मनुस्मृति की मोह माया
Every word of the printed works passing muster as 'Shastras' is not in my opinion, a revelation.
- महात्मा गाँधी
प्रचलित वर्ण-व्यवस्था का मूलाधार मनुस्मृति है। मनुस्मृति की रचना बहुत अर्वाचीन है, यह सभी ऐतिहासिकों का मत है। मनुस्मृति मनु की बनाई हुई है-ऐसा मानना भी एक बड़ी भारी भूल है। मनु के नाम से किसी दूसरे ने ही इस भयंकर पुस्तक की रचना कर दी है। तभी आज कल सभी मनुस्मृतियों में यह श्लोक पाया जाता है-
इत्येतत् मानवं शास्त्रं भृगुप्रोक्तं सनातनम्
अर्थात् यह भृगुऋषि की कही हुई है। भारत में तो यह प्रवृत्ति चिरकाल से चली आई है कि जिस किसी भी पुरुष या पदार्थ का नाम प्रसिद्ध हो गया-सब लोग उसी की पूँछ में अपना पल्ला बाँध देते हैं। जैसे-रामायण प्रसिद्ध हुई तो तुलसी रामायण, अध्यात्म-रामायण बन गयीं। गीता प्रसिद्ध हुई तो पाण्डवगीता, गाँधीगीता बन गई। और तो और-पालक्षत्रियों के सिरमौर कविकुल गुरु कालिदास हुवे तो उनके नाम से ही अनेक काव्य बन गए। आजकल अछूतों की पूछ ज़्यादा होने लगी तो कहार भी अछूत, मल्लाह भी अछूत और नाई भी अछूत बनने लगे। हरिजन नाम प्रसिद्ध हुआ तो सभी हरिजन बनने लगे। जैसे नागपुर के संतरे मशहूर हुए तो सर्वत्र नागपुरी संतरे बिकने लगे। उसी प्रकार लखनऊ को रेवड़ी, हापुड़ के पापड़, कानपुर के जूते और बनारस का लँगड़ा (आम) कृत्रिम रूप से बिकता है। आगरे का पेठा और मथुरा का पेड़ा भी नकली बिकता है। इसी प्रकार ‘मनु’ एक बड़े प्रसिद्ध मुनि हो चुके थे। स्वार्थी लोगों ने उनके नाम पर ही ‘मनुस्मृति का षड्यन्त्र’ रच दिया। आश्चर्य तो यह है कि स्वामी दयानन्द जी भी मनुस्मृति के षड्यन्त्र से बच न सके। स्वामी जी तो यहाँ तक लिख गये कि मनुस्मृति सृष्टि की आदि में बनी है। देखिए-सत्यार्थ प्रकाश 11 समु. के प्रथम पृष्ठ पर लिखा कि-
यह मनुस्मृति जो सृष्टि की आदि में हुई है
शायद इसीलिए स्वामी जी कृत ग्रन्थों में आधे से अधिक प्रमाण मनुस्मृति के हैं। वैसे तो स्वामी जी परम वेदज्ञ और वेद भक्त थे-परन्तु सत्यार्थ प्रकाश आदि बनाते समय मनुस्मृति को ही मुख्य मान बैठे। सत्यार्थ प्रकाश की रचना भी मनुस्मृति की क्रम शैली पर है। जिस क्रम से मनुस्मृति ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि आश्रमों, राजधर्मी और वेद आदि विषयों का प्रतिपादन है-ठीक उसी क्रम से सत्यार्थ प्रकाश के समुल्लास सम्पादित हुए हैं। देखिए! शूद्रों को पूर्ण रूप से पददलित कराने वाले मनुस्मृति के 10वें अध्याय का निचोड़ सत्यार्थ प्रकाश के 10 समुल्लास में विद्यमान है।
स्वामी दयानन्द जैसे आदर्श सुधारक लिखते हैं कि-
शूद्र लोग आर्यों के घर में जब रसोई बनावें तब मुख बाँध के बनावें क्योंकि उनके मुख से उच्छिष्ट और निकला हुवा श्वास भी अन्न में न पड़े।
