7.
सबसे पहले दिन उसे खूब मजा आया। उसने अमृतसर एक्सप्रेस पकड़ी और गाड़ी के चलते ही डिब्बे में एक आदमी एक टोकरा लेकर सस्ते और चीकू जितने छोटे से आकार के सेब बेचने
लगा - 'हाँ जी एक रुपये के दो ले लो...' हाथ में पकड़े दो सेब लेकर वह आवाजें देता रहा पर लेने के लिए कोई हिला डुला ही नहीं तो बोला - 'लो जी एक रुपये के तीन ले
लो... नहीं तो मैं चार करने वाला हूँ...' सब हँसने लगे। आखिर जब उसने आवाज दी - 'एक रुपये के पाँच ले लो... एक रुपये के पाँच...' तब देखते-देखते पूरा टोकरा
मिनटों में खाली हो गया और सेब बेचने वाला आगे सब्जी मंडी स्टेशन पर उतर भी गया। बुद्धू ने भी पाँच सेब ले लिए और उन में से तीन सूटकेस में रखकर बाकी दो को हाथ
में पकड़कर एक-एक करके दाँतों के बीच कुतरने लगा...।
अभी गाड़ी सब्जी मंडी स्टेशन से चली ही कि एक और चढ़ आया और बड़े प्यार से आवाजें देने लगा - 'हाँ जी मस्तराम के छोले खा लो... शर्तिया लड़का पैदा होगा...' उसके हाथ
में एक बाल्टी थी जिसमें छोले थे और एक-एक अखबार के टुकड़े पर सबको एक-एक रुपये के छोले का पत्ता बनाकर नीबू-शीबू डालकर देने लगा। बुद्धू को बेसाख्ता हँसी आ गई -
'भला छोले खाने से लड़का पैदा होने का क्या वास्ता! और फिर लड़की हो गई तो कौन सी आफत आ गई भाई!...'
बुद्धू ने पहले दिन ही खूब तमाशे देख लिए। बादली स्टेशन पर गाड़ी काफी देर अकारण ही रुकी रही। मस्तराम छोले बेचकर उतर भी गया तो बहुत से फौजी चढ़ आए। पर उन से आगे
एक मोटी और जवान सी औरत थी जो भिखारिन थी और जिसने बड़े अजीब ढंग से अपने मैले-कुचैले प्रिंटेड से पाजामे पर एक बड़ा सा बिना बटनों वाला फौजी जैकेट पहन रखा था।
नाक में नथ वाले सूराख से निकलकर एक कंगननुमा छल्ला सा दिख रहा था सबको, जिसने उसकी नाक को खासा घेर रखा था। उसका गुलाबी प्रिंटेड पाजामा लगभग जीन्स सा लग रहा
था और ऐसा लग रहा था जैसे किसी रईस फौजी अफसर की फैशनेबल बीवी ने उसे यूँ ही दे दिया हो। जैकेट के अंदर कुछ था ही नहीं। जैकेट हालाँकि खूब बड़ा था पर वह भी बीच
में दो जगह से फटा हुआ था, दो बड़े-बड़े और टेढ़े-मेढ़े गोले से बन गए थे और वह भिखारिन अपने हाथों से बार-बार जैकेट को एडजस्ट करती बड़े जतन से छुपाई अपनी नग्नता को
ढक रही थी। वह गाड़ी के चलते ही एक गीत गाने लगी :
'इनसान जानकर भी, इतना समझ न पाया
ये है मकाँ पराया, ये है मकाँ पराया...
जाएगा जब जहाँ से, कुछ भी ना पास होगा
दो गज कफन का टुकड़ा, तेरा लिबास होगा...'
इधर-उधर बहुत भीड़ भी आ गई थी और भिखारिन फौजियों के बीच घिरी हुई बीच-बीच में फटे जैकेट से हाथ मुक्त करके लोगों की भीख भी स्वीकार करती जा रही थी। बाहर दरवाजे
की भीड़ जब अंदर ज्यादा दबाव देने लगी तो एक फौजी ने अपना हाथ लंबा खींचकर भिखारिन तक पहुँचाया और उसका हाथ पकड़कर सहारा देने के अंदाज में भीड़ से अलग करके उसे
अपने पास खड़ाकर दिया, बोला - 'तू यहाँ मेरे पास खड़ी हो के गा अब...' फौजियों का एक कहकहा सा गूँजा।
भिखारिन उसी गीत को आगे बढ़ाने लगी और गीत पूरा हो गया तो उसी फौजी ने उसे हाथ से खींचकर एक और फौजी के पास खड़ाकर दिया, बोला - 'अब तू इसके पास खड़ी हो के गा।'
वहाँ खड़ी होकर वह मोटी सी भिखारिन कोई ना कोई और गीत शुरूकर देती। उसे इस बात का बखूबी एहसास था कि उसके पीछे खड़े फौजी झाँक-झाँक कर उसके कंधों के ऊपर से अपनी
ललचाई नजरें फिसला कर उसके जैकेट के अंदर कहीं पहुँचा रहे थे। जो फौजी उसके दाएँ-बाएँ खड़े थे वे रह रहकर लोगों द्वारा दी हुई चवन्नी-अठन्नी लेकर उसकी तरफ बढ़ा
देते तो वह हाथ बाहर खींच लेती और उन सब की घिनौनी नजरें जैकेट की फटन के भीतर फिसलती हुई सहसा आपस में इशारेबाजी जैसी घटिया-सटिया हरकतों पर उतर आती।
