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उपन्यास

नौकरीनामा बुद्धू का

प्रेमचंद सहजवाला


11 .

बुद्धू को ऋजु देवता समझने लगी। चलते-चलते अगर दोनों में मतभेद भी हो जाता तो ऋजु चलते-चलते सहसा झुककर उसके पाँव छूती, क्षमा माँगती। वह सचमुच, बुद्धू को जीवन का बहुत बड़ा सहारा मानने लगी थी। बुद्धू खुद को समाज सुधारक सा लगता। उसे लगता जैसे उसके दफ्तर की बाबू मानसिकता वालों में से किसी की हिम्मत नहीं पड़ेगी कि ऐसे, किसी तलाकशुदा महिला से शादी कर ले। उसके जंगल ऑफिस में पता चल गया था कि बुद्धू आजकल एक मैरिड लेडी के साथ घूम रहा है, पर दूसरे कहते - 'शादी कर रहा है उससे। उसकी पहले से ही फ्रेंड थी वह।' पर बुद्धू को पता चलता कि जंगल ऑफिस में सब लोग यही मानते - 'लड़की तलाक ले रही है अपने पति से। कुछ बात होगी जरूर। कहीं चक्कर-वक्कर चला आई होगी।' बुद्धू इस बात में गर्व महसूस करता कि अगर कोई ऐसी वैसी-बात होती भी, तो भी वह 'अपनी' ऋजु को कभी न छोड़ता।

इस बीच यह भी हुआ कि बुद्धू की माँ बहुत बीमार रहने लगी थी। उसकी दोनों किडनी खराब हो चुकी थीं और आखिर डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था कि मरीज की हालत ऐसी नहीं है कि किडनी का ऑपरेशन करके किडनी बदली जा सके। अनामिका समेत घर के सब लोग इस बात के लिए तैयार थे, डॉक्टर जिसकी कहे, किडनी निकाल ले, पर अनामिका का दिल उस समय धक से रह गया जब एक सुबह माँ के लिए चाय बनाकर वह उसे जगाने के लिए उसके बिस्तर तक आई और देखा कि माँ तो है ही नहीं। वह नींद में ही सबसे बिछुड़ कर चली गई... सोनीपत से बुद्धू को भी बुलाया गया। सोनीपत में रिलीवर मँगाकर बुद्धू दस दिन दिल्ली में ही रहा। देहांत के अगले दिन पटेल नगर से ऋजु और उसकी माँ भी आईं अनामिका से मिलने। पर अनामिका ने उनकी तरफ ध्यान ही नहीं दिया। इधर तीसरे दिन की सभा हुई तो ऋजु के डैड भी आ कर हो गए।

ऋजु ने बुद्धू को खूब प्यार किया। बोली - 'माँ से बढ़कर जिंदगी में कुछ नहीं होता, यह मैंने अपनी जिंदगी में देख लिया है। और तुम्हारी माँ तो तुम पर जान छिड़कती थी।'

बुद्धू को थोड़े ही दिन में सामान्य होना पड़ा। माँ के प्यार के अलावा उसके पास अब इस बात की तसल्ली ही रह गई थी कि पिता तो उसके कैरियर संबंधी हर बात में उसका सहारा बनते हैं, वे हैं ही।

