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उपन्यास

नौकरीनामा बुद्धू का

प्रेमचंद सहजवाला


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बुद्धू गाड़ी के चलते ही डिब्बे में जमीन पर सो गया। उसने पूरा ही होल्डाल जमीन पर बिछा रखा था और उसी की मोटी सी रजाई के नीचे उसका गदेला था। होल्डाल में ही उसकी माँ ने कुछ शर्ट व पैंटें भी लगा दी थीं। सब मुसाफिरों को अचरज हुआ कि इस आदमी ने जो तकिया सिर के नीचे लगा रखा है, वह कोई मामूली नहीं है, पर उसमें तो कम से कम दस किलो पिसा हुआ आटा भी है। गाड़ी चल पड़ी तो बुद्धू ने आँखें मूँद ली क्योंकि किसी ने उसी से पूछकर डिब्बे के इस हिस्से की बत्ती बंद कर दी थी। पर बुद्धू की आँखों में नींद कहाँ थी।

बुद्धू ने यह गाड़ी हैदराबाद से पकड़ी थी और सुबह तक वह पहुँच जाएगा आंध्र के मशहूर शहर अनंतापुर। इस समय बुद्धू सरकारी दौरे पर है और इस दौरे पर उसके निकल आने की भूमिका भी बहुत रोचक है।

वहाँ शिफ्ट ड्यूटी में काम करते-करते बुद्धू ने सबके ऊपर अच्छा प्रभाव डाल रखा था कि इस व्यक्ति को केवल अपने काम से मतलब है, पढ़ता रहता है। दफ्तर के काम पर भी और देश-विदेश की असंख्य बातों पर भी नोट्स बनाता रहता है। लॉग बुक में अच्छी अँग्रेजी लिखता है, हिंदी में तो सिद्धहस्त है ही। एक तो ओवरटाइम पर कभी नहीं लड़ता। चार में से कोई एक छुट्टी पर चला जाएँ तो उसकी सब ड्यूटियाँ बाकी तीन को ओवरटाइम पर मिल जाती हैं। कुछ लोग जा कर बनर्जी से तर्क-वितर्क करते थे कि फलाँ का ओवरटाइम क्यों लगा? मेरा क्यों नहीं? पर बुद्धू को जो ड्यूटियाँ मिल गईं, लड़ता नहीं था। इसलिए सब उसे अच्छा व्यक्ति समझते थे।

पर एक दिन क्या हुआ कि हेडक्वार्टर से ऑर्डर आया कि इस अनुभाग से एक टीम आंध्र प्रदेश जाएँगी और वहाँ दो अन्य सरकारी विभागों से मिलकर जमीन में कच्चे तेल की खोज करेगी। बुद्धू को ऑर्डर नहीं आया पर वह फँस सा गया था।

कोई मिस्टर सेठी था जिसे ऑर्डर आया तो वह घबरा गया। लोग खिल्ली उड़ाने लगे कि अब देखना सेठी क्या ड्रामा करता है? टूर से तो हमेशा डरता है। मजे आएँगे अब। सेठी ने एक लंबी ऐप्लीकेशन दे दी कि मेरे बच्चे छोटे-छोटे हैं और अगर मैं चार महीने टूर पर गया तो बीवी अकेली हो जाएँगी। आजकल तो दूध के लिए भी लंबी लाइनें लगती हैं और राशन पर भी। मेरी बीवी सचमुच बहुत अकेला महसूस करेगी। सब हँस भी रहे थे और कोई-कोई मनगढ़ंत बातें भी बना लेता था कि जरूर कोई बात होगी। बीवी को छोड़ कभी किसी दूसरे शहर जाता ही नहीं। एक-दूसरे से बात कहे बिना इशारों में समझा देने में तो सब माहिर हैं ही। सब उसे समझा भी रहे थे कि ये सब समस्याएँ तो सबके लिए हैं, उनके लिए भी जिन्होंने टूर के लिए एडवांस क्लेम करके पैसे भी निकलवा लिए हैं। पर सेठी ने क्या किया कि हेडक्वार्टर में डायरेक्टर के पास जा कर धरना मारकर बैठ गया और रोने लगा। वह टूर आने पर ऐसे ही करता है और डायरेक्टर को भी हँसी आ जाती है। जब वह पी.ए. से परमीशन लेकर डायरेक्टर के कमरे में जा रहा था तो सेक्शन के दोनों कमरों में भी खबर फैल गई कि अब सेठी आया है, बीवी से दूर जाने की बात सुनते ही रोएगा डायरेक्टर के सामने। सब हँसने लगे। यहाँ अंदाजा भी मिनटों में लग जाता है। जंगल ऑफिस में कोई मि. तेजपाल हैं जो पाँच बजे ड्यूटी खत्म होने के बावजूद कभी-कभी सात साढ़े सात बजे तक दफ्तर में बैठ अपना कोई काम निपटाते रहते हैं। इस पर बड़ी कहानियाँ बनती हैं। सुक्खू तो कहता था - 'बीवी से बनती नहीं होगी सा'ब। अनबन होगी। मैं सबको यही तो सिखाता रहता हूँ : तुम पंख बनो हम पंछी साजन...'

