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निबंध

वर्ण व्यवस्था का भंडाफोड़ : वर्ण व्यवस्था विध्वंस

ईश्वरदत्त मेधार्थी, देवीदत्त आर्य सिद्धगोपाल


शर्मा वर्मा विवेचन

सचाई छिप नहीं सकती बनावट के उसूलों से,

कि खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज के फूलों से॥

आज कल वर्ण व्यवस्था के ठेकेदारों ने चारों तरफ शर्मा वर्मा की धूम मचा रक्खी है। आधार के लिए वही स्वामी जी का भ्रमोत्पादक लेख पेश कर दिया जाता है। परन्तु यह काम अब पोची दलीलों से पूर्ण नहीं हो सकता है। शर्मा वर्मा की सिद्धि के लिए वेद, इतिहास और पुराणों के प्रमाणों को प्रस्तुत करना पड़ेगा। कहा भी है-‘‘इतिहास पुराणाभ्यां वैदार्थ उपवृंहयेत्’’ इसलिए इतिहास पुराण को सर्व प्रथम लीजिए। महाभारत तक इतिहास और पुराण इस बात की साक्षी नहीं देते हैं कि किसी भी ऋषि मुनि ने या ब्रह्मर्षि राजर्षि ने अपने नाम के साथ वर्ण व्यवस्था का प्रकाश करने के लिए शर्मा वर्मा का प्रयोग किया हो। सृष्टि के आदि में जिन चार ऋषियों पर वेद प्रकट हुए-वे भी कोरे अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा कहलाए। अग्निशर्मा, वायुवर्मा, आदित्यगुप्त और अङ्गिरादास का प्रयोग आज तक सुना या देखा नहीं गया। गौतम कपिल कणाद शर्मा नहीं लिखते थे। राजा अश्वपति, जनक और राम वर्मा नहीं लिखते थे। कहीं रामायण में राम वर्मा या हनुमान वर्मा की चर्चा नहीं। हाँ! महाभारत में कृतवर्मा और महाभाष्य में इन्द्रवर्मा मिलता है सो भी समस्त नामों में वर्मा वर्ण व्यवस्था का द्योतक नहीं अपितु वह नाम ही हो जाता है। आज जैसे श्रीकृष्ण में श्री, रामजीलाल में जी और भगवानदास में भगवान नाम ही हैं। जब इतिहास और पुराण से शर्मा वर्मा पुष्ट नहीं हुवे तो फिर वेदों में इनका पता पाना आकाश के फूलों और बन्ध्या के पुत्रों के समान असम्भव है। चारों वेदों में कहीं ‘शर्मा’ शब्द नहीं आया है। हमने कई बार पोप पण्डितों को चैलेंज दिया कि कोई भी चारों वेदों में शर्मा शब्द दिखलावे। इस पर कई पण्डितम्मन्यों ने बृथा प्रयास भी किया कि वेदों में शर्मा शब्द है, क्यों कि ‘शर्म में यच्छ’ ऐसा अनेक स्थानों पर वेद में आया है। इन बेचारों को पता नहीं कि ‘शर्म’ नपुंसक लिंगी है। हम पुलिंग वाची शर्मा शब्द के लिए चैलेंज देते हैं। तब ‘सुशर्मा’ दिखा दिया। जैसे रोटी माँगी तो डबल रोटी ले आए। फिर बात तो वही रही। यहाँ भी वही भूल करते हैं। सुशर्मा में भी सु-शर्म है। हमारा तो चैलेंज यह है ‘शर्मा’ शब्द पुलिंग वाची स्वतन्त्र रूप से चारों वेदों में कहीं नहीं। जब वेदों में शर्मा शब्द ही नहीं तो वेचारी वर्ण व्यवस्था को इस शब्द से कैसे पुष्टि मिल सकती है इसलिए नामों के साथ शर्मा शब्द स्वतन्त्र रूप से प्रयोग नहीं हो सकता। जैसे-क्षेत्रपाल शर्मा, ठाकुरदत्त शर्मा और देवेन्द्रनाथ शर्मा। हाँ! देवशर्मा, विष्णुशर्मा और भद्रशर्मा नाम ठीक हैं; क्योंकि इन नामों में शर्मा शब्द नहीं हैं ‘शर्म’ है और संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार दीर्घ होकर शर्मा बन गया है। ऐसे ही नामों के लिए महा पण्डित स्वामी दयानन्द जो ने गौणरूप से आज्ञा दी है परन्तु यहाँ तो मनचले स्वार्थी लोग रणछोड़दास शर्मा, शेरसिंह शर्मा (डबल शेर) कूड़ामल वर्मा (डबल कूड़ा) घीसूलाल गुप्ता आदि बने हुए हैं।