फिर एक दिन ऐसा भी आया कि ऋजु को लेकर घर में टकराहट अपने चरम पर पहुँचने लगी। बुद्धू को अनामिका ने साफ-साफ कह दिया था कि तुझे अगर ऋजु से शादी करनी है तो मेरा साथ तुझे बिलकुल नहीं मिलेगा। बुद्धू ऐसे व्यवहार करता जैसे उसे किसी की भी परवाह नहीं है, वह ऋजु से शादी करेगा और जिसे आना है आए जिसे नहीं आना अपने घर खुश रहे। पर बुद्धू का मन मस्तिष्क ऐन शादी का दिन नजदीक आते-आते जाने कैसे बदलने सा लगा? बुद्धू को लगता जैसे बार-बार उसके दिल की धड़कन तेज सी हो जाती है, जैसे उसने अपनी सामर्थ्य से कोई बड़ा कदम उठा लिया है सहसा। अपने भीतर न जाने क्यों, उसे अपने कद के बौनेपन का भी अहसास सा होने लगा था, और उसे लगता कि वह सहसा कल्पना में अपने कद के बराबर के कुछ ऑफिस सहकर्मियों के साथ चलने-फिरने लगा है। उसने ऋजु और उसके घरवालों से मिलकर शादी की एक तारीख भी तय कर ली थी। ऋजु ने एक दिन आ कर अपने तलाक का दस्तावेज उसके ठीक सामने रख दिया, बोली - 'सत्येन तलाक के लिए मान नहीं रहा था, ड्रामा कर रहा था। आखिर मैंने अपना सब कुछ छोड़ दिया, सिर्फ एक व्यक्ति के भरोसे, और वह एक व्यक्ति था,' कहकर ऋजु बुद्धू के कंधे पर अपना सर रखकर आँखें मूँद खड़ी हो गई, फिर अपना वाक्य पूरा किया, 'समर्थ। अपनी डौरी, अपना मासिक खर्च, अपनी छोड़ी हुई चीजें, कुच्छ भी नहीं क्लेम किया। मैंने बस जैसा उसने कहा, कर दिया। उसके वकील ने डौरी वापसी मुझसे लिखवा ली, मासिक खर्च नहीं चाहिए यह भी लिखवा लिया, तभी जज के हाथ हिले होंगे कि इस तलाक के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दे समर्थ! अब हम दोनों एक हो जाएँगे न?' और बुद्धू ने उसे आश्वस्त करके अंदाजे से ही एक तारीख तय कर दी, 26 मई। न किसी पंडित से तारीख निकलवाना न जनम पत्री-वत्री जैसा कुछ। बुद्धू को अपनी इस बात पर गर्व था कि वह इन टुच्ची-टुच्ची परंपरागत बातों में विश्वास ही नहीं रखता। ऋजु की माँ बोली थी - 'तू हमारा भगवन है बेटे। ईश्वर सारी दुनिया की खुशियाँ तेरी झोली में भर दे। दोनों सदा सुखी रहो।'

पर बुद्धू का दिल धकधकाने सा लगता जब सोनीपत में बैठा-बैठा वह कुछ सोचने लगता। उसे अपने हृदय में विचित्र सी प्रतिक्रियाएँ होती महसूस होतीं। उसे लगता कि जिस मानसिकता का वह हिस्सा है, वह उसी का शिकार होता जा रहा है। क्या हर व्यक्ति के अंदर कोई और व्यक्ति छुपा होता है जो जरूरत बे जरूरत किसी भी महिला की पवित्रता-अपवित्रता पर फैसले करता रहता है? बुद्धू इस डगमगाहट में दिन काटने लगा और जाने कैसे, उसे एक शाम लगा जैसे उसके पाँवों को कोई घसीट कर जबरदस्ती दिल्ली की तरफ खींच रहा है। उसने दिल्ली पहुँच कर सहसा ऋजु से कह दिया - 'ऋजु, मैं तुम से शादी नहीं कर पाऊँगा। तुम मुझे रिहा कर दो प्लीज।' ऋजु सुनते ही हैरत में आ गई, उसका तो संतुलन ही बिगड़ गया - 'क्या कह रहे हो समर्थ तुम?' उसे कुछ विश्वास ही नहीं हो रहा था कि सामने जो शख्स खड़ा है, वह समर्थ ही है। बोली - 'मैंने अपनी जिंदगी का सब कुछ दाँव पर लगा दिया तुम्हारी खातिर। जब तुमने मेरा शरीर चाहा, शरीर दे दिया। जब-जब जहाँ-जहाँ चाहा मैं पहुँच गई। अपना सब कुछ तुम्हारे कदमों में बिछा दिया। अपनी भाभियों की टोकबाजी सही जो कहती रहीं कि जो लड़का तुमने चुना है दीदी, वह तुम्हारे आगे कुछ नहीं। और तुम अब कह रहे हो कि मैं तुम्हें रिहा कर दूँ?' ऋजु सचमुच, इतने आवेश में थी कि मानो वह खुद को ही नहीं पहचान पा रही थी। उस समय संयोग से दोनों ऋजु के मोहल्ले में ही एक पार्क में थे और ऋजु की ये चीखें सुनकर आस-पास कई युवतियाँ एकत्रित हो गई थीं। पर ऋजु का रूप देख वे न जाने क्यों, अपनी जगह एक सन्नाटे का रूप धारण किए स्थिर सी खड़ी सब देखती रही थीं। ऋजु सोच रही थी कम से कम बुद्धू शादी की तारीख तय करके भी इस तरह अचानक पलट जाएगा, इस पर वह विश्वास करने को ही तैयार नहीं। पर बुद्धू को इसके कुछ ही दिन बाद, एक दिन लगा कि जो कुछ पिछले कुछ दिन होता रहा, वह सब झूठ था। सोनीपत में एक दिन कमरे में बैठा था कि मकान मालिक के दोनों बेटे आ गए, बोले - 'आजकल आप बहुत डिस्टर्ब्ड लग रहे हो। क्या बात है? उधर लड़की वाले नहीं मान रहे क्या? या आपके घर की तरफ से कोई रुकावट है?'