भिखारिन के लिए रोज की बात है, पर वह तो भिखारिन है ना। उसके लिए इज्जत का मतलब क्या है भाई? सो वह रोज चंद सिक्के कमाकर नरेला स्टेशन पर उतर जाती है जहाँ कई
फौजी भी उतर जाते हैं, कई अंदर रह जाते हैं। यहाँ इनके उतरते-उतरते आज एक छोटी सी वारदात भी हो गई। फौजी और भिखारिन उतर रहे थे और कुछ लोग उसी दरवाजे से अंदर
चढ़ने का जोर लगा रहे थे। भिखारिन के जैकेट का एक कोना इस गुत्थम-गुत्थ में सहसा उसके बदन से दूर हो गया तो एक चढ़ती सवारी ने जैकेट का कोना पकड़कर उसकी तरफ बढ़ाते
हुए कहा - 'ये तो सँभालती जा अपना...' पर वह ज्यों ही ऐसा कहकर मुस्करा दिया तो अंदर बचे फौजियों में से एक ने उसे अंदर खींचकर पीठ पर फचाक-फचाक, दो-चार तगड़े
हाथ जमा दिए, इतनी जोर से कि उसकी आवाज डिब्बे के दूसरे छोर तक पहुँच गई। लोगों में थोड़ी घबराहट सी भी आ गई। उतरने वाले आखिर उतर गए और चढ़ने वाले जैसे-तैसे चढ़
गए। उतर कर फौजी उस मजबूर औरत को फिर अपने घेरे के भीतर ले लेते हैं। फिर चलते हुए अचानक सहारे के अंदाज में उसके कंधों को बाँहों से घेर कर हँसते खिलखिलाते आगे
बढ़ जाते हैं।
नरेला स्टेशन पर ही दूसरे दरवाजे से एक नीलामी की चीजों वाला भी चढ़ आया। डिब्बे में घुटन के बावजूद सब मुसाफिरों ने खड़े या बैठे अपनी-अपनी पोजीशनें एडजस्ट भी कर
ली और गाड़ी चल पड़ी। केवल थोड़ी सी धक्कम-धुक्की में अचानक क्या हुआ कि एक वृद्ध व्यक्ति इधर वाली खिड़की से धक्का सा खाकर अजीब तरीके से लड़खड़ाता हुआ ऐसे गिरता
पड़ता लुढ़कने सा लगा कि बुद्धू के लगभग ऊपर ही आ गिरा। पर बुद्धू ने उसे सँभाल लिया। उठ खड़ा हुआ और वृद्ध को अपनी जगह बिठा दिया। पर अगले क्षण एक कॉलेजी लड़के ने
खड़े होकर बुद्धू को बिठा दिया। वह लड़का जा कर खिड़की के पास की दो कुर्सीनुमा, आमने-सामने वाली सीटों में से एक पर बैठे अपने एक-दोस्त की गोद में बैठ गया।
बुद्धू जहाँ बैठा था, वहीं वह नीलामी वाला भी आ गया। उसने एक कैंची सी आगे की और आवाजें देने लगा - 'इस कैंची की बोली एक रुपये से शुरू होगी, पर इसकी कीमत और
ज्यादा है। जो भी भाई-बहन बोली लगाए, वह अपने हाथ में पैसे जरूर दिखाए। ये लो...' कहकर उसने एक आदमी की तरफ, जिसने तुरंत ही आनन-फानन में डेढ़ रुपये की बोली उछाल
दी थी, एक पेंसिल बढ़ाई और बोला - 'कैंची की असली कीमत तक बोली ना पहुँची तो कैंची नहीं बिकेगी, पर पेंसिल आपकी।' बुद्धू ने देखा लोगों ने बोलियाँ लगाईं - 'पौने
दो रुपये... दो रुपये... हाँ जी बहनजी बोली है ढाई रुपये...' पर बोली ढाई रुपये से आगे नहीं बढ़ी तो नीलामी की कैंची दुकानदार के थैले में वापस पहुँच गई और सबको
एक-एक पेंसिल मिल गई। फिर उसने एक बड़ा सा ताला निकाला - 'हाँजी कम से कम दो रुपये से बोली चलेगी... पैसे दिखाकर बोली लगाना कहीं बाद में कहो जी हम तो ऐसे ही
बोले थे। पैसे तो हैं नहीं...' पर उस ताले की भी सबको पेंसिल ही मिली क्योंकि ताले की कीमत तो सिर्फ तीन रुपये तक उछली, जबकि बुद्धू ने अंदाजा लगाया कि ताला कम
से कम पाँच रुपये का तो जरूर होगा। पर उसे हैरानी हुई कि बोली लगाने वालों को एक-एक पेंसिल फिर मुफ्त में मिल गई। सो बुद्धू भी आ गया चपेट में। अगली चीज के लिए
बोली लगाने के लिए मुस्तैदी से बैठ गया। अब की बार नीलामी वाले ने एक कपड़े का टुकड़ा निकाला जिस से बुद्धू ने अंदाजा लगाया कि एक शर्ट तो अच्छी बन ही जाएगी।
हालाँकि उसे कपड़े की क्वालिटी का कोई भरोसा नहीं लगा। जब भी वह दिल्ली से बाहर जाता है तब उसकी माँ तो उसके लिए दो अच्छी-अच्छी पैंटें और दो शर्ट पीस बनवाकर ही
उसे जाने देती है। पर बुद्धू ने सोचा बोली तो लगा लूँ, कोई लूँगा थोड़ेई। बोली चल पड़ी और बुद्धू फँस गया। छ रुपये तक बोली पहुँच गई और बुद्धू सीधे ही बोला - 'सात
रुपये!'