एक और बड़े मजे की बात-एक विकट शास्त्री कोरी संस्कृत बोलते हुए मैसूर से सीधे हमारे पास पहुँचे। कहने लगे कि हम वेदों में ‘शर्मा’ शब्द दिखायेंगे। मैंने कहा दिखाइए। बोले ‘शर्मासि मे शर्म यच्छ’ में शर्मा + असि है। मैंने कहा कि शर्म + असि है। बोले नहीं; क्योंकि शर्मन् + असि था और न का लोप असिद्ध होगा। अतः दीर्घ न हो सकेगा। इसलिए ‘शर्मा असि’ ऐसा ही मानना पड़ेगा। हमने झट उससे अगला सूत्र बता दिया कि ‘न लोपः सुप्स्वर संज्ञा तुग् विधिषु कृति’ बस चुप हो गए। प्रयोजन यह है किसी भी प्रकार ‘शर्मा’ शब्द वेदों में दिखाने के लिए वेद मंत्रों के नाक कान मरोड़ने का भी प्रयत्न करने में ये मनचले नहीं चूकते। फिर भला शर्मा बूट हाउस, शर्मा टेलरिंग हाउस और शर्मा वाशिङ् कम्पनी लिखने में अज्ञों को क्यों संकोच होवे? ‘शर्मा होटल’ तो एक जन्म सिद्ध अधिकार ही माना जाता है।

इन बेचारों को यह तो पता ही नहीं कि शर्मा शब्द का अर्थ हिंसक (मारने वाला) है। ये लोग धातुपाठ तो पढ़े ही नहीं-नहीं तो पोप पण्डितों के पाखण्ड में क्यों पड़ते? ‘शर्मा’ शब्द की सिद्धि के लिए आज तक कोई भी पण्डित ‘शृहिंसायाम्’ के सिवाए दूसरी धातु नहीं खोज सका। ‘शर्मा’ शब्द शृहिंसायाम् से बना है। स्वामी दयानन्द ने स्वयं लिख दिया है कि-

‘सुष्ट शृणाति इति सुशर्मा राजा विशेषतः’ अर्थात् जो भली प्रकार दुष्टों को दण्ड दे (मारे) वही सुशर्मा राजा है। यहाँ सुशर्मा ब्राह्मण नहीं है। क्षत्रिय है-तब शर्मा ब्राह्मण वाची क्यों होगा? इसी प्रकार यजु. 8/8 में स्वामी दयानन्द ने सुशर्मा का अर्थ किया है कि-

‘सुष्ठु शोभनं शर्म गृहं यस्य स सुशर्मा’ अर्थात्-जिसका घर अच्छा बना हो वह ‘सुशर्मा’ हुआ। अब सोचिए घर किसका अच्छा बना हो सकता है। क्या वैश्य ‘सुशर्मा’ नहीं कहला सकता है? अवश्य-तो फिर ‘शर्मा’ ब्राह्मणवाची कैसे हुवा!!! नहीं हो सकता।

कई लोग ‘सुशर्मा’ में मनिन् प्रत्यय सिद्ध किया करते हैं। यहाँ अब हम यह एक बार ही बता देना चाहते हैं कि ‘सुशर्मा’ में मनिन् प्रत्यय नहीं है। प्रत्युत ‘मुनिः’ प्रत्यय है। यह सूक्ष्म भेद है-परन्तु पोप पण्डितों की पण्डिताई का परिचय कराने के लिए यहाँ हम लिखते हैं। औणादिक सूत्र है।

‘मिथुनेमनिः’ इससे सुशर्मा, सुधर्मा, सुकर्मा में ‘मनिः’ प्रत्यय होता है। स्वामी दयानन्द ने स्वयं लिखा है-

यत्रोपसर्गों धातु क्रियया सम्बद्धस्तत् मिथुनम्। तस्मिन् सति उक्तेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यश्च धातुभ्यः मनिः प्रत्ययः स्यात्। न तु मनिन्। स्वरभेदार्थों नियमः।

