उसने धीरे से दरवाजा खोला। दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, केवल उढ़का हुआ था। हल्के से हाथ के दबाव से खुल गया। जरा भी चरमराहट न हो, इसकी बहुत कोशिश करने पर भी आवाज हो ही गई। थोड़ी देर तक दरवाजे पर ही खड़े होकर उसने अंदर की आहट लेने की कोशिश की। अंदर पूरी तरह खामोशी छाई हुई थी। मुंशीजी और विनोद के कमरे की बिजली बुझी हुई थी और उसके और राजकुमारी के कमरे में बल्ब जल रहा था। उसे पता है कि सभी लोग अपने बिस्तरों में दुबके जग रहे होंगे लेकिन कोई कुछ नहीं बोलेगा। ज्यादा-से-ज्यादा मुंशीजी हल्के के खँखारेंगे और फिर खामोश हो जाएँगे। राजकुमारी ने चौके में उसके लिए खाना ढककर रख दिया होगा। वह रोज की तरह चुपचाप जाएगा और जो कुछ ठंडा-गरम होगा, खाकर, पानी पीकर, रसोई की बत्ती बुझाकर, कमरा बंद करते हुए अपने बिस्तर पर लेट जाएगा। जाड़े में उसका कोई अलग बिस्तर नहीं होता है। एक ही रजाई होने के कारण उसे राजकुमारी के बिस्तर पर ही सोना पड़ता है।
पप्पू ने आँगन का दरवाजा धीरे से बंद किया और रसोई में आ गया। रात में लौटने पर अकसर उसे भूख नहीं लगती और ठंडा होने के कारण बेस्वाद हो गया खाना खाने का कत्तई मन नहीं करता लेकिन आज दिन में वह खाना खाने नहीं आया था इसलिए उसे तेज भूख लगी थी। जल्दी-जल्दी उसने ढकी हुई थाली अपनी तरफ खींची, ढक्कन हटाकर उसमें रखी खिचड़ी देखी, गुस्से से थाली सामने से हटा दी लेकिन फिर उसे खींचकर बड़े-बड़े कौर निगलने लगा। सबको पता है कि उसे खिचड़ी पसंद नहीं है, फिर भी अकसर खिचड़ी बन जाती है। माँ होती तो वह बिना खाए ही उठ जाता। उसे पता था कि माँ उसे मनाएगी, फिर कभी खिचड़ी न बनाने की कसमें खाएगी और बिना उसे कुछ खिलाए उसे सोने नहीं देगी लेकिन आज बिना खाए उठ जाने पर तो अलग-अलग द्वीपों की तरह पड़े घर के तीनों सदस्यों को शायद पता भी न चलेगा कि वह भूखे पेट सोने चला गया है। जल्दी-जल्दी उसने खिचड़ी निगली और थाली एक तरफ सरकाकर गिलास में पानी लेकर बाहर आँगन में निकल आया। आँगन में उसने हाथ धोया और गिलास वहीं जमीन पर रख, चौके का दरवाजा बंद करके, अपने कमरे में चला गया।
कमरे का दरवाजा अंदर से बंद करके वह लाइट आफ करने के लिए बढ़ा। आवाज से राजकुमारी हल्के से कुनमुनाई और फिर उसने दूसरी तरफ करवट बदल ली। रजाई का आधे से ज्यादा हिस्सा राजकुमारी के बदन से होता हुआ चारपाई के दूसरी तरफ जमीन पर लटक रहा था। राजकुमारी की पीठ उघड़ी हुई थी। पप्पू की निगाह एक क्षण के लिए उसकी पीठ पर टिकी, फिर उसने घबराकर निगाहें जमीन पर गड़ा दीं। कुछ वर्जित देखने या सोचने का पुराना अपराध बोध एक बार फिर उसके मन पर बोझ की तरह सवार हो गया। पिछले कुछ दिनों से राजकुमारी को लेकर उसके मन में न जाने कैसी गंदी-गंदी बातें आती रहती हैं। एकांत में भी ऐसे विचार मन में आते ही वह घबरा उठता है। हड़बड़ाकर इधर-उधर देखता है कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा है। अब तो सीधे राजकुमारी की आँखों में आँखें डालकर बात करते हुए भी उसे डर लगता है कि कहीं राजकुमारी उसके मन की बात न पढ़ ले।
इधर कुछ महीनों में पप्पू को बड़े रोमांचक शारीरिक अनुभवों से होकर गुजरना पड़ा है। एकाएक अहसास होने लगा है कि वह बड़ा हो रहा है। जिस्म के विभिन्न हिस्सों पर उग रहे बालों और आवाज में आए भारीपन को उसने अचानक महसूस करना शुरू किया है। गली में अपने से बड़े या हमउम्र लड़कों की खुसुर-पुसुर से पहले की तरह वह शरमाता नहीं, बल्कि धीरे-धीरे खुद भी शरीक होने लगा है। पहले गली के बड़े लड़के उसे देखकर आपस में इशारे करते या शरारतन मुस्कुराते तो वह शरमा जाता और कभी-कभी तो रुआँसा हो उठता लेकिन अब वह स्वयं इन लड़कों का हिस्सा बन गया था और उनके साथ मिलकर, गली के दूसरे कमसिन लड़कों से छेड़खानी करने में लगा रहता था।
शरीर के इन नए अनुभवों ने बहुत सारे रिश्तों को भी गड्ड-मड्ड कर दिया था। मुहल्ले की तमाम लड़कियाँ, औरतें अचानक उसके लिए पहले से भिन्न हो गई थीं। जिन औरतों के पास बैठकर वह घंटो बातचीत कर सकता था, उन्हीं के पास से सड़क अथवा गली में गुजरते हुए उसके हलक में काँटे उगने लगे हैं। उनकी आँखों में आँखें डालकर बातें करते ही वह हकलाने लगता है। ज्यादा करीब आने पर पूरा बदन कसाव से भर उठता है। जिस्म के तिलिस्म का बाँध इतने तेज बहाव के साथ टूटा कि पप्पू निरुपाय लकड़ी के कुंदे के तरह उसमें बह गया। इसी बहाव में तमाम रिश्तों की परिभाषाएँ भी बह गई। पप्पू के लिए राजकुमारी का साथ भी उतना सहज नहीं रह गया जितना कुछ दिनों पहले था। राजकुमारी और उसके रिश्तों में हुई गड़बड़ी ने उसे कुंठा और वर्जना की ऐसी भूलभुलैया में डाल दिया था, जिसमें न तो उससे तैरते बन रहा था और न डूबते।
बहुत दिनों से पप्पू राजकुमारी के साथ जाड़ों में उसकी रजाई में सोता आया है। पहले माँ भी उसी रजाई में सोती थी। माँ के मरने के बाद केवल वह और राजकुमारी उस रजाई में सोते हैं। माँ थी तब तीनों जमीन पर गद्दा बिछाकर सोते थे क्योंकि एक चारपाई पर तीनों नहीं समाते थे। कभी-कभी वह मुंशीजी या विनोद के साथ सो जाता था। सालों राजकुमारी के साथ सोने के बावजूद ऐसा तनाव वह पिछले दो जाड़ों से ही महसूस कर रहा है। हर रात वह कुंठा और तनाव के ऐसे अजीब दौर से गुजरता है, जिसमें उसके व्यक्तित्व की चूल-चूल हिल जाती है। रोज वह रात को फैसला करता है कि दूसरे दिन से विनोद के साथ सोएगा लेकिन किसी दिन रात होने तक वह विनोद से इस बारे में कोई बात नहीं कर पाता और रात होते ही चुपचाप राजकुमारी के कमरे में घुस जाता है। कई बार उसका मन विद्रोह से भर गया है कि मुंशीजी उसे अभी तक बच्चा क्यों समझते हैं। उसके मन में कई बार यह बात आई कि वह कोई हरकत कर दे जिससे मुंशीजी उसे बच्चे की जगह आदमी समझने लगें। मसलन बजाय छिपाकर, वह एक बार मुंशीजी के सामने ही उनके रेजर से अपनी दाढ़ी बनाने लगे, या... या... उसका मन क्षोभ से भर उठा। इससे भी कोई फायदा नहीं होगा। विनोद ने तो कई बार उसे गली के अँधेरे कोने से झेंपते हुए निकलते देखा है और एक बार तो मुंशीजी ने भी उसे रात में आँगन की नाली पर झुके पकड़ा है। फिर क्यों वे उसे अभी बच्चा समझते हैं।