'हाँजी सात रुपये एक... सात रुपये दो... सात रुपये तीन...' और बुद्धू को वह घटिया सा कपड़ा लेना पड़ा। साथ में एक पेंसिल भी मिल गई। बुद्धू अपने ही बुद्धूपने पर
मुस्कराया। उसे पता है कि अभी वह खरीदारी करने लायक हुआ ही नहीं है। यह काम तो उसकी बड़ी सिस्टर बहुत अच्छा कर लेती है या उसकी माँ। पर बुद्धू तो बुद्धू है न।
उसने कपड़ा तह करके अपनी गोद में रख लिया और सोनीपत के आने का इंतजार करने लगा। उसकी पेंसिल उसके हाथ की अँगुलियों में ऐसे फँसी रही जैसे वह अब इस पेंसिल से सारी
दुनिया की तस्वीर खींच लेगा, हालाँकि ड्राइंग में तो वह बेहद कमजोर सा था... जब वह स्कूल में एक सुराही की ड्राइंग बनाने की कोशिश करता तो बड़े जतन से एक तरफ का
आधा गोला तो बढ़िया बन जाता, पर दूसरा इधर वाली की तुलना में बेहद भोंडा सा बनता। तब उसकी भोंडी सी सुराही देख ड्राइंग मास्टर उसकी पीठ पर धौल सी जमाता - 'यह
क्या बैंगन सा बना दिया!'... पूरी क्लास कहकहे लगाती तब... गाड़ी राठधना पहुँची तो आज का आखिरी दृश्य अभी बाकी था। एक गूंगी सी दिखती लड़की चढ़ी जिसका चेहरा चेचक
के दागों से भरा था। वह किसी से कुछ कह नहीं रही थी, वरन चलते हुए किसी न किसी पैसेंजेर की गोद में एक इश्तिहारी कागज सा रख देती। उस इश्तिहार में सिर्फ यही
लिखा था कि 'इस लड़की के माँ-बाप अंधे हैं और एक भाई की एक एक्सिडेंट में टाँग कट गई है, वह सिविल हस्पताल में है। आपसे जो भी बने, चार आना, आठ आना, एक रुपया, दो
रुपया, इस लड़की को मदद के रूप में दे दो।' पूरे डिब्बे का चक्कर लगाकर वह लौटी और जहाँ-जहाँ कागज रखा था उसे उठाकर इधर-इधर हाथ फैलाती या फिर अपने माथे पर हाथ
रखकर अपनी तकदीर का वास्ता देती। पता सबको था कि ये सब गरीबों के स्टंट भी हो सकते हैं। गरीब को भूख सताती है तो वह कई किस्म के नाटक भी कर लेता है। शुक्र कि
इनमें से किसी लड़की के डाकू बन जाने के आसार नहीं हैं। बस दयालू लोगों से दस-बीस पैसे टीप कर अपनी किस्मत आजमा कर चली जाती होगीं।
वे हर गाड़ी से बमुश्किल दो-तीन रुपये ही बटोर पाती होगीं, बुद्धू ने सोचा। आखिर राठधना से अगला स्टेशन सोनीपत ही था, पर बुद्धू को दरवाजे तक पहुँचने का रास्ता
ही नहीं मिल रहा था। किसी ने कहा - 'गाड़ी सिर्फ तीन मिनट ही रुकेगी यहाँ, सो आप खिड़की से बाहर हो जाओ।' पर बुद्धू को यह सुनकर ही घबराहट सी होने लगी कि उस जैसे
थॉरो जेंटलमैन भी क्या अब ऐसे, खिड़की से कूद कर प्लेटफार्म पर छलाँग लगाएँगे उतरने के लिए! पर उसे लगा कि अब इन गाड़ियों में आना-जाना तो रोज का लगा रहेगा, सो यह
सब भी उसे सीखना ही पड़ेगा। उसने कोशिश की, कि एक पाँव खिड़की से बाहर निकाले। उसने हाथ का कपड़ा और पेंसिल साधिकार एक सवारी की गोद में रख दिए। बुद्धू एक पाँव
बाहर करके झिझक सा गया और पाँव वापस अंदर कर दिया। उसे निकलने का सही तरीका ही नहीं समझ आ रहा था। पर खिड़की की सीट पर जो लड़का दूसरे की गोद में बैठा था वह और
जिस की गोद में वह बैठा था वह भी उठ गया और खिड़की वाली दूसरी सीट वाला लड़का भी उठ गया, और बुद्धू उसी सीट पर पाँव रखकर खड़ा हो गया तो आगे उसे सूझ ही नहीं रहा था
कि क्या करे?
आखिर एक तगड़ा सा जाट लड़का किसी और सीट से उठकर चला आया। उसने क्या किया कि सीट पर खड़े बुद्धू को नीचे खड़ा करके उसकी कमर के गिर्द बाँहों का मजबूत घेरा बनाया और
उसे ऊपर उठा लिया? फिर एक-दूसरे लड़के ने उसके दोनों पाँव पकड़कर खिड़की से बाहर कर दिए। बुद्धू की टाँगें बाहर तक फिसलती चली गई और बुद्धू के हिप्स खिड़की के
किनारे पर! फिर तीसरे लड़के ने उसके कंधे दबा कर और गर्दन को पीछे से दबोच कर कंधे और गर्दन भी बाहर कर दिए। बुद्धू लगभग खिड़की पर बाहर की तरफ बैठ सा गया था,
गर्दन कंधे और दोनों टाँगें बाहर। उसे अपने सूटकेस की भी चिंता हुई और यह भी कि अचानक गाड़ी चल पड़ी तो वह आज बैकुंठ पहुँचा ही समझो। इस बीच कुछ और सवारियाँ तो
काफी अभ्यास होने के कारण इधर-उधर की खिड़कियों से नीचे टाप भी गई। पर पीछे उस होशियार से लड़के ने बुद्धू को ऐसा प्यारा सा धक्का दिया कि बुद्धू फचाक से नीचे
प्लेटफार्म पर पहुँच गया। पर उसका सूटकेस बाहर करने में उन लड़कों खासी तकलीफ महसूस होने लगी थी। सो अब क्या करते? उस लंबे तगड़े जाट लड़के ने बड़ा हल्ला मचाया और
उसका सूटकेस जमीन पर धकेलता लोगों को चिल्ला-चिल्लाकर हटाता आखिर दरवाजे तक पहुँच गया। एक लड़की तो बैठी हुई सवारियों पर पीठ के बल धमाक से गिरी और लगभग सब की
गोद में लेट ही गई। उसे विरोधी सीट पर बैठे लोगों ने सीधा खड़ाकर दिया। गाड़ी ने सीटी भी दे दी और चल भी पड़ी। पर उस लंबे जाट लड़के ने बड़ी कलात्मकता से गाड़ी की
सीढ़ी पर खड़े होकर आहिस्ता-आहिस्ता नीचे झुकते-झुकते प्यार से उसका सूटकेस प्लेटफार्म पर टिका ही दिया।
उसके झुकने में और गाड़ी के आहिस्ता-आहिस्ता प्लेटफार्म से निकलने में भी बड़ा रिदम सा था। बुद्धू अपना कपड़ा और पेंसिल उस छोटे लड़के से लेकर शुक्रगुजार सा लपकता
हुआ सूटकेस तक पहुँचा और गाड़ी के चलते-चलते ही जोर से चिल्लाया - 'थैं... क... यू...'
लड़का बुद्धू के बुद्धूपने पर मुस्करा दिया और 'बॉय...' के अंदाज में हाथ हिलाता बोला - 'खुश रहो... अपना खयाल रखना...'
