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उपन्यास

नौकरीनामा बुद्धू का

प्रेमचंद सहजवाला


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बुद्धू एक जालीदार सी पार्टीशन के इस तरफ रखी आराम कुर्सियों में से एक पर बैठा चाय पी रहा है। अभी-अभी उसे चुन्नीलाल मकैनिक बता गया कि यहाँ चाय का क्लब बना हुआ है। महीने में पंद्रह रुपये हैं। दो बार चाय बनती है। यहाँ चाय बड़े नायाब तरीके से बनती है। एक बिजली का कैटल है जिसमें पानी उबलता रहता है। जब पूरी तरह उबल जाए तो दस-बारह गिलासों के पेंदों पर नजर आ रहे दूध के ऊपर उबलता पानी एक-एक करके डालते जाओ। पर गिलास पर चलनी रखी है, सो उस पर चाय की पत्ती के दाने भी रखे हैं। दूध तक पहुँचते-पहुँचते उबलता पानी चाय में तब्दील होता जाता है।

'यहाँ यह दफ्तर है या क्लब,' बुद्धू दिल्ली में अपने विभाग के ही एक ब्रांच ऑफिस में बैठा है जहाँ उसकी कुछ समझ ही नहीं आया कभी। यहीं वह आ कर दो महीने ट्रेनिंग भी कर गया था पर यहाँ आते ही उसका वास्ता एक बड़े ही चालू आदमी से पड़ा। दरअसल अगर ट्रेनिंग दस दिन से ज्यादा हो तो डेली अलाउंस क्लेम करते समय कर्मचारी को लिखकर देना पड़ता है कि मुझे अपनी तैनाती और ट्रेनिंग वाले शहरों में दो अलग-अलग प्रतिष्ठान बनाने पड़े थे। ऐसा लिखने भर से पूरे टूर का दैनिक भत्ता मिल जाता है। बुद्धू ने यहाँ से प्रस्थान करते समय क्लेम फॉर्म भरा था और श्रीमान यशपाल जो कि प्रशासन की सीट देख रहे थे, की सीट पर रख दिया था। पर यशपाल ने उसे बताया कि 'जब वापस दसुआ पहुँच जाओ तब वहाँ से भर कर भेज देना और आने-जाने के टिकटों का ब्यौरा भी भर देना ताकि दोनों तरफ का रेल का किराया भी मिल सके।' पर यशपाल ने देखा नया आदमी है, पता तो कुछ है नहीं, सो उसे बताया ही नहीं कि दो प्रतिष्ठान बनाने वाला प्रमाण पत्र भी देना पड़ता है। बुद्धू जब तक ट्रांसफर होकर आए तब तक कैश ब्रांच से उसके पैसे भी आ गए जिसके मुताबिक उसे पूरे छ सौ रुपये का घाटा पड़ गया। सब ने बुद्धू को बताया कि यशपाल तो है ही बड़ा चालू आदमी। वह चाहता तो आपका क्लेम वापस दसुआ भी भेज सकता था कि उचित प्रमाण पत्र नत्थी करो। पर उसका तो काम ही यही है। बुद्धू को लगा कि सरकारी प्रोसीजर भी जंजाल सा है और हर व्यक्ति ने अपनी-अपनी सीट पर अपनी-अपनी सरकार अलग से बना रखी है। ब्यूरोक्रेसी पूरी की पूरी ऐसे ही लोगों से भरी पड़ी है। यहाँ लोग चुगली खूब लगाते हैं। किसी को झाड़-वाड़ पड़े तो कलेजे में ऐसी ठंडक सी उतरती महसूस करते हैं जैसे लॉट्री-वाट्री निकल आई हो।

एक दिन बुद्धू को खूब झाड़ पड़ी और सब लोग बेहद खुश हुए। बुद्धू दिल्ली में इन दिनों जिस दफ्तर में ट्रांसफर होकर आया है, उस में कुल मिलाकर तीस-चालीस का स्टाफ है और यह दफ्तर किसी जंगल जैसी जगह पर बना हुआ है। इसलिए कभी-कभी इसे मजाक में फॉरेस्ट ऑफिस भी कहा जाता है। बस से उतर कर एक खतरनाक सी दिखती पगडंडी पर से टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चलकर दफ्तर पहुँचना पड़ता है। जब दो-चार लोग जा रहे हैं तब तो ठीक, वर्ना सनसनी सी बदन में फैल जाती है। कभी-कभी कोई खतरनाक सा बंदर बड़े आक्रामक तरीके से दूर से ही हमला करता इस तरफ आता और बुद्धू के बदन में झुरझुरी सी दौड़ जाती। बंदर मानो खेल सा करता उसके सामने दाँत किटकिटा कर वापस टेढ़ा-मेढ़ा सा भाग जाता और दूर छिटक जाता।

बुद्धू को एक बार हेडक्वार्टर जाना पड़ा। तीन दिन की ट्रेनिंग हेडक्वार्टर में भी थी। वहाँ अलग-अलग किस्म की घड़ियों को कैसे चलाते हैं, यह सीखकर आना था। यहाँ तीनों दिन बुद्धू ने बहुत मन लगाकर ट्रेनिंग ली, पर जिस मकैनिक 'भसीन' को उसे ट्रेनिंग देनी थी, वह बड़ा गर्म मिजाज माना जाता। बुद्धू के साथ एक और ट्रेनी भी था और बुद्धू ने जहाँ जा कर अपनी कार्यग्रहण सूचना दी, वहाँ से डायरेक्टर के पी.ए. ने उसे वर्कशाप भेज दिया। वर्कशाप में उसे डायरेक्टर के पी.ए. का ही फोन आया कि मकैनिक भसीन ट्रेनिंग देने पहुँचा कि नहीं।

'नहीं। अभी तो यहाँ कोई नहीं है।' बुद्धू ने आस-पास देखकर कहा। उसका साथी ट्रेनी तो वैसे ही गायब था। तब तक भसीन आया और बुद्धू पर बरसने लगा - 'इडियट मैं तो आ ही रहा था। तूने वहाँ फोन पर क्यों कहा कि मैं अभी पहुँचा ही नहीं?' बहरहाल, वह दिन तो गुजर गया। बुद्धू रोज बस की खिड़की से नए-नए रास्ते देख खुश होता। हेडक्वार्टर वहाँ है, जहाँ आजकल दिल्ली का सी.जी.ओ. कॉम्प्लेक्स बना हुआ है ('सेंट्रल गवर्मेंट ऑफिस' कॉम्प्लेक्स)। बुद्धू ने जंगल ऑफिस में दो दिन पहले किसी पानी भरने वाले मजदूर को कुछ जरूरी नक्शे दे दिए थे और इशारे से कहा कि इन्हें अलमारी में रख दो। पर उस अनपढ़ मजदूर ने क्या किया कि नक्शे फाड़ दिए और उनकी डंडियाँ अपने थैले में सँभाल कर रख दी। एक नियमित चपरासी ने उसे ताड़ लिया और पकड़कर चीखने लगा उस पर - 'ये तूने कहाँ से लिए हैं?'