कई बार उसने ऐसा किया है कि चुपचाप कमरे में घुसकर, सोई हुई राजकुमारी की चारपाई पर न जाकर, अपनी ही चारपाई पर जाकर चादर ओढ़कर ठिठुरते हुए लेट गया है। ताज्जुब की बात है कि इस तरह बजाय ठंड में सिकुड़कर जगते रहने के वह ज्यादा जल्दी सो गया है। लेकिन हर बार रात के किसी-न-किसी समय राजकुमारी अपनी चारपाई से रजाई समेत उसकी चारपाई पर आ गई है और उसके साथ लेट गई है। राजकुमारी के साथ लेटते ही वह फिर उसी निषिद्ध दुनिया में डूबने-उतराने लगता है।
आज भी उसने सोचा कि अपनी चारपाई पर सोए लेकिन इससे कोई बहुत फायदा तो था नहीं इसलिए वह सीधे राजकुमारी की चारपाई पर चला गया और उसके स्पर्श से अपने को भरसक बचाते हुए लगभग पाटी पर सिमट गया। दिन-भर की थकान ने जल्दी ही उसे सोने-जागने की बीचवाली स्थिति में पहुँचा दिया।
पप्पू का एक और दिन खत्म हुआ। वह दिन भी उसके और तमाम दिनों की तरह था जिसके बीतने या न बीतने का पप्पू या किसी और के लिए अर्थ नहीं था।
कल रात बड़ी देर तक पप्पू जागता रहा था। अनिल दादा के साथ बनाई गई स्कीम ने उसके मन को आजकल काफी उर्वर बना दिया है। उस स्कीम में अपने को भिन्न-भिन्न भूमिकाओं में फिटकर, वह न जाने क्या-क्या सोचता रहता है। कल रात भी काफी देर तक उसी स्कीम के बारे में सपने देखता हुआ आधा सोने आधा जागने की अवस्था में पड़ा रहा था। इसीलिए आज उठने में देर हुई। ठीक तरह से न सोने से बदन टूट रहा था। बाहर बरामदे में कुछ खटपट हुई। पप्पू हड़बड़ाकर चारपाई पर उठ बैठा। लगता है मुंशीजी उठ गए हैं और बरामदे में बैठकर शेव कर रहे हैं। पप्पू को दिक्कत महसूस होने लगी। रोज वह ऐसे समय तक उठ जाता है जब मुंशीजी अभी ऊपर से नीचे उतरते होते हैं, तब तक पप्पू निपट-वुपटकर घर से बाहर निकल जाता है। घर वह वापस ऐसे समय आता है जब मुंशीजी ट्यूशन के लिए या किसी और काम के लिए बाहर निकल चुके होते हैं। उनकी अनुपस्थिति में ही खाना खाकर, वह उनके वापस लौटने के पहले फिर बाहर निकल जाता है। आजकल तो खासतौर से वह उनके सामने पड़ने से डरता है। पिछले हफ्ते उन्होंने एक्जामिनेशन फीस जमा करने के लिए रुपए दिए थे और पिछले साल की ही तरह पप्पू ने उन रुपयों को सिनेमा देखने और खाने-पीने में खर्च कर दिया था और अब वह रोज यही सोच-सोच कर डरता रहता था कि कहीं मुंशीजी उससे रसीद न माँग लें। हालाँकि अब तो करीब एक हफ्ता हो रहा था और पप्पू बड़े आराम से रसीद के खो जाने का बहाना बना सकता है लेकिन उसे पता है कि मुंशीजी चाहे कहें भले कुछ नहीं, उनकी आँखों में तैरता अविश्वास बहुत कुछ कह देगा और पप्पू इन्हीं आँखों से बचना चाहता है।
बहरहाल अब तो कुछ नहीं हो सकता। मुंशीजी बाहर बरामदे में बैठे दाढ़ी बना रहे थे। राजकुमारी रसोई में थी। पप्पू चुपचाप चारपाई पर बैठा था। राजकुमारी ने उसे चाय का गिलास वहीं ला दिया। बिना मुँह धोए वह चाय नहीं पीता लेकिन आज वह धीरे-धीरे चाय सुड़कने लगा। बिना मुँह धोए चाय का स्वाद अजीब कड़ुआ-सा लग रहा था। उसने आधी से ज्यादा चाय गिलास में छोड़कर गिलास जमीन पर रख दिया। राजकुमारी किसी काम से कमरे में आ रही थी, पप्पू को लगा मुंशीजी आ रहे हैं, वह घबराकर उठ खड़ा हुआ और राजकुमारी के अंदर घुसने के पहले ही गिलास उठाकर बाहर निकल गया। बाहर मुंशीजी निर्विकार भाव से अपनी एक बार छीली दाढ़ी पर दोबारा साबुन लगा रहे थे। पप्पू ने चाय का गिलास आँगन में नल के पास रख दिया। टट्टी के पास रखे टूटे डालडे का डिब्बा उठाकर नल से पानी भरा और टट्टी में घुस गया। इस पूरे समय वह अपनी आँखें झुकाए रहा जिससे मुंशीजी से नजरें न मिल जाएँ।
टट्टी में पप्पू बहुत देर तक बैठा रहा लेकिन कितनी देर तक बैठता। बिन्नी अगर ट्यूशन पढ़ने आ जाती तो शायद कुछ बचत होती लेकिन बिन्नी भी आज देर कर रही थी। लगता है, विनोद भैया अभी ऊपर गए हैं। वह भी ऊपर होगी। पप्पू को बिन्नी का जिस्म याद आने लगा। कई महीने पहले एक बार पप्पू कुछ पहले घर आ गया था। राजकुमारी चौके में काम कर रही थी। वह ठंडी हवा में बैठने के खयाल से ऊपर चला गया। जाने क्या था ऊपर कि वह पूरी तरह से सन्न हो गया। छत पर बड़े बाबू के हिस्से में एक कोने से कुछ फुसफुसाहटों और हल्के-हल्के हँसने की आवाजें आ रही थीं। पप्पू जड़ बना एक जगह खड़ा होकर सुनने की कोशिश करने लगा। अँधेरे में कुछ साफ नहीं दिखाई दे रहा था लेकिन उसे इतना तो साफ समझ में आ ही गया कि वहाँ विनोद और बिन्नी थे। न दिखाई पड़ने के बावजूद उसका शरीर लकड़ी की तरह कड़ा हो गया था और वह चुपचाप जीनों से नीचे उतरकर पाखाने में घुस गया था। उस दृश्य की कल्पना मात्र से ही एक बार फिर उसका शरीर अकड़ गया। वहाँ ज्यादा देर बैठने पर मुंशीजी टूटे शीशे को बाएँ हाथ में लेकर दाहिने हाथ से अभी भी चेहरे पर बचे-खुचे बालों को खरोंचने की कोशिश कर रहे थे। कुछ ही साल पहले तक पप्पू इसी बात पर हँसता था। मुंशीजी महीने में दो से ज्यादा ब्लेड इस्तेमाल नहीं करते। नया ब्लेड आने पर शुरू के दो-तीन दिन तो उनकी दाढ़ी ठीक बन जाती, बाद में जैसे-जैसे ब्लेड पुराना पड़ता जाता वे चार-चार पाँच-पाँच बार पानी में ब्रश भिगो-भिगोकर चेहरे पर फिराते और सेफ्टी रेजर चलाते। लगता है, ब्लेड अब बहुत पुराना हो गया है और मुंशीजी के लाख कोशिश करने पर भी ठुड्डी के आसपास के बाल निकल नहीं पा रहे हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न अदाओं में दाढ़ी बनाते देखकर पप्पू कितना हँसा करता था। चाय का गिलास हाथ में लेकर मुंशीजी हँसने का असफल प्रयास करते और डाँटकर उसे पढ़ने बैठने को कहते। अब भी मुंशीजी को दाढ़ी बनाते देखकर पप्पू की आँखों में कभी-कभी चमक आ जाती है लेकिन जितनी तेजी से चमक पैदा होती है, उससे कहीं ज्यादा तेजी से बुझ जाती है। आज उसने कनखियों से मुंशीजी की ओर देखा और इस डर से कि कहीं मुंशीजी से आँखें न मिल जाएँ, वह नजरें झुकाए-झुकाए आँगन के एक कोने से मिट्टी उठाकर नल के नीचे बैठकर हाथ मटियाने लगा।
एकाएक किसी शीशे के बर्तन के फूटने की आवाज हुई, पप्पू ने चौंककर देखा। नल के पास उसने जो चाय का गिलास रख दिया था, वही राजकुमारी के पैर से टकराकर टूट गया था । अपराध-बोध से उसका सर फिर झुक गया। हालाँकि वह जानता है कि मुंशीजी पहले की तरह अब न तो उठकर ताबड़तोड़ उसकी धुनाई करेंगे और न ही देर तक गुस्से में बड़बड़ाते ही रहेंगे। फिर भी चारों तरफ फैला हुआ सन्नाटा और भी बोझिल हो गया।
‘क्या टूटा...!’ अस्फुट-से मुंशीजी बुदबुदाए। किसी ने उत्तर नहीं दिया। राजकुमारी झाड़ू ले आई थी। वह बैठकर किरचें बीनने लगी। पप्पू अनावश्यक रूप से नल के बहते पानी के नीचे हथेलियाँ उलटता-पुलटता रहा, फिर एकदम से उठकर बाहर निकल गया।
