9
.
नफे सिंह चला गया तो बुद्धू ने कुछ दिन बहुत शांति से काम किया। यहाँ की कुछ चीजें भी नफे सिंह गोल कर चुका था जो कि आम तौर पर स्टॉक रजिस्टर में थी ही नहीं।
जैसे एक पुराना फटीचर सा टेबल फैन था जो शायद किसी बहुत पहले के इंचार्ज का लावारिस सा रखा था। एक रजिस्टर भी था जो मोटा सा था पर अब पुराना हो गया था। उसी
इंचार्ज का होगा। पर नफे सिंह ने सोचा होगा जाते-जाते ये कबाड़ भी लेता जाऊँ, कभी दस-बीस रुपये ही आ जाएँगे। बुद्धू को कोई चिंता नहीं, हालाँकि नफे सिंह ने
जाते-जाते खूब शरारतबाजी भी की थी। उसने दफ्तर की कई चीजें एक की बजाए दूसरी जगह रख दी थीं ताकि ये इंचार्ज महोदय थोड़े परेशान होकर देख लें। दफ्तर की कोई चीज
उड़ाने की तो अब उसकी हिम्मत नहीं पड़ी क्योंकि बुद्धू की कलम की ताकत वह देख चुका था। पर बुद्धू ने देखा कि हेडक्वार्टर से आने वाले पत्रों की फाइल इंस्ट्रुमेंट
रूम की एक टेबल के नीचे कहीं धर दी थी नफे सिंह ने और इंस्ट्रुमेंट के कैटलाग भी एक की दूसरी अलमारी में पटक दिए थे। दफ्तर के होल्डर और होल्डर स्टैंड ढूँढ़ने
में भी खासी परेशानी हो गई बुद्धू को। नफे सिंह तो रात अचानक आ कर बुद्धू के कमरे में प्रकट हुआ था और उसे अपने वाले दो कमरों की चाबियाँ देकर चला भी गया।
बुद्धू ने कहा भी - 'कल सुबह चले जाना। अभी तो अपने गाँव जाओगे न!' पर नफे सिंह बोला - 'मैं कोई बैठ्या थोड़ेई रहूँगा। एक टेंपो करके आया हूँ और उसी में अब जा भी
रहा हूँ।'
बुद्धू की मदद करने प्रो. सतपाल सिंह आ गया और स्टॉक रजिस्टर सामने खोलकर बैठ गया तथा एक-एक चीज पढ़कर बुद्धू को बताता गया। बुद्धू चारों कमरों में वह चीज ढूँढ़
कर लाता और सही जगह ठिकाने लगा देता। सतपाल को हँसी आ गई और बोला - 'नफे सिंह इतना दुखी हो गया ट्रांसफर से कि ऊँट-पटाँग सा कर गया सब कुछ। ह...ह...' पर बुद्धू
ने आखिर में सतपाल का धन्यवाद किया और कहा - 'मैं तो निपट अकेला हूँ, आप इस दफ्तर में नहीं हैं, फिर भी मेरी मदद को आ गए आप। मैं आपका शुक्रिया कैसे अदा करूँ?'
पर सतपाल ने बीच में ही हाथ के इशारे से बुद्धू को रोक दिया - 'कोई बात नहीं। जब एक जगह रहते हैं, यानी मेरा घर साथ में ही है तो क्या हो गया...।
बुद्धू शांति से काम करता रहता और उसे पता था कि जब नफे सिंह हिमाचल में जा कर ज्वाइन करेगा तब वहाँ का क्लास फोर लाल सिंह यहाँ आएगा। यहाँ भी एक जमादारनी
बाथरूम और टॉयलेट साफ कर जाती थी और एक पानी भरने वाला छोकरा आ कर पानी-वानी भर जाता। अंदर झाड़ू कभी जमादारनी लगा देती थी, कभी वह पानी भरने वाला छोकरा पवन। पवन
आता जाता भी, पवन की तरह था और फटाफट किचन में रखा मटका धोकर भर देता। ऑफिस की बाल्टी थी एक, वह भी भर कर बाथरूम में रख देता। इस बार पवन आया तो तेजी-तेजी से
बोला - 'नफे सिंह गया जी?'
'हाँ। बदली हो गई न!'
अच्छा हुआ जी। बड़ा बदमाश था सुना।'
जाने दो। हमें क्या? पर देखो किचन में मटका है कि नहीं?'
'वोही बताने आया था जी यहाँ। मटका तो है नहीं। वो भी ले गया होगा नफे सिंह। ऑफिस का ही तो था।' पवन ऐसे बोलता है जैसे शब्द निकलकर सर्राटे से उड़ते चले जाते हैं।
'कोई बात नहीं। शायद ले गया है। ये लो, पाँच रुपये। कल एक मटका खरीदकर आना ड्यूटी पर।'
'अभी ले आता हूँ जी। कल्ल क्यों?' और पवन उड़ता-उड़ता सा गया और दफ्तर के मोहल्ले के ही एक कोने में बनी मटके की दुकान से मटका ले आया।
'ये लो सा'ब। आप तो हो देवता आदमी। आपसे दगा नहीं करेंगे कभी। साढ़े तीन रुपये में मटका आया। नल्के वाला है। ये लो डेढ़ रुपया वापस।' कहकर उसने एक रुपये और अठन्नी
के सिक्के खड़खड़ाते हुए मेज पर फिसला दिए जैसे बहुत जल्दी में हो। उधर मटका धोकर भरा और किचन में रख गया। उसने किचन साफ करना चाहा तो वहीं से चिल्लाकर बोला -
'अरे सा'ब झाड़ू भी ले गया वो तो...' और कुछ ही देर में दो झाड़ू भी आ गए, एक गीला फर्श साफ करने वाला बड़े-बड़े तीलों वाला और एक सूखा। पवन ने किचन भी धोकर पूरी
तरह साफ कर दिया क्योंकि यहाँ तो नफे सिंह की बीवी ने किचन बना रखा था? कोई ऑफिस का किचन थोड़ेई था। अब यह ऑफिस का छोटा सा साफ-सुथरा कमरा बन गया।
'ये लो सा'ब यह मेज भी यहाँ टिक गई। कोई अलमारी-वल्मारी यहाँ धरनी हो तो रख दूँ।'
'नहीं पवन, यह सब करने की क्या जरूरत है। तुम्हें तो मिलता है एक दिन का डेढ़ रुपया। डेढ़ रुपया ही रोज उस जमादारनी को मिलता है। रहने दो। नया क्लास फोर आएगा तो
सब कर लेंगे मिलकर।'
'ओ.के सा'ब जैसे आपकी इच्छा।' पवन सलाम मारकर चला गया तो बुद्धू फिर आ कर काम पर बैठा। कुछ दिन अच्छे गुजरे क्योंकि हर तरफ से शांति का ही साम्राज्य था। काम
करने का मजा अपना है शांति में। बुद्धू को ना जाने क्यों, चुपचाप काम करते-करते या पढ़ते वक्त खुद से ही एक अजीब मोह सा होने लगता है? वह अपने-आपको बहुत बढ़िया
व्यक्ति समझता। यहाँ तो खुद ही काम करो और खुद ही शाबासी बटोरो। दिल्ली के जंगल ऑफिस में किसी ने उसे बताया था - 'यह तो सरकार है सरकार, यहाँ कभी-कभी गलत काम की
सजा तो मिल जाती है, (जैसे नफे सिंह को मिल गई, बुद्धू ने सोचा), पर अच्छा काम करोगे तो सरकार कहेगी किस पर अहसान किया आपने समर्थ साहेब? यह तो आपकी ड्यूटी थी।
वर्ना हम खुशी-खुशी आपकी गर्दन ही न नाप कर रख देते?'
