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बुद्धू अगले दिन सुबह दिल्ली से ही ऑफिस आया। किसी प्रकार दिन कट गया। नफे सिंह कुछ देर उधर रिसाल सिंह के कुत्ते फर्रो को नहलाने चला गया। बुद्धू थोड़ी देर यूँ
ही बाहर आ कर खड़ा हुआ तो नफे सिंह साबुन से फर्रो के पूरे बदन पर अपना मजबूत हाथ चला रहा था। बुद्धू को कल्पना में लगा जैसे नफे सिंह रिसाल सिंह के प्रति खासा
वफादार है...
ऊपर छत पर उसकी पत्नी भी रिसाल सिंह के घर के लिए दीवार पर उपले लगा रही थी। बुद्धू ने तो नफे सिंह के आते ही उसका पारा चढ़ा दिया। उस ने नफे सिंह से कहा - 'यहाँ
तो आपकी पत्नी हीटर पर ही सारा खाना बनाती है। बिजली का बिल कितना ज्यादा आता होगा?'
'आप कुछ जानते ही नहीं जी यहाँ का,' नफे सिंह चिंघाड़ने लगा, बेहद हिंसक तरीके से बरसता सा बोला - 'आइए, मैं दिखाता हूँ आपको, बिजली वालों का बाप भी हमारा कुछ
नहीं बिगाड़ सकता।' बुद्धू यह देखकर हैरान रह गया कि नफे सिंह ने मुख्य मीटर वाले बोर्ड में कहीं दो टर्मिनलों के बीच एक तार बड़ी चालाकी से फँसा रखा था और मीटर
चल ही नहीं रहा था। बोला - 'मैं जब मर्जी इसे हटा देता हूँ जब मर्जी लगा देता हूँ।'
'रात सारी पंखा-वंखा भी चलता होगा,' बुद्धू के मन में यह विचार आते ही एक और विचार आया - 'अच्छी लूट है सरकारी खजाने की! या अपने विभाग को चूना लगाओ, या बिजली
दफ्तर की ही पॉकेट मारो!'
बुद्धू को कमरा मिल ही गया। उसकी सिस्टर अनामिका ने उससे कहा था कि जिस तरफ तेरा ऑफिस है, वह इलाका गंदा लगता है। स्टेशन से निकलकर प्लेटफार्म वन वाली तरफ ही
अच्छी-अच्छी कॉलोनियाँ हैं, जैसे मॉडल टाउन, इंदिरा कॉलोनी वगैरह। वहाँ कोशिश करो। फिर अनामिका की कंपनी की किसी महिला ने जो अनामिका के अधीन ही काम करती है,
वहाँ मॉडल टाउन में किसी का संदर्भ भी दिया कि हम उन्हें फोन कर देंगे, आप जा कर पता करना। अनामिका किसी बड़ी कंपनी में खासी बड़ी पोस्ट पर काम करती है, एक बड़े
विंग की मैनेजर भी है। सो बुद्धू उस व्यक्ति के पास चला गया जिसका संदर्भ अनामिका के अधीन काम करने वाली उस औरत ने दिया था। वहाँ आसानी से कमरा मिल गया। सिर्फ
साठ रुपये किराए पर और दसेक रुपये बिजली पानी के। बुद्धू दो-चार दिन में ही सूटकेस फिर ले आया। साथ में उसका छोटा भाई बब्बन भी आ गया, विस्तर और आगे आने वाली
सर्दियों के लिए रजाई भी लेता आया। छोटे भाई ने सब कुछ ठीक-ठाक लगाकर कमरा बढ़िया बना दिया। मकान मालिक ने फिलहाल अपनी निवार वाली बढ़िया सी चारपाई उसी कमरे में
रहने दी थी पर बुद्धू भाई के साथ बाजार जा कर एक और अच्छी सी खरीद भी लाया। निवार भी एक दुकान से मिल गई। मकान मालिक ने कह दिया - 'यह कुछ दिन ठहर के लगा लेंगे।
आप अकेले नहीं लगा सकोगे। तब तक इसी पर सो लो जो मैंने रखी है।'
'आराम से सोना भैया। घर साफ सुथरा है और काफी तमीज वाले लोग लग रहे हैं।' मकान मालिक सचमुच देवता किस्म का आदमी था। बिजनेस में घाटा पड़ चुका था और उसका कहना था
कि साथ की कोठी में उसका छोटा भाई है और बिजनेस में सब फायदा वही ले गया, 'हमारे पल्ले कुछ पड़ा नहीं। पर हमें कोई गम नहीं। शराफत मेरा गहना है और शराफत ही मेरी
अब तक की कमाई हुई पूँजी।'
बब्बन ने कहा - 'ये हमारे भाई भी बहुत अच्छे हैं। आपका सहारा रहेगा इनको बस।'
मकान मालिक की पत्नी भी बहुत ममतालू सी लगी बुद्धू को। उनके दो बेटे थे जो नजदीक के ही स्टेशन गन्नौर में नौकरी करते थे। गन्नौर में उद्योगपति रौनक सिंह की
कंपनी 'भारत स्टील ट्यूब्स' है। कुल मिलाकर एक अच्छी जगह पर सो कर बुद्धू रात भर चैन से रहा पर सुबह होते ही दफ्तर जाने के ख्याल से उसे कोफ्त सी होने लगती थी।
उसका भाई भी नीचे जमीन पर ही बिस्तर लगाकर सो गया था।
'खाना होटल में ही खा लिया करना भैया,' बब्बन कुछ जरूरी सलाह-मशविरा करके दिल्ली की ट्रेन से दिल्ली रवाना हो गया क्योंकि उसे दिल्ली में पार्लियामेंट स्ट्रीट
में अपने वित्त मंत्रालय के ऑफिस में पहुँचना था।
बुद्धू एक प्रकार से रुटीन में आ गया। यहाँ तो सातों दिन ड्यूटी होती थी, अलबत्ता हफ्ते में एक दिन उसे केवल तीन घंटे ड्यूटी करनी पड़ती थी जिसका उसे दो रुपये
सत्तर पैसे प्रति घंटे के हिसाब से ओवरटाइम मिलता था। नफे सिंह को भी मिलता था पर उसका रेट एक रुपया तीस पैसे था। रोज ऑफिस आने में बुद्धू की टाँगों की अच्छी
वर्ज़िश हो जाती क्योंकि दफ्तर से उसका कमरा लगभग तीन किलोमीटर दूर था। वह सुबह नहा धोकर मॉडल टाउन में ही कहीं चाय ब्रेड से नाश्ता कर लेता फिर चलना शुरूकर
देता। स्टेशन के सामने ही दाएँ मुड़कर वह उसी फाटक पर आ जाता और फाटक पार करके फिर हिंदू कॉलेज, जाट कॉलेज वगैरह से होता हुआ कचहरी पार करके पहुँच जाता देवनगर,
यानी अपने ऑफिस।
बुद्धू को दिल्ली से आती-जाती गाड़ियाँ देख कभी-कभी हसरत सी होती कि ख्वामख्वाह दिल्ली छोड़कर इस कोफ्त भरे माहौल में चला आया। पर उस ने रेलवे का एक मंथली पास भी
बनवा लिया जो मात्र उन्नीस रुपये में बन गया। हफ्ते में एकाध बार तो वह दिल्ली जा ही सकेगा और सुबह की किसी गाड़ी में अगले दिन ड्यूटी पर आ जाएगा। पर बुद्धू को
नफे सिंह का इस प्रकार दफ्तर में रहना बुरी तरह खलने सा लगा था। उसे लगता था कि यह घोर भ्रष्टाचार है और किसी दिन हेडक्वार्टर से कोई बड़ा ऑफिसर आया तो उसे भी
तकलीफ होगी क्योंकि उसी की पूछताछ हो जाएगी कि यहाँ का क्लास फोर पत्नी व बच्चों समेत ऑफिस में क्यों रहता है? बुद्धू कई दिन तो अंतर्द्वंद्व में रहा कि अब वह
क्या करे। अगर वह ऑफिस में लिखित शिकायत करता है तो जैसा उसे कुछ मित्रों ने समझाया था, आउटस्टेशन की दुश्मनी अच्छी नहीं होती। पर एक दिन बुद्धू खुद-ब-खुद ऑफिस
में बैठा था, नफे सिंह रूपी समस्या को लिखित रूप में कागज पर लिए!
बुद्धू एक दिन रिसाल सिंह के पास बैठा गप्पें मार रहा था, हालाँकि बुद्धू को अक्सर यही लगता था कि रिसाल सिंह उसकी तरफ बस देखता ही रहता है जैसे सोच रहा हो कि
इतनी शराफत का आखिर यह आदमी (बुद्धू) करता क्या है? पर बुद्धू स्वभाव से ही विनम्र था सो कभी-कभी सतपाल सिंह के साथ आ कर इधर रिसाल सिंह और उसके साथ परछाँई सी
बैठी पत्नी के सामने बैठ जाता। फर्रो उसी तरह थोड़ी दूर अपनी एक खास बनाई जगह पर बैठा सबको कंपनी देता। एक दिन रिसाल सिंह ने बुद्धू से कहा - 'जाओ जरा नफे सिंह
को बुला लाओ।' बुद्धू को कुछ अजीब तो लगा कि वह तो इंचार्ज है, इस प्रकार रिसाल सिंह उससे कहकर नफे सिंह को बुलवा रहा है! पर वह फिर भी चला गया और नफे सिंह से
बोला - 'रिसाल सिंह जी आपको बुला रहे हैं।'
नफे सिंह की पत्नी अकारण ऐसे मुस्करा दी जैसे तसल्ली से सोच रही हो कि आखिर बुद्धू भी यहाँ के जरूरी कामों में लग गया है। फिर दौड़कर अपने कमरे से एक कटोरे में
रखा गाजर का हलुवा ले आई। नफे सिंह से बोली - 'यह माताजी को...'