जाड़े की धूप आँगन तक तो आ गई लेकिन अभी तक गली की हद में नहीं पहुँची थी इसलिए गली अभी ठिठुर रही थी। पप्पू ने सिर्फ पाजामा-कमीज पहन रखा था। उसे ठंडक लगने लगी थी। उसने हथेलियाँ रगड़ते हुए तेज चाल से गली पार की और सड़क पर आ गया। सड़क के कुछ हिस्सों पर धूप छोटे-छोटे टुकड़ों में नाच रही थी। धूप के एक वृत्त में खड़े होकर उसने गर्माहट ली। पिछले हफ्ते मुंशीजी ने उसे इम्तहान की फीस जमा करने के लिए चालीस रुपए दिए थे। उनमें से तीन-चार रुपए अभी भी उसकी जेब में थे, यानी अभी दो-तीन दिन तक आराम से बैठकर वह चाय, पकौड़ी खा सकता था। पिछले साल इतना ही पैसा लगभग एक महीने चला था। इस साल कम चला क्योंकि कई दिन पप्पू को अनिल दादा और उसके दोस्तों को भी खिलाना पड़ा। कल अनिल दादा को पूरी एक पैकेट सिगरेट खरीदकर भी उसने दी थी।
सामने सीताराम की दुकान पर उसका छोकरा धीरे-धीरे भट्ठी की आग सुलगाने के लिए पंखी झेल रहा था। वहाँ जाना ठीक नहीं था क्योंकि सीताराम की दुकान पर विनोद का अड्डा था और थोड़ी देर बाद ही उसके पहुँच जाने की पूरी संभावना थी। इसलिए पप्पू शंकर की दुकान की ओर बढ़ा। उधर बाईं तरफ थोड़ी दूर पर आड़ में एक दुकान थी, जहाँ फिलहाल न विनोद द्वारा देखे जाने का भय था और न मुंशीजी द्वारा।
विनोद तो खैर देख भी लेगा तो कुछ नहीं कहेगा लेकिन अगर मुंशीजी देख लेंगे तो जरूर भाँप जाएँगे। उन्हें यह पता है कि पप्पू के पास दुकान पर चाय-वाय के लिए पैसे दो-तीन तरह से ही आ सकते हैं - या तो वह चोरी करे या स्कूल की फीस न जमा करे या किताब-कॉपी बेच दे। चोरी का तो अब कोई सवाल नहीं क्योंकि बहुत दिनों से मुंशीजी की जेब में कुछ नहीं रहता। पहले जरूर पप्पू माँ या मुंशीजी की आँखें बचाकर किसी कील या खूँटी पर टँगी मुंशीजी की कमीज से पैसा चुरा लिया करता था और उसके लिए पकड़े जाने पर बुरी तरह पीटा जाता था। माँ या मुंशीजी द्वारा बहुत सख्त निगरानी रखने जाने पर कई-कई दिनों तक उसके हाथ में एक भी पैसा न लगता, तब वह स्कूल की फीस बचाकर सिनेमा देखता या होटलबाजी करता। नाम कट जाने पर स्कूल जाने के लिए निश्चित समय पर घर से निकलता और दिन-भर मटरगश्ती करने के बाद निश्चित समय पर घर वापस आ जाता। दो-एक महीने बाद भेद खुलने पर बेतहाशा धुनाई होती। रात को माँ एक-एक अंग सेंकती और रोती और सुबह विनोद जाकर उसका नाम फिर से लिखवा आता। बाद में उसका स्कूल छूट गया और पप्पू को खर्च करने के लिए पैसा मिलना धीरे-धीरे और मुश्किल हो गया। अब या तो वह अपने से काफी बड़े उम्र के लड़कों पर पैसों के लिए निर्भर करता है, जिसके कारण अक्सर गली के लड़के उसे चिढ़ा-चिढ़ाकर रुआँसा बना देते हैं या फिर इम्तहान की फीस जमा करने जैसा कोई इक्का-दुक्का मौका मिल जाता है जब उसकी जेब में कुछ पैसे होते हैं और वह उनसे एकाध सिनेमा देखने और दो-तीन दिन किसी चाय की दुकान पर बैठने का शौक पूरा करता है। पिछले साल इम्तहान की फीस जमा करना चाहता था लेकिन जिस दिन वह स्कूल फीस लेकर गया, उस दिन किसी मास्टर के मरने से स्कूल बंद हो गया। पप्पू जेब के पैसों की गर्मी से सिनेमा चला गया। ढाई रुपए खर्च हो गए। इतनी हिम्मत थी नहीं कि मुंशीजी से माँगता। कई दिन घात लगाने के बाद भी मुंशीजी या विनोद की जेबों में से कुछ नहीं मिला। जेब में पैसे लिए-लिए वह कितने दिन तक घूमता, लिहाजा धीरे-धीरे सारे पैसे खर्च हो गए। बोर्ड का रिजल्ट निकलने पर उसके बताए काल्पनिक रोल नंबर की तलाश में मुंशीजी का बेचैन हाथ कितनी बार अखबार पर ऊपर-नीचे घूमता रहा और फिर थककर हवा में झूल गया। उन्होंने पहले की तरह न उसे कोसा और न डाँटा, चुपचाप मेरिट लिस्ट में छपे लड़कों का नाम पढ़ने लगे लेकिन उनकी आँखों में कुछ था जिसे देखकर पप्पू ने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की थी कि अगले साल खूब जमकर पढ़ेगा और अपनी नालायकी की छाप मुंशीजी के मन से मिटाकर रहेगा। लेकिन यह साल भी पिछले साल की तरह बीत गया और इस बार जब इम्तहान की फीस जमा करने का वक्त आया तब उसके मन में कोई दुविधा नहीं थी। इस बार जेब में पैसे लेकर वह स्कूल की तरफ गया ही नहीं, सीधे सिनेमा हाल की तरफ मुड़ गया। वैसे भी इम्तहान देकर क्या करेगा, पास तो होना नहीं है। यह उसका हाईस्कूल का तीसरा साल है एक बार रेगुलर के रूप में बैठकर वह फेल हो चुका है और दूसरी बार प्राइवेट कैंडीडेट की इम्तहान फीस न जमा करके इम्तहान से मुक्ति पा चुका है। इसलिए इस बार इम्तहान में फिर न बैठने का उसे कोई दुख नहीं होता।
वह शंकर की दुकान तक पहुँच गया था। वहाँ बाएँ हाथ मुड़ना था। एक उचाट-सी निगाह उसने शंकर की दुकान की तरफ डाली। अभी कोई ग्राहक नहीं पहुँचा था। शंकर भी दुकान पर नहीं था।
जिंदगी में अगर किसी से पप्पू सबसे ज्यादा नफरत करता है तो वह है, शंकर। शंकर की दुकान के सामने से गुजरते ही उसे अपने अंदर आग का अहसास होने लगता है। वह और भी छोटा था, उसके मन में वहाँ से गुजरते समय इच्छा जगती थी कि शंकर की दुकान पर इस तरह से पत्थर फेंकर भागे कि पत्थर सीधा उसकी खोपड़ी पर जाकर टन्न से लगे। हालाँकि कभी वह अपनी इच्छा पूरी नहीं कर सका लेकिन उसके मन में बार-बार यह इच्छा उठती जरूर थी। आज भी उठी। उसनें नफरत से दुकान के अंदर देखा। अंदर शंकर का सबसे छोटा लड़का गणेश बैठा था। गणेश पप्पू के ही साथ पढ़ता था। पप्पू उसे हमेशा गोबर गणेश कहकर अपने मन में खुश होता था। कई बार खेल में पप्पू उससे जबरदस्ती उलझ जाता और एकाध बार उसने उसकी पिटाई भी की थी। हर बार गणेश को गाली देते या पीटते समय पप्पू को एक क्रूर सुख का अनुभव होता था। पप्पू की आँख गणेश से मिल गई तो उसे लगा कि गणेश ने उसे रुकने का इशारा किया है। जरूर बच्चू को हिंदी की किताब चाहिए होगी। पप्पू ने खुद उसे उस दिन हिंदी की किताब सेकेंड हैंड में बेचते देखा था। अब उसकी हिम्मत फिर से शंकर से पैसा माँगनी की तो पड़ नहीं रही होगी। शंकर जैसा कंजूस दोबारा पैसा देगा भी नहीं और स्कूल में मास्टर साहब रोज किताब के लिए छड़ी लगाते होंगे। और देखो बेटा पिक्चर, किताब बेचकर! पप्पू ने उपेक्षा से मुँह बिचकाया और आगे बढ़ गया।
