जाड़े का कमजोर सूरज अपनी बीमार किरणें रोशनदान और खिड़कियों के अंदर फेंकने की भरपूर कोशिश कर रहा था उसकी कुछ किरणें विनोद की आँखों से टकराईं। रात विनोद काफी देर से लौटा था इसलिए अभी उठने का उसका बिल्कुल मन नहीं था। उसे पता था कि उसे उठाने के लिए मुंशीजी रोज उठते ही खिड़कियाँ खोल देते हैं। उसका पलँग कमरे में ऐसे कोण पर है, जहाँ सूरज की किरणें सीधे उसकी आँखों से आकर भिड़ जाती हैं और थोड़ी देर कसमसाने, कंबल से मुँह ढकने के बावजूद उसे उठना पड़ता है। पहले की तरह मुंशीजी देर तक सोने के लिए उसे न तो अब डाँटते हैं और न ही उपदेशों का लंबा सिलसिला शुरू करते हैं। उसने आँखों बंद किए-किए ही महसूस किया कि दूसरे कोने पर मुंशीजी की चारपाई खाली पड़ी होगी। उन्होंने बिस्तर लपेट कर सिरहाने रख दिया होगा और खुद दुछत्ती पर धूप में उकड़ूँ बैठे सुबह का अखबार पढ़ रहे होंगे। थोड़ी देर बाद वे किसी ईंट के टुकड़े से अखबार दबाकर उठ जाएँगे और पाखाने चले जाएँगे। तब विनोद उठेगा। सीधा अखबार के पास जाकर वह भी उकड़ूँ बैठ जाएगा। अखबार में ज्यादा कुछ उसकी दिलचस्पी का नहीं रहता। उसे सिर्फ विज्ञापनों से मतलब है। वह रिक्त स्थान वाले कॉलमों पर उँगलियाँ दौड़ाता रहेगा। तबीयत उचाट होने पर सिनेमा के विज्ञापन देखने लगेगा। थोड़ी देर बाद फिर निगाहें वापस रिक्त स्थानों वाले कॉलमों में पहुँच जाएँगी। अकसर उसे अपने मतलब की कोई चीज नहीं मिलती। किसी-किसी दिन मिल जाती है तो चुपचाप ब्लेड से उतना हिस्सा काटकर जेब में रख लेता है।
उसने लेटे-लेटे मुंशीजी के बाहर चलने की आहट सुनी। आँखें खोलकर चारों ओर देखा। काफी धूप कमरे में आ चुकी थी, बाँहें पीछे को फैलाकर उसने अँगड़ाई ली और धीरे-धीरे कंबल नीचे उतारकर वह उठ खड़ा हुआ। एक बार उसने सोचा कि बिस्तर लपेट दे लेकिन फिर अलसाकर बाहर निकल आया। सामने पत्थर के टुकड़े से दबा अखबार पड़ा था। अखबार देखकर अब उसे उत्सुकता नहीं होती। एक जैसे रूटीन निभाने की ऊब का भाव उसके मन में उत्पन्न हुआ, लेकिन इस रूटीन से कोई छुटकारा भी तो नहीं था। ज्यादा-से-ज्यादा यह हो सकता है कि वह यहाँ पढ़ने की जगह अखबार उठाकर ऊपर छत पर ले जाए और आराम से धूप में पसरकर पढ़े। उसने यही किया।
छत पर उसने एक साफ-सुथरी जगह चुनी जहाँ पर पर्याप्त धूप आ रही थी। वह दीवार से टेक लगाकर बैठ गया। सबसे पहले उसने दूसरा पन्ना खोला। वांटेड कॉलम पर एक सरसरी निगाह डाली। मतलब की कोई खास चीज नहीं थी। कुछ जगहें ऐसी थीं, जिनके लिए वह ओवरएज हो चुका था, कुछ के लिए अनुभव की जरूरत थी, कुछ में जमानत माँगी गई थी और कुछ उन प्रतियोगिता परीक्षाओं की सूचनाएँ थीं जहाँ पचास-साठ रुपए के पोस्टल ऑर्डर परीक्षा फॉर्म के साथ भेजने थे। इनमें से किसी के बारे में माथापच्ची करना बेकार था। हाँ, एक जनरल स्टोर में सेल्समैन की जगह खाली थी। उसने दुकान का पता ध्यान से पढ़ा, पास ही के किसी मोहल्ले की थी। थोड़ा उत्साहित हुआ लेकिन उसका उत्साह ज्यादा देर नहीं टिका। हालाँकि विज्ञापन में कहीं नहीं लिखा था लेकिन अनुभव से वह जानता था कि मालिक नौकरी देने के पहले नगद जमानत की माँग करेगा और जमानत दे पाना मुंशीजी के लिए एक तरह से असंभव ही होगा। फिर भी एक सादे कागज पर प्रार्थना-पत्र भेजने में लगता ही क्या है? उस मुहल्ले में मुंशीजी के पढ़ाए कुछ लोग जरूर निकल आएँगे। क्या पता काम बन ही जाए उसने दुकान का नाम ध्यान से पढ़ा और अपने मन में बिठाने की कोशिश की। आज शाम को ही वह मुंशीजी से इस विषय में बात करेगा। उसने दूसरा पन्ना पलटा, एकाध हत्या और बलात्कार की खबरों से गुजरते हुए फिल्मी कॉलम तक पहुँच गया।
एक छोटा-सा कंकड़ आकर उसके अखबार पर गिरा। थोड़ा-सा अखबार फट गया। गुस्से से मुँह फुलाए वह नीचे ही ताकता रहा। जानता था कि दोनों छतों की विभाजक दीवार के उस पार बिन्नी खड़ी, कमर पर हाथ रखे शरारत से मुस्कुरा रही होगी। बिना नजरें उठाए वह कल्पना करता रहा लेकिन जानता था कि ज्यादा देर तक इस स्थिति में रह पाना संभव नहीं था। अगर वह एक बार भरनजर बिन्नी की तरफ नहीं देखेगा तो अभी वह ठुमकती हुई सीढ़ियों से नीचे उतर जाएगी और फिर मुंशीजी से पढ़ते समय लगातार उसे परेशान करेगी। मुंशीजी उसे आँगन में बैठकर पढ़ाते हैं। खुद पीढ़े पर बैठकर दाढ़ी बनाने जैसे छोटे-मोटे काम करते रहते हैं और सामने दरी पर बैठी बिन्नी पढ़ती रहती है। कभी-कभी राजकुमारी भी आकर उसके पास बैठ जाती है। जिस दिन वह बिन्नी की उपेक्षा कर देता है, उस दिन वह मुंशीजी के सामने उसे रुआँसा बना देती है। छोटे से घर में विनोद को बार-बार किसी-न-किसी काम से उधर से गुजरना पड़ता है और मुंशीजी की नजरें बचाकर बिन्नी ऐसी-ऐसी शरारतें करती है कि विनोद को कहीं आड़ में खड़े होकर, बिन्नी को हाथ जोड़कर माफ करने का इशारा करना पड़ता है। किसी दिन अगर मुंशीजी ने देख लिया तो विनोद के लिए डूब मरने जैसी बात हो जाएगी। शरारती बिन्नी कभी-कभी तो अपने पास बैठी राजकुमारी की भी परवाह नहीं करती। राजकुमारी अनजान बनकर दूसरी तरफ देखने लगती है। विनोद ने हार मान ली और चुपचाप नजरें उठाकर बिन्नी की तरफ देखा। दोनों की नजरें मिलीं। बिन्नी से नजरें मिलने पर अब पहले जैसी सनसनाहट का अनुभव उसे नहीं होता। धीरे-धीरे उसने अपनी नजरें झुका लीं और अखबार के पन्नों पर उन्हे निरर्थक दौड़ाने लगा। बिन्नी चली गई। उसके लिए इतना ही काफी था।
इधर कुछ दिनों से विनोद ने अनुभव किया है कि बिन्नी और उसका रिश्ता भी बीच-बीच में गड़बड़ा जाता है। मुंशीजी और बड़े बाबू के परिवार पिछले कई सालों से पड़ोसी हैं। दोनों घरों की छतें मिली हुई हैं। दोनों छतों के बीच में केवल एक दीवार है। विनोद ने बिन्नी को तब से देखना शुरू किया है जब वह केवल फ्राक पहनती थी। पिछले दो-तीन सालों में अचानक वह बड़ी हो गई है। फ्राक से सलवार-कुर्ते में आते-आते उसमें बहुत से परिवर्तन हुए हैं। अचानक उसने विनोद को भैया कहना छोड़ दिया था और उससे नजरें चुराने लगी थी। शुरू-शुरू में विनोद को भी बड़ा मजा आता। जब कभी ऊपर छत से बिन्नी के बोलने की आवाज आती, वह किसी-न-किसी बहाने ऊपर पहुँच जाता। बिन्नी राजकुमारी से मिलने अगर उनके घर आती तो वह किसी-न-किसी बहाने उसके इर्द-गिर्द मँडराता रहता। बाद में खतों का आदान-प्रदान भी शुरू हो गया। अक्सर छत पर एकांत अँधेरे में दोनों एक-दूसरे से मिल लेते। विनोद चाहकर भी ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाता क्योंकि बिन्नी के सर पर सवार संस्कारों का बोझ उसे ज्यादा कुछ करने की इजाजत नहीं देता। शुरू में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। विनोद जानता था कि उन दोनों मे प्रेम-प्रसंग में कोई फिल्मी मोड़ नही आनेवाला था। सभी कुछ सीधे-सादे ढंग से खत्म हो जाएगा। दोनों परिवार सजातीय थे। बड़े बाबू की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी जरूर थी लेकिन दो-साल में वे रिटायर होनेवाले थे, इस तरह जल्दी ही मुंशीजी की श्रेणी में आनेवाले थे। बिन्नी के लिए दहेज जुटाना उनके लिए भी कोई छोटी समस्या नहीं थी। शायद इसीलिए बिन्नी साल-दर-साल बढ़ती चली जा रही थी और अभी तक बड़े बाबू कहीं उसकी शादी तय नहीं कर पाए थे। विनोद के लिए यह अच्छा ही था। बस उसे नौकरी मिलनी थी और फिर बड़े बाबू को तैयार कर पाना कोई मुश्किल काम नहीं था। लेकिन इसी नौकरी ने ही तो उसके और बिन्नी के संबन्धों में गड़बड़ शुरू कर दी थी। हालाँकि यह गड़बड़ी सिर्फ उसके स्तर पर थी, बिन्नी को इससे कोई सरोकार नहीं था।