बुद्धू ने ऐसे ही कुछ दिन शांति का मजा लिया और ऑफिस की हालत भी थोड़ी बहुत सुधार दी, तब तक हिमाचल से लाल सिंह भी आ गया। ज्वाइनिंग रिपोर्ट लिखते ही बोला - 'यह
तो साला एक नंबर का चोर निकला सर!'
'कौन?' बुद्धू चौंक गया तो लाल सिंह बोला - 'सुब्रह्मण्यम और कौन? मैं तो उसे दिल्ली जा कर पीटूँगा सर किसी दिन।'
बुद्धू कुछ समझा नहीं तो लाल सिंह ने उसे सारी बात बता दी। बोला - 'मैंने तो हिमाचल से ट्रांसफर करने के लिए सुब्रह्मण्यम की हथेली पर पाँच हजार धर दिए थे। वो
काम नहीं करता जी, घास खाता है घास। मैंने भी पाँच हजार की घास जा कर उसके मुँह में ठूँस दी थी कि मेरा ट्रांसफर दिल्ली करा दे और उसने करा दिया यहाँ। यहाँ तो
मैं ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं हूँ सर। जा कर किसी दिन पीटूँगा साले को। घास हजम कर गया और अब कहता है वहाँ वैकेंसी नहीं है!'
और लाल सिंह सचमुच यहाँ कुछ ही दिन टिका और महीना पूरा होते न होते उसका दिल्ली ट्रांसफर का ऑर्डर भी आ गया। यहाँ तो वह हफ्ते में दो या तीन दिन ही शक्ल दिखाता
और जैसे बुद्धू से ही यहाँ आने की विजिटिंग फीस वसूल करता हुआ कहता - 'सर, मेरे पास आने-जाने का किराया ही नहीं। पाँच रुपये दे दो ना।' और बुद्धू से ऐसे ही पूरे
सौ रुपये टीप लिए उसने।
'तनख्वाह मिलते ही दे दूँगा सर, आप फिकिर मत करो।' जिस दिन डिपार्चर रिपोर्ट लिख रहा था लाल सिंह, उस दिन भी जोर-जोर से बोलता रहा - 'ट्रांसफर तो करना ही था
बो...ड़ी वालों को। मैं दिल्ली में उसकी टेबल पर जा कर धरना मारकर बैठ गया। उसने सर कोई आपकी मदद थोड़ेई की नफे सिंह को हटाकर। उसे तो अपनी घास से मतलब था घास से,
मेरी रिश्वत डकार ली और मेरी मदद करने का ढोंग रचाता रहा।' बुद्धू को उस समय सुब्रह्मण्यम की फुर्ती याद आ गई जब वह लगभग बदहाल सा नफे सिंह की शिकायत लेकर उसके
चैंबर में गया था। लाल सिंह बके जा रहा था - 'मुझे तो नफे सिंह भी कह रहा था सर, वो अभी आपको पिटवाएगा। इधर इस सुब्रह्मण्यम साले को मैं ने जा कर यूँ मुक्का
दिखाया जी, कि मेरा दिल्ली ट्रांसफर का ऑर्डर निकलवा नहीं मैं अभी तेरी राम नाम सत करता हूँ। तेरी नौकरी खलास करवाता हूँ मिनिस्ट्री से। और पट्ठे ने प्रशासन में
तिकड़म लड़ाकर ट्रांसफर करवा ही दिया। पहले कह रहा था दिल्ली में वैकेंसी ही नहीं है। हह्...'
बुद्धू को अपनी दी हुई उधार रकम का जिक्र करने का सुअवसर ही नहीं मिला क्योंकि लाल सिंह कह गया - 'जा कर मैंने कैश ब्रांच वाले को यूँ कराटा दिखाया सर, कि मेरी
तनख्वाह एक महीने की एडवांस दे दे। वर्ना... और उसने ऐप्लीकेशन लिखवा दी और मैं बिल सेक्शन दौड़ा-दौड़ा गया सर। बिल सेक्शन वालों की तो फटती है मेरे आगे...'
जाते-जाते लाल सिंह एक लंबा सा सलाम मार गया और अंतर्ध्यान हो गया। बुद्धू के सौ रुपये डकार गया वह। दफ्तर की फिजा में उसकी बकवास के स्वर गूंजते रहे। पर बुद्धू
ने अभी थोड़े ही दिन और काटे कि एक और नमूना आ गया वहाँ। यह हरियाणा की ही एक आउटस्टेशन से आया था। आते ही बोला - 'युनियन वाले होँ चाहे एडमिन वाले, सब की बंद
रहती है मेरे आगे...'
बुद्धू के आगामी दिन बेहद तनाव में कट रहे थे और वह तो अब सोच रहा था कि इतने ट्रांसफर हो जाते हैं, मैं भी वापस दिल्ली की राह पकड़ूँ वर्ना यहाँ आउटस्टेशन पर तो
किसी दिन नौकरी से ही हाथ धोने पड़ेंगे। पर तभी पूरे भारत में, केवल सोनीपत में ही नहीं, बड़ा तूफानी परिवर्तन सा आ गया। वह था तो राजनीतिक तूफान, पर 'अनुशासन
पर्व' के नाम पर देश की सारी जनता ही डर सी गई।
सोनीपत शहर की शक्लो-सूरत ही बदलने लगी। एक सुबह बुद्धू एक रेस्तराँ में बैठा नाश्ता कर रहा था कि नाश्ते के बाद दफ्तर जाए और चाय पीते-पीते उसके सामने अखबार आ
गया तो उसे बड़ा विचित्र लगा। अखबार के पहले पन्ने पर कई खबरों की पंक्तियों पर रातोंरात सेंसर की कालिख पुत गई थी। पिछली शाम भी बुद्धू सोनीपत में निरुद्देश्य
सा घूम रहा था कि एक मैदान में जहाँ जयप्रकाश नारायण आने वाले थे और दरियाँ बिछी हुई थीं, मंच भी सजा हुआ था, एक मोटी तोंद वाला बुजुर्ग कार्यकर्ता रिक्शे में
बैठा लाउड स्पीकर हाथ में थामे पूरी फिजा को बजा सा रहा था। शब्द उसके मुँह से फूट रहे थे या तोंद से बज रहे थे, कुछ पता नहीं चल रहा था। कह रहा था - 'बहन जी,
ये कोई घर की खेती थोड़ेई है कि आप जब मर्जी जो मर्जी मनमानी करो। आप इलाहाबाद हाईकोरट में इलेक्शन का मुकद्दमा हार चुकी हैं और रायबरेली से आपका इलेक्शन रद्द हो
चुका है। अब आप किस खुशी में कुर्सी पर बैठी हुई हैं महारानी जी। सिंहासन खाली करो जनता आती है...'
वह आदमी काफी कुछ कह गया पर कोई भी नेता नहीं आया यहाँ और जनता इंतजार करके चली भी गई। रात को बुद्धू शांति से कमरे में बैठा रेडियो पर गाने सुन रहा था कि अचानक
मकान मालिक आ गया और पूछने लगा - 'इमरजेंसी क्या होती है, पता है?' उसकी आवाज फुसफुसाहट जैसी थी, जैसे इमरजेंसी कोई चोर-वोर हो जो यहीं-कहीं छुपा बैठा हो। वह
कमरे में घुसा भी एक सस्पेंस भरी सनसनी की तरह था।
बुद्धू बोला - 'इमरजेंसी? वह तो हॉस्पिटल में होती है! किसका एक्सिडेंट हुआ है?'
मकान मालिक गंभीर होकर बुद्धू को समझाने लगा - 'इमरजेंसी हॉस्पिटल की तो मुझे भी पता है। इस समय पहले आप रेडियो पर कहीं समाचार लगाओ! गाने-वाने छोड़ो!'
