किस्सा कोताह यह कि एक दिन राजकुमारी शरमाने लगी। शरमाने की क्रिया तो पहले भी कई बार संपादित हुई थी, लेकिन इस बार का शरमाना पहले के शरमाने से काफी भिन्न था। हुआ कुछ इस तरह कि खाली वक्त में बच्चों की किताबें पढ़नेवाली राजकुमारी के हाथ में ‘केवल वयस्कों के लिए’ वाला ठप्पा लगाए दिलकश इलाहाबादी का उपन्यास लग गया। उसे पढ़ने के बाद से राजकुमारी ने जो शरमाना शुरू किया तो अभी तक शरमाती चली जा रही थी जबकि उपन्यास खत्म हुए कई घंटे हो चुके थे। इस बीच वह गुसलखाने और छत से लेकर दुछत्ती तक, जहाँ कहीं एकांत मिला, वहाँ-वहाँ छिपती फिरी। हालाँकि घर में मुंशीजी थे पर इस समय घर में उनका होना-न-होना बराबर था। वे आराम से खर्राटे भर रहे थे। करीब साढ़े तीन बजे वे पेंशन लेकर लौटे थे और तब से सो रहे थे। विनोद और पप्पू घर में थे नहीं। हर तरफ एकांत था। उसने कमरा बंद कर लिया और एक बार फिर से किताब पढ़ना शुरू किया। पहली पंक्ति से ही उसके शरीर में सनसनाहट दौड़ने लगी। पूरी कनपटी लाल हो गई। ऐसा लग रहा था जैसे उसकी नसों में लावा दौड़ रहा हो। नसें तड़कने लगी हों। हे भगवान, कैसी-कैसी गंदी किताबें लोग पढ़ते हैं।... उसने घबराकर इधर-उधर देखा और फिर पढ़ने में मशगूल हो गई। किताब पतली-सी थी इसलिए खत्म होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। किताब खत्म करते-करते वह बुरी तरह हाँफने लगी थी। पूरा बदन गनगना रहा था। उसके सारे कपड़े अस्त-व्यस्त हो गए थे और वह फर्श पर अधनंगी पड़ी लंबी-लंबी साँसें ले रही थी। न जाने कब तक वह औंधी पड़ी रही। फिर उठकर बैठ गई। एक बार फिर किताब उसके हाथ में थी लेकिन इस बार वह ज्यादा नहीं पढ़ सकी। उसने किताब फेंक दी। उसने धीरे-धीरे अपने कपड़े उतार दिए। कमरे में कोई आदमकद शीशा नहीं था। घर में नहीं था तो कमरे में कहाँ से होता। एक छोटा-सा पुराना शीशा था जिसका काँच दरक चुका था। उसने उसके सहारे अपने बदन का मुआयना करना शुरू कर दिया।
बदन का मुआयना पहले की तरह सुखद नहीं था। राजकुमारी जानती थी कि उसका शरीर धीरे-धीरे ढल रहा है। दरअसल इसे जानने के लिए आईने के सामने खड़ा होना भी जरूरी नहीं था। इसे तो गली से शंकर की दुकान तक आते-आते न जाने कितनी बार उसने महसूस किया था। पहले स्कूल जाते समय रास्ते में लड़कों की कतार बिछी रहती थी। मामूली कपड़ों में भी राजकुमारी अपने सौंदर्य से पूरी तरह वाकिफ, गर्दन ऊपर उठाए शान से गुजर जाती थी। लड़कों की सीटियाँ, फिकरे और आवाजें उसे अव्यक्त खुशी से भर देती थीं। ऊपर से ओढ़ी हुई तटस्थता के आवरण को चीरकर अकसर एक मुस्कान उसके होंठों पर खेल जाती। उसकी इस मुस्कान से लड़कों को और प्रेरणा मिलती। यह सिलसिला तब तक चला जब तक मुंशीजी ने उसका स्कूल छुड़ा नहीं दिया। इस सिलसिले में कई बार कुछ अंतरंग प्रसंग जुड़े। कई बार ऐसा हुआ कि लड़कों की भीड़ में अचानक किसी लड़के से राजकुमारी की आँखें बार-बार देर तक टकराने लगतीं। एकाध बार खतो-किताबत का सिलसिला भी शुरू हुआ लेकिन इससे आगे बढ़ने की इजाजत राजकुमारी के निम्न मध्यवर्गीय संस्कारों ने नहीं दी। कई बार छत और गली के अँधेरे कोनों से अचानक छटपटा कर वह निकल भागी थी।
उस समय की राजकुमारी के बदन और आज की राजकुमारी के बदन में कितना फर्क आ गया है। राजकुमारी का मन अव्यक्त पीड़ा से भर उठता है। एक जमाना था, जब राजकुमारी माल थी, चक्कू थी, राजा बनारस थी। एक-एक फिकरा कितनी हसरत से याद आता है। उसके घर से गली में निकलने पर एक हलचल-सी मच जाती थी। आज वह सिर्फ अट्ठाईस साल की बुढ़िया है। जब कभी विनोद को बनिया उधार देने से इनकार कर देता, तब मुंशीजी उसे भेजते हैं। अब उसके बाहर निकलने पर कोई खास हलचल नहीं होती। कोई उसे राह चलते पुरानी कशिश से नहीं पुकारता। अब तो शंकर का लड़का भी उसे देखकर पुरानी सिधाई से सामान नहीं देता। थोड़ी देर तक बड़बड़ाता है, तब सामान तौलता है। एकांत पाकर अपने बाप की अनुपस्थिति में पहले लड़का सौदा देते समय राजकुमारी की उँगलियाँ छू लेता था या कभी-कभी उसकी कलाई पकड़ लेता था लेकिन अब तो उसकी यह दिलचस्पी भी खत्म हो गई है। पहले दुकान पर जाते समय वह मनाती जाती थी कि शंकर से उसकी मुलाकात न हो, उसका लड़का दुकान पर मौजूद हो। लड़का उसे देखकर खुश हो जाता था और अपने बाप की डाँट का खतरा मोल लेकर भी वह राजकुमारी को उधार देता था। राजकुमारी इसके एवज में उसे कुछ हद तक बर्दाश्त करती थी। उसके भद्दे मजाकों पर खीसें निपोर देती या उँगलियाँ या कलाई पकड़ने पर उसे हौले से झटक देती लेकिन इससे अधिक आगे उसने उसे नहीं बढ़ने दिया। कई बार उसने दबे स्वर में सिनेमा जाने या पार्क घूमने का प्रस्ताव राजकुमारी के सामने रखा जिसे सुनकर हर बार राजकुमारी रोमांचित हो उठी थी लेकिन कभी भी उसके संस्कारों ने उसे इतना आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दी थी। अब तो उसकी भी दिलचस्पी राजकुमारी में खत्म हो गई थी। अब अगर कभी वह राजकुमारी के सामने कोई प्रस्ताव रखे तो शायद राजकुमारी उसे स्वीकार कर लेगी। लेकिन अब वह कोई प्रस्ताव क्यों रखेगा?