नौकरी ने दरअसल उसके और बिन्नी के ही नहीं बल्कि उसके और बाहरी दुनिया के हर रिश्ते को गड़बड़ा दिया है। नौकरी की तलाश और लगातार मिल रही असफलता ने उसे आत्मनिर्वासन की ऐसी अंधी सुरंग में पहुँचा दिया है जिसमें भटकते-भटकते वह पूरी तरह से टूट गया है। अब तो किसी परिचित से बात करने भर का आत्मविश्वास भी उसके पास नहीं बचा है। मुंशीजी से बात करते हुए तो लगता है कि वह रो पड़ेगा। शायद इसीलिए मुंशीजी भी उससे बात नहीं करते। हर तरफ से उपेक्षित महसूस करके वह केवल एक प्राणी को दुख दे सकता है तथा इसका क्रूर आनंद भी उठा सकता है और वह प्राणी है बिन्नी। गुस्से और अपमान में भरा वह बिन्नी से सारे संबंध तोड़ने का फैसला कर लेता है और फिर कई-कई दिन तक उसके सामने नहीं पड़ता। उसे पता है कि बिन्नी को किस कदर आहत कर रहा है लेकिन फिर तीन-चार दिन बाद उसके स्कूल जाने के रास्ते पर या छत पर खड़े होकर उससे आँखें मिलाकर उसे खुश कर देता है। बिन्नी के लिए यही सबसे बड़ी खुशी थी। पिछले कई महीनों से न तो उसने बिन्नी के किसी खत का जवाब दिया था और न ही उससे एकांत अँधेरे में छत के किसी कोने में मिला। उसने मिलने में भी उसे यही डर सताता था कि कहीं हीनता-बोध से ग्रसित उसका मन रो न पड़े। हालाँकि उसे पता था कि दुनिया में किसी के सामने अगर वह रोएगा तो वह बिन्नी ही होगी क्योंकि केवल वही उसका दुख समझकर सहानुभूति दे सकती है। लेकिन इन सबके बावजूद अब अपने और बिन्नी के रिश्तों को पारिभाषित करना उसके लिए किस कदर मुश्किल हो गया था।
बिन्नी चली गई थी। अखबार में कुछ भी शेष नहीं था फिर भी विनोद बैठा रहा। जाड़े की सुबह धूप काफी गुनगुनी लग रही थी और उठने का बिल्कुल मन नहीं कर रहा था। उसने अखबार एक तरफ हटा दिया और टाँगें पसार कर सीधी कर लीं। धीरे-धीरे अपने आप उसकी आँखें मुँद गईं। करने को कुछ था नहीं और पूरा दिन सामने पड़ा था। धूप नें हल्के-हल्के उसके बदन को गर्माना शुरू कर दिया। सुबह उठते समय ठंड से सिकुड़ी उसकी उँगलियाँ धीरे-धीरे फैलने लगीं। धूप की गर्माहट ने बजाय आलस को दूर करने के और बढ़ा दिया। उसे पता नहीं चला और वह ऊँघने लगा। उसकी नींद नीचे किसी बर्तन गिरने की आवाज से टूटी। शायद राजकुमारी के हाथ से कोई बर्तन गिरकर टूट गया था। आवाज की कँपकँपाती लहरें पूरे घर में फैलीं और फिर धीरे-धीरे खामोशी की झील में डूब गईं। कितना अजीब था कि मुंशीजी नीचे मौजूद थे और एक बार भी उनकी ऊँची आवाज नहीं उभरी। हल्के से ‘क्या टूटा’ जैसा कुछ सुनाई दिया फिर सब कुछ यथावत् हो गया। उन दिनों जब आर्थिक अभाव का इतना जबर्दस्त दबाव नहीं था तब भी ऐसा कभी नहीं हुआ था कि कोई चीज टूटी हो और मुंशीजी ने आसमान सिर पर न उठा लिया हो। वह धीरे से उठा, अखबार उठाया और मुँडेर से झाँककर देखा, आँगन में अपराध-बोध से दबी राजकुमारी शीशे की किरचें बटोर रही थी। कोई गिलास टूटा था। मुंशीजी बरामदे के एक खंभे से सिर टिकाए शेव कर रहे थे। अभी तक बिन्नी पढ़ने नहीं आई थी। आँगन में नल के नीचे पप्पू मिट्टी से अपने हाथ धो रहा था। अगर नल से पानी की आवाज न आती तो शायद पता ही नहीं चलता कि इस घर में कुछ जिंदा प्राणी भी हैं या मुंशीजी, राजकुमारी और विनोद जिस छत के नीचे-ऊपर बैठे हैं, वह घर है।
घर की याद आते ही विनोद का मन कड़ुआहट से भर गया। कितना दुखद है, एक भरे-पूरे घर का नदी के अलग-थलग एक-दूसरे के कटे द्वीपों में तब्दील हो जाना। संवादहीनता की जैसी जड़ नदी इन द्वीपों के मध्य से होकर गुजरती थी, उसकी याद मात्र से ही विनोद के अंदर का बहुत कुछ पिघलने लगता है। आखिर कैसे हो गया यह सब? क्यों घर के सदस्य एक-दूसरे से कटते-कटते, एक-दूसरे से इतने दूर हो गए कि अब उनके मध्य किसी तरह का संवाद संभव ही नहीं रह गया है? घर क्या महज चार दीवारों और छत से बनता है ऐसी छत और दीवारें जिनके घेरे में आते ही सबका दम घुटने लगता है। घर की यह हालत पिछले तीन-चार सालों से ही हुई थी। पता नहीं इसके पीछे माँ की मृत्यु थी, विनोद की बेकारी थी, राजकुमारी की शादी न हो पाना था या रिटायरमेंट के बाद बढ़ी हुई मुंशीजी की आर्थिक कठिनाइयाँ थीं। कुछ था जिसने घर की सारी इंसानी गर्माहट छीन ली थी और शेष रह गया था केवल ठंडी और अनिवार्य औपचारिकता का लंबा सिलसिला। विनोद को पता था कि बाहर मोहल्ले के लड़के राजकुमारी को लेकर क्या-क्या बातें करते हैं। पहले वह इन बातों को सुनकर छटपटा जाता था। किसी ने उसके सामने नहीं कहा, नहीं तो वह लड़ भी जाता। अब तो अगर उसके पहुँचने पर सीताराम की दुकान पर मोहल्ले के किशोर लड़के एक-दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुराने लगते हैं या फुसफुसाकर खिलखिला उठते हैं तो वह सिर्फ आहत खामोशी के साथ चुपचाप चाय सुड़कने लगता है या अखबार में अपना सिर झुका देता है। पप्पू के बारे में भी उसे जो कुछ जानकारी मिलती रहती है, वह कोई बहुत सुखद नहीं है। उसकी तरफ ध्यान देने की किसी को फुर्सत ही नहीं है। मुंशीजी को जाने क्या हो गया है, कभी भूल से भी पप्पू की पढ़ाई-लिखाई के बारे में नहीं पूछते। उन्हें नहीं पता लेकिन विनोद को पता है कि पिछले साल पप्पू ने इम्तहान नहीं दिया, इम्तहान की फीस पता नहीं कहाँ उड़ा गया। रिजल्ट निकलने पर मुंशीजी ने मान लिया था कि वह फेल हो गया है। वह खुद कितना उसके बारे में जानने की कोशिश करता है। सड़क या गली में उससे मुलाकात होने पर किस तरह मुँह उठाए सीधे चलता चला जाता है। आज तक कभी उसने उसे पढ़ाने या सुधारने की कोशिश की? उससे बड़ी उम्र वाले, लफंगे दोस्तों के बारे में जानते हुए भी कभी उसे उनके साथ जाने से रोकने की कोशिश की? उन लड़कों के साथ वह किन-अनुभवों से होकर गुजर रहा है, इसे भी विनोद अच्छी तरह से जानता है। एक बार तो गली के अँधेरे कोने में उसने एक लड़के के साथ उसे पकड़ लिया था लेकिन बिना कुछ कहे मुँह चुराकर चला आया। विनोद का मन अपराध-बोध से भर उठा। इस टूटते हुए घर के लिए उसकी क्या कोई जिम्मेदारी नहीं है? शायद उसकी नौकरी से हालत कुछ सुधरे। इस घर की दरकती हुई दीवारें कुछ मजबूती पा जाएँ, राजकुमारी की शादी हो जाए, पप्पू मन से पढ़ने लगे और मुंशीजी एक बार फिर छड़ी उठाए सुबह-शाम रिटायर बूढ़ों के साथ टहलने लगें।
कुछ देर के लिए विनोद ने आश्वस्त महसूस किया लेकिन जल्दी ही उसका मन क्षोभ और गुस्से से भर उठा। क्यों करेगा वह कुछ भी इस अभिशप्त घर के लिए जिसने आज तक उसे आत्मनिर्वासन, जलालत और दुख के सिवा और कुछ नहीं दिया। वह नौकरी मिलते ही यहाँ से दूर भाग जाएगा। वह जानता था कि उसे कोई अच्छी तनख्वाहवाली नौकरी तो मिलेगी नहीं। कम वेतन की नौकरी इस घर को मजबूती तो क्या प्रदान करेगी, उल्टे उसकी नई जिंदगी को भी लोना लगा देगी। उसकी नई जिंदगी का मतलब उसकी और बिन्नी की नई जिंदगी से था। वह नहीं चाहता कि बिन्नी भी राजकुमारी की तरह अभाव और अपमान की जिंदगी जिए। नौकरी मिलते ही वह बड़े बाबू से शादी की बातें करेगा। शादी होते ही वह बिन्नी को लेकर अलग हो जाएगा। इस अभिशप्त घर की छाया भी वह अपनी गृहस्थी पर नहीं पड़ने देगा। न जाने क्यों यह सब सोचते-सोचते वह कमजोर पड़ने लगा। उसे पता है कि इस घर ने आक्टोपस की तरह उसे जकड़ रखा था और इतना आसान नहीं था कि वह इससे छुटकारा पाकर कहीं और जाने का फैसला कर सके। उसके छोड़ने का मतलब था राजकुमारी का फूले हुए पेट के साथ किसी कुएँ में मृत पाया जाना, पप्पू का बंबई या कलकत्ता भाग जाना या मुंशीजी का हमेशा-हमेशा के लिए अपने को किसी कमरे में बंद कर लेना। विनोद के माथे की नसें तड़कने लगती हैं। हर तरह से अपनी और नितांत निजी जिंदगी जीने की संभावनाएँ उसके लिए बंद थीं। उसे इसी आक्टोपस के पंजों में छटपटाना था और इसके पहले कि यह आक्टोपस उसका खून पूरी तरह से निचोड़कर उसे निर्जीव बना डाले, लगातार उसकी भुजाएँ काटने की कोशिश करनी थी।