कहिए, कैसा मिलान मिला है। भला हो आर्यसमाजियों का-जो आज तक किसी ने भी इस पाखण्डपूर्ण पाबन्दी का पालन नहीं किया। हम तो इस क्रान्ति के लिए आर्य समाजियों को दिल खोल कर साधुवाद (शाबास) देते हैं-जो स्वामी दयानन्द के इस भ्रमोत्पादक लेख को हवा में उड़ा दिया। यही तो बुद्धिमानी है कि चाहे कितना महान् महर्षि भी यदि बुद्धि के विपरीत और सभ्यता के विरुद्ध बात कहे या लिखे तो उस को हर्ग़िज, हर्ग़िज-नहीं मानना। यदि आर्यसमाज इसी प्रकार चल निकले तो शीघ्र ही मनुस्मृति के आधार पर प्रतिपादित नियोग, वर्ण व्यवस्था ओर संस्कार विधि के प्रपंचों से शीघ्र छुटकारा पा जावे। मनुस्मृति के 10वें अध्याय में कितना भारी षड्यन्त्र है उसका नमूना इस एक श्लोक में और पढ़ लीजिए।
यो लोभात् अधमो जात्या जीवेत् उत्कृष्ट कर्मभिः।
तें राजा निर्धनं कृत्वा क्षिप्रमेव विवासयेत्॥10/96॥
अर्थात् जो शूद्र, अछूत या शिल्पी जीविका के लोभ से अच्छे कर्मों द्वारा अपने जीवन को बिताने लगे तो राजा इन सबका धन छीन ले और तुरन्त देश से निकाल देवें। कैसा रौलेट एक्ट बनाया है।
आर्य समाजी लोग तो कह देंगे कि यह प्रक्षिप्त है। अब प्रक्षिप्त के मामले में भी दो बातें विचारणीय हैं। पहिली तो यह कि आर्यसमाजियों की सुनता कौन है, शक्ति ही कितनी इनकी है, फिर इनका प्रभाव भी तो पोपपने से नष्ट हो चुका है! हिन्दू लोग तो मनुस्मृति के एक श्लोक को भी प्रक्षिप्त नहीं मानते। आज सारे देश में सारी मनुस्मृति के अविकल अनुवाद बिक रहे हैं। कौन इनको बन्द करा सकता है सबही प्रामाणिक हैं। कुल्लूक भट्टकृत अनुवाद को तो हमारी सरकार भी प्रमाण मानती है। सरकारी कानूनों में आर्य समाजियों को कोई नहीं पूछता। आज तक गुण कर्मानुसार विवाह करने वालों को कानूनन जायदाद में कोई हक़ नहीं, बच्चों को भी कोई हक़ नहीं; नियोग करने वालों को हिन्दू कानून के अनुसार सज़ा हो सकती है। फिर आर्य समाजी लोग स्वयं भी मनुस्मृति की माया में फँसे ही हैं। कहने को ये लोग जन्म से वर्ण व्यवस्था नहीं मानते, लेकिन रोटी बनाने वाले ब्राह्मण को महाराज, पण्डित और शर्मा जी ही पुकारते हैं। न पुकारने की हिम्मत ही कहाँ है। मनुस्मृति की मोहमयी माया ने तो मोह लिया है। देखिए-आर्य समाजियों के रजिस्टरों को, प्रायः सर्वत्र जन्म मूलक वर्ण व्यवस्था के आधार पर नामों से पूर्व पण्डित, ठाकुर, लाला और महाशय मिलेगा। चाहे पण्डित लिखा जाने वाला कपड़े की दुकान करता हो या सट्टबाजी और चाहे गवर्नमेण्ट की गुलामी। लेकिन हैं शुक्ल, शर्मा और वाजपेयी। इसी प्रकार एक कालेज का त्यागी विद्वान् प्रोफ़ेसर पण्डित नहीं, कहलाएगा वही लाला, गुप्ता या सेठ; क्योंकि आर्य समाज कोरा सिद्धान्तवादी फ़िर्का है। बेचारे शूद्र कुलोत्पन्न महाशयों की तो सर्वत्र शामत ही है। चाहे शास्त्री हो जाएँ और चाहे एम.ए., रहेंगे वही ‘पद्भ्यां शूद्रो-अजायत’। कहिए कैसा मजाक गुण कर्म की वर्ण व्यवस्था का इन लोग ने किया हुवा है। करें भी क्या जब मनुस्मृति का माया जाल और पुरोहितों का पाखंड सर्वत्र प्रसारित है। प्रचलित वैदिक सन्ध्या तक तो बेचारी इनके षड्यन्त्र से बचने नहीं पाई। अच्छा पढ़िए-
