भयंकर ऐतिहासिक भूलें
प्रचलित वर्ण व्यवस्था का इतिहास भी भयंकर भूलों से भरा हुआ है। श्रीकृष्ण भगवान् ने वर्ण व्यवस्था के ही आधार पर अर्जुन को लड़ने के लिए तैय्यार किया और कहा कि-‘चातुर्वर्ण्यं मयासृष्टं-गुणकर्मविभागशः’ अर्थात् मैंने गुणों के अनुसार चातुर्वर्ण्य का कर्म विभाग किया है। ठीक है-श्रीकृष्ण एक चक्रवर्ती राजा थे। राजा ही कर्म-विभाग पर नियन्त्रण (Control) करता है। सारांश यह है कि वर्ण व्यवस्था के ही कारण कर्ण को नीच बताया गया और कौरव पाण्डव परस्पर ईर्ष्याग्नि से जल-जल कर ‘महाभारत’ करने पर संयुक्त हुए। परिणाम भी महा भयंकर हुवा। इस प्रकार हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था जनित ऊँच नीच और छूतछात के कारण भगवान् बुद्ध को अपने समय में प्रचलित हिन्दू धर्म से घोर घृणा हो गई। मुख्यरूप से वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करने के लिए ही भगवान् गौतम बुद्ध ने सर्वजनोपयोगी बौद्ध धर्म की स्थापना की, क्योंकि वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मण भी पक्के पशु हन्ता (शर्मा) बने हुवे थे। गौतम बुद्ध ने ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का शंख बजाया और वैदिक सिद्धान्तानुसार ब्राह्मण से चाण्डाल तक सबको समान मानकर वर्ण व्यवस्था का विध्वंस कर दिया। लगभग एक हजार वर्ष तक भारत में बौद्ध और द्विजों के बीच परस्पर घोर संघर्ष होता रहा। इसी संघर्ष के फलस्वरूप ईसाई और मुसलमान इस देश में आ घुसे। बस-इस पिशाचिनी वर्ण व्यवस्था के ही कारण दक्षिण में, विशेषतः मद्रास में लाखों हिन्दुओं ने जो वर्ण व्यवस्था के अनुसार शूद्र और अछूत समझे जाते थे इन अभिमानी ब्राह्मणों के अत्याचारों से अत्यन्त दुःखित होकर ईसाई धर्म की शरण ग्रहण कर ली। फलतः आज मद्रास की ओर गाँव-गाँव में ईसाई मिलते हैं। इसी प्रकार लाखों शूद्रों और अछूतों ने इन अनाचारी द्विजों के अनाचार से हार कर मुहम्मदी मत को स्वीकार कर लिया। आज वे ही लाखों हमारे पीड़ित मुसलमान भाई करोड़ों की संख्या में भारत भूमि में दनदना रहे हैं और प्रतिदिन अछूतों और शूद्रों को हजम कर रहे हैं। आश्चर्य तो यह है कि सौ में साठ ब्राह्मणों की स्त्रियाँ मुसलमानों के चक्कर में फँस जाती है-परन्तु हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था के मारे हम लोग हाथ पर हाथ धरे मन मसोस-मसोस कर चुपचाप बैठे हैं। हमारा सारा घर आतिशबाजी की दुकान की तरह जल रहा है लेकिन इस विनाशकारी वर्ण व्यवस्था के मारे कोई चारा नहीं है।
उधर मुसलमानों में कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है। इसलिए वे लोग हिन्दुओं को भेड़ बकरी की तरह अपने अन्दर समेटे चले जाते हैं। अपरंच-इसी विध्वंसकारी वर्ण व्यवस्था के कारण महमूद गजनवी, मतुहम्मद गोरी, आदि आक्रमणकारी मुसलमानों ने भारत पर हमला करने का साहस किया। एक बार नहीं, अनेक बार सोने की चिड़िया को लूटा, खसोटा और बरबाद किया और यहाँ तक कि पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ दिया। देखिए-यदि भारत में वर्ण व्यवस्था का रोग न होता तो सन् 877 ई. में राजा जयपाल को सुगुप्तगीन के साथ लज्जास्पद संधि करने के लिए लाचार न होता पड़ता। यदि भारत में वर्ण व्यवस्था का यक्ष्मा न होता तो महमूद गजनवी के आक्रमण के समय ब्राह्मण पूजारियों (पूजा + अरि) के बहकाये में आकर क्षत्रिय लोग युद्ध के हाथ न खींच लेते। यहाँ तक कि थानेसर आदि स्थानों में मुहम्मद गोरी के विरुद्ध ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रों ने क्षत्रियों का साथ देने से इनकार कर दिया-अन्त में जयचन्द और पृथ्वीराज की फूट ने भारत को गोरियों से परास्त कराया। प्रारम्भ से लेकर आज तक इसी प्रकार भारतवर्ष वर्ण व्यवस्था के कारण छिन्न-भिन्न रहा है। देखिए-प्रचलित वर्ण व्यवस्था से समानता नष्ट होती है, समानता बिना एकता नहीं हो सकती और अनैक्य ही राष्ट्र की समस्त विपदाओं का मूल कारण है। भारत का यह तो सौभाग्य था कि मुसलमान शासकगण लड़ भिड़ कर फिर इसी देश के होकर यहाँ ही बस गए जिस से धन धान्य का प्रवाह बाहर नहीं हुआ। इसीलिए मुसलमानी शासन में बेकारी और बेगारी अधिक नहीं फैली। खाने-पीने के लिए किसी प्रकार का कष्ट नहीं झेलना पड़ा। देखिए-अलाउद्दीन बादशाह के समय में भी साढ़े सात पैसे का एक मन गेहूँ और पाँच पैसे का एक मन चना, चार पैसे का एक मन जौ, पाँच पैसे का एक मन चावल और उड़द बिकता था। उस समय चौदह सेर का एक मन होता था। आज तो हम लोगों को रोटियों के लाल पड़ रहे हैं। प्रतिदिन लाखों दुधारू गऊ आदि पशुओं का बध हो रहा है। चाण्डाल से ब्राह्मण तक सभी घी में चर्बी उड़ा रहे हैं, तो भी वर्ण व्यवस्था का मनमोहन मद्य हम लोगों ने पीना नहीं बन्द किया?