और बुद्धू बोर होने लगता। सच्चाई जाने बिना ही सुक्खू शुरू हो जाता। दरअसल तेजपाल को तो परचेज की सीट मिली हुई है और वह न जाने किन हिसाबों में लगा रहता है। कोई-कोई फोन आता तो वह काफी-काफी देर तक बहस करता रहता। परचेज ऑफिसरों की चाँदी रहती है, यह भी सबको पता है, पर सुक्खू को अपनी कहानियाँ गढ़ने में खूब मजा आता है। यहाँ इस दफ्तर के एक चीफ डायरेक्टर (जो इस विभाग की सबसे बड़ी पोस्ट है) डॉ. गांगुली होते थे जो अब रिटायर हो चुके हैं। उनके बारे में यह मशहूर था कि छ मंजिला इमारत के सबसे ऊपर के फ्लोर पर बने अपने चैंबर में वे रात दस-दस या ग्यारह-ग्यारह बजे तक भी काम करते रहते हैं। सामने थोड़ा सा फासला पैदल चलते ही उनकी शानदार कोठी है पर वे अपने चैंबर में पढ़ते या लिखते रहते हैं। गांगुली इस विभाग के सर्वाधिक काबिल चीफ डायरेक्टरों में थे जो इस विभाग से जुड़ी विश्व संस्था में भी प्रतिनिधि रह चुके थे। पर वे चाहते तो अपनी कोठी में ही पूरी-पूरी रात पढ़ सकते थे। लेकिन नहीं। उनके बारे में जो बात बड़ी सहानुभूति से बताई जाती है वह यह कि पत्नी से अनबन है। पत्नी नौकरी-वौकरी करती नहीं, हालाँकि पढ़ी लिखी हैं। गांगुली नहीं चाहते थे कि वे कोई नौकरी करें। इसलिए कई किस्म के कल्चरल प्रोग्राम देखने का शौक है उन्हें और कभी-कभी उनके कुछ परिचित मित्र भी आ कर समय बिता जाते हैं। उनमें कुछ पुरुष होते हैं कुछ महिलाएँ। लेकिन पुरुषों की उपस्थिति से कुछ-कुछ संतप्त से गांगुली दफ्तर में अपने चैंबर में ही काम में लगे रहते हैं, जैसे काम कोई नशा-वशा हो। लोग बहुत सहानुभूति दिखाते रहते हैं तो बुद्धू को लगता है कि शायद नारी-पुरुष मामलों में बाबू वर्ग की मानसिकता कुछ विचित्र सी है। एक इतने बड़े ओहदे वाले व्यक्ति की पत्नी अगर नौकरी नहीं कर पातीं क्योंकि इसकी तो उन्हें अनुमति ही नहीं है और इसलिए उन्होंने कोई क्लब-व्लब ज्वाइन कर रखा है, वहाँ उन्होंने ने कुछ दोस्त भी बना रखे हैं जिन में से कुछ पुरुष भी हैं तो भला इस में इतनी बड़ी मुसीबत क्या है? और फिर सहानुभूति के लहजे में बात करके ये लोग क्या स्वयं अपनी ही मानसिकता को सहलाते हैं? बुद्धू बाबू वर्ग की, बाबू सोच सचमुच कतई नहीं समझ पाता और अंततः इसी विचार में शरण लेता है कि दूसरों के बारे में सोचने की अनुमति उसे आखिर किसने प्रदान की है!

डायरेक्टर से सेठी बोला - 'मेरी वाइफ की तबियत खराब रहती है, पर मि. समर्थ तो अविवाहित है, उसे भेजिए न सर।' दफ्तर में ऊपर वाले का रोब भी उसी पर चलता है जो सहज हो, लेकिन जो सेठी की तरह जोंक बनकर चिपक जाएँ उससे पीछा छुड़ाना बड़ी-बड़ी हस्तियों के लिए टेढ़ी खीर सी बन जाता है। भसीन मकैनिक तो उसे मजाक में यह भी कह रहा था कि एक ऐप्लीकेशन दे दो, कि ऑफिस एक चपरासी आपके घर पर लगा दे जो दूध की, राशन की और दूसरी लाइनों में खड़ा होकर चीजें आपके घर पहुँचाता रहे। यहीं से किसी का ओवरटाइम लग जाएगा। साथ में वह ओवरटाइम पर लगा व्यक्ति चौकीदारी भी करेगा कि आपके टूर के दौरान आखिर कौन उल्लू का पट्ठा आपके घर...' सबने होंठों पर अँगुलियाँ रखकर भसीन को सेठी पर तरस खाने और चुप रहने की मिन्नतें कर लीं। किसी को बदनाम करने का चस्का यहाँ सबको है। अगर घरेलू मामलों में ऐसी-वैसी खबर न आए तो सब ऊबने से लगते हैं। बनर्जी के बारे में सब हँसते हैं कि उस पट्ठे ने तो अभी तक शादी ही नहीं कराई। जाने कैसे जिंदगी काटता है साला। कोई-कोई बहुत फुफकारती सी आवाज में दूसरे के कान में फुसफुसाता - 'साला हाथ से ही... हा हा हा!'