'मैंने... मैंने... मुझे समरथ साहब ने दिए हैं...' उस समय दफ्तर के अधिकांश लोग जा चुके थे और बुद्धू भी। पर अगली सुबह ही चपरासी ने वे डंडियाँ जा कर अफसर बनर्जी के सामने रख दी और सारी बात, बता दी। वाटरमैन से उसने डंडियाँ लेकर अलमारी में रख दी थी और फटे हुए नक्शे भी किसी बकेट में उसे मिल गए थे।

स्पष्ट है कि शामत आई तो बुद्धू की। बुद्धू से उस जंगल वाले दफ्तर से बनर्जी ने फोन पर पूछा - 'पानी भरने वाले को इतने इंपोर्टेंट नक्शे क्यों दिए? उसने फाड़ दिए हैं वो!'

बुद्धू को बेहद गुस्सा आ गया और फोन पर ही बनर्जी से बोला - 'ऐसे मजदूर को नौकरी से निकाल बाहर करो सा'ब।' और ऑफिसर बनर्जी के तन-बदन में आग लग गई। एक असिस्टेंट होता कौन है उस पर हुक्म चलाने वाला, कि ऐसे मजदूर को नौकरी से निकाल बाहर करो जी! तीन दिन की ट्रेनिंग पूरी होते ही बुद्धू उस जंगल वाले ऑफिस गया तो उसे थोड़ी देर हो गई थी। कभी-कभी उस बंदर से बचने के लिए वह जरा लंबा सा एक रास्ता पकड़ लेता। लगभग आधा किलोमीटर दूर ही एक लड़कियों का कॉलेज भी है, कभी-कभी वहाँ से लड़कियाँ आ कर उस रास्ते के दोनों तरफ बने जंगल में प्रेमियों के साथ किसी वृक्ष की छाया में रोमांस करती नजर आती। मौसम अच्छा था और बुद्धू इस प्रकार के एक-दो नजारों को देखता मस्ती में सोचता आ रहा था कि जिंदगी में जो सेक्स का मजा उठाते हैं, वही खुश रहते होंगे बस। पर वह दफ्तर में ज्यों ही घुसा तो पूरा दफ्तर मानो उसी के इंतजार में अपनी जगह तैनात था। जैसे किसी नाटक का पर्दा उठते ही सेट पर रखी टेबलों पर लोग तैनात दिखें। उसके घुसने से पहले एक-दूसरे से पूछते हैं सब - 'वो आया नहीं?'

कौन?'

'वही फुद्दू।'

'हा हा हा हा हा हा...'

'आए और झाड़ पड़े न सा'ब की। सा'ब तो कल से ही खूब गर्माए से बैठे हैं। मुझे अभी बताया कि उनको कल से ही गुस्सा है। यह होता कौन है उन पर हुक्म चलाने वाला? कि मजदूर को बाहर निकाल दो जी!' यानी उस महत्वपूर्ण नक्शे वाली बात गौण हो गई थी और अब सारी मुसीबत की जड़ यही थी कि बुद्धू ने अपने ऑफिसर को कोई सलाह दे दी थी। ऑफिसर और असिस्टेंट का समीकरण अभी इस बुद्धू को सीखना है। ऑफिसर हमेशा ज्यादा जानता है, यह मानकर चलना चाहिए। बुद्धू के आते ही सब सतर्क हो गए और बुद्धू सबसे मुस्कराता हुआ जा कर अपनी सीट पर बैठा। तब तक बनर्जी को भी भनक पड़ गई और चीखता हुआ हॉल में घुसा - 'मिस्टर समर्थ... तुम जानते नहीं कि एक ऑफिसर से कैसे बात की जाती है?'

'कब की बात कर रहे हैं सर?' बुद्धू खड़ा हो गया।

'कब की बात बताऊँ? कल तुमने यह क्यों कहा कि मैं उस मजदूर को निकाल दूँ। यू डोंट नो हाउ टु बिहेव?' ऑफिसर का पारा चढ़ा हुआ था और वह जैसे झाड़-पोंछ कर बुद्धू की खाल खीच देना चाहता था पर ज्यों-ज्यों वह झाड़ता, सब लोगों के शरीरों के अंदर ठंडक की लहरें दौड़ने लगतीं, जैसे सबके-सब कोल्ड ड्रिंक पी रहे हों। ऑफिसर चला गया तब वही मकैनिक भसीन भी आ कर बुद्धू पर चिल्लाने लगा - 'ओ बुद्धू अब तू पार्टी कर। सबको चाय पिला तभी तेरी जान छूटेगी। उस दिन मेरी भी पूछताछ करा दी थी तूने। मैं यहाँ उस दिन थोड़ी देर के लिए आ गया था और फिर बस पकड़ कर हेडक्वार्टर गया तो देर हो गई। तूने तब तक फोन पर ही ड्रेक्टर (डायरेक्टर) के पी.ए. को बता दिया कि मैं तो पहुँचा ही नहीं जी!'

बुद्धू को पूरे स्टाफ को तगड़ी पार्टी देनी पड़ी। सब ने उसे खूब प्यार किया और हॉल के एक छोर पर रखे उस पार्टीशन के पीछे बैठकर सब ने खूब कहकहे लगाए और उसे समझाते भी रहे कि यह जो अफसर है बनर्जी, इसके साथ कभी पंगा न लेना। बस जो कहे कहो जी 'एस सर!' फिर अचानक आराम से कुर्सी पर बैठे भसीन ने टेढ़ा होकर अपनी ही हिप्स पर हाथ घुमाते-घुमाते कहा - 'उसकी... पर अमुल बटर लगाया कर तू!' सब ने फिर कहकहा लगाया। बुद्धू ट्रेन हो रहा था। बुद्धू का पचास रुपये खर्च हो गया। इस पर भी सब ने जोरदार कहकहा लगाया और भसीन ने खड़े-खड़े प्यार से बुद्धू की चुम्मी ले ली।

