन्दगी को ख़त्म कर दिया जाएगा।
देखते-देखते दुनिया कितनी कुरूप होती जा रही है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पिछले महीने एक अँग्रेजी फ़िल्म देखी थी, जिसने मुझे विचलित कर दिया था, पर विचलित होते हुए भी मैं निश्चित था कि यह सिर्फ़ कहानी है, हक़ीक़त नहीं। लेकिन आज सोचने पर विवश हूँ कि कहानियाँ कितनी जल्दी हक़ीक़त बन जाती है। उस अँग्रेजी फ़िल्म में एक कॉरपोरेट कम्पनी एक इंजीनियर से एक अनुबन्ध साइन करवाती है। इस अनुबन्ध के अनुसार, इंजीनियर कॉरपोरेट कम्पनी के लिए एक ऐसी मशीन ईजाद करेगा जिससे कम्पनी को बेइन्तहा मुनाफ़ा होगा। इसके बदले कम्पनी इंजीनियर को मुँहमाँगी क़ीमत भी देने को तैयार । पर कम्पनी एक शर्त रखती है इंजीनियर के सामने। और वह शर्त यह है कि मशीन तैयार हो जाने के बाद कम्पनी इंजीनियर के दिमाग़ का ऑपरेशन करवाएगी और उस ऑपरेशन में कम्पनी इंजीनियर के दिमाग़ से उन तीन महीने का मेमोरी चिप बाहर निकाल लेगी जिन तीन महीनों में वह मशीन बनाएगा जिससे कि वह इंजीनियर किसी और कम्पनी के लिए वैसी मशीन नहीं बना सके। इंजीनियर कुछ पलों के लिए सोचता है कि अनुबन्ध पर साइन करे न करे, पर आँखों के सामने छा जाता है नौ अंकों की राशि का भारी-भरकम चेक़। इतना बड़ा फ़ायदा! इंजीनियर अनुबन्घ पर हस्ताक्षर कर देता है। तो यही है आज का युग सत्य। सत्ता अपना फ़ायदा देखती है, कम्पनियाँ अपना। आम इनसानों के लिए कोई नहीं सोचता। मैं जिस मकड़जाल में फँस गया हूँ, इस जन्म में तो शायद ही इससे छूट पाऊँ। मैं अभी फ़ौज के अनुबन्ध से बँधा हूँ। बीस वर्षों के सेवाकाल के पूर्व फ़ौज से मुक्ति नहीं पा सकता और यहाँ रहता हूँ तो सम्भव है आनेवाले समय में मुझे बेइमानी करनी पड़े अपनी संवेदनाओं एवं अपनी इनसानियत से भी।
चिट्ठी लिखते-लिखते अचानक उन्हें लगा कि भीतर जो उफ़नता आवेग और आवेश था, वह ठहर गया है। लहरें थोड़ी सम पर आयी हैं। थोड़ी देर के लिए ही सही अपने डार्करूम से निकले सन्दीप। पत्र को अधूरा ही ई-मेल किया और दोपहर घटी घटना की सम्भावना पर विचार करते -करते सो गये।