डायरेक्टर ने हँसते हुए सेठी से कहा - 'अब टूर की तैयारी करो सेठी सा'ब। ऑर्डर आ गया तो वापस थोड़ेई हो जाएगा? घर का राज तो नहीं है न?' पर डायरेक्टर को जो डर था, कमोबेश वही हुआ। सेठी अपनी दोनों बाजुओं से कुर्सी की बाजुओं को ही कसकर पकड़कर बैठ गया, कोई उसे खींचकर कुर्सी से अलग नहीं कर सकता अब। बड़े अजीब तरीके से उसका शरीर ऐंठ भी गया, बोला - 'मुझ पर तरस खाइए सा'ब।' तब डायरेक्टर ने बनर्जी को फोन लगाया - 'क्या कोई और तैयार हो सकता है?' डायरेक्टर के कहने भर से बनर्जी समझ गया कि आगे डायरेक्टर क्या कहना चाहता है और जो सेठी की उपस्थिति के कारण वह कह नहीं पा रहा। डायरेक्टर यही कहना चाहता है - 'सेठी तो जाएगा नहीं, और मेडिकल-वेडीकल ठोक दिया तो हमारी तो पूरी टीम का काम ही ठप्प हो जाएगा। मिनिस्ट्री को जवाब देना पड़ेगा सो अलग।' बनर्जी ने कहा कि 'बाकी सब तो इस प्रकार के टूर पर एक-एक बार जा चुके हैं, दो-तीन जने हैं जो कभी नहीं गए, फिर भी देखता हूँ।' पर बनर्जी ने क्या किया कि चुन्नीलाल मकैनिक के कान में कुछ फुसफुसा कर बुद्धू के पास भेज दिया कि अगर डायरेक्टर फोन-वोन करके उससे पूछे कि टूर पर जा सकते हो क्या, तो वह साफ कह दे कि उसके फादर बहुत बीमार रहते हैं। बुद्धू के फादर तो इन दिनों थोड़े-थोड़े दिनों बाद फिर बीमार पड़ जाते हैं। अल्सर की प्रॉब्लम है। चुन्नीलाल ने जा कर समर्थ को समझा दिया। पर जो बनर्जी को डर था वही हुआ, भले ही फंदे को बुद्धू तक पहुँचने में एक और रूट अपनाना पड़ा। फंदा बुद्धू के गले तक पहुँचाना ही पड़ा। छोटे भसीन ने बुद्धू से कहा कि शायद सेठी तुम्हें फँसाना चाहता है, सो तुम पहले ही डायरेक्टर को फोन लगा दो कि सेठी तुम्हें फँसा रहा है, और कि तुम बिलकुल इतनी दूर नहीं जा सकते। पर कुछ ही देर बाद डायरेक्टर ने बनर्जी से पूछ लिया कि 'क्या समर्थ से पूछा जा सकता है? सेठी कह रहा है कि वह तो बैचिलर है उसी से पूछो।' कहते-कहते डायरेक्टर सेठी के तर्कों पर हँस भी पड़ा। इधर जंगल ऑफिस में एक तमाशा सा खड़ा हो गया। खबर आग की तरह फैल गई कि वहाँ सेठी समर्थ को फँसाने में लगा है। एक ने बुद्धू से कहा - 'तू सेठी को फोन लगाकर कह दे, तू इधर आएगा तो जूतों से पीटूँगा तुझे।' पर बुद्धू बोला - 'वह तो डायरेक्टर के पास ही बैठा है!'

सब चाहते थे कि तमाशा जरूर हो। वही असिस्टेंट बोला - 'तू जो फोन पर बोलेगा ड्रेक्टर को थोड़ा पता चलेगा? वह तो सेठी सुनेगा!' सब दबी-दबी हँसी का मजा लेने में लगे थे। बुद्धू ने सोचा ऐसा-वैसा तो कुछ नहीं कहूँगा, पर फोन पर सेठी को बता दूँ कि उसे नहीं जाना न जाए, किसी और का नाम लेने का उसे कोई हक नहीं। उसने फोन बजाया तो सेठी की बजाए उठाया डायरेक्टर के पी.ए. सुब्रह्मण्यम ने! उसे डायरेक्टर ने सेठी नाम की इस बला से निजात पाने के लिए बुलाया था। मिनिस्ट्री का ऑर्डर था और टीम जल्द ही रवाना करनी थी। सुब्रह्मण्यम वैसे खूब तीखा आदमी है पर डायरेक्टर का वह एस मैन है। एक प्रकार से पूरा सेक्शन ही वह चलाता है। यहाँ हर कोई छोटी - बड़ी मुसीबत में इसी पी.ए. के पास आता है। सेक्शन तो वही चलाता है, सब लोग भी यही मानते हैं। 'पर है साला बदमाश। कभ्भी मदद नहीं करता,' फिर भी उसी के पास जाते हैं सब। जब बुद्धू ने कहा - 'सर, वहाँ सेठी बैठे हैं, क्या मैं उन से बात कर सकता हूँ?'