बुद्धू ने रेडियो की सुई घुमा दी और कहीं समाचार चल रहे थे। समाचार में स्पष्ट कहा जा रहा था कि 'देश में आपात्काल की घोषणा कर दी गई है। राष्ट्रपति ने खुद एलान
किया है। सभी नेता गिरफ्तार हो गए हैं।' बुद्धू चकित था। मकान मालिक से बोला - 'यह झगड़ा बढ़ सा गया है। शाम को जयप्रकाश नारायण और कई और नेताओं को आना था, कोई
आया ही नहीं!'
मकान मालिक और उसके बीच फिर काफी देर तक बातें होती रहीं। मकान मालिक बोला - 'जब सन' 62 में युद्ध हुआ था, तब लगी थी इमरजेंसी। ये काहे की इमरजेंसी है?'
बुद्धू ने कहा - 'यह तो आतंरिक इमरजेंसी है। ऐसा दिखाया जाएगा कि देश को अंदर से ही खतरा है!' बुद्धू मुस्कराने लगा।
'हा हा हा' मकान मालिक आराम कुर्सी पर लात लंबी करके ऐसे लेट गया कि उसका आधा शरीर तो आराम कुर्सी पर था और टाँगें बुद्धू की चारपाई पर काफी दूर तक फैल गई।
बुद्धू सिकुड़ कर पल्थी मारकर बैठ गया ताकि मकान मालिक ठीक से लेट सके। मकान मालिक ने अपनी दोनों हथेलियों की अँगुलियाँ आपस लॉक सी कर दी और इस लॉक को गर्दन के
पीछे फिट करके गर्दन उसी पर टिका दी। बुद्धू ने कुछ विस्तार से बताया - 'प्रधानमंत्री थोड़ी तानाशाह सी है। वह चाहती ही नहीं कि उसे कुर्सी से हटना पड़े। फिर अगर
वह हट कर बाद में सर्वोच्च न्यायालय में मुकद्दमा जीत गई तो जिसे फिलहाल बिठाएगी वह हटेगा ही नहीं! हाहा...'
मकान मालिक को फिर हँसी आ गई। बोला, (फिर फुसफुसा कर) - 'कहते हैं ऐसे में कई लोग गिरफ्तार हो जाते हैं। मेरा भाई हो सकता है? मतलब ब्लैक मनी के चक्कर में?'
बुद्धू ने बात सुनी और चारपाई से उतर कर चद्दर की सिलवटें ठीक करने लगा जैसे उसे अब सोना हो और जबरदस्त नींद आ रही हो। मकान मालिक की दुखती रग को वह पहचानता है।
पहले ही दिन बताया था मकान मालिक ने कि बिजनेस का सारा फायदा भाई साहब उठा गए, उनके पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मकान मालकिन ने एक बार बताया था कि एक बार एक साधू उनके
घर आ कर बैठा था। साधू बोला था कि पिछले जनम में आपने किसी साधू को भोजन नहीं खिलाया था। उसी का नतीजा है कि वही साधू इस जनम में आपका भाई बनकर आपका हक मार रहा
है!
बहरहाल, सुबह तक शहर में वातावरण बदल गया था। लोग एक-दूसरे से इमरजेंसी का मतलब पूछ रहे थे और बुद्धू रेस्तराँ में अखबार पढ़ रहा था, चाय के साथ अंडा भी खाता जा
रहा था...
शहर में चलने-फिरने का ढंग ही बदल गया लोगों का। हरियाणा की अपनी एक अलग पहचान। लोग कहने लगे - 'उस डी. सी. उल्लू के पट्ठे को तो हार्ट अटैक हो गया और दफा हो
गया। पर इस इमरजेंसी में जाने क्या-क्या गुल खिलें अब?'
बुद्धू को एक सुबह बहुत रोचक अनुभव भी हुआ। वह एक दिन कचहरी वाले मैदान को पार करके इधर दफ्तर आ रहा था कि एक वृद्ध व्यक्ति जो बहुत मैली धोती कमीज और गुंजलकों
का पहाड़ सी लगती पगड़ी पहने था, वह बुद्धू के सामने पड़ गया और बुद्धू को सहसा बाँहों के घेरे में लेकर जकड़ता हुआ बोला - 'मुझे बचाओ। मुझे बचाओ...'
बुद्धू को हँसी आ गई। जाने क्यों, उसे लगा कि यह भी कोई इस इमरजेंसी का नया रूप है? बोला - 'क्या हो गया लालाजी?'
दरअसल कुछ दिन से सोनीपत में एक अच्छा तमाशा सा शुरू हो गया था। बाजार में जितने भी रेढ़ी वाले फल बेचते थे, या मूँगफली वगैरह, या सब्जी-वब्जी, उनको पोलिस पकड़कर,
उन्हीं की रेढ़ियों पर बिठाकर ले जाती सिविल हस्पताल। लोग हँसते-हँसते इन रेढ़ियों का पीछा करते, कहते - 'अब काट देंगे साले का। नसबंदी करेंगे नसबंदी। संजय गांधी
ने ना, और बंसीलाल ने, दोनों ने यहाँ परिवार नियोजन की तगड़ी योजना बनाई है! इन सबका जबरदस्ती काट देंगे... ह ह ह ह'...
वृद्ध बुद्धू से बोला - 'बेटा जरा देख, उधर जाट कॉलेज वाली सड़क पर नसबंदी वाली पोलिस तो नहीं खड़ी?'
'नसबंदी वाले तो वहाँ बाजार में आते हैं, इस समय थोड़ेई आएँगे। आप क्यों घबरा रहे हो?'
पर बुद्धू को वह वृद्ध छोड़े ही नहीं। बुद्धू उस वृद्ध से बोला - 'अच्छा आप यहीं रुकिए, मैं देखकर आपको यहीं आ कर बताता हूँ।' और बुद्धू ने पहली बार हँसते हुए
किसी से चालाकी से अपनी जान छुड़ाई, वह एक और पतला सा रास्ता छुप-छुप कर चलता हुआ अपने ऑफिस खिसक आया। बुद्धू को इस सारे प्रकरण पर और सरकारी तरीके पर खूब हँसी आ
गई। वह उस बुड्ढे पर भी हँसने लगा कि कितना बुड्ढा है, और कम से कम दस बच्चे होंगे, फिर भी डर रहा है, नसबंदी ना हो जाए!
पर दफ्तर पहुँचते ही उसका नया क्लास फोर दानसिंह जो हर समय ऐसे रहता है जैसे पिया हुआ हो, बुद्धू से बोला - 'आपकी तो सर शादी भी नहीं हुई। ये लोग तो यह भी नहीं
देख रहे कि जिसको पकड़ रहे हैं वह कुँवारा है कि शादीशुदा। आपको भी पकड़ लेंगे वो। फौरन दफ्तर को एक टेलीग्राम देकर अपने बैचिलर होने का एक सर्टिफिकेट मँगवा लो
आप।'
बुद्धू भी एक दिन गाड़ी पकड़कर दिल्ली चला गया और वहाँ जंगल ऑफिस में सब मसखरी करने लगे कि जल्दी-जल्दी शादी कर लो और फौरन बच्चे पैदा कर लो। वर्ना कोई तुम्हारा
नाम लेने वाला कुलदीपक ही नहीं रहेगा। बुद्धू उस सीट पर गया जो हरियाणा के आउटस्टेशन देखता है। वहाँ बैठे असिस्टेंट माकन से कहा - 'मेरी तो शादी ही नहीं हुई
यार। नसबंदी करा दी सालों ने तो...' और बुद्धू को बेसाख्ता खुद पर ही हँसी आ गई। माकन ने कहा - 'घबराओ मत। एक सर्टिफिकेट छपा छपाया है यहाँ। उसी की कॉपी बनवाकर
साहेब से घुग्घी (हस्ताक्षर) लगवा कर देता हूँ बस।' बुद्धू को बनर्जी ने अपने कमरे में बुलाया। लगातार मुस्करा कर देखते हुए उसने बैचलर सर्टिफिकेट एक बार फिर पढ़
डाला और हस्ताक्षर कर दिए। फिर बुद्धू से वह बोला - 'अरे तुम काहे को सोनीपत गया? इधर ठीक ही था। उधर तो कोई-कोई तुम्हें पीट भी देता है।'
बुद्धू ने कहा - 'सर, लगता है आउटस्टेशन सब 'आउट ऑफ कंट्रोल स्टेशन' हो गए हैं।'
'नहीं ऐसा नहीं है। जैसे लोग होँ, वहाँ वैसा ही होना पड़ता है।' बनर्जी ने एक तथ्य मानो बुद्धू को बता दिया कि अगर भ्रष्ट लोगों में हो तो या तो तुम भी भ्रष्ट बन
जाओ, या फिर चुपचाप सहते रहो सब बस।
बुद्धू घर पहुँचा तो रात तक चिंतनमग्न सा था। फिर एक ऐप्लीकेशन बनाने लगा कि मेरे पिता बेहद बीमार रहते हैं। मुझे वापस दिल्ली बुलाया जाए। बुद्धू के बड़े भाई
सौरभ ने देखा कि बुद्धू कुछ चिंतित सा लग रहा है। पूछा - 'कैसा चल रहा है? वहाँ कोई प्रॉब्लम थी ना?
