hindisamay head


अ+ अ-

उपन्यास

नौकरीनामा बुद्धू का

प्रेमचंद सहजवाला


10 .

बुद्धू के व्यक्तिगत जीवन में अचानक एक बहुत बड़ा परिवर्तन आता है। बुद्धू एक दिन दफ्तर से लौटता है तो उसके कमरे के दरवाजे को ढकते दो जालीदार किवाड़ों में अटका एक गुलाबी लिफाफा उसे दिखता है। लिफाफा ऐसे उन जालीदार किवाड़ों और दरवाजे के बीच फँसा है जैसे कोई पंछी उड़ रहा है और सचमुच, बुद्धू चकित था जब उन किवाड़ों को खोलकर उसने उस पंछीनुमा लिफाफे को अपने कब्जे में किया और दरवाजे का ताला खोला और अंदर चारपाई पर बैठ वह पत्र पढ़ लिया!

बुद्धू के सामने एक सुंदर सी कलाकृति घूम गई। ऐसी कमनीय सी देह कि बुद्धू उससे मिलकर कई दिन तो सुध-बुध खोए रहा था।

अनामिका के दफ्तर में ही थी ऋजु। बुद्धू हफ्ते दस दिन में दिल्ली आता ही था और अक्सर इधर-उधर घूम कर समय काटता था। कभी वह घर के पीछे की बाल्कनी में किचन के बाहर खड़ा सामने के मकानों की कतार में या नीचे गली में अनायास ही देखता रहता था। एक दिन उसने सामने वाले घर से कुछ बाईं ओर को नजर दौड़ाई तो दो घर बाईं ओर की बॉल्कनी में ऋजु को खड़ा देखा था। लगा था जैसे किसी चित्र प्रदर्शनी में सबसे अनमोल चित्र है वहाँ। बुद्धू चकित था, क्या सुंदरता ऐसी जानलेवा भी होती है!

उसी ऋजु का पत्र हाथ में लिए बुद्धू हक्का-बक्का सा पाँच वर्ष पहले तक पहुँच गया है। ऋजु ने लिखा है,

प्रिय समर्थ,

'मेरा खत पढ़कर तुम चौंक गए होगे! मैं तुम्हारी पुरानी दोस्त ऋजु। सोच रहे होगे, मैंने तुम्हें खत लिखने की जुर्रत क्योंकर की आखिर? मोहल्ले में तो मैं बदनाम हो चुकी हूँ अब। पर तुम तो मुझे विश्व की सबसे बढ़िया लड़की कहते थे न! क्या आज भी मेरी छवि तुम्हारे जहन में उतनी ही उज्ज्वल है, जितनी पहले थी? या फिर पहले की तुलना में धूमिल हो चुकी है? मैं तुम्हें यह खत लिखकर सिर्फ एक निवेदन कर रही हूँ, प्लीज, एक बार मुझसे मिल लो। सिर्फ एक बार। मैं कितनी हार चुकी हूँ, तुम्हें बताऊँगी। मैं अपने दिल का हर जख्म तुम्हें दिखाऊँगी समर्थ। सिर्फ एक बार मिल लो प्लीज!'

अंत में ऋजु ने लिखा था -

तुम्हारे लिए सबसे अच्छी,

तुम्हारी दोस्त,

ऋजु।

बुद्धू सचमुच हैरान था। क्या ऋजु इस कदर हार चुकी है जीवन से!

बुद्धू को याद आया कि जिस दिन पहली बार ऋजु को उसने बाल्कनी में देखा था, उस दिन वह शायद उसके स्वप्न में भी जाने अनजाने आ गई थी। उस समय तक वह सुजाता को भूलने की तैयारी शुरू कर चुका था। उसने तो ऋजु को देख स्वयं को रोका भी था कि सुजाता को भूलना शायद मुमकिन न हो, चाहे वह अब किसी और की हो गई हो। सुजाता ने लिखा भी था, बहुत पराजित सी हो जाने वाला पत्र। उस ने लिखा था :

