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निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


वर्ण व्यवस्था और महात्मा बुद्ध

महाभारत काल में भारतीयों के जीवन कपट पूर्ण और भेद भावना से भरे हुए पाए जाते हैं। वह अनुपम सभ्यता जो रामायण काल में आदर्श रूप थी महाभारत काल में क्षीणता को प्राप्त हो चुकी थी। रामायण काल में दो सौतेले भाई परस्पर इस बात के लिए विवाद कर रहे थे कि यह समस्त राज्य और राज्यसिंहासन मेरा नहीं, आपका है; किन्तु इसके विपरीत महाभारत काल में सौतेले भाई इस बात पर कलह करने के लिए सन्नद्ध हुए कि सूच्यग्रं नैव दास्यामि विनां युद्धेन केशव! अर्थात् तुम लोग पाँच गाँव क्या माँगते हो मैं तो सुई की नोक के बराबर भी भूमि भाग बिना युद्ध के नहीं दूँगा। इससे पता चलता है कि महाभारत काल में प्राचीन आर्य सभ्यता का आदर्श बहुत गिर गया था और प्रचलित वर्ण व्यवस्था का विकृत स्वरूप उन्नत हो चुका था।

आर्य सभ्यता के इस अधःपतन का पुनरुत्थान और अभ्युदय हम फिर बौद्ध काल में देखते हैं। भगवान् गौतम बुद्ध की आदर्श शिक्षाओं ने एक बार फिर भारत का मुख उज्ज्वल कर दिया। प्रचलित वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करके चाण्डाल से लेकर ब्राह्मण तक सभी समान भाव से उच्च जीवन का आनन्द लेने लगे। शिक्षा का द्वार किसी भेदभाव और रुकावट के बिना सब के लिए समान रूप में खुल गया। ऊँचनीच और छुआछूत का प्रपंच मिट गया। साथ ही आयुर्वेद की भी खूब उन्नति हुई। शव को चीरने फाड़ने में अस्पृश्यता का भाव न रहने से शस्त्र-चिकित्सा (Surgery) खूब विकसित हुई। वर्तमान सर्जरी की अपेक्षा भी उस समय विशेष उन्नति थी। इसी प्रकार समुद्र यात्रा में छुआछूत का झगड़ा नहीं रहा। फलतः भारत का व्यापार जापान की तरह सुदूर देशों में फैल गया था। इजिप्ट, जावा, सुमात्रा, एलेकजन्ड्रिया, चीन, जापान, और जर्मनी आदि देशों में भारतीय लोग अधिक संख्या में आते जाते थे-जिससे देश में धन की इतनी वृद्धि हुई कि तत्कालीन राजा लोग सुवर्ण की वर्षा करते थे। उन्हीं दिनों संसार को एक करने और विश्वबंधुत्व का सच्चा आर्य साम्राज्य स्थापित करने में सम्राट् अशोक ने जो प्रयत्न किया उसके लिए पाश्चात्य विद्वानों व इतिहास लेखकों का मानवीय मत इस प्रकार है-

‘‘संसार में अशोक पहिला सम्राट है जिसने सत्य उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर मनुष्य जाति को शिक्षित किया। उसने बड़ी भारी सेना और बड़ी भारी शक्ति होते हुए भी सैनिक और राजनैतिक विजय नहीं की। उसने अपने शौर्य, पराक्रम और वीरता को दिखलाने के लिए किसी राष्ट्र पर आक्रमण नहीं किया। किसी देश को तहस नहस करने के लिए, किसी राष्ट्र को गुलाम बनाने के लिए, सुन्दर नगरों को भूमिसात् करने के लिए आहतों, पीड़ितों और निस्सहायों के अभिशाप से भरी भूमि को अधिक बोझल नहीं किया। उसने स्त्री और शूद्रों की शिक्षा के लिए भरसक प्रयत्न किया। उसने धर्म विजय की, धर्म भिक्षुओं द्वारा अतृप्त और सन्तप्त संसार को प्रेम और धर्म का अमृत पान कराया।’’