'ह्म्म्म,' बुद्धू ने कहा - 'प्रॉब्लम' तो हल हो गई। पर बाहर का स्टेशन सँभालना बड़ा मुश्किल काम है। सोचता हूँ वापस दिल्ली आ जाऊँ।'
'तू गया ही क्यों था बुद्धू? तुझे तो मैंने भी मना किया था पर तूने कहा था नहीं, वहाँ तो शांति रहेगी जी...' अनामिका थी यह। वह भाँप गई थी कि उसका बुद्धू भाई अब
परेशान है। बुद्धू ने एक ऐप्लीकेशन वापस ट्रांसफर की बना ली कि सोनीपत से ठप्पा लगाकर यहाँ भिजवा देगा, पर मजेदार बात यह हुई कि सौरभ उसकी ऐप्रोच लड़ाने एक
'राजनीतिक पीड़ित' (पॉलिटीकल सफरर) के पास चला गया। जा कर उससे बोला - 'मेरा भाई सोनीपत में फँसा है, आप उसका ट्रांसफर दिल्ली करा दो, वह वापस दिल्ली आना चाहता
है।'
'राजनीतिक पीड़ित' बोला - 'करा दूँगा, पर तुम ऐसा करो कि मेरे पास कम से कम दस मामले नसबंदी के ले आओ। तब तुम्हें हर नसबंदी केस के पीछे एक ट्रांसिस्टर मिलेगा और
एक किलो देसी घी! और तुम्हारे भाई का ट्रांसफर भी मैं करा दूँगा!'
सौरभ हँसता हुआ घर आया और अनामिका से बोला - 'अनामिका, वहाँ तो ना, मार्केट में एक तंबू लग गया है। उस पर बोर्ड भी लगा है कि नसबंदी कराओ और एक किलो देसी घी और
एक ट्रांजिस्टर मुफ्त में ले जाओ। हा हा हा हा...' अनामिका को लेकिन हँसी नहीं आई। वह जानती है कि यह सिस्टम तो अपना ही पर्दाफाश करके सबके सामने नग्न होने की
समस्त शक्तियाँ अपने भीतर ही समोए है। लोकतंत्र में लोग आत्म-मंथन करेंगे नहीं, पर देश के मालिक बनने का गुरूर लिए जीते रहेंगे। फिर सरकार भी केवल अपने राजनीतिक
उल्लू सीधे करने के लिए जब-तब ऐसे ड्रामे करती रहेगी। एक प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाने के पीछे सबको मौका मिल गया है। कोई डिसमिस हो रहा है तो कोई ट्रांसफर, देश
में बस एक 'अनुशासन पर्व' चल पड़ा है! लोग समय पर दफ्तर पहुँचने की फिराक में चलती बस से ही गिरे जा रहे हैं कि अरे मेरी नौकरी छूट जाएँगी, मुझे समय पर दफ्तर
पहुँचने दो। कहीं रेडियो स्टेशन पर कोई ट्रांसफर हुआ है तो जहाँ वह ट्रांसफर हुआ है वहाँ उसे ज्वाइन करने ही नहीं दिया जा रहा! बुद्धू एक दिन अभी-अभी सोनीपत से
आया हुआ था कि अनामिका भी जल्दी आ गई और बोली - 'चल बुद्धू, दिखाती हूँ, करोल बाग की क्या हालत कर रखी है इमरजेंसी वालों ने। सब दुकानें टूट-फूट सी गई हैं।' और
बुद्धू करोल बाग में अनामिका के साथ घूम रहा है। सब दुकानों की छतें उखड़ी हुई थीं, तो किसी-किसी की दीवार ही खोद-खाद कर खोखली कर दी गई थी। बुद्धू अनामिका से
बोला - 'यह सब ब्लैक-मनी की खोज में?'
अनामिका - 'है तो ब्लैक-मनी की खोज में। पर यहाँ के सब दुकानदार सरकार विरोधी माने गए हैं, इसीलिए हुई है यह तोड़फोड़। कोई देश में सुधार लाने के लिए नहीं हुआ है
यह सब। इस सबका उद्देश्य भी तो देखो...'
इधर सोनीपत में एक और ड्रामे की खबर सब की जबान पर थी। बुद्धू सोनीपत पहुँचा तो पता चला कि नजदीक के ही एक गाँव राई में गोली चल गई है। राई में पोलिस गई थी
परिवार नियोजन कराने और वहाँ एक बारह बच्चों के पिता ने एक पोलिस कांस्टेबल की टाँग में ही गोली मार दी। गाँव इकट्ठा हो गया कि 'यहाँ हमारी मर्जी है, जिस को
जितने बच्चे पैदा करने होंगे करेगा, तुम्हारे बापों का क्या जाता है? तू नामर्द है क्या? जा के जितने बनते हैं उतने पैदा कर यहाँ क्या करने आया है?' एक पोलिस
वाले को कोई टोक रहा था और पूरा गाँव उस पर 'हा हा हा हा' करके हँस रहा था। बुद्धू सोचने लगा यह भी एक लोकतंत्र का विशिष्ट सा रूप है। लोग आपराधिक कार्यों में
भी अपनी शक्ति मिलकर उपयोग करते हैं, जनता जनार्दन नहीं चाहती कि उनको वरदान रूप में मिली ईश्वर की देन यानी ढेरों संतान की उत्पति में देश के माईबाप लोग कोई
हस्तक्षेप करें। सो पोलिस तो एक जख्मी पोलिस वाले को जीप में उठाकर खाली हाथ लौट आई सोनीपत!
बुद्धू संयोग से खुद ही पकड़ा जाता है एक दिन, और उसने भ्रष्टाचार किया था सिर्फ और सिर्फ पाँच रुपये चालीस पैसे का! बुद्धू को यह उम्मीद भी नहीं थी कि एक दिन यह
भी होगा। उस दिन हुआ यह था कि बुद्धू दिल्ली गया तो उसके पिता की तबियत बेहद खराब हो गई थी और उन्हें लोहिया हस्पताल उठवा कर जाना पड़ा था। अनामिका ऐसे समय भी
कर्ता-धर्ता होती है और बाकी सब लोग उसी के आदेश पर चलते हैं। बुद्धू भी रात बारह बजे हस्पताल से लौटकर घर आ कर सोया और उसे हस्पताल में अनामिका ने कहा भी था -
'सुबह उठकर दफ्तर चले जाइयो तू। तेरे दफ्तर में तो रिलीवर के बिना एक दिन भी छुट्टी नहीं ले सकते ना।' पर बुद्धू सुबह देर तक सोया रहा और फिर उस ने सोचा हस्पताल
हो आता हूँ। अनामिका सुबह छ बजे लौटी थी और सो चुकी थी। जब जागी तो पता चला कि बुद्धू तो दफ्तर गया ही नहीं। खूब डाँटा - 'तुझे बोली थी ना, चला क्यों नहीं गया
दफ्तर?'