‘‘ओं वाक् वाक्। ओं प्राणः प्राणः। ओं चक्षुः चक्षुः। ओं श्रोत्रं-श्रोत्रम्। ओं नाभिः। ओं हृदयम्। ओं कण्ठः। ओं शिरः। ओं बाहुभ्यां यशोबलम्। ओं करतल कर पृष्ठे॥
कहिए! कहीं आया पाँव का जिक्र। न चाहिए पाँव को यश और न बल। सब चाहिए शिर, हाथ, हृदय और नाभि को। क्यों जी! यह क्या हुआ? वही मनृस्मृति के निर्माण करने वाले ब्राह्मणों का षड्यन्त्र। शिर का नाम अलग गिनाया और साथ में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों यथा आँख, नाक, आदि को भी याद कर लिया। बेचारे शूद्रों के प्रतिनिधि पैर रह गए। हमारी सम्मति में तो इस सिलसिले में यह एक वाक्य बढ़ाया जाना चाहिए; क्योंकि शूद्रों को उन्नत करने की भावना प्रतिदिन जगानी चाहिए। ‘‘ओं पद्भ्यां च तपो बलम्’’ अर्थात् मेरे पैरों में तप का बल होवै। तभी कल्याण है। तभी सामाजिक संगठन समता के आधार पर सुदृढ़ हो सकता है।
वेद में भी जब आया है कि ‘तपसे शूद्रम्’ और ‘पद्भ्यां शूद्रो अजायत’ तो इस वाक्य के बढ़ाने में ननु नच क्यों होना चाहिए परन्तु वैदिक संध्या के ठेकेदार हमारी बात कब मानने लगे हैं; क्योंकि स्वामी दयानन्द तो निभ्रान्त थे न? हाँ! कई लोग यह कह बैठते हैं कि मार्जन मन्त्रों में ‘तपः पुनातु पादयोः’ तो आ गया है। परन्तु ध्यान रहे वहाँ दूसरा ही सिलसिला है। यश और बल के बँटवारे में पाँवों को भुला देना स्वाभाविक था; क्योंकि मनुस्मृति आदि तो शूद्रों को सब प्रकार से पद दलित करना चाहती ही थीं। एवं ‘पुनातु’ का अर्थ है पवित्र करे-सो पैरों को पवित्र करने की तो विशेष आवश्यकता है ही; क्योंकि पाँव के प्रतिनिधि शूद्र सर्वत्र अपवित्र और अयोग्य माने गए हैं। मनृस्मृति की दृष्टि में तो शूद्र से गन्दी कोई चीज ही नहीं है। मनुस्मृति में ‘शूद्रवत् बहिष्कार्यः’ अर्थात् शूद्र की तरह बाहर निकालने योग्य (बायकाट) करने योग्य-ऐसा बहुतायत से आता है। जब शूद्र को बायकाट के योग्य समझा गया है-तब फिर उसको सब संस्कारों में से निकाल देने में क्या आश्चर्य है? शूद्र के लिए मुण्डन नहीं, शूद्र के लिए जनेऊ नहीं, शूद्र के लिए अन्नप्राशन नहीं। यहाँ तक कि शूद्र के लिए ‘दण्ड धारण’ का भी विधान नहीं-चाहे कुत्ता काट खावे और साँप डँस जावे। हाँ! एक संस्कार में मनुस्मृति ने शूद्रों को अवश्य सम्मिलित किया है ओर वह है नामकरण। मनुस्मृति के षड्यन्त्रकारी द्विजों को भयङ्कर विभीषिका हुई कि कहीं शूद्र लोग अपने नाम हमारे जैसे सुन्दर और सुबोध न रख लेवैं। शर्मा वर्मा अपने लिए और शूद्र को दास (गुलाम) बनाया। मनुस्मृति में शूद्रों के नामों के लिए लिखा है कि-‘शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्’ और ‘शूद्रस्य प्रेष्य