अट्ठाईस साल की बुढ़िया राजकुमारी से अब शरीर का बोझ बर्दाश्त नहीं होता। उसका मन करता है कि चीखे-चिल्लाए - अपने बदन के कपड़े तार-तार कर डाले। उसकी नसें तड़क रही हैं, एक अजनबी आग है जो पूरे शरीर को जला कर भस्म कर डालना चाहती है। राजकुमारी लाख चाहे लेकिन इस आग से बचना संभव नहीं है। इस आग से वह बचना भी नहीं चाहती। उसका मन करता है कि कोई उस पर बाज की तरह झपटे और दबोज कर उसकी हड्डी-हड्डी चटखा दे। उसके बदन का पोर-पोर अतृप्त है। उसके शरीर का रोआँ-रोआँ विद्रोह करना चाहता है। सारी दुनिया से विद्रोह-मुंशीजी से विद्रोह क्योंकि राजकुमारी की दुनिया का बड़ा हिस्सा मुंशीजी तक ही सीमित है। माँ के मरने के बाद उसकी दुनिया का तीन-चौथाई हिस्सा मुंशीजी से संबद्ध है। अगर वह मुंशीजी से विद्रोह कर दे तो! लेकिन नहीं, शायद ऐसा वह नहीं कर सकती। उसके बदन की आग में एक-एक नस चटख रही है। हलक में जैसे काँटे उग आए हैं। राजकुमारी के लिए थूक घोंटना भी मुश्किल हो रहा है। अपने निढाल पड़े जिस्म को किसी तरह उसने उठाया और एक तरह से घसीटते हुए उसे कोने में घड़े तक ले गई। घड़े के पास कोई गिलास नहीं था, पूरे कमरे में नहीं था। चौके में जाने की हिम्मत उसमें नहीं थी। घड़े के पास एक जूठा कटोरा पड़ा था। उसने उसी में पानी उड़ेला और नाक बंद करते हुए दो-एक घूँट पी लिया। फिर उसी तरह लड़खड़ाती हुई वापस फर्श पर बिछी चटाई तक आई और वहीं धड़ाम से गिर गई। चटाई पर औंधी पड़ी-पड़ी न जाने कब तक वह गहरी-गहरी साँसें लेती रही थी।
राजकुमारी की यह अर्द्धमूर्छित तंद्रा मुंशीजी की आवाज से टूटी। लगता था, मुंशीजी काफी देर से बुला रहे थे। मुंशीजी की आवाज की नर्मी उसे कुछ अपरिचित-सी लगी। बहुत दिनों बाद मुंशीजी उसे इतनी कोमल आवाज में पुकार रहे थे। राजकुमारी हड़बड़ाकर उठी थी। कहीं बीमार तो नहीं हैं! राजकुमारी दुनिया में अगर सबसे ज्यादा नफरत किसी से करती थी तो वह मुंशीजी थे। सबसे ज्यादा प्यार भी वह मुंशीजी को ही करती थी। बचपन में माँ से ज्यादा प्यार वह मुंशीजी से पाती रही थी। छोटी थी तो कमरे का जंगला पकड़े मुंशीजी के ट्यूशन या स्कूल के घर लौटने का इंतजार करती थी। उनके कंधों पर बैठकर गाँवों और कस्बों के न जाने कितने मेलों-ठेलों, हाट-बाजार गई थी। थोड़ी बड़ी हुई तो उन्ही के साथ उँगली पकड़कर नायब साहब के घर जाने लगी थी। वहीं पहली बार उसने त्रिवेणी को देखा था। मुंशीजी जब कभी त्रिवेणी को कोई काम सौंप कर नायब साहब से बात करने अंदर चले जाते, शरारती त्रिवेणी उसका हाथ पकड़े, पिछवाड़े आम के बगीचे में भाग जाता। बचपन की कितनी स्मृतियाँ त्रिवेणी से जुडी हैं। माँ के मरने के बाद मुंशीजी में न जाने कितना फर्क आ गया था कि राजकुमारी उनके सामने जाने से कतराने लगी है। कैसे तो घूर कर देखते हैं। अक्सर बाहर से लौटते हैं तो किसी-न-किसी बहाने उसे पीटते जरूर हैं। राजकुमारी जानती है कि जिस वजह से उसकी पिटाई हो रही है, वह असली कारण नहीं है। कारण कुछ दूसरा है जिसे बताने का साहस मुंशीजी में नहीं है और न ही राजकुमारी पूछ ही सकती है लेकिन उनकी आँखों में राजकुमारी बहुत कुछ पढ़ लेती है।
मुंशीजी के हाथों पिटते समय राजकुमारी को वे दुनिया के सबसे क्रूर और गंदे इनसान लगते थे। लेकिन उसे पीटने के बाद छत पर चादर में मुँह लपेटे, रोने की कोशिशों को रोकते हुए मुंशीजी के हिलते बदन को देखकर राजकुमारी का मन बार-बार करता है कि एक बार फिर वह छोटी-सी बच्ची बन जाए और उनकी गोद में मचल-मचल कर उनके आँसू पोंछ डाले। लेकिन क्या अब यह संभव था, राजकुमारी बड़ी हो गई थी और मुंशीजी उससे काफी दूर जा चुके थे।
इधर कुछ दिनों से मुंशीजी ने उसे पीटना बंद कर दिया था लेकिन आजकल उन्हें झेल पाना राजकुमारी के लिए ज्यादा मुश्किल हो गया है। बाहर से आने पर वे कैसी निगाहों से उसे घूरते हैं। उनकी नजरों में छिपी घृणा, संदेह या तिरस्कार को बर्दाश्त करने से तो कहीं बेहतर था, उनके हाथों पिटना और फिर कुछ देर बाद, दर्द के खात्मे के साथ भूल जाना। लेकिन अब तो मुंशीजी भी अंदर-ही-अंदर घुटते रहते हैं और राजकुमारी भी छटपटाती रहती है।
राजकुमारी उनकी निगाहों को अच्छी तरह पहचानती है। हर बार उसका मन करता है कि चीख-चीख कर मुंशीजी के संदेह की चादर तार-तार कर डाले लेकिन कभी भी मुंशीजी शब्दों के माध्यम से अपना शक व्यक्त नहीं करते। अबोले शक का जवाब राजकुमारी दे तो कैसे दे। आज भी यही हुआ था। राजकुमारी इस कमरे में लगभग नग्न अपने बदन के महासमर में लिप्त थी, ठीक उसी समय दरवाजे पर दस्तक शुरू हुई। पहले धीमे, फिर तेज, फिर दरवाजा लगभग पीटा जाने लगा और फिर एकाएक खामोशी छा गई। राजकुमारी ने जल्दी-जल्दी अपने कपड़े दुरुस्त करते हुए दरवाजा खोला तो घृणा की चिनगारियाँ आँखों में लिए मुंशीजी सामने खड़े थे। उन्होंने केवल एक क्षण के लिए उसे देखा और वितृष्णा और उपेक्षा से आगे बढ़ गए। उस एक क्षण में जाने कितनी तपिश थी कि राजकुमारी अपमान और शर्म की दाहक पीड़ा से झुलस उठी। मुंशीजी चुपचाप अपने कमरे में चले गए लेकिन मुक्ति इतनी आसान नहीं थी। इसके थोड़ी देर बाद मुंशीजी अपने कमरे से निकले और किसी-न-किसी बहाने पूरे घर में झाँक आए। पाखाना, गुसलखाना, छत, कुछ भी नहीं बचा। इससे ज्यादा यातनाजनक राजकुमारी के लिए कुछ भी नहीं था। रसोई के कोने में खड़ी-खड़ी वह मुंशीजी से निगाहें छिपाती रही।
मुंशीजी के कदमों की आहट कई बार रसोई के दरवाजे तक आई, थमी और लौट गई। राजकुमारी के मनाने में अगर दम रहा होता तो धरती कई बार फटी होती और वह कई बार उसमें समाई होती। थोड़ी देर बाद मुंशीजी के कदमों की आहट उनके कमरे की ओर चली गई। न जाने कितनी देर तक राजकुमारी चुपचाप बुत बनी खड़ी रही। ऐसा पहली बार तो हुआ नहीं था लेकिन हर बार का अनुभव पहले से ज्यादा त्रासद होता था। काफी देर बाद जब अपराध-बोध की चिप्पी चेहरे पर चिपकाए राजकुमारी धीरे-धीरे कदमों से अपने कमरे में गई तो मुंशीजी सो गए थे और राजकुमारी ने एक बार फिर दिलकश इलाहाबादी का उपन्यास हाथ में उठा लिया।