मकान मालिक का बड़ा बेटा बुद्धू को बहुत पसंद करता है। वह बुद्धू को साथ लेकर कहीं घूमने निकल गया। पर चलते-चलते बुद्धू से बोला - 'आपकी शादी भी जैसे धनुष तोड़ने वाली बात हो गई। धनुष तोड़ने वाला कोई था नहीं, सो आप मिल गए... हह...' बुद्धू चकित था, मकान मालिक के बेटे की बात सुनकर। बोला - 'मैं दो चेहरे लेकर जी रहा हूँ इन दिनों। पता नहीं, शादी कर पाऊँगा कि नहीं।' मकान मालिक का बेटा अपनी ही रौ में बोलता चला गया, बोला - 'उधर जो लड़की के इनला'ज ने निकाल दिया था, तो हो सकता है कोई भीतर राज छुपा हुआ हो!...' बुद्धू सचमुच चकरा गया इन बातों से। पर रात को आ कर मकान मालिक बैठा। उसने बुद्धू से कहा - 'कुछ टेंशन तो है आपके मन में। न बात करते हो न हँसते हो। पर सच पूछें तो आप जैसा बड़ा कदम कम ही लोग उठा पाते हैं। बहुत महान कार्य कर रहे हैं आप।' बुद्धू के लिए रात काटनी भारी हो गई। उसे नींद लगभग नहीं ही आई। सुबह उठकर बुद्धू को जैसे आतंरिक पुकार सी हुई, उठकर हाथ-मुँह धोकर मकान मालिक के पास चला गया - 'मैं अभी, आज ही शादी करना चाहता हूँ।'

'पर शादी तो आपकी छब्बीस मई को तय थी न? आज तो पंद्रह ही है!'

नहीं। आज ही शादी हो जाए तो अच्छा। वर्ना वो लोग ऋजु की शादी कहीं और करा देंगे...'

