5.
अनंतापुर पहुँच गया बुद्धू। सामान रिक्शे में रखा तो उसी तरह साइकिल के पहिए में फँसी घंटी की खट-खट में उसे मजा आने लगा। दफ्तर खेल का कोई बड़ा मैदान पार करके
है, यह दिल्ली में किसी ने उसे बता दिया था। खेल का मैदान पार करके बुद्धू ने वह मकान ढूँढ़ लिया जहाँ उसे इस टूर के लिए रिपोर्ट करना था।
बाहर एक बरामदानुमा जगह थी जिसमें उसने दूर से ही देखा कि मि. सलूजा टहल रहा है। सलूजा ने भी उसे देख लिया था और मुस्कराया। बरामदे जैसी जगह के बाहर तीन-चार
सीढ़ियाँ थी और सलूजा लपकता हुआ नीचे आ गया - 'आ गए समर्थ? यहाँ तो सब लोग आप ही के इंतजार में थे। परसों ही सारी टीम का काम शुरू होगा और अलग-अलग लोग अलग-अलग
स्टेशनों पर पोस्ट होंगे,' कहते-कहते सलूजा ने रिक्शे में उसका सामान उतारने में भी उसकी मदद की। बुद्धू गाड़ी में रात के आखिरी पहर में खूब सो गया था और उसे
किसी ने जगा दिया था कि उठो, अनंतापुर आ रहा है।
बुद्धू ने देखा पाँच-छ कमरों का एक मकान है जिसमें से दो में तो इंस्ट्रुमेंट लगे हैं और बाकियों में खुले होल्डाल हैं जिन पर पत्ते बिखरे हैं। इस समय सब लोग
नहाने-धोने में लगे हैं पर खुले होल्डालों पर ताश के पत्ते बिखरे देख बुद्धू समझ गया कि यहाँ भी ये सब लोग शुरू हो गए। पर बुद्धू को उस ऑफिस से, जो कि इस टीम का
टूर हेडक्वार्टर बन गया था, तीसरे दिन ही प्रस्थान करना पड़ा। तीसरे दिन उसका ट्रक चल पड़ा कल्याणदुर्ग, जो यहाँ से दो घंटे के फासले पर एक छोटा और बेहद पिछड़ा हुआ
सा गाँव है, कस्बा भी कह सकते हैं, या जाने क्या है वह!
बुद्धू कल्याणदुर्ग देख हैरान सा रह गया। जहाँ उसके छोटे से दफ्तर में उसके इंस्ट्रुमेंट लगाए गए और उसे अकेले चार महीने ड्यूटी करनी थी, उसी के सामने यह टीन के
पतरों से ढका लंबा सा कैंटीन था। यहाँ वह आज पहली बार दोपहर का खाना-खाने आया था क्योंकि उसकी टीम के दो ऑफिसर और एक मकैनिक उसके साथ अनंतापुर से यहाँ आए थे और
उसके इंस्ट्रुमेंट लगाकर उसे सब समझाकर आज सुबह ही चले गए।
इस रेस्तराँ में बुद्धू ने देखा कई दक्षिण भारतीय लोग काले-कोट भी पहने हैं और सुबह उसे बत्रा मकैनिक जो बहुत मोटा सा है, ने दफ्तर के बाहर खड़े-खड़े समझा दिया था
- 'वह देखो, कैंटीन के दाईं तरफ पोलिस कमिश्नर की कोठी है, कभी पंगा मत लेइयो। कैंटीन के बाईं तरफ जो लंबी सी बैरक है, वह यहाँ की कचहरी है। थोड़ी ही देर में
यहाँ हलचल शुरू हो जाएँगी और वकील-बकील सब यहाँ आने शुरू हो जाएँगे। आस-पास छोटे-छोटे गाँव हैं जहाँ से जमीन वगैरह के झगड़े निपटाने के लिए यहाँ तहसीलदार का
दफ्तर लगा हुआ है। उसी से आज जा कर यहाँ के मजदूरों की 'रेट लिस्ट' ले आइयो।' बुद्धू समझ गया। पर इस समय कैंटीन में चारों तरफ नजर दौड़ाकर उसे अजीब सा लग रहा था।
पढ़े-लिखे वकील हों या कचहरी के बाबू लोग, कोई-कोई मैजिस्ट्रेट भी हो सकता है, वे सब हाथ से चावल खा रहे थे। वे हाथ में सांबर डूबे गीले चावलों का एक गोला सा बना
लेते और गोला बड़े अजीब ढंग से होंठ खोलकर हथेली के किनारे के रास्ते से धीरे-धीरे अंदर सुड़कते। बुद्धू के पास ऑर्डर लेने एक लड़का आया तो बुद्धू की तरफ देख-देख
वजह-बेवजह मुस्कराने सा लगा। बुद्धू ने कहा - 'खाना लाओ। चपाती है क्या?'
लड़का उसकी हिंदी समझा ही नहीं। बुद्धू बोला - 'चपाती?'
'लेदू लेदू' (नहीं नहीं)।' कहकर वह लड़का हँसने लगा और बुद्धू उसका 'लेदू लेदू' समझा ही नहीं। लड़का गाँव का कोई फटेहाल अनपढ़ सा छोकरा था जो यहाँ का चुस्त-दुरुस्त
वेटर माना जाता था। बुद्धू ने एक वकील की तरफ मदद माँगने वाली निगाह से देखा और अँग्रेजी में दो-चार वाक्य टीप दिए। वकील ऐसी बढ़िया अँग्रेजी सुन खुश हुआ। बुद्धू
ने उसे बताया कि वह सेंट्रल गौरमेंट (गवर्मेंट) का आदमी है और उसका डिपार्टमेंट यहाँ तेल की खोज करने आया है। दो-तीन डिपार्टमेंट मिलकर यह काम कर रहे हैं। वकील
ने उसे बताया कि यहाँ चपाती-वपाती कुछ नहीं मिलेगा, और उस फटीचर से वेटर को सब समझा दिया कि सा'ब के लिए राईस लाओ।
फिर वह छोकरा काफी देर गायब रहा और वकील अपने दूसरे दोस्तों के साथ खाने और गपशप में तल्लीन हो गया। वेटर एक बड़ा सा केले का पत्ता रख गया तो बुद्धू ने क्या किया
कि वह हाथ में उठाकर पंखा झलने लगा क्योंकि वहाँ उसे बड़ी गर्मी लग रही थी। वेटर हँसने लगा और टेबल पर थपकियाँ देकर बुद्धू को समझाने लगा जिसका मतलब था -
'रखो-रखो। टेबल पर रखो, इसी में तो राईस पड़ेगा!' बुद्धू को वकील ने दूर से थोड़ा समझा दिया - 'कीप दैट लीफ ऑन टेबल (वह पत्ता टेबल पर रख दो)।' फिर वकील ने इशारे
से अपने एक हाथ की अंजुली बनाई और छोटा सा गिलास उठाकर समझा दिया कि पत्ते पर जगह-जगह पानी छिड़को ताकि पत्ता थोड़ा गीला हो सके। बुद्धू ने वही किया। थोड़ी ही देर
में बुद्धू ट्रेन हो गया और वेटर आया तो एक छोटा पतीलानुमा बर्तन उसने पत्ते पर उल्टा दिया। बुद्धू के केले के पत्ते पर चावल का एक छोटा पहाड़ सा बन गया। वह लड़का
फिर गायब हो गया और थोड़ी देर बाद एक उतने ही छोटे पतीले जैसी चीज में सांबर लाया और सांबर सारी चावलों के छोटे से पहाड़ पर उड़ेल दी। पहाड़ की ढलानों पर सांबर की
जैसे नदियाँ सी बहने लगीं। फिर जल्द ही इस पहाड़ के चारों तरफ लाल मिर्च, आचार, हल्दी सना सा प्याज और कुछ न समझ में आने वाली मसाले जैसी चीजों की छोटी-छोटी
पहाड़ियाँ बना दीं। बुद्धू बोला - 'चम्मच?'
'चम्मच बोले तो?'
यहाँ कइयों को इतनी भर हिंदी आती थी। 'बोले तो' का मतलब 'मतलब'? बुद्धू को बार-बार वकील की तरफ मदद के लिए देखने में शर्म आई तो वह उठकर काफी दूर चलता एक काउंटर
पर पहुँचा जहाँ एक आदमी खड़ा काम कर रहा था और उसे देख मुस्कराने लगा। बुद्धू उससे बोला - 'स्पून? स्पून नहीं?'
'नो स्पून,' वह आदमी इतनी भर अँग्रेजी बोलकर खुश था। 'हैंड...' कहकर उसने हाथ की अँगुलियों से एक कोन सा बनाकर मुँह में डालने का इशारा करते समझा दिया कि हाथ से
खाओ सब कुछ, राईस हो या कुछ भी। बुद्धू चारों तरफ देख अपनी टेबल पर लौटा और उसने भी बहुत नजाकत से थोड़े से चावल अँगुलियों में समेटे और मुँह में डाल दिए पर लगभग
चीख सा पड़ा - 'बहुत तेज मिर्चीईईई... ये क्या ले आएएएए...' पर बुद्धू थोड़ी ही देर में जैसे-तैसे उस मुसीबत से छुटकारा पाकर खाने का डेढ़ रुपया देकर दफ्तर आ गया।
उसके साथ दो नए कंटीजेंट मजदूर लगा दिए गए थे जिन के 'डेली वेजिज' के रेट उसे बत्रा तहसीलदार ऑफिस से लेने की बात सुबह कर रहा था। बुद्धू ने अपने कंटीजेंट मजदूर
से कहा - 'तुम खाना बनाना जानता है?'