बुद्धू ने कानपुर फिरोजाबाद, हैदराबाद, अनंतापुर आदि की खूब यात्राएँ की अब तक। कई बार गाड़ी में सफर किया। पर आज के इस एक घंटे का सफर भी अपने-आप में एक नया
तजुरबा था। उसे बदन में कुछ तनाव सा महसूस होने लगा। गाड़ी तो जा चुकी थी और वह इस छोटे से स्टेशन के प्लेटफॉर्मों को गौर से देखने लगा। फिर किसी से पूछा - 'यहाँ
जाट कॉलेज की तरफ कौन सा रास्ता जाता है?'
बुद्धू को दफ्तर में किसी ने बता दिया था कि 'जिस तरफ जाट कॉलेज हो, उसी तरफ से रिक्शा ले जाना और जाट कॉलेज के बाद एक कचहरी सी पड़ेगी, बस उसी के बाद आएगा
देवनगर। वहीं ऑर्डर पर लिखे पते पर पहुँच जाना। अपना आउटस्टेशन मिल जाएगा।'
'साहब, वो रही सीढ़ियाँ। ऊपर पुल से पहले नंबर प्लेटफार्म तक पहुँच जाओ, वहीं से बाहर जाओ!' किसी के बताए हुए रास्ते से बुद्धू आखिर स्टेशन से बाहर आ ही गया और
एक रिक्शे में बैठ गया। उसने प्लेटफार्म पर ही नीचे उकड़ू बैठकर अपना सूटकेस खोला था और वह कपड़ा जिस से वह खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था, सूटकेस में डाल
दिया। पेंसिल भी कहीं कोने में टिकाकर खड़ी कर दी। रिक्शा थोड़ी दूर जा कर रेलवे फाटक के बाहर कई और गाड़ियों रिक्शों और टेंपों की लाइन में खड़ा फाटक खुलने के
इंतजार में रुक गया। कुछ ही देर बाद दिल्ली की तरफ जाने वाली कोई गाड़ी तेजी से वहाँ से निकली तो बुद्धू मुस्कराया। अचानक दिल्ली के ख्याल आ गए उसे। पर उसने सोचा
ज्यादा दूर तो है नहीं दिल्ली। गाड़ी में एक आदमी कह तो रहा था - 'अजी सोनीपत दिल्ली क्या है। हाथ लगाओ दिल्ली हाथ लगाओ सोनीपत!' सो दिल्ली की बातें सोचते-सोचते
बुद्धू पहुँच गया अपने दफ्तर।
यहाँ हालत अजीब सी थी। बुद्धू एक बड़ी सी हवेलीनुमा बिल्डिंग में पहुँचा तो किसी ने बताया यह आपका ऑफिस नहीं है, आपका ऑफिस इस घर के उस तरफ है। एक ही हवेली एक
हिस्से में मकान-मालिक का भी बड़ा सा कुनबा था और दूसरे में एक प्रोफेसर का कुनबा। प्रोफेसर के घर के बरामदे में जो दीवार थी, उसके उस तरफ चार कमरों में उसका
छोटा सा आउटस्टेशन था। एक कमरे के दरवाजे पर उसे ऑफिस का बोर्ड दिखा तो तसल्ली हुई कि वह सही जगह पहुँच गया है। सो बुद्धू आश्वस्त सा ऑफिस के मुख्य कमरे की तरफ
बढ़ा। वह दरवाजे पर खड़ा हुआ तो अंदर टेबल पर लगभग डेढ़ साल का एक बच्चा बैठा था। उसे देखते ही मुस्कराने लगा बच्चा। बुद्धू को अजीब तो लगा पर बच्चे के साथ मुस्करा
कर वह भी हल्का सा हो गया। कुछ देर बाद एक औरत आई जो अकारण हँसती हुई आ रही थी, बोली - 'आप हो इंचार्ज?'
'जी,' बुद्धू ने नमस्कार किया पर उस औरत ने नमस्कार का जवाब भी उसी प्रकार, एक अकारण सी खीं-खीं के साथ दिया। फिर वह बच्चे को गोद में उठाकर चल दी। ना नमस्कार
का जवाब, ना कोई मुस्कराहट। बस अपने आप में ही खुशफहमी सी वह चली गई। फिर अचानक लुंगी-बनियान पहने एक आदमी प्रकट हुआ। यह नफे सिंह था और बुद्धू का लंबा सा
सूटकेस दरवाजे पर कहीं आड़ी-तिरछी स्थिति में रखा देख भी उसने उधर ध्यान नहीं दिया, बल्कि उसे फलाँग कर किसी प्रकार अंदर पहुँच गया। बुद्धू ने अपना सूटकेस खुद ही
सरकार थोड़ा अंदर की तरफ किया और अंदर आ कर खड़ा हो गया। नफे सिंह बोला - 'बैठो सा'ब। मैं यहाँ का क्लास फोर हूँ, और अभी इंचार्ज आते होंगे। आप उन से ये सारी
चीजें गिनकर ले लेना और साइन कर देना। उनका दिल्ली ट्रांसफर हो गया है और आप उनकी जगह आए हो।'
बुद्धू को यह सब तो पता ही था, पर यह सारा माहौल उसे बहुत अजनबी सा लगा। वह इंचार्ज की कुर्सी के साथ वाली कुर्सी पर बैठ तो गया पर नफे सिंह अगले क्षण ही वहाँ
से गायब सा हो गया और बुद्धू काफी देर तक बैठा रहा, वहाँ से गए हुए खतों को वह एक फाइल से पढ़ने लगा। एक-दूसरी फाइल जरूर वहाँ होगी जिसमें यहाँ आए हुए खत होंगे।
जैसे दसुआ में था, वैसे ही यहाँ है, फर्क सिर्फ यह कि दसुआ में मांडियाल और दुनीचंद मिलाकर तीन जने थे और यहाँ केवल दो होंगे, वह और नफे सिंह। उसे फिर दिल्ली
में बताई गई बात क्षण-भर को याद आई कि यहाँ सोनीपत में छुट्टी की बहुत समस्या रहेगी। जब तक हेडक्वार्टर से कोई रिलीवर नहीं आएगा तब तक एक दिन भी छुट्टी लेना
मुश्किल पड़ जाएगा। फिर किसी ने उसे दो-तीन अच्छी, मसालेदार सी बातें भी बता दी थीं इन आउटस्टेशनों के बारे में। एक ने कहा - 'वो जो सूरी था ना, जिसे एक बार ऑफिस
ने 'प्रेम-पत्र' ठोका था कि ऑफिस में इंस्ट्रुमेंट लगें ना लगें, ऑफिस के काम में दखल देने की जरूरत नहीं है, उसने बाद में उसी स्टेशन पर खूब मजे किए। उसका साथी
भी एक बार छुट्टी चला गया और उसकी शादी का दिन भी आने लगा। उस ने घबराकर हेडक्वार्टर को एक टेलीग्राम ठोका - मैरेज दिस वीक, सेंड रिलीवर (शादी इसी हफ्ते है,
रिलीवर भेजें)। ऑफिस ने एक रिलीवर भेज दिया। शादी दिल्ली में ही थी। फिर शादी के अगले ही दिन वह यहाँ ऑफिस आ कर एक ऐप्लीकेशन दे गया कि उसे हनीमून जाना है, सो
एक हफ्ता छुट्टी और बढ़ा दी जाए। ऑफिस ने बढ़ा दी। पर वहाँ पता है क्या हुआ?'