और बुद्धू को लेकर मकान मालिक खुद आ गया दिल्ली। बहुत विकट सी परिस्थिति थी। अनामिका ने क्या किया कि अपने भाई सौरभ को सोनीपत भेज दिया कि जा कर बुद्धू से कहो कि अगर शादी ऋजु से ही करनी है तो छ महीने रुक जाए। कम से कम अनमोल जो बड़ी है, उसका रिश्ता एक-दो जगह चल रहा है, उसकी शादी तो हम करा दें। तब तक रुक सकते हैं दोनों तो रुकें।' सौरभ सोनीपत पहुँचता है तो मकान मालकिन उसे चकित कर देती है - 'सिमरथ! वो तो बेटा शादी करने चला गया है! रात उसे नींद ही नहीं आ रही थी, बस लड़की की याद आती रही सारी रात! कह रहा था आज ही शादी करूँगा!' सौरभ के लिए 15 मई 1977 का दिन सबसे तनावपूर्ण दिन था। वह पानी-पीने भी नहीं रुका और दिल्ली चला आया। पटेल नगर में कौन से मोहल्ले में हैं वे, यह तो उसे पता था पर घर ढूँढ़ने में समय लगा। इधर बुद्धू मकान मालिक के साथ ऋजु के घर पहुँचा तो घर में घुसते ही ऋजु की माँ के चरणों में गिर पड़ा और रोने लगा - 'मम्मी मुझे क्षमा कर दो।' घर में सबको पता चल गया कि कुछ ही दिन पहले समर्थ ऋजु से शादी करने से मनाकर गया था। आज अचानक आया है, कह रहा है अभी, इसी समय शादी करूँगा। जाने क्या उथल-पुथल है इसके मन में!। ऋजु के पिता को मौका मिल गया। ऋजु अक्सर उन्हें ताने मारती कि 'अपनी कम्यूनिटी में शादी करके बड़े सुख देख लिए न आपने, अब यह दूसरी कम्यूनिटी का है जो मुझसे कह रहा है कि तुम्हीं मेरी जिंदगी हो, तुम मुझे एक पैसा भी मत देना। मैं तुम्हें ही ब्याह कर जाऊँगा। और किसी को नहीं। तुम अगर मेरी नहीं हुई ऋजु, तो मैं तुम्हें किसी की भी नहीं होने दूँगा।' फटाफट पंडित भी आ गया। सुबह बुद्धू जल्दी में नहाया तक नहीं था। ऋजु ने ही उससे कहा - 'जा कर नहा धो लो। डैड तुम्हारे लिए नई शर्ट लाए हैं। जित्तू (ऋजु का भाई) के साथ चले जाओ, एक दुकान से पैंट भी रेडीमेड मिल जाती है।' बुद्धू नहा तो लिया, पर कहने लगा - 'कपड़े मैं अपने ही पहनूँगा, लड़की वालों के क्यों पहनूँ? मैं इन्हीं कपड़ों में शादी करूँगा।' इस बीच ऋजु की माँ के मन में एक और ही संघर्ष चल पड़ा था... ऋजु से बोली - 'यह तो जिद पर है कि आज ही शादी करूँगा। कोई चीज भी नहीं लेना चाहता। कह रहा है दहेज का एक रुपया भी दिया तो शादी तोड़ दूँगा। आदर्शवादी बनता है। पर हमारा यह तो फर्ज है कि कम से कम अनामिका को खबर तो कर दें, कि शादी हो रही है। आ कर आज सिर्फ फेरे लगवा जाए, बाकी जब वो खुद कहे।' इस बीच सौरभ भी आ पहुँचता है, पसीने-पसीने। सौरभ ऋजु से लड़ने लगता है कि 'तुम लोगों ने जरूर मेरे भाई को दबाया होगा। उसे डरा धमका कर शादी करवा रहे हो, वर्ना हमारे घर में अनामिका के हुक्म से बाहर कोई जाता ही नहीं। खुद समर्थ ही उसे देवी मानता है।' ऋजु समझा पाए, इससे पहले बुद्धू अपने भाई को बाहर ले गया। रास्ते में ही बोला - 'यह शादी मैं अपनी मर्जी से कर रहा हूँ। लड़की वालों से एक लफ्ज भी कहने का मतलब?' सौरभ हतप्रभ था पर उसके पास वहाँ से चले जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। इधर ऋजु की माँ ने, जित्तू ने और उसकी बीवी साधना ने खूब कोशिश की कि अनामिका का नंबर मिल जाए। पर वह मीटिंग में थी और उसके दफ्तर वालों को बहुत आग्रह किया गया कि किसी प्रकार अनामिका तक यह मैसेज पहुँचा दो कि समर्थ आज ही शादी कर रहा है। वह सिर्फ थोड़ी देर आ जाए। पर कुछ न हो सका। शाम तक पंडित इंतजार करता रहा, फिर थोड़ी देर चला गया और फिर आ गया। मकान मालिक करोल बाग अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ चला गया था। फिर शाम को ही आया। अँधेरा होते न होते मकान की छत पर मंडप तैयार हो गया। पंडित बैठ गया। दुल्हन तैयार हो गई। ऋजु बुद्धू को घर के एक कोने में ले गई और बोली - 'देखो समर्थ, मैं कसम खाकर कहती हूँ, तुम पर शादी का कोई बंधन नहीं। कोई जबरदस्ती नहीं। दबाव तो बिलकुल नहीं। तुम चाहो तो मुझे अभी, इसी समय बेसहारा छोड़कर जा भी सकते हो। मैं जिंदगी भर अपनी जबान से उफ तक नहीं करूँगी।' बुद्धू ने क्या किया कि ऋजु को अपनी बाँहों में लेकर रोने सा लगा? फिर बोला - 'नहीं ऋजु, मैं सचमुच तुम्हारे बिना नहीं रह सकूँगा।'