नफे सिंह कटोरा लिए बुद्धू के साथ चलता उससे भी आगे निकल गया और वहाँ बैठी माताजी को वह कटोरा देकर एक चारपाई पर बैठ गया। फिर बुद्धू भी आ कर उसके साथ ही बैठ
गया। माताजी कटोरा हाथ में थामे उठी और धीमी-धीमी चाल में अपनी रसोई की तरफ ऐसे बढ़ने लगी जैसे स्लो कैमरा के प्रभाव में कोई छाया चल रही हो... जैसे इस प्रकार
चलती-चलती वह पूरी पृथ्वी भी नाप सकती है...
रिसाल सिंह बोला - 'ये खाना कहाँ खाते हैं?'
बाजार में ही किसी ढाबे-वाबे में खा लेते होंगे!' नफे सिंह ऐसे बोला जैसे बुद्धू के कहीं खाने पर ही उसे आश्चर्य सा हो रहा हो। रिसाल सिंह तुरंत बोला - 'अभी
हॉस्टल चले जाओ। कहो ये रिसाल सिंह के आदमी हैं। हॉस्टल के मेस में खाना खाएँगे ये।' नफे सिंह चला तो गया पर उसे बुद्धू पर रिसाल सिंह की यह मेहरबानी शायद अच्छी
नहीं लगी।
बुद्धू को भी आइडिया अच्छा नहीं लगा था। पर वह जैसे रिसाल सिंह की इज्जत रखने के लिए ही अगले दिन से जाट कॉलेज हॉस्टल के मेस में खाना-खाने लगा था। हॉस्टल और
कॉलेज का वातावरण ही अलग था। बुद्धू को यह भी लगता कि यह तो कॉलेज के विद्यार्थियों का मेस है, किसी भी दिन लड़के एक बाहरी व्यक्ति को देखकर अकड़ पड़ेंगे... पर
बुद्धू ने महीने के डेढ़ सौ रुपये जो मेस का मालिक बोला था, शुरू में ही दे दिए।
बुद्धू ने अभी कुछ ही महीने काटे कि सोनीपत शहर में बड़ा अजीबोगरीब सा घटनाचक्र शुरू हो गया जिस से शहर में कुछ खलबली सी मचने लगी और शहर के घर-घर में या
दुकान-दुकान पर इसकी चर्चा होने लगी। सोनीपत में दरअसल एक नया डी.सी. पोस्ट हुआ था जिसने एक प्रकार से आतंक सा मचा दिया था। लोग मिले-जुले सुरों में बोलने लगे
थे, कह रहे थे - 'अच्छा है, इतने भ्रष्ट वातावरण में ऐसा ही डी.सी. होना चाहिए। जब तक चोरबाजारियों को सजा नहीं मिलेगी, तब तक तो यहाँ कुछ भी सुधरने से रहा।'
एक दिन महिलाएँ बहुत खुश थीं। नफे सिंह की पत्नी आ कर बुद्धू से बोली - 'आपको पता है, सुबह-सुबह डी.सी. ने दो सौ दूध वाले अंदर कर दिए। ही ही ही...' उसने 'दो
सौ' शब्दों पर इतना जोर दे दिया जैसे बुद्धू से यहीं 'दो सौ' की गिनती करवा कर छोड़ेगी। कहते-कहते उसने हाथ की तर्जनी और मध्यमा को उठाकर दो का इशारा भी किया और
आँखें फाड़ सी दी, जैसे बुद्धू को चौंकाना चाहती हो, 'ही ही ही...'
बुद्धू ने चकित होकर पूछा - 'क्यों?' पर पूछते-पूछते उसे लगा कहीं यह फिर रेडियो न चलाने आई हो यहाँ।
वह बोली - 'सा... ब दूध में पानी मिलाते पकड़े गए थे। एक चीज होती है जिस से दूध का टैस्ट लेते ही पता चल जाता है, कि इसमें पानी तो नहीं है।' फिर कोई भी
प्रतिक्रिया देखे बिना खिलखिलाती हुई चली गई। दोपहर को दफ्तर से कमरे की तरफ लौटते-लौटते बुद्धू देखता कि बाजार की दुकानों पर पोलिस का आतंक सा मचा हुआ है। राशन
की दुकानों से और दूसरी कई दुकानों से चीजों के सैंपल के सैंपल बनाकर सील किए जा रहे हैं कि मिलावट तो नहीं हो रही। दुकानों पर यह भी चेक किया जाता कि हर चीज के
सही-सही रेट भी लिखे हैं कि नहीं। दुकान पर रेट लिखना अनिवार्य हो गया। बुद्धू लेकिन कुछ-कुछ संदिग्ध सा भी रहता कि देखें, आखिर यह कब तक चल सकता है। और कि
सिस्टम के संस्कार स्तर पर सुधरने से पहले ही इस प्रकार का आक्रमण क्या कोई गुल खिला सकता है!
लोग कुछ सच्ची-सच्ची बातें जानकर आते तो कुछ अपनी तरफ से नमक मिर्च भी मिलाते - 'डी.सी. तो सिविल हस्पताल भी गया है। जा कर डॉक्टरों को धमका आया है कि ए... क
भी... दवाई हस्पताल से घर ले गए और बेची ना, तो हथकड़ियाँ डलवा दूँगा।'
बाजार में हालत ऐसी थी कि कई दुकानदार अपने किसी प्रतिद्वंद्वी को फँसाने की फिराक में थे। शहर को सब कुछ भूल चुका था, बस एक ही विषय बचा था - डी.सी. राजेंद्र
कुमार। लंबा सा है। कुछ बोलता नहीं बस अपना काम करता है। अभी रोहतक से प्रमोट होकर आया है...'
'मजबूत आदमी है जी। कोई खराबी नहीं। सिगरेट नहीं पीता, शराब नहीं पीता। ना ही कोई गलत काम...'
'नहीं जी बिलकुल नहीं...' लोग बड़ी तबियत से सुर में सुर मिलाते, बल्कि दूसरों से अधिक विश्वसनीय और जानकार लगने की कोशिश करते। पर बुद्धू जब दफ्तर आए तो देखे कि
नफे सिंह या उसकी बीवी के तो कान पर जूँ तक नहीं रेंगती, इस सबसे। दोनों बस अपना घर चलाने और रिसाल सिंह व उसके कुत्ते की सेवा में लगे रहते। बुद्धू के मन में
विचार आया कि वह इसी बहाने नफे सिंह को ही डराकर देख ले कि दफ्तर छोड़कर कहीं और जा कर कमरा किराए पर ले ले। पर बुद्धू को लगा कि अगर वह नफे सिंह को इस विषय पर
कुछ कहेगा भी तो नफे सिंह का यही निठल्ला सा जवाब होगा - 'आपको कुछ पता नहीं जी। यह डी.सी. इस डिस्ट्रिक्ट का है। सेंट्रल गवर्मेंट का थोड़ेई है! अपना वह कुछ भी
नहीं उखाड़ सकता जी।' पर बुद्धू ने जब आखिर एक दिन कह ही दिया तो नफे सिंह बोला - 'आ जाए! आप तो हर बात से डरते हो और डराते हो। इस डी.सी. का बाप भी हमारे दफ्तर
का एक बाल तक उखाड़ कर दिखाए!'
उसकी पत्नी दूर से ही ये बातें सुनकर तेजी से इधर ऐसे आई जैसे पैर पटकती आ रही हो, बोली - 'आप जा कर डी.सी. से मिलो जी। उसे बताओ कि हम तो यहाँ रहते हैं। दफ्तर
हमारा है कि डी.सी. के बाप का? डरपोक हो आप तो। ही ही ही...'
बुद्धू जैसे-तैसे दिन काटने लगा, पर शहर में एक अजीब सी घटना घट गई और सब कुछ जैसे थम सा गया। बुद्धू एक दिन जाट कॉलेज के बाहर जाती सड़क से घर वापस लौट रहा था
कि वहाँ एक अफवाह फैली हुई थी।
'वहाँ डी.सी. के कुछ लोग खड़े हैं, नौजवान लड़कों को रोक रहे हैं और जिन्होंने भी बेल बॉटम की पैंटें पहन रखी हैं, उन्हें झापड़ रसीद करके घर भेज रहे हैं कि ठीक से
कपड़े पहनकर आओ,' लोग एक-दूसरे को बता रहे थे। जाट कॉलेज के बाहर वाली सड़क के किनारे तमाशाइयों की भीड़ सी लग गई थी। जाट कॉलेज के लड़के सबसे ज्यादा थे। कोई एक और
अफवाह ले बैठा - 'जो लड़कियाँ कट स्लीवज के कुर्ते या ब्लाउज पहन रही हैं न, उन्हें भी डाँट-डपट कर घर भेज रहा है डी.सी...'
'डी. सी. भेज रहा है क्या? वो खुद कैसे यह सब करेगा?'