बुद्धू सर,

'जब से आप कानपुर से गए हैं, मेरी क्या हालत रही, आप समझ पाएँगे क्या? इधर मैं आपकी यादों में डूबी दिन रात सुध-बुध को भुलाए रही, उधर माँ ने थोड़े ही दिन बाद मुझे तड़पाना शुरूकर दिया कि समर्थ हो सकता है सचमुच, कोई बदमाश हो, जैसा तुम्हारे डिप्टी डायरेक्टर कह रहे थे? तुझे पता ही ना चला हो कि कैसा व्यक्ति है? मैं अपने जीवन में दो-दो युद्ध लड़ती रही सर, एक खुद से, एक माँ से। आखिर हार कर चित्त हो गई। औरत हूँ ना! आप ही तो कहते थे, कि औरत पढ़ लिखकर दफ्तर तो आ गई है, पर अभी वह अपने पाँवों की बेड़ियाँ काट कहाँ पाई है!'

सुजाता को भूलने न भूल पाने के द्वंद्व में बुद्धू अनायास ऋजु की तरफ खिंचता चला गया था। उस पहली बार बालकनी से ऋजु को देखने वाले दिन से कुछ ही दिन बाद बुद्धू चकित था कि वही कलाकृति उसके घर में ही विराजमान है! अनामिका के पास बैठी है। बुद्धू उस समय तक केवल इतना ही यादकर पाया था कि पीछे जो शर्मा दंपत्ति हैं, उन के पाँच बेटों में एकमात्र बेटी यहाँ दिल्ली के किसी कांवेंट स्कूल में पढ़ती थी और फिर दिल्ली के मिरांडा हाउस में इंग्लिश ऑनर्स पढ़ने लगी। तब तक बुद्धू फिरोजाबाद कानपुर में रहा और इस तरफ अधिक ध्यान न था उसका। पर अब तो वह जयपुर के महारानी कॉलेज से एम.ए. करके यहाँ आ गई है तो उसकी शख्सियत में चार चाँद से लग गए हैं!

अनामिका के साथ बतियाती वह विश्व सुंदरी सी लड़की (जैसा कि बुद्धू सोचता था), कुछ देर बाद चली गई थी। बुद्धू उस कमरे में झिझक के मारे आ ही नहीं पाया था। केवल दूर से ही उस सौंदर्य को पीता सा रहा वह। दो कमरों के बीच एक बिना दरवाजे वाला प्रवेश सा था और वहाँ कहीं से उस तरफ देखकर बुद्धू ने ऋजु को देख लिया था। अनामिका ने बाद में उसे बताया था कि ऋजु उसी के ऑफिस में है, बहुत तेज तर्रार लड़की है। ऑफिस की महिलाओं में सबसे होशियार। उस दिन तो अनामिका ने ऋजु को भी बताया था कि उस कमरे में मेरा भाई बैठा है, पढ़ रहा है, वह सोनीपत में नौकरी करता है और कभी-कभी यहाँ आता है। बाकी सब लोगों को ऋजु पहचानती थी और सबसे बातचीत भी कर चुकी थी।

बुद्धू को ऋजु एक बार मार्केट में मिल गई थी। मार्केट में बुद्धू टहलता हुआ घर की तरफ लौट रहा था कि ऋजु... वो सामने से यहीं तो आ रही है! बुद्धू ने नजरें नीची कर ली और सोचा कि वह ऐसे, ऋजु को एकदम सामने से, नजरें मिलाकर देख नहीं पाएगा!

ऋजु एकदम मेरे सामने! सिर्फ चार कदम पर ही तो है वह! यह अहसास भर बुद्धू को हो गया तो दिल धुकधुकाने सा लगा। पर तभी ऋजु ने ही आगे बढ़कर बहुत सुरीली सी आवाज में पूछा था - 'हेलो समर्थ। कैसे हो?' इस आवाज में जो लय थी, अपनापन था, वह समर्थ तत्क्षण देख कहाँ पाया था!

ऋजु ऐसे बोली जैसे उसे बहुत दिनों से जानती थी और आज कई दिन बाद उसे देखकर दोस्ताना तरीके से हाथ मिलाने को आगे बढ़ी है, कह रही है - 'हेलो समर्थ, कैसे हो?'