अग्नि के गिर्द फेरे शुरू हो गए। ऋजु की यहाँ वाली मकान मालकिन भी अक्सर इन लोगों से लड़ती रहती थी। कभी-कभी तो इतनी असंतुलित हो जाती कि इसी छत पर पड़े उन के बिस्तर तक जला दिए थे उसने एक बार। पर उसे पता चला कि आज इन की ऋजु की शादी हो रही है और कोई लड़का उसे अपने प्यार का वास्ता देकर ब्याह करने आया है, तो वह भी साथ के अपने फ्लैट से तैयार होकर मुस्कराती हुई आ कर ऋजु की माँ के साथ खड़ी हो गई और नम आँखों से कहने लगी - 'बेटी के लिए कोई मेरा जिगर भी फाड़ कर ले ले, मैं निकालकर दे दूँगी।' पड़ोस में सबको पता चल गया कि यहाँ जो नए किराएदार आए हैं, उनकी बेटी तलाक लेकर अब दोबारा शादी कर रही है, सबको खुशी हुई। फेरे शुरू हुए पर अचानक आँधी आ गई। सिर्फ दो फेरे हुए थे। पंडित ने कहा - 'कोई ना घबराए, सब ठीक हो जाएगा।' मकान मालिक ने सलाह दी कि यहाँ आँधी बहुत है, सब की आँखों में चिंगारियाँ या कंकर पड़ रहे हैं। नीचे चलकर मंडप बनाओ। फिर मंडप नए सिरे से नीचे के कमरे के अंदर बनाया गया। ऋजु की माँ की स्थिति विचित्र थी। वह बार-बार दरवाजे की तरफ देखती और सोचती, कहीं अनामिका अचानक आ गई तो सब कुछ रोक देगी। फिर सोचती, भगवान करे आ जाएँ, आ कर अशीर्वाद दे हम सबको, यह रिश्ता कबूल कर ले। कुछ न कहे किसी से भी? फेरे पूरे हो गए और बुद्धू रात बारह बजे मकान मालिक, जित्तू, साधना और अपने ससुर महोदय के साथ एक डी.एल.वाई गाड़ी में सोनीपत पहुँच गया। वहाँ मकान मालकिन ने ऋजु को आशीर्वाद दिया तो उसकी भी आँखें नम हो गई। उसे भी ऋजु की दर्द भरी दास्तान पता थी। पर बुद्धू उस डी.एल.वाई गाड़ी में ही ऋजु के घर वालों के चले जाने के बाद सहसा अनमना सा भी हो गया। कमरा छोटा था या उसके मन की प्रतिक्रियाएँ ही बार-बार उभरकर सतह तक आ जातीं, जैसे गर्म होते पानी में नीचे के कण ऊपर आते रहते हैं। दोनों सो गए, चारपाई पर लेटते ही ऋजु बुद्धू से लिपट गई, पर बुद्धू की उपस्थिति उसके भीतर ही कहीं उसे महसूस नहीं हो पा रही थी। जाने क्यों? आने वाले दिन क्या उसके लिए अप्रत्याशित संघर्ष के दिन होंगे? यह सोच ऋजु घबराई हुई सी आँखें मूँद बुद्धू से बार-बार लिपटने की कोशिश करती सो गई।

आने वाले दिन सचमुच टकराहट वाले दिन थे। अनामिका उस रात बहुत देर से घर लौटी थी। इस सीमा तक व्यस्त थी कि उसे दफ्तर में किसी ने कोई मेसेज भी नहीं दिया। घर आ कर सौरभ से बात सुनते ही सौरभ पर बरस पड़ी कि वहाँ से आ कर चुपचाप घर बैठे रहे और मुझे भनक तक नहीं पड़ने दी कि यहाँ हो क्या रहा है। फिर उसने सौरभ को ऋजु के घर भेज कर खूब झगड़ा करवाया। सौरभ उनके घर चीखने लगा। पर ऋजु के घर के लोग सब कुछ सह गए। अनामिका को इस बात पर भी बहुत अपमान महसूस होने लगा कि उसकी ही अधीनस्थ एक आजाद सी दिखती महिला ने उसके भाई को फाँस कर शादी कर ली है। फिर अनामिका गम खा गई और उसने उसी, 26 मई को ही शादी का रिसेप्शन भी रखा, सब रिश्तेदारों को बुलाया। अपने पिता को समझाने में उसे समय लग गया। पिता बोले - 'वही लड़की है न, जो फिलॉसाफी में एम.ए. है?'