'जानता है सा'ब। राईस बनाना जानता है। चपाती भी बना लेगा, तुम थोड़ा सा बता देना,' वह लंगड़ा कर चलने वाला मजदूर पेदैय्या टीम लीडर शर्मा जी अनंतापुर से ही लेते
आए थे ताकि कम से कम यह टूटी-फूटी हिंदी ही बोले तो कुछ समझ तो आए। उसका छोटा साला आनंद भी बतौर चौकीदार के रख लिया गया। पेदैय्या 'आप' और 'तुम' में फर्क नहीं
जानता था सो बुद्धू को यह सब सहन करना पड़ता। पर बुद्धू की खाने की समस्या काफी हद तक हल हो गई। आखिर दिल्ली से लाया वह पिसा हुआ आटा किस दिन काम आएगा। बुद्धू
थोड़ा-थोड़ा संयत हो गया और इंस्ट्रुमेंट देख-देखकर एक पैंफलेट से काफी कुछ समझने लगा। सलूजा ने उसे समझा दिया था कि ज्यों ही टीम वहाँ से इंस्ट्रुमेंट लगाकर
अनंतापुर वापस आए, अगले ही दिन एक टेलीग्राम ठोक देना कि घड़ी-वड़ी या कोई भी इंस्ट्रुमेंट खराब हो गया है और यहाँ से कोई आ जाएगा, क्योंकि ऐसे ही तो ये सब
बार-बार छोटे-मोटे टूर बनाएँगे और कुछ कमा पाएँगे।' बुद्धू यहाँ की बातें कुछ-कुछ समझ रहा था। सलूजा तो असिस्टेंट है। बुद्धू की तरह ही अनंतापुर से थोड़ा दूर
किसी और स्टेशन पर तैनात हो जाएगा। उसने उसे अनंतापुर में ही समझाया कि कल रात यहाँ यह फैसला हुआ कि अब महीना भर कोई जुआ नहीं खेलेगा क्योंकि टीम लीडर शर्मा जी
कुछ ज्यादा ही रकम हार गए, कहकर सलूजा हँसने लगा क्योंकि अधिक पैसा उसी ने जीता था। जब ट्रक में अनंतापुर से सामान आ रहा था तब मोटा सा बत्रा उस ट्रक में
ड्राइवर के साथ बैठ गया था जो मुस्लिम था और उर्दू शायरी खूब जानता था। बत्रा भी हा हा हा हा करता बहुत सस्ते किस्म के शेर टीपता आ रहा था जिन में से कई शब्दों
के तो मतलब ही उसे नहीं पता थे। बुद्धू तो एक जीप में था और रास्ते में उसने देखा ट्रक भी रुक गया और जीप भी। कोई गाँव आ गया था और बत्रा ट्रक में ड्राइवर के
साथ वाली सीट से कूद कर नीचे खड़ा हो गया है। 'आओ आओ,' उसने ऐसे कहा जैसे कंडक्टर-वंडक्टर हो। गाँव के दस-बारह लोग किसी बस के इंतजार में थे। अनंतापुर से यहाँ
कल्याणदुर्ग का किराया बस में सिर्फ साढ़े तीन रुपये था उन दिनों। पर बत्रा ने क्या किया कि पाँच-छ लोगों को पीछे से ट्रक में चढ़ा दिया। 'रंडो रंडो'। बत्रा ने
यहाँ की थोड़ी-थोड़ी तेलुगू समझ ली थी। 'रंडो' यानी दो। वह गाँव वालों से कह रहा था - 'दो रुपये लगेंगे दो रुपये। आते जाओ।' बुद्धू यहाँ आ कर भी अपने विभाग की
नई-नई बातें समझता जा रहा था। सलूजा ने ही उसे समझाया था कि कहीं भी रिक्शा पकड़ना हो तो इस छपे फॉर्म पर रिक्शे वाले का अँगूठा जरूर ले लो। अगर दो रुपये भी दो
तो भी पाँच से कम पर अँगूठा न लगवाना। ज्यादा फासले पर कम से दस लिखो या पंद्रह। ये सारी पर्चियाँ क्लेम करनी पड़ेंगी। थोड़ा-थोड़ा कमाते भी जाओ।
इस ट्रक में भी गाँव की सवारियाँ बिठा-बिठाकर बत्रा चाहता था कि थोड़ा सा पैसा कमाया जाए। बुद्धू सचमुच, बहुत अनमने तरीके से यह सब देखता जा रहा था। उसे मानो
समझकर भी कुछ समझ नहीं आ रहा था। पर बत्रा चलते ट्रक में ही उसे चिल्लाकर समझाता जा रहा था, जब बुद्धू वाली जीप किसी-किसी जगह उस ट्रक के एकदम साथ चलने लगती थी।
सड़क ऊँट की पीठ की तरह ऊँची हो जाती फिर नीची और चारों तरफ थे पहाड़ ही पहाड़। पहाड़ के बीच से ही यह छप्पन किलोमीटर ऊँची-नीची जाती सड़क काटी गई थी। बत्रा चिल्लाकर
कह रहा था - 'मि. समर्थ तुम तो हो थॉरो जेंटलमैन, पर जो महाबुद्धू है, उसी को हम तो थॉरो जेंटलमैन कहते हैं। आखिर हम घर वालों और घर वालियों से इतना दूर इन उजाड़
जंगलों में बनवास पर आ गए हैं, सो कुछ तो पॉकेट गर्म हो! जाते-जाते बच्चों के लिए ही कोई नेकर-शेकर ले जाएँ, इसलिए इन छोटे-छोटे किरायों से यहाँ का चाय-पानी ही
निकल आए, समझे कि नहीं मिस्टर थॉरो जेंटलमैन!' बुद्धू को लगा जैसे सारा का सारा सिस्टम एक सा ही है। कहीं नाक की सीध में चलने की गुंजइश ही नहीं। अब कंडक्टर बन
के यहाँ के गाँव वालों से एक-एक दो-दो रुपये कमाते रहो... यही बचा है बस...!
बुद्धू ने अगले ही दिन टेलीग्राम भेजा - 'घड़ी खराब हो गई है और बत्रा मकैनिक आ गया। रात को ही बोला - 'ठीक है, अब तुम परफेक्ट हो गए हो। कल सुबह चार बजे से ही
काम शुरू होगा। यहाँ हमें तो सिर्फ थोड़ी-थोड़ी रिकॉर्डिंग करनी है। बाकी काम हैदराबाद डिपार्टमेंट कर लेगा। एक बंगलौर का भी है, वो जो सूचना हम से माँगेंगे हम
उन्हें या तो टेलीग्राम से दे देंगे या यहीं तुम एक गेस्ट हाउस जा कर उनको दे आना।' दो-तीन किलोमीटर दूर ही एक गेस्ट हाउस है जिसमें जा कर बुद्धू देख आया कि
बंगलौर के साथ-साथ हैदराबाद के भूविज्ञान वाले भी थोड़े दिन रुके हैं। उनके कई जीप हैं जो यहाँ कई जगह आते-जाते रहेंगे। बुद्धू समझ गया कि यहाँ सब टूर में काम तो
करते हैं पर पॉकेट भी खूब गर्म करते हैं और थोड़े ही दिन बाद बुद्धू ने देख लिया कि उस विभाग की भी जीपों में गाँव के कई लोग बैठे नजर आते हैं, विभाग वाले उन्हें
आधे किराए पर आस-पास के गाँवों में पहुँचा कर अपना चाय पानी बटोर लेते हैं। जिस समय बत्रा एक ट्रक कल्याणदुर्ग जाने के लिए अनंतापुर वाले ऑफिस में ला रहा था तो
वह ड्राइवर के साथ वाली सीट से ट्रक के धीमे होते ही कूद पड़ा और हँसता मुस्कराता शेरो-शायरी करता आ रहा था। शर्मा जी से बोला - 'आ गया सा'ब ट्रक। इसी ने तीन
कोटेशन ला दिए और अपना चार्ज सबसे कम रखा, सो इसी में समर्थ की सवारी कल्याणदुर्ग जाएँगी! इसी में जा कर समर्थ के इंस्ट्रुमेंट और समर्थ को भी इंस्टॉल कर आएँगे!
हा हा...'
रात होते ही क्या हुआ कि बत्रा जमीन पर अपना बिस्तर फैलाए बैठ गया और गप्पें मारने के मूड में आ गया। बुद्धू कोई गंभीर सी पुस्तक पढ़ने लगा तो बत्रा बोला -
'मुंशी प्रेमचंद के बाद अगर कोई काम का राइटर पैदा हुआ है न तो वह है गुलशन नंदा। मैं ठीक कह रहा हूँ न समर्थ?' बुद्धू को लगा उसे कोई अकेली सी जगह चाहिए जहाँ
जा कर वह खूब जोर-जोर से कहकहा लगाए क्योंकि यहाँ इस मोटे से आदमी के सामने कहकहे को दबाने में उसे जबरदस्त तकलीफ हो रही थी। बुद्धू को अपनी मजबूरी पर हँसी आ
गई। पर बुद्धू बोला - 'बिल्कुल ठीक। और कोई है ही नहीं!'
बत्रा बोला - 'अपने ऑफिस के लोग पट्ठे लिटरेचर के बारे में कुछ जानते ही नहीं। इसलिए गुरु तुम से दोस्ती रखकर मुझे सचमुच गर्व होता है।' बुद्धू को हँसी दबाने
में जो तकलीफ पहले हो रही थी, वह अब फिर होने लगी। वह बत्रा के बिस्तर के साथ ही फैले अपने बिस्तर पर बैठे-बैठे कुछ सरक कर बोला - 'आपका टेस्ट हाई है न। शायरी
भी कितनी तो बढ़िया कह रहे थे,' बुद्धू को फिर कहकहा दबाने की जरूरत सी महसूस हुई। बत्रा तो फूँक में आ गया, पर अचानक बोला - 'गुरुजी, यहाँ माल-वाल है क्या?'
अब बुद्धू को तो धर्मसंकट में फँसना ही था ऐसी बात सुनकर। माल-वाल का मतलब तो है लड़की। बुद्धू घबरा गया - 'अभी परसों तो आए हैं यार। सामने ही पोलिस कमिश्नर की
कोठी। दिल्ली में बैठे ड्रेक्टर को पता चल गया कि अपन लोग गिरफ्तार हो गए हैं तो क्या हालत होगी हम सब की।' बत्रा बोला - 'तू तो गाँडू है गाँडू। मजे लेता ही
नहीं!' बुद्धू ने आज शाम ही देख लिया था कि कमिश्नर की कोठी से एक लंबा और काला सा पोलिसवाला निकलता है और वह थोड़े ही फासले पर बने अनाथालय की लड़कियों को जाने
कहाँ ले जाता है। उसके साथ बाजार में जाते-जाते लंगड़ाते हुए पेदैय्या ने बताया था कि 'ये सामने सा'ब गरीब लड़की होता। माँ-बाप मर गए। कोई नहीं। बीस लड़की है। यहाँ
का मालिक खाना खिलाते समय भी एकाध स्लैप कर देता सबको।' पेदैय्या कोई-कोई अँग्रेजी शब्द बोलता तो एक्सपर्ट सा लगता। शाम को वो पोलिसवाला जो है न, जिसका बैक बहुत
पीछे तक है, (उस काले से पोलिसवाले की पीठ में पीछे बड़ा सा कूबड़ भी है), वो उनको घुमाता है, फिर इधर-उधर कहीं छोड़ आता है।'
'छोड़ आता है? मतलब?' बुद्धू समझा ही नहीं, बुद्धू जो है। पेदैय्या को लगा कि सा'ब सचमुच बुद्धू है, हँसने लगा - 'मतलब सा'ब ये लड़की सब गरीबी में खराब कर दी जाती
है। वो पोलिसवाला इनका धंधा करता।' बुद्धू को आश्चर्य हुआ। पोलिस कमिश्नर की कोठी में नौकर की तरह सुबह-शाम खटने वाला पोलिस कांस्टेबल रात को इन अनाथ लड़कियों का
धंधा करता है और सुबह तक ये सब आ जाती हैं अनाथालय वापस! पढ़ाई-वढ़ाई नाम मात्र की होती है। सचमुच बुद्धू को लगा कि वह बेहद पिछड़े हुए इलाके में आ गया है।
हिंदुस्तान तो बहुत गरीब है। बुद्धू को लगा उसे किताबें पढ़ना छोड़ हिंदुस्तान को पढ़ना चाहिए। वहाँ कुल बीसेक लड़कियाँ हैं जो ग्यारह साल से लेकर लगभग बीस साल की
उम्र तक की होंगीं। बत्रा से बुद्धू यह सब कहता तो बत्रा उसे छोड़ता नहीं। कोई लड़की मँगाकर ही छोड़ता जिसके लिए जा कर उसी बालिका अनाथालय के इंचार्ज से कुछ
इशारेबाजी करनी पड़ती। रात को बत्रा एक ऊँट की तरह बिस्तर पर पसर गया तो बुद्धू ने चैन की साँस ली और थोड़ी देर पढ़कर वह भी बत्ती बंद करके सो गया। सुबह चार बजे से
ही इंस्ट्रूमेंट्स पर काम चालू करके कुछ रिकॉर्डिंग करनी थी। यहाँ का काम यह कि भूविभाग जगह-जगह जमीन में ड्रिलिंग करके धमाके करेगा और यहाँ इंस्ट्रुमेंट में
उसकी लहरें रिकॉर्ड हो जाएँगी। बुद्धू सुबह साढ़े तीन बजे ही जाग गया और हाथ-मुँह धोकर ठीक चार बजे से काम पर बैठ गया।
बत्रा को इस समय कोई काम नहीं करना था। घड़ी उसने रात को ही नाम मात्र को देख ली थी और अपनी टूर रिपोर्ट भी बना ली कि घड़ी रुक गई थी और उसे ठीक कर दिया गया है।
उसने टूर का क्लेम फॉर्म भी भर लिया। रिक्शे वाले से क्लेम करने के भी छपे-छपाएँ कई फॉर्म उसके पास थे ही, बस रिक्शे वालों के अंगूठे लगवाने की तो जरूरत थी। उसे
सात बजे ही वापस अनंतापुर निकल जाना था। बुद्धू काम करता रहा और उस सन्नाटे में काम करने में अधिक मजा आ रहा था। पर यहाँ सचमुच का सन्नाटा भी नहीं था और जमीन पर
सोए ऊँट की नाक से अजीब भोंडी सी आवाजें लगातार निकल रही थीं कि अचानक बुद्धू ने देखा, न जाने कैसा एक बड़ा सा पहाड़ी कीड़ा एकदम बत्रा के बिस्तर पर चढ़कर आगे रेंग
रहा है? यहाँ पिछली तरफ पाँच-छ ऊँचे-नीचे पहाड़ हैं जहाँ से न जाने कैसे-कैसे पहाड़ी जीव रेंगते रहते हैं। पिछली दो-एक सुबहों को तो बुद्धू बहुत घबराया जब उसे एक
टीन के डिब्बे में पानी डालकर पीछे एक जंगल में जा कर निपटना पड़ा। पेदैय्या हँस रहा था। बोला - 'इधर ऐसा ही होता सा'ब। पर आप फिकिर मत करो। एक और तरीका बताऊँगा।
साथ ही बी.डी.ओ. का ऑफिस है। उनका यहाँ बाहर ही एक टॉयलेट है। मैं बात करके आऊँगा। तुम उसमें जाना।'
बुद्धू घुटने, बत्रा के बिस्तर पर टिकाकर बत्रा को झिंझोड़ने लगा - 'बत्रा... बत्रा...' खूब जोर से चिल्लाया बुद्धू तो बत्रा भी चौंक कर छलाँग सी मारता उठ खड़ा
हुआ। बुद्धू तो बत्रा के स्टाइल से ही घबरा गया पर उसे हँसी आ गई। बत्रा बोला - 'सात बजे की बस पकड़नी है मुझे तो। सात बज गए?'