मुंशीजी की आवाज काफी दूर से, किसी अंधी सुरंग से टकरा कर लौटती हुई-सी लग रही थी। राजकुमारी को लगा वे काफी देर से पुकार रहे थे। राजकुमारी हड़बड़ा कर उठी लेकिन दोपहरवाली गलती उसने फिर से नहीं दोहराई। अपने अस्त-व्यस्त कपड़ों को करीने से ठीक किया और चेहरे पर लापरवाही का भाव ओढ़ते हुए उसने दरवाजा खोला और बाहर निकल आई। बाहर निकलते ही मुंशीजी की आवाज सर्द कोड़े की तरह उसके कानों से टकराई। काफी देर से पुकारते रहने के कारण उनकी आवाज कुछ रूखी जरूर हो गई थी लेकिन फिर भी यह एक अपचिरित आवाज थी। राजकुमारी के दिल की धड़कन बढ़ गई। वैसे भी दिन के इस हिस्से में सोना मुंशी जी के लिए नई बात थी। लेटते जरूर हैं लेकिन सोते नहीं हैं। कहीं कोई बात तो नहीं हुई? उनकी आवाज के अजनबी अंदाज ने राजकुमारी को बेचैन कर दिया। झपटती हुई वह मुंशीजी के कमरे की तरफ बढ़ी लेकिन कमरे के दरवाजे तक पहुँचकर वह ठिठक गई। पिछले कुछ सालों में वह मुंशीजी से कितनी दूर चली गई थी। किसी भी तरह के भावनात्मक उद्वेग का प्रदर्शन अब संभव नहीं था।
शायद यही स्थिति मुंशीजी के लिए भी थी। अपनी आवाज की छलकती खुशी को सप्रयास दबाते हुए जो तटस्थ वाक्य उन्होंने कहा, उसका कुल मतलब यह था कि आज त्रिवेणी ने पक्का वादा कर लिया है। विनोद को लेकर बड़े साहब के पास जाना है। कहीं-न-कहीं नौकरी जरूर मिल जाएगी। दूसरे वाक्य में उन्होंने दस बरस पहले के मुंशीजी बनने की कोशिश की। जैसे पहले स्कूल से लौटते ही राजकुमारी को चिढ़ाते हुए हँसते और फस्ट क्लास चाय बनाने को कहते, उसी तरह आज भी उन्होंने, उसी अंदाज में फरमाइश करने की कोशिश की। लेकिन आज उनके चिढ़ाने और हँसने में न जाने क्या था कि राजकुमारी पूरी तरह से हिल गई। मुंशीजी उससे निगाह मिलाने से कतरा रहे थे। पता नहीं, दोपहर की अपनी हरकत पर शर्म महसूस कर रहे थे या दिन में सोने का असर था या विनोद को नौकरी मिलने की निश्चित संभावना। उनकी आवाज असहज लग रही थी। राजकुमारी के लिए भी वहाँ खड़ा रह पाना काफी मुश्किल हो रहा था। धीरे-धीरे सिर झुकाए वह बाहर निकल आई और रसोई में जाकर चुपचाप चाय बनाने लगी।
चाय बनाकर जब वह मुंशीजी के कमरे में पहुँची, तब तक वह हाथ-मुँह धोकर तैयार हो चुके थे और हाथ से अपने कोट की सलवटें ठीक कर रहे थे। विनोद बदस्तूर घर से गायब था और मुंशीजी को उसे ढूँढ़ने जाना था। बाहर हल्का-हल्का अँधेरा छाने लगा था। मुंशीजी ने अंदाजा लगाया, साढ़े-पाँच से कम क्या होगा। आज ट्यूशन पर जाने का वक्त भी नहीं रह गया था। चाय पीते-पीते उन्होंने विनोद के उन सारे दोस्तों के नाम-पते याद करने की कोशिश की जहाँ उसके हो सकने की संभावना हो सकती थी। राजकुमारी से भी पूछा लेकिन राजकुमारी की सूचनाएँ काफी पुरानी थीं। विनोद के मौजूदा दोस्तों के बारे में उसे ज्यादा कुछ नहीं मालूम था। बगल की बिन्नी से पूछने पर कुछ मालूम हो सकता था लेकिन बिन्नी के बारे में राजकुमारी मुंशीजी से क्या कहती? लिहाजा मुंशीजी बिना किसी निश्चित सूचना के ही विनोद की तलाश में घर से बाहर निकल पड़े।
राजकुमारी एक बार फिर घर में अकेली रह गई। अकेलापन उसके लिए हमेशा से तकलीफदेह रहा है। अकेलेपन से वह बचपन से ही घबराती रही है, लेकिन अब तो अकेलेपन के साथ रहने की आदत पड़ गई है। फिर भी वह आज घबराकर छत पर निकल आई।
धूप खत्म हो चुकी थी और दिसंबर की शुरुआत की हवा में मजे की ठंडक थी। राजकुमारी एक सूती चादर ओढ़े हुए थी। ठंडी हवा बीच-बीच में उसे कँपा दे रही थी, फिर भी नीचे कमरे के एकांत में जाने का उसका मन नहीं कर रहा था। ऊपर अनमने भाव से वह टहलती रही। दोपहर का प्रभाव अब जिस्म पर दूसरी तरह से महसूस हो रहा था। पूरा बदन टूट रहा था। उसने दो-तीन बार अँगड़ाइयाँ लीं, बदन को चादर में कसकर लपेटा और एकाएक ठिठक कर खड़ी हो गई। सामने की छत पर सुरेंद्र खड़ा था और ढिठाई से उसे घूर रहा था।
सुरेंद्र पप्पू का दोस्त था और उसके साथ पढ़ता था। इधर कुछ दिनों से राजकुमारी उसमें एक अजीब-सा परिवर्तन देख रही थी। पहले वह पप्पू से मिलने जब भी आता तो सीधे धड़धड़ाता हुआ उसके कमरे में घुस आता। चूँकि राजकुमारी और पप्पू का कमरा एक ही था अतः उसे अब भी उसी के कमरे में आना पड़ता है लेकिन अब वह कमरे में घुसने के पहले खँखारता है या उसे कमरे में अकेला देखकर दरवाजे पर ठिठककर खड़ा हो जाता है। पहले की तरह सहज भाव से आकर उसके पास बैठता नहीं। पप्पू की उपस्थिति में अगर बैठना पड़े भी तो उससे सीधे निगाह मिलाने में कतराता है। हवा में इधर-उधर देखकर बातें करता है। जब कभी राजकुमारी की आँखें उसकी आँखों से मिलती है, वह उसकी आँखों का भाव देखकर गनगना उठती है। यह भाव उसने या तो शंकर बनिए के लड़के की आँखों में देखा है या सुरेंद्र के पिता बड़े बाबू की आँखों में। न जाने कैसे इतनी कम उम्र में सुरेंद्र की आँखों में ऐसा भाव आ जाता है।
सामने छत पर सुरेंद्र खड़ा पूरी ढिठाई से उसे घूर रहा था। राजकुमारी ने दूसरी तरफ देखना शुरू कर दिया लेकिन ज्यादा देर तक वह सुरेंद्र की उपेक्षा नहीं कर पाई। दूसरी तरफ देखते हुए उसने कनखियों से सुरेंद्र की तरफ देखा। सुरेंद्र समझ गया था कि उसने उसे देख लिया है और उसे घूरते देखकर भी वह छत से हट नहीं रही है बल्कि बीच-बीच में कनखियों से उसकी तरफ देख रही है। उसका साहस और बढ़ गया। उसने बाकायदा अपने हाथ दोनों छतों के बीचवाली विभाजक दीवार पर टिका लिए और हल्के-हल्के लहजे में सीटी बजाने लगा। उसके लिए यह पहला मौका था जब राजकुमारी से वह इतनी धृष्टता से पेश आ रहा था इसलिए जबरदस्ती पैदा की गई लापरवाही के बावजूद घबराहट में उसकी सीटी की आवाज बीच-बीच में टूट जा रही थी। अभी कुछ दिनों पहले तक वह पप्पू के साथ राजकुमारी से मिलता तो अपनी बड़ी बहनवाला भाव उसके मन में होता। राजकुमारी के लिए जिस्मानी आकर्षणवाला भाव उसके मन में अचानक ही पैदा हो गया था। दरअसल उसके और पप्पू के गोल के लड़कों के लिए सेक्स से परिचय अभी नया-नया हुआ था। इन लड़कों ने अपनी हाल ही में हस्त-मैथुन की सीढ़ियाँ लाँघनी शुरू की थीं और गली में खड़े होकर लड़कियों को घूरने या फिकरेबाजी करने के लिए उन्होंने धीरे-धीरे पुराने लड़कों की जगह लेना शुरू किया था। उनके लिए गली के विभिन्न घरों की छोटी बच्चियों से लेकर अधेड़ औरतें तक अचानक ‘माल’ बन गई थीं। शारीरिक परिवर्तन के इसी अंधड़ में एक दिन सुरेंद्र को राजकुमारी भी माल लगने लगी थी।