डी. सी. वो... चौराहे पर खड़ा है, कह रहे हैं सब। तुझे तो कुछ पता नहीं।'
बेल बॉटम या कट स्लीवज वाली बात में कुछ था ही नहीं पर लोग किसी तमाशे के इंतजार में बेसब्री से खड़े थे काफी देर, कि कुछ हो तो सही। कुछ बुद्धू जैसे भी वहाँ आ
कर जिज्ञासावश खड़े हो गए थे कि देखें, 'क्या कुछ हो रहा है इस शहर में? तभी अचानक थोड़ी ही दूर बड़ी खलबली सी मचने लगी। कुछ भगदड़ मच गई। लोग सबके सब उधर भागने
लगे। उधर हुआ यह था कि एक फोटोग्राफर की दुकान थी जिस पर बोर्ड लगा था 'आठ रुपये में तीन कॉपी फोटो'। एक लड़की आई और बोली - 'भैया, ये लो रसीद, मेरी दीदी कल फोटो
खिंचवा कर गई थी।'
'तैयार है,' फोटोग्राफर फुर्ती से बोला और एक छोटा सा लिफाफा टेबल के दराज से निकालकर आगे बढ़ाता बोला - 'ये लो। इसमें तीन फोटो हैं।'
लड़की ने दस का एक नोट बढ़ाया पर लड़की हैरान थी कि फोटोग्राफर ने वापस किया सिर्फ एक रुपया! बड़ी होशियार थी, बोली - 'क्यों भैया, तीन कॉपी के तो आठ रुपये हैं ना।
दीदी ने भी कहा था। आप एक रुपया और दो।'
'तीन कॉपी के नौ ही बनते हैं यहाँ,' फोटोग्राफर कुछ अकड़ता सा बोल पड़ा।
यह बोर्ड जो लगा है, लिखा है न, आठ रुपये की तीन कॉपी!...
'बोर्ड पर लिखा रहने दे। नौ ही बनते हैं। तुझे लेना है ले नहीं तो ये ले,' फोटोग्राफर ने क्या किया कि लड़की से फोटो का वह लिफाफा झटके से खींच लिया और दस का नोट
उसे जबरदस्ती पकड़ा दिया - 'ला, वो एक रुपया भी मुझे दे दे।' फिर उस ने एक रुपया झपटकर लड़की का मुँह फेर कर सड़क की तरफ कर दिया और उसे बाहर की तरफ धकेल सा दिया,
बस, यहीं से फोटोग्राफर की जिंदगी बदलने लगी। डी.सी. के पोलिसवाले आम कपड़ों में आस-पास खड़े थे। फोटोग्राफर को पकड़कर बाहर घसीट लाए। बुद्धू पहुँचा तो फोटोग्राफर
को घसीटा जा रहा था और उसे हैरानी हुई यह सब देखकर। वह समझा लड़की को छेड़ा-वेड़ा है पर उसे किसी से बात पता चल गई। आगे हुआ यह कि उस फोटोग्राफर को पोलिस की जीप पर
खड़ा कर दिया गया। भीड़ सारी वहीं की वहीं आ गई। बेल बॉटम वाली बात सब भूल गए। कट स्लीवज वाली भी। पर सब ने देखा कि एक पोलिसवाले ने फोटोग्राफर का मुँह ही काला कर
दिया है। जीप में कहीं उसे बीचो-बीच खड़ाकर दिया गया और जीप आगे बढ़ने लगी है। किसी ने कहा - 'वो देखो, डी.सी. भी साला चौराहे पर खड़ा है। लम्म्बा सा!' डी. सी.
वहाँ अकेला-सकेला खड़ा था और कुछ क्षण को पूरी भीड़ का फोकस डी.सी. पर हो गया क्योंकि लोगों ने अब तक उसे कभी देखा ही नहीं था। डी.सी. भी वहाँ ऐसे खड़ा था जैसे उसे
चौराहे को सूँघना हो केवल और बहुत विचित्र तरीके से वह अपने नजदीक से गुजरते लोगों को देख रहा था, जैसे सबसे कह रहा हो - 'क्या करूँ लाचारी है!'
जीप के पीछे-पीछे लोगों का एक अचंभित हुजूम सा। सबके मन में थोड़ी-थोड़ी कँपकँपी सी हुई कि यह सब क्या हो रहा है। ऐसा तो कभी देखा न सुना। बुद्धू को लग रहा था इस
सिस्टम को शुरू से ही ठीक ढंग से चलाने के संस्कार तो पड़े नहीं, कोई अचानक डी.सी.-वी.सी. पैदा होता है और अनर्थ कर देता है। इतने बर्बर तरीके से भी क्या कानून
लागू किया जाता है कभी? जीप आगे बढ़ती है और लोगों की धुकधुकी भी बढ़ती जाती है। पर इस बीच क्या होता है कि वह जवान फोटोग्राफर अचानक मानसिक संतुलन खो कर पागल हो
जाता है।
इतने घोर अपमान को वह सहन नहीं कर पाता और दिमाग पर कहीं असर सा पड़ जाता है उसके! वह अजीब सी हरकतें करने लगा फिर भागने सा लगा। अपने सर को भी उसने पीटना शुरूकर
दिया बीच में! एक जाट विद्यार्थी ने आगे बढ़कर एक आम कपड़ों वाले पोलिसमैन का कॉलर पकड़ लिया और भीड़ काबू से बाहर हो गई। जीप पर हमला हो गया। इससे पहले कोई
फोटोग्राफर की वृद्धा माँ को बुला लाया जो चौराहे पर आ गई और उसने दूर से ही सब कुछ भाँप कर चौराहे पर खड़े डी.सी. के अचानक बाल पकड़ लिए। इधर फोटोग्राफर को
सुरक्षित बाहर निकाला गया और नजदीक ही एक डॉक्टर अपनी दुकान से दौड़ा आया। फोटोग्राफर को वहाँ से ले गए सब। खूब गालियाँ भी उछली और जीप पर पथराव होने लगा। उस
वृद्धा की हथेलियाँ मजबूत थी और बड़ी मुस्तैदी से वह डी.सी. को सिर पर भारी भरकम हाथ मारे जा रही थी। पोलिस वाले कुछ जख्मी हो गए, कुछ जान बचाकर भाग गए या अपने
आम कपड़ों का फायदा उठाकर वहीं लोगों में शामिल होकर डी.सी. को ही गालियाँ बकने लगे। बुद्धू को लगा हमारा कानून सचमुच दिशाहीन सा है। किसी सोए हुए शेर का सा है
वह। कभी कुछ करता ही नहीं पर जब करता है तो इस जालिम तरीके से कि मय कानून के मुजरिम की ही हत्या हो जाए। कायदे कानून का लागू होना भी किसी प्रकार से मानवीय या
संवैधानिक तरीके से हो ही नहीं पाता। जनता जब तक खुद को खुद ही कानून की पैरवी करने वाली नहीं बनाएगी तब तक सिस्टम को कानून एक मिलीमीटर के फासले जितना भी हिला
डुला नहीं सकता।
कानून को अपने भीतर आत्मसात करने की वृत्ति-प्रवृत्ति तो कहीं जागी नहीं। बुद्धू की मनःस्थिति खराब हो गई। उसे दोपहर का खाना-खाना था, पर उसका मन नहीं किया और
कमरे में बिना कुछ खाए पिये जा कर सो गया। अगली सुबह नफे सिंह कह रहा था - 'कल्ल मैंने सुना बाजार में कुछ हो गया जी। आप थे वहाँ?'
'कुछ नहीं।' नफे सिंह तमाशाई तरीके से बात करता है, सो बुद्धू चुपचाप आ कर अपनी सीट पर बैठा और काम करने लगा। कुछ पत्र आए हुए थे और उनके जवाब लिखने लगा बुद्धू।
फिर इंस्ट्रुमेंट वाले कमरे में चुपचाप जा कर काम करता रहा।
बुद्धू के ऑफिस से एक पत्र आया और रेलवे की बिल्टी आई। एक पार्सल दिल्ली से आया हुआ था जो उसे रेलवे से छुड़वा कर यहाँ मँगाना था। पार्सल में कुछ रसायन थे। नफे
सिंह ने बिल्टी पढ़ी और पत्र भी पढ़ लिया। पर बुद्धू से बोला - 'ये तो अब लाने में एक हफ्ता लगेगा जी!'
'क्यों? एक हफ्ता किस बात का? नजदीक ही तो स्टेशन है, जा कर रिक्शा में उठवा लाओ। यह आपका ही तो काम है!'
'काम तो मेरा ही है जी, यह तो मैं भी जानता हूँ। आप मुझे क्यों बताते हो? पर कुछ दिन बाद आने पे कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा जी?'
नफे सिंह की पत्नी चली आई। यहाँ बुद्धू को पता नहीं चलता कि दफ्तर चला कौन रहा है, या कितने लोग इस दफ्तर के इंचार्ज हैं। नफे सिंह और उसकी पत्नी तो हैं ही, पर
उसका जो साढ़े तीन साल का बेटा है, वह भी कभी-कभी एक लिफाफा बाहर आए डाकिए से लेकर धीरे-धीरे चलता आता है और बुद्धू को पकड़ाता कहता है - 'पापा बाहर खड़े हैं। अभी
रखो इसे। वो बता देंगे।' नफे सिंह की पत्नी को खीं-खीं करके बेटे की ऐसी हरकतों पर हँसी आती रहती है। 'अभी स्कूल तो जाता नहीं, कुछ ही महीनों में जाएगा मेरा
राजा बेटा! अभी तो छोटा है ना!' वह बड़े गर्व से कहती। आज पार्सल की बात पर नफे सिंह की पत्नी आ कर बोली - 'आप देख रहे हो ना, हल्की-हल्की बारिश भी शुरू हो गई
है। यहाँ क्या दफ्तर में कोई छाता धरा रखा है हमारे लिए?'