'अबे उठ। वो देख।' बुद्धू ने इशारा किया और बत्रा ने देखा तो घबराकर दो कदम और पीछे कूद सा पड़ा - 'अरे ये क्या है यार?'
बुद्धू को फिर हँसी आ गई। बोला - 'ऐसी जगह ला कर पटक दिया सेठी ने मुझे कि बस...' बत्रा बिस्तर की तरफ बढ़ते उस काले और चौड़े, चूहे जितने बड़े से कीड़े को देखने
लगा जो चपटा सा था और धीरे-धीरे रेंग रहा था। उसका तो खून सूख गया। वह बाहर बरामदे में गया और फर्श पर कंबल ओढ़े बिस्तर पर गहरी नींद में सोए पेदैय्या और आनंद को
झिंझोड़ कर चिल्लाने लगा। उसका बस चलता तो पीट देता दोनों को। दोनों फौरन जाग कर बोले - 'क्या हो गया सा'ब?'
'उधर देखो तुम्हारा बाप आया अंदर।' पेदैय्या ने आ कर वह कीड़ा देखा और उनींदी आँखों ही आश्वासन देकर बोला - 'कुछ नको सा'ब कुछ नको। डर नको,' कहकर उसने उस कीड़े को
उसकी पतली और छोटी सी पूँछ से पीछे की तरफ खींचकर ऊपर उठाया और बाहर चला गया। उसे पिछवाड़े की तरफ कहीं फेंक आया। आनंद भी अपने बिस्तर पर कंबल ओढ़े बैठ गया था और
दोनों मुस्करा कर आपस में तेलुगू में ही खुसर-फुसर करने लगे। नींद के बावजूद दोनों को हँसी आ रही थी जैसे बत्रा के डरने के स्टाइल का मजा ले रहे हों दोनों।
पेदैय्या आनंद से तेलुगू में बोला - 'अपना सा'ब सिमर्थ बऊत शरीफ है। वो साला बदमाश है। डरने दो मोटे को।'
सुबह सात बजे बुद्धू यूँ ही अपने 'रिसर्च ऑफिस' (यहाँ के सब छोटे ऑफिस 'रिसर्च ऑफिस' कहलाने लगे थे) के बरामदे में बैठा था। दो दिन खूब काम रहा और बुद्धू सोच
रहा था आज समय निकालकर तहसीलदार ऑफिस जाएगा और पता करेगा कि 'स्किल्ड लेबर' और 'अनस्किल्ड लेबर' के प्रतिदिन के हिसाब से इस जिले में क्या रेट हैं। हर महीने
पेदैय्या और आनंद के मास्टर रोल बनाने पड़ेंगे। रोज की हाजिरी लगाओ और मास्टर रोल महीने के आखिर में साइन करके अनंतापुर भेज दो। बुद्धू यह सोचकर हँस पड़ा कि दोनों
साला-बहनोई कहीं बीच में ही फर्लो न चले जाएँ...
बुद्धू ऐसी ही तमाम बातें सोचता खाली-खाली सा बैठा था कि एक आदमी 'रिसर्च ऑफिस' के एकदम सामने आ खड़ा हुआ। यहाँ के रिवाज के अनुसार उसने घुटनों से भी ऊपर तक एक
धोती बाँध रखी थी और एक कोहनियों के ऊपर तक आधी बाजुओं को ढकती बनियान पहन रखी थी। शख्सियत ऐसी कि जैसे यहाँ का कोई अति साधारण सा व्यक्ति हो। पर बुद्धू ने उठकर
पूछा - 'आप कौन'? तब वो आदमी बोला - 'आई एम तहसीलदार। केम टु नो दैट हेयर इज अ रिसर्च ऑफिस फॉर ऑइल (मैं तहसीलदार हूँ। मुझे पता चला कि यहाँ तेल की खोज में कोई
'रिसर्च ऑफिस' खुला है)।' एक इस कदर सादगी भरी सी शख्सियत से इतनी बढ़िया अँग्रेजी व उच्चारण सुनकर बुद्धू सचमुच चकित था। वह उठ-खड़ा हुआ। उसे इस बात पर भी
आश्चर्य हुआ कि वह तो अभी-अभी तहसीलदार के बारे में ही सोच रहा था और तहसीलदार खुद ही मॉर्निंग वॉक करता हुआ यहीं आ गया। तहसीलदार को वह ऑफिस के अंदर ले आया।
तहसीलदार की रुचि ऑफिस देखने में थी। बुद्धू ने उसे सारे इंस्ट्रुमेंट दिखाकर कहा - 'ऐसा होता है कि हैदराबाद का भूविभाग जमीन में ड्रिलिंग करके एक काफी गहराई
तक जाता सूराख सा बनाता है। एक छोटे से बम को एक ऐसी रस्सी से बाँध दिया जाता है जो पूरी बारूद की हो और वह रस्सी कई मीटर लंबी होती है। फिर उस रस्सी का बाहर
वाला सिरा एक जीप में बैठा आदमी पकड़े रहता है। जीप कम से कम दो सौ मीटर दूर चली जाती है। वहाँ से उस बारूदी रस्सी के उस सिरे को सुलगाकर फेंक दिया जाता है।
सुलगती रस्सी से चिंगारियाँ आगे-आगे बढ़ती हैं और आखिर उस सूराख में रखे उस बम तक पहुँच जाती हैं और धरती के अंदर एक धमाका सा होता है। इससे क्या होता है कि कई
लहरें पैदा होती हैं और हम यहाँ इस इंस्ट्रुमेंट की मदद से रिकॉर्ड कर लेते हैं। बाद में उन सबका विश्लेषण होगा कि धरती के अंदर क्या है, पानी है या पेट्रोल, या
कुछ और ही है अंदर, बस।' बुद्धू को इस बात पर भी खुशी हुई कि तहसीलदार बहुत अच्छी अँग्रेजी ही नहीं वरन बहुत अच्छी हिंदी भी बोल लेता है। उसने पेदैय्या को
बुलाया तो पेदैय्या ने आ कर तहसीलदार सा'ब को सैल्यूट किया और तेलुगू में बातचीत करने लगा। तहसीलदार बहुत भला आदमी था और बुद्धू समझ गया कि वह पेदैय्या को समझा
रहा है कि यहाँ ये मि. समर्थ एकदम अजनबी आदमी हैं, उतनी ही अजनबी यह जगह है इनके लिए। इनका पूरा ख्याल रखना। पेदैय्या बहुत उत्साह में था और तहसीलदार को एक और
सैल्यूट ठोक कर उसने उसे आश्वस्त कर दिया कि उसके होते यहाँ इस सा'ब (बुद्धू) को कोई फिकिर एकदम नको। तहसीलदार को बुद्धू ने कंडेंस्ड मिल्क से बनाई चाय पिलाई और
तहसीलदार उससे कह गया कि वह किसी दिन उसे अपनी जीप दे देगा और वह रायदुर्ग जा कर हिंदी सिनेमा भी देख सकता है।
वहाँ एक थियेटर में हिंदी सिनेमा लगता है। तहसीलदार ने बुद्धू से यह भी कहा कि शाम तक वह किसी भी समय आ कर मजदूरों के रेट ले जाएँ। बुद्धू बेहद प्रसन्न था इस
भले व्यक्ति से मिलकर। तहसीलदार के जाने के थोड़ी ही देर बाद उसने देखा ऑफिस के सामने पोलिस की एक जीप खड़ी है और उसमें से पोलिस की एक तड़कती-भड़कती यूनिफॉर्म में
एक हैंडसम आदमी अंदर इस ऑफिस को ही देखे जा रहा है। बुद्धू ऑफिस के बरामदे में बनी सीढ़ियाँ नीचे उतर कर इस आदमी से मिलने चला आया। बुद्धू समझ गया, यही पोलिस
कमिश्नर है और इतना हैंडसम है जैसे किसी फिल्म में पोलिस कमिश्नर का रोल करने वाला हीरो-वीरो ही शूटिंग वाली पोलिस कमिश्नर की ड्रेस पहनकर आ गया हो। सचमुच बहुत
प्रभावशाली शख्सियत है और उम्र भी कुछ ज्यादा नहीं। इस समय यह भी सुबह की ठंडी हवा खाता तफरीह के लिए निकला होगा सो अकेले ही जीप ड्राइव करता कहीं से आ रहा है।
सामने ही तो कोठी है। उस ने मुस्करा कर बुद्धू से अँग्रेजी में कहा - 'लुकिंग फॉर पेट्रोल?'
'एस सर।' बुद्धू को सब कुछ अपना-अपना सा लग रहा था और उस पोलिस कमिश्नर को भी वह ऊपर ऑफिस के कमरे में ले गया। उसे सारे इंस्ट्रुमेंट दिखाकर जो कुछ तहसीलदार को
बताया वही सब दुहरा कर उसे खूब मजा आया। पोलिस कमिश्नर मुस्कराया, बोला - 'इफ यू हैव ऐनी प्रॉब्लम, प्लीज डू टेल मी (अगर आपको कोई भी समस्या है, प्लीज मुझे जरूर
बताइए)।' बुद्धू को अनायास ही खयाल आया कि अगर मैं इस आदमी को बताऊँ कि आपका ही एक कूबड़ वाला कांस्टेबल यहाँ अनाथालय की लड़कियों को...' पर बुद्धू को लगा कि वह
टूर पर आ कर भी और थोड़े साल नौकरी करके भी काफी समझदार हो चुका है। अगर ऐसी वैसी कोई बात उसने कर दी तो वही खतरनाक सा दिखता कांस्टेबल आ कर किसी दिन उसकी फोटू
उतार देगा!