'ठीक हूँ। आप?' कहकर बुद्धू ने हाथ आगे करके मानो अपने भीतर एक कँपकँपी सी महसूस की।

ऋजु - 'मैं ठीक हूँ। इस समय तुम कहाँ जा रहे हो?' इस कदर आत्मीयता! बुद्धू पराजित था।

'यूँ ही सैर कर रहा था। आप शायद ऑफिस से आ रही हैं।'

ह्म्म्म! ऑफिस से। तुम्हारी दीदी ही तो मेरी मैनेजर है! मैं उस दिन आई तो थी। अनामिका ने बताया कि आप सोनीपत में नौकरी करते हैं, यहाँ कभी-कभी आते हैं।' एकदम तुम से आप पर आ कर तनिक दूर सी हो गई ऋजु।

ऋजु का स्वभाव ही ऐसा था। वह खुले मन वाली, उन्मुक्त सी महिला, आजाद खयालों वाली। वह क्योंकि अनामिका का भाई है, इसीलिए भी समर्थ से दोस्ताना तरीके से बात कर रही थी आज।

ऋजु ने अचानक कहा - 'चलो, कहीं एक कप कॉफी पिए?'

ऋजु की ऐसी बेबाकी पर भी बुद्धू चकित था। पर जाने क्यों, बुद्धू को अचानक बेहद खुलापन सा महसूस होने लगा, जैसे घुटन भरे कमरे की किसी ने खिड़की खोल दी हो और एक उन्मुक्त हवा सी चारों तरफ चल पड़ी हो। जैसे हर तरफ सब कुछ सुखद तरीके से बदल सा रहा हो।

जिस मार्केट में वे खड़े थे, वहाँ फैक्ट्रियाँ ज्यादा, माल बेचने वाली दुकानें कम थीं। पर एक अच्छा रेस्तराँ भी था जिसमें मद्धम सी रोशनी हो और बुद्धू ऋजु के साथ वहीं चला गया। ऋजु बोली - 'मैं ऐसे, किसी के साथ कभी कॉफी-वॉफी पीने जाती नहीं। पर तुम... मेरे बहुत अच्छे दोस्त बनोगे!'

बुद्धू हाजिरजवाब सा हो गया पल भर में। बोला - 'यह तो मेरी तकदीर पर डिपेंड करता है जी, कि मैं आपका दोस्त बन सकता हूँ कि नहीं।'

ऋजु बेसाख्ता हँस पड़ी। पर ऋजु को लगा, बुद्धू में एक अजब हिचकिचाहट सी भी है, कोई हीन ग्रंथि सी उसके भीतर छुपी है। शायद वह उसकी अपनी शख्सियत की प्रखरता के कारण हो। ऋजु को अपनी शख्सियत के तीखेपन का भी खूब एहसास है। बुद्धू आज एक दुखी प्रेमी की तरह पहली मुलाकात में ही ऋजु को अपनी और सुजाता की दास्तान सुना बैठा। ऋजु ना जाने क्यों, चुपचाप कॉफी की चुस्कियाँ लेती बुद्धू को गौर से देखकर समझने की कोशिश करने लगी।

ऋजु ने बुद्धू को हमेशा अनामिका के नाते बहुत मान दिया। पर बुद्धू पहले दिन के उस हाथ मिलाने वाले स्पर्श से ही कई दिन अभिभूत रहा। उसके खयालों में बार-बार ऋजु की रहस्यात्मक सी आकृति आ जाती। ऋजु उससे कहती - 'मुझ में ऐसा क्या है समर्थ? सब लड़कियाँ तो अच्छी हैं। तुम मेरे बारे में अधिक सोचोगे तो सचमुच, मैं तुम से मिलूँगी ही नहीं।' ऋजु कभी-कभी हँसती खिलखिलाती बुद्धू से कन्नी भी काट जाती। पर न चाह कर भी ऋजु और बुद्धू की जोड़ी कुछ प्रसिद्ध सी भी हो गई। और ऋजु के ऑफिस की ही महिलाएँ एक दिन अनामिका के कान भरने लगीं। अनामिका कुछ असंतुलित सी हो जाती है ऐसे समय। उसे बुद्धू पर बहुत गुस्सा आता है। आ कर बुद्धू से कहती है - 'ऋजु से तुम्हारा मतलब क्या है? वह मेरी सहेली है, बल्कि ऑफिस में मेरी सबॉर्डिनेट है। ऑफिस की सब औरतें मुझे चेतावनी दे रही हैं कि ऐसी फास्ट लड़की से, जिसके कई दोस्त हैं, आपका भाई इतना नाता क्यों बढ़ा रहा है?'