बुद्धू की माँ भी आ गई, बोली - 'मैंने भी खूब जगाया और कहा, सुबह की किसी गाड़ी से चला जा सोनीपत। पर गया ही नहीं!'
और बुद्धू फँस चुका था। अगले दिन सोनीपत गया तो पता चला कि पिछले दिन हेडक्वार्टर से कोई मकैनिक यहाँ एक पुरानी घड़ी ठीक करने आ गया था जिसके बारे में बुद्धू ने
पहले कुछ पत्र-व्यवहार कर रखा था। यहाँ के काम के अनुसार कुछ विशिष्ट प्रकार की घड़ियाँ हैं जिन्हें ऑफिस की भाषा में क्रोनोमीटर कहा जाता है, वे आम घड़ियों की
तुलना में जटिल होती हैं। वह मकैनिक सोंधी आया तो बुद्धू ड्यूटी पर था ही नहीं। दानसिंह को अच्छा मौका मिल गया और लगा सोंधी से उल्टी सीधी चुगलीबाजी करने कि
'यहाँ तो पानी भरने वाला आता ही नहीं और ये जनाब खुद ही पानी भरते हैं।' दानसिंह ने दरअसल पवन को खूब डरा धमका रखा था और जरा सी देर होने पर उसे काम करने ही ना
देता। दानसिंह ने बुद्धू से कहा था कि इस आदमी की जरूरत क्या है। आप इसके पंद्रह रुपये महीने के मुझे दे दिया करो और पानी-वानी मैं भर दिया करूँगा। पर बुद्धू ने
उसकी कभी ना मानी थी सो आज जब दानसिंह ने देखा कि बुद्धू तो खुद ब खुद फँस गया है, तब उसे बड़ा अच्छा लग रहा था। सोंधी ने देखा कि घड़ी ठीक नहीं हो पा रही सो उसे
दिल्ली ले गया और डायरेक्टर से अपना टूर एक दिन और बढ़वा लाया। डायरेक्टर ने उससे कहा कि तब तक कोई नई घड़ी छोड़ आओ और खराब घड़ी यहाँ हेडक्वार्टर में ठीक करवा लो।
पर जंगल ऑफिस से डायरेक्टर से फोन पर बात करते-करते सोंधी ने कहा - 'वहाँ समर्थ तो आज ड्यूटी पर है ही नहीं सा'ब!'
'डायरेक्टर' ने कहा - 'ये सब बातें अपनी टूर रिपोर्ट में लिख देना आप।'
और अगले दिन बुद्धू आया तो सोंधी ने दानसिंह से मिलकर बुद्धू को फँसाने के लिए अच्छा भला जाल रच रखा था। बुद्धू से सोंधी ने कहा - 'कोई बात नहीं। आप हाजिरी लगा
लो कल की। फादर बीमार थे ना। और मैं तो कल तीन बजे के भी बाद तक रहा। ये लो। दो घंटे का ओवरटाइम भी क्लेम कर लो। इससे सब कुछ नैचुरल लगेगा।'
बुद्धू ने खूब मना किया तो दानसिंह भी बोला - 'लगा लो आप हाजिरी। हम हैं ना। नहीं तो हेडक्वार्टर जाने क्या कर दे कि आप बिना रिलीवर के ड्यूटी पर थे क्यों
नहीं।'
बुद्धू को हफ्ते भर में एक पत्र आया कि वहाँ का अटेंडेंस रजिस्टर फौरन हेडक्वार्टर भेज दो। बुद्धू का ओवरटाइम का क्लेम सोंधी ही लेता गया था। उसने अपनी टूर
रिपोर्ट में साफ लिख दिया कि पहले दिन इंचार्ज मि. समर्थ पूरा दिन ऑफिस में थे ही नहीं और अगले दिन आए तो हाजिरी भी लगा दी और मुझे यह दो घंटे का ओवरटाइम क्लेम
भी थमा दिया कि जा कर हेडक्वार्टर में जमा करा देना। और बुद्धू का यह मामला बढ़ गया। जंगल ऑफिस में सब समझ चुके थे कि बुद्धू के पिता बीमार हो गए होंगे और वह
बिचारा दफ्तर जा ही नहीं सका होगा। और इस सोंधी ने ही उसे फँसाया है। यहाँ फँसाना तो हॉबी है सब की। पर सब सन्नाटे में थे कि बुद्धू को अब बचाया नहीं जा सकता।
दानसिंह बुद्धू से बोला - 'अब घबराने की जरूरत नहीं है। जो इन सालों को करना होगा कर लेंगे। जो उखाड़ना हो उखाड़ लें। एक्सप्लेनेशन कॉल आते ही चुपचाप शराफत से लिख
देना कि मैं सचमुच में नहीं था। जुर्म कबूल कर लोगे तो ऑफिस माफ कर देगा।' फिर दानसिंह सहसा कई क्षण बुद्धू के चेहरे को देखते-देखते बोला - 'मेरे इस महीने के
पंद्रह रुपये तो दो!'
बुद्धू चिल्ला पड़ा - 'तुम्हें किस बात के पंद्रह रुपये दूँगा? पवन मुझे मिलता रहा और बताता रहा कि तुमने ही उसे ड्यूटी करने ही नहीं दी है और बाहर-बाहर से ही
भगा दिया है। एक गरीब आदमी के पैसे मारकर तुम्हें क्या मिलेगा?'
'गरीब आदमी काहे का है वह? कल को वह कहीं मर्डर-वर्डर कर आएगा और पोलिस आपको पकड़ लेगी, क्योंकि आप यहाँ उसकी हाजिरी बाकायदा लगाते रहोगे।'
पर बुद्धू अडिग था और उसने पवन को बाकायदा पिछले दोनों महीनों के पैसे दे दिए। इधर उसकी एक्सप्लेनेशन कॉल भी हेडक्वार्टर से आ गई कि 'सोंधी की टूर रिपोर्ट के
मुताबिक आप उस दिन उपस्थित नहीं थे, फिर भी हाजिरी लगा दी और फिर दो घंटे का पाँच रुपये चालीस पैसे ओवरटाइम भी क्लेम कर दिया। इस बात पर आप अपना स्पष्टीकरण फौरन
लिखकर भेजें।'
बुद्धू ने जा कर अनामिका को बात बताई। अनामिका चिल्ला पड़ी बुद्धू पर - 'तुझे माँ ने कहा भी था न उठकर, कि ट्रेन पकड़ ले सोनीपत की और तू सोया ही रहा! थोड़ा देर
से, दोपहर तक भी चला जाता तो काम चल जाता। पर तू लापरवाही कर बैठा है। अब क्या कर सकूँगी मैं?'
बुद्धू जंगल ऑफिस के अंदर जाने का साहस तो नहीं कर पाया पर एक दिन वह जंगल ऑफिस के बाहर ही कहीं घूमने लगा कि छुट्टी होते ही कुछ लोग निकलेंगे और मैं किसी से
पूछ लूँगा। उसे दूर से सलूजा जाता नजर आया तो वह तेजी से उस तक पहुँचा। सलूजा ने कहा - 'सोंधी ने कहा भी तो तूने हाजिरी क्यों लगाई? ऐसी परिस्थिति में कोई लिखकर
ही दे दे कि कल मैं आ ही नहीं सका था क्योंकि मेरे पिता हस्पताल में दाखिल थे और साथ में हस्पताल का कोई डॉक्यूमेंट दिखा देता तो शायद बात बन जाती। एक दिन की
छुट्टी की ऐप्लीकेशन दे देता तू।' पर बस स्टॉप तक पहुँचते-पहुँचते सलूजा फुसफुसाता सा बोला - 'एक ही आदमी तुझे बचा सकता है, और वो है सुब्रह्मण्यम!'