'छाता इंस्ट्रुमेंट वाले कमरे में रखा तो हुआ है। दफ्तर का ही है। चार्ज में धवन ने दिया था ना।'
'व्वो बहुत पुराना है जी। अब नया छाता माँगवाओ आप, मैं ऐसे नहीं जाता।'
बाहर सिर्फ हल्की सी बूँदा-बाँदी हो रही थी। बुद्धू को आया गुस्सा, वह दफ्तर से निकल गया। जाते-जाते बोल गया - 'मैं उठवा लाता हूँ। आप बैठो बस।'
'सुनो साहब, यह पार्सल ऐसे थोड़ेई छूटेगा। उसकी चुंगी माफ करानी पड़ेगी।'
'मतलब?' बुद्धू को यह चुंगी माफ वाली बात पता नहीं थी। नफे सिंह ने उसे बताया कि पार्सल की चुंगी भरनी पड़ती है। काफी बड़ा पार्सल लगता है। पता नहीं कितनी चुंगी
बनती है हिसाब से? आपको एक ऐप्लीकेशन देनी पड़ेगी कि यह पार्सल सरकारी है, सो चुंगी माफ हो।'
बुद्धू फिलहाल आ कर टेबल पर एक ऐप्लीकेशन लिखने लगा और नफे सिंह उससे बोला - 'मैं तो कहता हूँ जी आप भी जाओ मत। थोड़े दिन बाद देख लेंगे। आप उस तरफ तो रहते ही
हो। आते-आते उठवा लाना आप।' तब तक उसकी पत्नी अपनी दोनों कोहनियाँ मेज पर टिकाए और आपस में लॉक की हुई हथेलियों पर अपनी ठुड्डी टिकाए बड़े अजीब ढंग से टेढ़ी सी
खड़ी रही और दोनों होंठों को भींच कर जाने कैसे अपनी खीं-खीं को बंद किए रही वह। बुद्धू ने ऐप्लीकेशन बना ली तो नफे सिंह बोला - 'अब जहाँ आपने हस्ताक्षर किए हैं
वहाँ ऑफिस का ठप्पा लगाइए और फाइल में रख दीजिए। कल-परसों देखेंगे।'
बुद्धू लेकिन ठप्पा लगाकर निकल गया। बाहर बूँद-बाँदी थोड़ी बढ़ रही थी सो उसने एक रिक्शा कर लिया और मनःस्थिति कुछ ऐसी कि इंस्ट्रूमेंट्स के कमरे से छाता भी लेना
भूल गया बुद्धू। उसका रिक्शा आगे बढ़ा तो लगा जैसे कोई औरत गेट पर यूँ ही तमाशा देखने आ खड़ी हुई थी। उसने अब फिर ब्लाउज पर एक लंबा सा तौलिया लगा लिया था जो उसके
सिर को भी ढककर दो काम, एक साथ कर ले। एक तो वह उसके सिर को बारिश की बूँदों से बचा रहा था और दूसरा कि यदि इत्तिफाक से चौधरी रिसाल सिंह बाहर नजर आए तो उनकी
उपस्थिति में भी सिर ढका रहना जरूरी है ना! रिक्शे के दूर जाते-जाते बुद्धू को लगा जैसे उसी खीं-खीं वाली औरत की निगाहें अकारण उसका पीछा कर रही हैं!
बुद्धू का रिक्शा उसी रेलवे के फाटक पर खड़ा फाटक खुलने का इंतजार कर रहा था। फिर एक लाइन सी लग गई थी रिक्शों, टेम्पों की और एकाध बैल गाड़ियों की।
फाटक खुल गया और बुद्धू का रिक्शा हल्की-हल्की बारिश में आ कर चुंगी दफ्तर के सामने रुका। रिक्शे वाले को दो रुपये देकर बुद्धू चुंगी दफ्तर में अंदर चला गया तो
एक आदमी बड़े अजीब ढंग से कुर्सी पर आराम सा कर रहा था और एक अखबार उसके चेहरे को ढके था। उसकी एक टाँग का घुटना ऊपर टेबल के किनारे टिका हुआ था और पैर अजीब
तरीके से एक तरफ लटका हुआ था। उसके कुर्ते का नीचे का किनारा भी कुछ ऐसे ऊपर उठ गया था कि एक जगह भद्दा सा नजारा पेश कर रहा था। उसे कोई होश ही नहीं था कि अचानक
कोई आ खड़ा हुआ है। पर बुद्धू ने उस आदमी को सीधा बिठा दिया, टेबल पर जोर-जोर से ठक-ठक कर-कर के। बुद्धू पार्सल का वह कागज उसकी आँखों के नजदीक ले जा कर 'अच्छी
तरह' दिखाते हुए बोला - 'यह पार्सल आया है हमारे दफ्तर के नाम। सरकारी पार्सल है सो इसकी चुंगी माफ करा दीजिए।'
आदमी बड़ी मुश्किल से बात समझ पाया। पर फिर बोला - 'बैठो, यहाँ एक लिस्ट लगी है जिसमें जिन दफ्तरों की चुंगी माफ होती है, उनके नाम लिखे हैं। आप देखो आपके ऑफिस
का नाम है?'
बुद्धू ने कहा - 'यह मेरी ऐप्लीकेशन है, अब यह देखना आपका काम है कि यह दफ्तर चुंगी माफ में आता है कि नहीं।'
आदमी ने देखा आगंतुक कुछ संकल्पबद्ध सा लग रहा है जो उसे चैन से बैठने नहीं देगा। सो उठकर एक दीवार में लगी लिस्ट पढ़ने लगा। वहीं से चिल्लाकर बोला - 'इसमें तो
यह ऑफिस है ही नहीं जी?'
'हमारे पार्सल आते रहते हैं। आप अपना रिकॉर्ड देखिए,' बुद्धू जानता है कि ऑफिस के अंदर हर पुराने मामले के रिकॉर्ड होते हैं। उसने खुद ही जब दसुआ में और यहाँ
नौकरी ज्वाइन की तो पुरानी फाइलें खोज-खोज कर सब पत्र करीने से लगा दिए थे। पर वह आदमी बोला - 'मैं अभी आता हूँ सा'ब। यहीं नगर निगम ऑफिस है ना, वहाँ एक गजेट
रखा हुआ है, उसमें स...ब दफ्तर होंगे...'
जब निकम्मा आदमी काम की बात भी करता है तो बनावटी सा लगता है। फिलहाल बुद्धू के पास वहाँ बैठकर इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। बुद्धू बैठा रहा और वह
आदमी चला गया। बहुत देर तक तो वह आया नहीं और बुद्धू उसकी खोज में नगर निगम ऑफिस चला गया। उस दफ्तर के गलियारे में वह कमरे-कमरे झाँकने लगा कि वह निकम्मा शख्स
आखिर गया कहाँ? पर एक कमरे के दरवाजे से अंदर नजर पड़ी तो वह आदमी उसी ढंग से वहाँ भी एक कुर्सी पर बैठा था और उसका घुटना ऊपर टेबल पर कहीं कोने में फिट था। उसका
मैला सा कुर्ता शायद आदतन ही टेढ़ा-मेढा हो जाता है और पाजामे के बाहर एक भद्दी सी शेप बन जाती है। इस समय भी वह वहीं पर अपना हाथ उतने ही भद्दे तरीके से
ऊपर-नीचे किए जा रहा था।
उसके चेहरे में नजरें गाड़ कर बुद्धू बोला - 'हो गया?'
हो गया यह आपके दफ्तर का नाम लिखा है।' उसे गजेट दिखाकर वह उस कमरे में तैनात एक सीनियर की तरफ देखने लगा जिस से वह अब तक बतिया रहा था।
'अब चलिए चलकर ठप्पा लगाइए कि चुंगी माफ हो!'
ठीक है चलता हूँ,' वह ऐसे उठा जैसे चमड़ी छीलकर अपने आपको कुर्सी से अलग कर रहा हो।
बहरहाल जब तक बुद्धू रेलवे की बिल्टी पे चुंगी माफ का आदेश, ठप्पा और हस्ताक्षर लेकर बाहर निकले तब तक बारिश बढ़ सी रही थी, पर वह एक रिक्शे में फिर जल्दी से इधर
स्टेशन के बाहर तक आ गया और प्लेटफार्म नं. वन के अंदर घुस गया। पार्सल के कमरे में उसे अधिक देर न लगी। एक भारी सा खोखा निकलवाकर जब वह जरा बाहर का जायजा लेने
आ गया तो हैरान था। बहुत तेज-तेज बारिश हो रही थी, बारिश की तूफानी आवाज का एक सैलाब सा था। बुद्धू वहीं पार्सल रूम में बैठ गया पर वहाँ की जाली से बाहर देखा तो
कई रिक्शे मूसलाधार बारिश में भीग रहे थे और ऐसे लग रहे थे जैसे घोर तूफान में बहुत सी नौकाएँ खड़ी हो। पर बुद्धू ने देखा सबके-सब रिक्शे वाले वहाँ से नदारद थे
पर एक रिक्शे वाला जो अँगोछे के रंग का कोई कच्छा पहने था वह अपने रिक्शे की सीट पर बैठा जोर-जोर से मस्ती में पैडल को उल्टा घुमाए जा रहा है। बारिश की धारियाँ
उसकी नंगी पीठ पर रेंग रही हैं और वह जैसे अपने साथ ही खिलखिलाता कुदरत के इस खेल का मजा ले रहा है और मसखरी में गुम सा है। ना जाने क्यों? बुद्धू को उस रिक्शे
वाले में अजीब विशिष्टता सी लगी और उसे प्रेरणा सी मिली। वह पार्सल को पार्सल रूम में ही रखे, तेजी से प्लेटफार्म के बाहर तक आया और चिल्लाया - 'अरे ये, चलोगे
क्या?'