कमिश्नर चला गया और बुद्धू फिर काम संबंधी पैंफलेट पढ़ने लगा। पेदैय्या से वह बोला
'तुम दाल बनाता है तो उसमें इमली क्यों नहीं डालता?'
'इमली बोले तो?' पेदैय्या कुछ समझा ही नहीं कि इमली क्या बला होती है। पेदैय्या ने अपने साले को आवाज दी - 'आनंद। इक्कड़ रा (यहाँ आओ)।'
आनंद आ गया तो पेदैय्या उससे तेलुगू में पूछने लगा कि इमली क्या होती है। बुद्धू उनकी बात में केवल इमली-इमली शब्द ही समझ पा रहा था। आनंद ने भी बुद्धू से पूछा
- 'इमली बोले तो?'
बुद्धू ने क्या किया कि दोनों को एकदम साथ के कमरे में ले गया जहाँ कोने में एक छोटा सा किचन बना रखा था उसने? बोला - 'देखो, यह समझो दाल है,' एक खाली पतीले की
तरफ इशारा करके उसने कहा।
'हाँ,' आनंद पेदैय्या से बेहतर हिंदी जानता है।
फिर बुद्धू ने कोई अखबार का छोटा सा कागज लेकर उसे पानी में डुबो दिया और अखबार के गीले टुकड़े को खाली पतीले के ऊपर निचोड़ने लगा, फिर बोला - 'यह डालने से दाल
खट्टा होता।' पेदैय्या बात समझते ही कूद सा पड़ा। उत्तेजना में बोला - 'चिंतापोंडा... चिंतापोंडा... चिंतापोंडा...' आनंद भी दौड़ पड़ा और ऑफिस के पीछे को खुलने
वाले दरवाजे से बाहर लपक गया। कुछ ही देर बाद कूदता सा आ गया, जैसे लंगूर-वंगूर हो। पेदैय्या पीछे बहुत खुशी से बोला था - 'आता है सा'ब। आनंद इमली लाता है।'
आनंद लंगूर की तरह लपक कर एक लंबे से पेड़ पर चढ़ गया था और वहाँ से कच्ची इमली के हरे-हरे गुच्छे तोड़ लाया था। आनंद बोला - 'यही ना?'
बुद्धू बोला - 'हाँ हाँ यही, पर दुकान से ऐसा नहीं मिलता।'
पेदैय्या बोला - 'फिकिर नको सा'ब फिकिर नको। दुकान शाम को चलेंगे ना!'
शाम को पेदैय्या के साथ जा कर बुद्धू किचन की बहुत सी काम की चीजें ले आया। बुद्धू थोड़ी-थोड़ी तेलुगू सीख गया था।
पेदैय्या चलते-चलते बुद्धू को गिनती सिखा देता - 'ओकटी, रंडो, मूढु, नालुगु, ऐदु, आरु...।'
बुद्धू को जल्दी याद हो गया था। 'ओकटी' बोले तो एक, 'रंडो' बोले तो दो...' पेदैय्या खुश हो जाता, जैसे पीठ थपथपाना चाहता हो अपने बुद्धू सा'ब की।
दुकान पर एक बार लेकिन पेदैय्या खूब जोर से हँसने लगा। दुकान की औरत भी पेदैय्या के साथ किसी बात पर खूब खिलखिलाई। उस औरत ने बुद्धू को हल्दी का सिर्फ एक इंच का
बहुत छोटा पैकेट दिखाया और बोली - 'मुफ्फई (तीस)।'
बुद्धू बोला - 'नको नको... अरवई अरवर्ई...'
पेदैय्या बुद्धू की तेलुगू सुन छलाँग सी लगाकर हँस पड़ा - 'सा'ब, वो तो तुम को थट्टी (तीस) पैसा में देता न... और तुम बोलता है सिक्सटी!... हा हा...' औरत भी
खिलखिलाई।
बुद्धू बोला - 'तुम काहे कू हँसता। मैं उस कू ट्वेंटी बोला ना...'
पेदैय्या बोला - 'सा'ब, 'ट्वेंटी' बोले तो 'इरवई', 'सिक्सटी' बोले तो 'अरवई! तुम 'सिक्सटी' बोला... हा हा हा...' औरत की भी हँसी रुक नहीं रही थी। बुद्धू समझ गया
कि वह 'इरवई' और 'अरवई' के चक्कर में गड़बड़ा गया है...।
दुकान से लौटते-लौटते दोनों एक बाजार में आ गए। एक जगह एक मजमा सा जमा था। कई लोग एक छोटी भीड़ सी बनाकर किसी काउंटर के गिर्द खड़े थे। काउंटर अर्धगोलाकार सा था
और बुद्धू ने देखा उस अर्धगोलाकार काउंटर पर तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें हैं। पेदैय्या बोला - 'सा'ब, ये बीच वाला वाणिश्री होता, बऊत बड़ा ऐक्ट्रेस। इधर का हेमा मालिनी
होता। ये शोभन बाबू। जैसे धर्मेंदर है न। और ये एन.टी.आर. (एन.टी. रामाराव) सा'ब। दिलीप कुमार भी कुछ नहीं एन.टी.आर. हो तो।'
बुद्धू ने देखा उस भीड़ में सब कोई एक रुपया, दो रुपया या अठन्नी-चवन्नी इन में से किसी एक तस्वीर पर रख देता। काउंटर के उस तरफ जो मालिक था उसके हाथ में एक ताश
थी पर ताश के पत्तों पर इन्हीं तीनों अभिनेताओं की तस्वीरें थीं। जब सारे पैसा लगा लें तो वह आदमी ताश को शफल करता रहता, बहुत बार। तब तक सब साँस रोके खड़े रहते।
आखिर खटाक से वह एक पत्ता काउंटर पर पटक देता। फिर उसे पलटता। जिस एक्टर की तस्वीर उस पत्ते पर होती, उसकी फोटो पर पैसा लगाने वालों की पौं बारह। सबको डबल-डबल
पैसा मिलता। बाकी सबका पैसा डूबा समझो। लोग हँस-हँसकर कहते - 'मेरा पैसा वाणिश्री ले गई... मेरा एन.टी.आर.' यह कस्बा बेहद पिछड़े हुए लोगों का था। पेदैय्या के
साथ घूमते-घूमते अपने ऑफिस के नजदीक ही बुद्धू ने देखा एक टीन के पतरे से बनी छोटी सी पान की दुकान के बाहर एक औरत बैठी रहती जिसे देखकर लगता वह हरदम रोती रहती
है। आँखें हर समय सूजी हुई, लाल सी। पेदैय्या बोला - 'ये औरत गैंबलिंग में जीतकर आया वो आदमी...'
बुद्धू का मुँह फट गया सुनकर। जैसे पेदैय्या को ही झापड़ रसीद कर देगा। पर उसे महाभारत याद हो आई। और अफसोस भी कम नहीं हुआ। पेदैय्या बोला - 'दुकान में पीछे अंदर
को एक आदमी बैठा होता है न। वो...'
'हाँ हाँ,' बुद्धू को याद आया कि औरत के ठीक पीछे नजर दौड़ाओ तो नीचे जाती एक छोटी सी लकड़ी की सीढ़ी नजर आती है। सीढ़ी लगभग उसी लेवल पर खत्म होती है जहाँ बाहर खड़े
ग्राहक के पाँव हों। वह एक कमरा है जिसमें बहुत फीकी रोशनी वाला एक बल्ब जल रहा होता है और जमीन पर एक बहुत थुलथुल से पेट वाला आदमी दरी पर लेटा सुस्ता रहा होता
है। पेदैय्या बोला - 'वो आदमी इसके हस्बैंड से इसको जुआ में जीता सा'ब।'
'तुम को कैसे पता?' बुद्धू विश्वास करना ही नहीं चाहता था। बात उसके गले ही नहीं उतर रही थी। पिछड़ेपन वाले भारत में अभी तक जाने क्या-क्या चल रहा है।
पेदैय्या बोला (जैसे मन ही मन बोल रहा हो, बुद्धू सा'ब) - 'सबको पता है न इधर। मैं इधर घूमता तो हूँ!'
बुद्धू को सदमा सा पहुँचा था, पर शुक्र कि उसे कमिश्नर का ख्याल नहीं आया। वर्ना वह कुछ सोचकर अपने ही ख्याल को दबा देता और उसे तकलीफ होती। बुद्धू को लगता है
कि दुनिया को बस देखते जाओ, कुछ करने के लिए कहीं ऐसा न हो, उसे दूसरा जनम लेना पड़े!
बुद्धू पेदैय्या के साथ तेलुगू सिनेमा देखने चला गया। पेदैय्या बहुत खुश था। अब यह फैसला सा हो गया कि कभी आनंद के साथ, तो कभी पेदैय्या के साथ बुद्धू पिक्चर
देखने जाएगा। बुद्धू हैरान था कि वह तो पाँच रुपये के दो टिकटों का बजट मन में सोच आया था पर यहाँ तो सबसे पिछली रो का टिकट एक रुपया दस पैसे! बुद्धू की हैरानगी
के लिए यहाँ और भी बहुत कुछ था। सिनेमा हॉल टीन के पतरों की छत और दीवारों से बना था। पर्दे की कई जगह सिलाई सी की गई थी जैसे कई बार फटा हो। पर्दे के ठीक सामने
बहुत शोर सा मचाते कई बच्चे बूढ़े अंदर आ कर जमीन पर बैठने लगे। हर कोई जाहिलों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर किसी अपने को बुला रहा था। पेदैय्या बोला - 'सा'ब। वो जो
नीचे बैठने वाली जगा (जगह) है न, उसका टिकट थट्टी फाइव पैसा!'
'हा हा...' बुद्धू को खूब हँसी आ गई, पर फिर उसने खुद को रोक लिया कि यहाँ इतनी कम रकम में मनोरंजन को आने वाले गरीब लोगों की हँसी उड़ाना ठीक नहीं। रात को
पेदैय्या के साथ ऑफिस से निकलकर इस तरफ आते-आते बुद्धू काफी कुछ देखता है। कचहरी वाली टीन की छत वाली बैरक पर चाँदनी सी फैली होती है और उसके साथ की कैंटीन की
छत पर भी। इसके इस तरफ जगमगाती सी पोलिस कमिश्नर की कोठी। सड़क पर चलते-चलते बुद्धू बाईं तरफ देखता तो बहुत खूबसूरत नजारा दीखता उसे। थोड़ी दूर पहाड़ों की एक छोटी
सी पंक्ति होती। बुद्धू के दफ्तर के एकदम पीछे एक बड़ा पहाड़ होता और उसी की हमजोली एक छोटी सी पहाड़ी भी। कभी चाँदनी में लगता जैसे दूल्हा-दुल्हन फेरे लगाने को
आपस में हथियाले से जुड़े हैं और आगे बढ़ रहे हैं। कभी यह कि एक शक्तिशाली से ऊँट के साथ उसकी ऊँटनी भी जा रही है, ऊँट के पीछे-पीछे बँधी सी। पहाड़ों के किनारों पर
चाँदनी की सुनहली सी लकीर बहुत सुंदर लगती बुद्धू को। पर प्रकृति की यह सुंदरता बस, यहीं तक होती। आगे बाजार आने से पहले ही वह अनाथालय आ जाता जिसकी लड़कियाँ उस
समय कहीं गई हुई होतीं। इसके बाद छोटी-छोटी झोपड़ियाँ होती। इतनी छोटी कि अंदर शायद लोग झोंपड़ी के वर्गाकार फर्श पर तिरछे तरीके से सोते, यानी सिर इस दीवार के एक
कोने के नजदीक तो पाँव विरोधी दीवार के दूसरे कोने तक फैले हुए। रात देर से लौटो तो कई बार औरतों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें आ रही होतीं जैसे वे बुरी तरह पिट
रही हैं और कोई उनके बाल खींच रहा है। पेदैय्या बताता - 'आदमी लोग सारा दिन काम करता है और रात को आ कर वाइफ को पीटता सा'ब...'