सुब्रह्मण्यम ने कहा - 'क्या बात है? वाट डू यू वांट?' आवाज बड़ी कड़क रहती है सुब्रह्मण्यम की।

'सर, वो मुझे फँसा रहा है। मैं इस टूर पर नहीं जा सकता।'

'ओ.के.' कहकर सुब्रह्मनियम ने डायरेक्टर से कहा कि ब्रांच ऑफिस से समर्थ है। कह रहा है वह इस टूर पर किसी भी हालत में नहीं जा सकता। डायरेक्टर ने क्या किया कि फोन खुद अपने हाथ में पकड़ लिया और पी.ए. की तरफ देख आँखों-आँखों ही उसे समझा दिया कि अब कोई चारा नहीं है। यह ट्रैजेडी क्वीन नुमा सेठी तो वहाँ जाने से रहा जाएगा तो टीम को ही तंग करके रख देगा। डायरेक्टर ने थोड़ी ही देर में बुद्धू को कन्विंस कर दिया कि अगर टूर के दौरान उसके फादर की तबियत खराब हुई तो उसे बीच टूर में ही वापस बुला लिया जाएगा।

बुद्धू ने नई दिल्ली से दक्षिण एक्सप्रेस पकड़ी थी। सन 73 के दिन थे वे और उन दिनों भी दक्षिण एक्सप्रेस हैदराबाद तक दो रातें और एक पूरा दिन लेती थी। रात दस बजे के करीब गाड़ी पकड़कर तीसरे दिन सुबह छ बजे बुद्धू पहुँचा था हैदराबाद। यहाँ आ कर गाड़ी के हैदराबाद पहुँचते-पहुँचते उसे गाड़ी में ही कई मददगार मिल गए थे। सबसे काफी जानकारी मिली उसे। सुबह-सुबह हैदराबाद उतर कर वह वेटिंग रूम में चला गया। नहाया धोया और अपने होल्डाल पर ही आराम करने लगा। उसकी माँ उससे बहुत मोह रखती है। बुद्धू एक तो पढ़ाई के सिलसिले में दिल्ली से दो साल फिरोजाबाद यानी चूड़ियों वाले शहर गया था और फिर पहली नौकरी पर कानपुर। अब इतनी दूर दक्षिण दिशा में वह पहली बार जा रहा था। पर बुद्धू को फिर भी अच्छा लग रहा था, ऐसे टूर के बहाने हिंदुस्तान भी देख लूँगा और फिर जंगल ऑफिस के देसी ठर्रानुमा माहौल में कई किस्म की बेहूदा सी बातों से भी कुछ दिन निजात पा लूँगा। बुद्धू को फर्स्ट क्लास का किराया मिल सकता है। वह हैदराबाद तो फर्स्ट क्लास में ही रिजर्वेशन करवा कर आया था। पर हैदराबाद से अगली ट्रेन अनंतापुर तक की थी और उसका उसके पास कोई रिजर्वेशन नहीं था। यहीं किसी दक्षिण भारतीय टी.टी के सामने हाथ-पाँव पसारकर एक साधारण रिजर्वेशन के डिब्बे में जुगाड़ हो गया था। एक वेटिंग रूम के चपरासी ने ही मिलवा दिया था उससे। बर्थ तो नहीं मिली पर रिजर्वेशन डिब्बे में घुसने की जगह टी.टी ने उसे दिलवा दी। वह जमीन पर ही सो गया था। दिल्ली से हैदराबाद तक फर्स्ट क्लास के कैबिन में बैठकर भी उसे खूब मजा आया। लग रहा था जैसे वह बहुत बड़ा आदमी बन गया है। फर्स्ट क्लास की खूब चौड़ी बर्थ भी उसे बढ़िया लगी। उसे होल्डाल खोलने की जरूरत नहीं पड़ी। उसकी माँ ने कहा था कि 'उधर तो मद्रासी (दक्षिण भारतीयों को वह मद्रासी ही कहती थी) लोग रहते होंगे सो पता नहीं वहाँ आटा-वाटा होगा कि नहीं, सो आटा पिसवा कर एक तकिए के कवर में ही डाल देती हूँ।' कवर की फिर अच्छी तरह सिलाई भी कर दी थी माँ ने। एक बैग में भी खूब चीजें डाल दी जैसे चाय की पत्ती, मसाले वगैरह और कंडेंस्ड मिल्क के डिब्बे भी ठूँस दिए!