पप्पू को एक-न-एक दिन इस शंकर के बच्चे से बदला जरूर लेना है। उसे आजकल अनिल दादा की संगत इसलिए भी और ज्यादा पसंद आ रही है क्योंकि अनिल दादा इधर फिल्मी स्टाइल की कोई रोमांचक कारगुजारी करना चाहता था। पप्पू ने ही उसे बताया था कि अगर शंकर की दुकान को लूटा जाए तो कम-से-कम दस हजार रुपए मिलेंगे। उतनी छोटी दुकान पर दस हजार रुपए मिलने की बात अनिल दादा के गले आसानी से उतरी नहीं लेकिन उसने बाद में मान लिया क्योंकि पप्पू ने खुद शंकर को कई बार सौ-सौ के नोटों की गड्डियों को गिनते हुए देखा है। पप्पू के अलावा और भी कई लड़कों ने देखा है। ये सभी वही लड़के हैं, जिनके माँ-बाप अक्सर शंकर के हाथों जलील होते रहते हैं। आजकल अनिल दादा पप्पू और दूसरे लड़कों के साथ शंकर को लूटने की स्कीम पर बहस करता रहता है। दो-तीन छुरों का इंतजाम हो गया है। बस एक पिस्तौल की और जरूरत है। काले कपड़ों के टुकड़ों को जोड़कर पार्क में ही वनभैरव शैली की नकाबें बनाई गई हैं। आज अनिल दादा अपने साथ कुछ और होशियार किस्म के लोगों को लेकर आनेवाला था और उनके साथ बैठकर योजना को अंतिम रूप देना था।
पिछले कई महीनों से अनिल दादा के साथ मिलकर वह योजना बना रहा है। दरअसल अनिल दादा ने एक फिल्म देखी थी जिसमें चार नकाबपोश लड़के मिलकर एक बैंक लूटते हैं। तब से वह इसी स्कीम पर काम कर रहा है। उसने पप्पू को भी कई बार यह फिल्म दिखाई थी। पप्पू इस समय अनिल दादा का काफी नजदीकी हो गया है। अनिल दादा मोहल्ले भर का दादा है। पप्पू की उम्र के लड़के या तो उससे डरते हैं या उसके साथ के लिए लालायित रहते हैं। छोटे-मोटे दुकानदार भी उससे जल्दी नहीं उलझते। पिछले कई सालों से वह हाईस्कूल का इम्तहान दे रहा है। स्कूल छूटने के बाद पप्पू अनिल दादा के करीब आ गया है। पप्पू ने ही उसे शंकर की दुकान लूटने का आइडिया दिया था, तब से वह उसके और करीब आ गया है।
आजकल वे लोग पार्क के एक किनारे पर बैठते हैं। आपस में फुसफुसाकर बातें करते हैं। अँधेरा होने पर बस्ती के बाहर सड़क पर टहलने निकल जाते हैं। और देर तक टहलते हुए किसी पुलिया पर बैठकर योजनाएँ बनाते हैं। योजनाएँ बनाते-बनाते अक्सर पप्पू का मन रोमांच से भर उठता है। आजकल उठते-बैठते, सोते-जागते वह अपने को आँखों पर वनभैरव की तरह पट्टियों का नकाब बाँधे, हाथ में पिस्तौल लिए महसूस करता है। एकाएक अपने को चारों तरफ से हथियारबंद खूँखार नौजवानों से घिरा देखकर थुलथुल शंकर कैसे घबराएगा, किस तरह से रोनी सूरत बनाए अपनी जिंदगी-भर की कमाई लुटते देखेगा, कैसे हाथ जोड़ जोड़ कर अपनी जान माल की भीख माँगेगा, सोच-सोचकर पप्पू को हँसी आती है। शंकर तो उसे नहीं पहचान पाएगा लेकिन अगर गणेश उसी समय आ गया तो जरूर पहचान लेगा। पहचान ले। वह तो चाहता है कि शंकर जान जाए कि उसे किसने लूटा है और क्यों लूटा है।
शंकर की दुकान पीछे छूट गई और वह चाय की दुकान तक पहुँच गया। उसने सौ ग्राम जलेबी खाई, फिर पानी पीकर गिलास में उँगलियाँ डुबोकर धोईं। उसका मन वहाँ बैठने को नहीं कर रहा है। वह जल्द से जल्द अनिल दादा तक पहुँचना चाहता था लेकिन अनिल दादा अभी पार्क में नहीं आया होगा। उसने गर्म चाय ली और धीरे-धीरे पीने लगा। कुछ देर तक वहाँ बैठने के बाद जब उसे लगा कि शायद अनिल दादा पार्क में अब आ गया हो, वह उठा, दुकानदार को पैसे दिए और पार्क की तरफ चल दिया।
पप्पू आज शायद रोज के मुकाबले पहले पार्क पहुँच गया था। अभी तक पार्क लगभग खाली था। खासतौर से वह कोना, जहाँ अनिल दादा अपनी टीम के साथ बैठता था, पूरी तरह खाली था। दिसंबर की गुनगुनी धूप ने पार्क को हर तरह से घेर लिया था। वहाँ बैठने में जो सुख था उसने न चाहते हुए भी पप्पू को अपनी तरफ खींच लिया। पप्पू पार्क के अपने कोने में जाकर बैठ गया। उसके और उसके साथियों के लिए यह कोना अपना इसलिए था क्योंकि वे लगभग रोज ही वहीं बैठते थे और उनकी बदमाशियों की वजह से मोहल्ले का कोई बुजुर्ग या कोई महिला वहाँ बैठने की हिम्मत नहीं करते थे। पप्पू ऊबा-सा वहाँ बैठा-बैठा जम्हाइयाँ लेता रहा। धूप की गर्माहट और ऊब ने ऐसा माहौल पैदा किया कि वह लेट गया और धीरे-धीरे ऊँघने लगा।
एक कुत्ता आकर उसके पास बैठ गया और उसका पैर चाटने लगा। उसने लेटे-लेटे उसे एक लात जमाई तो कुत्ता उठकर दूसरी तरफ, एक मूँगफलीवाले के पास चला गया। पार्क में उसके अलावा दो-तीन खोमचेवाले भी थे जो ग्राहकों के अभाव में रेलिंग के सहारे बैठकर बतिया रहे थे, कुछ आवारा गायें और बकरियाँ और मोहल्ले के ही एक रिटायर्ड रेवले गार्ड थे जो सामने अखबार फैलाए, जाने कितनी देर से बैठे-बैठे ऊँघ रहे थे। पप्पू जहाँ बैठा है, वहाँ काफी सख्त घास थी और कुछ दूरी पर नर्म हरी घास का टुकड़ा दिखाई दे रहा था। पप्पू का मन हुआ कि जाकर वहाँ बैठ जाए लेकिन आलस में उसी जगह बैठा रहा और न सिर्फ बैठा रहा बल्कि थोड़ी देर में वहीं लेट गया और आँखों पर हाथ रखे धीरे-धीरे सो गया।
पप्पू की नींद खुली तब तक कई लड़के उसके इर्द-गिर्द आकर बैठ चुके थे। कुछ लड़के रोज की तरह अपनी क्लासों से भागकर आए थे, कुछ पप्पू की तरह थे जो फीस उड़ा गए थे और नाम कट जाने की वजह से बजाय स्कूल जाने के पार्क में बैठने लगे थे। जब तक उनके माँ-बाप को इस बात का पता नहीं चलेगा और अच्छी खासी कुटम्मस के साथ फिर से फीस जमा करके उनका नाम नहीं लिखवाया जाएगा, तब तक वे यहाँ आते ही रहेंगे। वे किसी फिल्मी हीरोइन के रोमांस के बारे में आधिकारिक ढंग से बातें कर रहे थे। पप्पू बिना किसी उत्सुकता से उनकी बातें सुनता रहा। अनिल दादा अभी तक नहीं आया था। आजकल पप्पू को सिर्फ उसी की बातों में मजा आता है।
थोड़ी देर में अनिल दादा आ गया। उसके साथ एक और दुबला-पतला मरियल सा लड़का था जिसने मैली सी पैंट और गंदी, फटे कालरवाली कमीज पहन रखी थी। पप्पू को निराशा हुई। उसे उम्मीद थी कि आज अनिल दादा अपने साथ पूरे गैंग को लाएगा, जिसकी वह अक्सर डींग हाँकता रहता है। आया भी तो सिर्फ एक आदमी के साथ और वह भी कितना मरियल। लगता है, जैसे किसी साइकिल के पंक्चर जोड़ने की दुकान का मिस्त्री हो। पप्पू का ख्याल सही निकला। बाद में जब अनिल दादा ने पप्पू को आँख का इशारा किया और वे उठकर बाकी लड़कों से अलग बैठ गए तब पप्पू को पता चला कि वह सचमुच कटरे में साइकिल, रिक्शों के पंक्चर जोड़ने की दुकान चलाता है।