'क्यों?' बुद्धू फिर बुद्धू सा पूछता। और पेदैय्या ऐसे समझाता जैसे कह रहा हो - 'तुम तो कुछ नहीं समझता सा'ब।' पर कहता - 'औरत देती नहीं, आदमी गुस्से में पीटता,
तभी सोती साली। मार खाती नहीं तो सोती नहीं साली...'
बुद्धू थियेटर में पेदैय्या से बोला - 'पिक्चर का नाम क्या बताया?'
'पिक्चर का नाम 'मैनर बाबू' सा'ब। 'मैनर बाबू' बोले तो जेंटलमैन। शोभन बाबू होता और वाणिश्री। वो देखो।' इस पर आगे की पंक्ति से कोई आदमी तेलुगू में पेदैय्या से
झगड़ पड़ा और पटर-पटर जाने क्या-क्या बोलने लगा? शायद यही कह रहा था - 'चुप करो ना। शोर मत मचाओ। सबको पिक्चर देखने दो।' पर पेदैय्या ने उसे बुरी तरह झाड़ कर मानो
खाल खींच दी उसकी। आगे की पंक्तियों में से दोनों को शांत हो जाने की सलाह मिलने लगी। शांत होने पर पेदैय्या बोला - 'डर नको सा'ब। हम उस को पीट देगा बोला तो। हम
उस को समझाया हमारा सा'ब दिल्ली से आया। तेलुगू आता नहीं। फिर भी आया न शोभन बाबू का फिल्म देखने कू... वो देखो सा'ब, वो लड़की होता, ये लड़का...'
बुद्धू हँस पड़ा। बोला - 'यह तो मैं भी देख रहा हूँ पेदैय्या कि यह लड़का होता वह लड़की होती। मुझे तो सिर्फ भाषा नहीं आती न। जब मैं कोई बात पूछूँ तभी बताना
तुम...'
'अच्चा सा'ब, वो देखो, वोई शोभन बाबू। अबी आगे देखना मज्जा आएगा बऊत।'
फिल्म देखकर लौटते-लौटते रात के साढ़े बारह बज गए। सिनेमा की भीड़ चली गई पर जाने क्यों, जहाँ उस रोती हुई औरत की दुकान है, वहाँ के आस-पास छोटी-मोटी दुकानों पर
बहुत भीड़ सी देख बुद्धू के मन में जिज्ञासा सी हुई। पर पेदैय्या तो कुछ न कुछ समझाने के लिए तैयार रहता। बुद्धू से बोला - 'वो सा'ब, मटके का भीड़ होता।'
'मटका?' बुद्धू तो कुछ समझता ही नहीं। मटका तो पानी-पीने का होता है न। पेदैय्या बोला - 'अभी मटके का रिजल्ट आया समझो।'
'मटके का रिजल्ट?' बुद्धू को हर चीज खोल के समझाओ। इसी में ही तो पेदैय्या को मजा आता है! फिर वह अपने साले आनंद को भी सब बताकर खुश होता रहता है!
पेदैय्या ने सब समझा दिया। यहाँ की सबसे ज्यादा बर्बाद करके रख देने वाली एक लॉटरी है मटका। कुछ दुकानें अधिकृत हैं। लोग चवन्नी-अठन्नी देकर अधिकृत दुकानों से
पर्ची ले लेते हैं। दस से लेकर निन्यानवे तक का कोई भी अंक ले लो। रात दस बजे तक रायदुर्ग से 'ओपन' का आँकड़ा आ जाता है। 'ओपन' का आँकड़ा बोले तो समझो सा'ब तुम
फॉट्टी फाइव का पर्ची लिया तो 'ओपन' का आँकड़ा हो गया 'फाइव' और 'क्लोज' का आँकड़ा कितना होता?'
बुद्धू बोलता - 'फोर'!
रायदुर्ग में इसका कंपनी होता।' पेदैय्या सारी बात समझा देता। 'दस बजे कंपनी 'ओपन' का आँकड़ा अनाउंस करती है। जिस की पर्ची में वही 'ओपन' का आँकड़ा हुआ उसका एक
रुपये का आठ रुपया बन गया समझो। और अभी एक बजे आएगा 'क्लोज' का आँकड़ा। जिसके दोनों मिल गए समझो तुमने फॉट्टी फाइव लिया था और फॉट्टी फाइव ही आया, तो एक रुपये का
बन गया अस्सी रुपया! पर लोग इधर बर्बाद होता सा'ब। इसीलिए भी बीवी लोग को पीटता खूब। जिसका एक बार निकल आया वो सारी जिंदगी पैसा गँवाता है। बीवी का गहना बेचता
है। बस... बीवी रोता बऊत...'
'कोई कुछ कहता नहीं?'
पेदैय्या को लगता बुद्धू तो मिट्टी का माधो है मिट्टी का माधो। बोला - 'एक बार अनंतापुर का कलेक्टर आया था न, बऊत लोग अंदर हो गया। अगले दिन शाम को स...ब बाहर।
ह ह ह!' कहकर पेदैय्या ऐसे नाच-नाच कर और इतराता हुआ हँसने लगा जैसे इन सबको उसी ने छुड़वाया हो उस दिन।
बुद्धू हर हफ्ते तेलुगू फिल्म देखता। उस ने कुछ तेलुगु गीत भी पेदैय्या से लिखवा-लिखवा कर याद कर लिए। जैसे 'मैनर बाबू' का गाना :
कारूना मैनरू/कालमारिंदी मैनरू/मा चेतिकी वच्चावी तालालू/...
मी मिक्की कुच्चैंटे/नी फक्कनिन्ता चोटिस्ते चालंतारू/...
बुद्धू मतलब समझे बिना भी गाता तो आनंद और पेदैय्या खूब खुश होते... सा'ब को तेलुगु फिल्म अच्चा लग गया। हर दो-तीन दिन में जाता...'
पर बुद्धू को यहाँ के थियेटर की 'रिफ्रेशमेंट' यादकर करके भी खूब हँसी आती। पेदैय्या उसे एक दिन इंटरवल में ले गया था। 'सा'ब कुछ खाओ ना...'
'क्या?'
वो... पकोड़ा... दिल्ली में होता ना? अनंतापुर में तो बऊत अच्चा होता। इधर खा लो ठीक ही है।' यहाँ पीने को सोडा की बोतल जिस की गर्दन में गोली फँसी होती है और
अंदर एक अँगुली सी डालकर 'फिस्स्स्स' की आवाज से वह गोली नीचे डूबती चली जाती है। साथ में एक अखबार के फटे टुकड़े पर मिर्ची का पकोड़ा। साथ में चावल से लगते
मुरमुरे। मिर्ची का पकोड़ा तेज-तेज लगता तो पेदैय्या रेस्तराँ वाले को ही झाड़ने लगता। फिर बुद्धू को समझाता - 'हम बोला हमारा सा'ब दिल्ली से आया। सेंट्रल
गवर्मेंट में ऑफिसर होता। पकोड़ा अच्चा लाओ!...'
बुद्धू इंटरवल में ही पूछता - 'ये हीरोइन लोग पति को क्या बोलती फिल्म में? येवंडी। येवंडी। येवंडी बोले तो?...'
'येवंडी बोले तो जैसे आपका वाइफ हिंदी में बोले - मैंने कहा जी...!'
फिर पेदैय्या पूछता - 'सा'ब तुम शादी नहीं किया?'
'नहीं। टाइम लगेगा। करेगा ना...' बुद्धू शरमा सा जाता
'ह्म्म्म,' पेदैय्या सोडा की बोतल लगभग मुँह में उल्टाता तो उसकी आँखों में सारा आसमान चमक जाता। फिर बोतल मुँह से अलग करके बोलता - 'सा'ब दिल्ली में तुमारा बाप
क्या करता?'
बुद्धू गर्म हो गया - 'ऐसा क्यों बोलता तुम? तुमको तमीज नहीं? बाप बोलते कि फादर?'
'बाप बोले तो गाली होता क्या सा'ब?'
बुद्धू प्यार से समझा देता - 'या तो पिताजी बोलो या 'फादर'।'
'अच्चा सा'ब सॉरी। फिर बोलेगा तो पिताजी बोलेगा... या 'फादर' ठीक है?'
एक दिन देखो तो बुद्धू एक जीप में रायदुर्ग जा रहा है। आनंद ज्यादातर ऑफिस सँभालता है जब पेदैय्या सा'ब को घुमाता है। तहसीलदार ने जीप भेज कर मैसेज भिजवाया था
कि जीप आपको रायदुर्ग तक छोड़ देगी। वहाँ आप राजेश खन्ना की फिल्म देखो और रात को किसी बस में चले आओ। जीप को रायदुर्ग से आगे जाना है। जिस दिन तहसीलदार
सुबह-सुबह बुद्धू के ऑफिस आया था बुद्धू उसी दिन दोपहर के लगभग तहसीलदार के ऑफिस गया था, मजदूरों के रेट पता करने। तहसीलदार उस समय गाँव से आए कुछ लोगों का
टैक्स संबंधी मुकदमा सुन रहा था, यानी कोर्ट लगी हुई थी। बुद्धू ज्यों ही दरवाजे पर खड़ा होकर अंदर जाने की इजाजत माँगने लगा तो तहसीलदार ने अँग्रेजी में उसे बता
दिया कि उस समय उसकी कोर्ट लगी हुई है। थोड़ी देर बाद आए। बुद्धू कुछ देर उसी टीन के पतरों वाली कैंटीन में जा बैठा जिसमें पहले दिन खाना खाया था। वहाँ जा कर चाय
माँगी, हालाँकि बुद्धू सामने ही अपने ऑफिस जा सकता था और पेदैय्या या आनंद उसके लिए कंडेंस्ड मिल्क से चाय बना देते। पर बुद्धू ने सोचा यहीं कैंटीन में थोड़ा समय
बिता देता हूँ। वहाँ चाय एक स्टील के छोटे से गिलास में आई जो कि एक स्टील की कटोरी में रखा था। बुद्धू ने गिलास उसकी कमर से पकड़कर उठाने की कोशिश की तो हाथ से
छूटने लगा, बहुत गर्म था। वही छोकरा फिर हँसने लगा। उसने बुद्धू को इशारे से बताया कि गिलास हल्के से यहाँ किनारे से उठाओ और पियो। पर चाय इतनी ज्यादा कड़क थी कि
उसे जैसे-तैसे पी कर बुद्धू कुछ देर बाद फिर तहसीलदार के कोर्ट से थोड़ी दूर आ कर खड़ा हो गया। उसे लगा कि जैसे दिल्ली में हर चीज पर हम नखरे करते हैं, वैसे हम
यहाँ नहीं कर सकते। टूर तो टूर है भाई, जो मिले वही खा पी लेना पड़ेगा। यहाँ के गरीब पिछड़े हुए दीन-हीन से लोगों को जिस स्वाद की चीजें मिलती होंगीं, वैसी ही वे
खा पी कर पेट भर लेते होंगे, बल्कि वही उनके लिए स्वादिष्ट चीजें होती होगीं।
जब तहसीलदार के दफ्तर से कुछ गाँव के लोग बाहर निकले तो बुद्धू उनके दफ्तर के बाहर फिर जा खड़ा हो गया, तब तहसीलदार फ्री था और बुद्धू को देखते ही बोला - 'रंडी
रंडी...'