धीरे-धीरे विनोद छत से नीचे उतर आया था। पप्पू हाथ-मुँह धोकर बाहर जा रहा था। मुंशीजी निर्विकार भाव से खाली नल के नीचे आकर ब्रश धोने लगे थे। उन्होंने शायद पप्पू के बाहर जाने का कोई खास नोटिस नहीं लिया था लेकिन विनोद का एक बार मन हुआ कि उसे रोक दे और पढ़ने के लिए कहे या कम-से-कम बाहर जाने के पहले एक बार चाय पीने के लिए तो कहे ही लेकिन पता नहीं मुंशीजी की उपस्थिति थी या कुछ और, वह चुपचाप पाखाने में घुस गया। जब वह बाहर निकला तो बिन्नी आ चुकी थी और दरी पर बैठकर कुछ पढ़ रही थी। मुंशीजी पास ही खंभे से टिककर बैठे अपनी धोती के छोर से ब्लेड पोंछ रहे थे। बिन्नी के पास से होता हुआ वह सीधे नल के नीचे चला गया और चुपचाप मिट्टी से हाथ धोने लगा। हाथ धोते-धोते सर उठाकर उसने देखा तो बिन्नी एकटक उसकी तरफ देख रही थी। गनीमत थी कि मुंशीजी का ध्यान अभी इस तरफ नहीं गया था। उसने घबराकर अपनी नजरें झुका लीं और काफी देर तक अनावश्यक रूप से हाथ और पैर पर पानी गिराता रहा। फिर नल बंद करके सिर झुकाए वह अपने कमरे में घुस गया। थोड़ी देर में राजकुमारी शीशे के गिलास में चाय लाकर रख गई।
मेज पर पप्पू की एक पाठ्य-पुस्तक पड़ी थी। विनोद ने उसे उठा लिया। वह अनमने भाव से उसके पन्ने उलटता रहा और चाय पीता रहा। चाय खत्म हो गई तो उसने किताब भी बंद कर दी। चाय पीकर वह अपनी चारपाई पर जाकर बैठ गया। उसकी चारपाई कमरे के एक कोने में दरवाजे के पास थी। दूसरे कोने में खिड़कियों के पास मुंशीजी की चारपाई थी। बीच में एक मेज थी जिस पर मुंशीजी का कोट, विनोद की बनियान और पप्पू की पाठ्य-पुस्तकें जैसी चीजें बेतरतीबी से पड़ी हुई थीं। एक तरफ दीवार पर कीलें गड़ी थीं जिन पर उसके और मुंशीजी के कपड़े टँगे थे। पूरे फर्श पर धूल की पर्त जमी हुई थी और दीवारों के कोने पर काफी घने जाले लटक रहे थे। मुंशीजी को जिन चीजों का खब्त था उनमें सफाई भी एक थी। इसी सफाई पर न जाने कितनी बार माँ को डाँट सुननी पड़ती थी और विनोद और राजकुमारी की कुटम्मस होती थी। इस आदत का अब केवल एक अंश मुंशीजी में शेष रह गया था और वह था, सुबह उठते ही अपना बिस्तर लपेटकर रख देना। विनोद, राजकुमारी या पप्पू के मामले में वे कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे। धूल की पर्त या जालों से भी उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। इन सबके बीच वे चुपचाप लेटे रहते हैं। महीने-पंद्रह दिन में कभी मन करता है तो खुद ही सफाई करने लगते हैं या राजकुमारी से कह देते हैं। कभी-कभी राजकुमारी बिना कहे सफाई कर डालती है। आज विनोद का मन किया कि वह उठे और सारे जाले और धूल साफ कर डाले लेकिन बाहर बिन्नी बैठी थी और उसकी मौजूदगी में बाहर जाकर झाड़ू लगाने में उसे शर्म महसूस हुई। वह चुपचाप चारपाई पर लेटा रहा।
बाहर मुंशीजी बिन्नी से जाने के लिए कह रहे थे। आज पेंशन का दिन था, अतः जल्दी ही खाना खाकर वे घर से निकल जाएँगे। मुंशीजी कपड़े पहनने इस कमरे की तरफ ही आ रहे थे इसलिए विनोद हड़बड़ाकर उठ बैठा और मुंशीजी के अंदर घुसते ही बाहर निकल आया। रसोईघर में बिन्नी राजकुमारी से बात कर रही थी। वह चुपचाप बरामदे में खड़ा रहा। बिन्नी रसोई से बाहर निकली और उसे देखकर मुस्कराई। एक फीकी सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर भी आई और वह दूसरी तरफ देखने लगा। बिन्नी चली गई। विनोद की समझ में नहीं आया कि क्या करे। उसके कमरे में मुंशीजी मौजूद थे इसलिए वह पप्पू और राजकुमारी के कमरे में घुस गया।
पप्पू और राजकुमारी सर्दियों में एक ही चारपाई पर सोते हैं क्योंकि उन दोनों के बीच में एक ही रजाई है। पप्पू की चारपाई खाली पड़ी थी। उस पर पप्पू के गंदे कपड़े और कॉपियाँ-किताबें पड़ी हुई थीं। यह कमरा स्टोर का भी काम करता था इसलिए पूरे घर का अगड़म-बगड़म यहाँ इकट्ठा था। फर्श पर धूल की एक पर्त जमा थी और दूसरे कमरे की तरह मकड़ी के जालों से हर कोना अटा पड़ा था। विनोद को राजकुमारी पर गुस्सा आया। जरा सा कमरा नहीं साफ रख सकती। दीवाल पर एक कैलेंडर टँगा था, जिस पर बनी गणेश और लक्ष्मी की तस्वीर धुँधला गई थी और नीचे तारीखोंवाले पन्ने फट चुके थे। यह कैलेंडर पिछले दो-तीन सालों से वहीं टँगा था। राजकुमारी की चारपाई पर बेतरतीब सा बिस्तर बिछा हुआ था और रजाई आधी चारपाई पर और आधी जमीन पर लटक रही थी। विनोद ने पप्पू की चारपाई पर पड़े कपड़े एक तरफ सरकाए और किताबों का तकिया बनाकर लेट गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए? जब तक वह घर से बाहर नहीं निकल जाता, रोज इसी समस्या से उसे जूझना पड़ता है।
दिन में उसके पास सिर्फ एक ही कार्यक्रम है जो निश्चित है, और वह है एक ट्यूशन जिसके लिए उसे रोज चार बजे शाम को पहुँचना होता है। पहले वह दो ट्यूशन करता था लेकिन अब एक छूट गया है और सिर्फ एक रह गया है। जहाँ वह पढ़ाने जाता है वह जगह भी दूर नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा पंद्रह मिनट पहुँचने में लगता है। अतः पौने चार से पहले का दिन काटना उसके लिए मुसीबत है। इसका एक ही हल उसके पास है - चुपचाप घर से निकल पड़ना और निरुद्देश्य घूमना। दिन का ज्यादा वक्त उसका सीताराम की दुकान पर बीतता था। उसके पुराने दोस्तों में से अब कोई भी खाली नहीं बचा था जिसके साथ वह आराम से घंटा-दो-घंटा गप्प लड़ा सकता। पिछले चार-पाँच सालों में सभी कही-न-कहीं व्यस्त हो गए थे। कुछ नौकरियाँ पा गए थे, कुछ ने छोटा-मोटा रोजगार शुरू कर दिया था और कुछ आगे पढ़ने में व्यस्त हो गए थे। उनमें से कोई मिलता भी तो विनोद नजरें बचाकर निकल भागने की कोशिश करता। दरअसल उसे उनसे मिलने में भी शर्म महसूस होती। इसी बीच मुहल्ले के तमाम लड़के बड़े हो गए थे लेकिन उनके साथ भी विनोद का कोई संवाद स्थापित नहीं हो पाता था। उसके परिचितों में अब सीताराम की दुकान पर नियमित रूप से देर तक बैठने वाले कुछ लोग शरीक हो गए थे। इनमें से कुछ उसी की तरह बेरोजगार नौजवान थे, कुछ छोटे-मोटे अपराध करनेवाले नई उम्र के लड़के थे। लेकिन इनमें से किसी के साथ उसका बहुत घनिष्ठ संबंध नहीं बन पाया था। नौजवान लड़कों का एक छोटा झुंड वहाँ अक्सर दूसरे-तीसरे दिन इकट्ठा होकर राजनीति पर बहस करता था। उन्हें जोर-शोर से उत्तेजित ढंग से बातें करते देखकर विनोद को मजा आता और वह दिलचस्पी से उनकी बातें सुनने की कोशिश करता। हालाँकि वे लड़के उसे पहचानने लगे थे और उसे देखकर मित्रता से मुस्कुराते भी थे लेकिन वह कभी भी उनकी बहस में शरीक नहीं हो पाता। दो-एक बार इन लड़कों की तलाश में पुलिस भी सीताराम की दुकान में आई थी। सीताराम ने कई बार उन्हें अपनी दुकान पर बैठने से मना भी कर दिया था लेकिन मुहल्ले में और कोई जगह थी नहीं जहाँ वे एक कप चाय पर इतनी देर तक स्वच्छंद बहस कर सकें लिहाजा कुछ दिनों तक टूटे रहने के बाद क्रम फिर जुड़ जाता। एक बार यह क्रम कुछ ज्यादा दिन के लिए टूटा रह गया था जब इन लड़कों में से एक एकाएक गायब हो गया था। बाद में सीताराम ने फुसफुसाते हुए बताया था कि वह कहीं देहात में पुलिस से मुठभेड़ में मारा गया। काफी दिनों तक इनमें से कोई लड़का मोहल्ले में नहीं दिखाई दिया। आजकल फिर वे लोग सीताराम की दुकान पर दिखाई देने लगे थे।