अनिल दादा और मिस्त्री फुसफुसाकर बात करने लगे। पप्पू को मिस्त्री की क्षमता पर विश्वास तो नहीं हो रहा था लेकिन जब अनिल दादा ने उसके कई किस्से सुनाए तो उसे विश्वास हो गया कि वह सचमुच कुछ दादा किस्म का आदमी है। अनिल दादा ने मिस्त्री को आँखों के इशारे से शंकर का घर दिखाया। मिस्त्री ने बड़े अनुभवी ढंग से चारों तरफ का मुलाहिजा किया। उसने इस ढंग से कुछ सवालात किए, जिससे यह साबित होता था कि उसे इस तरह की वारदातों में शरीक होने का काफी अनुभव है। पप्पू कुछ-कुछ अविश्वास से और अनिल दादा पूरे विश्वास से उसके जवाब देते रहे। उन्होंने पूरी स्कीम फिर से एक बार दोहराई। हालाँकि यह स्कीम सैकड़ों बार दोहराई जा चुकी थी लेकिन पप्पू पूरी उत्तेजना के साथ एक-एक तफ्सील सुनता रहा और अपने सुझाव देता रहा।
मिस्त्री अनुभवी आदमी की तरह हथियारों की बात करने लगा। हालाँकि अनिल दादा ने भी कई बार कहा था कि उसके पास एक रामपुरी चाकू और एक पिस्तौल है लेकिन उसने कभी दिखाया नहीं था। पप्पू एक बार पिस्तौल देखना चाहता था। मिस्त्री ने आश्वासन दिया कि उसे पिस्तौल जरूर दिखाएगा। वह लूट में खुद पिस्तौल लेकर शरीक होना चाहता था, लेकिन चूँकि पिस्तौलें सिर्फ दो थीं इसलिए तय हुआ कि पिस्तौल सिर्फ अनिल दादा और मिस्त्री के पास रहेगी और पप्पू को रामपुरी चाकू दिया जाएगा। दूसरे लड़के भी चाकू रखेंगे। दूसरे लड़कों की लिस्ट पहले की तरह फिर से बनाई गई। मिस्त्री ने अपने साथ एक लड़का लाने की बात की। पहली लिस्ट में शामिल लड़कों में से कुछ के बारे में पप्पू का ख्याल था कि वे कायर हैं और कुछ को अनिल दादा डरपोक समझता था। लिहाजा पहले कई बार की तरह एक बार फिर कुछ लड़कों के नाम काटे गए, कुछ के जोड़े गए।
मिस्त्री को जल्दी थी, वह बार-बार शिकायत कर रहा था कि अनिल दादा उसे धंधे के टाइम उठा लाया था। कई बार उसने उठने की कोशिश की लेकिन हर बार कोई-न-कोई बात निकल आती और वह फिर रुक जाता। अंत में वह उठ खड़ा हुआ। जाते-जाते पप्पू ने बड़ी आजिजी के साथ उससे पिस्तौल दिखाने का वादा करा लिया। तय हुआ कि शाम को अनिल दादा पप्पू को लेकर उसके घर जाएगा, वहीं वह पप्पू को पिस्तौल दिखाएगा। पप्पू पिस्तौल देखने के विचार से ही रोमांचित हो गया। चलते-चलते मिस्त्री अनिल को पप्पू से थोड़ा हटकर एक किनारे ले गया। वे फुसफुसाकर कर कुछ बातें करने लगे। बीच-बीच में पप्पू की तरफ देखकर उनकी आँखों में शरारत-भरी चमक तैरने लगती। वे जिस तरह बीच-बीच में मुस्कुराते और एक-दूसरे की तरफ देखकर आँखें मटकाते उससे पप्पू को उनके बीच हो रही बातों का काफी हद तक अंदाज लग रह था। उसने घबराकर चारों तरफ देखा। काफी लड़के आपस में बातचीत में मशगूल थे। किसी का ध्यान इस समय उसकी तरफ नहीं था। अगर किसी ने देख सुन लिया तो मोहल्ले-भर के लड़कों में बात फैल जाएगी। वैसे ही लड़के उसके और अनिल दादा के संबंधों को लेकर उसे कितना चिढ़ाते हैं। पहले तो वह रुआँसा हो जाता था, बाद में अनिल दादा ने दो-एक लड़कों की पिटाई कर दी। तब से चिढ़ाना कुछ कम हो गया है, फिर भी उसे अकेले पाकर इक्का-दुक्का लड़के एक-दूसरे की तरफ देखकर शरारतन आँखें मार देते हैं या धीरे से आपस में कुछ द्विअर्थी वाक्य बोलते हैं, जिससे पप्पू का चेहरा काला पड़ जाता है और वह न सुनने का बहाना बनाए, वहाँ से चुपचाप खिसक जाता है।
मिस्त्री चला गया। अनिल दादा पप्पू के पास आकर बैठ गया। पप्पू का मन क्षोभ से भरा हुआ था। वह दूसरी तरफ देखता रहा। उसने दादा से कई बार साफ-साफ कह दिया है कि वह उसके साथ तो तैयार है लेकिन उसके दोस्तों के साथ नहीं लेकिन उसके बावजूद, पप्पू को अनिल दादा बीच-बीच में अपने दोस्तों के पास ले जाता रहा है। दो-एक बार पप्पू ने साफ-साफ मना कर दिया था लेकिन अनिल दादा ने अपने उसके संबंधों की बात मुंशीजी को बताने की धमकी देकर उसका प्रतिरोध तोड़ दिया था। अनिल दादा ने पप्पू से बात करने की कोशिश की। लेकिन पप्पू उसकी बात को न सुनने का बहाना किए हुए, दूसरी तरफ देखता रहा। अनिल दादा झल्लाकर उठा और थोड़ी दूर पर बैठे हुए दूसरे लड़कों के साथ बैठ गया। पप्पू अकेला रह गया।
धूप अब काफी तेज हो गई थी। पप्पू ने अंदाज लगाया, ग्यारह से कम क्या बजे होंगे। उसे काफी तेज भूख लग आई थी। उसने उठकर घर जाने का इरादा किया लेकिन आलस में बैठा रहा। क्या करेगा घर जाकर? उसके खाने या न खाने का किसी पर क्या असर पड़ेगा? मुंशीजी खाकर निकल गए होंगे। विनोद नहा रहा होगा या हो सकता है, यह भी खा-पीकर निकल गया हो। राजकुमारी उसके लिए एक थाली में खाना निकालकर खुद खा लेगी। उसका खाना पड़ा रहेगा। जिस दिन वह दिन में नहीं खाने जाता, उस दिन शाम को बर्तन माँजते समय राजकुमारी उसका खाना गली में फेंक आती है, जहाँ आवारा कुत्ते उसे खा जाते हैं। न कोई उससे दिन में खाना न खाने की वजह पूछता है, न वह किसी से बताता है। जब उसके खाने, न खाने का किसी पर कोई फर्क नहीं पड़ना तो वह क्यों जाए घर? अभी भी उसकी जेब में कुछ पैसे थे। वह किसी चाय की दुकान पर बंद-मक्खन खाकर चाय पिएगा। पहले भी कई बार ऐसा हुआ है कि किसी छुट्टी के दिन मटरगश्ती करने में बहुत देर हो जाती थी लेकिन घर पहुँचने पर हमेशा माँ इंतजार करती मिली थी। पहुँचते ही उसकी पिटाई करती, फिर नहलाकर अपने साथ खाने बैठाती। मुंशीजी घर में मौजूद होते तो वे भी खाना खाने के पहले या बाद में उसे दो-एक हाथ लगाते। राजकुमारी भी, अभी हाल तक उसके खाना न खाने पर कितना खोद-विनोद करती। पप्पू के रूखे ढंग से जवाब देने पर मुंशीजी से शिकायत करने की धमकी देती। अब तो वह भी कुछ नहीं कहती। कई दिन तो लगातार दोनों वक्त का खाना फेंकना पड़ा है लेकिन इस बात का पता सिर्फ राजकुमारी और पप्पू को रहा है, न विनोद को पता चला और न मुंशीजी को।
पप्पू चुपचाप बैठा रहा। थोड़ी देर में अनिल दादा उठकर फिर उसके पास आ गया। उसने उसे खुश करने के लिए टोस्ट-मक्खन खिलाने की बात कही। पप्पू को मालूम था कि अंत में उसे अनिल दादा की ही बात माननी पड़ेगी। उसे खूब जोरों से भूख भी लगी थी। अतः वह उठ गया। पार्क के अंदर एक रेलिंग के सहारे अनिल दादा की साइकिल खड़ी थी। अनिल दादा ने साइकिल का ताला खोला और पप्पू को साइकिल थमा दी। पार्क के बाहर निकलने पर वह आगे डंडे पर बैठ गया और पप्पू साइकिल चलाने लगा। मोहल्ले की किसी चाय की दुकान पर बैठना मुश्किल था क्योंकि किसी भी समय मुंशीजी या विनोद उसे देख सकते थे इसलिए उसने साइकिल पालीटेक्नीक की तरफ मोड़ ली। थोड़ी चढ़ाई थी इसलिए पप्पू जल्दी ही हाँफने लगा। अनिल दादा ने उसे उतारकर आगे बैठा लिया और खुद चलाने लगा।
चढ़ाई खत्म होते ही अनिल दादा ने उसे चिढ़ाया, ‘इतनी जल्दी हाँफने लगे, बच्चू? इसी बूते पर शंकर के यहाँ चढ़ोगे?’