'चाय तो खुद ही बना लेता है न तू?' माँ ने पूछा तो बुद्धू ने कहा - 'मैं तो सब्जी भी बना लेता हूँ!' इस पर माँ हँस पड़ी थी। माँ ने उससे कहा - 'याद है, कॉलेज के दिनों में तू ने एक बार सुबह जल्दी उठकर पूरे घर के लिए चाय बना ली थी कि सबको खुशकर दूँगा। सब छ बजे के आस-पास जागेंगे तो चाय बनी बनाई मिलेगी, सब मुझे होशियार समझेंगे। पर तू तो आधा घंटा चाय के उबलने के ही इंतजार में रहा न! हा हा! जब मैं जागी तो देखा कि चीनी की बजाए तो अँधेरे में तू ने चावल ही डाल दिए थे। किचन थोड़ा ही बाहर था पर किचन का बल्ब ही नहीं जल रहा था। और चाय की बजाए बन गए थे दूध में भुने हुए चावल!' माँ ने हँस-हँसकर यह बात याद दिला कर बुद्धू से कहा - 'सब्जी-वब्जी तू खुद मत बनाइयो। पता नहीं वहाँ होटल कैसे होंगे? होशियारी से जाना। कोई खाना-वाना बनाने वाला मिले तो खाना बनवा लेना। सिर्फ चाय खुद बनाना। पर चीनी की बजाए चावल मत डाल देइयो तू!'

बुद्धू हैदराबाद स्टेशन के वेटिंग रूम में नहा-धो-कर आराम करने के बाद जरा देर को ही बाहर निकल पाया क्योंकि वेटिंग रूम के चपरासी को अपना सामान दिखाकर वह डरता-डरता ही बाहर आया कि अनंतापुर जाने वाली गाड़ी का पता करके आता हूँ। पता चला कि वह तो रात दस बजे जाएँगी और सब डिब्बे फुल हैं। बुद्धू ने उसी चपरासी को लौटकर चाय-वाय पिलाई। यह तो उसे बचपन से ही पता चल गया था कि यहाँ इस देश में फ्री की चाय पिलाने से मिनटों में दोस्ती हो जाती है। चपरासी ने बताया कि डिब्बे में जगह वह एक टी.टी से कहकर दिलवा देगा। रात तक अगर उसे कहीं घूमना है तो वह अपना सामान लॉक करके लगेज रूम में रख दे। बुद्धू को यह आइडिया अच्छा लगा और सामान लगेज रूम में रखवा कर रसीद लेकर निकल पड़ा हैदराबाद देखने। डायरेक्टर के तीखे से पी.ए. सुब्रह्मण्यम ने उसे बताया था कि 'हैदराबाद में जा कर चारमीनार फोर्ट जरूर देखना। जूलॉजिकल गार्डन भी देखना। एक बहुत बड़ा म्यूजियम है, सालारजंग म्यूजियम, वह हफ्ता भर भी देखते रहोगे तो पूरा नहीं देख पाओगे। अगली गाड़ी तक जितना टाइम मिले खूब घूमना।' सुब्रह्मण्यम की अगर खुशामद करो तो सीधा है, पर उसे कोई जवाब दे तो दफ्तर में उसकी खैर नहीं।

हैदराबाद स्टेशन से निकलकर बुद्धू ने बाहर एक रेस्तराँ में नाश्ता किया। सब कुछ साऊथ इंडियन था और आस-पास देखा तो हैदराबाद भी कुछ अच्छा सा शहर लगा। बुद्धू ने ऑटो पकड़ा और चल पड़ा चारमीनार फोर्ट। वहाँ ऊपर चारमीनार फोर्ट के टॉप तक पहुँच गया बुद्धू और देखने लगा हैदराबाद। एक छोटी सी किताब वहीं फटाफट खरीदकर पढ़ डाली और पता चला कि चारमीनार फोर्ट तो सन 1591 में बादशाह मुहम्मद कुली शाह ने बनवाया था जब उसने अपनी राजधानी गोलकुंडा से हैदराबाद शिफ्ट कर दी थी और वहाँ प्लेग की बीमारी फैल गई थी। बादशाह मुहम्मद कुली शाह ने वहाँ प्रार्थना की और शपथ ली कि प्लेग से छुटकारा पाते ही वह यहाँ एक मस्जिद बनवाएगा, सो चारमिनार फोर्ट की ही चौथी मंजिल पर वह मस्जिद है। बुद्धू पढ़ने में तो माहिर है ही। सारी मीनारें भी देखी और सब कुछ अच्छा सा लग रहा था जैसे दफ्तर के बेहूदा वातावरण से छुटकारा पाने का यही एक तरीका है। कहीं ऐसी खुली जगह तक निकल भागों और चारों तरफ दूर-दूर तक देखो! बुद्धू वहाँ से चला आया जूलॉजिकल गार्डंस।

खूब अच्छा लग रहा था बुद्धू को और वह एक विशाल गोलाकार से मैदान के घेरे के बाहर बनी एक दीवार जितनी ऊँची सी ग्रिल के बाहर कई लोगों के बीच खड़ा हो गया। अंदर गोलाकार मैदान ऐसे था जैसे यह विशाल सा मैदान एक विशाल सी कटोरी हो जिसके किनारे पर गेंद रखी जाएँ तो वह फिसलकर कटोरी के पेंदे तक पहुँचती जाएँगी। अंदर काफी दूर नजर दौड़ाने पर बुद्धू ने देखा एकदम जहाँ कटोरी का पेंदा सा है, वहाँ धारियों-धारियों वाला एक चीता घूम रहा है। बुद्धू दूर से भी बहुत गौर से उसे देखने लगा जैसे यह उसकी खुशकिस्मती हो कि किसी ने दफ्तर के तनाव रूपी उस चीते को उस विशाल गोलाकार से ग्रिल में बंद कर दिया है।