बुद्धू को बताया गया कि भसीन सचमुच यहाँ का सबसे चालू आदमी है। यहाँ दरअसल दो-दो भसीन हैं। एक तो लंबी छुट्टी पर गया है। वह तो है क्रिमिनल भसीन। बुद्धू जब ट्रेनिंग पूरी करके वापस दसुआ गया तब तक वह क्रिमिनल भसीन एक आउटस्टेशन पर लगा था और वहाँ एक शरीफ आदमी जो नया-नया लगा था, ने छ महीने में ही नौकरी छोड़ दी। वह शरीफ आदमी पत्र-व्यवहार करता रहा कि जब से वह आया है, इंचार्ज भसीन उसकी तनख्वाह लगभग सारी हड़प जाता है। कभी-कभी तो ढाबे से लाया उसका खाना भी चट कर जाता है। आखिर दफ्तर ने कुछ न किया तो बेचारे ने तंग आ कर अपनी नौकरी को खुद अपने हाथों से ही तिलांजलि दे दी। आउटस्टेशन के किस्से यहाँ लोग चस्के ले-लेकर सुनाते हैं। एक ने बताया - 'जहाँ भसीन लगा था न, वहाँ पहले एक और इंचार्ज था जो आजकल हेडक्वार्टर में है। उसके साथ बड़ी मजेदार हुई। ऑफिस ने मेमो ठोक दिया पट्ठे पर। वह आउटस्टेशन नया-नया बना था और वहाँ नए लगे इंचार्ज मि. सूरी को बहुत बोरियत सी होने लगी। एक तो अभी फर्नीचर भी नहीं खरीदा गया था और उसे अपने दो अन्य साथियों यानी एक और असिस्टेंट (जैसे दसुआ में मांडियाल था) व क्लास फोर के साथ आ कर जमीन पर बैठना पड़ता। एक जमादारनी आ कर झाड़ू लगा जाती। दफ्तर से कभी कभार कोई भूला भटका पत्र आ जाता जिसका जवाब वह भेज देता। वही दो फाइलें। एक आने वाले पत्रों की, एक जाने वाले पत्रों की। ये दोनों फाइलें और स्टेशनरी अपने घर में ही रखनी पड़ती उसे। सूरी हमेशा इस इंतजार में रहता कि दिल्ली से कुछ बड़े माई-बाप लोग आएँगे और यहाँ आ कर इंस्ट्रुमेंट लगा जाएँगे तो काम शुरू होगा। पर डेढ़ साल तो ऐसे ही बीत गया। सूरी ने फिर दफ्तर को ही एक लंबा सा मेमो ठोक दिया कि 'इस प्रकार तो इस आउट स्टेशन का किराया व हम तीनों के वेतन रूप में ऑफिस खामखाह पैसा बहा रहा है।' ऑफिस को हमेशा इसी बात पर गुस्सा आता है बस, कि नीचे वाले होते कौन हैं? हमारी निकम्मियत हमें अपनी अक्ल के शीशे में दिखाने वाले। हमारी बिल्ली हमें ही म्याऊँ! नीचे वाले तो बस 'एस सर' 'एस सर' का पाठ रटने के लिए होते हैं! कोई इतने बड़े मंत्रालय के विभाग को ही लेक्चर झाड़ दे कि 'पैसा जाया हो रहा है, कुछ करो जी!' फिर विभाग की इतनी बड़ी राष्ट्रीय स्तर की प्रेस्टीज का क्या होगा? सूरी को एक चेतावनी भरा प्रेम-पत्र मिला। यहाँ मेमो को प्रेम-पत्र कहा जाता है। इसी दफ्तर में सबका जोरदार कहकहा लगा था - 'लो भाई, सूरी के नाम यह एक प्रेम-पत्र जा रहा है। हेडक्वार्टर को पट्टी पढ़ाने चला था साला। यहाँ के माई-बापों की मर्जी, दफ्तर में इंस्ट्रुमेंट लगें, न लगें। काम चालू हो न हो। वह होता कौन है हेडक्वार्टर को लेक्चर पिलाने वाला? मेमो देना ऑफिस का काम है कि नीचे वालों का? यह तो साला ऊपर वालों को ही मेमो देने लगा था!'

बहरहाल, बुद्धू से लेकिन बनर्जी एक दिन बहुत खुश हो गया था। उसने बुद्धू व दूसरे ट्रेनी के टेस्ट लिए कि काम ठीक चल रहा है कि नहीं। बुद्धू के लिखित उत्तरों से वह बहुत खुश हुआ। आ कर वह भसीन को बताने लगा। भसीन है तो मकैनिक पर बनर्जी जैसे अफसर भी आ कर हर दुख-सुख उसे ही सुनाते हैं। भसीन क्या करता है कि एक बंदूक साथ लाता है? जंगल में जा कर कोई न कोई पंछी (तीतर या बटेर वगैरह) मार लाता है। सबको दिखाता है कि देखो, यह है मेरी बहादुरी। कभी-कभी घड़ियाँ ठीक करते समय पैंट-शर्ट उतारकर कच्छे-बनियान में ही बैठ जाता है। गर्मी खूब लगती है। एक बार उसने टेबल-फैन की अर्जी दी और उस में ज्यादा दिन लग गए तो हेडक्वार्टर में बैठे डायरेक्टर की 'फोटू उतारकर रख दी' उसने। डायरेक्टर कभी-कभी निरीक्षण करने यहाँ आता है। पर इस बार आया था तो भसीन बनियान और लंबे से अंडरवियर में ही गेट पर खड़ा हो गया। लगातार हाथ जोड़े खड़ा रहा कि साहब आएँगे और मैं स्वागत करूँगा। सबको अच्छा तमाशा मिल गया। हँसने लगे। और डायरेक्टर की कार घुसते ही हाथ जोड़कर खड़ा भसीन स्वागत में चिल्लाने लगा - 'हुजूर की खिदमत में हम दो टकिए गुलाम खड़े हैं। हमें टेबल फैन मिले न मिले, पर भारत सरकार ने यहाँ आप जैसे बड़े-बड़े चूतियों को भी ये शानदार कारें बख्श रखी है।' भसीन का यह ड्रामा देखकर बनर्जी भी घबरा गया और आ कर भसीन के कंधों के गिर्द बाँह का घेरा बनाकर खुशामद करने लगा। उस क्षण अगर किसी के पास कैमरा होता तो यह दृश्य इस जंगल ऑफिस का एक प्रतिनिधि क्षण बन जाता, बस कैमरा को क्लिक करने की जरूरत थी! अधनंगे खड़े भसीन के कंधों के गिर्द बाँह डाल खड़ा बनर्जी! बनर्जी कह रहा था - 'फैन आ जाएगा। आप चलो तो सही। अभी घंटे भर में मँगवाते हैं।' और सचमुच डायरेक्टर यहाँ बैठा निरीक्षण करता रहा तब तक उसकी कार हेडक्वार्टर दौड़ गई और कहीं से भी एक टेबल फैन पैदा कर लाई। किसी और सीट को नुक्सान पहुँचा हो यह बात दीगर। पर भसीन का हुक्म भसीन का हुक्म है। यहाँ जो बच्चा चिंघाड़ कर रोएगा, माँ उसी को दूध पिलाएगी!

बनर्जी भसीन से बोला - 'मि. समर्थ ने पेपर बहुत अच्छे किए।'

'मैं तो पहले ही कहता था बनर्जी, लड़का हीरा है हीरा।' बुद्धू ने दूर अपनी सीट पर भसीन की जोरदार आवाज सुनी तो समझ गया कि उसी के बारे में बात हो रही है। अक्सर वह यहाँ दफ्तर की किताबें भी खूब पढ़ता है और नोट्स भी खूब बनाता है। तब उसे लगता है कि माहौल कैसा भी हो, काम करने और ज्ञान अर्जित करने की सुविधा हमेशा बनी रहती है।

बनर्जी भसीन से ही पूछता है - 'सोचता हूँ इतने मेहनती आदमी को अब शिफ्ट ड्यूटी में लगा दूँ।'

'वंडरफुल,' भसीन इतनी जोर से चिल्लाया कि सबका ध्यान उसी की तरफ चला गया। बुद्धू कल से शिफ्ट ड्यूटी में जाएगा यह सुनकर सब ने उसे बधाई दी। 'खूब नाइट वेटेज बनेगा समर्थ। 'ओवरटाइम' लगेगा सो अलग।' बुद्धू अगले ही दिन से शिफ्ट ड्यूटी में आने की तैयारी करने लगा। पहली ही ड्यूटी नाइट शिफ्ट में थी। यहाँ का सिस्टम यह कि चार दिन में एक दिन बारह घंटे रात की ड्यूटी करो, फिर उससे अगले दिन आराम, फिर अगले दिन दोपहर और उससे अगले दिन सुबह की ड्यूटी।

बुद्धू को अच्छा लगा। दिन भर के इस शोर-गुल व घटिया-सटिया कहकहों से तो बेहतर है कभी-कभी रात को अकेले ही आ कर ड्यूटी करो और पढ़ते रहो चुपचाप। कभी रविवार या छुट्टी वाले दिन सुबह या दोपहर की ड्यूटी करो तो कभी गजेटेड हॉलीडे पर। एक चौकीदार होगा और एक क्लास फोर। बुद्धू को अगले दिन तक के लिए मन की शांति रूपी खजाना सा मिल गया।