काफी देर तक राजकुमारी उपेक्षा का भाव प्रदर्शित करते हुए इधर-उधर देखती रही। बीच-बीच में वह कनखियों से सुरेंद्र की तरफ देख लेती थी। उसे इस लुका-छिपी में आनंद आने लगा था। काफी दिनों बाद कोई उसे इस कशिश से देख रहा था। हालाँकि सुरेंद्र को वर्षों से वह पप्पू के साथ देखती आई थी और उसे किसी अन्य रूप में स्वीकारना उसके लिए आसानी से संभव नहीं हो पा रहा था लेकिन फिर भी सुरेंद्र अपने पिता बड़े बाबू या शंकर से तो निश्चित रूप से बेहतर था। बड़े बाबू का दुर्गंध का भभूका छोड़ता पीले और बेढंगे दाँतोंवाला चेहरा वह कई बार अपने चेहरे से परे ढकेल चुकी है। याद आते ही उसका मन घिन से भर उठा। शंकर के साथ कभी मामला इतना आगे तो नहीं बढ़ा है लेकिन उसने जब कभी कलाई पकड़ने की कोशिश की है, राजकुमारी का मन जुगुप्सा से भर उठा है। सुरेंद्र निश्चित रूप से उन दोनों से बेहतर था।
परिवर्तन की शुरुआत में तो सुरेंद्र की आँखों का भाव पढ़कर राजकुमारी को काफी मनोरंजक लगता था। कल तक हाफपैंट पहनकर दीदी-दीदी करनेवाले छोकरे को जवान मानकर गंभीरता से लेने का प्रयास करने मात्र से ही उसे हँसी आ जाती। यह तो बिल्कुल ऐसे ही था जैसे कोई किशोर अपने को बड़ा साबित करने के लिए बड़ी-बड़ी डींगे हाँकने लगे। शुरू-शुरू में सुरेंद्र के घूरने पर उसे ऐसा ही लगता था। कभी-कभी वह उसे चिढ़ाने के लिए उससे आँखें मिलाकर मुस्करा देती। उस समय सुरेंद्र का चेहरा एकदम फक पड़ जाता और घबराहट में वह काफी देर तक उससे आँखें नहीं मिला पाता था। बाद में स्थिति कुछ बदली थी। राजकुमारी को धीरे-धीरे लगने लगा था कि सुरेंद्र अब निरा बच्चा नहीं रह गया है। उसने उसे कुछ गंभीरता से लेना शुरू किया था। फिर भी सुरेंद्र की अभी तक इतनी हिम्मत नहीं हुई थी कि वह उसे इस तरह घूरे। आज पहली बार सुरेंद्र यह हिम्मत कर रहा था और उसे इसका अहसास था, इसलिए बीच-बीच में उसकी सीटी की आवाज टूट जा रही थी और अँधेरे के बावजूद अगर कभी उसे लगता कि राजकुमारी की निगाहें उसकी निगाहों से टकरा गई हैं तो वह घबरा कर इधर-उधर देखने लगता। आज वह पूरी तरह से तैयार होकर आया था इसलिए पहले की तरह जल्दियाकर भागने के लिए तैयार नहीं था।
दिलकश के उपन्यास की खुमारी राजकुमारी पर अभी तक ताजी थी। वह धीरे-धीरे अपने बदन के दबाव में ज्यादा खुलती जा रही थी। जल्दी ही वह स्थिति आ गई जब राजकुमारी ने दूसरी तरफ देखने के बहाने से मुक्ति पा ली और सीधे सुरेंद्र की तरफ देखने लगी। अँधेरा था इसलिए उनकी निगाहें सीधे एक-दूसरे से टकरा नहीं रही थीं। फिर भी इस बात का पता दोनों को चल गया था कि कि वे एक-दूसरे की तरफ ही देख रहे हैं। अचानक सुरेंद्र का बायाँ हाथ उठा और उसने कुछ इशारा किया। अँधेरे में राजकुमारी को लगा सुरेंद्र उसे बुला रहा है। उसका पूरा शरीर गनगना उठा। कमोबेश दोनों की यही स्थिति थी।
लाख कोशिश के बावजूद राजकुमारी अपनी जगह से हिल नहीं पाई। अपनी जगह पर जड़वत खडी उसने देखा कि हल्के-हल्के, काँपते बदन, सूखे हलक और लड़खड़ाते कदमों से उसकी तरफ कोई बढ़ा चला आ रहा था। यह सुरेंद्र था। निष्पंद और अवाक राजकुमारी किसी अनाहूत क्षण की प्रतीक्षा में खड़ी थी। आज पहली बार राजकुमारी को पता चला कि जिस्म का जादू कितना सम्मोहक और तिलिस्मी होता है। सुरेंद्र के कमजोर आलिंगन और बचकाने चुंबनों में केवल जिस्म की माँग थी, न प्यार था और न कोई कोमलता। दरअसल इनकी दरकार न तो उस समय राजकुमारी को थी और न ही सुरेंद्र को। इस समय राजकुमारी हवा के घोड़े पर सवार होकर उड़ जाना चाहती थी, दूर - बहुत दूर। उसके लिए केवल उसके शरीर का अस्तित्व ही सार्थक था, बाकी सब कुछ - मुंशीजी, निम्न मध्यम-वर्गीय मूल्य, समय आदि - निरर्थक हो गए थे। पिछले दस सालों से अपने विरुद्ध संघर्ष करके जिस अनुभव से उसने स्वयं को काट रखा था, आज वही अनुभव अपनी पूरी सम्मोहकता के साथ उसके समक्ष खड़ा था। वह एक-एक क्षण किसी कृपण की तरह भोगना चाहती थी, अनुभव का हर खंड जीना चाहती थी। न जाने कहाँ का वेग उसके शरीर को उद्वेलित कर रहा था कि सुरेंद्र के लिए उसका साथ देना अधिक देर तक संभव नहीं रह सका। राजकुमारी का पोर-पोर प्यासा था और सुरेंद्र का कैशोर्य उसकी प्यास बुझाने में सर्वथा असमर्थ। जल्द ही छटपटाकर उसने उठ बैठने की कोशिश की लेकिन अब राजकुमारी ने उसे जकड़ लिया था। थोड़ी देर में ही सुरेंद्र की साँस टूटने लगी और वह हाँफने लगा। राजकुमारी के मन में आया कि उसके मुँह में अपने नाखून गड़ाकर उसका मुँह नोच ले। उसने सुरेंद्र के अपने ऊपर से परे ढकेल दिया और खुद सीढ़ियों की तरफ भागी लेकिन सीढ़ियों तक पहुँचते-पहुँचते उसकी चाल पस्त हो गई।
अपने कमरे तक राजकुमारी किस तरह घिसटती हुई पहुँची इसे वही जानती है। फर्श पर चटाई बिछी हुई थी। राजकुमारी उसी पर निढाल गिर पड़ी। तृप्ति और अतृप्ति के मध्य झूलते हुए उसे खुद समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसा लग रहा था। अच्छा या बुरा - उसे कुछ पता नहीं। एक अजीब-सा तूफान था जिसके बगूलों के बीच थपेड़े खाते हुए उड़ना अच्छा लगा था लेकिन अब ऐसा लग रहा था कि मानो तूफान ने उसे आसमान पर उड़ाते-उड़ाते एकदम से जमीन पर लाकर पटक दिया हो। उसका जिस्म बुरी तरह से दर्द कर रहा था। लेकिन इस दर्द में सुख था। आज के अनुभव के बारे में राजकुमारी कोई फैसला नहीं कर सकती लेकिन उसे पता है कि जो कुछ हुआ, उस पर उसका कोई वश नहीं था। इसे तो होना ही था। राजकुमारी के जिस्म की माँग पिछले दस-बारह सालों से कुचली जा रही थी। आज पहली बार उसे लगा कि शरीर की माँग कितनी सम्मोहक और सुखद होती है। आज तक इस माँग की अवज्ञा करके वह स्वयं को किस कदर छलती चली आ रही थी।