'चल पड़ेंगे सा'ब क्यों ना चलेंगे?' वह ऐसे बोला जैसे परिस्थिति एकदम सामान्य सी हो, और कि 'हम यहाँ आखिर हैं किस मर्ज की दवा'। बुद्धू उसी रिक्शे वाले को पार्सल
रूम तक ले आया और उसी की मदद से पार्सल उठवा कर उसने रिक्शे में डलवा दिया। रिक्शा चले इससे पहले बुद्धू उससे बोला - 'अरे कोई कमीज-वमीज तो पहन लो ना यार...'
रिक्शे वाला 'यार' शब्द की आत्मीयता से थोड़ा प्रसन्न भी हुआ। पर फिर बोला - 'कमीज तो पूरी तरह भीग गई थी बाऊजी। ये लो।' कहकर उसने बुद्धू को क्षण-भर नीचे खड़ा
किया और सीट को ही उखाड़ कर अलग कर दिया। बुद्धू कैसे भी अपनी गर्दन और पीठ रिक्शे के अंदर कहीं छुपाकर खड़ा रहा? रिक्शे वाले ने अंदर से एक कमीज निकाली जो पानी
निचोड़े जाने के बाद एक मोटी रस्सी की तरह मुड़ी-तुड़ी सी अंदर पड़ी थी। उसने कमीज को एक बार और कसकर बुरी तरह से निचोड़ दिया। फिर उसे छाँड़ते हुए दो-चार झटके देकर
खोल ली और गीली ही पहनकर अपना बदन ढक दिया। कमीज सचमुच इतनी लंबी थी और किसी पहलवान से ली हुई लगती थी कि उसके घुटनों तक पहुँच उसका पूरा कच्छा ढक दिया था उसने।
फिर बुद्धू ने पूछा - 'कोई छाता-वाता नहीं है क्या? कंधे पर टिकाकर धीरे-धीरे चल पड़ना!' इस पर रिक्शे वाले ने सीट के कोने से ही लपेटकर तह लगाकर रखा एक
चद्दरनुमा, रब्बर का रेनकोट उठा लिया और अपनी पीठ पर ऐसे फैला दिया कि उसका सिर भी ढक गया और वह पीछे से किसी बर्फीले प्रदेश से आया कोई एस्किमो-वेस्किमो लग रहा
था। बुद्धू को सचमुच, यह शख्स कुछ विशिष्ट सा लगा।
रिक्शा ऐसे चल पड़ा जैसे तूफानी नदी में कोई डगमगाती नाव हो। रेलवे फाटक पर कोई नहीं था और बुद्धू का रिक्शा डगमगाता सा आ कर हिंदू कॉलेज पार करके जाट कॉलेज तक
पहुँचा। बुद्धू को यूँ ही ख्याल आया कि वह अगर डी. सी. होता तो सबको पहले तो काम से लगाव रखना सिखाता। काम होता क्या है? कितना प्यारा होता है काम? यह सब पूरे
सिस्टम को सिखाने की कोशिश करता, पर अगले ही क्षण उसे यह सब व्यर्थ सा लगने लगा और लगा कि ऐसे खयालों को सिस्टम बचकाना साबित करते देर नहीं करता। यहाँ कोई भी
प्रवचन देने से नहीं बदलता। पता नहीं क्या बात है? यहाँ कल्चर कुछ ऐसा ही है कि लोग अपना निजी काम तो खूब करते हैं, पर ऑफिस का काम वे कतई करना ही नहीं चाहते।
बुद्धू का रिक्शा कैसे भी दोनों कॉलेज पार करके कचहरी होता हुआ आ कर देवनगर बुद्धू के ऑफिस पहुँचा? बीच में एक जगह जमीन कुछ ऊबड़-खाबड़ सी थी और एक मोड़ भी था।
रिक्शे वाला उतर कर रिक्शे को जोर लगाकर खींचने लगा। कुछ क्षण तो उसने रेनकोट उतार कर बुद्धू को ही थमा दिया। उसका पूरा शरीर तो पहले से ही पानी में नर्म सा हो
चुका था। और वह बीच-बीच में पानी की धाराओं से संघर्ष सा करता अपनी हथेली से अपना चेहरा पोंछ देता। किसी प्रकार उस मुश्किल के भँवर से वह निकल आया।
इस शख्स की शख्सियत में एक अजब मस्ती सी घुली-मिली है जिसकी ताकत से वह कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में जा सकता है शायद, बुद्धू को लगा? वह लापरवाह सा सीट पर
बैठ गया तो अचानक आसमान में बिजली जोर-जोर से कौंधी जैसे आसमान ने उस लापरवाह लड़के को शाबासी दे दी हो! बुद्धू ने आगे झुककर फिर उसका रेनकोट उसके बदन के गिर्द
फैला दिया। बुद्धू की पैंट पर रिक्शे के अंदर ही पानी की टप-टप शुरू से जारी रही थी और पैंट के पहुँचों के अलावा पीछे उसकी गर्दन से पानी की धाराएँ रेंगती हुई
उसकी शर्ट के अंदर गुदगुदाती हुई चींटियों सी प्रवेश करती रहीं क्योंकि रिक्शे की छत कहीं एक सूराख से लगातार टपकती रही थी। शुक्र कि पार्सल अच्छी तरह वाटरप्रूफ
बनाकर पैक किया हुआ था। रिक्शा आखिर आ कर उसके दफ्तर के बाहर पहुँचा तो तसल्ली सी हुई उसे। पर बुद्धू को कहीं से खिलखिलाहट सी सुनाई दी। उसने देखा सतपाल सिंह के
घर में बाहरी कमरे की खिड़की की जो जाली है, उसमें से उस तरफ तीन चेहरे चिपके नजर आ रहे हैं और सबसे बड़ा चेहरा खिलखिला रहा है। यह छोटा चेहरा तो नफे सिंह का छोटा
मुन्ना है और उसके साथ नफे सिंह का बड़ा बेटा। नफे सिंह की पत्नी फुर्सत पाकर अब ठीक से बढ़िया साड़ी-वाड़ी पहनकर ताजगी की तस्वीर सी बनकर बच्चों समेत यहाँ सतपाल
सिंह के घर आ धमकी थी और जाली के पीछे से बच्चों को गली में पड़ती बारिश दिखाकर उनको भी मानो खिलखिलाहट की ट्रेनिंग दिए जा रही थी। फिलहाल तो बुद्धू को भी
बेसाख्ता हँसी आ गई, उसने सोचा नफे सिंह का परिवार बढ़ रहा है और देखते-देखते ये चारों खूब बड़े हो जाएँगे। इस देश पर राज करेंगे ऐसे लोग। पर बुद्धू ने ऐसा विचार
तुरंत ही झटक दिया और रिक्शे वाले को अच्छा-भला इनाम देकर पार्सल किसी प्रकार दफ्तर में रखवा कर चैन लिया।
कुछ ही देर बाद वह ताजगी की तस्वीर आई। एकदम सामने की कुर्सी पर आ कर ऐसे बैठ गई जैसे अब उसे दफ्तर में बैठना और अच्छे स्तर की महिला की तरह बात करना भी आता है।
हाथ की मुट्ठी को अब भी उसने अपनी ठुड्डी के लिए एक छोटी टेबल सी बना लिया। उसकी कोहनी मेज पर मजबूती से खुपी हुई थी। पर फिर उसे अचानक कुछ याद आया, एक तौलिया
ला कर यथावत बैठ गई और बोली - 'ये लीजिए, तौलिया। अरे भीग गए आप तो। मना तो किया था आपको, कि आज जाने की क्या जिद है? आ जाता पार्सल। पर ले आए तो ठीक ही किया
ना?'
'नफे सिंह कहाँ है?' बुद्धू ने पूछा क्योंकि उसे न जाने क्यों, यहाँ इन लोगों की आत्मीयता कुछ अच्छी नहीं लगती?
'वो आते होंगे। उधर... चौधरी सा'ब के यहाँ हैं। उनके कुत्ते को एक डॉक्टर इंजेक्शन लगाने आया था। तब तक बारिश पड़ गई। वो डॉक्टर को चौधरी सा'ब की कार में छोड़ने
गए हैं... आपने चौधरी सा'ब की कार देखी है? वो पीछे की तरफ गैरेज में ही तो खड़ी रहती है!'
'कार चलाता कौन है?' बुद्धू को बड़ी जिज्ञासा सी हुई।
उनके ड्राइवर है न। यहीं-कहीं रहता है। जब मर्जी बुला लो!'
'तो नफे सिंह क्यों गया? ड्राइवर छोड़ आता?'
वो...' थोड़ा हिचकिचा सी गई अचानक वह, क्योंकि उसे भी कहीं विवेक सा कचोटने लगा कि अगर नफे सिंह वहाँ जा सकता था तो पार्सल लेने क्यों नहीं?