बुद्धू ने अगले दिन आस-पड़ोस में सबको जता दिया कि अब वह शिफ्ट ड्यूटी करेगा। और कि यह काम केवल मेहनती लोगों को दिया जाता है, उसके ऊपर के अफसर उससे खुश हैं। बुद्धू अगले दिन सुबह नहा धो कर शाम का इंतजार करने लगा बस। शाम हो तो वह नाइट ड्यूटी के लिए बस पकड़े। शाम हुई तो बस की खिड़की से बस के रूट को भी आज पहली बार बहुत चाव से देखने लगा।

पर बुद्धू के लिए तो यहाँ नित नए आश्चर्य ही हर समय इंतजार में रहते। भारत सरकार है या कोई चिड़ियाघर, यह उसे समझ नहीं आया। ज्यों ही वह दफ्तर में घुसा, दोपहर की ड्यूटी वाला उसके इंतजार में बैठा ही था। उसे देखते ही ना जाने क्यों? ऐसे खिसका जैसे पंछी पिंजरे से उड़ भागा हो। चलते-चलते यही बोल गया कि सब ठीक है यहाँ, बाकी सब देख लेना। बुद्धू को दफ्तर में बड़ा सूनापन सा लगा। पूरे दफ्तर में कोई नजर ही नहीं आया। दिन भर जहाँ कहकहे लगते हैं, वहाँ अब सूनापन सा है। एक चौकीदार रात दस बजे आएगा और एक क्लास फोर को तो अब तक आ जाना चाहिए था। शायद अभी आ जाएँ। शाम पाँच बजे सब चले गए होंगे और अब सात बजे से सुबह सात बजे तक रात की ड्यूटी करो। बुद्धू सोच ही रहा था कि अचानक एक कहकहे की जोरदार आवाज जाने कहाँ से आई और वह बुरी तरह चौंक गया। इस कहकहे की सभी आवाजें वह भली-भाँति पहचानता है। उसी समय उसने देखा क्लास फोर सुक्खू तो वही बिजली वाला कैटल लिए ऊपर के फ्लोर जाने वाली सीढ़ियों से नीचे उतरा है, जैसे कई लोगों को चाय पिलाकर उतरा है। सुक्खू बोला - 'नमस्ते सा'ब। ऊपर सब आप ही को पूछ रहे थे, कि आ गया कि नहीं?'

'ऊपर? ऊपर क्या है?' बुद्धू चकित।

'जा कर देखो न सा'ब। स...ब हैं। बड़ा भसीन आ गया है पंजाब से। सब आप ही को याद फर्मा रहे हैं।'

बुद्धू की तो बुद्धि ही जवाब दे बैठी। ऊपर कोई पार्टी है क्या? वह जिज्ञासा में बड़ी तेजी से अपनी सीट से उठा और ऊपर जाने वाली सीढ़ियाँ तेजी से चढ़ गया। वहाँ का नजारा देख दंग रह गया बुद्धू। एक मोटा सा नया चेहरा दिखा उसे। उसके गिर्द सब ऐसे बैठे थे जैसे सब उसी के चमचे हों और जमीन पर ही यह दूर तक फैली महफिल उसी ने लंबी छुट्टी से लौटकर लगवाई हो। यही बड़ा भसीन होगा। जमीन पर लगी उस महफिल में बुद्धू ने गिनती की तो दफ्तर के पू...रे... सत्रह लोग बैठे थे जिन में एक-दो अफसर भी हैं। जुआ चल रहा है। एक ज्यामेट्री बॉक्स का रबर जिसके पास पड़ा है, वह अगली बार पत्ते बाँटेगा! खेल तो बड़े भसीन के साथ छ-सात लोग रहे हैं, पर बाकी दर्जन भर तमाशाइयों की भीड़ है। बड़े भसीन की शान में बैठे हैं सब। बुद्धू तो दाँतों तले अँगुलियाँ दबाने लगा। उसे याद आया उसका जो शरारती दोस्त उसे कानपुर की नौकरी मिलने वाले दिन घर ले गया था और शराब पिलाई थी, वह भी एक दिन मोहल्ले के पार्क में कई लड़कों के साथ बैठा जुआ खेल रहा था। कुल पाँच लड़के खेल रहे थे। बाकी सब तमाशाई। बुद्धू पार्क की रेलिंग पार करके न जाने क्यों वहाँ पहुँच गया था? वह उन दिनों नौकरी की खोज में परेशान सा हो गया था। इसलिए इधर-उधर भटकता भी रहता। तत्कालीन राष्ट्रपति ने घोषणा कर दी थी कि जिन्हें पढ़ाई के बावजूद नौकरी नहीं मिल रही उन्हें ढाई सौ रुपये प्रतिमाह का स्टाइपेंड मिलने चाहिए। बुद्धू को लगा था जैसे वह भी एक भीख थी जो सबको ऑफर हो रही थी। उस दिन जुआ में अचानक उसने देखा दो पोलिसवाले रेलिंग टाप कर अंदर घुस रहे थे। बाहर ही पोलिस की एक जीप भी खड़ी थी जिसमें एक-दो और पोलिसवाले बैठे थे। छापा पड़ने की संभावना से बुद्धू की टाँगें काँपने लगी। पर बुद्धू ने अपनी टाँगों की ताकत उसी दिन महसूस की थी। वह पोलिसवालों के यहाँ तक पहुँचने से पहले ही एक-दूसरी दिशा में काफी दूर तक भागा खड़ा हुआ जहाँ पार्क का एक छोटा घुमाऊ सा गेट था। बुद्धू वहाँ से बाहर खिसककर एक आटे की चक्की में घुस गया था। चक्की का मालिक बोला था - 'इन बदमाशों के चक्कर में आप कैसे फँस गए? जाइए घर जाइए, जा कर आराम कीजिए थोड़ा।' तब तक कुछ और लड़के भागने में सफल हो गए थे। पर कम से कम दस लड़कों ने थाणे में जा कर दर्शन दिए। दो घंटे बाद सब लौट भी आए। एक का बाप नामी-गिरामी वकील रह चुका था। वह जितना खुद को नामी-गिरामी कहता, लोग उतना उस को हरामी-गिरामी कहते। आजकल पुराना काला कोट पहने इधर-उधर धक्के खाता फिरता था। वह भी पहुँच गया था थाणे। सबको छुड़ा लाया तो जैसे उसकी वकालत के अच्छे दिन लौट आए। आ कर सबको झाड़ा था - 'अकल नहीं है गधों को। ज्यों ही पोलिस आ रही थी, वहीं पार्क में बैठे-बैठे सब पत्ते फाड़ देते!'

'पत्ते तो हम ने छुपा लिए थे डैड,' सब उसे मजाक में डैड कहते, 'पर पोलिस ने रूमाल पर पड़े सिक्के हड़प लिए थे!'

'हाहा हाहा' कई दुकानदारों ने कहकहा लगाया था और लड़कों को बधाई दी थी कि छूट आए। एक धक्के खाऊ वकील ने ही सबको छुड़ा लिया। 'हाहा हाहा...'