बगल के कमरे में कुछ खटपट सुनाई देने लगी। शायद मुंशीजी खाना खाने की तैयारी कर रहे हैं। विनोद को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। मुंशीजी चले जाएँ तो खाना खाकर बाहर निकले या बिना खाए ही निकल जाए और फिर दोपहर में आकर खाना खाए। अभी भूख भी नहीं थी। इसी उहापोह में वह कुछ देर खड़ा रहा। फिर चारपाई छोड़कर खड़ा हो गया लेकिन उसका पैंट तो बगलवाले कमरे में था जिसमें मुंशीजी खाना खा रहे थे। वह फिर चारपाई पर लेट गया। लेटे-लेटे वह ऊँघने लगा और फिर पता नहीं कब सो गया।
करीब बारह बजे, दिन में राजकुमारी ने उसे जगाया। आँगन की धूप केवल दरवाजे तक सिमटकर रह गई थी। नल के आसपास का क्षेत्र धूप की परिधि के बाहर निकल गया था। लिहाजा उसने न नहाने का फैसला किया। राजकुमारी से उसनें खाना परोसने को कहा और खुद नल के नीचे हाथ-मुँह धोने चला गया। जाड़े में दिन में सोने से उसका पूरा बदन टूट रहा था। हाथ-मुँह धोकर वह अपने कमरे में आया और चुपचाप खाने का इंतजार करने लगा। राजकुमारी खाने की थाली लेकर आई और मेज पर पड़ी किताबें-कॉपियाँ एक तरफ हटाकर, रख गई। विनोद को एकदम भूख नहीं थी, फिर भी उसे खाना तो खाना ही था। उसने चुपचाप खाना खाया और थाली उठाकर नल के नीचे रख दी। खाना खाते-खाते उसने फैसला कर लिया था कि जिस दुकान के लिए सबेरे सेल्समैन का विज्ञापन उसने पढ़ा था, उस तक हो आएगा। हो सकता है, अभी तक कोई उस विज्ञापन के उत्तर में वहाँ न पहुँचा हो और उसका पहले पहुँचना काम कर जाए। अगर मुंशीजी के चक्कर में पड़ा तो क्या पता कितनी देर हो जाए क्योंकि आजकल मुंशीजी से तो कई-कई दिन तक बात ही नहीं हो पाती है। हाथ धोकर वह कमरे में पहुँचा और एक सादे कागज पर प्रार्थना-पत्र लिखा, फिर कपड़े बदलकर उसने प्रार्थना-पत्र पैंट की जेब में तह करके रखा और घर से बाहर निकल आया। विनोद सीधे उसी दुकान की तरफ जाना चाहता था लेकिन रास्ते में सीताराम की दुकान पर रुक गया। विज्ञापन में कोई निश्चित अवधि प्रार्थना-पत्र देने के लिए निर्धारित नहीं थी। अतः उसे घर पर जो शीघ्रता का भाव महसूस हो रहा था, वह मर गया। सबसे पहले या दूसरे नंबर पर पहुँचकर क्या होगा। नौकरी देते समय मालिक निश्चित रूप से दूसरी बातों को मद्देनजर रखेगा। उसने अपने मन को दिलासा दिया कि शाम को उधर ही ट्यूशन पढ़ाने जाना है, लौटते समय देता आएगा। दरअसल वह शुरू से ही शर्मीला रहा है और पिछले कुछ दिनों से तो यह शर्मीलापन आत्मविश्वास हीनता से जुड़कर, उसे कुछ ज्यादा ही परेशानी में डालने लगा है। कई बार ऐसा हुआ कि वह जेब में प्रार्थना-पत्र डाले किसी दुकान या मकान के चारों तरफ घूमा है और फिर कागज जेब में ही रखे चुपचाप वापस चला आया है।
दिन का वक्त होने के कारण सीताराम की दुकान पर नियमित बैठनेवालों में से कोई नहीं दिखाई दे रहा था। वैसे भी दुकान कुछ ज्यादा खाली नजर आ रही थी। सीताराम एक किनारे पर बैठा ऊँघ रहा था। लड़का भी सबेरे से काम करते-करते थक गया लगता था। विनोद के मन में आया कि चलकर सीताराम के पास बैठकर बतियाए लेकिन फिर कुछ सोचकर रुक गया। पिछले दो महीनों से उसने सीताराम के पैसे नहीं चुकाए थे। हालाँकि उसे पता था कि सीताराम कुछ कहेगा नहीं, फिर भी उसे खुद झिझक लग रही थी। पिछले महीने उसका दूसरा ट्यूशन छूट गया था और जाड़े की तैयारी में उसने फुटपाथ पर तिब्बती से आधी बाँह का एक स्वेटर खरीद लिया था, इसलिए उसका हिसाब गड़बड़ हो गया था नहीं तो सीताराम का बकाया हमेशा समय से चुका देता था। सीताराम भी इसे जानता है, इसी कारण किसी महीने में देर हो जाने पर कुछ कहता नहीं। पर उसके न कहने पर भी विनोद को उसका हिसाब बोझ लगता है। वह दुकान के भीतर न जाकर बाहर पड़ी एक बेंच पर बैठ गया। अखबार का एक पेज हवा से उड़कर जमीन पर गिर गया था, उसने उसे उठाकर पढ़ने की कोशिश की। जल्दी ही उसका ध्यान अखबार पर से उचट गया और वह सामने देखने लगा। उसकी गली और शंकर की दुकान सामने दिखाई दे रही थी। अचानक उसने देखा राजकुमारी गली से निकलकर शंकर की दुकान की तरफ जा रही थी। उसका मन शर्म और क्षोभ से भर गया। कुछ न कर पाने के एहसास से वह तिलमिलाने लगा। मोहल्ले में शंकर ही एक ऐसा प्राणी था जिससे विनोद सबसे ज्यादा चिढ़ता था। कई बार ऐसा हुआ है कि सीताराम की चाय की दुकान पर बैठे-बैठे उसने राजकुमारी को उसकी दुकान में सौदा लेने जाते देखा था। अगर कभी भी राजकुमारी को बाहर निकलने में देर होती तो वहाँ बैठे-बैठे उसक माथे की नसें तड़कने लगतीं। उसे लगता कि दुकान पर बैठा हर आदमी शंकर की दुकान की तरफ देख रहा है और राजकुमारी के अंदर घुसने और बाहर निकलने के समय के अंतर को अर्थपूर्ण ढंग से ले रहा है। उसे मुंशीजी पर गुस्सा आता है कि आखिर क्यों राजकुमारी को सौदा लाने शंकर की दुकान पर भेजते हैं, उससे या पप्पू से क्यों नहीं कहते लेकिन यह गुस्सा क्षणिक आवेश की तरह दब जाता था क्योंकि उसे पता है कि शंकर उसे या पप्पू को उधार कभी नहीं देगा। शंकर का लड़का कार्तिकेय विनोद का सहपाठी रह चुका है लेकिन दोनों के बीच भी कोई खास संबंध नहीं रहा है और अब तो पिछले दिनों से दुआ-सलाम जैसा रिश्ता भी नहीं है। जिस तरह मुहल्ले के और सारे परिवार उसके चंगुल में थे, उसी तरह विनोद का परिवार भी था। सभी लोग जानते-बूझते उससे लुट रहे थे। केवल एक बार वर्मा बाबू ने उसकी लूट का विरोध करने की कोशिश की थी। लेकिन शंकर और कार्तिकेय ने उन्हें बुरी तरह जलील किया था। यहीं सीताराम की दुकान पर बैठे-बैठे उसने वह सब देखा था। वर्मा बाबू का लड़का उसका और कार्तिकेय का सहपाठी रह चुका था, इसलिए उससे उसे यह उम्मीद नहीं थी लेकिन वह तो अपने बाप से भी आगे बढ़कर, अपने कुर्ते की बाँहें चढ़ाकर उन्हें गालियाँ देता रहा। मोहल्ले के लड़के कई दिनों तक उम्मीद करते रहे कि वर्मा बाबू का लड़का शायद विश्वविद्यालय से कुछ लड़कों को लाकर इसका बदला ले, लेकिन कई दिनों तक कुछ नहीं हुआ तो वे निराश हो गए। अगर किसी दिन शंकर या कार्तिकेय मुंशीजी को दुकान से धकेलकर गाली देने लगे तो विनोद क्या करेगा? इस प्रश्न से विनोद को हमेशा घबराहट होती है। उसने झेंपकर इधर-उधर देखा, किसी ने उसके मन का प्रश्न पढ़ा तो नहीं, लोग चाय पीने या अखबार पढ़ने में व्यस्त थे। उसने आश्वस्त महसूस किया। ज्यादा आश्वस्ति उसे तब महसूस हुई जब उसने राजकुमारी को शंकर की दुकान से निकलकर घर की तरफ वापस जाते देखा।