बुद्धू पहले तो हैरान हो गया पर अचानक उसे याद आया कि बत्रा ने बताया था यहाँ 'रंडी' का मतलब ये मत समझियो कि किसी वैश्या की बात कर रहे हैं। यहाँ 'रंडी' का
मतलब 'आइए आइए'। बुद्धू ने कहा था - 'भाषा में बड़ी रोचक बातें होती हैं। एक भाषा में जो अर्थवान और सामान्य शब्द है, दूसरी भाषा में वही गाली है। जैसे 'रंडी' का
मतलब हिंदी प्रदेशों में वैश्या है, पर पंजाब में रंडी का मतलब जानते हो?'
'मतलब विधवा,' बत्रा झपटती सी आवाज में बोला। उसे तो पहले ही पता था यह।
बुद्धू ने कहा - 'और विधुर को कहते हैं रंडवा!'
बत्रा बोल पड़ा - 'सिंधी भाषा में मीठी रोटी को कहते हैं लोला...'
बुद्धू हँस पड़ा, फिर बत्रा को झाड़ने लगा - 'चुप!'
तहसीलदार के 'रंडी रंडी' कहने पर बुद्धू मुस्कराता हुआ अंदर चला गया तो तहसीलदार ने मुस्करा कर कहा - 'कुचैंडी कुचैंडी (बैठिए बैठिए)!'
बुद्धू बैठ गया। ये कुछ शब्द उसे आने के कुछ दिन बाद पता चले थे। तहसीलदार ने अँग्रेजी में खूब बातें की, हिंदी में भी। बोला - 'आप जब आए तो मैंने आपसे तेलुगू
में कुछ शब्द कहे। बहुत अच्छा लगा कि आप उन थोड़े से शब्दों को समझ लेते हैं।' बुद्धू को फिर पहले की तरह खुशी हुई कि तहसीलदार बहुत अच्छी हिंदी जानता है, जैसे
उत्तरी भारत का ही हो। भाषाएँ लोगों के माध्यम से ही नजदीक आती हैं, बुद्धू को अहसास हुआ। तहसीलदार ने उसके लिए बढ़िया चाय मँगाई और एक प्लेट में मसाला डोसा भी
मँगाया जो तहसीलदार ऑफिस के किचन में ही बनता है... और आज तहसीलदार का ड्राइवर बुद्धू को उसके 'स्किल्ड मजदूर' पेदैय्या के साथ ले जा रहा है रायदुर्ग। जीप
फर्राटे से उड़ती चली जा रही है और बुद्धू से ज्यादा खुश तो पेदैय्या है जो तेलुगू में ड्राइवर से बातें करता फर्राटे से मानो जीप से भी ज्यादा तेजी से उड़ता जा
रहा है। काला सा पेदैय्या ऐसे समय अकड़ता हुआ अपने काले बाल भी तेल-वेल लगाकर बढ़िया सजा लेता है। माँग के बाईं तरफ छोटी पट्टी और दाईं तरफ बड़ी।
'सा'ब, रायदुर्ग बऊत अच्चा शहर। पर उससे भी आगे कभी जाओ तो बेल्लारी...'
रायदुर्ग उतर कर बुद्धू ने ड्राइवर को दस रुपये देने चाहे तो ड्राइवर डर कर पीछे छिटक सा गया - 'नई सा'ब। तहसीलदार सा'ब का ड्राइवर हूँ। आप उनके दोस्त। मेरे लिए
भगवान हैं। मैं आपसे कुछ नहीं लूँगा।' पता चला कि वह तेलुगू तो बहुत अच्छी जानता ही है, पर मुस्लिम है सो खुल कर हिंदी उर्दू भी बोल लेता है। बहरहाल, बुद्धू और
पेदैय्या चल पड़े राजेश खन्ना की फिल्म देखने। थियेटर नजदीक ही था और शाम के शो का समय भी हो रहा था। पेदैय्या लँगड़ाने के बावजूद खूब तेजी से बुद्धू से दो कदम
आगे ही बढ़ रहा था। उसके काले से चेहरे पर तेल लगे काले बाल सचमुच बहुत सजे हुए थे। पेदैय्या ने बुद्धू को बताया कि वह तो ज्यादातर 'फुड कार्पोरेशन' में मजदूरी
करता है। जब वहाँ काम नहीं होता तो कोई भी काम ढूँढ़ लेता है। उसे तो दुनिया का कोई भी काम बता दो, एक्स्पर्ट है एक्स्पर्ट!...
राजेश खन्ना की फिल्म 'इत्तिफाक' लगी थी। बुद्धू ने यह फिल्म दिल्ली में देख रखी थी। पर इतनी दूर आओ तो देखी हुई फिल्म भी दोबारा देखने का अपना लुत्फ है। न
कहानी पर ज्यादा मगजमारी, न किसी प्रकार की थकान। बस शरीर को ढीला करके देखते जाओ। पेदैय्या बोला - 'सा'ब, इधर लोग बोला ये सस्पेंस मूवी है। इसमें मर्डर होता।'
'इसमें एक नहीं, दो मर्डर होता पेदैय्या, देखते जाओ। राजेश खन्ना की बेस्ट फिल्म है। इसकी हीरोइन नंदा है जो मुझे बेहद पसंद है। बहुत प्यारी सी है।'
'पर सा'ब वाणिश्री चंद्रकला से अच्चा कोई नई, आप कुछ भी कह लो। इधर का जमुना भी अच्चा होता सा'ब।'
बुद्धू बोला - 'भारती भी।'
फिल्म देख ली और पेदैय्या ऐसे बैठा रहा जैसे हिंदी फिल्म देखने में भी उसे कोई तकलीफ नहीं। वह तो माहिर है हर चीज में। वह सा'ब को प्रभावित करता हुआ कहता -
'सा'ब, 'फुड कार्पोरेशन' में कब्बी कोई पोलिसवाला भी हमें कुछ कह सकता नहीं। हमको कोई डर नको सा'ब।' सस्पेंस के तनाव भरे क्षणों में भी वह हल्के मन सा बैठा
फिल्म देख रहा था, जैसे उसके लिए सब कुछ मामूली सी बात हो और कि ये सारे मनोरंजन तो उसकी शख्सियत का हिस्सा हैं। बीच-बीच में बोल पड़ता - 'तुम तो दिल्ली में बऊत
फिल्म देखता होगा सा'ब।' बहरहाल, फिल्म देखकर बुद्धू बेहद हल्का सा भी महसूस कर रहा था। यहाँ इतनी दूर उसे सब कुछ अजनबी पर रोचक सा लग रहा था, एक नए माहौल में
नए लोगों के बीच वह एक ताजगी सी महसूस करता रहा। पर अपने घर की अनुभूति, घर की अनुभूति होती है, बुद्धू यह सोचकर जान-बूझ कर थोड़ा और हल्का भी हो गया।
बाहर निकलते ही बुद्धू को फिर अपने 'रिसर्च ऑफिस' का ख्याल आया और उसे लगा कि ऑफिस पहुँच कर फिर से काफी कुछ तकनीकी बातें पढ़नी होगीं। यहाँ ब्लास्ट कभी-कभी
लगातार हफ्ता-हफ्ता चलते हैं तो कभी नौ-नौ दिन कुछ नहीं होता। बुद्धू को इस बीच काम संबंधी कई नई जानकारियाँ पाने का मौका मिल जाता है।
पेदैय्या के साथ बस अड्डे की तरफ बढ़ते-बढ़ते बुद्धू ने देखा दोनों एक ऐसे लंबे-चौड़े मैदान से गुजर रहे हैं जहाँ अँधेरा ही अँधेरा है। अमावस की रात है पर इस मैदान
में बेतरतीब तरीके से कई मोटे टाट से बने फटेहाल छोटे-छोटे तंबू से बने हैं, जिन का टाट बेहद काला सा है। बुद्धू ने देखा किसी-किसी तंबू के बाहर लालटेन जल रही
है और एक औरत का चेहरा लालटेन की मद्धम रोशनी में नजर आता है, जैसे वह बेसब्री से इंतजार कर रही हो, जाने किसका। किसी-किसी तंबू के बाहर कोई लालटेन नहीं है।
बुद्धू ने पेदैय्या से पूछा - 'ये कौन औरतें हैं? कौन सी जगह है यह?'
पेदैय्या बोला - 'इधर आओ सा'ब दिखाता हूँ तुमको।' कहकर पेदैय्या एक तंबू के बाहर रुक गया जहाँ एक लालटेन रखी थी और एक औरत चेहरे पर मुर्दनी सी ओढ़े बैठी थी, जैसे
सदियों से ऐसे ही, मुर्दनी सी ओढ़े बैठी हो। मद्धम रोशनी पड़े चेहरे पर बुद्धू की नजर पड़ी तो बुद्धू को सचमुच तरस आ गया उस औरत पर। इतना बुझा-बुझा चेहरा भी कोई
होता है क्या? पेदैय्या ने तेलुगू में कुछ पूछा उससे। औरत ने तेलुगू में उत्तर दिया।
पेदैय्या ने अगले क्षण बुद्धू को समझा दिया - 'सा'ब, मैं इससे पूछा कितना लेगी? बोलती है कुछ भी दे दो, एक रुपया, दो रुपया। रात का खाना खा लूँगी बस।'
बुद्धू को ऐसी बेबस आकृति पर सचमुच, बेहद तरस आ गया। बुद्धू ने एक रुपये का सिक्का उस औरत की तरफ उछाल दिया तो वह सिक्के को हथेली से कैच करके लालटेन उठाकर
बुद्धू को अंदर ले आने का इशारा करने लगी। पर बुद्धू ने कहा - 'जाने दो। हम दिल्ली से आए हैं, हम जल्दी में हैं। आप बैठो यहीं पर...'
पेदैय्या ने उस औरत से मुस्करा कर कुछ और बातें तेलुगू में की फिर सा'ब के साथ चल पड़ा। रास्ते में बोला - 'सा'ब, हम उस को समझा दिया। हमारा सा'ब दिल्ली से आया।
कोई छोटा-मोटा सा'ब नहीं है। वो एक रुपया, दो रुपया वाली औरत का साथ थोड़ेई सोएगा?'
बुद्धू चुप ही रहा। उसे पेदैय्या पर बहुत गुस्सा भी आ रहा था। बहुत बोलता है। पर अँधेरे को लगभग पार करता पेदैय्या बोला - 'सा'ब, वो देखो। वो मकान। पक्का मकान
है… कितना लाइट है सा'ब! उधर एक रानी रंगम्मा रहता। उसका पास पच्चीस लड़की होता सा'ब। एक से बढ़कर एक... ब्यू...टीफुल। चलो न, बत्रा तो उधर कल्याण दुर्ग में हम से
पूछा था उस दिन। उस मोटे को तो इधर कब्बी नहीं लाऊँगा मैं... स्साला बदमाश...'