'हा हा हा हा,' दो-चार जने यादकर कहकहा मार उठे।
'उसने एक ऐप्लीकेशन वहाँ से और ठोक दी कि शिमला का तो मौसम ही पूरा हफ्ता खराब रहा। उसका हनीमून पूरा ही नहीं हो सका! इसलिए... ही ही ही... सुनने से पहले ही
एकाध की हँसी मानो होंठों से बाहर फिसल गई थी।
'इसलिए एक हफ्ता छुट्टी और सैंक्शन कर दी जाए!'
'हा हा हा हा हा... आगे डिलीवरी वाली भी तो बताओ...!'
'हाँ। एक साल बाद 'डिलीवरी' भी आ गई उस खूबसूरत मौसम में हनीमून वाले की। तब उसके साथ कोई था ही नहीं। उसके साथी की हिमाचल की तरफ कहीं बैंक में नौकरी लग गई थी।
सो सूरी ने टेलीग्राम भेजा - 'काइंडली सेंड रिलीवर फॉर दि डिलीवरी ऑफ माइ वाइफ (कृपया मेरी पत्नी की डिलीवरी के लिए एक रिलीवर भेजें)।
डायरेक्टर का भी हँस-हँसकर बुरा हाल होने लगा। पर उसने एक जवाबी टेलीग्राम फौरन भिजवाया 'स्टाफ शॉर्टेज... मैनेज एवरीथिंग यूअरसेल्फ (स्टाफ कम है, सब काम स्वयं
ही सँभालो)।'
'हा हा हा हा...'
ग्यारह बजे दफ्तर के बाहर बरामदे में किसी के बूट की जोर-जोर से खट्-खट् की आवाज आने लगी। नफे सिंह बोला - 'आ गए धवन।' मि. धवन यानी यहाँ का इंचार्ज।
धवन फुर्ती से मशीन की तरह आ कर अपनी इंचार्ज वाली कुर्सी पर बैठते-बैठते बोला - 'माफ करना समर्थ सा'ब। सुबह की गाड़ी से आ नहीं सका था, वर्ना मैं आपके साथ गाड़ी
में ही होता। थोड़ी आप जैसे महापुरुषों की मदद करने का मौका मिल जाता। मैं तो बाद की शटल में आया जो कि पैसेंजर गाड़ी है... समझ लो एक छकड़ा गाड़ी। वह वैसे अमृतसर
एक्सप्रेस से एक घंटे बाद ही आ जाती है, पर आज खेड़ाकलाँ स्टेशन पर बेकार में ही एक घंटा रुकी रही।' बुद्धू ने कहा - 'कोई बात नहीं, यहाँ के बारे में सब समझा
दो।'
'समझाता हूँ,' और धवन ने थोड़ी ही देर में सारी चीजें दिखा दी जो अलमारियों में थीं। धवन ने लिस्ट भी बना रखी थी और एक-एक चीज गिनकर बुद्धू को दिखा दी। बड़े-बड़े
इंस्ट्रुमेंट और छोटी-छोटी कई चीजें जैसे प्लास वगैरह या छतों पर लगे पंखे तक या इंस्ट्रुमेंट वाले कमरे की एक अलमारी में रखा छाता भी। दोनों फाइलें भी हैंड ओवर
हो गई और स्टेशनरी भी। बस, घंटे भर में यहाँ का सारा चार्ज एक इंचार्ज से दूसरे इंचार्ज के हाथों आ जाता है। चार्ज की चार प्रतियाँ बन जाती हैं, एक यहाँ के
रिकॉर्ड में रहती है, एक हेडक्वार्टर दिल्ली चली जाती है, और एक जाने वाले और आने वाले इंचार्जों के पास अपने-अपने व्यक्तिगत रिकॉर्ड के तौर पर रहती है। पर
बुद्धू एक बात को लेकर हैरान था कि दो कमरों में तो ऑफिस के इंस्ट्रुमेंट और अलमारियाँ वगैरह रखी हैं, पर बाकी दोनों कमरों में उसे घुसने ही नहीं दिया गया।
बुद्धू ने पूछा - 'इन दो कमरों में क्या है?'