इसी बीच में लड़का उसके सामने चाय का प्याला रख गया था। वह आँखों में खालीपन का भाव लिए चाय का प्याला देखता रहा फिर धीरे-धीरे चाय पीना शुरू कर दिया। चाय ठंडी और बेस्वाद थी। पता नहीं ऐसा उसे लग रहा था या काफी देर से रखे रहने के कारण चाय सचमुच ऐसी हो गई थी। वह चुपचाप चाय पीता रहा। चाय जल्दी ही खत्म हो गई। अभी उसे पास करीब तीन घंटे बचे थे। तीन घंटे वह आराम से सीताराम की दुकान पर बिता सकता था, लेकिन दुकान पर सभी अपरिचित चेहरे थे और दिन में सोने से उसके चेहरे पर ऊब और उदासी की स्पष्ट पर्त झलक रही थी। वह दुकान से निरुद्देश्य उठ खड़ा हुआ। सीताराम की दुकान के ठीक सामने पार्क था। जहाँ जाड़े की धूप सेंकने को मोहल्ले के कुछ रिटायर्ड लोग और कुछ लड़के इधर-उधर बैठे थे। वह भी थोड़ी देर पार्क में बैठेगा। पार्क की रेलिंग से लगकर वह खड़ा हो गया। अचानक पार्क में बैठने का इरादा उसने बदल दिया। सामनेवाले कोने में पप्पू लेटा हुआ था। उसके इर्द-गिर्द कुछ बड़ी उम्र के लड़के बैठे हुए ताश खेल रहे थे। लगता है, पप्पू ताश खेलते-खेलते सो गया था। उसके साथवाले उससे उम्र में इतने बड़े लग रहे थे कि पप्पू उनके साथ इस समय काफी असहज-सा लग रहा था। विनोद ने गौर से उन लड़कों को देखा। उनमें से किसी का नाम वह नहीं जानता लेकिन अक्सर उनके चेहरे मोहल्ले में दिखाई देते हैं। जरूर वे मोहल्ले के या आसपास के ही होंगे। किसी का चेहरा विनोद को अच्छा नही लगा। लेटे हुए पप्पू नें सीधी आँखों में पड़ रही किरर्णो से बचने के लिए अपनी बाँहें आँखों पर रख ली थीं, इससे उसका चेहरा छुप गया था। विनोद को उस पर तरस आया। पता नही अब तक उसने खाना खाया है या नही? उसने सोचा पप्पू को उठाकर खाना खाने के लिए घर भेज दे। इसी बीच पप्पू के बदन ने हल्की सी हरकत की। विनोद को लगा कि वह आँखों पर से हाथ हटाकर उठना चाहता है। हड़बड़ाकर वह रेलिंग पर से हट गया और सीतारम की दुकान की तरफ बढ़ गया।
सीताराम की दुकान पर उसने फिर से एक कप चाय का आर्डर दिया। चाय पी और उठ खड़ा हुआ। ट्यूशन पढ़ाने उसे जिस जगह जाना था उसी के पास वह दुकान थी, जहाँ उसे प्रार्थनापत्र देना था। उसने जेब में हाथ डालकर दरख्वास्त की मौजूदगी महसूस की और चल पडा। दुकान ज्यादा दूर नहीं थी, वह जल्दी ही वहाँ पहुँच गया। दुकान जनरल मर्चेंट की थी, काफी बड़ी थी और दिन होने की वजह से इस समय खाली थी। काउंटर पर एक सुदर्शन सा युवक काफी नफीस कपडों में बैठा कुछ लिख रहा था। विनोद ने अंदाज लगाया कि यही मालिक होगा। मौकों पर जिस झिझक का शिकार विनोद हो जाता था, वही फिर उस पर हावी हो गई। उसने उस दुकान के सामने पान की दुकान पर खड़े होकर पान खाया, वहाँ थोड़ी देर तक खड़े खड़े दुकान के अंदर का मुआयना किया; उसके आस पास दो चार चक्कर लगाए, एक बार सीढ़ियों पर चढ़ भी गया लेकिन जल्दी ही उसे अहसास हो गया कि उसके निरुद्देश्य घूमने से पानवाले और दो चार लोगों का ध्यान उसकी तरफ आकर्षित होने लगा है। प्रार्थना पत्र तो वह डाक से भी भेज सकता है, उसने सोचा और आगे बढ़ गया।
अभी सिर्फ दो बज रहे थे और अभी से ट्यूशन के लिए पहुँचना ठीक नहीं है इसलिए उसने वापस लौटने का फैसला किया लेकिन फिर इरादा बदलकर वहीं चला गया। बच्चे कहीं बाहर खेल रहे थे। उसके पहुँचने पर उन्हें बुलाया गया। बेमन से वह उन्हें पढ़ाता रहा। आजकल उसके पास सिर्फ एक यही ट्यूशन था, जिसमें वह दो बच्चों को एक घंटे पढाता था। पहले उसके पास दो से तीन तक ट्यूशन हुआ करते थे। बिना मुंशीजी को बताए, वह पिछले कई सालों से ट्यूशन कर रहा था। शुरू शुरू में उसने अपनी छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने के लिए ट्यूशन करना शुरू किया था। बाद में कपड़े-लत्ते से लेकर लगभग सारी जरूरतें वह इसी तरह पूरी करने लगा था। उसे पता था कि मुंशीजी को उसके ट्यूशनों के बारे में पता था लेकिन बाप-बेटे में इसको लेकर कभी बात नहीं हुई।
ट्यूशन खत्म करके वह निरुद्देश्य घूमता घामता रहा और फिर देर तक सीताराम की दुकान पर बैठा रहा। वहाँ उसे कुछ ऐसे सहपाठी मिल गए जिनसे वह बरसों बाद मिल रहा था। उनके साथ बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो पता ही नहीं चला कि कब अँधेरा हो गया। जाड़े में वैसे भी अँधेरा कुछ जल्दी हो जाता है। विनोद उस समय बुरी तरह चौंका जब यकायक मुंशी जी ने आकर उसे पुकारा। वे सड़क के दूसरी तरफ खड़े थे। हड़बड़ाता हुआ विनोद उधर को लपका। इसके बाद मुंशीजी और त्रिवेणी के साथ बिताए गए चंद घंटों ने उसे पूरी तरह से झकझोर डाला था और जब कई घंटों बाद एक बार फिर वह वापस सीताराम की दुकान पर आया तभी इस लायक हो सका था कि शांतचित्त होकर पूरे घटनाक्रम का पुनर्निर्माण कर सके।
त्रिवेणी को गली के मोड़ पर छोड़कर विनोद घर की ओर वापस लौटा तब बला की सर्दी पड़ रही थी। उसने मफलर से अपने कान ढक लिए थे और दोनो हाथ पैंट की जेब में डालकर सर्दी का मुकाबला करने का असफल प्रयास कर रहा था। सर्दी सूती कमीज और आधे बाँह के स्वेटर से छनकर उसकी छाती तक पहुँच रही थी और उसकी हड्डियों को बेधती हुई पोर पोर में समाती जा रही थी।
इस साल का दिसंबर इतना सर्द क्यों है? उसने सोचा। भट्टी के पास खड़ा लड़का अपने ठंडे हाथों को भट्टी पर सेंककर गरमाने का प्रयास कर रहा था। विनोद ने अचानक अपना फैसला बदला और दुकान की तरफ बढ़ चला। अभी घर जाकर करेगा भी क्या? आज नींद तो आएगी नहीं। शाम से घटनाक्रम कुछ इतनी तेजी से घटित हुआ था कि उसे सोचने का मौका ही नहीं मिला। अब जब थकान और ठंड ने उसकी सोचने की शक्ति को पूरी तरह से कुंद कर डाला था, सीताराम की दुकान पर भट्टी के नजदीक सटकर बैठने और गर्म चाय पीने से हो सकता है कि वह फिर से संतुलित ढंग से सोचने लायक हो सके और अपने फैसले पर एक बार फिर से पुनर्विचार कर सके। हालाँकि वह जानता है कि मुंशीजी के सामने ‘नहीं’ कहने भर का साहस उसमें नहीं है। मुंशीजी क्या खुद के सामने भी नहीं कहने का साहस उसमें कहाँ बचा है। फिर भी एक बार निश्चिंत होकर कहीं बैठने और शाम से रात तक के घटनाक्रम पर सोचने में हर्ज ही क्या है।
दुकान पर कोई ग्राहक नहीं था। सीताराम अंदर कुर्सी पर बैठा रेजगारियाँ गिन रहा था। भट्ठी लगभग बुझ गई थी लेकिन अभी भी उसमें कुछ आँच बाकी थी। लड़का बचे-खुचे बर्तन धोकर उसी आँच से अपने हाथ गर्माने की कोशिश कर रहा था। विनोद को देखकर सीताराम आत्मीय ढंग से मुस्कुराया। दरअसल विनोद के दिन का इतना बड़ा हिस्सा इस दुकान पर बीतता है कि वह सीताराम के लिए एक ग्राहक से ज्यादा की हैसियत रखता है। लड़के ने बुझे मन से पैन में चाय का पानी चढ़ा दिया। उसका गिरा चेहरा देखकर एक बार विनोद का मन हुआ कि वह उसे मना कर दे और थोड़ी देर आग तापकर वापस लौट जाए लेकिन ठंड में गर्मागर्म चाय पीने का मोह ज्यादा प्रबल निकला और वह चुपचाप लड़के को चाय का पानी चढ़ाते देखता रहा। उसने अंदर से एक कुर्सी ली और भट्ठी के पास खींचकर बैठ गया। भट्ठी में काफी कमजोर आँच थी और पैन द्वारा तीन-चौथाई जगह घेर लेने के बाद तो और कम जगह बची थी, जहाँ से विनोद को थोड़ी-बहुत गर्मी मिल सकती थी लेकिन इसके बावजूद विनोद को भट्ठी से सटकर बैठने में सुख मिला। उसने अपने हाथ भट्ठी से एकदम सटा दिए। दुकान के खुले पल्लों से साँय-साँय करती हवा अंदर आ रही थी। विनोद ने इशारा किया और लड़के ने दोनों पल्ले भेड़ दिए। अब किसी और ग्राहक के आने की उम्मीद नहीं थी इसलिए सीताराम ने एक बार रेजगारी के ढेर से सिर उठाकर देखा और फिर उन्हें गिनने में मशगूल हो गया। दरवाजे बंद हो जाने से दुकान के अंदर कुछ गर्माहट आ गई थी। अंदर बेतरतीबी से मेजें और कुर्सियाँ पड़ी थीं। दिन-भर एक हाथ से दूसरे हाथ तक जानेवाला अखबार चिथड़े की शक्ल अख्तियार कर चुका था। विनोद ने लड़के से अखबार मँगाया और एक बार फिर से उसे उलट-पुलट कर पढ़ने की कोशिश करने लगा। इस अखबार को वह दिन में कई बार पढ़ चुका था। इस समय उसकी आँखें खबरों पर रेंग रही थीं लेकिन दिमाग कहीं और था।