बुद्धू बोला - 'अबी चुपचाप कल्याणदुर्ग चलना है समझे? कहीं भी जाना नहीं... समझा तुम?...'
पेदैय्या बोला - 'सा'ब चलो ना। मज्जा आएगा... बऊत ब्यू ...'
बुद्धू अपने आपसे ही बचता हुआ तेज-तेज चलने लगा। पेदैय्या पीछे से चिल्लाया - 'सा'ब रुको। नहीं चलेंगे बस।' फिर चलते-चलते पेदैय्या बोला - 'मैं हो आऊँ सा'ब? मैं
इदर कब्बी-कब्बी आता। रानी रंगम्मा मुझे जानती खूब। मुझसे शिकायत करेगी, इधर आया तो मिल के क्यों नहीं गया तुम? बोलेगी ऐसा।'
बुद्धू को आखिर पेदैय्या ने पटा ही लिया और कुछ ही क्षणों में दोनों उस पीली सी इमारत में घुस गए। बुद्धू को खुद ही समझ नहीं आ रहा था, कि वह आखिर यहाँ, इस
अड्डे पर क्यों आया हुआ है! अंदर बहुत सी लड़कियों का शोर सुनाई दे रहा था। सब तेलुगू में जाने क्या खटर-पटर बोलती जा रही थीं और जब पेदैय्या अंदर गया तो जैसे उन
सबका हीरो आ गया हो, एक-दो तो खुशी से नाचने लगी। पेदैय्या सबको हँसकर बोला - 'सा'ब... दिल्ली दिल्ली...'
रानी रंगम्मा नाम की एक बेहद मोटी सी सेठानी औरत एक बड़े से तख्त पर बैठी थी और उसके गिर्द कई लड़कियाँ थी। एक लड़की उसके पीछे बैठी उसके नीचे तक फैले बालों में
तेल लगा रही थी और दूसरी तेल की कटोरी हाथ में पकड़े उसकी मदद कर रही थी। पेदैय्या ने उस औरत को समझा दिया। बुद्धू से बोला - 'सा'ब, डर नको डर नको। लड़की पसंद करो
बस...'
बुद्धू फँस गया था, जाने अपनी सोच में या कि पेदैय्या की बातों में। रानी रंगम्मा बोली - 'बैठो। इधर बऊत लड़की है मेरे पास।' रानी रंगम्मा ऐसे बैठी थी जैसे यह
इतनी बड़ी उसकी सल्तनत हो। खूब जानकार औरत लगती थी। घाट-घाट का पानी पिए। तभी एक आदमी घुस आया। रानी रंगम्मा बुद्धू से बोली - 'डरो नहीं। वो पोलिस का है। लेकिन
तुमको कुच्च्छ नहीं बोलेगा।' रानी ने ऐसा आश्वस्त किया बुद्धू को कि 'मेरी इस सल्तनत में मेरे होते तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।' फिर भी, अनायास
पोलिस शब्द सुनकर बुद्धू की टाँगों में कंपन सी होने लगी। पेदैय्या ने बात सँभाल ली। पोलिस इंस्पेक्टर से बोला - 'दिल्ली। सेंट्रल गवर्मेंट...' बुद्धू का गला
सूखने लगा। इंस्पेक्टर ने उसी से पूछा - 'क्या नाम है आपका?'
बुद्धू तो सन्न सा रह गया। उसे लगा कल ही अखबार में आ जाएगा कि सेंट्रल गवर्मेंट का एक आदमी यहाँ की मशहूर वैश्या रानी रंगम्मा के अड्डे पर पकड़ा गया। इंस्पेक्टर
ने अचानक मुस्करा कर कहा - 'नाम पूछ रहा हूँ मैं तो! आप इतना घबरा क्यों रहे हैं?'
'मिस्टर सिमर्थ,' पेदैय्या ने इतनी रोबदार कड़क सी आवाज निकाली जैसे पोलिस इंस्पेक्टर को ही एक झापड़ रसीद कर दिया हो उसने, और मिस्टर समर्थ का दबदबा बता दिया हो।
जानता नहीं। सेंट्रल गवर्मेंट...
बुद्धू बोला - 'हमें कुछ ना करना। हम लोग बहुत शरीफ आदमी हैं।'
लड़कियाँ खिलखिला पड़ीं - 'ह ह ह ह ह ह ह ह,' इंस्पेक्टर भी मुस्करा दिया। बुद्धू की पीठ थपथपा दी। इंस्पेक्टर बुद्धू से रानी रंगम्मा के कहने पर सिर्फ दस का एक
नोट लेकर चला गया और उससे बोला - 'कोई परेशानी हो तो मुझे बता देना।' बुद्धू ने बुद्धू की तरह गर्दन हिला दी।
'सा'ब, लड़की पसंद करो ना...'
बुद्धू ने एक चुलबुली सी लड़की की तरफ इशारा कर दिया।
कुछ ही देर बाद बुद्धू और पेदैय्या दो लड़कियों के साथ बाहर निकल पड़े।
अब बुद्धू में थोड़ी हिम्मत आ गई थी और उसे अनायास कई बातें याद आने लगीं। वह इन विषयों पर गीत-गजलें भी खूब सुन पढ़ चुका था। और एक गीत जिसे दिल्ली में उसका
शरारती दोस्त और उसकी पूरी आवारा मंडली खूब गा-गा कर मानो सुनने वालों के कान ही पका देती थी और दुनिया भर की वैश्याओं पर ढेरों आँसू बहा देते थे सब, बहुत याद आ
रहा था।
'औरत ने जनम दिया...'
बुद्धू के इस बुद्धूपने पर ही वह लड़की जो उसने पसंद की थी, अचानक झकझोरती बोली - 'होटल नहीं चलोगे मेरे साथ?'
बुद्धू ने पूछा - 'तुमारा नाम क्या है?'
'शहजान...'
'वाह। तुमारा नाम तो बहुत अच्छा है। तुम शायरी भी जानती हो क्या?'
'शायरी?' फिर वह अचानक नखरे से बोली - 'नहीं,' जैसे कह रही हो 'ऐसे पचड़ों में मैं नहीं पड़ती कभी।' फिर बोली - 'होटल चल रहे हैं न हम?'
'हाँ हाँ, चल रहे हैं। तुम क्या खाओगी?'
'जो भी। मैं इधर इडली सांबर, बड़ा सांबर... ऊथपम... कुछ भी खा लेती हूँ!'
बुद्धू ने देखा जवान लड़की है, जैसे यौवन कुछ ही अर्सा पहले चढ़ा हो। पर बदन सूखा-सूखा सा है, जैसे तेल क्रीम वगैरह कुछ लग ही नहीं पाता इस पर। बुद्धू ने उसे
आश्वस्त किया - 'यहाँ अच्छा होटल है? जो तुम कहोगी खिला देंगे, ठीक है?'
'ठीक। दिल्ली में आपकी बहुत बड़ी कोठी है?'
'न न। अच्छा मकान है। सब कुछ है बस।' बुद्धू ऐसी परिस्थति में घर की याद से ही घबरा गया...
'शादी?'
'शादी बनाएगा ना?' बुद्धू फिर बेहद लजा सा गया
ह ह ह ह...' शहजान के गले से जैसे एक संगीत की स्वरलहरी सी निकली। पर उसके खुरदरे से लगते सूखे बदन से मानो उसकी यह लयात्मक हँसी और चुलबुलापन अंदर कहीं से ताकत
लगाकर बाहर निकल आए थे। शहजान ने साड़ी पहन रखी थी पर उसकी चाल में अजब लापरवाही सी थी। पेदैय्या आगे वाली लड़की के कंधों को बाँहों से घेर जाने क्या का क्या करता
बढ़ता जा रहा था और कुछ ही देर बाद चारों एक टेंपो में बैठे थे। टेंपो में कई और सवारियाँ भी थी पर शहजान ने बुद्धू को कसकर पकड़ रखा था जैसे सहारा दे रही हो, या
सहारा ले रही हो। जाने क्या था? पर ऐसे, जैसे वह तो इस शरीफ आदमी के लिए अपनी जान तक दे देगी जान।
एक जगमगाते होटल में चारों ने खूब खाया पिया। वहाँ से जब टेंपो में लौटे तो ज्यादा भीड़ नहीं थी। आ कर उसी थियेटर के बाहर उतरे और वहाँ से पैदल चलते-चलते उसी
मैदान की तरफ आए जहाँ वे लालटेन वाली औरतें बैठी थीं। बुद्धू हिसाब लगाने लगा कि लालटेनें पहले जितनी थी, लगभग उतनी ही अब भी बाहर हैं। पर फिर उसने सोचा कुछ
निपट कर फिर बाहर आ बैठी होगी तो कुछ अंदर जा चुकी होगी। एकदम वही के वही तंबू लालटेन लिए नहीं हैं जो कि पहले थे। थोड़ा फेरबदल तो हुआ होगा। रानी रंगम्मा वाली
बिल्डिंग में जाने की बजाए बुद्धू को शहजान एक और अच्छी सी इमारत की तरफ ले गई। बोली - 'उधर जगह नहीं। लड़कियाँ ज्यादा हैं। अभी बहुत लोग आ गए होंगे। पर आप
दिल्ली से आया ना, इसलिए हम बहुत अच्छे फ्लैट में आपको ले चलेंगे। यहाँ रात-रात भर के लिए फ्लैट लेने का कुछ हिसाब कर रखा है हम लोगों ने, फ्लैट के मालिकों के
साथ...'
पेदैय्या अपने वाली लड़की को लेकर उसी स्क्वायर में एक ग्राउंड फ्लोर वाले फ्लैट में घुस गया। बुद्धू को नजदीक आ कर समझा गया - 'सा'ब। डर नको। समझो पेदैय्या का
जान तुम्हारा वास्ते हाजिर है सा'ब... जाओ, मज्जा करो बस...' पेदैय्या ऐसे बोलता है जैसे बुद्धू का अभिभावक हो वह।
एक बिल्डिंग में सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते शहजान ने अँधेरे में सहारे के लिए बुद्धू का हाथ पकड़ लिया। बोली - 'मैं हूँ आपके साथ। आप क्यों घबराते हो? दिल्ली में कहीं
जाते नहीं क्या?'
'नहीं। पहली बार।' बुद्धू बोला तो शहजान फिर संगीतात्मक लय में हँस पड़ी और कान में फुसफुसा कर बोली - 'तुम बहुत अच्छे हो, पेदैय्या बोल रहा था। मैं तो यहाँ सब
की रातें रंगीन करती रहती हूँ, पर जो मजा तुम्हारे साथ आएगा... वो...' कहकर फिर हँस पड़ी। तब तक सीढ़ियाँ खत्म हो गईं और फ्लैट का दरवाजा आ गया। शहजान ने एक फ्लैट
का ताला खोल दिया, चाबी उसके पास पहले ही थी। अंदर जा कर शहजान बोली - 'सचमुच, बत्ती जलाऊ? अँधेरे में घबराते हो क्या? ह ह ह ह...' बुद्धू ने दीवार में टटोलते
हुए अँगुली से दो-तीन बटन दबा दिए पर बत्ती जली नहीं। तब तक शहजान ने थोड़ी दूर एक मोमबत्ती जला ली और कमरे के दूसरे दरवाजे से गायब हो गई। वह पीछे कहीं कुछ
तारें-वारें ठीक कर आई और कमरे में कोई बटन दबा दिया। बुद्धू जहाँ खड़ा था, अचानक तेज-तेज रोशनी सी जल उठी। शहजान खिलखिलाती आ गई। वहीं कोने में लपेटा हुआ एक
मैला सा बिस्तर पड़ा था और शहजान ने फटाफट उसे बिछा दिया। फिर खिलखिलाती हुई उस पर लेट गई जैसे नाचना चाहती हो अब। बोली - 'आओ ना जल्दी। ऊपर आओ ना...'