पर अब इस पहली नाइट ड्यूटी पर बुद्धू सोचने लगा कि इन बाल-बच्चेदार लफंगों का क्या किया जाए? जो एक इतने बड़े मंत्रालय में जिम्मेदार कुर्सियों पर लगे हुए हैं! मान लो यहाँ पोलिस आ जाएँ तो?

'पोलिस इनकी झाँट का एक बाल भी नहीं उखाड़ सकती। मिनिस्ट्री का ऑफिस है यह,' उसे कई दिन बाद सुक्खू 'समझा' रहा था जब दोनों अचानक इस प्रसंग को लेकर बहस पर उतर आए थे।

'समझो यहाँ डायरेक्टर आ जाता तो?'

'डायरेक्टर की भी फाड़ के रख दे बड़ा भसीन। बो... ड़ी वाले को सब पता है। उसकी यहाँ आने की सोच के ही खाट खड़ी होती है साले की!'

उस दिन बुद्धू सचमुच सकते में था। ऊपर सबसे मुस्कराकर बड़े भसीन को अपना परिचय देकर वापस अपनी सीट पर आ बैठा था और शिफ्ट ड्यूटी की लॉग बुक उसके सामने थी। क्षण-भर को बुद्धू के हाथों में हरकत हुई कि वह इन सबके नाम लॉग बुक में लिख दे कि ये लोग उसकी ड्यूटी के दौरान जुआ खेलते पाए गए। पर ऐसा खयाल भर आते ही बुद्धू के पूरे बदन में एक खतरनाक झुरझुरी सी दौड़ गई। बुद्धू चुपचाप काम करने लग गया और सुक्खू आ कर उसकी चाय रख गया। रात को दस बजे चौकीदार आया जो बहुत बुड्ढा था और बाहर चारपाई लगाकर गीदड़ों की तरह कूकता रहता - 'ऊओ ऊओ...' उसकी चीख इतनी चुभने वाली जैसे बहुत सर्दी लगने पर कहीं बैठे गीदड़ कूकते रहते हैं। सुक्खू ने आठ बजे ही आ कर बता दिया - 'चले गए सब। पाँच बजे के बाद कभी-कभी महफिल लगाते हैं। जब दो-चार जने बड़े भसीन के हाथों ज्यादा हार जाते हैं तब जा कर उसे हाथ-पाँव जोड़ कर दस-बीस दिन जुआ बंद करना पड़ता है।' बुद्धू को सब कुछ नया-नया सा लग रहा था पर वह रात देर तक पढ़ता रहा और चौकीदार देव गीदड़ों के कूकने की आवाजें बीच-बीच में निकाल देता। सुक्खू कहता कि 'जैसा नाम है वैसा ही लगता है साला। देव है देव। रात को चोर भी इसे देखें तो घबराकर भाग जाएँ।'

एक रात बुद्धू अच्छा फँसा। अगले दिन तो क्लब में दिन भर कहकहे ही कहकहे लगते रहे पर रात जो कुछ हुआ, उससे बुद्धू खासा घबरा भी गया था और एक नया रोमांचक अनुभव भी उसे हुआ। रात दो बजे थे और बुद्धू लगातार पढ़ रहा था। सुक्खू देखता है कि साहब को तो नींद ही नहीं आती। सुक्खू जा कर एक बजे सो जाता है और सुबह पाँच बजे जागता है। इस बार जाने क्यों, सुक्खू एक और छोटी सी प्रयोगशाला में कोई किताब-विताब पढ़ रहा था। सुक्खू कभी-कभी रोचक बातें भी बताता है। एक दिन बता रहा था कि एक आउट स्टेशन पर जतींदर पाल था कोई, इंचार्ज, अब लंदन चला गया है। उसका सा'ब बीवी से खूब झगड़ा रहता। उस पट्ठे ने तो किए भी बड़े रद्दी-सद्दी काम। जानते हैं क्या करता था वो? शादी हुई तो अपनी दुल्हन को आउट स्टेशन अपने साथ ले गया। पर दफ्तर जाने से पहले साला बीवी को अंदर क्वार्टर में ही बंद कर जाता, बाहर कुंडी लगाकर!' कहकर सुक्खू की तो आश्चर्य से आँखें फट जाती और वह बुद्धू की तरफ ऐसे देखने लगता जैसे साहब की आँखें भी इस कमाल की बात से फटती हैं कि नहीं! रात की ड्यूटी का तो मजा ही इसी में है कि एक को जैसा महसूस हो, वैसा ही दूसरे को भी हो। वर्ना गप्पें मारने का आखिर मक्सद क्या है!...

'कौन सहेगी यह सब? यहाँ पोस्टिंग हुई तो उसकी बीवी एक दिन यहाँ भी लड़ने आ गई कि दिल्ली में भी खूब तंग करता है। बालकनी में खड़े होकर किसी तरफ देखने भी नहीं देता।' तब सा'ब मैंने उसकी बीवी को ठंडा किया था। जतींदर पाल को बिठाकर खूब समझाया, कवि परमानंद का यह छंद सुनाया था। पति-पत्नी का रिश्ता कैसा होना चाहिए:

'तुम पंख बनो हम पंछी साजन...

उड़ें तो दोनों साथ! गिरें तो दोनों पास!'

बुद्धू को सुक्खू ने बताया कि वह बीवी तो जतींदर पाल की तलाक देकर चली गई कब की। सुक्खू की ऐसी बातों से खूब मनोरंजन होता बुद्धू का। पर उस रात बुद्धू गंभीरता से बैठा 'प्राइड एंड प्रेजुडिस' पढ़ रहा था कि अचानक क्या हुआ? कि न जाने कहाँ से उस रात के सुनसान में एक बदहवास सी लड़की अवतरित हो गई और अंदर की तरफ खड़ी होकर लगातार हाँफने लगी। बाल बेतरतीब, अस्त-व्यस्त से। स्कर्ट-ब्लाउज में थी पर ब्लाउज के हुक खुले थे जिन्हें वह यहाँ घुसते ही सतर्क सी काँपते हाथों से ठीक भी करने लगी थी। बुद्धू ने 'प्राइड एंड प्रेजुडिस' को उल्टा कर टेबल पर पटक दिया और तेजी से इधर आ गया - 'कौन हैं आप? यहाँ... यहाँ कैसे आई?... उसका बदहवास चेहरा व खुले खुले से बाल देख बुद्धू को फिल्मी दृश्यों की कई हीरोइनें याद आने लगी अचानक।

'यहाँ बैठिए,' बुद्धू ने एक कुर्सी की तरफ इशारा कर दिया आखिर। लड़की बैठ गई।

'किसी ने आप पर हमला किया क्या?' बुद्धू।

नो सर। बताती हूँ। हम... हम चार लड़कियाँ हैं। नाइट शो देखकर लौट रही थी। अचानक कुछ बदमाशों ने हमारा... हमारा रास्ता रोका सर...'

बुद्धू को सहज ही विश्वास नहीं आया। उसकी नजर तो ब्लाउज की सिलवटों पर बने अस्त-व्यस्त असहज से उभारों पर ही जा रही थी। उसे लगा कि इसका जो स्कर्ट है, वह भी ठीक से नीचे तक नहीं फैला। एक तरफ से तो अभी तक घुटनों के ऊपर उठा हुआ है। बुद्धू बोला - 'बदमाशों ने आपको पकड़ा क्या? बाकी लड़कियाँ कहाँ हैं? यहाँ नजदीक ही एक पानी की टंकी है, वहाँ कुछ पोलिस वाले बैठते हैं, बुलाऊँ? आप कहाँ रहती हैं?'