संयुतम्’ अर्थात् शूद्र का नाम निन्दा से भरा हुआ, घिनौना और दास वाला रखे। जैसे पलटूदास (जो अपने वायदों से पलट जावे) घसीटूदास (जो घसीटने के योग्य हो) और रणछोड़दास (जो दुम दबा कर भाग जावे)। ठीक है, नाम रखने वाले ब्राह्मण-जैसा चाहा कानून बनाया और जैसा चाहा नाम रख दिया। इसीलिए आज हमारे देश में अछूतों के नाम साँवलदास, गुलामदास और मथुरादास हैं। ब्राह्मण बने हैं मथुराप्रसाद शर्मा और शूद्र बने हैं मथुरा-दास वर्मा। कैसी सनातन जोड़ी मिली है। बने बनाए जन्म भर के लिए गुलाम मिल गये। आज कल अछूतों, कायस्थों और भंगिओं ने भी वर्मा लिखना शुरू किया है। न जाने कौन से महाद्वीप की रक्षा करने में ये लोग लगे हैं। बेचारा भारत तो गुलाम है। इन द्विजों ने शूद्रों के नाम बिगाड़े तो आज स्वयं निन्दित नाम वाले हो गये और अपने देश का नाम भी डुबो बैठे। कहाँ तो ये थे आर्य्यावर्त्त के आर्य्य और अब हो गए इण्डिया के हिन्दू। देखिए ऊँट के गले में कैसी बकरी बँधी। इधर इण्डिया हो गया और हिन्दू। जैसा अब तक किया वैसा फल पा लिया। अब आगे क्या होगा यह भगवान् जाने। यदि इसी प्रकार मनुस्मृति की मनमानी चलता रही तो न रहेंगे हिन्दू और न रहेगा हिन्दुस्तान। यहाँ तो अरब की मोहम्मद और ऑक्सफोर्ड के मैकन्जी साहब तशरीफ़ लाएँगे।
और सुनिए-आर्य्यसमाजी लोग मनुस्मृति में प्रक्षेप मानते हैं। ठीक है-इनसे पूछिए आप भागवत को क्यों नहीं मानते, आप गीता को क्यों नहीं मानते और आप रामायण को क्यों नहीं मानते तो झट कह देंगे कि सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि-
‘असत्य मिश्रितं सत्यं दूरतःत्याज्यम्’। अर्थात् झूठ से से मिले सच को दूर से ही प्रणाम करना चाहिए। और-‘विषसम्पृक्तं अन्नं त्याज्यम्’ अर्थात् विष मिले हुए बढ़िया भोजन को भी फेंक देना चाहिए। इसी कसौटी पर आप ‘मनुस्मृति’ को कसिए। बस-यहाँ गाड़ी अटक जाएगी। यहाँ ये लोग ‘वेदानुकूल’ का झगड़ा खड़ा कर देंगे। देखिए! पहिले तो वेदों का ही पता किसी को नहीं, सम्पूर्ण वेदों के प्रामाणिक भाष्य भी अभी तक नहीं मिलते, फिर अर्थों का निर्णय नहीं हुवा और निर्णय करने वाले भी अभी कोई नहीं भये। तब ‘वेदों के अनुकूल या प्रतिकूल’ कह देना क्या कोई खेल है
फिर बहुत सी बातें मनुस्मृति की बिलकुल मन घड़न्त हैं। जिन बातों का वेदों में नामोनिशान नहीं उनका फैसला कैसे होगा? सुनिए-वर्णसंकर का झगड़ा वेदों में नहीं हैं, आठ प्रकार के विवाह वेदों में नहीं हैं, अनुलोम प्रतिलोम का प्रपञ्च वेदों में नहीं और इसी प्रकार शर्मा वर्मा का गोरख-धन्धा वेदों में कतई नहीं है। सच्च पूछिए तो इन ऊपर की बातों के लिए ही तो मनुस्मृति बनी थी। प्रचलित वर्ण व्यवस्था का जाल बिछाने के लिए ही मनुस्मृति ‘अथ से इति’ तक घड़ी हुई है। तभी तो पहिले अध्याय के प्रथम श्लोक में ही लिख दिया है-
भगवन्! सर्व वर्णानां यथावद् अनुपूर्वशः।