आज शाम को इसी दुकान से मुंशीजी उसे पकड़कर ले गए थे। जिस समय उन्होंने विनोद को यहाँ ढूँढ़ निकाला, उनके चेहरे पर झल्लाहट के भाव एकदम स्पष्ट थे। जाहिर था कि वे काफी देर से उसे ढूँढ़ रहे हैं और उसके चक्कर में उन्हें काफी परेशान होना पड़ा है। मुंशीजी को विनोद के इस अड्डे का पता नहीं था जो पिछले कई महीनों से उसके बैठने की मुख्य जगह थी। पिछले कुछ सालों में मुंशीजी विनोद के बारे में जानते भी कितना हैं? उनका शाम को इस तरह उसे ढूँढ़ते हुए आ निकलना विनोद के लिए काफी अप्रत्याशित था। जरूर कोई खास बात होगी। उसके दिमाग में अनिष्ट की आशंका कौंधी और वह चुपचाप उठकर उसके साथ हो लिया। थोड़ा आगे निकल आने पर, अपनी आवाज की कड़ुआहट को बिना छिपाए मुंशीजी ने बताया कि त्रिवेणी से मिलने उसके घर चलना है। इसके बाद विनोद को और कुछ जानने की जरूरत नहीं पड़ी। यह वही पुराना अपमान और तकलीफ से भरा चक्कर था जिसने विनोद को बुरी तरह से तोड़ डाला था। हालाँकि त्रिवेणी के साथ अभी तक कहीं जाने का मौका नहीं आया था लेकिन मुंशीजी के कई पुराने शिष्यों और साथ टहलनेवाले बाबुओं के साथ, न जाने कितनी बार वह इसी चक्कर में कितने दफ्तरों और बँगलों का चक्कर लगा चुका है। हर बार मोह भंग के एक ही जैसे यातनाजनक दौर से होकर गुजरना पड़ा था। शुरू-शुरू में तो इस तरह के अभियान की शुरूआत रोमांच और उत्तेजना से भरपूर होती थी। मुंशीजी उसे एकाध दिन पहले ही बता देते थे। फिर शुरू होता तैयारी का उत्तेजक दौर। रात-रात भर जागकर, वह दूसरे दिन किसी इंटरव्यू-बोर्ड या आला साहब द्वारा पूछे जानेवाले काल्पनिक सवालों के उत्तर सोचता। मुंशीजी की अनुपस्थिति में शीशे को दीवार पर कील से टाँगकर उत्तरों को बोलने का अभ्यास करता। मुस्कुराने, सिर हिलाने या कंधे उचकाने की जगहें निर्धारित करता। दूसरे दिन के लिए पैंट-कमीज धोता और राजकुमारी के हाथों बिन्नी के यहाँ प्रेस के लिए भेजता। चलते समय मुंशीजी की नजरें बचाकर रास्ते-भर पान की दुकानों पर लगे शीशों में अपना चेहरा निहारता चलता। लौटते समय आशा-निराशा की मिश्रित भावना हृदय में होती। कई दिनों तक वह और मुंशीजी परिणाम की प्रतीक्षा करते रहते। उत्सुक मुंशीजी कभी उसे लेकर और कभी अकेले उस दफ्तर या बँगले का कई चक्कर लगा आते। कहीं बड़े स्पष्ट शब्दों में बता दिया जाता कि जिस नौकरी के लिए विनोद ने इंटरव्यू दिया है, वह किसी और को मिल गई है और कहीं थोड़ा घुमा-फिराकर यही बात बताई जाती। कहीं-कहीं तो ऐसा हुआ कि कुछ भी स्पष्ट नहीं बताया गया और महीनों दौड़ना पड़ा।
धीरे-धीरे सब कुछ यंत्रवत हो गया। किसी दफ्तर या बँगले तक जाने की सूचना को विनोद बिना किसी अतिरिक्त दिलचस्पी के लेने लगा। हालाँकि मुंशीजी अब भी अपना उत्साह छिपा नहीं पाते। लेकिन विनोद को अब ज्यादा उत्तेजना नहीं होती। पिछले अनुभवों ने उसे अब अधिक चतुर बना दिया है। इंटरव्यू के दौरान पूछे गए प्रश्नों एवं अपने द्वारा दिए गए उत्तरों को मुंशीजी को बताने में अब उसे कोई मजा नहीं आता। मुंशीजी बार-बार पूछते हैं तो हाँ-हूँ करके टाल जाता है। बहुत हुआ तो एकाध प्रश्न बता देता है। उसकी तटस्थता देखकर मुंशीजी पहले की तरह उसके उत्तरों पर झुँझलाते नहीं और न ही अपनी तरफ से उनमें संशोधन करते हैं।
आज शाम को जब मुंशीजी उसे लेकर त्रिवेणी के घर के लिए चले, उनके मन में कोई भाव नहीं था। वह चुपचाप उनके साथ घिसटता चला गया था। त्रिवेणी घर पर मिल गया, वह उन्हीं लोगों का इंतजार कर रहा था। वे निर्धारित समय से देर में पहुँचे थे और साहब शाम को क्लब चला जाता था। लिहाजा बिना समय गँवाए वे उसके बँगले के लिए रवाना हो गए। बँगले से थोड़ा पहले उन्होंने रिक्शा छोड़ दिया। मुंशीजी ने त्रिवेणी को पैसा नहीं देने दिया, खुद ही रिक्शेवाले को पैसे देने लगे। पैसे देते समय अतिरिक्त लापरवाही का भाव चेहरे पर लिए मुंशीजी विनोद को काफी दयनीय लगे। उसे पता है कि आज मुंशीजी पेंशन लेकर लौटे होंगे फिर भी उनके लिए रिक्शेवाले को डेढ़ रुपया देना कितना मायने रखता है, इसे त्रिवेणी भले न जानता हो लेकिन विनोद को तो पता है ही। हालाँकि उसकी जेब में भी ट्यूशन से मिले कुछ पैसे थे लेकिन बाप-बेटे के बीच झिझक की जो दीवार खड़ी थी, उसने विनोद को जेब में हाथ डालने से रोक दिया। फाटक के बाहर एक जीप खड़ी थी। इसका मतलब साहब बँगले के अंदर मौजूद था। बरामदे में एक चपरासी खड़ा था। त्रिवेणी ने उन दोनों को फाटक के बाहर खड़ा कर दिया और खुद अंदर जाकर चपरासी से कुछ बातें कीं। चपरासी अंदर चला गया और त्रिवेणी ने हाथ के इशारे से उन्हें भी अंदर आने के लिए कहा। वे भी अंदर चले गए और लॉन में खड़े होकर चपरासी के बाहर आने का इंतजार करने लगे। इस बीच त्रिवेणी मुंशीजी को साहब के बारे में बताता रहा। विनोद मानसिक रूप से पूरी तरह अनुपस्थित था। त्रिवेणी के मुँह से निकले हुए वाक्यों से उसकी जानकारी में महज इतनी वृद्धि हुई कि साहब बहुत शरीफ आदमी हैं और त्रिवेणी को बहुत मानता है। उनका काम हो जाएगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। मुंशीजी उत्सुकता से त्रिवेणी की बातें सुन रहे थे। उन्होंने भी इस साहब की शराफत के बारे में लोगों से सुना है, जिसे वे त्रिवेणी के वाक्यों के बीच-बीच में उद्धृत करते जा रहे थे। उन्हें ज्यादा देर बाहर इंतजार नहीं करना पड़ा। साहब बैडमिंटन का बल्ला लिए बाहर निकला और एक उड़ती नजर लॉन पर डालते हुए फाटक की तरफ बढ़ा।
त्रिवेणी तेजी से उसके पीछे-पीछे लपका। मुंशीजी और विनोद वहीं लान में ही खड़े रहे। साहब के जीप पर बैठते-बैठते त्रिवेणी उसके पास पहुँच गया। दोनों थोड़ी देर तक बातें करते रहे। त्रिवेणी ने एकाध बार लॉन की तरफ हाथ उठाकर कुछ इशारा किया जिससे यह लगता था कि बातें उनके बारे में हो रही हैं। मुंशीजी और विनोद खामोशी से फाटक की तरफ देख रहे थे। विनोद पूरी तरह से तटस्थ था और मुंशीजी जरूरत से ज्यादा विह्वल। पता नहीं क्यों विनोद को आज का घटनाक्रम, पहले दुहराए गए नाटकों से कुछ भी भिन्न नहीं लग रहा था और पता नहीं क्यों मुंशीजी को आज पहले के किसी भी प्रयास से ज्यादा आश्वस्ति महसूस हो रही थी। साहब की त्रिवेणी से बातचीत कुछ ज्यादा लंबी खिंच रही थी। दूर से विनोद को साहब के चेहरे पर साफ-साफ ऊब और जल्दी छुटकारा न मिल पाने की परेशानी का भाव दिखाई दे रहा था। वह दो-तीन बार ड्राइवर को चलने का इशारा कर चुका था लेकिन हर बार त्रिवेणी आजिजी से ड्राइवर की तरफ रुकने का इशारा करता और कुछ कहने लगता। अंत में झल्लाकर साहब ने त्रिवेणी से कुछ कहा और ड्राइवर को चलने का इशारा कर दिया। जीप चली गई। त्रिवेणी वापस लॉन की तरफ मुड़ गया।
विनोद ने निर्विकार भाव से एक नजर मुंशीजी पर डाली। उनका चेहरा लटक गया था और निराशा की कालिख उस पर स्पष्ट रूप से पुती दिखाई दे रही थी। विनोद को उनकी निरीहता पर तरस आया। त्रिवेणी जिन कदमों से उनकी तरफ आ रहा था उससे कोई निर्णय कर पाना मुश्किल था लेकिन साहब ने जिस ढंग से ड्राइवर को चलने का आदेश दिया था, उससे बाप-बेटे के मन में किसी तरह की कोई आशा नहीं जगी थी।
‘विनोद, मास्साहब के पैर छुओ!’