पोलिस की बात सुनकर लड़की न जाने क्यों बड़ी दृढ़ता से अपना स्वर बदल गई 'नो सर। पोलिस की जरूरत नहीं पड़ेगी। बाकी लड़कियाँ भी बेचारी भाग गईं। हम सब यहाँ इस गर्ल्स कॉलेज के हॉस्टल में रहती हैं...' लड़खड़ाती जबान से लड़की जब सब कुछ बता रही थी तब तक सुक्खू आ गया। उसने कुछ आवाजें उस छोटी सी प्रयोगशाला में सुनी थी और लपक कर आ गया था। बुद्धू ने क्या किया कि बिजली वाले उस कैटल से एक चाय का गिलास बनाकर उस लड़की के सामने रख दिया। लड़की ने भी गिलास ऐसे ले लिया जैसे और कोई विकल्प उसके पास है ही नहीं। पर तब तक सुक्खू बुद्धू को इशारे से अपनी प्रयोगशाला की तरफ ले गया और उसके कान में फुसफुसाना शुरूकर दिया - 'झूठ बोल रही है साली। ये लड़कियाँ रात को हॉस्टल की दीवार फाँद कर यहाँ कहीं अपने आशिकों के साथ रंगरलियाँ मनाने निकल पड़ती हैं। किसी ने देख-दाख लिया होगा और यह नौ-दो ग्यारह हो आई!'

तब तक हुआ भी सचमुच यही। चौकीदार देव कूकने लगा। एक इंस्पेक्टर अंदर इस प्रयोगशाला तक आ गया था पर अंदर मुख्य हॉल में नहीं गया, जहाँ वह लड़की चाय पी कर खुद को संयत करने में लगी थी। पोलिसवाला सुक्खू से बोला - 'इधर कोई लड़का-लड़की आए क्या?'

'नहीं-नहीं, यहाँ तो कोई नहीं आया।' सुक्खू की उत्तेजना देख बुद्धू सब समझ गया। सचमुच, कोई लड़के-लड़की वाला किस्सा लगता है। पोलिसवाला बोला - 'एक लड़का-लड़की वहाँ पेड़ के नीचे सोए थे साले। लड़की के ऊपर ही था लड़का। हमने जीप रोकी तो लड़का भाग खड़ा हुआ और दूसरी तरफ रखे अपने स्कूटर में खिसक गया। मैं देख नहीं सका कि लड़की कहाँ गई। वो भी कहीं से पहुँच गई होगी उस तक। बड़ी चालाक हैं ये लड़कियाँ।' बुद्धू समझ गया सब कुछ। इन पोलिसवालों के लिए तो ये अच्छे अवसर होते हैं। लड़कों से पैसे टीपने निकलते होंगे। पर एक खयाल आते ही बुद्धू काँपने लगा। कभी-कभी तो ये साले लड़की को भी बेइज्जत करने से बाज नहीं आते। उसने दिल्ली के बुद्धा जयंती पार्क की एक घटना सुनी थी जिसमें एक लड़का-लड़की को अंतरंग हालत में पकड़कर दो-तीन पोलिसवालों ने लड़की को ही 'शेयर' कर दिया था। बुद्धू फुर्ती से बोला - 'नहीं। यहाँ कोई लड़का-लड़की आए तो मैं ही भगा दूँ सालों को। सरकारी ड्यूटी पर हूँ कोई मखौल थोड़ेई है। लड़के की तो डंडों से पिटाई कर दूँ मैं... स्साले बदमाश कहीं के।' बुद्धू को खुशी हुई कि वह किसी पुलिसवाले की भी खिंचाई कर सकता है। यहाँ इतना महत्वपूर्ण ऑफिस सँभालने लायक है वह। पर बुद्धू को यह भी लगा कि यहाँ इस दुनिया में तो कहीं चैन नहीं। प्यार करने वाले तो तड़पते रह जाते हैं यहाँ। यह सोचकर उसे अपनी सोच पर बहुत हँसी भी आई। उसने देखा कि इस बीच सुक्खू वहाँ से जाने क्यों हॉल की तरफ खिसक गया और बुद्धू को भी अक्ल आ गई तो वह उस पोलिसवाले से गप्पें मारता-मारता गेट तक ले आया। पोलिस रूपी बला टली तो बुद्धू लौटकर हॉल में आया। सुक्खू से उसने पूछा - 'लड़की कहाँ गई?'

सुक्खू हँसने लगा - 'ह ह ह ह... अंतर्धान हो गई... वह कोई मामूली लड़की थोड़ी थी। वह तो देवी थी देवी... ह ह ह ह...'

बुद्धू कुछ समझा नहीं। सुक्खू दबे पाँव चुपके से उस ऊपर वाले हॉल की तरफ जाने वाली सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। बुद्धू भी उसके पीछे-पीछे साए की तरह चिपक सा गया। सन्नाटे में ऊपर वाले हॉल में पहुँचे तो उसी देवी को एक कुर्सी पर इत्मीनान से वही चाय पीता देख बुद्धू चौंक सा भी गया। वह मजे-मजे से चुस्कियाँ ले रही थी और चेहरे पर ऐसे भाव जैसे वह कोई खिलाड़ी हो खिलाड़ी। चेहरे पर घबराहट-वबराहट के निशान तक नहीं। इस समय बुद्धू उस देवी का कान्फिडेंस देखकर सचमुच दंग था। उसने अब तक अपने बाल भी करीने से लगा दिए थे और ब्लाउज के हुक-वुक सब ठीक से लगा दिए थे। स्कर्ट भी अपनी जगह ज्यों का त्यों बरकरार जैसे अभी पहना हो और चाय की चुस्कियों के साथ वह पी रही थी सिगरेट! उसके सलेटी से ब्लाउज के अंदर से उसकी काली सुंदर ब्रा की एक पट्टी लापरवाही से उसके कंधे पर दाई ओर फिसल आई थी। बुद्धू सचमुच दंग था।