अन्तर प्रभवाणां च धर्मान्ने वक्तु मर्हति॥
अर्थात् हे ऋषिवर! सब वर्णों और अनुलोम प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न वर्ण संकरों के धर्मों को क्रमशः कहिए। बस-शुरू हुई वर्ण व्यवस्था। सारी मनुस्मृति में ब्राह्मणों का आधिपत्य सिद्ध किया गया है। सर्वत्र ब्राह्मण मुनाफ़े में हैं और शूद्र घाटे में। शायद संसार की किसी भी कानूनी किताब में इतना अन्याय नहीं भरा है जितना मनुस्मृति में है। सुनिए-
शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यों धन संचयः।
शूद्रो हि धनमासाद्य ब्राह्मणानेव वाधते॥10/109
अर्थात् शूद्र यदि धन कमा भी सके तो न कमाने पावे; क्योंकि शूद्र धन पाकर ब्राह्मणों को ही सतावेगा। हाँ! अपने समाचार-पत्र निकाल लेगा, अपने पक्ष की किताबें लिख लेगा और धन के कारण समाज में प्रधान बन बैठेगा!!! ठीक है। मनुस्मृति ने तो धृति, क्षमा आदि दश लक्षणों से भी शूद्र को वंचित कर दिया है। लिखा है-‘द्विजैः दश लक्षणको धर्मः सेवितव्यः।’ बेचारा शूद्र सच भी न बोले, ब्रह्मचर्य भी न पाले-यों ही नष्ट हो जावे। ठीक है भाई मनुस्मृति में लिखा था ही कि-
उत्पत्तिरेव विप्रस्य मूर्त्ति र्धर्मस्य शाश्वती।
सहि धर्मार्थ मुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
अर्थात् ब्राह्मण पैदा होते ही (जन्म से है, गुण कर्म से नहीं) धर्म की मूर्ति होता है। तभी तो नए-नए तरीकों से जन्म के जादू को जमाया जा रहा है। देखिए-आर्य समाजियों के सुप्रसिद्ध सामवेद भाष्यकार और मनुस्मृति टीकाकार श्री तुलसीराम स्वामी के यहाँ प्रकाशित ‘विष्णुस्मृति’ का हम आपको दिग्दर्शन कराते हैं। यह पुस्तक हमने एक प्रसिद्ध आर्यसमाज के भवन के अन्दर एक आर्य-पुस्तक विक्रेता से ख़रीदी थी। इस स्मृति में जहाँ-जहाँ इन कल्पित स्वामी जी को पसन्द नहीं था कुछ-कुछ लिख भी दिया है। जहाँ इनको खूब पसन्द आया है वह हम लिखते हैं-‘ऋतौ ऋतौ तु संयोगाद् ब्राह्मणो जायते स्वयम्’। इसका अर्थ किया गया है कि ब्राह्मण प्रत्येक ऋतु पर स्वयं (पुत्र रूप से) उत्पन्न होता है। यह है आर्य समाज के उन पोप पण्डितों की दशा जो मनुस्मृति में से प्रक्षेप निकालने चले थे और अभी पुत्र रूप से ही ब्राह्मण मानते हैं। इनकी मनुस्मृति में प्रक्षेप लीला भी बड़ी विचित्र है। सैकड़ों श्लोकों को इन्होंने खूब फिट किया है और शूद्रों की शामत ली है। क्यों न हो-जब आप स्वामी (मालिक) हैं। यह स्वामी भी आप जन्म के हैं। बिना संन्यास लिए ही स्वामी कहलाए। इन्होंने मनुस्मृति को रक्षार्थ भागीरथ प्रयास किया है परन्तु मनुस्मृति का प्रक्षेप निकल नहीं सका।