'फर्रो के लिए मीट भी लाना था ना। चौधरी सा'ब ने अपना रेनकोट भी दे दिया इनको, एक छाता भी। ही ही...' आखिर वह खीं-खीं के बिना न रह सकी।
जाट कॉलेज के हॉस्टल में बुद्धू चुपचाप बैठा खाना खा रहा होता। उसे अक्सर पहले दिन वाली बात ही महसूस होती कि वह तो इस जगह खाना-खाना ही नहीं चाहता पर जैसे वह
रिसाल सिंह की बात की इज्जत रखने के लिए यहाँ खाना-खाता है। बड़े लोगों के अहसान के दबाव में आना भी कभी-कभी परिस्थितिवश हो ही जाता है। कहीं बड़े लोग अपना अपमान
न समझें। वहाँ कभी-कभी जाट कॉलेज के लड़के आपस में झुंड सा बनाकर गप्पें मार रहे होते और किसी बात पर अचानक कोई बुरी तरह चीख पड़ता तो पूरे मेस में सनसनी सी फैल
जाती। बुद्धू को लगता जैसे यह सब उसे डराने के लिए किया जा रहा है। पर फिर वह उसे यहाँ का रुटीन लगता। कभी क्या होता कि खड़े हुए लड़कों के एक ग्रुप में अचानक एक
जना दूसरे के पीछे खड़ा किसी प्रकार उसकी पीठ पर बड़े भद्दे तरीके से सवार सा हो जाता और लंगूर की तरह चिपक जाता, फिर आगे पीछे झटके देता बड़ी अश्लील सी हरकतें
करता।
बाकी लड़के खिलखिलाते-खिलखिलाते पागल होने लगते। मेस का मालिक फुर्सत पाकर अपनी तंदूर के पास ही लुंगी कमीज में उकड़ू बैठा बीड़ी सुड़कता इस तरफ देख रहा होता और खुश
सा हो रहा होता। किसी-किसी क्षण बुद्धू को देख भी लेता जैसे उसे बता रहा हो कि 'यहाँ तो यही सब होता रहेगा जी। लड़के देख लो ये...'
एक दिन क्या हुआ कि एक जाट विद्यार्थी ने आखिर बुद्धू से पूछ लिया - 'आप कहाँ से आए हो? यहाँ खाना क्यों खाते हो?'
'चौधरी रिसाल सिंह का आदमी हूँ,' बुद्धू ने कुछ अकड़ कर कहा।
'रिसाल सिंह के हो या किसी के भी, यहाँ खाना-खाने की जरूरत क्या है?' कहकर उस जाट लड़के ने बुद्धू को धक्का सा दे दिया। बुद्धू चुपचाप गम खाकर तेजी से चलता हुआ
मेस से निकला और हॉस्टल से भी बाहर आ गया। पर अगले दिन नफे सिंह तमाशाई तरीके से बोलता हुआ कह रहा था - 'आपको कल्ल किसी ने कहा क्या कुछ?'
'मतलब?' बुद्धू ने अनजान सा बनते पूछा।
मतलब किसी लड़के ने मेस में आपको डराया क्या? मैं अभी सीधा करता हूँ उस को।'
'आपको कैसे पता?'
पता चल जाता है जी यहाँ सब कुछ। किसी लड़के ने बताया।'
नफे सिंह की पत्नी बोली - 'जिस लड़के ने आपको डराया ना, उसे यहाँ सब 'ताँगेवाला' कहते हैं। ही ही,' पर ऐसा लगा कि अब की वह हँसी दबा गई। बुद्धू के सामने थोड़े ही
दिन में एक राज खुलने सा लगा। कुछ दिन बाद वह हॉस्टल के बाहर वाली ही सड़क पर यूँ ही टहलता हुआ कहीं जा रहा था कि 'ताँगेवाले' ने अचानक चीखकर उसे अपनी तरफ
बुलाया। वह हॉस्टल के बाहर ही खड़ा था और आस-पास थोड़े चमचे भी खड़े थे उसके। 'ताँगेवाले' तक बुद्धू पहुँचा तो उसने बुद्धू का कॉलर पकड़ लिया और घसीटता हुआ हॉस्टल
के एक कमरे में ले गया। बुद्धू के लिए सब कुछ अप्रत्याशित था। ऐसा होगा उसके साथ, यह तो उसने सपना भी नहीं देखा था। 'ताँगेवाले' ने उससे कहा - 'तुम नफे सिंह को
तंग करते हो?'
अब बुद्धू को लगा कि सचमुच यह नफे सिंह की ही शरारत है। नफे सिंह को लगता होगा कि बुद्धू एक ना एक दिन उसकी शिकायत करके ही रहेगा, सो वह पहले ही मुझे डराना
चाहता है। पर बुद्धू थोड़ा अकड़ कर बोला - 'आप मेरे और नफे सिंह की बातों में पड़ने वाले कौन होते हो?'
बुद्धू का ऐसा कहना था कि 'ताँगेवाले' ने दो-चार तमाचे बुद्धू के गालों पर इधर-उधर जड़ दिए - 'मुझसे पंगा लेते हो? जिंदा गाड़ दूँगा।' बुद्धू हतप्रभ था पर वह
गर्दन झुकाए अपमान के इतने गरल को पीता सा जमीन की तरफ देखने लगा जिसमें उसे गाड़ दिया जाएगा, उसने अगर पंगा लिया तो। उसे आभास हुआ कि उसकी आँखें अचानक रोने लगी
हैं, गला रुँध सा गया है। उसे नफे सिंह की गुंडई सी लगती तस्वीर कल्पना में दिखने लगी और उसके बोलने का अंदाज। बुद्धू रुँधे गले से भी हिम्मत बटोर कर बोला -
'मैं...' और ताँगेवाले ने एक और झापड़ उसे डर दिखाने भर को दिखा दिया, मारा नहीं।
'नफे सिंह वहाँ ऑफिस में ही रहेगा समझे!' 'ताँगेवाला' फिर चिल्लाया। 'उसकी शिकायत करने का सपना भी देखा तो तुझे यहीं पकड़कर ले आऊँगा।' बुद्धू को आभास हुआ जैसे
इस बदमाश के जो चमचे बाहर उसके साथ खड़े थे, वे भी दरवाजे के आस-पास गुमसुम से होने का ड्रामा करते भीतर हो रही घटना से ही जुड़े हैं। बुद्धू चुपचाप चला आया पर
आने वाले कई दिन वह अपमान का गरल पिए चुपचाप सा आता जाता रहा। नफे सिंह ने इस बीच क्या किया था कि पत्नी और बच्चों को फिलहाल गाँव भेज दिया था। नफे सिंह से
बुद्धू ने जिक्र नहीं किया कि क्या हुआ था पर एक दिन नफे सिंह इंस्ट्रुमेंट के पास काम करते-करते बुद्धू से बोला - 'आपको किसी ने कहा क्या कुछ?'
'शट अप। ज्यादा बोलना मत नफे सिंह। ज्यादा चालाक मत बनो। चुपचाप काम करते रहो अपना।' बुद्धू की कई दिन की अंदर छुपी घुटन सहसा गुस्से के रूप में बाहर आ गई।
नफे सिंह बोला - 'मैं तो जी आपको बचाने वालों में से हूँ। ये लड़के बदमाश हैं सब।'
'बको मत।' और बुद्धू वहाँ से निकल गया। उसने हेडक्वार्टर के लिए एक टेलीग्राम बनाया कि उसे नफे सिंह ने यहाँ के किसी स्थानीय गुंडे से पिटवाया है। नफे सिंह बुत
सा बना खड़ा रहा उसके सर पर। कुछ कहने से रहा नफे सिंह अब। पर बुद्धू ने खुद ही वह टेलीग्राम फाड़ दिया। नफे सिंह वहाँ से टल गया और बुद्धू ने एक और टेलीग्राम
बनाया कि उसे रिलीवर चाहिए। कुछ दिन की छुट्टी की जरूरत है उसे, यह उसने नफे सिंह को बताया नहीं। बुद्धू किसी को कुछ बताए बिना वह टेलीग्राम जेब में डालकर
चुपचाप बाहर निकल गया। कुछ ही देर बाद वापस आ कर काम करने लगा वह।
रिलीवर आ गया और बुद्धू कुछ दिन छुट्टी लेकर दिल्ली चला गया। दिल्ली आ कर वह इस बात पर तो निश्चित था कि अब वह रुकेगा नहीं। अब वह हेडक्वार्टर जा कर सब कुछ
बताकर ही रहेगा। हालाँकि वह चाहता तो नफे सिंह जैसे गुंडई व्यक्ति से ही अपने लिए शांति बटोर सकता था, उसे आश्वस्त करके कि वह मजे से सपरिवार दफ्तर में रहे और
इंचार्ज तो बस उसका एक सेवक भर है जी। पर इतने सारे अपमान की कड़वाहट कम से कम उसके लिए हज्म कर पाना संभव नहीं था। बुद्धू को किसी-किसी क्षण इस बात पर गर्व
अवश्य होता था कि वह एक बेहद ईमानदार व सिद्धांतप्रिय व्यक्ति है, पर उसे यह भी महसूस होता कि खुद को सिद्धांतप्रिय समझने का गुरूर कई बार दूसरों के मन में
दुश्मनी सी भी पैदा कर देता है!