'सॉरी सर। आपको डिस्टर्ब किया। मैं अभी खुद ही चली जाऊँगी।' बुद्धू को अचानक अपने दिल्ली विश्वविद्यालय के दिन याद आ गए। क्लास में एक लड़की थी सतींदर कौर। बहुत मारक सौंदर्य था उसका। वह भी कट स्लीव्ज का कुर्ता पहनती तो बहुत लापरवाही से चलती और उसकी सहेलियाँ अक्सर कई बार चलते-चलते उसकी चुन्नी को कंधे पर सरकाकर उसकी बाहर फिसल आई पिंक कलर की ब्रा की पट्टी को ढक देती। पर यह सब तो कुछ नहीं। एकदम सामने से सतींदर कौर को देखना भी कठिन कार्य होता। सौंदर्य की किरणें सचमुच सामने वाले की आँखें चुंधिया देती। काफी पारदर्शी से कुर्ते के अंदर से बाहर की तरफ उमड़ता सा उसका वक्षस्थल हर व्यक्ति की नजरों को वहीं स्थिर कर देता, जहाँ सतींदर सामने होती। एक बार क्लास में ही सतींदर कौर ऐसी पोजीशन वाली दो डेस्कों में से एक पर बैठी थी कि उसकी नजरें ब्लैक-बोर्ड वाली दीवार के समांतर जाती सामने की दीवार की खिड़की से टकराती जबकि शेष सभी डेस्कें ब्लैक-बोर्ड का सामना करती रखी थी। अब सबसे आगे की पंक्ति में एक सीट पर बैठे हैं कोई खंडेलवाल जिनकी नजरें सतींदर कौर के चेहरे और वक्षस्थल से हट ही नहीं रही थी। प्रोफेसर पोएट्री पढ़ा रहे हैं और कवि का नजरिया समझाकर मानो शिक्षा दे रहे हैं कि नारी और पुरुष के बीच का यह दैहिक आकर्षण तो नैसर्गिक है भाई, इसे कोई शक्ति खत्म कर ही नहीं सकती, चाहे कितना भी जोर लगा लो! पर पढ़ाते-पढ़ाते प्रोफेसर की नजर खंडेलवाल पर पड़ती है तो वह चीख पड़ता है - 'खंडेलवाल, तुम वहाँ से उठ जाओ, सबसे पीछे चले जाओ!' और सबसे पीछे बैठा है बुद्धू, जो प्रोफेसर की नजरों में सबसे शरीफ लड़का है क्लास का। बुद्धू उठकर वहाँ, खंडेलवाल वाली सीट पर बैठ जाता है और प्रोफेसर की पढ़ाई हुई पंक्तियाँ सुनता जा रहा है। उसे अपनी दाहिनी तरफ जाती नजरों को सचमुच बहुत नियंत्रण में रखना पड़ रहा था!... पर सतींदर कौर का ध्यान किसी बात की तरफ था ही नहीं, सिवाय अपनी किताब में छपी कविता के और प्रोफेसर द्वारा पढ़ाए जा रहे शब्दों के! यहाँ रात की ड्यूटी में इस लड़की का आत्म-विश्वास देखकर भी बुद्धू को मानो अनायास ही उस पर गर्व सा होने लगा और फिर खुद पर जाने क्यों, हँसी भी खूब आई उसे?

लड़की अब पूरी तरह सामान्य हो चुकी थी। बोली - 'सर, थैंक यू। चलती हूँ,' कहते-कहते लड़की की नजरें सिगरेट का टोंटा फेंकने के लिए कोई बकेट-वकेट ढूँढ़ने लगी। सुक्खू नजदीक पड़ी एक सुंदर सी प्लास्टिक की बकेट जिसमें केवल कुछ कागज पड़े थे, हाथ में उठाकर प्रस्तुत होकर बोला - 'यहाँ, इसमें फेंकिए।' सिगरेट का टोंटा अपनी चप्पल के तलुवे से मसल कर उसे बकेट में फेंक कर नीचे जाने वाली सीढ़ियों में पहुँच गई वह। बुद्धू और सुक्खू भी नीचे आ गए। गेट तक आ कर तीनों खड़े हुए तो बुद्धू ने कहा - 'मैं आपको अकेले नहीं जाने दूँगा। यहाँ से आधा किलोमीटर ही तो है आपका हॉस्टल। मैं साथ चलता हूँ।'

सुक्खू ने कहा - 'मैं छोड़ आता हूँ। बात सही है कि इनको अकेले जाना ही नहीं चाहिए इस समय।'

'नहीं। आप चलो सर, मेरे साथ,' लड़की जाने कैसे बोली तो बुद्धू कुछ आश्वस्त सा था। कुछ ही मिनटों में स्थिति यह थी कि बुद्धू ने सुक्खू से साइकिल ले ली और साइकिल के कैरियर पर उस बहादुर लड़की को बिठाकर बुद्धू ने ठंडी हवा में साइकिल का पैडल जोर से आगे घुमाया। सुक्खू बोला था - 'सँभल कर जाना सा'ब। इसी सड़क पर एक रात एक अजगर भी देखा था मैंने।' बुद्धू को न जाने क्यों, बहुत जोर से हँसी आ गई। लड़की हॉस्टल आते ही बोली - 'वो है सर। बस मैं सड़क पार कर लूँगी।' जब तक लड़की सड़क पार करके हॉस्टल के गेट तक पहुँचे, बुद्धू साइकिल की सीट पर बैठा रहा। चारों तरफ खंभों पर लगी ट्यूब लाइटों की दूधिया रोशनी सी थी जो मानो ठंडी हवा भरी उस फिजा के साथ संभोगरत थी। बुद्धू का एक पाँव फुटपाथ पर था और दूसरा इस तरफ के पैडल पर। वह देखना चाहता था कि लड़की हॉस्टल के गेट में घुसी कि नहीं। गेट तो बंद था और उसके खुलने के आसार भी कहाँ थे! पर यहाँ सबका बंदोबस्त फिट सा लगता है, बुद्धू ने सोचा। पूरा सिस्टम कर्मण्य है, कब क्या करना है? यह सोचने की जरूरत तक नहीं पड़ती। जहाँ बुद्धू साइकिल रोके खड़ा था, वहाँ से कुछ ही कदम दूर एक काली सी झोंपड़ी है, शायद किसी मजदूर की। वहाँ से मजदूर की बीवी के रूप में एक छाया सी भागकर सड़क पारकर आती है! अपने शरीर को कमान की तरह मोड़कर वह छाया ऊँटनी सी बन गई! खासी लंबी है। दोनों घुटने और हथेलियाँ जमीन पर खुपा दीं उसने। लड़की बुद्धू की तरफ देख उस दूधिया रोशनी में मुस्कराई और उस ऊँटनी पर चढ़ गई। बुद्धू को याद आया कि वह जब दिल्ली विश्वविद्यालय में था तब विश्वविद्यालय में ही छात्रों-छात्राओं द्वारा शुरू किए गए एक साप्ताहिक जर्नल में एक चटपटी सी खबर थी कि यहाँ के सबसे मशहूर गर्ल्स हॉस्टल में एक बार लड़कियों के एक ग्रुप के साथ साड़ी पहने एक लड़का भी वार्डेन को चकमा देकर हॉस्टल के एक कमरे में पहुँच गया। वार्डेन तो उस समय चेकिंग पर थी और देख रही थी कि दस बजने से पहले सब लड़कियाँ आ गई थीं कि नहीं। बुद्धू उन दिनों ऐसी खबरों पर बहस पर उतर आता था कि ज्यादा सख्ती करोगे तो यही तो होगा न! जो लड़के-लड़कियाँ करना चाहें करने दो उन्हें! कुछ विद्यार्थी बुद्धू की बात को मजाक में लेते कुछ उसके चेहरे पर अबोधता को पढ़ते ही रह जाते और तसल्ली करके चुप रहते। यह समर्थ तो कैसी खुल्लम-खुल्ला बातें कर देता है! ...बुद्धू को खूब हँसी आ रही थी बार-बार। ऊँटनी पर से वह लड़की फिर हॉस्टल की दीवार पर सवार नजर आई तो बुद्धू को लगा जैसे सामने यह किसी दूधिया से रंग के सिनेमा का स्क्रीन हो, जिसमें एक हीरोइन अपनी बहादुरी का कोई करतब दिखा रही है। हीरोइन ने बुद्धू वाली तरफ अपनी पीठ करके पाँव दीवार से अंदर, हॉस्टल की तरफ लटका दिए और क्षण-भर में ही लुप्त भी हो गई। बुद्धू को तसल्ली हुई और उसने साइकिल का रुख वापस दफ्तर की तरफ किया तो सोच रहा था - यह घटना भी क्या लॉग बुक में लिख पाएगा वह? वह फिर हँसने लगा। पर उसने सोचा सरकारी मानसिकता में ऐसी घटना का स्वाभाविक विश्लेषण करने की बुद्धिमता है किसी में? कोई क्या बंधनों और जरूरतों के समीकरण पर सोचने का मस्तिष्क भी रखता है यहाँ? सुबह सुक्खू की एक एक्सट्रा ड्यूटी ओवरटाइम पर है ही। बुद्धू खुद तो सात बजे चला जाएगा और बुद्धू की कल्पना में कल दिन भर गूँजने वाले कहकहे आ गए। सुक्खू क्या यह सब बताए बिना रह सकेगा कल?