'हम्म्म्म।' अनामिका ने हल्की सी 'ह्म्म्म' से ही पिता की जिज्ञासा खत्म कर दी। पिता को याद आया यह लड़की आती थी और एक बार उन्होंने उसे मजाक में बताया था कि फिलॉसाफर तो गाँव में दीवार पर गोबर चिपका देखते हैं तो जिंदगी भर सोचते हैं कि गाय दीवार पर चढ़ी कैसे होगी? और पाँव दीवार पर टिकाकर जमीन के समानांतर टिकी कैसे होगी? और उसने गोबर दिया भी तो वह जमीन पर न गिरकर सीधे दीवार में जा कर कैसे चिपक गया होगा? इस इतने से दृश्य को समझने के लिए फिलॉसाफर जिंदगी भर विज्ञान पढ़ेगा, भौतिक विज्ञान, पशु पक्षी विज्ञान और गुरुत्वाकर्षण... ठोस पदार्थ, तरल पदार्थ... और इसके साथ ही गाँव की जिंदगी के अलग-अलग नमूने भी समझेगा और गोबर के ईंधन के रूप में उपयोग को भी समझेगा। तब तक बूढ़ा हो चुका होगा और अपना निष्कर्ष इस प्रकार लिखेगा :

'गाय ने जमीन पर खड़ी होकर ही गोबर दिया और किसी औरत ने वह गीला गोबर उठाकर दीवार पर थोप दिया। गोबर तीखी धूप में सूख गया...' बस, इस इतने से निष्कर्ष से ही वह विश्वप्रसिद्ध फिलॉसाफर होकर मरेगा!'

ऋजु हँस-हँसकर लोट-पोट होने लगी थी अनामिका के पिता की इन बातों पर।

ऋजु ससुराल आ गई तो अनामिका और उसकी बहनों ने, और फिर भाइयों ने भी मूड ठीक कर लिए। ऋजु को पिता ने बुलाकर बहुत प्यार से कहा - 'घर तुम्हारा ही है। कभी भी कोई बात कहने में संकोच न करना बेटी। अपनी खाने पीने की, पहनने की मनपसंद चीजें बताती रहना सबको। अपने पिता को भूल कर हम सब में ही अपना घर तलाशना।' ऋजु बहुत खुश हुई। पिता के पाँवों पर गिरकर आशीर्वाद माँगने लगी। सब कुछ सामान्य सा हो गया। अनामिका अनमोल अंजली ने ऋजु को प्यार दिया, उसे आश्वस्त किया कि यहाँ कोई कमी नहीं होगी तुम्हें। सोनीपत में खुश रहो दोनों और जब मन करे यहाँ आ जाओ।'

पर बुद्धू के मन की स्थिति अजीब सी ही थी। वह बात-बात पर लड़ने लगा ऋजु से। उसके पिता कुछ भेजते, पैसा या खाने की चीज तो वह ऋजु को चीखकर बताता - 'मैं दहेज के खिलाफ हूँ पता नहीं तुम्हें? कोई भी लेन-देन मुझे पसंद नहीं समझी?' ऋजु कहती - 'दहेज तो तुमने लिया ही नहीं समर्थ, ये तो प्यार से कोई फल वगैरह तुम्हें भेज देते हैं। हम भी मौके पर डैड के पास कुछ ले जाएँगे, देखती हूँ कैसे नहीं लेते। मैं उन्हें बताऊँगी कि मेरा समर्थ किसी भी घटिया परंपरा में विश्वास नहीं करता। उसे आधुनिकता पसंद है। वह तोहफा लेगा तो दे भी सकता है। वह यह कतई नहीं सुनेगा कि हम लड़की वाले हैं, इसलिए बेटी के घर का पानी भी नहीं पिएँगे।' पर बुद्धू था कि उसका संतुलन जाने कहाँ चला गया था। इसका चरम तब ही आया जब ऋजु के बड़े भाई ने जो दिल्ली से बाहर रहता था, एक बढ़िया स्वेटर बुद्धू के लिए पार्सल से भेजा। बुद्धू को वह पार्सल ऑफिस में ही मिला था। आ कर ऋजु से बोला - 'तुम्हारे भाई ने पार्सल भेजा है मुझे। स्वेटर है। पर मैं क्या दहेज में स्वेटर लूँगा?'