बुद्धू अनामिका पर ही थोड़ा सा बरस पड़ता - 'तुम्हारे ऑफिस की महिलाएँ नमक मिर्च मिलाती हैं। अभी तक मैंने ऋजु से सिर्फ दोस्ती ही रखी है। उस पर मैं मुग्ध...

अनामिका चिल्ला पड़ती है - 'शट अप! मैं मुग्ध क्या...?'

अनामिका के ऑफिस की महिलाओं ने बात बढ़ा-चढ़ा कर बताई है, यह ऋजु भी समझ गई थी, बुद्धू भी, पर ऋजु ने बुद्धू से कहा था - 'अब हम थोड़े दिन नहीं मिलते। मैं बेकार में ही ऐसी चालाक सी औरतों की नजर में आ गई हूँ।'

बुद्धू गलत समझता रहा, सपने पालता रहा। और एक दिन उसकी बहन अनमोल ही आ कर उससे लड़ने लगी - 'तुम उसके पीछे मरते हो और उधर वो उन औरतों को जाने क्या का क्या बताती फिरती है?' शरारती महिलाएँ शरारत में कुछ हद तक सफल हो चुकी थीं। वे नहीं चाहती थीं कि ऋजु - अनामिका के करीब जाएँ, भले बुद्धू के बहाने ही। पर बुद्धू ने कहा - 'वो उन औरतों को क्या बता रही है?'

'यही कि समर्थ तो मेरा पीछा करता है। मैं उसे सिर्फ और सिर्फ अनामिका के भाई के नाते अपना दोस्त समझती हूँ।'

'उन औरतों की बकवास सुनने में तुम्हारी दिलचस्पी होगी, मेरी नहीं।' अनमोल के पास चुप रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। पर एक दिन अंजली ही अनमोल और अनामिका से सालाह करने के बाद आई और बुद्धू को एक जरूरी खबर दी। अंजली बोली - 'ऋजु की सगाई हो रही है!'

'उसकी सगाई हो चुकी है,' बुद्धू ने बहनों को ही चौंका दिया।

तुम्हें कैसे पता?'

वह ऐसी बात सबसे पहले मुझे बताएगी या तुम लोगों को?'

और तुम हो कि अभी तक उसी के खयालो-खाब में डूबे रहते हो? सोनीपत से बार-बार आने का क्या फायदा?'

बुद्धू बहनों से कुछ छुपा भी गया था। वह ऋजु के सामने ही एक मुंतजिर सा प्रेमी बना हाथ फैलाए खड़ा था उस दिन। कह रहा था - 'क्या हम दोनों एक हो सकते हैं ऋजु?'

उस समय दोनों बातें करते अपने-अपने घरों से दूर कहीं जा रहे थे। पहले बुद्धू ने ऋजु से नाराजगी दिखाते कहा था कि आपने ऑफिस की महिलाओं को ही माध्यम बनाकर मुझे खुद से दूर करने की कोशिश की है। ऋजु बोली थी - 'तुम मुझे कुछ भी कह दो, उन शरारती औरतों का मैंने ठेका नहीं ले रखा। अगर तुम मुझे ऐसी बुरी औरत समझते हो तो मुझसे मिलते ही क्यों हो?'