त्रिवेणी के इस वाक्य ने मुंशीजी और विनोद दोनों को गड़बड़ा दिया। इस वाक्य का अर्थ सबसे पहले मुंशीजी की समझ में आया और अचानक उन्होंने ऐसा काम कर डाला जिसकी आशा त्रिवेणी और विनोद दोनों में से किसी को नहीं थी। एकाएक आगे बढ़कर उन्होंने त्रिवेणी को बाँहों में भर लिया। त्रिवेणी इसके लिए पूरी तरह से अप्रस्तुत था, अतः असहज हो उठा। विनोद पिछले कई सालों से मुंशीजी को जिस रूप में देखता आ रहा था, उससे यह रूप सर्वथा भिन्न था। खासतौर से इस विचार से कि कहीं उसी उत्साह में मुंशीजी उसे भी बाँहों में न भर लें या कहीं त्रिवेणी फिर उसे उसे मुंशीजी के पैर छूने को न कहें, वह कुछ कदम परे हटकर खड़ा हो गया। इन दोनों स्थितियों को वह सहज रूप से लेने में असमर्थ था। मुंशीजी की बाँहों में जाने का विचार ही कुछ इतना मनोरंजक था कि उनकी बाँहों में जाते-जाते या तो वह हँस पड़ेगा या फिर शायद रोने लगे। पैर छूने की बात भी कुछ अजीब सी लग रही थी। पहले माँ थी तो हर त्योहार पर या किसी क्लास में पास होने जैसे मौके पर विनोद से मुंशीजी के पैर छुआती थी। विनोद को इसमें मजा आता था क्योंकि मुंशीजी उसे आशीर्वाद देने के साथ-साथ कुछ पैसे भी देते थे पर वर्षों बाद मुंशीजी के पैर छूने का ख्याल ही उसे कुछ अटपटा लग रहा था। कहीं त्रिवेणी फिर से अपनी बात दुहरा न दे? लेकिन त्रिवेणी मुंशीजी की पकड़ से छूटकर खुद ही इतना अटपटा महसूस कर रहा था कि थोड़ी देर तक तो वह समझ ही नहीं पाया कि क्या करे। उस घबराहट में उसे सिर्फ एक ही बात सूझी कि वह आगे बढ़कर विनोद से हाथ मिलाए और उसे मुबारकबाद दे। उसने यही किया भी। उसके मुबारकबाद से विनोद को लगा कि कोई ऐसी चीज हो गई जिसका होना उसके लिए कितना मायने रखता है, इसे केवल वही जानता है। एकबारगी उसके मन में राजकुमारी, पप्पू, बिन्नी और न जाने क्या-क्या कौंध गए। इतनी बड़ी खुशी इतने अप्रत्याशित ढंग से मिली थी कि अपने मन को खुश करने में भी उसे कुछ वक्त लगा। उसने मुंशीजी की तरफ देखा। हल्की-हल्की खिचड़ी दाढ़ी और धँसे गालोंवाले उस चेहरे का रोम-रोम खुश था। विनोद ने अपने स्वर की छलकती खुशी को सप्रयास दबाते हुए त्रिवेणी को औपचारिक धन्यवाद दिया। फिर तीनों धीरे-धीरे चलते हुए गेट के बाहर निकल आए।
विनोद त्रिवेणी से नौकरी के बारे में खुलासा करना चाहता था लेकिन मुंशीजी की उपस्थिति उसे कुछ भी पूछने से रोक रही थी। वह अधैर्य से मुंशीजी द्वारा इस बारे में पूछने की प्रतीक्षा करने लगा। मुंशीजी के लिए नौकरी का विचार इतना सुखद था कि वे बिना कुछ पूछे सिर्फ भावविह्वल स्वर में त्रिवेणी को धन्यवाद दिए जा रहे थे। बाहर कोई रिक्शा दिखाई नही दे रहा था। वे रिक्शे की तलाश में कॉलोनी के बाहर मुख्य सड़क की तरफ बढ़ चले। अचानक मुंशीजी को कुछ याद आया और उन्होंने त्रिवेणी से नौकरी के चरित्र के बारे में पूछा। सतर्क होकर विनोद ने त्रिवेणी की तरफ देखा। उसे कुछ अजीब सा लगा कि इस सवाल पर उससे ज्यादा त्रिवेणी परेशान नजर आया।
‘बात ऐसी है मास्साब कि आप तो जानते हैं कि आजकल कितना लफड़ा है नौकरी मिलने में। दफ्तर में एक क्लर्क की जगह खाली थी, मैं सोच रहा था कि विनोद को वही जगह देने के लिए साहब को तैयार कर लूँगा। पहले एडहाक हो जाता बाद में फिर रेगुलराइज करा लेते। लेकिन हम लोगों को कुछ देर हो गई। साहब बता रहे थे कि कल ही कोई लड़का चीफ साहब का खत लेकर आ गया था। इसलिए तो मैं इतनी देर तक साहब से बहस करता रहा। अंत में साहब नई वाली साइट पर कुछ काम देने को तैयार हो गया है। वहाँ के लिए कुछ टेंपरेरी मेट भरती होनेवाले हैं। उन्हीं में शायद कोई जगह विनोद को मिल जाए। शायद क्या, पक्का ही समझिए। साहब ने पक्का वादा कर लिया है, कल दफ्तर भी बुलाया है, कहकर त्रिवेणी ने बाप-बेटे की प्रतिक्रिया भाँपने की कोशिश की।
फौरन किसी की प्रतिक्रिया नही मिली। खास तरह का ठंडापन था जो उन तीनों के बीच में पसर गया था। पहली बार विनोद को महसूस हुआ कि उनके बँगले के बाहर निकलने के बाद अँधेरा और घना हो गया है और दिसंबर की सर्द हवा काफी तीखे ढंग से बहने लगी है। उसने गले के चारों तरफ लिपटा हुआ मफलर अपने कानों पर लपेट लिया लेकिन फिर भी सर्दी उसके आधी बाँह के स्वेटर, हवाई चप्पलों, सूती कमीज और न जानें कहाँ कहाँ से होकर उसके बदन को बेध रही थी। दिसंबर की सर्दी अपनी पूरी भयावहता के साथ आक्रामक हो गई थी। इस साल का दिसंबर इतना सर्द क्यों है, उसने सोचा।
अँधेरे में विनोद को मुंशीजी के गला खँखारने की आवाज सुनाई दी। शायद वे कुछ कहना चाहते थे। त्रिवेणी और विनोद दोनों उनकी प्रतिक्रिया सुनने को तैयार हो गए लेकिन वे कुछ नहीं बोले। त्रिवेणी ने कुछ और आश्वस्त करने वाले अंदाज से कहा, ‘नईवाली साइट के पास ही मेरा भी काम चल रहा हैं। मैं रोज सवेरे अपनी मोटरसाइकिल पर विनोद को भी लेता जाऊँगा और शाम को मेरे साथ वह लौट भी आएगा और फिर एक बार डिपार्टमेंट में घुस जाने पर किसी परमानेंट क्लर्क की जगह मिल सकती है, रोज तमाम वैकेंसीज होती रहती हैं।’
‘ठीक है भैया, अब तुम्हीं सँभालना, अब तो तुम्हारे महकमे में यह घुस ही रहा है।’ मुंशीजी को शायद ज्यादा आश्वस्त करने की जरूरत नहीं थी। अब वे एक ऐसे बिंदु पर पहुँच चुके थे जहाँ विनोद का इतनी भागदौड़ के बाद मेट होना भी कम महत्वपूर्ण नहीं था।