पप्पू झेंप गया। उसने कोई जवाब नहीं दिया। दरअसल वह इधर ही इतनी जल्दी हाँफने लगा है। पहले जब नया-नया उसने साइकिल चलाना सीखा था तो कितने शौक से वह तीन-तीन लोगों को बैठाकर साइकिल चलाता था। विनोद कॉलेज से लौटता कि वह सबकी आँख बचाकर, उसकी साइकिल लेकर निकल जाता। मोहल्ले-भर के लड़कों को बैठाकर घुमाता रहता। माँ के लाख मना करने पर भी सड़क पर अपने से बड़े लड़कों को बैठाकर साइकिल चलाता रहता। उसे बैठाकर कोई और साइकिल चलाए, यह उसे अपमान लगता था।
‘कितनी बार कहा है कि सुबह उठकर डंड-बैठक किया करो, सो तो होगा नहीं, बस शंकर की दुकान लूटने की धुन लगी है।’ अनिल दादा का चिढ़ाना जारी है।
झेंपा हुआ पप्पू कैसे बताए कि अपने उस दरबानुमा घर में वह कहाँ डंड-बैठक करे। अनिल दादा के बहुत चिढ़ाने पर उसने कई बार शुरू भी किया लेकिन हास्यास्पद बन जाने के डर से उसे जल्दी ही छोड़ना पड़ा। एक बार तो बड़े नियमित रूप से वह एकदम सवेरे उठकर छत पर तीन-चार दिन गया लेकिन तीसरे या चौथे दिन ही जब वह पंद्रह बैठक मारकर, तीसरा डंड निकाल रहा था, उसे लगा कि सामने की छत पर कोई हँस रहा है। न जाने बिन्नी कब वहाँ आकर खड़ी हो गई थी और उसकी तरफ देखकर हँस रही थी। शर्म से पप्पू वहीं दीवार की आड़ लेकर बैठ गया। जब उसे विश्वास हो गया कि बिन्नी चली गई है तब वह तेजी से झुका-झुका ही सीढ़ियों की तरफ भाग निकला। लगता है, बिन्नी ने यह बात विनोद को भी बता दी थी क्योंकि दूसरे दिन जब पप्पू देर से उठकर कमरे के बाहर आया तो बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा विनोद उसे देखकर धीरे से मुस्कुराया और फिर अखबार पढ़ने लगा उसके बाद पप्पू का ‘शरीर बनाओ अभियान’ ठप्प पड़ गया।
रास्ते में अनिल ने बताया कि मिस्त्री ने जाते समय उन्हें मैटिनी-शो दिखाने का वादा किया है। वह उन्हें सिनेमा हाल पर ही मिलेगा। सिनेमा खत्म होने पर उसके घर जाएँगे और वहाँ वह पप्पू को पिस्तौल दिखाएगा। पप्पू उसका मतलब तो समझ गया, लेकिन चुप रहा। पालीटेक्नीक के पास एक चाय की दुकान पर साइकिल रोककर वे उतर पड़े और बाहर पड़े एक बेंच के पास साइकिल खड़ी कर उसी बेंच पर बैठ गए।
अभी मुश्किल से बारह बज रहे थे। उन्हें तीन घंटे बिताने थे। वे आराम से दुकान पर बैठे रहे। अनिल अखबार उलटता-पुलटता रहा और पप्पू धीरे-धीरे चाय पीता रहा। उसे बड़े जोरों की भूख लगी हुई थी। अनिल उसे टोस्ट मक्खन खिलाने को कहकर लाया था लेकिन उसने सिर्फ दो समोसे मँगाए, जिसमें से दोनों ने एक-एक खाए। लगता है, उसकी जेब में ज्यादा पैसे नहीं हैं। एक समोसा खाने से पप्पू की भूख और बढ़ गई थी। एक बार उसने सोचा कि अपने जेब के पैसों से कुछ मँगा ले लेकिन फिर खामोश रह गया। कहीं रास्ते में अनिल से पीछा छुड़ाकर कुछ खा लेगा। चाय खत्म हुई तो अनिल ने पैसे दिए और वे उठ खड़े हुए। अभी बहुत समय था। वे पैदल ही वापस मुहल्ले की तरफ बढ़े। रास्ते में अनिल ने शंकरवाली स्कीम के बारे में बातचीत करने की कोशिश की लेकिन भूख से कुलबुलाते पप्पू को उसमें ज्यादा रस नहीं आ रहा था। वह लगातार अनिल से छुटकारा पाकर किसी चाय की दुकान तक जाने की सोच रहा था। पार्क तक पहुँचते-पहुँचते उसे एक उपाय सूझ ही गया। उसने अनिल से कहा :
‘तुम बैठो, मैं अभी घर से खाना खाकर आता हूँ।’
‘तुमने अभी तक खाना नहीं खाया?’
‘अभी कहाँ, सवेरे से तो तुम्हारे चक्कर में हूँ।’
‘तभी...’
अनिल कुछ कहना चाहता था लेकिन पप्पू ने उसे मौका नहीं दिया। वह उसे पार्क के फाटक पर छोड़कर एकदम से मुड़ गया।
पप्पू ने अपनी गली के पास पहुँचकर, पीछे देखा। अनिल पार्क के एक कोने में बैठे लड़कों के पास बैठ चुका था। उसकी पीठ पप्पू की तरफ थी। पप्पू तेजी से अपनी गली को पीछे छोड़ता हुआ शंकर की दुकान की तरफ बढ़ गया। वहाँ से वह उसी रफ्तार में बाईं तरफ मुड़कर सवेरेवाली चाय की दुकान में पहुँच गया। उसने जल्दी-जल्दी बंद-मक्खन खाया, सौ ग्राम पकौड़ियाँ खाई, चाय पी और उठ खड़ा हुआ।
जब वह वापस पार्क में पहुँचा तो अनिल को ताज्जुब हुआ।
‘अरे! तुम इतनी जल्दी खाना खा आए?’
पप्पू ने कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ सर हिलाकर उस मंडली में शरीक हो गया जिसमें कई लड़के घेरा बनाकर किसी विषय पर बड़े जोर-शोर से बातें कर रहे थे। अनिल और एक-दूसरे लड़के में बहस हो रही थी। अनिल तरह-तरह की दलीलें देकर वह साबित करने की कोशिश कर रहा था कि शरीर बनाने के लिए डंड-बैठक सबसे अच्छा उपाय है जब कि दूसरा लड़का जिम्नेजियम जाकर अंग्रेजी कसरतें करने का पक्षधर था। बाकी लड़के उत्सुकता से बहस सुन रहे थे और बीच-बीच में दोनों को उकसाने के लिए कोई-न-कोई ऐसा वाक्य बोल देते थे जिससे वे और ज्यादा उत्तेजित होकर बोलने लगते। पप्पू के पहुँचने पर एक क्षण को विराम आया लेकिन फिर उसी जोश-खरोश से बहस शुरू हो गई।
पप्पू को शरीर बनाने से संबंधित बहस को लेकर घबराहट होती है। अक्सर इस तरह की बहसों से मोहल्ले के लड़कों में से ही उदाहरण चुने जाते हैं और फिर पप्पू की खिंचाई होती है। आजकल मोहल्ले के लड़कों में आपसी बातचीत का यह सबसे अहम मुद्दा है क्योंकि मोहल्ले में हाल ही में एक ‘शाखा’ लगने लगी है और शरीर बनाने की एक नई धुन शुरू हुई है। अधभरे पेटवाले लड़के ‘शाखा’ के बौद्धिक सुन-सुनकर घर आकर डंड-बैठक करते हैं और स्कूल में खाली घंटों में बाँह की कमीज ऊपर चढ़ाकर हाथ की मछलियाँ दिखाते हैं।
पप्पू इस तरह की बहस को लेकर बचने की कोशिश करता है। आज भी बहस का विषय जानते ही वह सायास उपेक्षा करके दूसरी तरफ देखने लगा। वह दिखा रहा था कि जैसे वह कुछ सुन ही नहीं रहा है। लेकिन थोड़ी ही देर में उसके कान की लवें लाल होने लगीं। बहस में उदाहरणों का नंबर आने लगा था। जल्दी ही खराब शरीरवाले लड़कों का जिक्र आने पर उसका भी नाम आ गया। श्रोताओं ने मुस्कुराकर उसकी तरफ देखा। पप्पू उपेक्षा से दूसरी तरफ देखता रहा। अनिल उसकी कमजोरी जानता था इसलिए उसने जल्दी से बात बदल दी लेकिन उससे बहस करनेवाले लड़के को पता था कि पप्पू अनिल की कमजोरी है। वह बहस में हार रहा था इसलिए अनिल को मजाक का पात्र बनाने के लिए वह बार-बार पप्पू का नाम ले आ रहा था। बाकी लड़कों को भी मजा आ रहा था। वे लगातार पप्पू की आँखों पर कटाक्ष कर रहे थे जो उनके लिहाज से कसरत न करने से गड्ढे में धँस गई थीं और उनमें बहनेवाले गँदले कीचड़ को रोकने का एक ही उपाय था कि वह कसरत करे। पप्पू खिसियानी हँसी हँसकर बहस से अपने को असंपृक्त करने की चेष्टा कर रहा था और अनिल दादा उसे दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश कर रहा था।