'ह्म्म्म...' बुद्धू को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि इस सारे प्रकरण का अब होगा क्या। डायरेक्टर को गुस्सा आ चुका है और उसने कहीं कह दिया है कि अब तो इमरजेंसी लगी
हुई है। हम अगर कार्रवाई नहीं करेंगे तो कोई हमें ही न हिला कर रख दे यहाँ से। सो उसकी इस अनुपस्थिति पर कड़ी कार्रवाई होगी। सलूजा कह रहा था - 'यहाँ बड़े भसीन
जैसे बैठे हैं। ऊपर लाखों डकारने वाले भी बैठे हैं। और तू फँसा है पाँच रुपये चालीस पैसे के झूठे क्लेम में! वो भी तुझे अभी तक मिले थोड़ेई हैं?' सलूजा ने लेकिन
अपना टोन बदल दिया। कुछ फुसफुसा कर बोला - 'सुब्रह्मण्यम के पास जाओ तो जरा सँभल कर जाना। वह ऐसे काम नहीं करने वाला। शायद उसी ने डायरेक्टर को और भी डरा रखा है
कि इमरजेंसी लगी है, इसकेस को हम विजिलेंस सेक्शन में भेजेंगे। और वहाँ यह केस सचमुच चला गया तो बहुत दूर ट्रांसफर भी हो सकता है और नौकरी भी चली जाए तो कोई
आश्चर्य नहीं।' फिर सलूजा ने एक राज की बात बता दी - 'सुब्रह्मण्यम ऐसे नहीं करेगा कुछ। कुछ माँगेगा और खुद नहीं माँगेगा। उसकी जो चुस्त-दुरुस्त स्टेनो है ना
अरविंदर, वही हिंट दे देगी तुझे।' बुद्धू अगले दिन हेडक्वार्टर गया तो सुब्रह्मण्यम के यहाँ जाने का मन नहीं किया उसका। उसे अचानक कैंटीन में अरविंदर दिख गई जो
बहुत टाईट कुर्ता-सलवार पहनती है और चेहरे पर ढेरों पाउडर पोतती है। ढेरों खुशबू उसके कुर्ते-सलवार से फिजा में बिखरी रहती है। बालों को भी बहुत बढ़िया जूड़े में
बाँधती है। लोग कहते हैं कि कुल मिलाकर है तो मेकअप, पर खुद को किसी हीरोइन से कम नहीं समझती वह। ऊँची हील वाली सैंडल में कमर लचका-लचका कर चलती है। दफ्तर में
तो वह किसी बहुत सीनियर पोस्ट पर तैनात डायरेक्टर-वाइरेक्टर से कम नहीं दिखना चाहती। स्टेनो की पोस्ट पर होते हुए भी जाने कैसे, थोड़े ही समय में एक कार, सेकंड
हैंड सही, खरीद ली है और खुद ड्राइव करती आती है। सबको लगता है कि यहाँ पोस्ट का और पैसे का कोई तालमेल नहीं। ना ही कोई गणित का फॉर्मूला है। कोई ऊँची पोस्ट
वाला सादगी की प्रतिमा बना घूमता है तो कोई क्लर्क ही ऐसे लगता है जैसे बस, थोड़े ही दिनों में उसकी पहली फिल्म की शूटिंग शुरू होने वाली है। अरविंदर थोड़ी दूर
बैठी थी और अभी-अभी कैंटीन में चाय पीने आई थी। बुद्धू उससे पहले काउंटर से अपनी चाय लेकर आया था। अरविंदर उसे बार-बार सहानुभूति से देख रही थी जैसे वह जरूर मदद
की पुकार करता उसीके पास आ फटकेगा। पर बुद्धू भी केवल उसे बार-बार देखता रहा और कुछ देर तो दोनों की केवल नजरें मिलती रहीं। अरविंदर ने फिर अचानक क्या किया कि
उठकर खुद ही बुद्धू की टेबल पर आ कर उसके सामने बैठ गई। बैठते ही बोली - 'क्यों घबरा रहे हो? सब ठीक हो जाएगा। सुब्रह्मण्यम है ना।'
बुद्धू बोला - 'मुझे कोई फिकिर नहीं है। अधिक से अधिक नौकरी चली जाएगी। कोई फाँसी थोड़ेई लग जाएगी।'
'फाँसी तो किसी को नहीं लगती।' अरविंदर ने कहा तो बुद्धू उठकर काउंटर से उसके लिए चाय ले आया। दरअसल बुद्धू को सदमा इस बात का पहुँचा था कि उस जैसे ईमानदार और
शरीफ माने जाने वाले व्यक्ति के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगा है और केस विजिलेंस को जा रहा है। अरविंदर फिर बोली - 'पता है, आज बड़े भसीन का कंपलसरी रिटायरमेंट
का ऑर्डर आ गया है! पुरानी करतूतों का फल आखिर कब भुगतेगा? डायरेक्टरों के कमरों में बदमाश लड़कियाँ भेजता रहा। डायरेक्टर की बेटी से भी छेड़खानी करने से बाज नहीं
आया। उसके खिलाफ जो फाइल तैयार कराई गई, उसमें बहुत कुछ लिखा गया और इस इमरजेंसी में भी उस फाइल की कीमत लगाई गई एक लाख रुपये! बड़ा भसीन इतनी रकम कहाँ से देता?
फिर इमरजेंसी का ही फायदा उठाकर उसे कंपलसरी रिटायरमेंट दे दिया गया। वह मिनिस्टर तक मिलने गया तो मिनिस्टर ने कहा - 'बस, ग्रेसफुली आप नौकरी से अलग हो जाओ। यह
तो इमरजेंसी है!'
बुद्धू को ऐसी खबर पर बेहद आश्चर्य हुआ था। उस पर प्रतिक्रिया भी अजीब सी हुई। अरविंदर तो उसे इशारे से बता भी गई कि थोड़ी रकम सैक्रीफाइस करो तो मामले को बरफ की
तरह ठंडा कर दिया जाएगा। इमरजेंसी से तुम क्यों घबरा रहे हो? तुम्हारा तो बाल भी बाँका नहीं होगा। दम एक्सप्लेनेशन में नहीं, फाइल में होना चाहिए। पर बुद्धू
अगली सुबह सोनीपत गया और रात को अपने कमरे में अपना एक्सप्लेनेशन लिखने बैठ गया। उसे बड़े भसीन के डिसमिस होने की खबर बहुत अच्छी लगी थी और उसने यह भी सोचा कि
बड़े भसीन की तुलना में तो उसने नगण्य, बल्कि नगण्य से भी नगण्य अपराध किया है, सो ऑफिस चाहे तो उसकी कहीं बहुत दूर तक ट्रांसफर भी कर दे तो कर दे। या
इंक्रीमेंट-विंक्रीमेंट रोक दे, पर वह अब किसी को भी रिश्वत देकर बचने की कोशिश नहीं करेगा। छोटे से भ्रष्टाचार की सजा से बचने के लिए बड़ा भ्रष्टाचार करके वह
उसे और बढ़ाए, कम से कम उसे यह गवारा नहीं है। उसके लिए कोई इमरजेंसी लगी हो या ना लगी हो, वह अपना अपराध क़ुबूल करके ही रहेगा। सुबह दानसिंह नशई तरीके से जैसे
बोलता है, वैसे ही अंदाज में उसकी तरफ लगातार देखकर बोला था - 'अब क्या करोगे आप? एक्सप्लेनेशन भेजा?'