बच्चे जीभ को लड़खड़ा-लड़खड़ाकर अजीब-अजीब सी आवाजें निकालते और चेहरा भी अजीब सा करके आँखें फाड़ देते... उनके दोनों हाथों की बंद मुट्ठियाँ कनपटियों पर रखी होतीं और मुट्ठियों से अँगुलियाँ ऐसे निकलकर ऊपर-नीचे नाचतीं जैसे किसी कॉकरोच के बड़े से बाल हो वे। उस चीते को खूब चिढ़ाते वे। पर चीता भी मानो उतना ही ढीठ था और लापरवाही से अंदर घूम रहा था। कुछ फासले पर उसका परिवार भी दिखा और छोटे-छोटे चीते भी। सचमुच, वे सब मिलकर एक अपराजेय तनाव से लग रहे थे!... पूरे चिड़ियाघर में उसने कई और जानवर भी देखे। बाहर आया तो एक औरत दिखी जो बेहद गरीब सी लग रही थी। उस औरत का ब्लाउज एक-दो जगह से फटा था पर बुद्धू को लगा जैसे वह ब्लाउज जान बूझ कर ऐसे फाड़ा गया है कि अंदर उसकी गोलाइयों में लोगों की ललचाई नजरें फिसलती चली जाएँ। अपनी साड़ी के पल्लू की मदद से उन फटे स्थलों को ढकने की कोई कोशिश वह औरत नहीं कर रही थी। उस औरत के हाथों में छोटे-छोटे लिफाफे थे जिन में कुछ पोस्टकार्ड साइज की अश्लील सी फोटु थीं। औरत हर पर्यटक की तरफ एक लिफाफा बढ़ाकर उसे ललचा देती - 'फोटू! फोटू! पाँच रुपया सा'ब,' बुद्धू ने एक छोटा लिफाफा लेकर खोल दिया तो वह औरत बोली 'पाँच रुपया सा'ब। बऊत अच्चा है।' अंदर छ पोस्टकार्ड साइज फोटु थी और एक-एक में कोई नंगी-अधनंगी औरत थी पर बुद्धू ने फौरन वह लिफाफा औरत को वापस दे दिया। औरत बोली - 'पाँच रुपया सा'ब। सिर्फ पाँच रुपया!'

बुद्धू ने उस औरत के चेहरे पर अपनी नजरें फोकसकर दी और अनायास ही मुस्करा कर बोला - 'फोटो से क्या होता है? सामने हो तो...' न जाने कैसे उसकी बात एक रिक्शे वाले के कान में पड़ गई। बहुत फुर्ती से वह लपक आया - 'मेरे साथ चलो सा'ब,। मिलेगी, ऐसी, एकदम सामने। ज्यादा खर्चा नहीं होगा।' पर बुद्धू जल्दी वहाँ से खिसक गया और एक ऑटो में चढ़कर म्यूजियम की तरफ चल पड़ा। यहाँ का ऑटो कुछ-कुछ दिल्ली के ऑटो से भिन्न था। छत पर हरे रंग का बॉर्डर था उन दिनों और दिल्ली की तुलना में मीटर की रीडिंग भी काफी कम गति से उछल रही थी। बुद्धू को यहाँ का साइकिल रिक्शा देखकर भी हँसी आ गई। उसकी घंटी दिल्ली के रिक्शे या साइकिल की तरह हैंडल में फिक्स नहीं थी, वरन वह तो पहिए के एक्सिल के बाहर अटकी थी और वहाँ से एक पतली सी रस्सी चलकर हैंडल तक आती। कोई सवारी सामने पड़ जाएँ तो हटाने के लिए रिक्शे वाला उस रस्सी को खींच देता और पहिए के एक्सिल से लगी घंटी दिल्ली की घंटी की तरह ट्रिन-ट्रिन न करती बल्कि करती - 'खट्-खट्!' बुद्धू को खूब मजा आ रहा था। उसे यह भी नई सी बात लगी कि दुकानों पर कई जगह जिस लिपि में बोर्ड छपे हैं, वह लिपि गोल-गोल अक्षरों वाली लिपि है। बुद्धू समझ गया, तेलुगू है। वैसे उसे पता है कि दफ्तर की मशीनी और धूर्तता भरी जिंदगी से कोई छुटकारा नहीं हो सकता, पर कभी-कभी ऐसी आवारागर्दी करने का अपना मजा है। दफ्तर तो जैसा है वैसा ही रहेगा! पर बुद्धू बीच-बीच में वहाँ की युवतियों पर नजर डाल देता जिन्होंने अधिकतर साड़ियाँ पहन रखी थीं व किसी-किसी की आँखों की कोरों से काजल की पतली सी रेखा बाहर निकलकर आँखों को और मारक सा बना देती।