बचपन से राजकुमारी की आदत सपने देखने की रही है। दिन में, रात में, सोते, जागते वह कभी भी सपने देखना शुरू कर सकती थी। माँ के मरने के बाद तो यह आदत और भी बढ़ गई थी। शायद यह अकेलापन था जिससे जूझते-जूझते वह ज्यादा आत्मकेंद्रित होने लगी और अपनी गढ़ी हुई दुनिया में खोने में उसे ज्यादा मजा आने लगा। उसने बचपन से एक सपना बार-बार देखा है। रेशम की गुड़िया-सी सजी-धजी राजकुमारी सफेद घोड़े पर सवार, रूई के फाहों जैसे बादलों पर तैरती चली जा रही है। अधमुँदी आँखों और अलसाए बदन के साथ उड़ते हुए उसे हर बार लगता है कि कहीं से कोई उसे पुकार रहा है। न जाने कौन है जो बादलों के पार से इतनी कशिश के साथ उसका नाम लेकर बुला रहा है। अचानक दूर बादलों के बीच से धीरे-धीरे कुछ उभरता है। पहले एक बलिष्ठ, सजे-धजे घोड़े की आकृति और फिर उस पर बैठे एक अनाम, अनजान पुरुष की आकृति। राजकुमारी को बचपन से इसी राजकुमार की प्रतीक्षा थी। वह बेसब्री से तेज-तेज हाथ-पाँव फेंकते हुए राजकुमार की तरफ बढ़ने की कोशिश करती है। पर दोनों के बीच की दूरी है कि कम होने का नाम नहीं लेती। जैसे ही राजकुमारी घोड़े के करीब पहुँचती है, एकाएक घोड़ा पीछे मुड़कर तेजी से उससे दूर भागने लगता है। राजकुमारी चीखती है, चिल्लाती है, दोनों हाथ उठा-उठा कर रोकने का प्रयास करती है लेकिन नहीं, घोड़ा धीरे-धीरे अदृश्य होता जाता है। राजकुमारी उठकर उसके पीछे दौड़ने की कोशिश करती है लेकिन फाहों जैसे बादल बर्फ में तब्दील हो जाते हैं और राजकुमारी उसमें धँसती जाती है - कमर तक धँस जाती है। कुछ देर बाद उसके हाथ ऊपर रह जाते हैं जो घोड़े के अदृश्य होने की दिशा में हिल-हिल कर उसे रोकने का असफल प्रयास करते रह जाते हैं।
हर बार जगने पर राजकुमारी को इस सपने से घबराहट होती है लेकिन अक्सर सोते-जागते उसे सायास या अनायास यह सपना दिखाई दे जाता है। उसने कई बार कोशिश की है कि अपने सपने के राजकुमार का चेहरा देख ले लेकिन हर बार उसका चेहरा बादलों और धुंध के बीच गड्ड-मड्ड हो जाता है । शुरू-शुरू में यह चेहरा त्रिवेणी जैसा लगता। बहुत दिनों तक लगता रहा। बाद में जैसे-जैसे त्रिवेणी की स्मृति धुँधलाती गई, चेहरे का आकार भी अस्पष्ट होता गया। कई बार ऐसा हुआ कि राजकुमार का चेहरा शंकर के चेहरे से मेल खाने लगा। ऐसा जब भी हुआ, पसीने से भीगी राजकुमारी के बर्फ में डूबे हाथों ने भागते हुए अश्वारोही का आवाहन करने से इनकार कर दिया। हर ऐसे अनुभव के बाद, जब कभी राजकुमारी घबराकर उठी है, उसे स्थिर होने में काफी समय लगा है।
आज भी राजकुमारी अर्द्धनिमीलित अवस्था में पुराने सपनों में डूब गई। आज उसे गौर से देखा तो उसे लगा कि राजकुमार का चेहरा किसी कम उम्र किशोर की तरह था। उसने बार-बार सुरेंद्र के चेहरे को याद करने की कोशिश की लेकिन सुरेंद्र का चेहरा धुँधला-सा उभरता और उसकी पकड़ से फिसलता चला जाता।
दरअसल सोते समय देखे गए सपनों के अलावा उठते-बैठते घर में काम करते-करते भी राजकुमारी एक सपना देखती रहती थी। यह सपना भी राजकुमार से ही संबंधित था। माँ के मरने के बाद से ही राजकुमारी को किसी ऐसे राजकुमार का इंतजार रहने लगा था जो उसे अकेलेपन की यातना से मुक्ति दिलाकर कहीं दूर ले जाता। खाली समय में, वह पड़ोस से माँगे गए घटिया उपन्यास पढ़ती और इन उपन्यासों से उसे और भी मानसिक खुराक मिलती। वह अपनी कल्पना के राजकुमार के खयालों में डूबे-डूबे खुद ही मुस्कुराती, नाराज होती, सिसकियाँ भरती और कभी-कभी खुद से संवाद करने लगती। कई बार ऐसा हुआ है कि उसे बुदबुदाते देखकर मुंशीजी चौंक गए हैं या पप्पू हँसने लगा है। हर बार शरमाकर राजकुमारी चुप हो जाती है और घबराकर जल्दी-जल्दी दूसरा काम करने लगती है। इस घबराहट में कभी उसका हाथ जलते तवे पर पड़ जाता, कभी गिलास से पानी छलक जाता और कभी उँगली में सुई चुभ जाती।
पहले जब कभी मुंशीजी बाहर राजकुमारी की शादी की बात चलाकर आते और घर में उत्साहित स्वर से बातें करना शुरू करते, इन सपनों की रफ्तार बढ़ जाती। सपनों में खोई राजकुमारी हर पल उस राजकुमार का इंतजार करने लगती। कभी-कभी मुंशीजी लड़के की तस्वीर घर ले आते, तब राजकुमार का चेहरा काफी स्पष्ट उभरता। राजकुमारी चोरी-छिपे तस्वीर देखती और रात में अपने सपने के राजकुमार के फ्रेम में इसे मढ़ लेती। हर बार शादी की बात बीच में ही टूट जाती। राजकुमारी इस हादसे की इतना ज्यादा अभ्यस्त हो गई थी कि उसे यह जानने के लिए कि उसकी शादी की बात टूट गई है, किसी के मुँह से कुछ सुनने की जरूरत नहीं पड़ती। मुंशीजी के घर में घुसने, कोट उतारने, बात करने या खाना खाने के अंदाज से ही उसे पता चल जाता कि एक बार फिर उसके शादी की बात टूट गई है और अभी न जाने कब तक के लिए उसकी नियति इस नर्क से जुड़ी हुई है, जिसे घर कहते हैं। तब उसके सपनों में खोने की रफ्तार ज्यादा बढ़ जाती है और उसके सपनों के राजकुमार का चेहरा पहले की ही तरह धुँधला और अस्पष्ट हो जाता है।
काफी देर बाद जब वह अपने स्वनिर्मित संसार से वापस लौटी तो जाड़े की रात अपने पूरे भयावह विस्तार के साथ उतर चुकी थी। वह हड़बड़ाकर उठी। समय का अंदाज नहीं लग रहा था। घर की इकलौती घड़ी मुंशीजी के साथ चली गई थी। राजकुमारी का आज पूरा दिन ऐसे ही चला गया था। अभी उसे दिन के बर्तन माँजने थे, शाम का खाना बनाना था। मजे की सर्दी पड़ रही थी। इस सर्द मौसम में ठंडे पानी से बर्तन माँजने का खयाल ही काफी कष्टदायक था। थोड़ी देर और आलस से पड़े-पड़े बदन की टूटन को महसूस करने की कोशिश वह करती रही। लेकिन उसे उठना ही था और वह उठी।