जब स्वामी दयानन्द ने भी स्पष्ट लिख दिया कि ‘मनिन्’ प्रत्यय नहीं है-तो आज तक ‘सुशर्मा’ में ‘मनिन्’ प्रत्यय लिखने वाले परास्त हो गए। यहाँ इतने शब्द लिखने का प्रयोजन यही है कि यदि पाण्डित्य का अभिमान हो तो उसके लिए भी हम सदैव सन्नद्ध हैं। हम तो कहते हैं कि-

नखानां पण्डित्यं प्रकटयतु कस्मिन् धृतमतिः॥

एक बात विचारणीय और है-वह यह कि ‘शर्मा’ शब्द का प्रयोग किया भी कैसे जावे यदि स्वयं अपने गुण कर्मों का निश्चय प्रत्येक करने लगे तो व्यवस्था न रहेगी और दूसरी कोई सभा या समिति यह अधिकार नहीं रखती कि ‘शर्मा वर्मा’ की उपाधियाँ दे और यदि देवे भी तो बिना राज्य सत्ता के कौन स्वीकार करे कराएगा। हाँ! जन्मना ब्राह्मण शर्मा बने रहे और क्षत्रिय वर्मा तो फिर प्रचलित वर्ण व्यवस्था (जात-पाँत) का महान रोग सताये बिना नहीं रहेगा। यह हो ही रहा है। आर्यसमाज में भी यही हो रहा है। एक लखपती भी शर्मा है। एक व्यापारी भी शर्मा है, एक होटल धारी भी शर्मा है, एक सट्टेबाज दलाल भी शर्मा है। फलतः नाई शर्मा, खाती शर्मा, लोहार शर्मा भी सिद्ध हो चुके हैं। इनका यह ‘होलसेल’ शर्मा एक बड़ा भद्दा मजाक हो रहा है। इसलिए इस शर्मा वर्मा का प्रपंच मनुस्मृति से ही प्रारम्भ हुआ है। यद्यपि ‘शर्मवत् ब्राह्मणस्य स्यात्’ ऐसा ही मनुस्मृति में है। जिसका अर्थ यह होता है कि मंगलवाची नाम ब्राह्मण का होना चाहिए। जैसी कि वेद में आशा है कि ‘शिवोनामासि’ अर्थात् हे उपदेशक! (ब्राह्मण) तेरा नाम शिव है। तो भी लोगों ने वेद विरुद्ध शिवशर्मा बना दिया है। भला इस डबल कल्याण से क्या प्रयोजन!!! शिव का अर्थ भी कल्याण और शर्मा भी इनके मत में कल्याणवाची है। देखिए-