फिर चलते-चलते दोनों के बीच कुछ क्षण एक संधि सी भी हो गई। तभी बुद्धू ने अपनी माँग ऋजु के सामने रख दी। ऋजु को अक्सर लगता था कि बुद्धू उसके व्यवहार को गलत समझ बैठा है। पर उसी दिन एक रेस्तराँ में चाय पीते-पीते ऋजु ने बुद्धू की बात के जवाब में कहा था - 'सच बताऊँ, मेरे डैड ने तो मेरी सगाई भी तय कर ली है!'

बुद्धू के चेहरे पर एक हीन-ग्रंथि किसी बादल सी फैल गई, जो ऋजु से छुपी न रह सकी।

ऋजु बोली - 'मेरे डैड बहुत सख्त खयालों के हैं। वे कहते हैं शादी होगी तो अपनी ही कम्यूनिटी में। अपनी ही कास्ट में शादी करेंगे हम। उन्होंने दीक्षितों में एक लड़का ढूँढ़ा है। वह अमरीका जाना चाहता है। उसकी बहनें अमरीका में हैं। उससे शादी करके मैं भी चली जाऊँगी अमरीका। तुम मुझे भूल जाना समर्थ। तुम बस, अपना खयाल रखो। मैं तुम्हें बहुत अच्छा दोस्त समझती हूँ।'

बुद्धू बोला - 'तो अमरीका जाने का लोभ तुम्हें मुझसे दूर ले जा रहा है?'

'अब तुम जो भी समझ लो!' ऋजु के पास भी कहने को शब्द कहाँ बचे थे!

बुद्धू ने थोड़े ही दिन बाद ऋजु का मंगेतर देख लिया, सचमुच, बहुत हैंडसम था। एकदम हीरो जैसा। ऋजु ने उसे बताया था कि दो दिन बाद ही उसका रोक्का है। उस रोक्के से पहले ही वह अपने हीरो के साथ कहीं शॉपिंग-वॉपिंग को निकली थी एक दिन। बुद्धू को लगा था जैसे ऋजु ने उसी को जताने के लिए मंगेतर को इस मोहल्ले में बुलाया है कि शादी होती है अपने बराबर की शख्सियत से। तुम से हजार गुना अच्छा है मेरा मंगेतर गुक्की। वैसे गुक्की उसका निकनेम था। असली नाम सत्येन था और वह गोल मार्केट के करीब एडवर्ड स्क्वायर में कहीं रहता था।

ऋजु भी कभी-कभी मन टटोलती तो उसे यही लगता कि हाँ, बुद्धू सचमुच एक अच्छा इनसान तो है, पर जीवन साथी के मामले में वह शायद उसका चयन न हो।

ऋजु की शादी हो जाती है, पर उतनी ही जल्दी एक आघात सा भी ऋजु को लगता है और एक दिन वह अनमोल को ही आ कर कहती है - 'मुझे समर्थ की बद्दुआ लग गई अनमोल!'

यह सब अनमोल ने बुद्धू को तुरंत नहीं बताया। अनामिका ने ही एक दिन विषय निकालकर बुद्धू से कहा था - 'ऋजु के साथ बहुत बुरा हुआ। लड़का अमरीका का लालच देकर इन सबको धोखा दे गया। अस्सी हजार ले गया और पंद्रह दिन हनीमून पर जा कर दिल्ली लौटा तो ऋजु के फादर से बोला - फिलहाल ऋजु को अमरीका ले जाना संभव नहीं हो रहा। कुछ महीने ठहर कर लौटूँगा तो ले जाऊँगा।'

और फिर वे कुछ महीने सालों में बदल गए। ससुराल में एक वृद्ध ससुर महोदय थे और सास। दोनों लड़ते रहते कि सत्येन को ज्यादा डिस्टर्ब क्यों करती हो? जब तब उससे एक ही सवाल पूछती हो, यहाँ कब आओगे, कब ले जाओगे? इससे उसकी नौकरी में कितना विघ्न पड़ता है, ये पता चलता है तुझे? यहाँ रह के हमारी सेवा में तेरे हाथ टूटते हैं क्या?'