'आज लिखूँगा। कल भेज दूँगा।'
'अब तो एक ही तरीका है। बस हाथ जोड़ के आप लिख दो कि मुझसे ये गलती हुई है। जा के सुब्रह्मण्यम के पास बैठ जाओ बस।' दानसिंह दोनों बातें कर रहा था। इस बात का भी
लुत्फ ले रहा था कि बुद्धू स्वीकार कर लेगा अपनी गलती तो एक्शन होगा तगड़ा और सुब्रह्मण्यम के पास चला गया तो वो हो सकता है इससे अच्छी-भली रकम हड़प ले। पर बुद्धू
इन सब बातों से अछूता सा रात को एक एक्स्प्लेनेशन लिखने बैठा जिसमें उस ने कबूल कर दिया कि उसके पिता हस्पताल में थे और वह रात बारह बजे हस्पताल से आया था। सुबह
उस ने सोचा एक बार फिर हस्पताल चला जाए और पिता को देखे पर उसके बाद भी वह दफ्तर नहीं आया था। इस एक्सप्लेनेशन पर पूरा दफ्तर हैरान था। आज तक किसी मुजरिम ने ऐसे
अपना जुर्म कबूल किया है? सब का कहना था कि ऐसे कम से कम सात-आठ केस और आउटस्टेशनों पर हुए हैं और सब ने फर्लो मारकर भी धड़ल्ले से यही लिखा है कि वह ड्यूटी पर
था और कि टूर पर आने वाले अधिकारी ने ही झूठ बोला है, क्योंकि वह खुद ही दस मिनट आ कर टूर से भाग गया था और हेडक्वार्टर में जा कर झूठी टूर रिपोर्ट दे दी है। एक
को तो बड़े भसीन ने ही फँसा दिया था और खूब चस्का लिया था किसी पर एक्शन होता देखने का। भसीन एक बार किसी आउटस्टेशन पर पंद्रह दिन रिलीवर बनकर गया था और जब वहाँ
का इंचार्ज पंद्रह दिन छुट्टी मनाकर लौटा तो बड़े भसीन से बोला - 'मुझे तो अब भी लुधियाना में तीन दिन का काम है सो आप तीन दिन और रिलीवर बने रहो। मैं हो आता
हूँ।' पर भसीन ने बड़ा भला होते कहा - 'इसकी जरूरत क्या है? आप तो मालिक हो यहाँ के। यह आउटस्टेशन तो काफी दूर पड़ता है, बीच में पहाड़ भी आते हैं। कोई आएगा थोड़ा!
चार्ज ले लो और फिर तीन दिन फर्लो मारकर हो आओ!' और वह इंचार्ज बड़े भसीन की चपेट में आ गया था। उसी बस में लुधियाना की तरफ चल पड़ा जिसमें बड़ा भसीन जालंधर आ कर
दिल्ली की ट्रेन पकड़ना चाहता था। और आते ही बड़े भसीन ने टूर रिपोर्ट में लिख दिया कि इंचार्ज हरभजन तो वहाँ है ही नहीं। वह लुधियाना चला गया है। फौरन एक और
रिलीवर भेज कर बड़े भसीन की बात की पुष्टि करवा दी गई। तीन दिन बाद हरभजन आया तो देखे यहाँ तो कोई और रिलीवर ड्यूटी कर रहा है। हरभजन का भी एक्सप्लेनेशन आया था
और उसने लिखा था कि नहीं, वह तो ड्यूटी पर रहा। बड़े भसीन ने उसकी झूठी चुगली की है। यह नया रिलीवर खुद ही आ कर तीनों दिन मटरगश्ती करता रहा और मुझसे मिला ही
नहीं। सुबह आ कर हाजिरी लगाकर चला जाता था। इंक्वायरी हुई और हरभजन की इंक्रीमेंट रुक गई, प्रोमोशन भी रोक दिया गया। ऐसी एक्स्प्लेनेशनों के बाद इंक्वायारियों
में भी खूब गर्मा-गर्मी हुई है और कोई-कोई तो छूट भी गया है। सिर्फ हरभजन के साथ ऐसा हुआ। और एक यह समर्थ है कि अपने ही हाथ काट दिए कि मैं तो जी आया ही नहीं
था! आ बैल मुझे मार!...
दानसिंह हेडक्वार्टर गया था और उसे वहाँ से पता चला कि समर्थ ने सब कुछ लिखकर दे दिया है और आ कर बोला - 'आपने लिखकर दे दिया कि आप सचमुच उस दिन नहीं आए थे! यह
तो कमाल कर दिया आप ने! इंक्वायारी होने देते मैं तो बैठा था ना, मैं ही कह देता जी सोंधी तो आया था सुबह और पंद्रह मिनट में दिल्ली भी चला गया। हमारे इंचार्ज
साहब उसके बाद आए भी थे...'
बुद्धू ने दानसिंह को बीच में ही हाथ देकर रोक दिया, मुस्करा कर बोला - 'तुमने ही तो कहा था कि अब चुपचाप स्वीकार कर लो सब कुछ...'
दानसिंह बोला - 'मेरा वो मतलब नहीं था जी। मतलब आप जबानी जा कर किसी को कुछ भी बताते पर लिखकर...' और बुद्धू ने एक बार फिर हाथ के इशारे से दान सिंह को रोक
दिया...
मामला विजिलेंस तक पहुँच गया। अनामिका ने क्या किया कि एक विजिलेंस ऑफिसर तक पहचान निकाल ली और उसे फोन कर दिया तो विजिलेंस ऑफिसर बोला - 'अब मामला काफी बिगड़
चुका है, पर हम उसे एक और मेमो देंगे कि अगर अब भी कुछ कहना है तो आप अपनी सफाई में कह दो। अगर उसे किसी ने जबरदस्ती अटेंडेंस लगाने पर मजबूर किया है तो वह भी
लिख दे। हम इंक्वायरी करा देंगे।' अनामिका ने बुद्धू से कहा पर बुद्धू ने कहा - 'अब मुझे किसी के पास कोई भी मदद लेने नहीं जाना बस। इमरजेंसी से पहले यह होता या
बाद में, मैं हर हालत में वही जवाब देता जो अब दिया है।'
बुद्धू को उस विजिलेंस ऑफिसर के कहे मुताबिक एक पत्र विजिलेंस से मिला भी कि 'अब अगर आपको अंतिम रूप में अब भी कुछ कहना है तो आप लिख भेजें। उसके बाद यह केस
आवश्यक कार्रवाई के लिए सील हो जाएगा।' यहाँ तो विजिलेंस दफ्तर रूपी एक थाणा है जैसे। दानसिंह कहने लगा - 'अब पंगा मत लेना जी आप, कुछ मत लिखना। कुछ ऐसा वैसा
लिख दिया तो और फँस जाओगे आप।'
और बुद्धू पर कार्रवाई यही हुई कि उसका इंक्रीमेंट एक वर्ष के लिए रोक दिया गया। जिस दिन वह दफ्तर नहीं आया था उस दिन का वेतन कट गया और उसकी सी.आर. में लिख
दिया गया कि दफ्तर से अनुपस्थित होकर भी उसने हाजिरी लगाई थी और ओवरटाइम क्लेम किया था।
इमरजेंसी हट गई तो शहर में और नए तमाशे शुरू हो गए। इलेक्शन की घोषणा हो चुकी थी। लोगबाग रौनक के मूड में आ गए। जहाँ भी इलेक्शन मीटिंग होती वहाँ पहुँच जाते।
विरोधी दलों को मौका मिल गया। एक नेता जनता को खूब हँसा-हँसा कर कहकहों की लहर पैदा कर रहा था। कह रहा था - 'कोई जमाना था जब लोग अचानक थाणे चले जाते थे, कि
उनका बेटा गुम हो गया है। फौरन ढूँढ़ कर दीजिए। इन दिनों उल्टे ही एफ. आई. आर. दर्ज होने लगे। नौजवान लड़के रोते-रोते थाणे पहुँच जाते कि उनका बाप गुम हो गया है।
तब पोलिस उनसे कहती कि जा कर सिविल हस्पताल में अपने बाप को ढूंढो ना, किसी नसबंदी शिविर में तो नहीं बैठा वह!...'