शर्मवत् ब्राह्मणस्य स्यात् राज्ञो रक्षा समन्वितम्।

वैश्यस्य धन संयुक्तं, शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥

यह मनुस्मृति का श्लोक ही मनुष्य समाज में विषमता फैलाए है और विशेषरूप से शूद्रों को दलित और अछूत बनाये है। मनुस्मृति ने इस श्लोक द्वारा आज्ञा दी है कि शूद्र का नाम बड़ा घृणित रखना चाहिए। जैसे घसीटाराम, कूड़ाराम, कूड़ामल (डबल कूड़ा) गरीबदास इत्यादि। शूद्र को ‘दास’ बनाने वाली इस मनुस्मृति के विरुद्ध जितना भी आन्दोलन किया जावे कम है। खेद तो तब होता है जब हम स्वामी दयानन्द के लेखों में भी देवदास आदि नाम पाते हैं यद्यपि स्वामी जी ने टिप्पणी में लिख दिया है कि दास वाले नाम निषिद्ध हैं-तो भी मूल में ऐसे भ्रमोत्पादक लेख का पाया जाना, उन जैसे आदर्श सुधारक के लिए शोभा नहीं देता। यदि स्वामी जी यह लेख न लिखते तो शायद आज आर्यसमाज में से वर्ण व्यवस्था की मुसीबत को मिटाने में हम लोगों को इतना भगीरथ-प्रयास न करना पड़ता। वास्तव में वह लेख है गौण रूप में-तो भी स्वार्थी लोग मुख्य रूप से उसको ग्रहण करते हैं और वर्ण व्यवस्था का बोझा आर्यसमाज पर बुरी तरह लादना चाहते हैं। हमारी सम्मति में तो शर्मा और वर्मा बिलकुल भद्दे और बेहूदे शब्द हैं। इनका बहिष्कार सबको मिल कर करना चाहिए। नहीं तो शनैः-शनैः यह ‘शर्मा’ का शोर जोर पकड़ जाएगा और भारतवासियों में लगभग आधे लोग शर्मा (हिंसक) बन जायेंगे। शर्मा के सम्बन्ध में अब हम यह भी बता देना चाहते हैं कि यह शर्मा शब्द का प्रयोग बौद्ध काल में प्रारम्भ हुआ है। बौद्धकाल के प्रारम्भ में भारत के ब्राह्मण यज्ञों में पशुओं का बलिदान खूब किया करते थे। भगवान् बुद्ध ने जब ऐसे कराल काल में ‘अहिंसा परमो धर्मः’ का प्रचार किया-तब भी ये लोग जिह्वा के वशीभूत होकर मांस खाने के लिए यज्ञों में पशुबध करते ही रहे। उन्हीं दिनों अन्य श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने इन हिंसक ब्राह्मणों का नाम छेड़ के तौर पर ‘शर्मा’ रख दिया; क्योंकि शर्मा शब्द का अर्थ हिंसक भी होता है। इस प्रकार न तो इतिहास शर्मा का साथ देता है और न पुराण और नाँहीं कहीं वेदों में इस का पता पाया गया। फिर न जाने यह एक आफ़त किधर से आकर भारतीयों के गले पड़ गई। इस शब्द का प्रयोग पहले कम होता था-परन्तु स्वामी दयानन्द के आन्दोलन के बाद लोगों ने अन्य सब शब्दों का परित्याग कर के परिमार्जित परिपाटी के अनुसार शर्मा-वर्मा लिखना शुरू कर दिया। अब इस का इतना अधिक दुरुपयोग हो रहा है कि शर्मा की मट्टी पलीद हो गई है। शायद यह हमारी समझ में आ भी जाता, यदि जन्ममूलक जात-पाँत के आधार पर इन शब्दों का प्रयोग न होता-परन्तु हुआ वही जो अन्य शब्दों के साथ था। जन्ममूलक ही शर्मा वर्मा बन बैठे। इसलिए ये निकम्मे शब्द अब हमारे किसी काम के नहीं रहे। इन से हमारा जितना शीघ्र पिंड छूटे उतना ही शीघ्र कल्याण हो जावे। भगवान् भारत की भँवरों को भरपूर रखने के लिए भारतीयों को इन भ्रम की भँवरों से शीघ्र निकाल देवे।

इस सम्बन्ध में अखिल भारतीय श्रद्धानन्द-दल, देहरादून के विद्वान् दलपति श्री पं. धर्मदेव जी शास्त्री सांख्य-योग-वेदांततीर्थ, दर्शनकेसरी का लेख भी हम उद्धृत करते हैं-ताकि आर्यजनता उक्त प्रशंसित पंडित जी के विचारों से लाभान्वित हो सके।

‘‘आर्यसमाज की सर्वतोमुखी प्रवृत्ति को रोकने को कारण जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था (जात-पाँत) है। अतः उसे स्वयं तोड़ना तथा दूसरों को तोड़ने की प्रेरणा करना तथा भविष्य में अपने तथा अपने सम्बन्धियों का विवाह जन्ममूलक जात-पाँत को उपेक्षापूर्वक ही करना चाहिए। यहाँ इस बात का निर्देश करना भी अनुचित न होगा कि वर्तमान शर्मा, वर्मा, गुप्त आदि उपाधियाँ तथा वाजपेयी, शुक्ल, सिन्हा, पाठक, सेठ, सेठी आदि उप-उपाधियाँ भी जन्ममूलक जात-पाँत की पोषक हैं। अतः इनका प्रयोग करना उचित नहीं। साथ ही जब तक ब्राह्मणादि न होने पर भी शर्मा आदि उपाधियाँ लगाने वाले को हम नियमानुसार प्रयोग न करने पर बाधित नहीं कर सकते अथवा छीन नहीं सकते तब तक इनका प्रयोग और अप्रयोग बराबर है। जो आर्य लोग जन्ममूलक जातियों को महत्त्व नहीं देते उन्हें भी लोक संग्रह का विचार करके सेठ, सेठी, बाजपेयी आदि उपाधियाँ त्याग देनी चाहिए; क्योंकि इन से जन्म की भावनाओं को पुष्टि मिलती है।


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