ऋजु रो पड़ी - 'वह दहेज नहीं है, तोहफा है समर्थ तोहफा। हम भी उन्हें दे सकेंगे। तुम...' पर बुद्धू ने दफ्तर से ही दुबारा सिलाई करके वह पार्सल ऋजु के भाई के पास चंडीगढ़ वापस भेज दिया था। ऋजु को लगता था उसका पति कहीं भी, किसी भी तरह से उसके साथ है ही नहीं, जैसे उसकी शादी हुई ही नहीं। समर्थ किसी न किसी बहाने उसे जलील करता ही रहता। इस बीच यह भी हुआ कि ऋजु को लगा वह माँ बनने वाली है। उस समय तक तो बुद्धू ने किराए का वह सिंगल रूम छोड़कर एक वन बेडरूम सेट भी किराए पर ले लिया था, जो फर्स्ट फ्लोर पर था। बुद्धू ऋजु के साथ अंतरंग क्षण भी ऐसे काटता, जैसे बदन का तनाव भर दूर कर रहा हो। शारीरिक संबंध तक बहुत निर्मम तरीके से रखता जैसे ऋजु को लिटाकर उसे पीस रहा हो। आखिर एक तरफ हो जाता। उस जैसे व्यक्ति के मुँह में न जाने कहाँ से दुनिया भर की गालियाँ आ गईं। कभी इधर धकेलता कभी उधर। माँ बनने की खबर सुनकर ऋजु की माँ आ गई सोनीपत। खुशी-खुशी बोली - 'हमारे में पहली डिलीवरी माँ के घर करते हैं बेटे...' पर बुद्धू चिल्ला पड़ा - 'यहाँ माँ-वाँ का कोई नहीं देखता। हम लोग खुद करेंगे सब...'

ऋजु को लगता कि बुद्धू को समझ ही नहीं आ रहा कि उसे करना क्या चाहिए, या क्या नहीं करना चाहिए? जब वह बुद्धू के साथ गाड़ी में दिल्ली जाती तो बुद्धू उसे घर में ही छोड़ अकेले ड्यूटी पर सोनीपत चला जाता अगली सुबह। जब लौटता तो अनमोल उससे कहती - 'ऋजु ने पिताजी की खूब सेवा की। पिताजी को अचानक दर्द हुआ तो रात तीन-चार घंटे उनकी सेवा की, हमें पता भी न चला। दवाई दे दी, बहुत अच्छी बातें बताई, अपनी माँ के बारे में बताया। तुम तो ख्वामख्वाह बेचारी को डाँटते रहते हो...'

...ऋजु उचित समय से कुछ पहले ही दिल्ली के सुचेता कृपालानी हस्पताल में दाखिल हो गई। डॉक्टर ने कहा था - 'सिजेरियन ऑपरेशन होगा।' ऋजु कुछ दिन से संयोग से अनामिका के पास ही थी। जब अचानक हस्पताल में दाखिल हुई तो बुद्धू को फोन करवाया गया। बुद्धू सोनीपत में रिलीवर मँगाकर दिल्ली आ भी गया था। पर अनमना सा घर में सोया रहा तो आ कर अनामिका ने डाँट पिलाई - 'पिता बनने वाले हो। जाओ, जा कर बीवी का सहारा बनो। हस्पताल सब लोग जा रहे हैं, तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हें भी जाना चाहिए? चलो...' कहकर अनामिका ने उसे बिस्तर से नीचे धकेल सा दिया और बिस्तर के बाहर खड़ाकर दिया था।

बुद्धू चल पड़ा। रात भर सब लोग इंतजार में रहे। कोई आता रहा कोई जाता रहा। सुबह आ कर डॉक्टर ने कहा - 'आज दोपहर ऑपरेशन होगा।' और ठीक दो बजकर छप्पन मिनट पर बुद्धू की प्यारी सी बिटिया हुई। पर बिटिया क्योंकि सिजेरियन से हुई, वक्त से कुछ पहले हुई, सो डॉक्टरों ने कह दिया - 'बिटिया दो दिन साथ ही के कलावती हस्पताल में रहेगी। वहाँ गर्माहट भरे ओवंस में बच्चों को रखा जाता है।' बुद्धू अपनी बिटिया और ऋजु को उसके वार्ड में पहले ही देख आया था। ऋजु बार-बार उसकी खुशामद करती, कहती - 'पता है, अनामिका दीदी को सब डॉक्टर समझ रहे हैं। उसकी पर्सनालिटी ऐसी है न...' पर बुद्धू के कान पर जूँ तक न रेंगती। ऋजु की माँ भी बिस्तर पर पैरों की जगह बिटिया को गोद में लिए बैठी रहती, कहती - 'क्या बात है समर्थ बेटे, तबियत ठीक नहीं है क्या?'