बुद्धू हेडक्वार्टर पहुँच गया। उसने पिछली रात दिल्ली अपने घर में ही एक शिकायत लिखकर तैयार कर दी थी। टेबल लैंप की रोशनी में उसे लिखकर वह ध्यान से पढ़ने लगा तब
तक उसकी छोटी बहन अंजली खाना पूछने आई तो उसने शिकायत पर हस्ताक्षर किए और लैंप ऑफ करके खाना-खाने चला आया।
बुद्धू को एक बात को लेकर अंतर्द्वंद्व सा था कि वह सीधे डायरेक्टर की सीट पर जाएँ या सुब्रह्मण्यम की सीट पर। सुब्रह्मण्यम की सीट पर जाएँ बिना डायरेक्टर की
सीट पर जाना तो शायद संभव ना हो। पर सुब्रह्मण्यम के चैंबर में जाते-जाते उसे डर भी लगा कि धवन ने तो कहा था कि नफे सिंह को यहाँ रहने के लिए सुब्रह्मण्यम ही एक
दिन छोड़कर गया था! पर बुद्धू ने सोचा वह बहुत पुरानी बात हो गई होगी। सुब्रह्मण्यम का बेटा तो कब का पढ़ाई पूरी करके अब कहीं नौकरी-वौकरी जा लगा है। अब
सुब्रह्मण्यम उस बात का लिहाज रखे ना रखे और वह यहाँ हेडक्वार्टर में कैसे बताएगा कि नफे सिंह इतना अर्सा उसी की मेहरबानी से दफ्तर के मजे करता रहा। खुद को ऐसी
चंद बातें समझाता फुसलाता बुद्धू चुपचाप सुब्रह्मण्यम के चैंबर में चला ही गया। उसे देख सुब्रह्मण्यम अचानक खुशी से मुस्करा सा दिया और कहा - 'हेलो समर्थ कैसे
हो तुम? छुट्टी की जरूरत पड़ गई थी ना?'
'एस सर।' कहकर बुद्धू ने ना हम देखी ना तम, बस अपनी ऐप्लीकेशन सुब्रह्मण्यम के सामने रख दी। सुब्रह्मण्यम के चेहरे पर बुद्धू को अचानक देखने की खुशी बरकरार रही
और वह चुपचाप उसकी ऐप्लीकेशन पढ़ने लगा। शरीफ आदमी को देख सुब्रह्मण्यम अपने होंठों पर एक तीखी सी मुस्कराहट स्थिर कर रखता है जैसे शरीफ आदमी के प्रति उसके मन
में बहुत प्यार सा उमड़ रहा हो। ऐप्लीकेशन पढ़ने के दौरान भी सुब्रह्मण्यम के चेहरे पर वही खुशमिजाजी ज्यों की त्यों बरकरार रही पर फिर उसने सहसा ऐप्लीकेशन के
कागज से नजरें हटाकर बुद्धू के चेहरे पर टिका दी, फिर अचानक खड़ा होते ही बोला - 'यू कम विद मी टु डायरेक्टर नउ (अब आप मेरे साथ डायरेक्टर के पास चलिए)।'
डायरेक्टर कुछ देर पहले कोई भारी भरकम काम कर चुका था फिर चंद क्षणों के लिए वह निरर्थक सा दरवाजे की तरफ देख रहा था। इस बीच ये दोनों आ गए। डायरेक्टर को उस
क्षण मानो कुछ सोचने में भी थकावट सी महसूस हो रही थी। फिर भी वह सहसा एक नकली चुस्ती सी ओढ़ कर सुब्रह्मण्यम की तरफ देखने लगा। सुब्रह्मण्यम ने कहा - 'सर,
सोनीपत में एक नई सिचुएशन आ गई है। मि. समर्थ को एक गुंडे ने मारा है!'
डायरेक्टर कुछ चौंका - 'मि. समर्थ को मारा? ये तो बहुत शरीफ हैं!'
सुब्रह्मण्यम ने बहुत कड़क आवाज में बोलकर डायरेक्टर के अंदर चुस्ती पैदा कर दी। उसे सारी बात समझाते हुए बोला - 'ऐसे ऑफिस में कोई नहीं रह सकता सर। वह भी विद
फैमिली? हम एक्शन लेंगे सर। हमें तो हिमाचल के आउटस्टेशन का क्लास फोर कब से ऐप्लीकेशन पर ऐप्लीक्सेशन दिए जा रहा है कि मेरी दिल्ली ट्रांसफर कर दो। साल भर से
कोशिश में है वह।'
'दिल्ली नहीं तो दिल्ली के नजदीक सही। आप फौरन एक फाइल बनाइए और अभी प्रशासन में भेज दीजिए। सच ए परसन ऐज नफे सिंह शुड गो टु हेल फ्रॉम देयर (ऐसे नफे सिंह जैसे
आदमी को वहाँ से दफा हो जाना चाहिए।'
सुब्रह्मण्यम डायरेक्टर की जबान से ये शब्द सुनते ही तेज-तेज मशीन की तरह काम करने लगा। बेचारे समर्थ को मौका ही ना मिला कि वह सोनीपत की कुछ और बातें बता सके।
जब सुब्रह्मण्यम है तो डायरेक्टर जैसे साइंटिस्ट को सोचने की जरूरत ही क्या है यहाँ? यहाँ साइंटिस्ट मिजाज के बहुत डायरेक्टर हैं जो नहीं चाहते कि उनके काम के
अलावा भी उन्हें कोई काम करना पड़े। सो सुब्रह्मण्यम ने बुद्धू को साथ बिठाकर उसी समय एक तत्पर और स्मार्ट सी महिला स्टेनो अरविंदर से एक नोट तैयार करवाया और
बुद्धू की शिकायत नत्थी करके एक फाइल उसी के हाथों तत्क्षण डायरेक्टर की मेज पर भिजवा दी। वह चुस्त-दुरुस्त महिला स्टेनो ही डायरेक्टर से फौरन हस्ताक्षर भी करवा
लाई। डायरेक्टर आँखें मूँद कर थका सा लगभग सो रहा था, या चिंतन कर रहा था कुछ पता नहीं। फाइल देखते ही उसने हस्ताक्षर कर दिए और फाइल चल पड़ी प्रशासन अनुभाग।
सुब्रह्मण्यम ने भिजवाई थी आखिर, और उस पर 'अति तत्काल' का लेबल जो चिपका दिया था! इधर फाइल एक घोड़े की तरह दौड़ रही थी उधर बुद्धू 'ताँगेवाले' से डरता हुआ कुछ
दिन तो दिल्ली में ही रहा और फिर सोनीपत अपने कमरे में जा कर पढ़ने लिखने लगा।
एक दिन बुद्धू आखिर दफ्तर आ ही गया। उसे पता चला कि वहाँ दफ्तर में खासा तनाव है। नफे सिंह का ट्रांसफर ऑर्डर हेडक्वार्टर से पोस्ट कर दिया जा चुका था और नफे
सिंह उसे पढ़ते ही हक्का-बक्का सा रह गया था। बुद्धू को रिलीवर ने यह सब एक दिन उसके कमरे में आ कर बताया। पर इससे भी बड़ा ड्रामा यह हुआ कि नफे सिंह गाड़ी पकड़कर
हेडक्वार्टर चला गया और डायरेक्टर के कमरे में घुसते ही वहाँ गश खाकर गिर पड़ा। दो-चार जने चले आए। सुब्रह्मण्यम ने उसे कुछ लोगों की मदद से उठवा कर सफदरजंग
मेडिकल हस्पताल के एक कमरे में पटकवा दिया। बुश्शर्ट और पैंट में तगड़ा सा दिखता नफे सिंह रात भर हस्पताल के बिस्तर पर पड़ा रहा और सोचता रहा था कि यह क्या से
क्या हो गया? सुबह हस्पताल से रिलीव होकर वह फिर सी.जी.ओ. की तरफ अपने हेडक्वार्टर आ गया। पर इस बीच तो उसे होश ही नहीं था कि आज तो संडे है और पूरा दफ्तर बंद
है। केवल कुछ अनुभागों में शिफ्ट ड्यूटी वाले लोग काम कर रहे हैं। नफे सिंह ने अब क्या किया कि सुब्रह्मण्यम के चार कमरों वाले क्वार्टर में ही चला आया।
सुब्रह्मण्यम ने यहाँ तिकड़म लड़ाकर किसी डायरेक्टर को अलॉट हुआ क्वार्टर ही किराए पर हथिया लिया है और यहाँ डायरेक्टरों की तरह रहता है। नफे सिंह सुब्रह्मण्यम से
बोला - 'सोनीपत के पास ही बसई गाँव में मेरी जमीन है जिसे मेरा भाई देखता है और अगर मैं इतनी दूर हिमाचल चला गया तो वह सब कुछ हड़प जाएगा। मुझे एक धेला भी नहीं
देगा।' सुब्रह्मण्यम हर परिस्थिति से निपटने के सब प्रभावशाली तौर तरीके जानता है। वह उसी समय लोदी गार्डन से अपने बरमूडे और स्पोर्ट्स शर्ट में जॉगिंग करके
लौटा था और नफे सिंह को देखते ही बात समझ गया। पर वह इस प्रकार अचानक आई विपदाओं से निपटना भी जानता है। उसके चेहरे पर तो ऐसी कोई भावना नहीं दिखी कि नफे सिंह
ने कभी उसके बेटे की सेवा की थी। जो मक्खी दूध से निकल गई निकल गई अब। नफे सिंह ने खुद भी खूब बेनिफिट उठा लिया अब। उसने बहुत कड़क सी आवाज में नफे सिंह से कहा -
'कितनी सीरियस गलती की तुमने, मि. समर्थ को पिटवा कर!'
'मैंने पिटवाया ही नहीं सर। वो झूठ बोल रहा है।'
सुब्रह्मण्यम की आवाज अब और कड़क हो गई। उसकी पत्नी चुपचाप चाय की एक प्याली रख गई और सुब्रह्मण्यम ने नफे सिंह से चाय-वाय नहीं पूछी। नफे सिंह ने देखा
सुब्रह्मण्यम के चेहरे पर कहीं भी उसके प्रति पाँच साल पहले वाला अपनापन है ही नहीं। बल्कि सुब्रह्मण्यम उसे डाँट कर कह रहा था - 'मेरे सामने झूठ मत बोलना नफे
सिंह। हम हर आदमी को जानते हैं। आखिर मैं डायरेक्टर का पी.ए. हूँ।' और नफे सिंह दो-चार और खरी-खोटी सुनाकर चला आया निराश सा। दफ्तर से वह महीना भर छुट्टी लेकर
गायब रहा। एक लंबी सी ऐप्लीकेशन एक दिन पुनः दिल्ली आ कर प्रशासन अनुभाग में दे गया कि उसे कोई बीमारी है, जिसका इलाज केवल दिल्ली या उसके आस-पास ही हो सकता है।
रिसाल सिंह ने उसे किसी डॉक्टर से नकली सर्टिफिकेट भी दिलवा दिया। एकाध नकली एक्सरे-वेक्सरे भी फिट करवा दिए रिसाल सिंह ने। पर जब उसका ट्रांसफर नहीं रुका तो
उसने होंठ बुदबुदा कर कहा - 'जाए जहाँ जाए...'