नल के नीचे जूठे बर्तनों का ढेर देखकर वह कोफ्त से भर उठी। बेमन से उसने ठंडे पानी के धार के नीचे अपनी हथेली डाली और खींच लिया। उसका हाथ सुन्न हो गया था। थोड़ी देर तक वह अपनी हथेलियाँ रगड़ती रही। थोड़ी गर्माहट आते ही उसने पूरा हाथ नल के नीचे डाल दिया। दो थालियाँ धोते-धोते उसकी हिम्मत जवाब दे गई। उसने मन-ही-मन तय किया कि आज सिर्फ खिचड़ी बनाएगी। इस फैसले से उसके मन में अतिरिक्त उत्साह का संचार हुआ। खिचड़ी के लिए उसे सिर्फ एक पतीली साफ करने की जरूरत पड़ेगी। दो थालियाँ हो गईं, एक और साफ करेगी, खुद मुंशीजी की जूठी थाली में खा लेगी। बचपन में उसमें और विनोद में कितना झगड़ा होता था, मुंशीजी की जूठी थाली में खाना खाने के सवाल को लेकर। अक्सर माँ फैसला करती। अब यह सब चीजें बेमानी लगती हैं। अब तो पहले की तरह मुंशीजी, विनोद या पप्पू की फरमाइशें भी नहीं रहीं। जो कुछ राजकुमारी बना देती है, सभी सिर झुकाए उसे खा लेते हैं। केवल पप्पू ही कभी-कभी कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। लेकिन उसकी प्रतिक्रिया भी अब केवल झुँझलाकर आधी खाई थाली सरका देने-भर रह गई है। मुँह से कुछ नहीं कहता। राजकुमारी कितना तरसती है कि पहले की तरह मुंशीजी सब्जी या दाल में नमक ज्यादा होने पर चुहल करें, विनोद या पप्पू मनपसंद खाना न बनाने पर उससे झगड़ें और राजकुमारी जब तक दूसरे दिन उसका मनपसंद खाना न बना दे तब तक गुस्सा उसकी नाक पर भिनकता रहे। राजकुमारी ने माँ से सीखा था कि किस तरह तमाम आर्थिक तंगियों के मध्य लजीज खाना बनाया जाए। बचपन में वह माँ से कितनी ईर्ष्या करती थी, जो मशीन की तरह तेजी से, बिना किसी विशेष सामग्री के मजेदार खाना बनाती थी। उसे लगता कि वह कभी ऐसा खाना नहीं बना सकेगी, लेकिन उसने धीरे-धीरे माँ से सब कुछ सीख लिया। माँ के मरने के बाद, उसका प्रयास यही रहा कि किसी को भी माँ की कमी महसूस न हो सके। शुरू में ऐसा हुआ भी लेकिन बाद में न जाने क्या हुआ कि घर के सारे सदस्य अलग-अलग द्वीपों की तरह एक-दूसरे से दूर होते गए। अब जिस संवादहीनता की स्थिति में वे पहुँच गए थे, उसमें यह संभव नहीं रह गया था कि खाना खाने जैसे अनौपचारिक मौके पर भी उनके बीच किसी तरह की गर्माहट शेष रह सके।
केवल खिचड़ी पकाने के फैसले से राजकुमारी की कोफ्त कुछ कम हुई। उसने पतीली साफ की और बाकी जूठे बर्तन नल के एक तरफ सरका दिए। ठंड से सिहरते हुए जल्दी-जल्दी अपने हाथ साफ किए और साफ बरतनों को उठाकर रसोई में आ गई। जल्दबाजी में अँगीठी सुलगाना तो वह भूल ही गई थी। उसे एक बार फिर अपने पर झुँझलाहट हुई। उसने जल्दी-जल्दी अँगीठी चौके के बाहर निकाली, सबेरेवाली राख नल के किनारे पड़े जूठे बर्तनों के पास उड़ेली और खाली अँगीठी उठाकर आँगन के किनारे आ गई, जहाँ कोयले का ढेर पड़ा हुआ था। अँगीठी में कोयला भरते-भरते उसने समय का अंदाजा लगाने की कोशिश की। जाड़े की अँधेरिया रात अपने बारे में किसी तरह का अंदाज लगाने से रोक रही थी। बहरहाल आस-पास के घरों से आ रही आवाजों से इतना अहसास तो उसे हो ही चला था कि काफी देर हो गई है और मुंशीजी किसी भी क्षण आ सकते हैं। वह जानती है कि थके-माँदे लौटने पर खाना तैयार न देखकर मुंशीजी कुछ कहेंगे नहीं, चुपचाप मुँह ढँककर लेट जाएँगे लेकिन उनका कुछ न कहना ही राजकुमारी के लिए ज्यादा यातनादायक सिद्ध होगा। कोयला भरते हुए उसके हाथों की रफ्तार और ज्यादा बढ़ गई। कोयला भरकर, उसने कुछ लकड़ियाँ सुलगाकर अँगीठी में डालीं और सुलगने के लिए अँगीठी उठाकर बाहर गलियारे में रख आई।
वापस रसोई में आकर उसने चावल थाली में निकाला और बीनना शुरू कर दिया। अभी उसने चावल बीनना खत्म किया ही था कि बाहर दरवाजे पर दस्तक सुनाई पड़ी। हे भगवान, मुंशीजी आ गए क्या! उसने घबराहट में थाली जमीन पर रख दी और बाहर को भागी। दरवाजा खोलते ही वह यंत्रवत खड़ी रह गई। सामने त्रिवेणी खड़ा था। उसकी ओर त्रिवेणी की नजरें परिचित अंदाज से मिलीं और झुक गईं। नजरें बचाते-बचाते जो कुछ त्रिवेणी ने कहा, उसका आशय था कि वह मुंशीजी और विनोद के साथ आया है। विनोद गली के नुक्कड़ पर किसी से बात कर रहा है और मुंशीजी थोड़ा पहले ही रिक्शे से यह कहकर उतर गए थे कि बस आते ही हैं। त्रिवेणी के कथन का न जाने कितना अंश राजकुमारी समझ पाई, वह चुपचाप दरवाजे पर सटकर एक किनारे खड़ी हो गई। त्रिवेणी पहले भी आ चुका था। अंदर आकर, वह सीधा मुंशीजी के कमरे की तरफ बढ़ गया।
पता नहीं कितनी देर तक राजकुमारी दरवाजा पकड़े खड़ी रही। विनोद के कदमों की आहट ने उसकी तंद्रा भंग की। विनोद दरवाजा पार कर अंदर आ रहा था, उसे चुपचाप वहाँ खड़ा देख, ठिठककर रुकने लगा लेकिन राजकुमारी बिना उसे कुछ बोलने का मौका दिए, बाहर गली में निकल आई। अँगीठी में आँच अभी ऊपर तक नहीं आ पाई थी। चुपचाप उसने कोयले कुरेदने शुरू कर दिए। कोयले कुरेदने से जल्दी कुछ होनेवाला नहीं था, लिहाजा वह अंदर गई और पंखा उठा लाई। पंखा झलने से कुछ फर्क पड़ा और ऊपरी सतह के नीचे लाल-लाल चिनगारियाँ दिखाई देने लगीं। उसे पता था कि मुंशीजी आते ही त्रिवेणी के लिए चाय बनाने को कहेंगे। घर में न दूध है और न चीनी। गनीमत है कि विनोद मौजूद है, नहीं तो उधार चीनी लाने शंकर और दूध लाने ग्वाले के घर तक उसे ही जाना पड़ता। ग्वाले के घर तक तो वह जा सकती है किन्तु शंकर की दुकान तक जाने के खयाल से ही उसे वितृष्णा होने लगती है।
गली के मोड़ पर मुंशीजी दिखाई दिए। उनके हाथ में एक कुल्हड़ था। शायद उसमें दही था। तो क्या त्रिवेणी यहीं खाना खाएगा, राजकुमारी की घबराहट बढ़ गई। उसने घबराकर अँगीठी के लोहे का हैंडल नंगे हाथों से पकड़ा और लगभग दौड़ते हुए आँगन में घुस गई। आँगन के मध्य तक पहुँचते-पहुँचते उसके हाथ जलने लगे और उसे अँगीठी जमीन पर रखनी पड़ी। जमीन पर अँगीठी रखकर उसने आँचल से उसे पकड़कर उठाया और रसोई में लेकर चली गई। तब तक मुंशीजी भी अंदर आ गए थे। वे सीधे रसोई में ही चले गए। उनके एक हाथ में दही था और दूसरे हाथ में कुछ मूलियाँ और एक नींबू था। राजकुमारी ने चुपचाप सारी चीजें उनके हाथ से ले लीं। अब तक उसे पक्का यकीन हो चुका था कि त्रिवेणी यहीं खाना खाएगा। इसलिए मुंशीजी के कथन को उसने महज औपचारिक सूचना के तौर पर लिया। हाँ, एक झूठ जरूर उसके मुँह से अनजाने में निकल गया। उसने मुंशीजी को बता दिया कि उसने सबके लिए खिचड़ी बना दी है, केवल सलाद भर काटकर वह खाना लगा देगी। मुंशीजी चले गए।