'बताता हूँ,' कहकर धवन बुद्धू को वापस उसी इंचार्ज वाली सीट पर ले आया और बोला - 'अब यह कुर्सी आपकी। मैं थोड़ी देर इस बाहर वाली कुर्सी पर बैठता हूँ। अब आप हो
गए यहाँ के मालिक। यहाँ बात दरअसल यह है कि नफे सिंह की पूरी फैमिली भी यहीं, ऑफिस में ही रहती है।' यह सुनकर बुद्धू को बहुत अजीब सा लगा। एक कमरे की खिड़की की
जाली से उसे अंदर रखे पलंग नजर आ गए थे और एक बड़े से ट्रंक पर बिस्तरों का एक मीनार सा। अंदर उस छोटे बच्चे के अलावा एक लगभग साढ़े तीन साल का लड़का भी जमीन पर
बैठा कुछ खिलौनों से उठा-पटक सी कर रहा था। दूसरे एक कमरे में घरेलू सामान भी बहुत था और एक किचन बना हुआ था। ऐसे सपरिवार ऑफिस में सुख चैन से रहने का यह तरीका
भी बुद्धू को नायाब सा लगा। बड़े-बड़े चीफ डायरेक्टरों-डायरेक्टरों को भी अलग से कोठियाँ या क्वार्टर मिले होते हैं जिनका वे समुचित किराया भी दे देते हैं पर नफे
सिंह तो वी.आई.पी से भी बड़ी हस्ती हो गया, यहाँ दफ्तर में रुक रहा था जैसे मंत्री-वंत्री हो।
धवन उससे कह रहा था - 'मि. समर्थ, अगर आप अच्छे स्वभाव के व्यक्ति हैं, सहयोग नाम की किसी चीज से आप वाकिफ हैं, तो आप यहाँ एडजस्ट कर लेंगे। नफे सिंह को यहाँ से
जाने को कब्भी नहीं कहेंगे। इसका फायदा यह कि आप जब मर्जी फर्लो चले जाओ या देर से आओ, या यहाँ पहुँचो ही मत, नफे सिंह सब सँभाल लेगा।' बुद्धू को दसुआ में सीखा
शब्द फर्लो याद आ गया जो मांडियाल इस्तेमाल करता था।
वह यहाँ के नए माहौल को समझने की चेष्टा भी कर रहा था पर आज वह सुबह-सुबह जल्दी ही उठा था और उसे यह सब देख-सुनकर सिर में बहुत तेज-तेज दर्द सा होने लगा। धवन तो
सारी चार्ज देकर तपाक से हाथ मिलाकर चला गया दिल्ली और बुद्धू एक कागज पर अपनी ज्वाइनिंग रिपोर्ट लिखने लगा। धवन अपनी डिपार्चर रिपोर्ट देकर गया ही था। बुद्धू
ने थोड़ी ही देर में एक पत्र भी तैयार कर लिया और जो लिस्ट उसे धवन ने हेडक्वार्टर भेजने के लिए दी थी, उसे भी नत्थी करके रख दिया। नफे सिंह अपनी लुंगी बनियान
में ही आ कर चुपचाप साथ की कुर्सी पर बैठ गया था। यहाँ एक ही टेबल थी क्योंकि दूसरी तो उस महारानी ने ऑफिस से मिले अपने बेड-रूम में रख रखी थी जिस पर उसने अपनी
सिलाई मशीन और कई और चीजें धर दी थीं। ऑफिस में रखी एकमात्र टेबल के गिर्द तीन कुर्सियाँ रखकर काम चलाना पड़ता था। नफे सिंह को देखकर बुद्धू को लगा कि नफे सिंह
यहाँ अपनी ड्यूटी करने के उद्देश्य से नहीं आया, बल्कि इस नए इंचार्ज को परखने आया था कि वह मय पूरे कुनबे उसे यहाँ रहने पर कुछ कहेगा तो नहीं। नफे सिंह ने एक
लिफाफा तैयार किया और बुद्धू द्वारा बनाया गया दस्तावेज जिसमें ज्वाइनिंग रिपोर्ट और लिस्ट वगैरह थीं, उस बड़े से लिफाफे में डाल दिया, फिर उस पर गोंद लगाकर बंद
करने लगा।
बुद्धू नफे सिंह को ना जाने क्यों अचानक बहुत गौर से देखने लगा? उसे महसूस हुआ जैसे नफे सिंह सिर्फ एक ही काम के योग्य है, और वह है लिफाफों पर गोंद लगाना। गोंद
लगाकर उसने कुछ डाक टिकट जबान से चाट डाले और लिफाफे पर चिपका दिए। फिर नफे सिंह बोला - 'आप एड्रेस डाल दीजिए। मैं अभी इसे रजिस्ट्री से पोस्ट कर आता हूँ। थोड़ा
आने में देर हो जाएगी सा'ब। घर के लिए सामान लेना है।' बुद्धू को इसी में सहूलियत लग रही थी कि नफे सिंह बस, यहाँ से कहीं अदृश्य हो जाए। नफे सिंह फिलहाल लिफाफा
रखकर अपने बेड-रूम में लुंगी उतार कर पैंट-शर्ट पहनने चला गया और कुछ ही देर बाद तैयार होकर लौट आया।
धवन तो पहले यहाँ छ-आठ महीने कमरा किराए पर लेकर ही रह रहा था। पर उसने तब से वह कमरा छोड़कर डेली पैसेंजरी शुरूकर दी जब नफे सिंह ने उसे आश्वस्त किया - 'आप
सुबह-सुबह आओ ही मत सा'ब। सुबह सारा काम मैं निपटा लूँगा। आप दिल्ली अपने घर बैठकर चा चू (चाय) पियो सुबह। ऑमलेट-शामलेट खाओ। ऑफिस के लिए डेली पैसेंजरी करो। मैं
जो हूँ यहाँ पर। सब कर लूँगा।' धवन ने तो जाते-जाते चुपके से बुद्धू को यह भी बताया था कि दरअसल नफे सिंह तो पाँच साल से यहीं, ऑफिस में ही रह-रहा है। तब उसकी
अभी शादी हुई ही थी। यहाँ तो उसे सुब्रह्मण्यम छोड़ गया था!'