बुद्धू के लिए ये क्षण बड़े नाजुक से थे। हैदराबाद में भी उसे बहुत अच्छा नहीं लगा था। वह ऑटो वाला उसे जिन लड़कियों के पास ले गया था वे सब फटेहाल गरीब सी
लड़कियाँ थीं और बुद्धू को यह अंदाजा लगाते देर नहीं लगी कि ये बेबस लड़कियाँ तो दो वक्त की रोटी ही जुटा पाती होगीं और इसके लिए वे बे-इंतहा मार भी खाती होगीं।
अभागी लड़कियाँ। वहाँ वह एक लड़की की हथेली पर बीस रुपये रखकर यह कहकर भाग आया कि मुझे तो अभी-अभी ट्रेन पकड़नी है, और खिसक आया। वह झट ही हैदराबाद स्टेशन आ गया था
पर उसे मन ही मन अच्छा नहीं लगा था कि वह ऐसी, धंधे वाली जगहों पर आए, उसे तो बहुत बेवकूफी भरा ख्याल भी आया कि ऐसी तमाम लड़कियाँ इकट्ठा करके उन्हें मुफ्त में
खिलाना चाहिए और उन्हें कोई अच्छा सा काम दे देना चाहिए या उन्हें पढ़ाना चाहिए। बेवकूफी भरा इसलिए कि इस पूरी दुनिया में जाने कितने समाज सुधारक हुए, जाने कितनी
संस्थाएँ खुली पर इन लड़कियों की जिंदगी तो जस की तस रही न... बुद्धू को नीचे बिस्तर में घसीट लिया शहजान ने और अपने साथ चिपटा लिया - 'बात नहीं करोगे मुझसे?
नाराज हो?'
'नहीं। तुम बहुत अच्छी हो।' ज्यों ही बुद्धू ने कहा 'तुम बहुत अच्छी हो,' शहजान को जाने क्या हुआ कि वह उससे कसकर लिपट गई, जैसे अब उसे कहीं जाने ही नहीं देगी।
उसे अच्छा कहने वाला यह कोई फरिश्ता सा आसमान से आया है। पर बुद्धू बोला - 'तुम यहाँ कैसे पहुँची? पहले क्या करती थी?'
यह सुनकर शहजान ने अपने सिर के नीचे से तकिया उठा लिया और उसे दीवार से टिकाकर बुद्धू से अलग-थलग सी बैठ गई। बोली - 'मैं तो गुंटकल में एक बहुत अच्छे घर की लड़की
थी। मेरी चार बहनें और थीं। मेरा बाप बी.डी.ओ. था। बहुत अच्छी कोठी थी हमारी। और एक दिन... और शहजान बहुत गंभीर सी हो गई। फिर बोली - 'क्या करोगे? क्या मेरे जले
पर नमक लाए हो छिड़कने के लिए? बात तो इतनी सी है न, मेरे पिता तो बहुत पैसे वाले थे। पूरे गुंटकल में करीमुद्दीन बी.डी.ओ. एक मशहूर शख्सियत थी। बहुत भले आदमी
हैं वो। मैं तो बढ़िया यूनिफॉर्म पहने स्कर्ट ब्लाउज में स्कूल जाती थी और सिर्फ नौवीं क्लास में ही तो पढ़ती थी। मुझे तो जीप छोड़ने जाती थी और जीप लेने आती थी।
स्कूल की सबसे खूबसूरत लड़की, बी.डी.ओ. करीमुद्दीन की तीसरी बेटी मेहरू... मेहरून्निसा... मैं... एक दिन जीप नहीं आई क्योंकि सुबह से ही खराब थी। सुबह मैं स्कूल
पैदल-पैदल ही गई थी। स्कूल जाते-आते एक सुनसान सा मैदान आता। दोपहर उसी सुनसान से लौट रही थी जो मेरी जिंदगी का ही सुनसान बनकर उस दिन आया था मानो। थोड़े से खेत
भी आ जाते थे बीच में। उस दिन देखूँ तो थोड़ी दूर एक जीप खड़ी है जिसे दो जने धक्का दे रहे हैं। मैं वहाँ से गुजरी तो एक पहलवान सा आदमी थोड़ी दूर से मुझे बुलाने
लगा। मैं समझी नहीं थी पर चली गई क्योंकि सोचा पेट्रोल पंप वगैरह ना पूछ रहे हो वे लोग। जब तक उसके पास पहुँचूँ तब तक मेरी जिंदगी बर्बाद हो चुकी थी। करीमुद्दीन
की बेटी की जिंदगी पर घात लगाए बैठा एक घना काला बादल खूँखार रूप धारण करके छा चुका था। दो और पहलवान भी थे, जिन्होंने पीछे से मुझे घेर लिया और जो पहलवान मुझे
बुला रहा था, वह बोला - बस, ले चलो इसे। जीप को धक्का देना तो बहाना था। कुल पाँच बदमाश थे और मुझे यहाँ ले आए...'
शहजान के चेहरे को बुद्धू ने देखा। वह तो सब कुछ ऐसे समझा गई जैसे बहुत समझदार हो चुकी हो अब, और यह सब तो होता ही रहता है जिंदगी में। बोली - 'पर यहाँ मुझे
क्या कमी है? सब है ना? बताओ... तुम जो हो...'
कहकर शहजान जाने कैसी असुरक्षित सी भावना से फिर तकिया अपनी जगह रखकर बुद्धू के पास आ लेटी और बतियाने लगी। बोली - 'ये सब बातें जाने दो। ये मेरी जिंदगी की
बातें हैं। तुम्हें इन से क्या लेना? हम्म्म्म!' वह बुद्धू से फिर अपनेपन से लिपटने सी लगी...
बुद्धू बोला - 'तुम क्या बनना चाहती थी?'
'डॉक्टर,' शहजान ने कहा तो बुद्धू को जैसे रोना सा आ गया। वह सिर्फ कल्पना में देखने लगा एक स्कर्ट ब्लाउज की यूनिफॉर्म पहने खूबसूरत लड़की देखते-देखते बड़ी हो गई
और यूनिफॉर्म की जगह उसके बदन पर डॉक्टर का सफेद कोट है, हाथ में स्टेथोस्कोप! पर वह गुमसुम सा शहजान से बातें करता रहा और उसकी बातें सुनता रहा, जैसे थोड़ी ही
देर में दोनों में दोस्ती हो गई हो। बुद्धू एक कल्पना करने लगा, जो उसे विचित्र सी लगी कि अगर इस शहजान के पास बुर्का हो तो मैं इसे बुर्का पहना कर रातों-रात
यहाँ से भगा ले जाऊँ और सुबह-सुबह गुंटकल में जा कर इसके बाप को चकित कर दूँ। उससे कहूँ - 'ये लो, तुम्हारी बेटी... मैं इसे छुड़ा लाया... बहुत रोई होंगीं इसकी
चारों बहनें... इसकी माँ...' बी.डी.ओ. करीमुद्दीन का तो मुँह फटा का फटा रह जाएगा...! पर बुद्धू को अब शहजान जाने कहाँ से पुकार रही थी - 'ए दिल्ली वाले सा'ब।
कुछ करोगे नहीं क्या? उधर पचास रुपया दिया, कुछ मजा नहीं लोगे क्या? आओ आओ...!'
शहजान जाने कहाँ से बोल रही थी। बुद्धू ने इधर-उधर देखा तो शहजान उसके पाँवों वाली जगह से थोड़ी दूर खड़ी मुस्कराती हुई उसे ही पुकार रही थी। बुद्धू ने क्या किया
कि बिस्तर पर उल्टा लेट गया। अपना चेहरा अपनी हथेलियों में कसकर पकड़ लिया। आँखें मूँद ली, पर शहजान तो उसे बुलाए जा रही थी - 'देखो ना। पीछे मुड़कर तो देखो
सा'ब... सब उतार रही हूँ मैं।' और शहजान एक-एक करके कपड़े उस दीवार की तरफ फेंकने लगी जिस तरफ बुद्धू का कसकर बंद किया हुआ चेहरा था। बुद्धू को कुछ-कुछ नजर आ रहा
था। शहजान की साड़ी आ कर उसकी पीठ को ढकती उसके सिर को लपेटती फैल गई। बुद्धू जैसे उस पारदर्शी सी लगती साड़ी के निचली तरफ उल्टा लेटा था, चेहरा बंद किए। और शहजान
खिलखिला रही थी - 'ह ह ह ह ... देखो ना... मैं एकदम निर्वस्त्र हूँ...' थोड़े अंतराल के बाद 'ए सा'ब तुम नपुंसक हो क्या?'
बुद्धू कल्पना में देखने लगा, पीछे शहजान निपट निर्वस्त्र खड़ी है क्योंकि आँखें हथेलियों के नीचे से ही कुछ हिला-डुला कर बुद्धू ने देखा सब कुछ तो शहजान ने उतार
फेंका है। बुद्धू ने फिर कसकर अपनी आँखें बंद कर ली। जैसे कसम खा रहा हो - 'नहीं नहीं... मैं ये सब नहीं कर सकता। ऐसी लड़कियों की जिंदगी में कितना तो दर्द...'
बुद्धू ऐसी बातों में गुम था और शहजान खिलखिलाती हुई उसे आह्वान दिए जा रही थी। फिर सहसा चुप सी हो गई और बुद्धू को जाने क्या हुआ? वह कल्पना में कुछ देखकर
अचानक खड़ा हो गया। उससे सचमुच अब नियंत्रण नहीं हो पा रहा था और लगा था कि वह भी इनसान है, एक पुरुष। आखिर वह उठा और सहसा शहजान के सामने खड़ा हो गया। शहजान निपट
निर्वस्त्र थी उसके सामने और देखते ही देखते बुद्धू के कपड़े भी मशीन की तरह, शहजान के कपड़ों के ऊपर गिरते जा रहे थे। दोनों शरीर एकाकार से उस तेज रोशनी में
लिपटे खड़े थे और शहजान ने थोड़ा पीछे हट कर चुपके से दीवार का बटन क्लिक कर दिया। अँधेरा हो गया। बुद्धू को इस तरीके से पगलाते हुए लिपटते देख शहजान भी कुछ क्षण
शांत सी हो गई और दोनों उस अँधेरे में खड़े-खड़े गुम से हो गए थे। शहजान जैसे अँधेरे में लिखी हुई एक गजल सी थी जिसे मानो बुद्धू ने ही तो लिखा था। कुछ ही देर बाद
ये दो जिस्म बिस्तर पर थे। शहजान अब हँसने लगी, बोली - 'कुछ करके जाओ ना दिल्ली। शहजान को याद करोगे। बार-बार याद आऊँगी मैं तो...' एक गुरूर सा जाने कहाँ से आ
गया शाहजान के जिस्मो-जान में और उसके स्पर्श में। बुद्धू खूब कोशिश में था कुछ करे। पर हाय अफसोस, बुद्धू से कुछ न हो सका। सब कुछ कुंद सा हो गया था। अँधेरे
में उसके कुंद, नपुंसक से हो चुके शरीर के नीचे शहजान छटपटाते-छटपटाते निस्पंद सी हो गई और क्षण-भर में स्थिति यह थी जैसे दोनों जीवित हों ही नहीं...