राजकुमारी ने फटाफट दाल साफ की और अँगीठी पर खिचड़ी चढ़ा दी। आँच कुछ कम थी, उसने फिर पंखा लेकर झलना शुरू कर दिया। खिचड़ी बनने में समय ही कितना लगता है। जब तक खिचड़ी बनेगी, वह सलाद काट लेगी। अंदर से त्रिवेणी के जोर से हँसने की आवाज आई, साथ में मुंशीजी की हल्की आवाज भी थी। अंदर त्रिवेणी और मुंशीजी कुछ उत्तेजित आवाज में बातें कर रहे थे। राजकुमारी नें कान लगाकर सुनने की कोशिश की। केवल एक शब्द नौकरी उसके कान में बार-बार पड़ा। तो क्या विनोद को नौकरी मिल गई! राजकुमारी का मन छलछला उठा। अव्यक्त खुशी से उसका बदन पुलकित हो गया। चुपचाप रसोई में से निकलकर वह बरामदे में खंभे से चिपककर खड़ी हो गई। अंदर कमरे में बैठे हुए तीन व्यक्तियों में से केवल विनोद ही उसे दिखाई पड़ रहा था। त्रिवेणी बार-बार विनोद को मिठाई खिलाने के लिए कह रहा था। मुंशीजी भी उत्साहित स्वर में उसका समर्थन कर रहे थे लेकिन न जाने क्या बात थी कि विनोद बुझे मन से बैठा-बैठा सुबह का अखबार उलट रहा था। शायद मुंशीजी के सामने अपनी खुशी जाहिर करने से शरमा रहा हो। राजकुमारी का मन हुआ कि भागकर ऊपर छत पर चली जाए और बिन्नी को बता दे लेकिन उसने अपने ऊपर नियंत्रण किया और रसोई में चली आई। विनोद की नौकरी पक्की होने पर ही मुंशीजी त्रिवेणी को खाना खाने के लिए घर ले आए हैं।
राजकुमारी ने अपने हाथ तेज कर दिए। खिचड़ी करीब-करीब बन चुकी थी। उसने मूली काट डाली। बाहर का एक मेहमान बैठा है और उसने सिर्फ खिचड़ी बनाई है - राजकुमारी को शर्म महसूस होने लगी। कम-से-कम सलाद तो ठीक होती। उसने टमाटर की तलाश में पूरी रसोई छान डाली। एक भी टमाटर नहीं मिला। एक ही उपाय था कि कोई शंकर की दुकान तक जाए और ले आए। उस समय कोई और दुकान तो खुली नहीं होगी। शंकर की दुकान और घर एक ही होने से किसी भी वक्त कोई सामान लिया जा सकता था। राजकुमारी बाहर निकलकर बरामदे में आ गई। विनोद कमरे में सिर झुकाए बैठा दिखाई दे रहा था। उसने उसे हाथ से इशारा किया लेकिन विनोद चुपचाप अखबार के पन्ने में नजरें डाले बैठा रहा। विनोद का ध्यान आकर्षित करने के लिए उसने कई तरह के उपाय किए लेकिन उसके खाँसने, खँखराने या हल्की आवाजों का विनोद पर कोई असर नहीं पड़ा। पता नहीं, कौन सी बात थी जिसके चलते अखबार से सर उठाना उसके लिए नामुमकिन हो गया था। झुँझलाकर राजकुमारी वापस रसोई में आ गई। खिचड़ी पक चुकी थी, उसने उसे उतारकर जमीन पर रख दिया। शंकर के घर उसे ही जाना पड़ेगा। रसोई का पल्ला भेड़कर वह घर के बाहर आई। शंकर का घर ज्यादा दूर नहीं था। लेकिन बाहर की सर्दी और शंकर के घर जाने के ख्याल से उत्पन्न हुई जुगुप्सा ने राजकुमारी की चाल काफी धीमी कर दी। उसने सर्द हवा के थपेड़ों से बचने के लिए अपनी महीन सूती साड़ी कसकर चेहरे पर लपेट ली किन्तु बला की सर्दी थी और राजकुमारी बीच-बीच में सिहर उठती थी।
शंकर से मुंशीजी के परिवार का पुराना रिश्ता था। जब से वे लोग इस मुहल्ले में आए हैं, राजकुमारी को याद नहीं पड़ता कि कोई महीना ऐसा गुजरा है जिसके अंत में शंकर के यहाँ से उधार लेने की नौबत न आई हो। कितनी बार मुंशीजी ने उससे छुटकारा पाने की कोशिश की है लेकिन हर बार हार गए हैं। माँ थी तो इसी बात पर मुंशीजी से लड़ती थी लेकिन उसे भी पता था कि बिना शंकर की मदद से उसकी गृहस्थी की गाड़ी हर महीने चल नही पायेगी । लिहाजा शुरू से ही जोड़-तोड़ करने के बावजूद महीने के आखिरी में वह भी समर्पण कर ही देती थी। माँ के मरने के बाद धीरे-धीरे विनोद और पप्पू का रिश्ता घर से खत्म होता गया, लिहाजा उधार लेने शंकर की दुकान तक या तो मुंशीजी जाते या फिर राजकुमारी को जाना पड़ता। अक्सर जब कई महीने का हिसाब बिन चुका रहा जाता और शंकर उधार देने से इनकार करने लगता था मुंशीजी राजकुमारी को ही भेजते। शुरू के सालों में शंकर के लड़के की राजकुमारी में काफी दिलचस्पी थी। अक्सर उसके स्कूल जाने के समय वह गली के मोड़ पर खड़ा रहता, कभी-कभी उसके स्कूल तक पीछा करता। शंकर की अनुपस्थिति में वह दुकान पर बैठता था। अगर कभी ऐसे मौके पर राजकुमारी दुकान पर आ जाती तो उसकी बांछें खिल जातीं। उसकी एक सीमा तक छेड़छाड़ राजकुमारी को भी अच्छी लगती। उसके आँख मारने, उँगलियाँ छू लेने या कलाई पकड़ लेने पर राजकुमारी हल्के से हँस देती और दुकान के बाहर भाग आती। दुकान और घर एक ही इमारत में होने के कारण शंकर के लड़के का साहस इससे ज्यादा बढ़ने का होता भी नहीं। बाहर पार्क या सिनेमाहाल में मिलने के उसके प्रस्ताव को चाहते हुए भी स्वीकार करने का साहस राजकुमारी नहीं जुटा सकी थी। बाद में धीरे-धीरे उसकी दिलचस्पी राजकुमारी में से खत्म हो गई थी। मोहल्ले में और न जाने कितनी लड़कियाँ राजकुमारी की जगह लेने को तैयार हो गई थीं और चूँकि मोहल्ले के अधिकांश घर भी शंकर के कर्ज से डूबे थे लिहाजा उसने दूसरी लड़कियों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी थी।
शंकर अपनी दुकान में तख्ते पर रजाई ओढ़े बैठा था। दरअसल उसके घर का बाहरवाला कमरा ही उसकी दुकान थी जिसमें वह रोजमर्रा के जरूरत की हर चीज रखता था। दुकान का एक पल्ला खुला था और अंदर एक मद्धिम-सी लालटेन जल रही थी। राजकुमारी खुले पल्ले से अंदर घुसी। शंकर शायद ऊँघ रहा था। उसने दो-एक बार आँखें मिचमिचाई और चैतन्य होकर राजकुमारी को देखने लगा। उसकी आँखों में राजकुमारी को देखते ही चमक आ गई। उसकी यही चमक राजकुमारी के मन में भय और घृणा उत्पन्न करती थी। घर के अंदर से कोई आवाज नहीं आ रही थी। लगता था, सभी या तो कहीं बाहर गए हुए हैं या फिर सो गए हैं। राजकुमारी की घबराहट बढ़ गई। उसने बड़ी मुश्किल से टमाटर की टोकरी की तरफ इशारा किया और उसके मुँह से एक पाव निकला। टमाटर तौलते समय भी शंकर की आँखों में वही चमक थी। उसका ध्यान टमाटर तौलने पर कम था और राजकुमारी के बदन के उतार-चढ़ाव पर ज्यादा। उसने कमोबेश जैसा हुआ टमाटर तौलकर तराजू का पलड़ा राजकुमारी की तरफ बढ़ाया। राजकुमारी झोला लाना भूल गई थी। उसने हड़बड़ाकर अपनी साड़ी का पल्लू आगे कर दिया। शंकर ने बाएँ हाथ से तराजू के टमाटर उसके पल्लू में गिराए और उसका दाहिना हाथ अचानक राजकुमारी की छाती पर पहुँच गया। राजकुमारी एकदम से चिहुँककर पीछे हटी। उसके पल्लू से टमाटर गिरते-गिरते बचे। शंकर ने एकदम से रजाई पीछे फेंकी और उसके ऊपर झपटने की कोशिश की लेकिन तब तक राजकुमारी सँभल चुकी थी। शंकर की पकड़ में आने के पहले ही वह खुले पल्ले से बाहर निकल भागी। बाहर सड़क पर भी लगभग बीस गज उसने दौड़कर तय किया। चारों तरफ सन्नाटा था, इसलिए किसी ने देखा नहीं लेकिन फिर भी कोई देख न ले, इस भय से राजकुमारी के पाँव जकड़ गए। उसने रुककर अपने अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक किए, अपनी तेज चलती साँस को काबू में करने की कोशिश की और लंबे-लंबे डग भरते हुए रास्ता तय कर लिया।