'सुब्रह्मण्यम! वही जालिम सा पी.ए.!' बुद्धू घबरा सा गया।
'हाँ,' धवन यह सब फुसफुसाता सा बुद्धू को बता भी रहा था और नजर उठाकर उसके चेहरे को देख भी लेता कि बुद्धू पर्याप्त मात्रा में डर रहा है कि नहीं। पर बुद्धू को
लगा उधर जो मियाँ बीवी बैठे हैं, उन दोनों को भी यही ठीक लग रहा है कि धवन बुद्धू को पर्याप्त मात्रा में डराकर ही जाए।
धवन ने कहा - 'मैं भी जा कर बीवी-बच्चों के पास सुखी हुआ। उन दिनों सुब्रह्मण्यम का बेटा यहीं हिंदू कॉलेज में एडमिशन लेकर आया था सो बेटे को यहीं, ऑफिस के एक
कमरे में ही रख गया और नफे सिंह से भी बोला तुम कमरा किराए पर लेकर रहते ही क्यों हो आखिर। यह ऑफिस किस दिन काम आएगा? सब इंस्ट्रुमेंट और ऑफिस की चीजें दो कमरों
में फिट हो जाएँगी। बाकी एक में तुम अपना सामान रखो एक में मेरा बेटा रह लेगा। मेरे बेटे का ख्याल रखना बस।' बुद्धू को सब समझ में आता जा रहा था। यानी
सुब्रह्मण्यम का बेटा बी.एससी. पढ़कर चला गया और धवन को यह फायदा कि वह यहाँ जब मर्जी आए-जाए और कभी दिल करे तो फर्लो ही मार ले! कोई हेडक्वार्टर से आ धमका तो
नफे सिंह यही कहेगा कि वह तो जी अभी-अभी बाजार किसी काम से निकल गया है। या कि उसके बेटे की तबियत खराब थी सो वह आज जरा जल्दी ही चला गया है। यहाँ मांडियाल जैसी
सुविधा तो है नहीं कि एक ऐप्लीकेशन छोड़ जाओ कि वह तो जी छुट्टी गया है क्योंकि यहाँ तो बिना रिलीवर के क्लास फोर के भरोसे ऑफिस छोड़कर जा ही नहीं सकते। दफ्तर में
सहयोग के नाम पर यह लेन-देन भी बुद्धू के लिए एक नया नजराना सा हो गया।
नफे सिंह गया तो क्या हुआ कि उसकी पत्नी आ गई? एक तो वह पेटीकोट-ब्लाउज पर साड़ी-वाड़ी पहने नहीं रहती और तेजी से यहाँ-वहाँ कमरों में या इधर-उधर राउंड मारती
फिरती है। कभी जरूरी समझा तो सीने पर एक तिरछा सा तौलिया टिका देती है जो उसके कंधे से पीछे तक जाता है। अब भी तेजी से वह ऑफिस में घुसी तो उसकी वही दबी-दबी
अकारण सी खीं-खीं उसके होंठों की कोरों पर बरकरार थी।
उसने बुद्धू वाली टेबल के इस तरफ रखे रैक पर रखा रेडियो चला दिया। बहुत जोर-जोर से गाना बजने लगा - 'ना ना करके प्यार तुम्हीं से कर बैठे...' वह खुद बाहर एक बड़ी
सी बकेट में जिसमें साबुन का घोल था, मैले कपड़े एक-एक करके डालने लगी। गाने के साथ हल्का-हल्का गुनगुना भी लेती और अब एक तीखी व्यंग्य भरी मुस्कराहट उसके होंठों
पर स्थिर थी, जैसे पूरी फिजा का ही मखौल सा कर रही हो वह। ऐसे कि वह तो किसी चीज से घबराती नहीं है जी, चाहे कोई नया इंचार्ज ही क्यों न हो? पर बुद्धू जो यह सब
अपनी सीट की दाहिनी तरफ बनी खिड़की की जाली से देख रहा था, को यह सब कुछ अजीब सा लग रहा था। उसने क्या किया कि रेडियो का कहीं से कान उमेठा और 'क्ड़िच' की एक आवाज
से रेडियो सहसा बंद कर दिया। नफे सिंह की पत्नी दौड़ती सी आई। जरा इस नए इंचार्ज को सीधा कर दूँ बस। बोली - 'रेडियो क्यों बंद कर दिया आपने? मैं तो... इस समय...'
'मुझे बहुत डिस्टर्ब हो रहा है,' बुद्धू ने बीच में ही टोक दिया। 'अभी तो काम भी करना है ना आज का बहुत।'
'आप काम करके चले जाओ बस। यहाँ आठ से तीन ड्यूटी होती है पर आठ से तीन कोई यहाँ बैठा नहीं रहता। आप भी अंदर मशीनों पर काम करके चले जाओ बस।' बुद्धू को लगा कि वह
जाने कहाँ आ कर फँस गया है। तब तक वह औरत छोटे बच्चे को भी उठा लाई और उसे हाथों में लेकर ऊपर-नीचे नचा कर हँसने लगी। यहाँ दफ्तर जैसा कोई माहौल था ही नहीं। नफे
सिंह वह लिफाफा रजिस्टरी करने जब से गया है, तब से इस औरत रूपी विपदा में ही फँसा है बुद्धू। बुद्धू बाहर आ गया और इधर रहने वाले प्रोफेसर सतपाल के घर के बाहर
उससे बातें करने लगा।
प्रोफेसर उसे बता रहा था कि यहाँ के मकान मालिक चौधरी रिसाल सिंह काफी वृद्ध हैं और वे पूर्व विधायक भी हैं। यहीं जाट कॉलेज में विभागाध्यक्ष भी रहे। पर अब अपने
इस बड़े से घर में एक चारपाई बिछाए महफिल जमाए रहते हैं। 'यहीं कोने में एक-दो कमरे भी हैं। आप चाहो तो एक कमरा आज ही किराए पर ले सकते हो। आप भी यहीं ऑफिस के
बाहर ही रहो। रोज दिल्ली से आना-जाना चाहते हो तो आपकी मर्जी।' इस समय बुद्धू सतपाल से ये सब बातें समझ रहा था कि अचानक क्या हुआ कि एक खतरनाक सा कुत्ता जो खासा
मोटा था, वह रिसाल सिंह की हवेली से बाहर निकला और एक अजनबी आदमी को देखकर बुरी तरह चिंघाड़ने लगा - 'भौं भौं...' बुद्धू घबराकर सतपाल सिंह के घर के बरामदे में
भाग गया जहाँ उसकी पत्नी धोए हुए कपड़े रस्सी पर टाँगती जा रही थी। वहीं टँगी एक चादर के पीछे छुप गया बुद्धू। सतपाल सिंह की बीवी टीचर है पर स्कूल यहीं सामने ही
है सो बड़ी रिसेस में बीस-पच्चीस मिनट घर आ जाती है और कोई ना कोई छोटा-मोटा काम निपटाकर जाती है। वह समझ गई थी कि यह कोई साथ के दफ्तर में आया नया
इंचार्ज-विंचार्ज है या कोई टूर पर आया होगा, पर इस तरह से बुरी तरह घबराए हुए बुद्धू को देख हँस पड़ी। बोली - 'आप घबराओ मत। जोर-जोर से कुत्ते का नाम लेकर
पुकारो, फ... र्रो... फ... र्रो...' बुद्धू भी घबराकर रटने लगा - 'फ... र्रो फ... र्रो...' और हाँफने लगा।
सतपाल सिंह हँसता हुआ आ गया और बुद्धू को चादर के पीछे से बाहर निकालता बोला - 'आओ मैं ले चलता हूँ। चौधरी रिसाल सिंह बैठे हैं और उनकी पत्नी भी है। अभी बात
करता हूँ आपके कमरे के बारे में। चाहो तो ले लो नहीं तो जहाँ आप चाहो मिल सकता है।'
बुद्धू आखिर कुत्ते के डर से थोड़ा सा मुक्त होकर सतपाल सिंह के साथ चला गया हवेली के उस हिस्से में जहाँ एक बड़े से क्षेत्रफल में रिसाल सिंह सपरिवार रहता है।
रिसाल सिंह एक बड़ी सी लुंगी पहने व बनियान पहने बरामदे में चारपाई पर बैठा था। बनियान के भीतर उसकी छाती के सफेद बाल अलग-अलग दिशाओं में भटक रहे थे या बाहर झाँक
रहे थे। साथ में पत्नी भी बैठी थी। पत्नी ऐसे बैठी थी जैसे उसकी छाया हो। बुद्धू का जब परिचय सतपाल सिंह ने दोनों को दिया तो बुद्धू रिसाल सिंह और उसकी बीवी के
पाँव छूकर एक तरफ खड़ा हो गया। फर्रो दुम हिलाता चौधरी के पास आया था और चौधरी के ही इशारे पर दूर एक कोने में जा कर बैठ गया, जैसे वहीं बैठा-बैठा सबको कंपनी
देगा अब।
रिसाल सिंह ने पूछा - 'कहाँ के हो? दिल्ली? काफी शरीफ से लगते हो!' रिसाल सिंह ऐसे बोला जैसे बुद्धू पर शरीफ होने का वह इल्ज़ाम लगा रहा हो, जैसे शरीफ होना कोई
खास किस्म का नुक्स-वुक्स होता हो जिसका तुरंत इलाज करना जरूरी है, पर उसकी आवाज में एक बनावटी सद्भावना तो थी कम से कम!