'हाहा हाहा हाहा...' जनता कहकहे मार मारकर थक जाती। एक जगह तो स्पीच में एक अट्ठारह वर्ष के नौजवान को खड़ाकर दिया गया। नेता ने कहा - 'कितनी शर्म की बात है,...
चुल्लू भर पानी में डूब मरने की... इस नौजवान ने अभी शादी नहीं की, बहुत अरमान थे जिंदगी के। पर इसकी... नसबंदी कर दी गई...' 'नसबंदी' शब्द पर इतना जोर दिया कि
लाउड स्पीकर से एक फटी हुई सी आवाज फिजा में दौड़ गई।
जनता ने अपना गला ही फाड़ दिया चिल्ला-चिल्लाकर - 'शे...म शे...म शे...म' का कोरस चल पड़ा। नसबंदी किया नौजवान लाउड स्पीकर के पास शर्मसार सा खड़ा रहा, जैसे वह
देखते-देखते अब चुनाव के इस मौसम में विरोधी दलों का अच्छा-भला मोहरा बन गया है जो जमीन में गड़ता ही चला जाएगा...
बुद्धू ने क्या किया एक जगह सत्ताधारी दल के एक प्रत्याशी की चुनाव सभा में एक पर्ची पर एक सवाल लिखकर भाषण कर रहे नेता की तरफ भिजवा दिया। नेता बुद्धू की भेजी
हुई पर्ची भाषण के बीच ही बोल-बोलकर पढ़ने लगा - 'इस बात की क्या गारंटी कि चुनाव जीतकर आप दोबारा इमरजेंसी नहीं लगाएँगे? जनता पर फिर जुल्म जबरदस्ती नहीं
करेंगे?...'
'मैं इसका जवाब दूँगा... अभी दूँगा...' नेता फौरन पर्ची को अपने कुर्ते की जेब के हवाले करता बोला।
'अभी दो। अभी दो।' जनता चिल्ला पड़ी। 'जवाब दो... जवाब दो वर्ना...' जनता बहुत जोर से चिल्ला पड़ी और स्टेज पर जूते फेंके जाने लगे। कोई टमाटर फेंके तो कोई कुछ।
प्रत्याशी के कार्यकर्ताओं ने स्टेज पर छलाँग लगा उसे बाँहों में ले लिया और बचाकर नीचे ले आए। जूते और टमाटर बरसते रहे। प्रत्याशी को कार्यकर्ताओं ने फौरन उसकी
कार में बिठा दिया जो मंच से थोड़ी ही दूर खड़ी थी। लोगों ने क्या किया कि पत्थर फेंक-फेंक कर कार के शीशे तोड़ दिए। प्रत्याशी बाल-बाल बचा और उसकी कार लड़खड़ाती सी
वहाँ से खिसक ली।
शहर भर में यही होता रहा। जहाँ-जहाँ सत्ताधारी दल की सभा होती, वहाँ लोग टमाटर भी ले जाते और फटे पुराने जूते भी। लोग निकलने से पहले घरों में किचन में चले जाते
और माँ से बड़े प्यार से कहते - 'बस दो टमाटर दे दो न जेब में डालकर जाता हूँ।' माँ हँस पड़ती - 'इससे अच्छा है तू खा ले पुत किसी पर फेंकता क्यों है...' पर एक
दिन क्या हुआ कि पता चला बनारसीदास गुप्त नाम का कोई सत्ताधारी दल का नेता आ गया है और लोग उसकी सभा से धीरे-धीरे खिसकने लगे हैं, क्योंकि बनारसीदास गुप्त ने
भाषण शुरू करते ही कहा - 'अपने चारों तरफ नजर दौडाइए। यहाँ पूरे पच्चीस ट्रक पोलिस के भरवा लाया हूँ मैं। एक ट्रक मिलिट्री का भी है। कोई भी शख्स अगर कोई चीज
मंच पर फेंकने की जुर्रत करे तो सबसे पहले उसका अंजाम सोच ले। उस पर इसी समय कार्रवाई करूँगा, अभी और वह शख्स गिरफ्तार हो जाएगा। जो मैं कहने आया हूँ कहकर चला
जाऊँगा। उसके बाद चुनाव में आप जिसे वोट देना चाहें दीजिए... मैं कहता हूँ, अगर किसी की नसबंदी हो गई है तो उसे मेरे पास भेजिए। उसकी नसबंदी हम खुलवा देंगे...'
जनता को नसबंदी खुलवा देने पर हँसी तो खूब आई पर पोलिस और मिलिट्री की बात सुनकर सब धीरे-धीरे खिसकने लगे और बनारसीदास गुप्त देखे तो उसकी सभा में केवल पोलिस ही
पोलिस खड़ी थी! जनता में कई लोग काफी फासले पर 'हाहा हाहा' करके कहकहे मारते और फिर डर के मारे पीछे मुड़कर दौड़ने लगते। खूब तमाशा था इमरजेंसी का अंत भी, और
परिणाम आए तो सत्ताधारी दल नीलाम सा हो चुका था। नए कर्णधारों ने देश की बागडोर सँभाल ली थी। बुद्धू को लगता कि न तो यहाँ समस्याओं के वास्तविक समाधान होंगे, न
ही जनता अपने आपको किसी परिवर्तन के लिए तैयार कर पाएँगी...।
बुद्धू ने इस बीच खूब मजे भी किए और जब तक कुछ हो, अपने मन को आजाद सा भी कर लिया। इस बीच होली आई तो एक मजेदार बात यह भी हुई कि एक औरत चद्दर की रस्सी बनाकर
उसके पीछे दौड़ने लगी। ऐसा पिछली होलियों में उसके साथ नहीं हुआ था और महज इत्तफाक था कि इस बार जब वह होली की शाम को यूँ ही जाट कॉलेज की तरफ आ कर देव नगर में
घूमने आया तो देखा एक स्क्वायर में कई औरतें चद्दरों को रस्सी की तरह मरोड़ कर इधर-उधर तैनात सी हो गई हैं। बुद्धू को पता ही नहीं था कि ऐसा हरियाणा में होली की
शाम औरतें करती हैं। जो मर्द उनके पास से गुजरे उसे उस चद्दर से बनी रस्सी से तड़ातड़ पीटती जाती हैं। मर्द को भागना होता है और बुद्धू को किसी ने सलाह दी -
'जल्दी भाग जाओ ओ ओ ओ ...' बुद्धू भागने लगा और औरतों में खिलखिलाहट सी मचने लगी। इधर एक दिन पड़ोस में कोई शादी हुई तो उसे मकान मालिक ने दिखाया कि देखो, वहाँ
वह दुल्हन विदा हो रही है पर सब लोग परेशान हैं। जा कर देखो तो...।' और बुद्धू ने देखा कि दुल्हन तो मोटी सी है, यहाँ रिवाज है कि दुल्हन को उसका कोई मामा उठाकर
चलता हुआ डोली में बिठा लाता है। इस दुल्हन का कोई मामा नहीं था सो पड़ोस के कई मामे तो चले आए, पर दुल्हन देख सब घबरा रहे थे और भीड़ खिलखिला रही थी कि उठाओ,
उठाओ न... बहरहाल, उस दुल्हन को तो आखिर तीन-चार मामों ने मिलकर उठाया और थोड़ी दूर खड़ी कार में जो कि डोली स्वरूप वहाँ खड़ी थी, बिठा दिया!...