ऋजु ने अधिकार की एक लड़ाई में खुद को झोंका हुआ पाया - 'मेरे साथ कितना बड़ा धोखा हो रहा है। मेरी अपनी ही जिंदगी एक पहेली सी बन गई है। सत्येन मुझे भूले-भटके भी कोई खत क्यों नहीं लिखता? उसका मुझसे कोई नाता भी है, ऐसा क्यों नहीं लगता उसके व्यवहार से? मेरे डैड से लिया अस्सी हजार कहाँ गया?' और अधिकार की लड़ाई लड़ते-लड़ते ऋजु को एक दिन माँ के घर का रास्ता देखना पड़ा। वह माँ के पास आ कर उससे गले मिलकर रोने लगी।

बुद्धू अब बदलने सा लगा है। वह चलते-फिरते सोते जागते ऋजु की जिंदगी के बारे में ही सोचता है। ऋजु उसे इन पाँच सालों की दास्तान सुनाती है तो अक्सर रो पड़ती है।

'मैं हार गई समर्थ। सब मुकदमे हार गई। मेंटीनेंस का, डौरी का, कांजुगल राइट्स का। सब। औरत हूँ ना! सत्येन ने अमरीका जा कर सिटीजनशिप ले ली। उसने मेरे डैड को अमरीका पहुँचने का स्रोत बनाया। उसके माँ-बाप ने मुझे घर का रास्ता दिखा दिया। फिर पड़ोस में वह जो कॉमर्शल कॉलेज चलाता है न सुधीर, उसका भाई भी अमरीका में रहता है। वह अपने भाई से मिलने अमरीका गया तो पता कर आया कि सत्येन ने तो वहाँ की अदालत में मुझसे तलाक भी ले लिया है! और दूसरी शादी भी कर ली है!!'

बुद्धू अपनी कहने लगा, ऋजु को बताने लगा - 'ऐसा कई लड़कियों के साथ हो रहा है। जब उनका पति वहाँ की अदालत में तलाक की अर्जी देता है तो लड़की को भारत में उसके घर समन मिलता है। इतनी दूर जाने का कम से कम एक डेढ़ लाख खर्चा। तीन-चार सुनवाइयों तक लड़की अदालत में अपनी पेशी नहीं दे पाती तो अदालत एकतरफा तलाक मंजूर कर देती है। शादी खत्म, सब कुछ एक धोखा... पर अगर लड़की दूसरी जगह शादी करना चाहे तो उसे यहाँ की अदालत में नए सिरे से तलाक लेना पड़ता है। लड़के डौरी वापस करने में उस समय बीवियों को खूब तंग करते हैं।'

'पर अब शादी करता कौन है?' बुद्धू का बखान सुनकर ऋजु तड़पती सी बोली - 'मैं तो अब शादी-वादी नहीं करूँगी समर्थ।' पर ऋजु एक दिन अपनी कमजोरी जाहिर कर ही बैठती है। शहर के किसी और रेस्तराँ की मद्धम-मद्धम रोशनी में काफी अंतरंग क्षणों में बैठे बुद्धू ने क्या किया कि अचानक होंठ आगे करके ऋजु के कपोल पर एक चुंबन सा जड़ दिया। ऋजु तड़पती सी बोली - 'ये क्या कर रहे हो? क्या मैं तुम्हें कोई चालू सी औरत नजर आती हूँ जिसके साथ कहीं भी, कोई भी, कुछ भी कर ले? पर समर्थ, सचमुच, अगर आज मुझे चूमा है तो मैं तुम्हारे सामने झोली फैलाती हूँ,' ऋजु ने सचमुच, साड़ी का पल्लू बाहर फैला कर भीख माँगने के अंदाज में कहा - 'मुझे अपनी नौकरानी बनाकर रख दो समर्थ। मैं जिंदगी भर तुम्हारे कदमों की दासी बनकर रहूँगी।'