सतपाल सिंह ने बातचीत की डोर संभाली और कुछ ही देर में इस बात पर विचार विमर्श होने लगा कि बुद्धू हवेली के पीछे जो दो कमरे किराएदारों के लिए हैं, उनमें से एक
में पैंतीस रुपये महीना किराए पर रहना चाहेगा कि नहीं। बुद्धू लेकिन कमरे को और यहाँ के पूरे नक्शे और माहौल को देख घबरा सा गया था। उसे याद आने लगा दिल्ली का
अपना घर। घर में उसके वृद्ध माता-पिता हैं जो खासकर उस पर अपनी जान छिड़कते हैं। उसकी तीन बहनें हैं और तीन भाई। वह एकदम बीच में है, यानी तीन उससे बड़े हैं और
तीन छोटे (दो बड़े भाई, दो छोटी बहनें, एक बड़ी बहन, एक छोटा भाई)। एक सबसे बड़े भाई की पत्नी और प्यारा सा बेटा भी। पर उसका सारा घर उसकी बड़ी सिस्टर अनामिका चलाती
है। अनामिका ही इस घर की कर्ता-धर्ता है और अनामिका ही उसकी मार्गदर्शक भी।
बुद्धू ने क्या किया कि सतपाल सिंह से झूठ बोला कि वह भी डेली पैसेंजरी करेगा। यहाँ मन नहीं लग रहा। सतपाल सिंह ने कहा - 'जैसी आपकी मर्जी। चौधरी रिसाल सिंह को
बता देते हैं चल के।' सतपाल सिंह बुद्धू के साथ रिसाल सिंह के पास पहुँचा और सारी बात बता दी। रिसाल सिंह बोले - 'जैसी इनकी मर्जी। यहाँ रह भी नहीं पाएँगे
शायद।' रिसाल सिंह की जीवन शैली यहाँ कुछ और ही है। उसके दो बेटे हैं, एक तो फौज में जाना चाहता है और दूसरा फौज में है। पर यहाँ राजनीतिक चरित्र के लोग बैठे
रहते हैं। रिसाल सिंह ऐसे दिखता है जैसे वह सबको बहुत प्यार करता है। और नफे सिंह को भी रिसाल सिंह कोई फर्रो से कम प्यार नहीं करता! नफे सिंह भी तो अच्छी तरह
दुम हिला देता है!
बुद्धू दोपहर को थोड़ी देर फिर आ कर दफ्तर में बैठा ही था कि न जाने उसे क्या हुआ, एक झटके से उठा और अपना सूटकेस खींचता बाहर चल दिया। दरअसल ऑफिस में उसकी टेबल
से एक कदम ही दूर इस कमरे का दरवाजा है जहाँ से नफे सिंह के बेड-रूम की खिड़की की जाली भी नजर आती है। खिड़की के दोनों पल्ले तो अंदर की तरफ खुले थे पर ऊपर के
कोने से जाली का एक वर्गाकार सा टुकड़ा छिटककर अपनी जगह से बाहर उखड़ आया था। नफे सिंह तो आ गया था कुछ देर पहले। पर जाली के उस उखड़े हुए टुकड़े के कारण अंदर
अँधेरे और रोशनी का मिश्रण सा था। बुद्धू की नजर जाली के रास्ते इस अँधेरे और रोशनी के मिश्रण में भीतर गई तो दंग सा रह गया। नफे सिंह की बीवी तो पेटीकोट-ब्लाउज
में पलंग पर लेटी थी और नफे सिंह का चेहरा उसके ऊपर झुका हुआ। वह हीरोइन खीं-खीं करके खिलखिलाती जा रही थी और अपने पंजे में नफे सिंह का चेहरा दबोचकर उसे दूर
धकेलने के लिए जोर लगाती जा रही थी। दोनों के बीच एक अच्छी खिलखिल बाजी और कशमकश सी मची हुई थी। बुद्धू को लगा कि यहाँ सब कुछ है पर दफ्तर नहीं है। सूटकेस लेकर
बाहर पहुँचते ही दफ्तर के बरामदे से उसने जोर से आवाज दी - 'नफे सिं... ह, मैं दिल्ली जा रहा हूँ... कल सुबह आ जाऊँगा...'
'अच्छा जे... ए... ए... ए' नफे सिंह खूब जोर से चिल्लाया। बुद्धू को लगा जैसे उसके बाद कमरे में खू... ब जोर की खीं-खीं फैल गई होगी...। ही ही ही...