सम्राट् अशोक के शिलालेखों व परहित चिन्ता के असीम प्रेम को देखकर पाश्चात्य विद्वान मिस्टर वेल्स लिखते हैं-

‘‘संसार के इतिहास के पन्नों में जहाँ अगणित राजाओं के नाम भरे पड़े हैं-वहाँ सम्राट अशोक का नाम ही अकेला इस बृहत् आलोक में सूर्य के समान चमकता हुआ दिखलाई देता है। पृथ्वी के एक किनारे से दूसरे किनारे तक अब भी अशोक का सम्मान है। यद्यपि चीन तिब्बत और भारत आदि देशों ने उसकी अमूल्य और अलभ्य शिक्षाओं को भुला दिया तथापि अशोक के महत्त्वशाली कार्यों का आदर दूर नहीं हुआ है।’’

पाठक गण! आपने बौद्धकाल की चहुँमुखी उन्नति का वर्णन पढ़ा। क्या आपने सोचा और समझा कि यह उन्नति पराकाष्ठा तक कैसे पहुँच पाई। इसका एकमात्र हेतु वर्ण व्यवस्था का विध्वंस है। भगवान् गौतम बुद्ध ही आज तक एक आदर्श सुधारक हुए हैं। जिन्होंने संसार की और विशेषतः भारत की उन्नति और संगठन का मूल कारण समझा यदि वे वर्ण व्यवस्था का विध्वंस न करते तो समस्त संसार में तो क्या-भारत में भी बौद्धधर्म प्रचलित न होता। यह सौभाग्य भगवान् गौतम बुद्ध ही को प्राप्त है कि आज तक जब से सृष्टि का इतिहास मिलता है-सबसे अधिक अनुयायी महात्मा गौतम बुद्ध के ही हुवे हैं। सचमुच आधी दुनियाँ महात्मा बुद्ध का शिष्य हो गई थी। यह क्यों बस-इसलिए कि भगवान् गौतम बुद्ध ने उन आदर्श वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार किया जिनकी आवश्यकता सृष्टि के नर नारियों को थी। बाकी सारे सुधारक द्वैतवाद, अद्वैतवाद और पोपवाद के प्रपंच में फँसे रहे। कोई मूर्ति पूजा में फँस गया। कोई वर्ण-व्यवस्था में फँस गया-और कोई वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति के पीछे पड़ कर हिंसा का पोषक हो गया। अकेले महात्मा बुद्ध इन सबसे भी पिंड छुड़ाकर संसार में सार्वजनिक, सार्वकालिक और सार्वदेशिक वैदिक-धर्म का प्रचार कर सके। सचमुच गौतम बुद्ध का त्याग संसार में सर्वोपरि है। उसके त्याग को न शंकराचार्य पा सके न स्वामी दयानन्द और न आज तक महात्मा गाँधी पा सके हैं। सचमुच समस्त संसार के सच्चे धार्मिक नेता महात्मा गौतम बुद्ध हैं। कोई माने या न माने, समय आ रहा है जब एक बार फिर भारत में, नहीं नहीं-समस्त संसार में वेदानुकूल पवित्र बौद्ध धर्म की पुनः प्रतिष्ठा होगी। हाँ! यदि आर्यसमाज वर्ण व्यवस्था, नियोग और संस्कार विधि के प्रपंच से अपना पिंड छुड़ा सके तब तो संसार में यह भी सार्वभौम धर्म बनने के लिए उम्मीदवार हो सकता है। संसार में वेदों का धर्म ही प्रतिष्ठा पा सकता है, मनुस्मृति का नहीं। इसलिए मनुस्मृति की प्रचलित वर्ण व्यवस्था का विध्वंस करके भगवान् गौतम बुद्ध की तरह आर्यसमाज के दूरदर्शी अनुयायिओं को सच्चे वैदिक धर्म का प्रचार करना चाहिए। नहीं तो-नाव मँझधार में डुबकियाँ खा ही रही है!!!


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