पर उस दिन बुद्धू की उस नाइट ड्यूटी का आखिरी आश्चर्य अभी बाकी था। वह साइकिल चलाता दफ्तर के नजदीक ही पहुँचा कि सुक्खू ऑफिस के गेट से भी काफी दूर तक टहलता उसी का इंतजार कर रहा था। थोड़ी दूर चौकीदार देव भी दिख गया जो उसे दूर से ही देखकर कूकने लगा था - 'उओ... उओ...' बुद्धू समझ गया कि यह उसकी खुशी भरी कूक थी। बुद्धू जा कर हॉल में बैठने की सोच ही रहा था और सुक्खू सीधा प्रयोगशाला जा कर अब आखिर सो ही जाना चाहता था, पर बुद्धू अचानक हॉल में अपनी सीट की तरफ बढ़ते-बढ़ते डर के मारे बुरी तरह ठिठक गया, बल्कि सन्न सा रह गया। उसकी सीट पर जहाँ लॉग बुक और बाकी रजिस्टर और फाइलें वगैरह रखी रहती हैं, वहाँ बहुत ही प्यारे से अंदाज में एक काला सा फन उसने देखा था! जैसे बुद्धू की टेबल पर सवार अकारण सी इतराहट एक फन निकाले खड़ी हो वहाँ! इतराहट इस बात की कि बुद्धू उस बहादुर लड़की को छोड़ आया कि नहीं! बुद्धू की तो घिग्घी बंध गई फिलहाल। वह बिना आवाज के पीछे पलटा और दबे पाँव काँपती आकृति से प्रयोगशाला में सुक्खू तक पहुँच गया। सुक्खू तो बत्ती बंद करके लेट चुका था और बुद्धू ने अँधेरे में ही उसे उठा दिया। बात सुनकर सुक्खू बोला - 'ये सब अफसर लोग बो...ड़ी के बदमाश हैं। यहाँ कई बार साँप निकले और इन्हें बताया गया कि हर किसी को लंबी टाँगों वाले लांग बूट दे दो, पर भैण के... मानते ही नहीं!'

बुद्धू बोला - 'यहाँ क्या 'टेट्राक्लोरिक ऐसिड' भी नहीं रखते अलमारी में, कि छिड़कने पर साँप जंगल की तरफ वापस भाग जाएँ?'

'सब लिखा है इन भैणचो... की फाइलों में। पर कोई बो... का मँगाए तब न...! यह परिस्थिति आगे ऐसे बढ़ी कि सुक्खू इधर हॉल में आया भर और घबराकर काँपने लगा और बाहर की तरफ भागा। भागते-भागते कहने लगा - 'यह तो सर्पिणी है सा'ब सर्पिणी!'

'तुम्हें कैसे पता?' बुद्धू को जिज्ञासा सी हुई!' उसने सुक्खू का पीछा सा किया।'

'यह एक जोड़ा है जोड़ा। लॉन में रात के समय कई बार देखा गया है। झाड़ियों में लगे रहते हैं दोनों! साँप लंबा सा है और यह जरा सी छोटी!' फिर सुक्खू बोला - 'मैं नहीं मारता इसे। ये तो सात जनम में भी बदला ले लेंगे मुझसे! यह काम देव कर सकता है!' कहकर सुक्खू गेट से ही बाहर जा कर खड़ा हो गया। बुद्धू फिलहाल सकते में था। देव को पता चला तो उसका कूकना बंद हो गया। वह भी चुपचाप बाहर खिसक गया और वहाँ से कूकने लगा। थोड़ी ही देर बाद वह अपना लांग बूट पहनकर आ गया और हाथ में एक लाठी थी। पर सर्पिणी उसका कूकना सुनकर ही जाने कहाँ रेंग गई थी। बुद्धू देव की तरफ टुकटुक देखने लगा फिर बोला - 'वो गई कहाँ?'

सर्पिणी चुपचाप रेंगने का मजा लेती हुई जाने कहाँ गायब थी। वैसे देव ऐसे समय अपनी सेवाएँ इसलिए प्रस्तुत करता है क्योंकि वह बेहद गरीब है और अपने अगले जन्मों के लिए अपनी ही हत्या बुक करवा कर भी वह इस जनम में पाँच रुपये कमाकर उसे सँवारने की कोशिश कर लेता था। साँप या सर्पिणी मारने के उसे पाँच रुपये मिलने का रिवाज है जिसे पाते ही चाहे कितनी भी रात हो गई हो, वह पहले खुशी से कूकता-कूकता घर जाता है जो नजदीक की ही पानी की टंकी के पीछे बने क्वार्टरों में है। पाँच रुपये वह सुरक्षित घर रखकर कूकता-कूकता ही वापस आता है। पर आज उस खुशी का उसे कोई मौका नहीं मिल पाया। सुक्खू तो बाहर ही खड़ा रहा और बुद्धू देव की हरकतें देखता यूँ ही भटक सा रहा था। काफी खोज के बाद भी देव को वह सर्पिणी नहीं मिली और देव के चेहरे पर फैली निराशा एक डिप्रेशन में बदल गई। बुद्धू चुपचाप आ कर अपनी सीट पर बैठा रजिस्टर में कुछ जरूरी डेटा भरने लगा। उसे पता ही न चला था कि वह सर्पिणी तो उसी की टेबल पर कागजों फाइलों के एक बड़े से पुलिंदे के नीचे कुंडली मारकर बैठी रही थी, जब तक कि बुद्धू के लिखने के कारण वह टेबल हिलती रही! अजब तमाशा था। बुद्धू लगभग चार बजे उठकर एक आरामकुर्सी पर झपकी मारने चला गया था पर उन झपकियों में भी बुद्धू खासा डरा हुआ सा रहा और तंद्रा-तंद्रा में ही उसने जो दृश्य देखा वह जाने सच्चा था जाने झूठा। टेबल के हिलने के दौरान शायद वह सर्पिणी स्वयं को सुरक्षित रखती कुंडली मारे बैठी थी, पर अब टेबल के स्थिर होते ही वह बहादुर सी सर्पिणी चुपचाप रेंगती हुई नीचे उतरी थी और टेबल के पीछे बनी एक दीवार में फर्श के कोने में बने होल से बाहर चली गई... सुबह बुद्धू ने लॉग बुक में यह तो लिख दिया कि यहाँ साँप बहुत हैं। टेट्राक्लोरिक ऐसिड का बंदोबस्त शीघ्र किया जाए। पर उसे उस बहादुर लड़की की कहानी लॉग बुक में लिखने की जरूरत कतई महसूस नहीं हुई!


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