विनोद खामोशी के साथ दोनों को बात करते सुन रहा था। मुख्य सड़क पर भी कोई रिक्शा नहीं था। वे लोग सड़क के किनारे खड़े होकर रिक्शे का इंतजार करने लगे। विनोद को अपने अंदर खालीपन का एहसास हो रहा था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह खुश था या दुखी। त्रिवेणी के मुँह से पहली बार सुनने पर उतावली में जो पहली प्रतिक्रिया उसके मन में उभरी थी, वह थी एकदम से इनकार कर देने की, लेकिन मुंशीजी की उपस्थिति ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। अगर केवल वह और त्रिवेणी होते तो शायद वह छूटते ही मना कर देता। अब जब कि लगभग दस मिनट उस खबर को सुने बीत चुके थे, उसे लग रहा था कि मना न करके उसने अच्छा ही किया। मना करने की हैसियत बची ही कहाँ थी उसकी। अगर घर को पूरी तरह से टूटकर बिखरने से बचाना था तो एक ही रास्ता था कि वह चुपचाप नौकरी करने लगे। वह सिर्फ बी.ए. पास था और मुंशीजी उसके बाप थे। इस अहसास ने कभी भी उसे बहुत ऊँचे सपने नहीं देखने दिए। उसने ज्यादा-से-ज्यादा प्राइमरी स्कूल की अध्यापकी, किसी दफ्तर में क्लर्की या बहुत हुआ तो किसी विभाग में सुपरवाइजरी या इंस्पेक्टरी जैसी किसी नौकरी की तमन्ना की थी। लेकिन इस मेठ की नौकरी ने तो उसके कोई भी अनुभूति नहीं जगाई थी। जब से उसने नौकरी की तलाश शुरू की, उसने अपने घर के दरवाजे पर अपने नाम और पद का बोर्ड लगाने का एक सपना सँजोया था। यह बोर्ड उसे एक व्यक्तित्व प्रदान करेगा, मुंशीजी से अलग और स्वतंत्र। बहुत पहले जब मुंशीजी इस मोहल्ले में आए थे और उन्होंने यह मकान किराए पर लिया था, घर के बाहरी दरवाजे पर एक बोर्ड लगाया गया था - रामानुज लाल श्रीवास्तव, प्रधानाध्यापक। एक पंक्ति के इस बोर्ड से मुंशी जा का व्यक्तित्व झलकता था । रिटायर होने के बाद भी यह बोर्ड काफी दिनों तक बिना किसी संशोधन के लटकता रहा। बाद में तो इसकी लकड़ी बुरी तरह से घुन गई थी और लिखावट इतनी धुँधली हो गई थी कि इसे पढ़ने के लिए किसी भी आदमी को बहुत करीब आना पड़ता। दो-तीन साल पहले, होली पर मोहल्ले के शरारती लड़कों ने उसे उखाड़कर होलिका में जला दिया। उस बोर्ड की जगह अपना बोर्ड लगाने का सपना विनोद ने देखा था। खड़े-खड़े उसने कल्पना की कि कल से उसके दरवाजे पर एक नया बोर्ड लग जाएगा।
विनोद कुमार श्रीवास्तव
बी.ए.
मेट, पी.डब्ल्यू.डी.
उसे हँसी आ गई। लेकिन हँसते ही उसने घबराकर मुंशीजी और त्रिवेणी की तरफ देखा। शायद अँधेरे के कारण या वे दोनों अपने में खोए हुए थे कि दोनों ने उसे हँसते नहीं देखा। अच्छा हुआ, नहीं तो त्रिवेणी जरूर यही समझता कि वह रो रहा है। मुंशीजी तो खैर ऐसी हँसी के आदी हैं।
एक खाली रिक्शा आ गया था। वे तीनों उस पर बैठ गए। रिक्शे पर उन तीनों के सिवाय एक अनचाहा मौन लदा था, जिसे चाहकर भी तीनों में से कोई नहीं तोड़ पा रहा था। रिक्शे पर बैठते समय मुंशीजी ने त्रिवेणी को अपने घर चलकर खाने का निमंत्रण दे दिया था और त्रिवेणी ने इस असह्य मौन से छुटकारा पाने की इच्छा के बावजूद स्वीकार भी कर लिया था। रिक्शा धीरे-धीरे रेंग रहा था। आज की घटना के बारे में विनोद किसी से खुलकर बातें करना चाहता था। बातें करने के बाद शायद मन हल्का हो जाए और कल वह ज्यादा खुले मन से नए काम पर जा सके। लेकिन बातें करेगा किससे? मुंशीजी से? रिक्शे पर बगल में बैठे मुंशीजी इतने अजनबी, इतने दूर और इतने पराए लग रहे थे कि उनसे बात करने की कोशिश भी हास्यास्पद होती। फिर राजकुमारी या पप्पू से? पप्पू तो इतना छोटा था कि उससे क्या बात होती और राजकुमारी पिछले सालों से इतनी निःसंग और ठंडी हो गई थी कि अब पहले की तरह उससे बात करना भी कहाँ संभव रह गया था। केवल बिन्नी ही ऐसी है जिससे वह इस विषय में खुलकर बातें कर सकता है। काश! आज रात बिन्नी छत पर आ जाती - उसने शिद्दत के साथ कामना की।
घर के पास पहुँचने के पहले ही मुंशी जी रिक्शे से उतर गए। त्रिवेणी ने अचकचाकर पूछा, क्या हुआ मास्साब, अभी तो घर थोड़ी दूर है।’
‘हाँ, तुम लोग चलो, मैं बस अभी आता हूँ।’
रिक्शा चलते ही सहसा मुंशीजी को कुछ याद आया और उन्होंने रिक्शेवाले को रुकने का इशारा किया। त्रिवेणी के बार-बार मना करने के बावजूद, उन्होंने जेब से पैसे निकालकर दो-तीन बार गिने और रिक्शेवाले को दे दिए, फिर उसे आगे बढ़ने का इशारा किया। मुंशीजी को छोड़कर वे दोनों आगे बढ़े। विनोद समझ गया था कि मुंशीजी ने त्रिवेणी को खाने के लिए निमंत्रित किया है, इसलिए वे उसके लिए कुछ लेने को रास्ते में रुक गए हैं।
विनोद की तंद्रा सीताराम की आवाज पर टूटी। सीताराम ने पैसे गिनते-गिनते शायद दो-तीन बार उसे आवाज लगाई थी क्योंकि यह आवाज अस्वाभाविक रूप से कुछ तेज थी।
‘क्या हुआ विनोद बाबू, क्या सोचने लगे। चाय तो अब ठंडी भी हो गई होगी।’
विनोद ने फीकी मुस्कान के साथ देखा। सचमुच चाय ठंडी हो गई थी। भट्ठी पर आग तापते हुए लड़के ने आँखों में क्षोभ भरकर उसे देखा। दोबारा चाय गर्म करने का विचार मात्र उसे अप्रिय लग रहा था। विनोद समझ गया। उसने चुपचाप ठंडी चाय पीनी शुरू कर दी। आधा कप पीकर ही वह उठ गया। एक बार अच्छी तरह उसने भट्ठी पर हाथ सेंके, मफलर से कानों को कसकर बाँधा और जेबों में हाथ डाले लगभग दौड़ते हुए वह घर की तरफ बढ़ा।
सड़क पर काफी धुंध उतर चुकी थी। तीखी हवा निर्ममता के साथ आघात कर रही थी। उसे लग रहा था कि आधे फर्लांग का यह सफर खत्म होने को नहीं आएगा। अँधेरे में दो-तीन जगह उसे ठोकर लगी। अपने को गिरने से बचाते हुए किसी तरह वह अपनी गली में पहुँच गया।
इस साल का दिसंबर इतना सर्द क्यों हैं उसने सोचा। बहुत मुमकिन है हर साल का दिसंबर इतना ही सर्द होता हो और फिर उसे दिसंबर की भयानकता का अहसास आज शाम से ही तो हो रहा है।
दरवाजे पर हाथ रखते-रखते उसके पास एक पत्थर का टुकड़ा गिरा। बिना उसे देखे, वह समझ गया कि उससे लिपटे कागज में आज रात छत पर मिलने के लिए बिन्नी ने उसको समय दिया होगा। अकसर जब कोई महत्वपूर्ण बात होती तो वह या बिन्नी इसी तरह रात में छत पर मिलने का समय निश्चित कर लेते थे। हालाँकि पिछले कई महीनों से बिन्नी द्वारा बुलाए जाने पर भी वह छत पर नहीं गया था लेकिन आज जरूर जाएगा। इतनी सर्दी में भी छत पर खड़ी बिन्नी उसके घर आने का इंतजार कर रही है - यह सोचकर उसका मन कृतज्ञता से भर उठा। उसने छत की तरफ नजर डाली। एक धुँधली-सी आकृति झाँक रही थी और उसे देखकर हट गई। उसने पत्थर उठाकर उसका कागज खोला और जेब में रख लिया। दरवाजा हल्के से ढकेलकर वह अंदर आ गया। पप्पू अभी नहीं आया होगा, सोचकर उसने दरवाजा खुला छोड़ दिया और तेज कदमों से आँगन पार करते हुए अपने कमरे में आ गया। मुँह तक रजाई ढाँपे मुंशीजी लेटे हुए थे। पता नहीं जग रहे थे या सो गए थे। विनोद ने जल्दी-जल्दी कपड़े बदले, कमरा बंद किया, बिजली बुझाई और अपनी रजाई में घुस गया।