इधर बुद्धू को आ कर रिलीवर ने उसके कमरे में कहा - 'आखिर कब तक छुट्टी बेस्ट करते रहोगे। नफे सिंह तो अब सचमुच हिमाचल जाने की तैयारी कर रहा है। गाँव से
किसी-किसी दिन चला आता है। हेडक्वार्टर ने उसकी अर्जी को नामंजूर कर दिया है। ड्यूटी पर चले आओ। आज नहीं तो कल, वह एक दिन टल ही जाएगा।'
बुद्धू ने अपने मकान मालिक से सलाह ली और मकान मालिक बोला - 'वो लड़का 'ताँगेवाला' चौधरी रिसाल सिंह के कॉलेज का ही है ना? मैं खुद चलता हूँ रिसाल सिंह के पास।
मुझे जानता है। यहाँ किसी जमाने वोट-बोट माँगने आया करता था। मुझे बहुत इज्जत से देखता है वह। आप घबराओ मत। मेरे होते आपका यहाँ कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।'
और सचमुच मकान मालिक एक दिन बुद्धू को साथ लेकर चल पड़ा रिसाल सिंह की हवेली की तरफ। मकान मालिक ने अपने साथ एक और कॉलेज हिंदू कॉलेज का एक प्रोफेसर हेमंत भी साथ
ले लिया कि यह भी एजुकेशन से जुड़ा है वह भी। सो जरूर एक-दूसरे का खूब लिहाज रखते होंगे। प्रोफेसर हेमंत से बुद्धू की पहचान मकान मालिक ने हाल ही में करवाई थी।
मकान मालिक और प्रोफेसर जा कर रिसाल सिंह के सामने धरना सा मारकर बैठ गए कि 'ये लड़के सब आपके हाथों के पले पलाए हैं। आपकी बातों से बाहर थोड़ेई जाएँगे। किसी
प्रकार उस साले 'ताँगेवाले' से वायदा ले लो आप कि वो इसको हाथ भी नहीं लगाएगा।' बुद्धू सामने रखी एक कुर्सी पर चुपचाप बैठा रहा। रिसाल सिंह पल भर में ही धूर्तता
की एक प्रतिमा सी बन गया। अपनी चारपाई पर उसने क्षण-भर अपने हिप्स बड़े अजीब ढंग से हिला-डुला कर एडजस्ट किए और बोला - 'इसने बहुत गलत काम किया है। नफे सिंह की
शिकायत क्यों की? आ कर मुझे बताता जो बात थी। पर खैर, आपको मेरे होते कोई फिकिर करने की जरूरत नहीं है। मैं शाम को ही जा कर उस 'ताँगेवाले' की गर्दन फिट करता
हूँ, समझता क्या है? मेरे होते मेरे ही आदमी को पीट दिया!' फिर रिसाल सिंह ने कोई भद्दी सी गाली भुनभुना दी। उसकी परछाँई सी लगती पत्नी धीरे-धीरे रसोई से निकली
थी और पीछे उसकी बड़ी बहू एक ट्रे में चाय बिस्किट ला रही थी। बुद्धू ने भी अनमने से चाय पी और सतपाल सिंह से मिलने चला आया कि उस तरफ देखूँ क्या कुछ हो रहा है।
सतपाल ने उसे जा कर अपने कमरे में बिठा दिया। उसकी पत्नी आज किसी कारण स्कूल गई ही नहीं थी पढ़ाने। वह आ कर सामने एक कुर्सी डालकर बैठती हुई फुसफुसाई - 'आप घबराओ
मत। नफे तो अब जा रहा है।' और बुद्धू सतपाल सिंह और उसकी पत्नी के साथ उनकी स्वादिष्ट सी लगती चाय पी कर शुक्रिया अदा करता मकान मालिक और प्रोफेसर के साथ अपने
कमरे में लौट आया।
फिर बुद्धू ठीक तीसरे दिन दफ्तर आ गया। दफ्तर का वातावरण खामोश सा था। रिलीवर बुद्धू को चार्ज देकर चला गया और बुद्धू ने देखा चारों तरफ एक मुर्दनी सी छाई हुई
है। नफे सिंह की पत्नी को इतने दिन बाद देखा तो उसे आश्चर्य सा हुआ कि यह तो गाँव चली गई थी। पर उसने नफे सिंह के कमरे की जाली से ही देख लिया कि उसका सारा
सामान अंदर कमरे में बड़े-बड़े गट्ठरों में बँधा हुआ है। बुद्धू को तसल्ली भी हुई और हल्की-हल्की धुकधुकी सी भी। आज लेकिन एक और परिवर्तन सा देखा बुद्धू ने। नफे
सिंह की पत्नी उसके सामने से ही गुजर गई पर उसकी तरफ आँख उठाकर देखा भी नहीं उसने, जैसे बेहद नफरत करती हो उससे। चुपचाप एक आत्मा सी दिखती वह बाथरूम की तरफ बढ़ी
और अंदर एक पीतल की बाल्टी सी अपनी जगह से उठाकर दूसरी जगह पटक दी। बाल्टी की आवाज से ही बुद्धू को लगा कि अब वह उससे कभी बात नहीं करेगी। पर उसने सोचा इस औरत
की खीं-खीं क्यों बंद है? इसके कुछ ही क्षण बाद वह निकली और चलती हुई फिर कमरे में घुस गई। उसने अपने बच्चों को भी चुपचाप कमरे के फर्श पर खिलौनों के साथ बिठा
दिया था जैसे अब जिंदगी भर वे वहीं बैठे रहेंगे। वह फिर बाहर निकली तो बुश्शर्ट और लुंगी में खड़े नफे सिंह की गुंडई सी आकृति भी उसे दिख गई। उस समय बुद्धू की
तरफ पीठ करके खड़ा था नफे। उसकी पत्नी उसके करीब पहुँची और धीमी सी आवाज में उससे कुछ मिनमिनाती सी वह फिर बाथरूम की तरफ बढ़ी तो बुद्धू को लगा कि वह अचानक एक
रुआंसी सी खीं-खीं करके आगे बढ़ी है...
बुद्धू ऊपर छत पर चला गया क्योंकि नफे सिंह या उसकी पत्नी में से किसी के भी उससे बात करने की अब उम्मीद नहीं थी उसे। छत पर से बुद्धू पूरे इलाके को देखने लगा
और अचानक उसकी नजर ऊपर से नीचे गिरती सी नीचे एक दरवाजे पर जा टिकी तो वह बौखलाया सा टप-टप टप-टप करता तेजी से सीढ़ियाँ नीचे उतर आया। फिर दफ्तर से बाहर ही चला
गया और सीधा जा कर अपने कमरे में चैन की साँस ली। उसने आज दफ्तर का कोई काम भी नहीं किया। छत पर से बाथरूम के दरवाजे की तरफ देख उसे ना जाने क्यों, एक
निर्वस्त्र, रोती सी आकृति दिखी जो जमीन पर रखी एक तख्ती पर लगभग उकड़ू बैठ गई थी, और अपना चेहरा हथेलियों में ढके सिसक सी रही थी। उसके चेहरे को ढकती हथेलियों,
उसकी बाजुओं और घुटनों ने उसके बिन नहाए निर्वस्त्र शरीर को ढक रखा था। केवल उसके नग्न और बिन नहाए से कंधे बुद्धू को नजर आ रहे थे। बुद्धू को लगा कि उस
फोटोग्राफर के अचानक पागल होने में और इस प्रकार इस औरत के रो पड़ने में या नफे सिंह के रात भर हस्पताल में दाखिल हो जाने में जमीन आसमान का फर्क है। यहाँ नफे
सिंह पर जो गाज गिरी वह कुछ-कुछ तो बतौर एक कानूनी सजा के गिरी, हालाँकि उसे सुब्रह्मण्यम ने यह भी बताया था कि ऑफिस चाहे तो नफे सिंह से पूरे पाँच साल का
किराया भी वसूल कर सकता है। जितना दफ्तर का किराया रिसाल सिंह को दिया गया है, उसका ठीक आधा नफे सिंह को देना पड़ेगा। पर यह तो सरकारी दफ्तर है भाई। यहाँ तो
ज्यों ही नौकरी ज्वाइन कर ली, उसी दिन से समझो कर्मचारी भारत सरकार का दामाद बन गया। यहाँ तो सेंट्रल गवर्मेंट कर्मचारी के बीवी, बच्चों को भी अपना समझकर खूब
प्यार देती है उन्हें कि कर्मचारी के अपराध से उसके बीवी, बच्चे क्यों भूखे मरें? वर्ना इस भ्रष्टाचार के लिए भी विजिलेंस चाहे तो किसी को भी नौकरी से बर्खास्त
कर सकता है। चाहे वह कोई नफे सिंह जितनी गुंडई सी दिखती हस्ती ही क्यों ना हो?