पप्पू को अपनी आँखों की वजह से कई बार शर्म का सामना करना पड़ा है। शुरू से ही उसकी आँखें अजीब पनियायी-पनियाई सी रहती थीं। दर्जा चार का पढ़ा पाठ उसे अकसर याद आ जाता जिसके मुताबिक चाचा नेहरू बच्चों की आँखों में देश का भविष्य देखते थे। कैलेंडरों और पत्रिकाओं की तस्वीरों में उसने चाचा नेहरू को बच्चों की आँखों में मुस्कुराते हुए झाँकते देखा है। बच्चों की आँखों के सपने का अक्स स्पष्ट तो नहीं दिखाई देता था लेकिन इतना जरूर स्पष्ट था कि सपना काफी अच्छा होता होगा, तभी तो चाचा नेहरू हमेशा मुस्कुराते रहते हैं। तस्वीरोंवाले बच्चों की आँखें कितनी नीली, साफ और चमकदार होती हैं। उन बच्चों को देखते हुए पप्पू हमेशा हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है। अच्छा हुआ, कभी चाचा नेहरू से मुलाकात नहीं हुई, नहीं तो अगर कहीं वे उसकी आँखों में झाँक लेते तो उसकी पनियाई, निस्तेज आँखों में उन्हें न जाने क्या दिखाई देता? किसी सपने-वपने की तो बात ही दीगर है - इन गँदली आँखों में सारे सपने मिट जाते-उल्टे वे मुस्कराना भी भूल जाते। एक बार ड्राइंग मास्टर और संस्कृत के पंडितजी ने उसे कितना जलील किया था। तिमाही इम्तहान की संस्कृत की कॉपियाँ क्लास में दिखाई गई थीं। क्लास में अनुपस्थित रहने के कारण पप्पू अपने नंबर नहीं देख पाया था। दूसरे दिन वह इंटरवल में टीचर्स-रूम में गया। पंडितजी एक कोने में कुर्सी खींचकर ड्राइंग मास्टर से बातें कर रहे थे। वह चुपचाप जाकर उन दोनों के पास खड़ा हो गया। उसके सर पर आ खड़े होने से पंडितजी को कुछ असुविधा महसूस हुई तो उन्होंने अनिच्छा से उसकी तरफ देखा। उसका मंतव्य जानकर वे झुँझलाहट से उठे और अपनी आलमारी खोलकर कॉपियों का बंडल निकाल लाए और उसे थमा दिया। उसने चुपचाप कॉपियों के बंडल से अपनी कॉपी ढूँढ़ी और बाकी बंडल एक तरफ रख दिया। बमुश्किल वह पास हुआ था। उसकी पीली आँखें और ज्यादा उदास लगने लगी थीं। वह चुपचाप अपनी कॉपी के पन्ने उलटता रहा और मन-ही-मन अलग-अलग प्रश्नों पर मिले अंकों को जोड़कर कॉपी के कवर पर मिले प्राप्तांकों से मिलान करता रहा। अचानक उसे लगा कि पंडितजी बात छोड़कर, एकटक उसी की तरफ देखने लगे हैं।
‘तुम्हारी आँखें इतनी निस्तेज क्यों हैं जी? लगता है पीलिया के मरीज हो।’
‘पीलिया-वीलिया कुछ नहीं है। आजकल के लड़के आपके जमाने के तो हैं नहीं। इसी उम्र में न जाने कौन-कौन-सी कुटेव पाल लेते हैं।’
ड्राइंग मास्टर ने हल्के से पंडितजी को आँख मारी तो पप्पू पूरी तरह से रुआँसा हो उठा। उसने बड़ी मुश्किल से अपनी कॉपी बंडल के ऊपर रखी। उसे फिर से रस्सी से बाँधा और पंडितजी के सामनेवाली मेज पर रख दिया। पंडितजी ने शायद उसका मन रखने के लिए कहा, ‘अरे नहीं, ये तो सीधा-साधा लड़का है। इसमें इसकी गलती भी क्या है। आजकल के लड़कों को घी, दूध तो खाने को मिलेगा नहीं, आँखें पीली नहीं होंगी तो क्या उनसे तेज बरसेगा?’
‘आप भी पंडितजी....’
इसके बाद पूरा वाक्य सुनने के लिए पप्पू नहीं रुका। पीछे से आती हुई ड्राइंग मास्टर और संस्कृत के पंडित जी की हँसी उसकी पीठ से टकराकर उसके मन में शर्म और पीड़ा के दंश चुभाती रही।
पप्पू को ड्राइंग मास्टर से नफरत है। एक बार तिमाही के नंबर बताने के लिए उसे उन्होंने अपने घर बुलाया। घर पर कैसा गंदा काम उसके साथ करना चाहते थे। पप्पू रोने लगा और प्रिसिंपल साहब से शिकायत करने की धमकी दी, तब कहीं उसे छुटकारा मिला। तब से, ड्राइंग मास्टर कोई भी मौका मिलते ही उसे जलील करने से नहीं चूकते। उसने कई बार सोचा कि क्लास के लड़कों को ड्राइंग मास्टर की बदमाशी बता दे लेकिन हमेशा यह सोचकर चुप लगा जाता कि लड़के उसी को चिढ़ाएँगे।
बाद में जब उसके अनिल दादा से ताल्लुकात बन गए थे; तब उसने एक दिन उसे बताया था। एक बार जब फिर ड्राइंग मास्टर ने उसे अपने घर बुलाया तो पप्पू अनिल को साथ लेकर गया। अनिल की दादागीरी से स्कूल के लड़के ही नहीं, अध्यापक तक वाकिफ थे। उसने ड्राइंग मास्टर को उनके घर पर माँ-बहन की खूब गालियाँ दी थीं, तब से फिर उन्होने पप्पू को परेशान नहीं किया।
बहस में बार-बार पप्पू का नाम लेने से अनिल चिढ़ गया। उसने दो-तीन गालियाँ हवा को दीं। साथ बैठे लड़के समझ गए और उन्होंने फौरन बात का विषय बदल दिया।
पप्पू ने थोड़ा आश्वस्त महसूस करते हुए अपने को घास पर फैला दिया। धूप अब तेज हो गई थी और सीधी उसकी आँखों पर पड़ रही थी। धूप से बचने के लिए उसने एक हाथ आँख पर रख लिया।
लेटे-लेटे बगल में हो रही उत्तेजित बहस के स्वर धीरे-धीरे अस्पष्ट होने लगे। वह ऊँघते-ऊँघते झपकियाँ लेने लगा।
जब अनिल ने झिंझोड़कर उसे उठाया तो धूप उस हिस्से से सरककर थोड़ी दूर जा बैठी थी। पप्पू समझ गया कि सिनेमा का वक्त हो गया था। वह चुपचाप उठकर अनिल के साथ पार्क से बाहर निकल गया।
जब वे सिनेमा हाल पर पहुँचे तो मिस्त्री टिकटें खरीदकर उनका इंतजार कर रहा था। सिनेमा शुरू होने में थोड़ा वक्त था लेकिन वे अंदर जाकर बैठ गए। बाहर पप्पू और अनिल दोनों को घर के किसी आदमी द्वारा देखे जाने का खतरा था। हाल में सबसे अगली सीट से सिर्फ एक सीट पहले उन्हें जगह मिली। इतना आगे बैठने से पप्पू की आँखें दर्द करने लगती हैं, लेकिन मजबूरी थी क्योंकि मिस्त्री दिखा रहा था। अगर वह कुछ कहता है तो वे दोनों उसका मजाक उड़ाएँगे और हो सकता है कि पीछे का टिकट खरीदने के लिए उसी से कुछ पैसा माँगने लगें।