बुद्धू को यह सब देख सहसा गहरा सदमा पहुँचता है। उसे लगता है कि वह कम से कम ऋजु जैसी बहादुर, स्वच्छंद से खयालों वाली लड़की को इस प्रकार, भीख माँगते या गिड़गिड़ाते नहीं देख सकता। उसने एक संकल्प सा कर लिया कि वह कभी भी, कम से कम ऋजु की जिंदगी के साथ कोई खिलवाड़ नहीं करेगा, जैसा उसके उस, अमरीका वाले धोखेबाज पति ने किया।

उन दिनों दिल्ली के करोल बाग में एक वीनस रेस्तराँ था। प्रेमी जोड़े वहीं जा कर एक खास कक्ष में प्रेमालाप करते। चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा। सिर्फ टेबल पर नगण्य सी रोशनी। और बुद्धू वहीं ऋजु के साथ बैठा है आज, तो उसे लग रहा है जैसे ऋजु नहीं, वह स्वयं है भिखारी। ऋजु से प्यार की भीख माँग रहा है वह। उसने ऋजु के सीने में ही चेहरा छुपा दिया, बोला - 'मैं बहुत अकेला हूँ ऋजु।' कहते-कहते दोनों ने आँखें मूँद ली थीं। ऋजु अपने हाथों की अँगुलियाँ बुद्धू के सिर के बालों के बीच फिराने लगी। सहसा ऋजु ने बेहद भावुक होकर बुद्धू के माथे को चूम लिया। तब बुद्धू ने ऋजु से कहा, एक बड़े कवि की ये पंक्तियाँ सुनो ऋजु, वे आज तुमने सार्थक कर दी।

'कौन सी?' ऋजु भी कुछ-कुछ खुलापन सा महसूस करने लगी, जैसे किसी ने घुटन भरे एक कमरे की खिड़की खोल दी हो, और सहसा एक सुख की साँस ऋजु के जीवन तक आ गई हो। बुद्धू बोला -

'उस दिन जब तुमने फूल बिखेरे माथे पर

अपने तुलसी दल जैसे पावन होंठों से

मैं सहज तुम्हारे गर्म वक्ष में शीश छुपा

चिड़िया के सहमे बच्चे सा हो गया मूक

लेकिन उस दिन मेरी अलबेली वाणी में

थे बोल उठे गीता के मंजुल श्लोक ऋचाएँ वेदों की।' (धर्मवीर भारती)

वक्त अब बहुत कुछ बदल सा गया है। जिस मकान में ऋजु और उसके घर के लोग रहते थे, उसके मकान मालिक से ऋजु के डैड का झगड़ा हो गया था। मकान मालिक की बड़बोली सी बीवी ऋजु के चरित्र पर बहुत कटाक्ष करती। ऋजु को बदनाम करने में ही उसने कोई कसर ना छोड़ी। ऋजु के डैड ने इसीलिए वह मकान छोड़-छाड़ कर पटेल नगर में एक फ्लैट ले लिया। इससे बुद्धू को थोड़ी राहत सी भी महसूस हुई, वर्ना बुद्धू जब भी ऋजु से मिलने उसके घर जाता या उसके साथ कहीं घूमने निकल पड़ता तब वह बड़बोली मकान मालकिन पीछे गली में ही आ कर धमाके से अनामिका के बहाने सबको सुनाती - 'अनु का भाई देखो तो किस आवारा लड़की के साथ घूम रहा है। उसे अपनी जिंदगी खराब करनी है लगता है। उसकी बहनों का क्या होगा...' और इस पर अनामिका के घर में ही महाभारत सा मचने लगा। जब भी बुद्धू सोनीपत से आता, अनामिका उससे लड़ती और बुद्धू कहता - 'किसी लड़की की जिंदगी बनाना क्या पाप है? अगर उसे धोखा मिला है तो मेरा फर्ज है कि मैं अपनी दोस्त का सहारा बनूँ या चुपचाप बैठा रहूँ? मैं उसकी जिंदगी क्यों ना सँवार दूँ?'