बुद्धू म्यूजियम में पहुँचा तो सचमुच बहुत बड़ा था और उसे सुब्रह्मण्यम की बात याद हो आई कि इतना बड़ा म्यूजियम हफ्ता भर देखते रहोगे तो भी पूरा नहीं देख पाओगे। बुद्धू म्यूजियम में देखने लगा अलग-अलग जमाने के सुल्तानों के बैठने के तख्त और कई किस्म की कुर्सियाँ जिन में कुछ तो बेंत की, कुछ हाथी दाँत से बनी बेहद सुंदर कुर्सियाँ थी। एक हॉल में रवींद्र नाथ टैगोर के चित्र थे। एक और हॉल में कई किस्म की संगमरमर की मूर्तियाँ थीं और एक मूर्ति को देखकर तो बुद्धू चकित रह गया। मुँह फटा का फटा रह गया बुद्धू का। उस मूर्ति के सामने औरतें रुक ही नहीं रही थीं पर बुद्धू ने कुछ देर पहले देखा कि कॉलेज की लड़कियों का एक ग्रुप वहाँ खड़ा होकर क्षण-भर को ही दबे-दबे से खिलखिलाया और तेजी से खिसक गया, जैसे सबको एक साथ अन्तःप्रेरणा सी मिली हो। बुद्धू विश्लेषण करने लगा कि सबको मूर्ति के सामने क्षण-भर खड़े होते ही बुरी तरह शर्म आई होगी या जाने क्या हुआ? या औरत के एक स्वाभाविक तत्व लज्जा ने एक साथ सबको घेर लिया! क्योंकि वहाँ थी एक आदमकद, संगमरमर की बेहद खूबसूरत मूर्ति जो पूर्णतः निर्वस्त्र एक सुंदर नवयौवना की बेहद आला सी कलाकृति थी। शरीर का हर अंग निर्वस्त्र और साक्षात नग्न आँखों के सामने! बुद्धू फटे मुँह वहाँ कुछ देर खड़ा रहा तो कॉलेज के लड़कों का एक ग्रुप आया। उनकी शरारतबाजी देख बुद्धू स्वयं वहाँ से खिसक गया क्योंकि बुद्धू को उनका व्यवहार स्वाभाविक नहीं लग रहा था, जैसे वे एक कलाकृति का मजा उठा पाने में ही असमर्थ थे सब।

वह ग्रुप खड़ा-खड़ा उस नंगी औरत को देखने लगा और थोड़ी-थोड़ी देर की खुसर-फुसर या एक-दूसरे के कंधे दबा देने और अश्लील सा कुछ कह देने के बाद 'हा हा हा हा' करके एक कहकहा सा लगा देता। बुद्धू को लेकिन सचमुच मजा आ रहा था ऐसे अकेले घूमते-घूमते। बुद्धू तीन घंटे इस म्यूजियम में ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर कई हॉल देखकर पस्त सा हो गया, फिर भी उसके मन में यह हसरत बनी रही कि उस संगमरमर की मूर्ति को वह एक बार फिर देखकर ही यहाँ से लौटे! स्टेशन से रात दस बजे अनंतापुर की ट्रेन पकड़ने में अभी तीन-चार घंटे बाकी थे। बुद्धू को यह भूल ही गया कि वह मूर्ति आखिर थी कौन से हॉल में। पर टूटी सी टाँगों पर चलते-चलते भी बुद्धू ने ढूँढ़ ही लिया वह हॉल, इसे कहते हैं - 'जहाँ चाह है वहाँ राह है!' इत्तिफाक कि सूरज ढल चुका था और इस समय उस हॉल में बहुत कम लोग थे। बुद्धू जब पहुँचा तो उस मूर्ति से थोड़ा ही फासला पहले एक औरत अपने किशोर से बेटे के साथ कुछ और मूर्तियाँ देख रही थी। पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते उस औरत का किशोर बेटा उस नंगी मूर्ति के सामने खड़ा हो गया तो माँ उसकी पीठ के गिर्द अपनी बाँह का घेरा डाल अपने साथ आगे धकेलती सी ले गई। बुद्धू ने केवल कल्पना भर की, कि बेटे को पीछे से बाँह के घेरे में घेर आगे धकेलते हुए उस औरत ने अनायास लज्जा से ही अपनी आँखें मूँद भी ली होगी! किशोर कुछ ही क्षण बाद जाने कैसे माँ को चकमा देकर फिर इधर खिसक आया और मूर्ति को फटे मुँह देखने लगा। पर कुछ ही क्षण में जैसे डर सा गया हो, उसकी टाँगों में कंपन सी हुई, माँ के पास वापस खिसक गया। अब बुद्धू इत्मीनान से वह मूर्ति बहुत गौर से देखने लगा, जैसे उसके अंग-अंग को पी रहा हो। बुद्धू को लगा कि इस मूर्ति में कला की जितनी उत्कृष्टता है, वह तो कोई देख ही नहीं रहा। औरत जिस निर्वस्त्रता की मूर्ति को खुद भरी भीड़ में देखने से कतराती है, आदमी उसी को देख-देखकर कल्पना करता होगा कि काश, यह कलाकृति तत्क्षण जीवित हो जाएँ! ऐसा सोचकर मन ही मन खुश हो जाता है आदमी। औरत नहाते समय खुद अपनी ही छवि को शायद किसी विशाल से शीशे में गौर से देखती होगी। जब औरत सज-धज कर कमरे में लगे अपने शीशे में ही खुद को इतना हसरत से देखती है तो नहाते समय खुद को देख कितनी हसरतों से देखती रहती होगी वह! उसे लगा कि यहाँ तो संतुलन नाम की कोई चीज है ही नहीं।