हाल की बत्ती गुल होते ही मिस्त्री और अनिल ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया। अनिल को झेलने की तो आदत थी लेकिन मिस्त्री की हरकतों से उसे जुगुप्सा होने लगी। बिना अगल-बगल का ध्यान किए, वह उसके गाल पर हाथ फेर रहा था और बीच-बीच में चिकोटी काट लेता था। उन दोनों ने पप्पू को बीच में बैठा रखा था, इसलिए वह उठकर कहीं जा भी नहीं सकता था। जब केवल अनिल होता था तो उसकी हरकतों से बेखबर पप्पू सिनेमा में दिलचस्पी लेने की कोशिश करता लेकिन मिस्त्री तो कुछ ज्यादा ही फूहड़ था। उसे अगल-बगल के लोगों की जरा भी परवाह नहीं थी। उसने पप्पू का बायाँ हाथ लगभग खींचते हुए अपनी जाँघों के बीच रख लिया। पप्पू ने छुड़ाने के लिए कई बार जोर लगाया लेकिन मिस्त्री अपने दाहिने हाथ से उसे दबाए रहा। पप्पू ने हार मानकर अपना हाथ वहीं छोड़ दिया और चुपचाप फिल्म देखने लगा। शायद उन दोनों में ऐसा समझौता हो चुका था, इसलिए अनिल ने थोड़ी ही देर में अपने को फिल्म में डुबो दिया और पप्पू को मिस्त्री के लिए छोड़ दिया। पप्पू ने भी अपना ध्यान उधर से हटाकर पूरी तरह से फिल्म में लगा दिया। लेकिन एकाएक उसे अपने हाथ में चिपचिपाहट महसूस हुई। उसने घिन्नाकर अपना हाथ पीछे खींच लिया। मिस्त्री ने भी फिर से उसका हाथ नहीं खींचा। तीनों चुपचाप फिल्म देखते रहे।
इंटरवल की रोशनी होते ही अनिल और मिस्त्री एक-दूसरे की तरफ देखकर मुस्कुराए। पप्पू शर्म में डूबा परदे की तरफ देखता रहा और फिर झटके से उठकर बाहर निकल गया। बाहर वह निरुद्देश्य सड़क पर आने-जानेवालों को देखता रहा। उसके पीछे-पीछे वे दोनों भी बाहर निकल आए। पप्पू एक खंभे की आड़ में था इसलिए वे उसे नहीं देख पाए। पप्पू भीड़ के पीछे होता हुआ पेशाबघर में घुस गया। हाल के अंदर वह तभी घुसा जब पूरी तरह अँधेरा हो गया था। इधर-उधर टकराते हुए वह अपनी सीट पर पहुँच गया।
पिक्चर खत्म होने पर अनिल और मिस्त्री ने अपनी साइकिलें निकालीं और पप्पू के साथ भीड़ में धीरे-धीरे पैदल ही चलने लगे। भीड़ खत्म होते ही मिस्त्री ने पप्पू को अपनी साइकिल के आगे बैठा लिया और तीनों एक तरफ चल दिए। पप्पू जानता था कि वे कहाँ जा रहे हैं। अँधेरा हो जाने पर अनिल हमेशा उसे नार्मल स्कूल के मैदान में ले जाता था। आज भी वे वहीं जा रहे थे। नार्मल स्कूल के मैदान में पहुँचकर उन्होंने साइकिलें एक किनारे खड़ी कीं। अनिल साइकिलों के पास रुक गया और मिस्त्री पप्पू को लेकर मैदान की दूसरी तरफ चला गया। थोड़ी देर में मिस्त्री साइकिलों के पास लौट आया और अनिल पप्पू की तरफ चला गया। थोड़ी देर में दोनों लौट आए।
साइकिलों पर सवार होकर वे मिस्त्री के घर की ओर चले। उसका घर गली में था। उन दोनों को गली में बाहर खड़ा करके मिस्त्री अंदर चला गया और थोड़ी ही देर में बाहर निकलकर उसने उन्हें इशारा किया। वे उसके पीछे-पीछे गली के अँधेरे कोने की तरफ बढ़ गए। पप्पू और अनिल दोनों उससे सटकर खड़े हो गए। मिस्त्री ने बड़े रहस्यमय ढंग से कमीज उठाकर पैंट में खुँसी कोई चीज निकाली और अनिल की तरफ बढ़ा दी। अँधेरे में पप्पू देख नहीं पाया लेकिन रोमांच और कौतूहल से उसने हाथ बढ़ाकर उस चीज को थाम लिया। लोहे की, लगभग एक फुट लंबी और बेढंगी-सी चीज थी जिसे हाथ में लेने पर पप्पू को निराशा ही हुई। फिल्मों में देखी हुई पिस्तौलों जैसी चीज देखने की उसकी इच्छा को इस भोंडी चीज को हाथ में लेने पर काफी धक्का लगा लेकिन उसने अपनी निराशा को एकदम से जाहिर नहीं किया। पिस्तौल अब उसके हाथ से अनिल ने ले ली थी। मिस्त्री उसे खोलने, गोली भरने और चलाने के बारे में बता रहा था। उसके बताने के ढंग से पप्पू थोड़ा आश्वस्त हुआ। उसे लगा मिस्त्री कोई खिलौना नहीं, बल्कि सचमुच की पिस्तौल दिखा रहा है। उसने एक बार फिर अनिल के हाथ से पिस्तौल ले ली और उत्सुकता के साथ उसके एक-एक पुर्जे को समझने लगा। उसे लगा कि अब शंकर के यहाँ डकैती कोई रोक नहीं सकता।
दो-तीन लोग उधर ही आ रहे थे। मिस्त्री ने झपटकर पप्पू के हाथ से पिस्तौल छीन ली और जल्दी से कमीज उठाकर अपने पैंट में खोंस ली। तीनों एक-दूसरे से थोड़ी दूरी बनाए हुए, मिस्त्री के घर तक आए। वहाँ पप्पू को अलग छोड़कर अनिल और मिस्त्री आपस में कुछ फुसफुसाते रहे और फिर मिस्त्री उन दोनों को छोड़कर अपने घर में घुस गया।
‘चलो!’ अनिल साइकिल पर चढ़कर, गली के बाहर की तरफ बढ़ चला। पप्पू जरा सा दौड़कर कैरियर पर बैठ गया। साइकिल हल्के से डगमगाई, फिर संतुलित होकर गली के बाहर निकल आई।
बाहर रात काफी गहरा गई थी। सड़कें करीब-करीब सूनी हो गई थीं। जाड़े में तो वैसे ही जल्दी वीरानी छा जाती है और फिर इस समय तो करीब-करीब आठ बज रहे थे। सर्दी अपने पूरे चढ़ाव पर थी। सवेरे वह बिना स्वेटर पहने निकल पड़ा था और तब से एक बार भी घर नहीं गया था। अभी तक सिनेमा हाल और गली के अंदर की गर्मी ने उसे स्वेटर की कमी को महसूस नहीं होने दिया था लेकिन अब, जब उनकी साइकिल भीड़भाड़ से निकलकर सूनी सड़क पर आ गई थी, उसके दाँत सर्दी के मारे आपस में बजने लगे थे। गनीमत थी कि वह पीछे कैरियर पर बैठा था इसलिए हवा सीधे उससे नहीं टकरा रही थी, फिर भी अनिल के जिस्म की आड़ से बचकर आनेवाली हवा इस कदर तीखी थी कि कैरियर पर बैठा-बैठा वह दोहरा-तिहारा होता जा रहा था। हाथों की कोहनियाँ सीने से बाँधे, हर पल उसे यही लग रहा था कि जरा सी साइकिल लड़खड़ाते ही उसका संतुलन बिगड़ जाएगा और वह गिर पड़ेगी लेकिन किसी तरह अपने को गिरने से बचाए रखकर, उसने सफर पूरा किया।
शायद अनिल को भी ठंडक लग रही थी। वह बार-बार अपनी हथेलियाँ हैंडिल से हटाकर पैंट से रगड़ने लगता था। हर बार साइकिल का संतुलन बिगड़ता और ऐसा लगता कि अब गिरे, तब गिरे। सर्द और जमे हुए कोहरे को चीरते हुए वे लोग अपने मुहल्ले के पार्क तक पहुँचे। पार्क पूरी तरह सूना था, केवल सीताराम की दुकान पर रोशनी दिखाई दे रही थी। अनिल ने पप्पू को पार्क में चलने का हल्के से इशारा किया लेकिन पप्पू ने एकदम इनकार में सर हिला दिया। अनिल का भी शायद ज्यादा मन नहीं था या शायद सर्दी का असर था, उसने ज्यादा आग्रह नहीं किया। दोनों ने हाथ के इशारों से एक-दूसरे से विदा ली और अनिल साइकिल पर चढ़कर चला गया।
पप्पू जहाँ खड़ा था, वहाँ अँधेरा था। अभी घर जाने से कोई फायदा नहीं था। अभी मुंशीजी जग रहे होंगे। वह ठंड में ठिठुरता वहीं खड़ा सोचता रहा कि क्या करे कि तभी उसे एक रिक्शे पर विनोद, मुंशीजी और त्रिवेणी आते दिखाई दिए। उनका रिक्शा थोड़ी देर के लिए एक लैंप-पोस्ट के नीचे के उजाले की परिधि में आ गया था। पप्पू और भी ज्यादा अँधेरे में दुबक गया। वे तीनों इस कदर अपने में खोए हुए थे कि उन्होंने पास से गुजरते हुए भी पप्पू को नहीं देखा। त्रिवेणी के जाने का मतलब था कि पप्पू और काफी देर तक घर नहीं जा सकता। वह सड़क पर इधर-उधर निरुद्देश्य भटकने लगा।