भाई! प्याज का छिलका उतारते-उतारते रहेगा ही क्या। मनुस्मृति का तो आधार ही जन्म मूलक है। शूद्रों को दलना और ब्राह्मणों को दिलाना ही जिस पोथी का परम और चरम उद्देश्य हो-उसमें काट छाँट करना व्यर्थ है। ब्राह्मण का सब से विशिष्ट लक्षण दान लेना है। बाकी काम तो क्षत्रिय और वैश्य भी करते हैं। तिस पर तारीफ़ यह कि हाथ पसार कर भी सब बड़े ब्राह्मण ही रहे। तभी तो कहा है-‘‘वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः’’ और मनुस्मृति ने शिल्पी नीच बता दिए तभी शिल्पी शूद्र हो गए और इसीलिए भारत से शिल्प उड़ गया। देखिए! कुछ नमूने मनुस्मृति के-
(1) ब्राह्मणों की आज्ञा न मानने से, शिल्प व्यवसाय करने से, शूद्र सन्तान से खेती तथा राजा की नौकरी से कुल पतित होते हैं।3/63॥
(2) लोहार, निषाद, तमाशबीन, सुनार, बाँस का काम करने वाले, शस्त्र बेचने वाले, कलाल, धोबी, रँगरेज, और कुह्मार पतित हैं। द्विज इनके यहाँ भोजन न करे।4/215।
(3) बढ़ई का अन्न सन्तति का नाश करता है। सुनार का आयु को। वैद्य का अन्न पीप के समान और सूद लेने वाले का अन्न विष्ठा के समान है।4/218/219॥
कहिए! किस खूबी से यजुर्वेद अ. 30 में बताए सभी पेशों को मनुस्मृतिकार ने ख़त्म कर दिया। जिस खेती के लिए ऋग्वेद की आज्ञा है कि-‘‘अक्षैः मा दीव्य कृषिमित् कृषस्व’’ अर्थात् हे मनुष्य! जुआ मत खेल और खेती ही कर-उसके लिए मनुस्मृति के शूद्र विध्वंसकारी। 10 वें अध्याय में लिखा है कि-‘‘कोई कहते हैं कि खेती अच्छी है किन्तु वह वृत्ति साधुओं से निन्दित है।’ इसीलिए इस कृषि प्रधान देश के कृषिकार भी ‘शूद्र’ बनाए गए। वैसे वैश्यों के लक्षण में ‘वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च’ दिया है-तो भी कृषि को नीच बता दिया। फिर शूद्र का लक्षण तो बड़ा विचित्र है। क्यों न विचित्र हो। जिस लक्षण के लिए सारी मनुस्मृति का षड्यन्त्र ब्राह्मणों ने द्विजों के साथ मिलकर किया था उसी शूद्र के लिए लिखा है-
एकं एव तू शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषा मनसूयपा॥
अर्थात् शूद्र के लिए (एकं एव) एक ही काम प्रभु की तरफ़ से सौगात की तरह मिला है कि इन सब वर्णों की सेवा करता रहे। देखिए-प्रभु ने तो वेद द्वारा ‘तपसे शूद्रम्’ की आज्ञा दी अर्थात् शूद्र तपस्या के लिए है-परन्तु स्वार्थी लोगों ने शूद्रों को पैर से पैदा करके अपने ही पैर दबवाए। वेदों के अनुसार जो वर्ग-व्यवस्था (कर्म विभाग) है-उसमें ब्राह्मण आदि के क्या लक्षण हैं यह हम विस्तृत रूप से अपनी ‘वैदिक वर्गव्यवस्था’ पुस्तक में लिखेंगे। अभी इतना ही लिख कर समाप्त करते हैं कि ‘अध्यापनमध्यननं’ आदि ब्राह्मणों के जो लक्षण हैं ये सब मनमाने हैं। एक प्रोफ़ेसर वेतन के लिए ही पढ़ाता हुआ वैश्य है और एक साबुन का दुकानदार ब्राह्मण हो सकता है। यह तो सत्व, रज, तम के उत्कर्ष और अपकर्ष के साथ सम्बन्ध रखता है। आजकल मनुस्मृति के इन वेद विरोधी लक्षणों द्वारा घोर अनर्थ हो रहा है। इसमें तो आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। बहुत से लोग इस व्यथा में पड़े हैं कि यदि वर्ण व्यवस्था उड़ गई तो ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का नाम भी न रहेगा और उनके प्रकाशक शर्मा वर्मा भी समूल नष्ट हो जाएँगे। उनको हम बतला देना चाहते हैं कि जब समय आएगा तब स्वयं वेदोक्त वर्गव्यवस्था (कर्म विभाग) कायम हो जाएगी एवं गुण कर्म के प्रकाशक ‘ज्ञानी, मानी, दानी और तापस’ यह चारों वेदोक्त शब्द स्वयं प्रचलित हो जाएँगे। हमें तो अभी तक क्रान्ति का आवाहन करना पड़ेगा। चारों तरफ़ क्रान्ति का बिगुल बजाना पड़ेगा, क्योंकि बिना उथल-पुथल किए अछूतों और शूद्रों का कल्याण असम्भव है। चिरकाल से ये लोग सताए जा रहे हैं। फलतः धर्म, कर्म, राजनीति, आचार, एकता, विद्या, कलाकौशल सब नष्ट भ्रष्ट हो गया है। अब सारे देश में आलस्य, कूट, स्वार्थपरता, जन्माभिमान, कायरता और अनुदारता का दौर दौरा हो गया है। यह अत्याचार और अन्याय अब घोर क्रान्ति के बिना नहीं मिट सकता। संसार कहाँ पहुँच गया लेकिन हमारे देश में अभी अछूतों को कुँवे पर न चढ़ने देने के लिए शास्त्रार्थ हो रहे हैं। क्या ऐसे लकीरपंथी और कल्पित शास्त्रों की दुहाई देने वाले हिन्दू या आर्य कभी उन्नति कर सकते हैं?
सुनिए-यह वर्ण व्यवस्था नहीं है, यह तो मरण व्यवस्था है। हिन्दू जाति में घुसा हुआ तपेदिक है। मानसिक गुलामी की जंजीर। इसलिए इस जंजीर के टुकड़े-टुकड़े करके वर्ण व्यवस्था का भंडा फोड़ना होगा। यह काम अब बूढ़ों से नहीं होगा। वे तो किसी न किसी कल्पित धम के बाड़े में बन्द हो चुके हैं। यह क्रान्ति का शंख तो देश के नौनिहाल नवयुवक ही फूँकेंगे। नवयुवक ही देश को रसातल में जाने से बचावेंगे। नवयुवक ही देश को मुल्ला पण्डितों के पाखण्ड से छुड़ावेंगे। सर्वत्र क्रान्ति हो! क्रान्ति की विजय हो!! और क्रान्ति अमर हो!!! इसीलिए हम कहा करते हैं-
उठो नौजवानो! बदल दो जमाना।
करो बन्द जुलमों को तुम आजमाना॥
जमीं को बदल दो जमा को बदल दो।
बदल दो सभी ढोंग अब ये पुराना॥
मकीं को बदल दो मकां को बदल दो।
बदल दो छुआछूत का कुल बहाना॥
दुआएँ बदल दो सदायें बदल दो।
बदल दो जनम जातियों का बताना॥
नवयुवको!
हमारी आशा को पूर्ण करो। मनुस्मृति आदि शास्त्रों की दुहाई देने वालों के जाल में मत फँसो। इन शास्त्रों ने तो वेदों का महत्त्व कम कर दिया है। इसलिए पूरे जोश के साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दो और सामाजिक बहिष्कार का स्वागत करते हुए इस वर्ण व्यवस्था को एकदम मिटा दो। देखिए-
किस काम की नदी वो जिसमें नहीं रवानी।
जब जोश ही नहीं तो किस काम की जवानी॥
इसलिए-
कोई समर न रह जाए जहाँ में।
मिला दो इस जमी को आस्माँ में॥
महात्मा गाँधी ने भी लिखा है कि-The most effective, quickest and the most unobtrusive way to destroy Caste is for reformer to begin the practice with themselves and where necessary take the consequences of social boycott.
ओम। क्रान्तिः। क्रान्तिः। क्रान्तिः॥