विदेशों में तो माँ-बेटा हो या भाई-बहन, सेक्स संबंधी बातें खुले तौर पर डिस्कस भी कर लेते हैं, ऐसा उसने पढ़ा था। कम से कम ऐसी मूर्ति देखने में यहाँ के लड़कों या लड़कियों की तरह असंतुलन तो नहीं होगा न! पर बहुत फर्क है भाई, यह तो हिंदुस्तान है न! बुद्धू को याद आया कि कॉलेज के दिनों में कुछ लड़के डेस्क के अंदर छुपाकर एक अँग्रेजी नॉवल 'लेडी चैटर्ली' ज लवर' पढ़ते थे जिस पर बैन लगा था। जाने कौन उसे गोपनीय तरीके से कहाँ से खरीद लाया था और खुद पढ़कर दूसरों को पढ़वाने के चस्के का लोभ भी संवरण नहीं कर पा रहा था? इसलिए एक-एक करके सब लड़के पढ़ रहे थे उसे। पर उसकी पूरी क्लास के लड़कों को एक दिन यह जानकर आश्चर्य हुआ भी और नहीं भी कि कमोबेश यही हाल क्लास की लड़कियों का भी है। कोई लड़की उसी किताब की एक-दूसरी प्रति कहीं से लाई होगी और वह लड़कियों के बीच सर्कुलेट हो रही है! लड़कियाँ हालाँकि क्लास की डेस्क में छुपाकर नहीं पढ़ रही थीं वरन वे अपने घर के स्टडी रूम में रात देर से छुप-छुप कर पढ़ने के बाद ही सो जाती हैं!... एक प्रोफेसर एक बार अच्छी पुस्तक और बुरी पुस्तक के बारे में बताते हुए बोला था कि किसी को भी यह मत बताओ कि यह पुस्तक बुरी है, वर्ना वह जरूर उसे पढ़ेगा। उसे स्वयं ही पढ़कर फैसला करने दो कि अच्छी है या बुरी। उस ने कहा कि अगर हम किसी कमरे को बाहर से ताला लगा दें और सबसे कहें कि यहाँ इस इमारत में सब जगह जाने की अनुमति है, पर इस कमरे में खास तौर पर जाने की सख्त मनाही है, तो हर व्यक्ति में जिज्ञासा जागेगी और वह कोशिश करके उस कमरे का ताला तोड़कर भी उस कमरे को देखना जरूर चाहेगा। उसे लगा कि शायद इतने बड़े म्यूजियम में खुल्लम-खुल्ला यह मूर्ति रखने वालों में भी यही प्रबुद्धता रही होगी कि इस मूर्ति को जो भी देखना चाहे, देखे और स्वाभाविक तरीके से देखे। उसे तो यह भी याद आया कि एक किताब के एक अध्याय में नायिका बाथरूम में संपूर्ण निर्वस्त्र होकर स्वयं अपनी ही कामोत्तेजक सी आकृति देख उस आईने से ही मुहब्बत कर बैठती है, जिसमें उसका बिंब छुपा है, जो कि उसके अपने कामोत्तेजक शरीर का ही है...!

बुद्धू ये तमाम बातें सोचता-सोचता आखिर म्यूजियम से बाहर आया और थका हारा सा एक ऑटो में बैठ गया। ऑटो ड्राइवर के कान में उसने जाने क्या खुसफुस की और ऑटो चल पड़ा उसी जगह, जहाँ सब कुछ सामने हो...! पर बुद्धू को वहाँ सब कुछ जाने क्यों, घिनौना सा लगा? मजबूरी का प्रदर्शन था और कुछ नहीं। भूख और बदहाली की ये मूर्तियाँ उस संगमरमर की मूर्ति जैसी समृद्ध और उज्जवल कलाकृतियाँ कैसे हो पाएँगी कभी? काश कोई जादूगर ऐसा कर पाए! ऐसा करना शायद उस जादूगर की अग्नि परीक्षा होगी। काश कोई इन बदनाम गलियों को भी बदल पाए। बुद्धू सचमुच, वहाँ किसी भी मूर्ति को निर्वस्त्र देखे बिना चुपचाप चला आया था!


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