इस पर अनामिका उसके सामने एक समस्या सी प्रस्तुत करती - 'इससे तेरी अपनी बहनों की शादियों पर जो असर पड़ेगा वह तुझे पता है? मैंने तो जिंदगी भर तुम लोगों के लिए ही शादी ना करने का फैसला कर लिया, पर क्या अनमोल और अंजली की तरफ तुम्हारा कोई फर्ज नहीं? लड़कों वाले सब कुछ पूछते हैं। किसी ने उनको बता दिया कि लड़की का भाई तलाकशुदा लड़की से शादी कर रहा है तो कौन हमारी बेटियों को अपना बेटा देगा?'

बुद्धू ऐसे समय अचानक अपने भीतर किसी समाज सुधारक के से तत्व पाता। उसे किसी भी हाल में ऋजु के प्रति अपने फर्ज को निभाना ही पड़ेगा। उसे लगता सब तरफ एक ही रोना है, औरत की जिंदगी जैसे घर-घर में एक बोझ सा बन गई है। वह सोनीपत से बार-बार आ कर ऋजु के घर ही उसकी बाँहों में समाया रहता या कहीं निकल जाता। उन्हीं दिनों मकान मालकिन फिर आ कर गली में चीखती - 'देखो तो, अनामिका कितनी अच्छी है? पर उसका भाई घूम किसके साथ रहा है?' अनामिका बुद्धू को यह सब बताती तो बुद्धू अनामिका को ही समझाने लगता - 'ऋजु भी इसी समाज की शिकार है, जिस की प्रतिनिधि तुम्हारी वही बड़बोली मकान मालकिन है। अगर ऋजु वकील के साथ ही उसकी कार में बैठकर अदालत जाती थी तो भी मकान मालकिन बातें बनाती थी। ऋजु बेचारी अपना केस खुद लड़ती रही। बड़ा भाई बाहर रहता है, बाकी भाई इतना दमखम नहीं रखते। सब कुछ खुद करती ऋजु और मकान मालकिन आ कर सबको बताती कि यह लड़की तो अदालत में वकीलों के साथ ही बैठी गपशप में लगी रहती है...'

ऋजु बुद्धू को बताती - 'अगर लड़की किसी मुसीबत में फँस जाए तो हजारों लोग उसकी तरफ लपलपाती जीभों से देखते हैं। अदालत में कोई-कोई वकील भी ऐसी वैसी बात कर देता होगा, पर इस मकान मालिक का कोई रिश्तेदार वहाँ वकील है। वही आ कर इस औरत को ये सब बकवास सुना जाता है।'

ऋजु ऐसी स्थिति में आ गई कि बुद्धू से कुछ ना छुपाती। उससे कहती - 'देखो, वह जो गया ना, तीन बेटियों का बाप।' बुद्धू पहचान जाता - 'हाँ, यह तो मलिक है!' ऋजु कहती - 'डैड से आ कर कहने लगा मैं करता हूँ आपकी बेटी की मदद। अमरीकी दूतावास में मेरी पहचान है। इसी मुकदमे में दूतावास उसकी मदद कर सकता है, अगर लड़के की असलियत अदालत को पता चल गई तो उसी समय सारा पैसा आपके हाथ में और डौरी-वौरी सब वापस...' मुझे इसी बहाने एक दिन ले जाता है और एक रेस्तराँ में बैठकर क्या करने लगता है यह तुम समझ सकते हो? मैंने झापड़ दिखा दिया था इसे और आज तक मेरे डैड को यह बात पता नहीं।'

उसके ऑफिस की चालाक सी महिलाएँ यही सब आ कर अनामिका को बतातीं, हालाँकि शादी के बाद ऋजु ने अनामिका के ऑफिस की नौकरी कब की छोड़ दी थी। वे महिलाएँ अनामिका से यही कहतीं - 'उस मैरिड आदमी से भी...'

बुद्धू खुद को क्रांतिकारी समझता। वह सोचता उसके पूरे विभाग में दूर-दूर तक उसके जैसा कोई बहादुर शख्स नहीं होगा जो ऐसे, इन परिस्थितयों में फँसी एक औरत से शादी कर ले!

पर अफसोस, बुद्धू का वह क्रांतिकारी रूप अचानक कहाँ चला गया था एक दिन?


>>पीछे>> >>आगे>>