बुद्धू के मन में जाने क्यों, ऋजु के अतीत को लेकर कैसे-कैसे ख्याल आते-जाते? उसने अपनी बड़ी भाभी, मनीष की पत्नी से कह दिया था, बहुत गोपनीय तरीके से - 'क्या ऋजु से मैं तलाक ले सकता हूँ अब?' बड़ी भाभी का मुँह फटा का फटा ही रह गया। पर बुद्धू इस बीच अपनी बिटिया को कलावती हस्पताल में देख आया। उस हस्पताल में इस प्रकार विशेष परिस्थितियों में लाए गए बच्चों को सीधे नहीं दिखाते थे। वरन डॉक्टरों ने सबको एक-एक नंबर दे दिया था और हर बच्चे की पीठ पर भी वही नंबर लगा दिया था। शाम चार बजे से छ बजे तक एक-एक बच्चा नंबर के मुताबिक एक जालीदार खिड़की के पास लाते। कोई नर्स मुस्करा कर जाली के अंदर से बच्चा बाहर खड़े उसके बाप को या अन्य रिश्तेदारों को दिखाती। अनामिका बुद्धू के साथ ही जाली के बाहर खड़ी थी, बोली थी - 'एकदम तुम जैसी सूरत है समर्थ। देखो तो कितनी प्यारी है?' और कुछ ही दिन बाद बिटिया का नाम पड़ गया कशिश। सो ऋजु बोली - 'समर्थ, कितना प्यारा नाम है न, कशिश? हम उसे प्यार से केशू कहेंगे। केशू...' कहकर ऋजु जैसे गदगद सी होकर खिलखिलाने लगी।

समर्थ सोनीपत चला गया और ऋजु हस्पताल से रिहा होकर कुछ दिन अपनी माँ के पास चली गई। फिर महीने भर बाद सोनीपत भी आई। पर उसके बुद्धू से संबंध न बनने थे सो न बने और एक दिन बुद्धू जिंदगी भर अपने सर पर ढोने के लिए एक पाप कर चुके होने का बोझ ले बैठा। उसे यह मरते दम तक नहीं भूलेगा कि उसने अपनी ही मनोग्रंथियों का शिकार होकर एक दिन अपनी सबसे प्यारी और अनमोल सी बिटिया केशू को खुद से अलग कर दिया। बिटिया को अक्सर वह गोद में उठाकर बाहर ले जाता। दो कमरों और किचन के बीच एक खुली सी छत भी होती। उसे बेटी बहुत प्यारी लगती। उसे सीने से लगाकर वह लोरियाँ सुनाता रहता, जब तक नींद न आए तब तक छत पर मीठी सी आवाज में केशू को दुलारता घूमता रहता। केशू को सीने से लगाता तो जिंदगी भर की खुशियाँ उसकी झोली में आ जातीं, मानो अब उसे आखिर चाहिए क्या? पर वह सब कुछ उतनी ही देर तक रहता जितनी देर तक केशू उसकी गोद में रहती। जिस ऋजु के लिए वह सारी दुनिया से लड़ने को तैयार था, एक दिन वह उसी ऋजु को रोती छोड़ आया पटेल नगर, उसकी माँ से कह दिया - 'हमारे संबंध बन नहीं पा रहे। हमें अलग होना ही पड़ेगा।' ऋजु की माँ भी उस समय अकड़ गई थी, रोई बिलकुल नहीं, बोली - 'अच्छा बेटे। बेटी किसी के लिए महँगी नहीं होती, तू इसे यहीं छोड़ जा। मैं इसके लिए अपनी जान कुर्बान कर दूँगी। तू जा अब।'

और बुद्धू अपने अस्पष्ट से खयालों में जो कुछ हो रहा है, उसे समझ पाने में असमर्थ सा सोनीपत चला गया था। उसने अनामिका को भी यह सब नहीं बताया था कि उसने ऋजु से अलग होने का फैसला कर लिया है!


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