मुंशीजी, लगता है उसी को तलाश रहे थे क्योंकि जब वह पहुँची तो वे रसोई में झाँककर वापस आ रहे थे। उसे आता देखकर, ठिठक कर खड़े हो गए। उनके चेहरे पर दोपहरवाला भाव क्षण-भर को आया लेकिन इस बीच राजकुमारी ने टमाटर हाथ में ले लिए थे। टमाटर उसके हाथों में देखकर उनका चेहरा कोमल हो गया और वे अंदर चले गए। राजकुमारी ने खिचड़ी को छूकर देखा, ठंडी हो गई थी। अँगीठी अभी बुझी नहीं थी, उसने फिर से खिचड़ी उस पर चढ़ा दी। इसी बीच उसने मूली और टमाटर धोकर सलाद काट डाला। शंकरवाला प्रसंग हालाँकि ताजा था लेकिन उसके प्रभाव से वह काफी हद तक मुक्त हो गई थी। इतनी बार उसे इस तरह का अनुभव हुआ है कि ज्यादा देर तक अब उसके दिमाग पर तनाव नहीं रहता। खिचड़ी उतारकर उसने थालियों में परोसा, कटोरियों में दही निकाली और थालियों के एक किनारे सलाद लगा दी। फिर वह उठकर बाहर गई और विनोद को बुला लाई। हालाँकि विनोद अभी भी अनमना था लेकिन इस बार राजकुमारी धृष्टता पर उतारू हो गई और विनोद को उसकी तरफ देखकर उठना ही पड़ा। विनोद पहले पानी ले गया। कमरे में एक मेज पड़ी थी जिसे कुछ दिनों तक वह पढ़ने के लिए इस्तेमाल करता था, बाद में वह सामान और गंदे कपड़े वगैरह रखने का स्टैंड बन गई थी। मुंशीजी ने तब तक सब सामान उतारकर कोने में पड़ी चारपाई पर डाल दिया। विनोद ने उसी पर थालियाँ लगा दीं और तीनों लोग अपनी-अपनी कुर्सियाँ खींच कर खाने लगे।
राजकुमारी बाहर खंभे की ओट में खड़ी हो गई। इस बार सामने त्रिवेणी दिखाई दे रहा था। मुंशीजी ने खिचड़ी बनने की कुछ सफाई देनी चाही लेकिन त्रिवेणी के कुछ औपचारिक शब्दों से उनका बोलना बंद कर दिया। राजकुमारी चुपचाप त्रिवेणी का खाना देखती रही। त्रिवेणी उसका बालसखा था। तहसीलदार साहब की कोठी के पिछवाड़े, आम के बगीचे में, उसके साथ बिताए क्षण उसे अभी तक याद हैं। वर्षों बाद त्रिवेणी ने जब फिर से मुंशीजी के घर आना शुरू किया तो झिझक की एक अनचाही दीवार दोनों के बीच आ गई थी। दोनों की नजरें एक-दूसरे से मिलतीं और झुक जातीं। पता नहीं क्या था कि चाहते हुए भी वे एक-दूसरे से बात नहीं कर पाते। जिस दिन त्रिवेणी घर आता, राजकुमारी के सपनों के राजकुमार की शक्ल कुछ-कुछ उससे मिलने लगती। त्रिवेणी ने उसे कभी नहीं बताया लेकिन उसे पता है कि त्रिवेणी की शादी हो चुकी है और उसके बच्चे भी हैं। इसके बावजूद त्रिवेणी उसके सपनों में सबसे ज्यादा टिकनेवाला राजकुमार रहा है और रहेगा। मुंशीजी खाना खत्म करके उठ गए थे और हाथ धोने बाहर की तरफ आ रहे थे। राजकुमारी तेजी से अंदर रसोई की तरफ सरक गई।
तीनों ने बाहर आँगन में बारी-बारी से हाथ धोए। विनोद थालियाँ उठाकर बाहर रख गया। थोड़ी देर तक और वे कमरे में बैठे और उसके बाद त्रिवेणी उठकर बाहर जाने लगा। शायद मुंशीजी ने कहा था, विनोद त्रिवेणी को छोड़ने के लिए उसके साथ-साथ बाहर निकल आया। मुंशीजी वापस कमरे में आकर चारपाई पर लेट गए। शायद बुरी तरह से थक गए थे। सबेरे से ही दौड़ रहे थे। राजकुमारी ने झाँककर अंदर देखा, वे एक हाथ आँखों पर रखे रोशनी से बचने का प्रयास करते हुए लेटे थे।
राजकुमारी ने पतीली में झाँककर देखा। थोड़ी-सी खिचड़ी और बची थी। उसने उसे ढँककर एक तरफ रख दिया। पप्पू आएगा तो खा लेगा। खुद टमाटर के बचे-खुचे टुकड़ों में से एकाध खाकर उठ गई। अच्छा हुआ किसी ने कुछ माँगा नहीं। वैसे मुंशीजी और विनोद तो माँगते नहीं। त्रिवेणी भी कुछ माँग न बैठे शायद इसीलिए मुंशीजी जल्दी-जल्दी खाकर उठ गए थे और त्रिवेणी के खाना खत्म करने की प्रतीक्षा किए बिना बाहर हाथ धोने निकल आए थे।
खत्म हुआ दिन राजकुमारी के लिए कितना मायने रखता था। विनोद को नौकरी मिलने की बात पूरे परिवार के लिए महत्वपूर्ण थी और जिस्म का अनुभव उसके अपने लिए। विनोद को नौकरी में ऐसी बहुत-सी संभावनाएँ थीं, जिनके बारे में पूरी रात सोचा जा सकता था पर राजकुमारी तन और मन दोनों से बुरी तरह थक चुकी थी इसलिए अब कुछ भी न सोचकर चुपचाप लेटना चाहती थी। लेकिन पप्पू अभी नहीं आया था इसलिए सोना निरर्थक था क्योंकि उसके लिए फिर से दरवाजा खोलने के लिए जगना पड़ता और सोते में से जगने से उसे बड़ी चिढ़ होती थी। इसलिए वह सिर्फ लेटना चाहती थी। लेटे-लेटे वह पप्पू का इंतजार करने लगी। उसने शाम के अपने अनुभव को महसूस करने की कोशिश की। सब कुछ बड़ा धुँधला-सा लग रहा था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि अभी कुछ ही घंटे पहले वह इतने बड़े अनुभव से होकर गुजरी है। उसने करवट बदली। पप्पू को न जाने क्या हो गया है। लड़का सुबह से न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता है। दोपहर में सिर्फ खाना खाने आया था। राजकुमारी का मन पप्पू के लिए उदास हो गया। उसे लगा कि घर के अलग-थलग द्वीपों से बँट जाने से अगर सबसे ज्यादा किसी का नुकसान हुआ है तो पप्पू का। राजकुमारी ने सब कुछ भूल जाने की कोशिश की। इस घर में दुख से छुटकारा पाने का सबसे अच्छा उपाय था, सब कुछ भूल जाना। दिन-भर की थकी राजकुमारी के लिए भूलना इतना मुश्किल भी नहीं था। धीरे-धीरे पप्पू, विनोद, मुंशीजी, त्रिवेणी, सुरेंद्र सबकी आकृतियाँ एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड होकर धुँधली पड़ने लगीं और नींद के खिलाफ संघर्ष करती हुई राजकुमारी ऊँघने लगी।